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किरण ३ ]
रलकरण्ड और आप्तमीमांमाका एक कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
।
मके हैं वे पतिया का ही हैं, न कि अधातिया कमें। (१) देवागमनादि विभूतियां, विग्रहादि महोदय तथा
मेरे इस समस्त प्रतिपादनपर न्यायाचार्य जीने कोई तम्यापन ये प्राप्तके कोई जण नहीं क्योंकि ये बातें ध्यान नहीं दिया। केवल उमपर 'चलनीपा' नज़र डाल मायावियों, सरागियों एवं परस्पर विरोधियों में भी पाई कर लिख दिया है कि मैंने वहां "कुछ पद वागेका हो जाती है । न्यायाचार्यजीके अनुपार स्थिपासादिका प्रभाव अवलम्बन जिया है, जिनमें वस्तुनः दोष' शब्द के प्रयोगके विग्रहादि महोदयमहासम्मिलित है, अतएव उनके मतस भी अतिरिक्त उसका स्वरूप कुछ भी नहीं बतलाया।" किन्तु प्राप्तमीमांसाकार उपे भाप्तका कोई लक्षण नहीं स्वीकार करते। उन्होंने यह देखने समझने । प्रयत्न नहीं किया कि मरे (२: प्राप्तका नक्षण यह है कि उनमें ऐसी निर्दोषता द्वारा वहा प्रस्तुत किया गया समस्त कर्मनिद्धान्त तो इसका होना चाहिये जिससे उनके बचन युक्ति शास्त्र-विरोधी स्वरूप बतला रहा है जिसपर विचार करना उन्हें लाजमी और प्रसिद्धिप बाधित हों। ऐसी निर्दोषता सर्वज्ञक था। उसकी और भांख मीकर कंवल उस "चलतीमी ही हो सकती है जो सूक्ष्म, अन्तरित और दरम्य पदार्थों को लेखनाम प्रस्तुत" कह देने उसका परिहार कैसे होगया? भी अपने प्रत्यक्ष कर सके। ऐमा सर्वज्ञ हो सकता है दोष न्याचार्य जीकी इच्छ। यह जान है कि इस विषय और प्रावरण इन दोनों निश्शेष जयसे । पर मैं अपने विचार और भी कुछ विस्तारसे प्रकट करूँ (३) भाचार्य ने जो 'दोषावरणयोः हानि' में द्विवचन तभी वे उनपर अपना नचय देना उचित समझेगे । अस्तु। का प्रयोग किया है, बहुवचनका नहीं उससे जान पड़ता ___ प्राप्तमीमांसासम्मत प्राप्तक लक्षण समझनमें हम इस कि उनकी दृष्टि में एक ही दोष भोर एक ही भावरण प्रधान ग्रंयकी प्रथम कह कारिकार्य विशेषरूपम सहायक होती हैं। है। उनकी उपर्युक्त अपेक्षा पर ध्यान देनेस स्पट भी हो प्रथम और द्वितीय कारिकायोंमें कुछ ऐसी प्रवृत्तियोंका जाता है कि यह दोष कोनसा और भावरण कौनसा उल्लेख किया गया है जो मायावयों और सर गा देवामें जो हमारी समझदारीमें बाधक होता है वह दोप है मज्ञान भी पाई जाती हैं, अाए। व अ.प्तका लक्षण में ग्राह्य नहीं। और इसको उत्पारने वाला प्रावरण है ज्ञानावरण न्यायाचायीक मतान पार इन्हीं में सपानादि वेदनाांक कर्म । इन्हीं दो का अभाव होनस सर्वज्ञताकी सिद्धि होती अभावजन्य अतिशय भी सम्मिलित है । यदि यह बात है और प्राप्तता उत्पन्न होती। ठीक है तो उन्हींक मतानुसार यह सिद्ध हो जाता है कि (४) शेष जितनी बातें सर्वज्ञमें अपेक्षित हैं वे ज्ञानाग्रंथकारको उनका प्रभाव अानक लक्षण में स्वीकृत करना वरण के सर्वथा प्रभावसे सुतरां सिद्ध हो जाती है। ज्ञानासर्वथा अमान्य है। तीपर कारिकामें तीर्थ स्थापित करना वरण के साथ दर्शनावरण व अन्तराय कम भय होही भी प्राप्त कोई लक्षण नहीं हो सकता यह स्थापित कर जाते हैं और मोहनीयका क्षय उससे पूर्व ही अनिवार्य दिया गया। इन वृत्तियों का प्राप्तक लक्षणों में निषेध करके होता है जिसमें उनमें वीतरागता पहले ही प्रामाती है। ग्रंथकारने अपनी चौथी व पांचों कारिकामें कहा है कि अतएव प्राप्तमीमांसाने उनका पृथक् निर्देश करना प्रावश्यक दोष और भावरणकी हानि तर-ताम भावसे पाई जाती है नहीं समझा। जिससे क्वचित् उनकी निश्शेष हानि भी होना संभव है। (५) शेष चार प्रघातिया कमोंसे उत्पन्न वृत्तियोंका अतएव किसीको सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ भी प्राप्तमें न केवल प्रभाव नहीं माना गया, किन्तु उनके प्रत्यक्ष हो सकते हैं और इस प्रकार सर्वज्ञकी सिद्धि हो सद्भावका निर्देश पाया जाता है। प्राप्तमें बचनका होना जाती है। सर्वज्ञकी निर्दोषताका फल कारिका छहमें यह आवश्यक है और वचन विना शरीरके नहीं हो सकता। बतलाया गया है कि उससे उनके वचन युक्ति-शास्त्र वि. यह बात नामकर्माधीन है। शरीर अपनी जीवन-मरण रोधी होते हुए किसी प्रमाण सिद्ध बातसे बाधित नहीं होते। वृत्तियों सहित ही होता है और यह कार्य भायुकर्मके
प्राप्तमीमांसाकारकेस प्रतिपादन प्राप्त संबन्ध में अधीन है। शरीरसे शवृत्तिका कार्य लिया जाता उनकी निम्न मान्यताये स्पष्ट दिखाई देती है
उच्च गोत्र कर्मस सिद्ध होता है। एवं शरीर के साथ को