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अनेकान्त
वर्ष ८
यदि मैं कहूं कि मुख्य विषयको छोड यह जो वे बात बात (ग) 'देव' का वाचणार्थ पर अपने न्यायशास्त्रके ज्ञानका दुरुपयोग करते हैं एवं वादिराजने जिन तीन पयों में क्रमसे स्वामी कृत देवागम युक्ति, तर्क और अनुमानके उस्कृष्ट नियमोंमे हीन व्यवसाय देवकृत शब्दशास्त्र और योगीन्द्रकृत रस्नकरण्डकका उल्लेख कराते हैं उससे वे धीरे धीरे विक्षप्तताको ओर बढ़ते हुए किया है उनपरमे उनका अभिमत देवागम और रत्नकरण दिखाई देते हैं। मेरे यह कहनेमे कि 'हमने पार्श्वनाथ को एक ही कांकी कृतियां मानने का प्रतीत नहीं हो।, चरितको उठाकर देखा' यह अनुमान किस नियमसे क्योंकि दोनोंके बीच देवकृत शब्दशास्त्रका व्यवधान है। यह निकलता है कि मैंने इसके पहले उसे कभी नहीं देखा था कठिन ई जैसी अन्य विद्वानोंको प्रतीत हुई बैसी स्वयं
और उससे प्रकृत विषय कैस निर्णयकी ओर बढता है ? पंडितजी को भी खटकी थी जैसाकि उन्होंने अब प्रकट पंडितजी अप्रयोजक प्रश्न उठानेका मुमपर दोष रोपण किया है। किन्तु उसके परिहारमें अब आपने मुख्तार करते है और स्वयं उस प्रणालीको क्रियात्मक रूप देकर साहबके उस लेखका उल्लेख किया है जिसमें बतलाया दिखाते हैं। क्या जो पुस्तक एक वार उठाकर देखली जाय गया है कि देवागमकी वसुनन्द कृत बृत्तके अन्त्य मंगल में उस दूरी वार उठाकर देखना न्यायशास्त्रके विरुद्ध है? 'समन्तभद्रदेवाय' पद दो वार पाया, व आराधनाकथामुझे तो जब जब काम पड़ा तब तब मैंने पार्श्वनाथ चरित कोषको कथामें ममन्तभद्रको यो न्द्र कहा है। इसपरसे को उठाकर देखा और पढा है. उक्त लेख लिखते समय न्यायाचार्यजीका मत है कि मुख्तार साहयका यह भी उसे उठाकर देखा और पढ़ा था, तथा मागे भी जब प्रमाण सहित किया गया कथन जीको लगता है और भव जब काम पढ़ेगा तब तब उसे उठाकर देखना पड़ेगा, यदि इन तीनों श्लोकोंके यथास्थित आधारसे मी या क्योंकि बिना ऐसा किये मैं उस अन्य के संबंध में कुछ लिख कहा जाय कि वादिराज देवागम और रत्नकरण्डका एक न मकुंगा । शायद न्यायाचार्यजीको उनके विशेष योपशम ही कर्ता स्वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं।' के कारण एक बार पढी पुस्तक की सब बात सदैव याद रह किन्तु मेरा पंडतजीसे कहना कि उक्त बात मके जाती होगी और उन्हें फिर उसके उल्लेखोंके सम्बन्धपर जी को भले ही लगे, परन्तु बुद्धि और विवेकसे काम लेने बिखते समय भी उसे उठाकर देखनेकी अावश्यकतान पर श्रापका निर्णय बहुत कच्चा सिद्ध होता है। पार्श्वनाथपड़ती होगी। किन्तु मेरा क्षयोपशम तो इतना बलिष्ट चरितके जिस मध्यवर्ती श्लोकमें देवकृत शब्दशास्त्रका नहीं है। मैं तो हर बार पुस्तक देख लेता हूँ, क्योंकि प्राय उल्लेख पाया है उसे समन्तभद्रपरक मान लेने में केवल पुरानी पढ़ी हुई बातोंका विस्मरण होजाता है या उनके वसुनन्द वृत्तिका 'समन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त ज्ञानमें कुछ अस्पष्टता पाजाती है। यदि मेरी यह पद्धति प्रमाण नहीं है। एक तो यह उन्लेख अपेक्षाकृत बहुत न्यायाचार्यजीको 'बहुत भापत्ति के योग्य' दिखाई देती है, पीछे का है। दूसरे, उक्त वृत्तिके अन्स्य मंगल में जो वह तो मैं उनसे क्षमायाचना करने के अतिरिक्त और किसी पद दो बार आगया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्रकार उनका संतोष नहीं कर सकता। हां यथार्थतः स्वामी समन्तभद्र 'देव' उपनामसे भी साहित्यिकों में न्यायाच यंजी स्वयं भी इस प्रकारकी आपत्तिसे वंचित प्रसिद्ध थे। वहां तो उस पदको दो वार प्रयुक्त कर यमक नहीं है क्योंकि उन्होंने लिखा है कि अब मैंने 'जन्म-जरा- और परमात्मदेवके साथ श्लेषका कुछ चमकार दिखलाने जिहासया' इस ४१ वे पद्य के प्रागेका ५० वा पच देखा का प्रयत्न किया गया है। तीसरे, समन्तभद्रको उक्त 'देव' तो वह मेरी विवक्षा मिल गई।" क्या न्यायाचार्यजीके का वाच्य बना लेनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस हीन्यायानुसार मैं नहीं कह सकता कि उनकी यह पंक्ति श्लोकमें वादिराज ने उनके कौनसे शब्दशास्त्रका संकेत तो बहुत ही भापत्तिके योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनसे किया है। यह प्रश्न इस कारण और भी गंभीर होजाता यह मालूम होता कि उन्होंने इससे पूर्व स्वयंभू स्तोत्रका है क्योंकि वादिराजसे पूर्व देवनन्दि पूज्यपादका जैनेन्द्र ५० वा पच कभी नहीं देखा था। इत्यादि ।
व्याकरण सुप्रसिद्ध होचुका था और जैन साहित्यके दो