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अनेकान्त
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सिद्ध नहीं होता। मुख्तार सा० तथा न्यायाचार्यजीने जिम की शिकायत करना पड़ती है, क्योंकि जिस आधार पर वे आधार पर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र कृत स्त्री रनकरण्ड टीकाकी पार्श्वनाथचरितमे पूर्ववर्ती मान रहे हैं कार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसमें उन्हें बड़ी भ्रान्ति हुई है। उनका माधार मुख्तार उसके लिये प्रमाया दिये हैं उनमें जान पड़ता है कि उक्त सा. के शब्दों में यह है कि "प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमार दोनों विद्वानों से किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्र वंशी राजा भोजदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंह का कथाकोष स्वयं देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या नरेशके राज्यकाल में हुए हैं और उनका प्रमेयकमलमातंगा' किमीसे सना कि प्रमाचन्द्रकृत कथाकोपमें समन्तभद्रके भोजदेवके राज्यकालकी रचना है. जब कि वादिराजसूरिका लिये 'योगीन्द्र' शब्द पाया है। केवल प्रेमोजीने कोई वीम पाश्वनाथ चरित जयसिंहक राज्य में बन कर शक संवत वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथ.श्रोंमें कोई १४७ (वि.सं. १८.) में ममाप्त हुआ है।" मुग्तार विशेष फर्क नहीं, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्र की गद्यकथा
मा के इस लेखमे मालूम होता है कि वे पार्श्वनाथ चरित में का प्रायः पूर्ण अनुवाद है।" उसीके श्राधारपर श्राज उक्त उलिखत जयसिंह और प्रभाचन्द्र द्वारा उल्लिखित जयसिंह दोनों विद्वानोंको “यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं देको एक ही समझते हैं, और वह भोजका उत्तराधिकारी होती कि प्रभाचदने भी अपने गद्य कथाकोषमें स्वामी
परमारवंशी नरेश किन्तु इस बातका उन्होंने जरा भी
ने समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लं खित नहीं किया है।"
विचार नहीं किया कि जब वादिराज शक १४७ (वि० सं० यद्यपि मेरी टिम उम शब्दका वहां होना न होना कोई
१०८२) में जयसिंहका उल्लेख कर रहे हैं उस समय महप नहीं रखता, क्योंकि उसके होनेसे भी उक्त परि
और उपसे भी कोई तीस वर्ष पश्चात तक धार के सिंहापन स्थितिमें उससे बादिराजके पद्य, देवागमकारसे तात्पर्य पर तो भोजदेव दिखाई देते हैं और जयसिंहदेवका उम स्वीकार नहीं किया जा सकता। तथापि मुझे यह माश्चर्य
समय वहां पता भी नहीं है। बात यह है कि वादिगजके अवश्य होता है कि जो विद्वान दूसरों की बात बात पर
जयसिंह चालुक्यवंशी थे जिनके परमारवंशी राजा भोजको कठोर न्याय और नुकताचीनी किये बिना नहीं रहते, वे भी
पराजित करने का उल्लेख शक १४५ के एक लेखमें पाया पक्षपातकी और अपने न्यायकी बागडोर कितनी ढीली
जाता है । प्रभाचन्द्रका न्यायकमद चन्द्रोदप भोजदेवक कर लेते हैं।
उत्तराधिकारी जयसिंह परमारके काल में रचा गया था और (क) प्रभाचन्द्रका वादिराजसे उत्तरकालीनत्व- ये नरेश पि. . ११२ में व उसके पश्चात गोपा
यह प्रमाण की कचाई इस कारण और विचारणीय हो बैठे थे । रत्नकरण्डटीकामें न्यायकु०का उल्लेख पाया जाता जाती क्यों कि उसीके आधार पर यह दावा किया जाता है जिसे उसकी रचना उक्त समयसे पश्चत् की विद्ध है कि "स्वामी ममन्तभद्र के लिये योगीन्द्र' विशेषण के होती है। इस प्रकार पार्श्वनाथ चरितकी रचना रनकरण्ड प्रणेगका अनुपन्धान वादिराजमूरिके पार्श्वनाथचरितकी टीकास कमसे कम तीम पैंतीस वर्ष पूर्ववर्ती चिद्ध होती है। रचनामे कुछ पहले तक पहुंच जाता है।" न्यायाचार्यजीने प्रभाचन्द्रकृत प्रमेय कमतमातण्ड, न्यायकुमुदन्द्र, तो यहां तक कह डाला है कि “वारिराज जब प्रभाचन्द्र के श्राराधनागद्यकथाकोश और महापुराण टिपणाकी अंतिम उत्तरवर्ती है तो यह पूर्णत: संभव है कि उन्होंने प्रमाचन्द्र प्रशस्तियों में कर्तान अपने गुरु पद्मनन्दि व अपने मायके के गद्यकथाकोष और उनकी स्नकरण्ड टीकाको जिसमें नरेश भोजदेव या जयसिंहदेवका तथा स्थान धाराका रस्नकरण्डका कर्ता स्वामी समन्तभद्र को ही बतलाया गया उल्लेख किया है। किन्तु रत्नकरण्डटीकामें ऐसा कुछ नहीं है, अवश्य देखा होगा और इस तरह वादिराजने स्वामी पाया जाता । इसीसे न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार जीके समन्तभद्र को लक्ष्य (मनःस्थित ) करके उनके लिये ही मतानुसार तो रस्नकरण्डटीकाके उन्हीं प्रभाचन्द्रकृत होने की 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग किया है।"
संभावना अभी भी खास तौरम विचारणीय है (न्याकु० यहां फिर मुझे उक्त विद्वानों की शिथिन प्रामाणिकता भाग २ प्रस्ता. पृ. ६७) प्रभाचन्द्रका गद्य कथा कोष भी