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अनेकान्त
[वर्ष
रत्नकरण्डके उपान्त्य श्लोक पर विचार स्थलों पर किया है. कृपया बतलाइये कि वे तीन स्थल ___ वसुनन्दी वृत्त के मंगल में 'समन्तभद्रदेव' शब्द पाया कौनसे हैं ?” मेरा ख्याल था कि वहां तो किसी नई है और कथाकोशके किस्से में समन्तभद्रको योगीन्द्र कहा, कल्पनाकी प्रानश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं सन इमलिये वादिराज द्वारा उल्लिखित 'देव' और 'योगीन्द्र' स्थलोंकी संगति सुस्पयरे जो टीकाकारने बतला दिये हैं वे ही हैं, प्रभाचन्द्रका कथाकाष देखा भी न itबिर भी अर्थात् दर्शन ज्ञान और चारित्र क्योंकि वे तत्वार्थसूत्रके उपमें योगीन्द्रका उल्लेख माना जा सकता है. वादिराजसे विषय होनेस मर्वार्थविद्धि में तथा अकलंक और निद्याकोई तीस तीस वर्ष पश्चात् लिखे जाने पर भी गद्य कथा- नन्दि की टीकामों विवेचित हैं और उनका ही प्ररूपण कोश वादिराजसे पूर्ववर्ती प्रमाण है, इत्यादि यह सबतो रत्नक एड कारने भी किया है। इस प्रकार न्यायाधार्यीकी न्यायाचार्यजीके 'जीको लगता है किन्तु मैंने जो रत्नकरण्ड इस शंकाका भी समाधान हो जाता है। और तो कोई के उपान्त्य श्लोकमें पाये हुए 'वीतकलंक' 'विधा' और प्रापत्ति उक्त अर्थ में वे बतला नहीं सके। अतएव उस 'सवार्थसिद्धि' पदोंमें प्रकलंक, विद्यानन्द और सर्वार्थसिद्धि श्लोकमें अलंक, विद्यानन्दि और स्वार्थ सिद्धिके उल्लेख के संकेतका उलेख किया था वह उन्हें बहुत ही विचित्र ग्रहया करने में कोई बाधा शेष नहीं रह जाती। सपना' प्रतीत हुई है और उसमें उन्होंने दो श्रापत्तियां ह-प्राप्तमीमांसा सम्मत प्राप्तका लक्षण उठाई हैं। एक तो यह कि मेरी उक्त बात "किमो भी मैंने अपने पूर्व लेखमें अन्तत: जिन तीन बातों पर शास्वाधारसे सिद्ध नहीं होती, इसके लिये आपने कोई विचार किया था उनके संबंध न्यायाचार्यजीकी शिकायत शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत भी नहीं किया।" किन्तु मेरी उक्त है कि मैंने उन्हें 'उपसंहार रूपसे चलती सी लेखनी में कल्पनामें कौनसे शास्त्रापार व शासप्रमाण की आवश्यकता प्रस्तुत की हैं ।" मालूम नहीं पंडितजीका 'चलतीमी पंडितजीको प्रतीत होती? 'वीतलंक' और अकलंक' लेखनी' से क्या अभिप्राय है? मैंने अपने उक्त लेखांश में सर्वथा पर्यायवाची शब्द बहुधा और विशेषतः श्लेष काव्य यह बताने का प्रयत्न किया था कि प्राप्तमीमांसामें जो में प्रयुक्त किये जाते हैं। उदाहरणार्थ लघु ममन्तभद्ने 'दोषावरण याहानि' मादि रूपसे प्राप्तका स्वरूप बतलाया अकलंकका उल्लेख 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्द प्रणम्य गया है उसमें सुपिपामादि वेदनीकर्मजन्य वेदनाओं को निजभवस्या' प्रादि पद्यमें 'अमल' पद द्वारा किया है। दोषके भीतर ग्रहण नहीं किया जा सकता। इपके लिये यथार्थत: रस्नकरण्डके उक्त पद्यमें जब तक किसी श्लेषात्मक मैंने जो बहिन्तिम लक्षय:' 'निर्दोष' व 'विशीर्णदोषाशय. अर्थकी स्वीकृति न की जाय तब तक केवल 'मत्' या पाशबधम्' जैस पदोंको उपस्थित करके यह बतलाया था 'सम्यक' अर्यके लिये बीतकलंक' शब्द का प्रयोग कुछ कि उनसे ग्रंथकारका यह अभिप्राय स्पष्ट है कि वे दोषके अस्वाभाविक और द्राविडी प्राणायाम सा प्रतीत होता है। द्वारा केवल उन्हीं वृत्तियों को ग्रहण करते हैं जिनका केवली विद्यानन्दको 'विद्या' शब्दसे व्यक्त किये जाने में तो कोई में विनाश हो चुका है। 'अब यदि अधातिया कर्मजन्य भापत्ति ही नहीं है। नामके एक देशसे नामोल्लेख करना वृत्तियोंको भी प्राप्त सम्बंधी दोषों में सम्मिलित किया जाय लौकिक और शायदोनोंमें रूद है। पार्श्वसे पार्श्वनाथ, राम तो केवलीमें अघातिया कर्मोंके भी नाशका प्रसग पाता है स रामचन्द्र, देवसे देवनन्दिकी अर्थव्यक्ति सुप्रसिद्ध। जो सर्वसम्मत कर्मसिद्धांत के विरुद्ध है। अतएव दोषसे वे 'सर्वार्थसिद्धि' में तमामक ग्रंथके उखको पहचानने में ही वृत्तियां ग्रहण की जा सकती हैं जो ज्ञानावरणादि कौनसी विचित्रता है और उसके लिये किस शास्त्रका आधार घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती हैं एवं जो उन कोंके साथ अपेक्षित है। इस प्रकार पंडितजीकी प्रथम प्रापत्ति में यदि ही केवलीमें विनष्ट हो चुकी हैं। स्वयंभूस्तोत्रके 'स्वदोषमूलं कुछ सार हो तो उसका भव समाधान हो जाना चाहिये। स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसास्क्रिय म् (३) भापकी दूसरी प्रापत्तिने प्रश्नका रूप धारण किया है कि आदि वाक्य भी ठीक इसी अर्थका प्रतिपादन करते हैं, "जो मापने श्लोकके 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ 'तीनों क्योंकि सयोगी केवली जिन दोर्षोंके मुनको भस्मसात् कर