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अनेकान्त
[ वर्षे ८
प्राचरण करते हुए बारह वर्षका समय व्यतीत होगया, साथ दिन्य देशनाका पान कर रहे थे। इससे पाठक और वे घोर तपोंके साधन द्वारा चित्त शुद्ध करते हए भगवान महावीरके शामनकी महत्ताका अनुमान कर जम्मिका ग्रामके समीप भाये और वहां भूजुकूला नदीके सकते हैं भगवान महावीरने ३० वर्ष तक काशी कौशल किनारे शाल वृत्तके नीचे वैशाख शुक्ला दशमीको तीसरे पांगल, मगध, बिहार और मथुरा भादि विविध देशोंमें प्रहरके समय जब वे एक शिलापर षष्ठोपवाससे युक्त विहारकर जीको कल्याणकारी उपदेश किया। उनकी होकर चपक श्रेणीपर अरूढ थे। उस समय चन्द्रमा अन्ध-श्रद्धाको स्टार उमे ममीधीन किया। और दया हस्तोत्तर नक्षत्रके मध्यमें स्थित था, भगवान महावी ने दम, त्याग तथा समाधिका स्वरूप बखाते हुए यज्ञा.द ध्यानरूपी अग्निके द्वारा ज्ञानावरणादि धाति कम मजको काण्डोंमें होने वाली भारी हिसाको विनष्ट किया और इस दग्ध किया और स्वाभाविक प्रारमगुणों का पूर्ण विकास तरह बिजविलाट करते हुए पशुकुजको अभयदान मिला। किया।' कर्मकलंक विनाशये मंमारके सभी पदार्थ उनके जनसमूहको अपनी भूले मालूम हुई और वे सत्पथके ज्ञान में प्रतिमा पत होने लगे । और भगवान महावीर अनुगामी हुए । शूद्रों और स्त्रियोंको अपनी योग्यतानुसार वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदशी होगए । इस तरह मारमाधनका अधिकार मिला। और इस तरह भगवान भगवान महावीर अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए। महावीरने अपने विहार एवं उपदेश द्वारा जगतका कल्याण उनके समक्ष जाति विरोधी जीव भी अपना वैर छोद देते करते हुए कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम थे । उनकी अहिंसा विश्वशान्ति और स्वतंत्रताका प्रतीक प्रहरमें पावासे निर्वाण प्राप्त किया। है और इसीलिये प्राचार्य समन्तभदने उसे परमब्रह्म कहा वीरशासन और हमारा कर्तव्य भगवान महावीरका उपदेश और विद्या भगवान महावीरके शापन सिद्धान्त बड़े ही गम्भीर
और समुदार हैं वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ केवल ज्ञान होने के पश्चात् उनकी दिव्यवाणीको झेलने
वृत्तिकी उच्चभावनाघोंस श्रोत-प्रोत है क्योंकि उनका या अवधारण करने योग्य कोई गणधर नहीं था इस
मूलरूप अहिमा है। वीरशासनमें अहिंसाकी बड़ी सुनर कारण यामठ दिन तक भगवान मौन पूर्वक रहे, पश्चात्
परिभाषाएँ बनाई गई है जो अन्यत्र नहीं मिलती। उनमें राजगृह के विपुलगिरिपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभि
दर्जे व दर्जे अहिंसाक झमिक विकासका मौलिक रूप जितनक्षत्रमें भगवान महावीरके शापनतीर्थ की धारा
विद्यमान हैं जिनमें अहिंसाको जीवन में उतारनेका बड़ा ही प्रवाहित हुई। उनकी सभाका नाम समवसरण था और
सरल तरीका बतलाया गया है। साथ ही उसकी महत्ता उममें देव दानव, मनुष्य, पशु-पक्षी वगैरह सभोको
पवं उसके व्यवहार्यरूपका मनोरम कयन विदित है जिस पमुचित स्थान मिला, सभी मनुष्य निर्मच बिना किसी
पर चलने से जीवात्मा परम्मा बन सकता है अहिंसा भेदभावके एक स्थानपर बैठकर धर्मोपदेश सुन रहे थे।
भारमबज की वृद्धि होती है क रता और कायरताका यिनाश मनुध्यों की तो बात क्या उस समय सिंह, हिरण, सर्प,
होता है। मानवताके माथ साथ नैतिकरित्रमें प्रतिष्ठा नकुल और चूहा विल्ली आदि तिपंचों में भी कोई वैर
और बलका संचार होता है और मानब सत्यताकी और विरोध दृष्टिगोचर न होता था वे सब बड़ी ही शान्तिके
अग्रसर होने लगता है, स्वार्थवासना और विषयलोलुपता धवलामें भी भगवान महावीरत तपश्चरणका काल १२ जैसी घृणित भावना फिर उसके मागेमें बाधक नहीं हो वर्ष पांच मास १५ दिन बतलाया है ।
पाती। विश्वविभूनि महात्मा गांधी महावीरकी अहिंसा १ देखो, निर्वाण भक्ति पूज्यपादकृत १० से १२ तक । अहिंसा और सत्य पाशिक पालकमें अाज विद्यमान हैं। २ पातंजलि योगसूत्र ३५. ३ वृहत्स्वयंभू०-११६ अत्य और अहिंसा । एक देश निष्ठासे ही वे विश्वक ३ हरिवंश पुगगा २-६१ निलोय १० १-६६, ७०, ध. महात्मा बन सके है और इस समय समूचे मारतका प्रखण्ड,०वर्ष २ कि.८
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