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किरण २]
क्या खाक बसन्त मनामैं!
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यद्यपि पर्याप्तियां पुद्गल है लेकिन पर्यातकर्म तो बीव- द्वारा प्रदर्शित इसी मार्ग पर चले है। अतः यह निर्विविपाकी है, जिसके पदय होनेपर ही पर्याप्तक' कहा जाता वादा कि उक्त सूत्रमें 'संजद' पदहै। और इस लिये है। अत: पर्याप्त शम्मका अर्थ केवल दम्य नहीं -भाव ताम्रपत्रोपर उत्कीर्ण सूत्रोंमें भी इस पदको रसमा गहिये भी है।
तथा भ्रान्तिनिवारण एवं स्पष्टीकरण के लिये उक्त सूत्र अतः राजवात्तिकके इस उल्लेख स्पष्ट है कि षटखंडा- फुटनोटमें तत्वार्थराजवार्तिकका उपर्युक्तउरण देदेना चाहिये। गमके ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति आवश्यक हमारा उन विद्वानोंसे, जो उक्त सूत्र में 'संजद' पदकी एवं अनिवार्य है। यदि 'संज' पद सूत्र में न हो तो स्थिति बतलाते हैं. नम्र अनुरोध है कि राजवार्तिकके पर्याप्त मनुष्यनियों में १४ गुणस्थानोंका अकलंकदेवका इस दिनकर-प्रकाशकी तरह स्फुट प्रमाणोल्लेखके उक्त प्रतिपादन सर्वथा असंगत ठहरेगा और जो उन्होंने प्रकाशमें उस पदको देखें । यदि उन्होंने ऐसा किया तो भावलिंगकी अपेक्षा उसकी उपपत्ति बैठाई है तथा मुझे भाशा है कि वे भी भावलिङ्गकी अपेक्षा उक्त सत्र में द्रव्यलिङ्गकी अपेवा ५ गुणस्थान हो वर्णित किये हैं वह संजद' पदका होना मान लेंगे। श्री १०८ प्राचार्य शान्तिसब अनावश्यक और प्रयुक्त ठहरेगा। अतएव प्रकलादेव मागरजी महाराजसे भी प्रार्थना है कि के ताम्रपत्रमें रक्तउक्त सूत्रमें 'संजद' पदका होना मानते हैं और उसका सूत्रमें 'संजद' पद अवश्य रखे-उसे हटाये नहीं। सयुक्तिक समर्थन करते हैं। वीरसेनस्वामी भी प्रकलंकदेव वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता. २१-१-४६।
क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं!
(२०-- श्री० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' ) यह घोर गुलाम का कलंक,
हम धो न सके पहले अपने , साम्राज्यवादका भार-भूत ;
होलीके गीले रक्त दारा । अपनी आँखों सिंधते देग्वे ,
आजादीका रण-ढोल पीट , माँ ने, अपने कितने सपूत !
गोलीसे खेले, वीर फाग! उन अमर-शहीदोंका तर्पण करनेको रक्त बहाऊँ मैं ! शोणितसे लिखे धरे उनके पहले इतिहास दिखाऊँ मैं ! क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं !
। क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं! कैसा बसन्त, किमका वसन्त, है अन्त यहाँ भरमानोंका ! आगत - स्वागतके साज कहाँ, हो गज जहाँ शैतानोंका !
अभिशापोंका, चिर पापोंका, पहले अपमान मिटाऊँ मैं ! हम क्षुब्ध हुए, अतिक्रद्ध हुए ,
अब रोम-रोम हुङ्कार उठी, हैं उग्र हमारे भाव, आज ।
बन्धन-कड़ियाँ झङ्कार उठी! कण-कणसे पीड़ा सिहर उठी,
प्रलयकारी युगवीरोंकीरग रगमें गहरे घाव आज !
फुकारें नम गुञ्जार उठीं! पाकुल प्राणों में आग लगी मर-जीकर इसे बुझाऊँ मैं! इस शोषणकारी शासनकी, सत्ताकी राख बनाऊँ मैं ! क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं !
क्या स्वाक बसन्त मनाऊँ मैं !