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अनेकान्त
प्रतिष्ठित थीं। जैनसाहित्य और इतिहासके पृ० ५३० में श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमीने इस मन्दिरका निर्माता निदा शको लिखा है। बीरनिर्वाण संवत् २१०० के लगभ गोम्मटारटीका कर्ता नेमिचंद्र गुजरातसे लाला ब्रह्मचारी के से यहाँ पधारे थे वही मन्दिर में ठहरे थे इ491 मी उक्त ग्रन्थ में निर्देश है।
यहाँके ३२ जैन मन्दिरोंमेंसे कइयोंके खंडडर आज भी विद्यमान है, पर ८० हजार मूर्तियोंमें एक भी मूर्तिका नहीं पाया जाना सचमुच श्राश्चर्यका विषय है। । मेरे नम्र मतानुसार मुगलोंके आक्रमणके भय से जितनी मूर्तियां स्थानोंतरित की जा सकीं कर दी गई अवशेष बडक भूमिगृह एवं आसपास के स्थानोंमें छिपा दी गई होंगी। कुछ वर्ष हुए श्रीविजयनीतिसूरिका यहां पधारना हुआ और उन्होंने जैनमन्दिरोंकी वर्तमान दुरवस्था देख जीर्णो द्वारका काम प्रारंभ करवाया। फलतः तीन चार मन्दिरों । फलतः तीन चार मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो चुका है बाकीका काम चालू है हम । जीर्णोद्धारित मंदिरोंकी प्रतिष्ठाके समय वहां मूर्ति नहीं होने कारण अन्य स्थानोंमे मूर्तियां मंगवाकर प्रतिष्ठत की गई पर इसके पश्चात् खुदाई करते हुए कई मूर्तियं उपलब्ध हुई हैं जो कि मंदिरमे रखदी गई है इन मूर्तियोंमें मूर्ति ferrer भी थी जो दि० समाजकी देख रेख में है । इस मूर्तिका लेख व रेखाचित्र मुझे भी दुर्गाशंकरजी श्रीमाली
थोड़ा तथा
है
द्वारपर
मंदिर के लेख देने लिखा है कि पीछे जाकर एक जैन मंदिर है जो पुराना है बड़ा दिगम्बरी मालूम होता है। भीतर वेदके कमरे पद्मासन मूर्त्ति पार्श्वनाथ व यक्षादि है भीतर प्रतिमा नहीं शिखर बहुत सुन्दर है। इसकी में पाछे तीन मूर्ति फेरी पद्मासनप्रातिहार्य साइन किन है इसकी बगल में एक वासन जैन मूर्ति है दूसरी बगल वासन हाथ ऊंची है। ऊपर पद्मामन है ।
१ मेरा अनुमान है कमान निरीक्षण कर मन्दिरोंके श्राम पास की जगह खुदाई हो तो और भी मूर्तियें मिन जायेंगी। किसी लगनशील विद्वानकी देखरेख में किसी उदारमना धन के द्वारा यह कार्य करवाया श्रावश्यक है।
जाना
एवं लक्ष्मीनारायण जी की कृपासे प्राप्त हुआ इस प्रकार है
[ वर्ष ८
है प्राप्त लेख
"संवत १३०२ वर्षे माथ सुदि ६ गुरौ श्रीमूलपंचे।" चित्तौड़ और जैन समाज के सम्बन्धमें उपर्युक प्रासंगिक निवेदन कर देनेके पश्चात् खके मूल विषय
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पर आता हूँ। चित्तौड़ के किलेपर सबसे महत्व के एवं दर्शनीय स्थानोंमें जैनकीतिस्तंभ एवं महाराणा कुंभा कीर्तिस्तंभ हो मुख्य हैं। भारतीय शिल्पके ये अपूर्व प्रक हैं। पहला कीर्तिस्तंभ ७५ ॥ । फुट ऊँचा, नीचेका व्यास ३१ फुट ऊपर का १२ फुट है। यह ऊँचे स्थानपर बना हुआ होनेके कारण काफी दूरीमे दिखाई देता है यह मंजिला ७ है बाहर और सुन्दर कारीगरी है जैनकारित होने के कारण चारों ओर जैनमूर्ति बनी हुई है। दूसरा कीर्तिस्तंभ इसके पीछेका बना हुआ होने कारण पहले में जो त्रुटि रह गई थीं उनकी पूर्ति करके उसे अधिका सुन्दर एवं कलापूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। यह बादरसे को आकर्षक है ही पर मंजिला होनेपर भी कहीं अन्धकार एवं सुभीनेका अनुभव नहीं होता । हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियांका तो यह जो संग्रहालय है। अतः मूर्तिविज्ञान के अभ्यासांके लिये यह अत्यन्त महत्वका है।
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सबसे ऊपरी मंजिल मे २ बड़ी प्रशस्तिाँ लगी हुई है जिसमें इसके निर्माणका इतिहास है। प्रशस्तियोंके दो खंडों के स्थान रिक्त पड़े हैं। ये दोनों कीर्तिस्तंभ वास्तव में एक अद्भुत शिवप्रतिष्ठान है जिनको देखते हो उनके निर्माता कुशल शिल्पियों एवं श्रर्थव्यय करनेवाले उदारमना धनकुबेरों के प्रति सहज श्रद्धाका भाव जागृत होता है दर्शक के मुंह से बरबस उनकी प्रशंसामें वाह वाह शब्द निकले बिना नहीं रहते। मैंने तो इनके दर्शनकर अपनी उदयपुर यात्राको सफल समझी। खेद है कि वहां अधिक समय तक रहकर वहांके उन स्मारकोंके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश बनेकी मेरी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकी। फिर भी उस स्मृतिको बनाये रखनेके लिये यत् किंचित प्रकाश डाला जारहा है श्राशा है अन्य विद्वान् इसपर विशेष प्रकाश डालने की कृपा करेंगे ।
जैनको स्तंभ के निर्माता एवं निर्माणकलाके म में अभी तक मतैक्य नहीं हैं। अतः पहले विभिन्न मतोंको