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खजुराहाके मन्दिरोंसे
( रचयिता श्री इकबाल बहादुर श्रीवास्तव ) [खजुराहा बुन्देलखण्ड प्रान्तकी छत्रपुर रियासत में राजनगर तहसीलका एक गांव है, जो किसी समय राजवैभवको बिये हए गजनी था, जन-धनसे परिपूर्ण समृद्धिशाली नगर था और जैनियोंका में रहा है। इस स्थान पर जैनियों के प्रधान कलापूर्ण मन्दिरोंक मवावा, जिनकी संख्या २५ से कम नहीं, बौद्धों वैष्णवों
और शवोंके भी कुछ सुंदर मन्दिर हैं। परन्तु ममी मन्दिर, दर्शनीय होते हुए भी, वर्तमानमें दुर्दशा-प्रस्त हैं और अपने अभ्युदयकी कहानी को दर्शकोंपर रो रो कर प्रकट कर रहे हैं! कोई भी सहृदय दर्शक ऐसा नहीं हो सकता जिन्हें इन मन्दिरोंकी वर्तमान दशाको देख कर गेनान प्राजाय। भाजसे कोई १६ वर्ष पहले, भक्तूबर सन् १९२६ को, मैं इन मन्दिरों के दर्शनों को गया था। उस समय इनकी भंग-भंगादिको लिये हुए अम्यवस्थापूर्ण अनाथदशाको देखकर और इनके प्रतीत गौरव का स्मरण कर मेरे हृदय में हर्ष और विषादके कितने ही भावोंका उदय हुमा था। अाज उन भावोंको कवि इकबाल बहादुरजी श्रीवास्तवकी इस कवितामें मूर्तिमान देखकर मुझे बड़ी प्रसनता हुई और यह नान पड़ा कि जो कोई भी मावुक व्यक्ति इन मन्दिरोंको देखता है उसके हृदयमें वैसे भाव उत्पन्न हुए बिना नहीं रहते । श्रीवास्तवजाने इन मन्दिरोंकी दशाका अच्छा भावपूर्ण चित्र खींचा है, और इसके लिये वे धन्य. वादके पात्र हैं। उनकी यह सुन्दर कविता हालके 'जैनसन्देश' (अंक ३५) में प्रकाशित हुई है। वहींसे इसे 'भनेकान्त' पाठकों के लिये उद्धत किया जाता है।
-सम्पादक ओ अनुपम देवालय-ममूह ! (१
(६) निशदिन ही जहाँ लगा रहता, कुछ अपनी गाथा गाओ तो ?
जगकी विभूतियोंका ताँता, अपने जीवनके विविध रूप
उस भाँगनमें किसलिये आज, की झांकी तनिक दिखाओ तो?
करुणाका सागर लहराता? (२) युग बीत गए उन्मन तुमको, | अभिशाप कौन किसका आकर, (७)
बोलो-बोलो, निन-वामी! हे तेजस्वी, तव शीश चढ़ा ? किस विरह-व्यथाने बना दिया- किस महा पापका घोर दण्ड
है आज तुन्हें यह संन्यासी! यह आज तुम्हें भोगना पड़ा कबसे इस ध्यानावस्थामें , (३)
(८) किन किन आशाओंको लेकर, चुपचाप खड़े हो मौन गहे ?
किन-किन अरमानोंको लेकर ? किस इष्ट-सिद्धिके लिये कहो,
भाये थे तुम अवनी-तल पर, यह दुसह ताप हो ताप रहे?
किन-किन वरदानोंको लेकर ? किस शान्ति-प्राप्ति के साधनने किस शुभ मुहूर्त में दिव्य तेज, (6)
जजेर शरीर यह बना दिया ? इस भू-प्रदेशमें आया था ? ...वह मंत्र-मुग्ध करने वाला. यह 'सत्यं शिवं सुन्दरम का
हा, गवित यौवन लूट लिया! अनुपम स्वरूप कर पाया था ? जिस दिव्य ज्योतिसे पालोकित, (५)
(१०) कैसे थे वे सोनेके दिन, दिकविदिक हुआ करते प्रतिक्षण !
कैसी चाँदी की रातें थीं? क्यों मन्द पड़ गई वह भाभा,
सुख स्वप्न होगई जो तुमको, छाया तम चारों ओर गहन ?
वे किस वैभवकी बातें थी ?