________________
अनेकान्त
[वर्ष ८
इन तीनो-चारों स्थानों में ऋषि गिरि (ऋष्याद्रिक ), कुण्डलनिरि भी कहा जाता था। अतएव उन्होंने पाण्डुवेभार. विपुलगिरि, बलाहक ( छिन्न ) और पाण्टुागरि गिरिक स्थानम कुण्डल गिरि नाम दिया है। (पागडुकांगरि) इन पाच पर्वतका ममुल्लेख किया गया है कोई आश्चर्य भी नहीं और न असम्भव है कि पाण्डु
और उनकी स्थिति (अवस्थान) बतलाया गया है । यहां गिरि की कुण्डलागरि कहा जाता हो; क्योंकि कुण्डलका यह ध्यान देने योग्य है कि नलाहकको छिन भी कहा आकार गोल होता है और प ण्डुगिरिको गोलाकार (वृनाजाता है। अत: एक पर्वत के ये दो नाम हैं और उल्लेख क्रनि) सभी प्राचार्योने बतलाया है । जैसाकि ऊपर के ग्रन्थकागने छिन्न अथवा वलाइक दोनो नामांसे किया है। उदागोमे प्रकट है। दृमर, पुगतनाचार्य पूज्यपादने पनि जिन्होंने 'बलाइक' नाम दिया है उन्होंने छिन्न' नाम नहीं पहाडकि अन्तर्गत पाण्ट्रागारका उल्लेग्य नहीं कियादिया और जिमीने 'छिन्न' नाम दिया है उन्होंने 'बलाहक' (जिमका कि उल्लेख करना लाजिमी था क्योंकि वह पाच नाम नहीं दिया और अवस्थान मभीने एकमा बतलाया। मिद्धक्षेत्र शैलीम पग्गिागान है।) किन्तु कुण्डलांग रिका तथा पंच पदाोक माथ उसकी गिनती की है । अतः उल्लेख किया है। तीसरे, एक पर्वत के एकसे श्राधक बलादक और छिन्न ये दोनी पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह नाम देखे जाते है । जैमे बलाहक और छिन्न, ऋषिगर ऋष्यांद्रक और ऋपिगि ये भी पर्याय नाम है।
और ऋष्यद्रिक । अत: इम मंतिम अनुसंधानपरसे यही अब इधर ध्यान दें कि जिन वीरसेन और जिनमेन निष्कर्ष निकलता है कि मादित्यमें पाण्डुगि र ओर कुण्डल स्वामीने पाण्डकागिरिका नामोल्लेख किया है उन्होंने कर गिरि एक हे---पृथक पृषक नहीं--एक ही पर्वत के दो नाम कुण्डलगिरिका उल्लेख नहीं किया। इस प्रकार पुऊपपादने
है। ऐमी वस्तुस्थिति में यह कहना युक्त प्रतीत होता है कि जहा सभा निर्वाण क्षेत्राको गिनाते हुए कुण्डलागार का नाम यातवृषभने पाए
शाहलाकार यतिवृषभने पाण्टुगिरिको ह। कुण्डलगिरि मिद्ध क्षेत्र बतलाया दिया है फिर उन्होंने पारागारका लेख
एवं उल्लेखित किया है। और वह राजगृहीके शाम पंच हो. यनिवृपभने अवश्य पारगर और कंडलगिरिदामनामी पहाड़कि अन्तर्गत हे । इमलिये मध्यप्रान्त के दमोह शहर के का उल्लेख किया है । ले कन दो विभिन्न स्थानाम किया है। पासका कुडलागार या कुण्डपुर ।' पाण्डुगिरिकानी पच्चि पहाडीक माथ प्रथम अधिकार और उमक शास्त्राम मिस क्षेत्र कहा है जिसे कहा गया है वह कुण्डलगिरिका चौथ अधिकारम किया है। अतए। उन्हें गजगृहाक पामका पाण्डागार-कुण्डलागार
गांगरिसभिन्न कुण्डल गरि अभीष्ट हो, एमा नहीं कहा श्रतः मेरे बिनार और खान में दमोहका कुण्डलगिरि जा सकता है। किन्तु ऐमा मान पड़ता है कि यतिवृषभने मिद्धक्षेत्र घोपिन करने या बनानेकी चेष्टा की जायगी तो एक पूज्यपाद की निर्वाण भक्ति देखी होगी और उसमें पूज्यपाद अनिवार्य भ्रान्त परम्पग उसी प्रकार की चल उठेगा, जैस के द्वारा पाएगिरि के लिये नामान्तर रूपसे प्रयुक्त कुण्डल- कि वनगान कर सिदी गिर और मोनागि- की चल रही है। गिरिको पाकर इन्दौने कुण्डल गिरिका भी नामोल्लेख किया में इन दोनों को भी वनमा मद्धक्षेत्र मानने को तैयार नही हूँ। है। प्रतीत होता है कि पूज्यपाद के समयम पाण्डुगिरिको नांगर,
ता. ३-४-१६४६
* सूचना अनेकान्त जैनममाजका कितना महत्वपूर्ण एवं आवश्यकपत्र है यह उसके पाठकों में छिपा हुआ नहीं है--उमका प्रत्येक अंक संग्रहकी वस्तु हे. उसमें खोजपूर्ण ऐतिहामिक मामग्रीका अच्छा संकलन रहता है। सर यदुनाथ सरकार भादिके महत्वपूर्ण पत्रोंमे पाठक उमकी महनाका अन्दाज लगा सकते हैं। ऐसे पत्र की वर्ष ४-५-६-७ की कुछ पुरानी फाइले अविशिष्ट है जिन्हें मंगाना हवि र्शवता करें अन्यथा फिर उनका मिलना कठिन हो जायगा।
मैनेजर-अनेकान्त