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किरण ३]
हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
बना हुआ हो। और इसी लिये उन्होंने हम शारीरिक उमसे पीछे गेहूँ डाल देव, उमसे कुछ काल पश्चात कच्चे बलकी रक्षाके लिये मुख्यताम ब्रह्मचर्यका उपदेश दिया है चने डाल दे, और उपये भी कुछ
और सबसे पहला अर्थात गृहस्थाश्रमसे भी पूर्व का श्राश्रम समय बाद फिर कच्चे चावल था और कोई वस्नु डान ब्रह्मचर्याश्रम कायम किया है। साथ ही वैद्यकशास्त्रक दव और उनमें किसीका भी पाक पूरा होने का अवसर न नियमों का पालन करनेका आदेश भी दिया है, और इन धाने देकर दूसरी दुसरी धम्तु उपमें डालते रहें तो कदापि नियमों को इतना उपयोगी तथा जरूरी समझा है कि उन हम हांडीका पाक ठीक तथा कार्यकारी न होगा। परन्तु धार्मिक नियमोंमें गर्भित कर दिया है. जिससे मनुष्य उन्हें यह जानने हुए भी ग्व ने-पीने के प्रवपरोपर इसका कुछ धर्म और पुण्यका काम समझकर ही पालन करें। वास्तब ध्यान नहीं रखते--जो वस्तु जिस समय मिल जाती है में महर्षियोंका यह काम बड़ी ही दूरदर्शिता और बुद्धि ठमको उमी समय चट कर जाते हैं - इस बातका कुछ मत्तासे सम्बन्ध रखता है। वे अच्छी तरहम जानते थे कि विचार नहीं करते कि पहले का वाया हुमा भोजन हजम 'शरीरमायं खलु धर्ममाधनम' धर्मार्थ-काम मोक्षागां हो चुका है या कि नहीं? परिणाम जिमका यह होता है शरोरं माधनं मतम'-अर्थात धर्ममापनका ही नहीं कि खाया-पीया कुछ भी शरीर को नहीं लगता और अनेक किन्तु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एस चारों ही पुरुषार्थों प्रकार के अजीर्णादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जो कभी कभी माधन का सबसे प्रथम और मुख्य कारण शरीर ही है। बड़ी भयंकरता धारण कर लेते हैं और प्राण ही लेकर शरोरके स्वस्थ और बलाढ्य हुए बिना किसी भी पुम्पार्थ छोड़ते हैं। अंग्रेज लोग प्रायः नियमपूर्वक ठीक और नियत का साधन नहीं बन सकता और पुरुषार्थ का मापन किय समयपर भोजन करते हैं, अपने उपरोकी प्राजाको बड़े बिना मनुष्य का जन्म बकरीक गले में लटकते हुए स्तनों श्रादरके माथ शिरोधार्य करते है और बड़े यन्नके माथ (यनों) के ममान निरर्थक है। ऐसी स्थितिमें जो मनुष्य म्वास्थ्य-रक्षाके नियमों का पालन करने है। यही वजह है अपने शीरकी रक्षाके लिये उक्त नियमोंका पालन करता कि उनको रोग बहुत कम मताने है और वे है वह वास्तव में धर्मका कार्य करता है और उसमे अवश्य प्राय: हट पुष्ट तथा बलिष्ट बने रहते हैं। हम लोगाने उसको पुण्य फल की प्राप्ति होती है। हम लोगोंने ऋषियों वैद्यकशास्त्र में निगान वाग्भट जैम वैद्यराजीक वायांकी के वाक्योंका महत्व नहीं समझा और न यह जाना कि अवज्ञा की-न उनको पढा और न नदनुमार भाचरण शरीरका बली निर्बली तथा स्वस्थ-अस्वस्थ होना प्रायः सब किया-और स्वास्थ्यरक्षा नियमामे सपेक्षा धाग्या की,
आहार-विहारपार निर्भर है और चाहार-विहार सम्बन्धी उमीका यह फल हुश्रा कि भारतवर्षमें निचलनाने अपना जितनी चर्या है वह सब प्रायः वैद्यशास्त्र के अधीन है।मी अड़ा जमा लिया और हम दिन पर दिन निर्बल नथा लिये हम अपने श्रापको सबसे पहले ब्रह्मचर्याश्रममें नहीं निस्तेज होकर किसी भी कार्य करने योग्य न रहे। रखते है-अर्थात एक खाप अवस्था तक ब्रह्मचर्यका पालन हमारी इम निर्बलताके संक्षा चार चार कारण कहे नहीं करते है--बल्कि हमका निमल करने के लिये यहां जा सकते है-पहला पैतृक निवन्तता अर्थान माता और नक उद्यत रहते हैं कि छोटीपी अवस्था में ही बच्चों का पिता शरीरका निबंल होना दूसरा, स्वास्थ्यरक्षाके नियमों विवाह कर देते हैं। यही कारण है कि हम योग्य थाहार. में उपेक्षा धारण करना. नीमरा, बाल्यावस्था भनेक खोटे विहार करना नहीं जानते, और यदि जागते भी हैं तो मामे करचे वीर्य स्खलन होना और चौथा, अच्छी प्रमाद या लापर्वाहीसे उसके अनुसार प्रवर्तन नहीं करते। खुराक (Food भोज्य) का न मिलना। इन कारणों में
उदाहरण के तौर पर, बहतपे मनुष्य इस बातको तो यद्यपि पहला कारणा, जिपकी पत्ति भी अन्य तीन जानते है कि यदि हम कोई हांडी चूल्हे पर चढ़ वें और कारणाम ही है, हमारे श्राधीन नहीं है-अर्थात माताउसमें योदेसे चावल पकने के लिये डाल देवं, और फिर पिनाकी शारीरिक निबल नामें उनकी भावी सन्तान कुछ थोडीसी देर के बाद उसमें और कच्चे चावल डाल देवं. भी फेर फार नहीं कर सकती, उनके शरीरमें इसका असर