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विलम्बपर भारी खेद !
अनेकान्तकी इस किरण के प्रकाशनमें जो असाधारण विलम्ब हुआ है और उसके कारण प्रेमी पाठकोंको बहत ही प्रतीक्षा-जन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसका मुझे भारी खेद है !! मैं समझता हूं अनेकान्तके इतिहासमें यह पहला ही अवसर है जो वर्षका प्रारम्भ होजानेके बाद मध्यकी किसी किरणके प्रकाशनमें इतना विलम्ब हुआ हो। इससे कितने ही पाठकोंके धैर्यका बाँध टूट गया और वे अाक्षेर की भाषामें यद्वातद्वा जो जीमें पाया लिख गये ! एक सज्जनने लिखा"माल शुरू होनेपर नई स्कीमें रखी जाती हैं और लच्छेदार बातोंमें ग्राहक बनाये जाते हैं पर सालमें ४-६ अङ्क देकर चन्दा खतम कर दिया जाता है।।" दूसरे एक विद्यार्थी महाशय यहाँ तक कुपित हुए कि वे सम्पादक या प्रकाशकको कोसने के बजाए सारे जैन समाजको ही के.सने लगे और श्रावेशमें प्राकर लिख गये- “ऐसी जैनसमाज, जो एक ऐसे उच्चकोटि के पत्रका प्रबन्ध नहीं कर सकती. यदि वह संसारसे नष्ट होजाय, तो अच्छा है।" और कुछने अन्य प्रकारसे ही अपना रोष व्यक्त किया। यद्यपि ग्रहकोंका यह रोष मुझे बुरा नहीं लगा, मैंने उसे अपने लिये एक प्रकारकी चेतावनी समझा और साथ ही यह भी समझा कि पाठकोंको अनेकान्तका समयपर न निकलना कितना अखर रहा है और वे उसके लिये कितने अातुर होरहे हैं, परन्तु फिर भी मैं मजबूर था। मैंने पिछले वर्षके अन्त में अपनी स्थिति और प्रेसके कारण होने वाली परेशानीको स्पष्ट कर दिया था। मैं नहीं चाहता था कि प्रेसकी समुचित व्यवस्था हुए बिना पत्रको अगले सालके लिये जारी रखा जाय, और इस लिये वैसी व्यवस्थाके अभावमें मुझे पत्रका बन्द कर देना तक इष्ट था परन्तु कुछ सजनों एवं मित्रोंका अनुरोध हुश्रा कि पत्रको बन्द न करके बरावर जारी रखना चाहिये और उधर प्रेसकी श्रोरसे यह दृढ़ श्राश्वासन मिला कि अब हम जितने फार्मोंका कोई अंक होगा उसे उससे दूने-डाईगुने दिनोंमें छाप कर जन देदिया करेंगे। इसी अनुरोध और आश्वासनके बलपर आठवें वर्षका प्रारम्भ किया गया था।
अाठवें वर्षका प्रारम्भ करते हुए कोई लच्छेदार बातें नहीं बनाई गई, न ऐसी बातोंके द्वारा ग्राहक बनानेका कोई यत्न ही किया गया है और न ऐसा कभी हश्रा है कि ४-६ अंक निकालकर ही चन्दा खतम कर दिया गया हो। हमेशा यह ध्यान रखा जाता है कि ग्राहक मैटरकी दृष्टिसेटंटेमें न रहें, और मैटर भी प्रायः स्थायी होता है-सामयिक समाचारों श्रादिके रूप में स्थायी नहीं, जो पढ़कर फेंकदिया।
यह किरण मई मासमें छपनेके लिये प्रेसको दीगई थी-पाल में मैं राजगृह था और उधर बुकिंग बन्द होने आदिके कारण कागजके देहलीसे सहारनपुर पहुंचने में काफी विलम्ब होगया था। खयाल था कि यह अप्रेल-मईकी किरण जूनमें प्रकाशित होजावेगी और जुलाई में वीरशासन-जयन्तीके अवसरपर जनकी किरण निकल जावेगी; परन्तु प्रेसने अपने वादे और श्राश्वासनके अनुसार उसे छापकर नहीं दिया-वह हमेशा कम्पोजीटरों के न मिलने, किसीके बीमार पड़जानेचलेजाने अथवा प्रेसकर्मचारियों के अभावकी ही शिकायत करता रहा! हम बार बार कहते और प्रेरणा करते हुए थक गये तथा हर तरहसे मजबूर होगये ! सरकारी कायदे कानन भी कुछ ऐसे बाधक रहे, जिससे एक प्रेस दूसरे प्रेसके कामको हाथ में लेनेके लिये तय्यार नहीं हुआ। इन्हीं सब माबूरियों के कारण यह किरण अक्रबरमें प्रकाशित होरही है। अगली किरणोंका पूरा मैटर यथासाध्य शीघ्र देनेका प्रयत्न होरहा है-पेजों में कोई कमी नहीं की जायगी-भलेही वे किरणें
रूपमें निकलें । काग़ज़ भी अब आगे न्यूजप्रिण्ट न लगकर ह्वाइट प्रिंटिंग लगेगा, जो चौथे पांचवें वर्षमें लगे हुए कागज जैसा सफेद और पुष्ट होगा। इतनेपर भी जो ग्राहक अपना शेष चन्दा वापिस चाहते हो वे उसे सहर्ष वापिस मंगा सकते हैं अथवा वीरसेवामन्दिरके प्रकाशनोंमेंसे उतने मूल्यकी कोई पुस्तके मँगा सकते हैं। सम्पादक
सं