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किरण १]
लकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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परमार जयसिंहदेवके समयका बना हश्रा । ऐसी अव है। प्रभाचन्द्र के उस्लेखों संबंधी न्यायानार्यजीके भ्रान्ति स्था वादिराजके उल्लेख को रत्नकरण्ड टीका व गद्य कथा- रूपा अन्धकार को दिनकर प्रकाश की तरह' विशदतामे दूर कोषके पीछे ढकेल ने का प्रयत्न सर्वथा भ्रान्त श्रीर निराधार है। करने वाल मेरे इन सब लेग्यांशोंके होते हुए पाश्चर्य है
(७व) प्रभा चन्द्र का उल्ले का मामार विचार- पंडतज ने मुझ पर यह लांछन कैम लगा दिया कि मैंने
मैंने जो अपने पूर्व लेख में वादिराजके उक्त उल्लेखको उनके 'वादि जमे पूर्ववर्ती, ज्यादा सुस्पष्ट ऐतिहामिक पंडितनी द्वारा दबाये जाने का उल्लेख किया था जिसका प्रमाण को दबाया'? मैं ऊपर बतना ही चुका हूँ न. कि सब रहस्य अब स्वयं पंडित जीने खोल दिया है. जान करण्इटीका वादिराजकन पार्श्वनायचरितसे पूर्ववर्ती नहीं पड़ता। उपी का बदला लेने के लिये न्यायाचार्य जीने मुझ किन्तु उसमें बहुत पीछे की है। उसमें केवल रन र एडके पर यह दोषारोपण किया है कि- पो. मा. ने वादिगज का नाम स्गमा समन्तभद्र पाया जाता है. पर उसमे के उक्त उल्लेख पर जहां जोर दिशः वहां प्रभाचन्द्र प्राप्तमीचा माय एक क्तृत्वका कोई संकेत नहीं है, जब सुस्पष्ट एवं अभ्रान्त ऐतेहाधिक उल्ने वकी सर्वथा उपेक्षा कि पर्श्वनाथ चरितमें स्वाकत देवागम, और योगीन्द्र की है-इसकी प्रापने चर्चा तक भी न.ीं की है जो कि कत रत्नक एड के उल्लेख सुस्पष्टत: अलग अलग पद्योंमें यथार्थन: समस्त प्रमाणों में दनकर प्रकाश की तरह विशद है जिनके बीच देवकत शम्दशा सम्बन्धी उल्लेख वाले प्राण है और वादिराजमे पूवानी है । पच पुछा जाय तो एक और पद्यका व्यवधान भी पाया जाता है। इस तुलना प्राग्ने इस जगवा सुम्पष्ट पनि हामिक प्रमाणको दवाया है में यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि प्रभाचन्द्र का उल्लेख और जिपका आपने कोई कारण भी बतलाया है।" ज्यादा सुम्पट या विशद है । रनकरण्डटीकाका कोई
प्रभाचन्द्र का उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्न- समय भी अभी तक सुनिश्चित न हो सका है और यह करण्ड के कर्ता स्वामी मम भद हैं उन्होंने यह तो कहीं भी अभी मन्देहारमक है कि उपक कर्ता केही प्रमेयकमनप्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकरण्डक कर्ता प्राप्त मातराद श्रादि ग्रंथोंके रचयिता हैं। किन्तु वा दराजकत मीमांग भी चियिता हैं। मैंने तो अपने सर्व प्रथम लेख पार्श्वनाथ चरितमें सट उल्लेख है कि जमकी रचना शक 'जन इतिहापका एक विलुप्त अध्याय' में ही लिखा था कि १४७ में हुई थी उससे पूर्वका कोई एक भी उल्लेख रत्नरत्न करणड के कर्ता समनभद्र माथ जी स्वामी पद भी करण्डका नाम लेने वाला उपलब्ध नहीं होता, जिसमे जुड़ गया है और पूर्ववर्ती समन्तभद्र सम्बन्धी अन्य रनकरण्डके सम्बन्धका अभी तक वही प्राचीनतम उल्लव घटनाओं का सम्पर्क भी बनलाया गया है व या तो भ्रान्ति है और उसके समक्ष रत्नकरण्डटीकाका उन्लेव कोई के कारण हो सकता है या जान बूझ कर किया गाहो ऐतिहापिकता नहीं रखना क्योंकि, स्वयं न्यायाचार्यजी ही तो भी आश्चर्य नहीं।" इसके पश्च न मैंने अपने दूसरे लेख अपने एक पूर्व लेख में यह मान प्रकट कर चुके हैं कि 'स्वामी' में पुन लिखा है कि -"न्याया वायं जीने वादिगन और पद कुछ प्राप्तमीमांपाकारका ही एकान्तत: बोधक नहीं है।
भावन्द्र सम्बन्धी दो उल्लेख ऐसे दिये हैं जिनसे स्न- समन्तभद्र नामके नो अनेक प्राचार्य हुए हैं और अप्रकट करण्ड श्रावकाचार की रचना ग्न रहवीं शताब्दियं पूर्वकी भी अनेक हो सकते हैं और किमी ले ग्वक विशेषद्वारा नक सिद्ध होती है। किन्नु उपका प्राप्तमीमांसाके माथ एक साथ स्वामी पदका भी : योग करना कुछ असाधारण नहीं व व सिद्ध करने के लिये उन्होंने केवल तुलनात्मक वाक्यों है। इस प्रकार प्रभाचन्द्र के जिम उनम्व पर पडित जीन श्राश्रय लिया है, पर ऐसा कोई ग्रंथोल्लं व पेश नहीं किया हतना जोर दिया है वह न तो सुम्पट है, न अभ्रान्त है जिम में किमी ग्रंथकार द्वारा वे स्पष्ट रूप एक हो कर्ताकी और न उसका कोई ऐतिहासिक महम्य है। वह वादिगजपे कृतियां कही गई हो"
पूर्ववर्ती कदापि नहीं है, प्रकत विषय पर उपकी प्रमागता भी इपके पश्रात मैंने उसी लंग्व में टीकाकार प्रभाचन्द्र कृत याचिका और मैंने न उपकी पेक्षा और न उसे दबाया सनकरण्ड के उपान्य रजोक नारधार्थ का उल्लेख किया है किन्तु उसका उल्लेख भी किया है और निरसन भी।