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किरण ३ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्त मीमामाका एक कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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महारथियों, हरिवंश पुराणाके कर्ता तथा प्रादिपुराणक कर्मा मालासे निर्विवाद सिद्ध कि शक संवत् ००५ से लेकर ने इन्हीं का उल्लेख 'देव' पद द्वारा अपने प्रथों में किया है १५ वी १६ वीं शताब्दि तक देवनन्दि पूज्यपाद और उन उन्होंने समन्तभद्र का उल्लेख भी किया है, किन्तु उनके के व्याकरण शासकी प्रसिद्धि धाराप्रवाह रूपसे भक्षुगा उल्लेखोंमे उनकी ख्याति शब्दशाकार के रूप में बिलकुल बनी रही है। इसी परम्परा के बीच हम शक सवत् १४७ नहीं पाई जाती । आदि पुराण में तो समन्तभद्रका यश वादिराजका पार्श्वनाथचरितान्तर्गत यह उस्लेख पाते हैंकवि, गमक वादी और वाग्मियों में सर्व श्रेष्ठ वर्णन किया अचिन्त्यमहिमा देव: सोऽभिवन्द्यो हितैषिण।। गया है, किन्तु उनके किसी व्याकरण जैसे ग्रंथका वहां शमाश्च येन मिद्धन्ति साधुत्यं प्रतिजाम्भिताः॥ कोई संकेत नहीं इसके विपरीत देवनन्दि पूज्यपाद और इस पद्यको स्वयं मुख्तार सा० ने समाधितन्त्रकी उनके शब्दशास्त्रकी प्रसिद्धि परम्परा ध्यान देने योग्य है- प्रस्तावना (सन् १९३१) तथा सरसाधुस्मरण मंगल पाठ
(1) जिनमेन अपने हरिवंशगगग में कहते हैं- (सन् १६४४) में पूज्यपादके लिये ही उद्धृत किया है। इन्द्र चन्द्रानन्दम्याडिव्याकरणे तणाः । पार्श्वनाथ चरितान्तर्गत इस लम्बी गुर्वावलीमें छत पद्यको देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ छोर अन्य कोई पूज्यपादका स्मरण करने वाला पच नहीं (२) आदिपुगण जिनमनाचायेन कहा है-- रह जाता जो कि चिन्तनीय है। प्राचीन साहित्यिक परकवीनां तीर्थकृत् देवः किंतरां तत्रबर्यते । म्परामें वादियों में जो कीर्ति और प्रसिद्धि समन्तभद्रकी पाई विदुषां वामनध्वसि तीथं यस्य वचीमयम् ॥ जाती है वैषी ही कीर्ति देवनन्दि पज्यपादकी शब्द(३) धनंजयने अपनी नाममालामें कहा है- शास्त्रियों में उपलब्ध होती है। ऐसी अवस्थामें केवल प्रमाण मकलं कस्य पूज्यपादस्य लक्षण म । वसुनन्दं वृत्तिमें 'समन्तभद्रदेव' का उल्लेख मिल जाने
द्विपन्धानकवेः कान्यं रनत्रयमकटकम् ॥ मात्र वादिराजके उस उल्लखको मत समस्त परम्पराक (४) सोमदेवने अपनी शब्दावन्द्रिकामें कहा है- विरुद्ध समन्तभर परक घोषित कर देना प्रतिसाहसका कार्य अनु पूज्यपाद वैयाकरणाः।
है। यह बात मात्र एक अंधपरम्परा मम्बन्धी हठाग्रहके (५) गुगानन्दिने जैनेन्द्रप्रक्रियामें कहा है
कारण न्यायाचार्य जीके जीको भले ही लगे, किन्तु जब तक नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । वादिराजके समयमें समन्तभद्रकी देवनामसे प्रसिद्धि और यदेवात्र तदन्यत्र यन्नानास्ति न सक्वचिन ॥ उनके किसी शब्द शास्त्रकी मी स्यानिक स्वतंत्र प्रमाण (६) शुभचन्द्र अपने ज्ञानाणवमें कहते हैं- उपस्थित न किये जावे तब तक उनकी यह कल्पना विचाअपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसंभवम् । रक समाजमें कभी प्र.झ नहीं हो सकती। कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यने । (घ) योगीन्द्रका वाच्यार्थ
(७) पद्मप्रभमलधारिदेव अपनी नियमसार टीका यह 'देव' सम्बन्धी पद्यका व्यवधान जहां तक उपमें कहते है
स्थित है वहां तक यह तो कभी माना ही नहीं जा सकता शब्दाब्धीन्दं पूज्यपादं च वन्दे
कि उसके ऊपर और नीचे के पोंमें वादिराजने एकही (5) शुभचन्द्र कृत पांडवपुगणमें पाया जाता है- प्राचार्य के दो ग्रंथोंका अलग अलग दो उपनामौके साथ पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्येः पुनातु माम् । उख किया होगा। उम पद्यमें योगीन्द्र ऐसा गुणवाचक व्याकरणाणवो येन तोर्गो विस्तीर्ण सद्गुणः॥ विशेषण भी नहीं है जिसकी वहां अर्थ में कोई सार्थकता
ऐसे उल्लेख जैनसाहित्यमें और भी अनेक है। सिद्ध होती हो। वह तो रस्नकरण्डक ग्रंथके कर्ताका स्वाम शिलालेखों में भी
ही नाम या उपनाम है जैसे समन्तभद्र का स्वामी। इस सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयम्। परिस्थितिमें समन्तभद्रके श्राराधनाकथाकोषके प्राण्यानमें जैसे अनेक उल्लेख पाये जाते हैं। इस सब उल्लेख योगीन्द्र कहे जाने मात्रसे वह पच समन्तभद्र परक कदापि