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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(लेरक-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए०)
गत किरणसे श्रागे] पार्श्वनाथचरितके रस्नकरणहक सम्बन्धो विचार नहीं करेगा, न अपने पाठकों को उसका कुछ भी
पता लगने देगा और बार बार निश्शंक रुपम यह दावा उल्लेखकी ऊहापोह
____ करता चला जायगा कि वे दोनो एक ही ग्रन्थकारको (एक) न्यायाचार्यजीका आत्मनिवेदन---
कृति हैं और वे स्वामी समन्तभद" "अत: यह स्पष्ट पार्श्वनाथचरितके अनर्गत देवागम और सनकरण्डके किनकरगड श्रावकाचार और प्राप्तमीमोमादिक का उसजेस्खोंकी पायापर आकर न्यायाचार्य जी लिखते हैं एक हैं और वे स्वामी समन्तभद्र है" तथा "इन सबका कि ....' मुम्तार मा० ने वादिगजमूरिक जिन दो श्लोकोंके कर्ता कहा और वे? स्वामी समन्तभद्र ।" "प्रकट कर प्राधार अपना उक प्रतिपादन किया था वे दोनों श्लोक देना चाहता है ताकि दोनोंक कतृवक सम्बन्ध में कोई मन्देह
और उनका उक्त प्रतिपादन उस समय मेरे लिये विशेष या भ्रम न रहे ?" जी लेखक उपयुक. उतना बड़ा मन्देश विचारणीय थे। एक तो वे दोनों श्लोक उक्त ग्रन्थमें और भ्रम अपने मन में रखना हश्रा भी अपने पाठकोंको व्यवधान सहित हैं। दूसरे कुछ विद्वान उमसे विरुद्ध भी निस्पन्देह और निभ्रम बन जाने के लिये ललकारे उसकी कुछ विचार रखते हैं। अतएव मैं उस समय कुछ गहरे बौद्धिक ईमानदारी में कहांतक विश्वास किया जा सकता है ? विचारकी अावश्यकता महसूस कर रहा था, और इमलिये यदि न्यायाचार्य जी अपने उस लेख में यह कह देते कि न तो मुख्तार साहबके उक्त कथनसे महमत ही होमा उक्त समस्याके कारण मैं उस प्रभार 'गहरे विचारकी और न असहमत तटस्थ रहा।
भावश्यकता महसूस कर रहा हूं जैसाकि उन्होंने अब कहा पंरितजीके इसी मामनिवेदनमे सिद्ध होजाता है कि है. तब ना यह माना जा सकता था कि वे निपक्ष विचारक कि उन्होंने अपने पूर्व लेखौ जान बूझकर प्रकृतोपयोगी है और नटस्थ रहना भी जानते है। किन्तु उनकी वर्तमान एक महत्वपूर्ण बात को छिपाया था कि वादिराज के दोनों प्रवृत्तिम तो वे न्यायके क्षेत्र में अपने को वा अयोग्य उन्लेख व्यवधन सहित होने के कारया देवागम और विचारक सिद्ध कर रहे हैं।
और रन करगडकके एक कर्तृवकी विदिमें माधक नहीं (ख) न्यायशास्त्रका दुरुपयोगकिन्तु बडे बाधक है। वे और भी लिखते हैं कि-'वहां मैंने जो यह लिखा था कि 'हममे पानिराकृत मुझे वादिराजके जितने असंदिग्ध उल्लेखम प्रयोजन या पार्श्वनाथ चरितको उठाकर देखा" उसपर भी पदिनत्री उतने ही को उपस्थित किया, शेषको छोड़ दिया गया। ।क लम्बी टिप्पणी करते हैं कि उनकी अन्तिम पंक्ति इसके अतिरिक्त एक सच्चे विचारकका कोई अच्छा तो बहुत भापत्ति के योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनसे तरीका नहीं है।" किन्तु यदि न्याया नार्य जी विचारकर यह मालूम होता है कि उन्होंने अपने प्रस्तुत लेख लिखने देखेंगे तो उन्हें ज्ञात होगा कि यह राका मच्चे विचारक तक पार्श्वनाथ चरितको उठाकर नहीं देखा था और अब का नहीं, किन्तु एक घोर पक्षपात का है। क्या कोई मेरे द्वारा यादिराज सम्बन्धी पाश्वनाथ चरितका उल्लेख मच्चा विचार क इतना बड़ा उपर्युक बाधक प्रमाणु प्राना प्रस्तुत किये जाने पर ही उपके देखन की भोर भापका सष्टमें रख ।। हुश्रा भी अपने लेख में उसपर जरा भी प्रवृत्ति हुई हैं।" इत्यादि । पंडित जी मुझे समा करेंगे