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अनेकान्त
[वर्ष ८
में 'आलोचकका कर्तव्य' शीर्षक मेरा निबन्ध देखना मनोमालिन्यमं वृद्धि होती है और ममाज सच्चे साहित्यसे चाहिये जिसमें से कुछ नियम यहाँ बतलाये देता हूँ- वंचित रह जाता है। श्रालोचकको चाहिये कि निम्न विषयोपर जितना भी उनकी मेरे ऊपरके शब्दोमे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब लेवनीम बल हो, प्रयोग करें-ग्रन्थ विषय, लेखकको तक जैन समाज में सच्चे अर्थीम अालोचक पैदा न होगे कहाँ तक मफलता मिली है, वह विषय कहाँ तक सुलझा तब तक हमारी माहित्यवाटिकाके सुन्दर पुष्प कदापि पल्लवित सका है, भाषा मौन्दर्य कैमा है, अादि । गुण-दोष की इन नह। मर्केगे | अत: मर्वयम जैन विद्वानोंका यह परम चातोंको बतलाने वाला पालोचक वस्तुत: अालोचना कर्तव्य होना चाहिये कि वे ऐमें श्राला नक पैदा करें जो (श्राममन्तात् लोचना विचारणा अालोचना) के मच्चे अर्थो जन-माहित्यका शोचनीय हालतको दूर करते हुए और उसकी में सर्व श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर सकता है।
अभिबृद्धि करते हुए उसे प्रोन्नति के शिखर पर पहुंचायें और जैन समा नमें हमने ऐसे भी श्रालोचक दे ये हैं जिनकी हम तरह विश्व में जैन माहित्यको धवल पताका फहरायें। श्रालोचना मूल ग्रन्थ से कोई मम्बन्ध नहीं ग्वती । यह भी निःसन्देह वह दन जैनियोका वर्णदिन होगा, जिस देखने में आता है कि ममीक्षकने मिद्धान्तको छोड़कर मीधा दिन दसपाच उपरोक्त गुगा-मम्पन्न अालोचक हमारी नजरमें व्यक्ति पर श्राक्षेप किया है। जिसका परिणाम यह निकलना श्रावेंगे। उम दिन हमें पूर्ण विश्वास होगा कि अब दम है कि परस्पर साहित्यिक प्रेम तो दूर रहा, पर भयंकर सादिस्य के मुविस्तृत क्षेत्रम अाशातात वृद्धि कर सकेगे।
वीर-वाणीको विशेषताएँ और संसारको उनकी अलौकिक देन
( लेग्वक-- श्री दशग्थलाल जैन कौशल' पटना )
प्राय: देखा जाता है कि कृष्ण, राम, ईसा, महावीर, प्रधानता और गुणा पूनाकी गौणता पाई जाती है जबक मुहम्मद बुद्ध आदि महारमा पुरुषों की जयन्ती मनाई जाने वीर-वाणीको महत्व प्रदान करने में गुणपूजाको प्रधानता का रिवाज चल पड़ा है और उसका कारण यह है कि और व्यक्ति पूनाको गौणता प्राप्त होती है । अत: भगवानकी उपरोक्त सभी महात्माओंने अपने जमानेके लोगों को मान- प्रथम धर्मदेशनाके उपवको महत्व प्रदान कर हम दुनिया बता दस पतित समाजको उनकी जहालतको हटाकर के स्टन्डड ऊँचा उठते हैं। दुनियाके लोगोंने जहां अपने मनुष्यताके समीप जाने का युगान्तरकारी कार्य किया था। अपने महापुरुषों और पैगम्बरोंकी इमलिये पूजा की है कि लेकिन प्रश्न हो सकता है कि उसी तरह जब जैन लोग वे ईश्वर के अवतार थे । इसलिये उनके सभी कार्य हमारे महावीर जयन्ती मनाते हैं तब उनके मुखारविन्दसे प्रगट लिये सराहनीय और सत्य हैं या खुदाकी खाम मेहरबानी हुई इस युगमें प्रथम धर्माणीको महत्व देनेकी निराली हजरत ईमा वा हजरत मुहम्मद साहबपर थी और इसलिये प्रथाका श्रीगणेश करनेकी क्या आवश्यकता हुई ? इसका उनके सभी कार्य और धर्मके नामपर दिये गये उपदेश ही सीधा और सही उत्तर है। वह यह कि एक तो उस तिथि सर्वोत्तम थे और उससे परे सत्य हो नहीं सकता, यहां और स्थानको ऐतिहासिक महत्व देना । और दूसरे, संसार जैनियोंका बड़ा विचित्र और अजीबो ग़रीव रवैया रहा है। भरस निर.जी किन्तु विज्ञानसम्मत अश्रतपूर्व माध्या- उनके यहां तत्वत: कोई ईश्वरवको प्राप्त हुई आत्माको रिमकताकी भोर झुकाने वाले बुद्धिगम्य तत्वोंको संसारके अवतार लेकर पृथ्वीपर उतरने की आवश्यकता ही नहीं तमाम धोंक मुकाबले जोरदार शब्दों में पेश करना। होती । अत: यहां अवतारी पुरुष माना ही नहीं गया। तीसरे, उपर्युक्त महापुरुषोंकी जयंतियोंमें व्यक्ति पूजाकी इसलिये जैनेतर दृष्टिस उनकी कभी यह धारणा ही नहीं