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अनेकान्त
[ वर्ष ८
जिनको डर लगता है, पापमयी जिनकी प्रवृत्ति है और विकारते हैं, अपने पापको दोष देने लगते हैं और कोई चिन्तारू, बालाओंपे जिनका अन्त:करण दग्ध रहत है !!! कोई हतभाग्य तो यहां तक हता- हो बैठते हैं कि उनकी
इपीपे प्राजकन हमारे अधिकांश भारतवासियोंके मरण के सिवाय और कोई शरण ही नज़र नहीं पाता, हृष्यों में प्रायः इस प्रकारक प्रश्न उठा करते हैं और कभी और इस लिये वे अपना अपघात तक कर हारने हैं ! कभी अपने इष्ट मित्रादिकाय वे इस प्रकारका रोना भी बहुतसे मनुष्य विपरीत श्रद्धा पड़ कर बारहों महीने दवा रोया करते हैं कि--हमारी शारीरिक अवस्था ठीक क्यों खाने खाते अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर देते हैं ! उनके नहीं? हमारा दिल, दिमाग तथा जिलार (यकृत-Liver) मनोरथोंका पूरा होना तो दुर रहा, उनको प्रकट होनेतक ठोक काम क्यों नहीं करता? हमारे नेत्रोंकी ज्योति का अवसर नहीं मिलता ! वे उठ उठकर हृदयके हृदय में कम मन्द है? कानाप हमको कम क्यों मनाई देता है? ही विलीन हो जाते हैं ! मरते समय उन प्रसिद्ध मनोरथों ननिकमा परिश्रम करने या हमारे मिरमें चक्कर क्यों पाने की याद (स्मृति) उन्हें कैमा बेचैन करती होगी और अपने लगा? हम क्यों घुटनोपर हाथ धर कर उठने और मनुष्य जन्मके व्यर्थ खोजानेका उनको उस वक्त कितना बैठते हैं ? थाही मी दर चन्तने या जराही मेहनतका काम अफसोस नया पश्चात्ताप होगा, इसकी कल्पना महृदय कानेपर कम क्यों हकने लगते हैं ? हमारा उपर भोजनका पाठक स्वयं कर सकते हैं। पाक ठीक तौरसे क्यों नहीं करता ? क्यों हमेशा करून ऊपरके इस वर्णन एवं चित्रणपरम पाठक इतना तो
antineticn) और बद रजमी (अजीर्णना-Dys. सहज हीमें जान सकते हैं कि हमारे भाई भारतवामी pepsia) हमको मतानी रहना है? क्यों चूरन व गोली प्राज-कल कैमी कैमी दुःम्बावस्थानोंस घिरे हए है-प्रमाद बगैरह का फिकर हरदम हमारे पिर पर सवार रहता है ? और अज्ञानने उनको कैमा नष्ट किया है। वास्तवमें यदि हमारा हृदयस्थल व्यर्थ की चिन्ताओं और झूठे पंकल्प- विचार किया जाय तो इन समस्त दुःखों और दुर्दशाओंका विकल्पोंकी भूमि क्यों बना रहता? क्यों अनेक कारण शारीरिक निर्बलना है। निर्बल शरीरपर सहज ही प्रकार के गंगोंने हमारे शरीर में अड्डा जमा रकवा है ? हमारा में रोगोंका श्राक्रमण हो जाता है, निर्बलता समस्त रोगोंकी म्वामय ठीक क्यों नहीं हो पाना ? किसी कार्यका प्रारम्भ जड़ मानी गई है-एक कमजोरी हजार बीमारी की करते हुए हमें डर क्यों लगता है? कार्यका प्रारम्भ कर कहावत प्रसिद्ध है। जब हमारा शरीर कमजोर है तो देने पर भी हम क्यों निष्कारण उमं चटपे छोड बैठते हैं ? कदापि हमारे विचार दृढ नहीं हो सकते। जब हमारे इसमें हिम्मत, उत्साह और कार्य-पटुनाका संचार क्यों नहीं विचार दृढ़ नहीं होंगे तो हम कोई भी काम पूर्ण सफलता होता? क्यों हमारे हृदयाम धार्मिक विचारोंकी सृष्टि के साथ सम्पादन नहीं कर सकते, हमारा चित्त हर वक्त मन' जाती है ? हम विषयोंके दाम क्यों बनने जाते हैं? डोंवाडोल रहेगा तथा व्यर्थ की चिन्ताओंका नाट्यघर बना क्यों हम अपने पूर्वज पि मुनियों की तरह प्रारमध्यान रहेगा और इन व्यर्थकी चिन्ताओंका नतीजा यह होगा कि करने में समर्थ नहीं होने ? को अपने प्राचीन गौरवको हमारा कमजोर दिमाग और भी कमजोर होकर हमारी भलाये जाते है और क्यों हम स्वार्थम्यागी बनकर परोप- विचार शक्ति नष्ट हो जावेगी और तब हम हित-अहितका कारकी ओर दत्तचित्त नहीं होते ? इत्यादि ।
सम्यग्विचार करने की योग्यताके न रहने से यद्वा तद्वा प्रवृत्त परन्तु इन पब प्रश्नों अथवा 'हमारी यह दुर्दशा कर अपना सर्वनाश कर डालेंगे। को इस केवल एक ही प्रश्न का वास्तविक और संतोष- यही कारण है कि प्राचीन ऋषियोंने शारीरिक बलको जनक उत्तर जब उनको प्राप्त नहीं होता अथवा यों कहिये बहुत मुख्य माना है, उन्होंने लिखा है कि जिस ध्यानसे कि जब इन दुर्दशाओमे छुटकारा पानेका सम्यक् उपाय मुक्तिकी प्राप्ति होती है वह उत्तम ध्यान उसी मनुष्यके उन्हें मुझ नहीं पड़ता तो वे बहुत ही खेदखिम होते हो सकता है जिसका संहनन उत्तम हो-अर्थात जिसका है..कभी कभी वे निराश होकर अपने निःसार जीवनको शरीर स्वास तौरसे (निर्दिष्ट प्रकारसे) मजबूत और बज्रका