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वीरसेन स्वामीके स्वर्गारोहण-समयपर एक दृष्टि
(ले०--न्या० पं० दरबारीलाल जैन, कोटिया)
कुछ विद्वानों का मत है कि धवलाटीका लिवन में २१ भी इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। दूसरे यह भी वर्ष लगे हैं अत: जयधवलाटीकामें भी इतना समय अपेचन सम्भव कि गुरु व ग्मन नामी वृद्धवके कारण अथरचहै। चूकि जय पवनाका दो निह ई भाग वीरमन म्वामीके ना दकार्यमे विराम लेकर प्रारम-माधनाके निमित्त अन्यत्र शिष्य जिनमन स्वामीने रचा है और प्रारम्भका एक-तिहाई विहार कर गये हों अंर शिष्य जिनसन दूसरी जगह हो भाग वीरमन स्वामीका रचा हुआ है अतएव दो-तिहाई और ऐपी हाल में उन्हें साक्षात् परामर्श न मिल सकने में भागकी रचना १४ वर्ष और एक-तिहाई भागकी रचना उनके द्वारा रचित पूर्वभागको देखकर ही अपना अग्रिमभाग ७ वर्ष में हुई होगी। प्रो. हीरालाल जी श्रादि कुछ विद्वानों निपेनने लिम्बा हो। तीरे प्रशस्ति लिखने का प्रश्न ग्रंथ की यह मान्यता है कि धवलाकी समाप्तमन ८१६ में हुई समाप्तिके बाद ही प्रस्तुत होता है ...- पहले नहीं। अब जब है, धनलाके ममाप्त होने के बाद ही वीरमन म्वामीने जय- जयधवजा माप्त हुई तब जिनमेनके सामने यह प्रश्न धवलाका कार्य हाथ में ले लिया होगा और ७ वर्ष तक उप उपम्ति हुआ कि जयधवलाका प्रशस्ति कौन लिखे ? क्यों करते रहे होंगे। बादमें स्वर्गवास होजाने की वजह ही वे कि जयधवला टीका गुरु (वीर पेन) और शस्य । जिनम्न) जयधवलाका कार्य पूरा नहीं कर पक और इस लिये उनके दोनोंने मिलकर रची थी। और इस लिये गुरु कीरसेन शिष्य जिनमेन स्वामीको वह पूरा करना पड़ा। अत: स्वामी भी जयधव नाकी प्रशस्तिक लिखने में साझेदार थे। वीरमेन स्वामीका म्वर्गारोहया समय मन 1+७-२३ इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि बृद्ध गुरुने प्रशस्ति क लगभग मानना चाहिए।
लिखनेका भार अपने विनी एवं प्रतिभापम्पन्न प्रिय शिष्य . हम मान्यताका एक माधार यह भी बनताना नाता
जिनमनपर छोड़ दिया होगा और उन्हें पके सम्बनेकी किजिनमन स्वामीने जयपधलाका अगला भाग वामन
प्राज्ञा देदी होगी जब हम इस विचारको लेकर जयधवता स्थामा पूर्व रचे गये भागको देखकर लिखा कहा। यदि
की समाप्ति प्रशस्तिके उप ३५ वें पद्यको ध्यान से पढ़ते हैं वीरपन स्वामी उम समय जोवित होते ना जिनसेन को जन जिसमे जिनम्न स्वामी कहते हैं कि यह पुरा प-शामन के बनाये हुए पूर्वाद्ध को ही देख कर पश्चार्धको पूरा करने का
(पुण्य-प्रशस्ति । गुरु (चीरमन स्वामी की प्राज्ञामे लिख। या श्राव. यकता थी? वे वृद्ध गुरुके चणाम बैठकर उस है' नो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वीरपेन स्वामी पूरा कर सकते थे। अत: इपर यही निकर्ष निकालना
रोहण ई०८२३ लगभग नहीं हुआ बल्कि जयधवः । पड़ता है कि जयधन नाक कार्यको अधुरा हा छोड़कर स्वामी की समाप्तिक समय (४० ८३७) क कुछ वष बाद हुश्रा वीरसेन दिवंगत हो गये थे।
और वे जयधवला प्रशस्तिक लिखने के समय मौजूद थे। पन्त ये दोनों ही प्राधार विचारणाय प्रथम तो यद्यपि उप्रशम्तिके ३६ - पद्यमें उन्होंने यह भी लिखा यह कोई अ.नवार्य एवं आवश्यक नहीं है कि गुरुक अस्ति. है कि 'गुरुके द्वारा बिस्ता लिखे गये पहले के आधे भाग स्वमें गुरुके समीप रहकर ही ग्रन्थरचनादिका कार्य किया को देखकर ही उत्तर भागको जिम्बा है।' पर उनका यह जाय, अथवा पाप रहते हुए भी उनका पूर्वरचित रचनाको जिवनम उपर्युन विचार में कोई बाधक नहीं है, क्योंकि प्रादर्श बनाकर उसका श्रोकन न किया जाय । साक्षात गुरकी भौज रगीमें भी गुरु जैसी पद्धतिको अपनाने के लिये परामर्श लेते हुए भी कितनी ही विशेषताओं का प्रदर्शन जिन पेनने पुर्वभागको देखा होगा तथा वीरमन स्वामीने और परिज्ञान उनकी कृतियोंसे होता है। वर्तमान समय में वृद्ध गादि के कारण जाधवत के अगले कार्यको वयं न
कर निनसेन के सुपर्द कर दिया होगा । इसमे यह १ बा. ज्योतिप्रमाद जी एम. U ने धवला के मान-संबंध
विदित होता है कि नीरम्मनस्वामीका स्वर्गारोहगा सन ८२३ जो . या विचार हाल में प्रस्तुत किया है उसे अभी यहां छोड़ा जाता है।
में न होकर जयधवनाकी समाप्तिममय शक सं० ७५६ (ई.
--लेम्वक २ जयघवला मुद्रन, प्रस्तावना पृ. ७५ ।
पन् ८३७) के कुछ वाद हुधा है।