________________
किरण ३ ]
हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
११३
होते हैं। मच्छी खुराक वह वस्तु है कि उसके प्रभावसे भी नसीब नहीं होता! फिर कहिये यदि भारत में निर्बलता अन्य कारणोंसे उत्पस हुई निर्बलताका भी सहज हीमें अपना डेरा अथवा प्रधान जमाव तो और क्या ? संशोधन हो जाता है। इपीक प्रभावसे रांगोंके पाराम होने यहां पर एक बात और भी बल्लेखनीय और वह में भी बहुत कुछ पहायता मिलती है।
यह कि हम महगीक कारगा बहन में स्वार्थी अबवे हमलोग कुछ तो जन्मस ही निबल पैदा हुए कुछ मनुष्य घीमें चर्बी तथा कोकोतम श्रादि दूपरी बस्तु बचपनकी गलतकारियों-अयोग्य प्रवृत्तियों एवं स्वास्थ्य- मिलाने लगे है और दूध में पानी मिला कर अथवा दूधम्मे रक्षाक नियमों को न पालन करनेने हमको निर्यज बनाया, मक्खन निकालकर और कोई : वारकी पा डर उसमें
और जो कुछ रहा महा बल था भी वह अच्छी खुराकके न शामिल करके उसे अमली दूध के रूप में बेचने गे है. मिलने से समाप्तिको पहुंच गया ! हम लोगोंकी सबस जिमसे हमारा धर्म-कर्म और प्राचार वचार र हानेक पच्छी खुराक थी घी और दूध वही हमको प्राप्त नहीं माथ साप हमारे शरीर में अनेक प्रकार के नये ने अपना होती। इधर हम लोगोंने गोरस-प्राप्ति और उसके सेवनकी घर बना लिया है। मणि न घा-दूधको खाने वाले विद्याको भुला दिया, उधर धर्म कर्म-विहीन अथवा मान- शायद यह समझने होंगे कि हम घी दूध खाते हैं और वतासे रिक्त निर्दय मनुष्योन घा-दूधको मैशीन स्वरूप शायद उनको कभी कभी यह चिन्ता भी होता हो किधी. प्यारी गौओंका वध करना प्रारम्न कर दिया और प्रति- दूध खानेपर भी हम हृष्ट १e तथा नीगंगा नहीं रहने ? दिन अधिकसे अधिक संन्यामें गोवंशका विनाश होता परन्तु यह सब उनकी बड़ी भूत है। उनकी पमझना रहने घा-दूध इतना अकरा ( महँगा) हो गया कि मव चाहिये कि वे वास्तवमे घीदृध नहीं खान बलिक एक पाचारण के लिये उसकी प्राप्ति दुर्लभ होगई ! जो घी प्रकार की विषैली वस्तु खाते हैं की उनके स्वामको बिगाद माजस कोई०० वर्ष पहले रुपयेका पदी (५ मेर पका) कर शरीर में अनेक प्रकार के रोगों को पास करने वाली है। और ७५ वर्ष पहले तीन मेरस अधिक प्राता था वही धी एकमा कलकत्तेके किमी व्यापारीका बम्बाता पहा गया प्राज रूपयेका ३ या छटांक माता और फिर भी था और उससे मालूम हश्रा था कि उसने ५.. क अच्छा शुद्ध नहीं मिलता' ! इसी प्रकार जो दूध पहजे सांप च के लिये खरीद किये थे और उनकी चर्बी घमें पैसे या डेढ़ पैम सेर माया करता था वही द्ध प्रान पाठ मिनाई गई थी !! भाने, बारह पाने अथवा रुपये पर तक मिलता है और हा! हम लोगोंकि यह कितने दुर्भाग्यका बात है कि फिर भी उसके खालिस होनेकी कोई गारण्टी नहीं ! ऐपी जिस चीक नामसे ही हमको घृणा श्रानी थी जिमी हाजतमें पाठ करन स्वयं विचार सकते हैं कि कैसे कोई घी- के दर्शनमात्रय के (वमन) हो जानी था और निम नर्वीक दूर खा सकता है और कैस हम लोग पनप सकते हैं? स्पर्शनमा स्नान करने की जरूरत होती थी वही ची भारतवर्ष में आज कल शायद मैंने पीछे दो या तीन धीमें मिलकर हमारे पेट में पहुँच रहा है और पूजन हवनक मनुष्य ही ऐसे निकलेंगे जिनको धीमे चुपड़ा रोटी नसीब लिये पवित्र देवालयोम जा रही है। इतनेपर भी हम होती है, शेष मनुष्योंकी घो-दूधका दशन भी नहीं मिलना लोग हिन्न तथा जैनी कहलाने का दम भरत है, हमको
और अच्छी तरहसे घी द्धका खाना तो अच्छे अच्छोंको कुछ भी लाजा अथवा शर्म नहीं पानी और न हम इसका १ मेरे विद्यार्थी जीवन ( सन १८६६ श्रादि । म. सहारनपुर कोई पक्रिय प्रनीकार है। करने हैं !" जान पड़ता है हमने
बोर्डिङ्ग हाउस में रहते हुए मुझे केवल दो काय मामिकका कभी इस बात पर गम्भीरताक साथ विचार ही नहीं किया ची में ना जाता था और बद वजन में प्रायः माढ़े तीन सेर पक्का कि पहले इतना मम्ता और अच्छ! घी-दूध क्यों मिलता होता था। साथ ही इनना शुद्ध, साफ़ और मुगधिन होना था ? यदि हम विचार करते तो हमें यह मालूम हुए बिना था कि उस जैसे बीका अाज बाजार में दर्शन भी दुर्नभ न रहता कि पहले प्रायः सभी गृहस्थी लोग दो दो चार होगया है । यह भारतकी दशाका कितना उलट-फर है !! चार गोएँ रम्बते थे, बड़े प्रेम के साथ उनका पालन करने