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'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्वपूर्ण अभिमत
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
षट्खयहागमके १३ वें सूत्र में 'संजद' पद होना चाहिये है तो उन सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति या प्रस्थितिका या नहीं, इस विषयमें काफी समयसे चर्चा चल रही है। पता चल जावेगा और फिर विद्वानों के सामने एक निर्णय कुछ विद्वानोंका मत है कि यहां द्रव्यत्रीका प्रकरण और भा जायगा। ग्रन्थके पूर्वापर सम्बन्धको लेकर बराबर विचार किया जाता प्रकलदेवका तस्वार्थ राजवात्तिक वस्तुत: एक महान् है तो उसकी ('संजद' पदकी) यहाँ स्थिति नहीं ठहरती।' सदनाकर है। जैनदर्शन और जैनागम'वषयका बहुविध अत: षटखण्डागमके १३ वें सूत्रमें 'संजद' पद नहीं होना और प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये केवल उसीका अध्यचाहिये । इसके विपरीत दूसरे कुछ विद्वानोंका कहना है कि यन पर्याप्त है। अभी मैं एक विशेष :श्नका उत्तर 'यहां (सूत्रमें) सामान्यस्त्रीका ग्रहण है और प्रन्थके पूर्वापर ढूढने के लिये उसे देख रहा था। देखते हुए मुझे वहां सन्दर्भ तथा वीरसेनस्वामीकी टीकाका सूक्ष्म समीक्षण संजद' पदके सम्बन्धमें बहुत ही स्पष्ट और महत्वपूर्ण किया जाता तो उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति भाव- खुलासा मिला है। अकलकूदेवने पर खण्डागमके इस श्यक प्रतीत होती है। अत: यहां भाववेदकी अपेक्षसे प्रकरण-सम्बन्धी समग्र सूत्रोंका वहाँ प्रायः अविकल नु'संजद' पदका ग्रहण समझना चाहिये। प्रथम पक्षके वाद ही दिया है। इसे देख बनेपा किसी भी पाठकको समर्थक पं. मक्खनलाल जी मोरेना, पं. रामप्रसादजी पटखराबागमके इस प्रकरण के सूत्रोंके अर्थ में जरा भी सन्देह शास्त्री बम्बई, श्री १०५ क्षल्लक सूरिसिंहजी, और पं. नहीं रह सकता। यह सर्वविदित है कि अकदेव वीरसेन तनसुखलालजी काला प्रादि विद्वान हैं। दूसरे पक्षके सम- स्वामीसे पूर्ववर्ती हैं और उन्होंने अपनी धवला तथा जयथंक पं. बंशीधरजी इन्दौर, ५. खूबचन्दजी शास्त्री बम्बई, धवला दोनों टीकामों में प्रकलंकदेव राजवार्तिक पं० कैजाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री प्रमाणोल्लेखोंसे अपने वणित विषयोंको कई जगह प्रमाणित बनारस और पं. पन्नालालजी सोनी ज्यावर भादि विद्वान् किया। भतः राजवात्तिकमें पटवण्डागमके इस प्रकरणाहैं। ये सभी विद्वान् जैनसमाजके प्रतिनिधि विद्वान् हैं। संबंधी सूत्रोंका जो खुनामा किया गया है वह मवंके द्वारा प्रतएव उक्त पद निर्णयार्थ अभी हालमें बम्बई पंचायत मान्य होगा ही। वह खुलासा निम्न प्रकार हैकी ओरसे इन विद्वानोंको निमंत्रित किया गया था। परन्तु "मनुष्यगती मनुष्येषु पर्याप्तकपु चतुर्दशापि गुणअभी तक कोई एक निर्णयात्मक नतीजा सामने नहीं पाया। स्थानानि भवन्ति, अपर्याप्त पु त्रीणि गुणस्थानानि दोनों ही पोंके विद्वान् युक्तिबल, ग्रन्थसन्दर्भ और मिथ्याष्टि-मासादनसम्यग्दृष्टयमयतसम्यग्दृष्टयाण्यानि । बीरसेनस्वामीकी टीकाको ही अपने अपने पक्ष के समर्थनार्थ मानुषीपर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ तक मुझे मालूम है षट्खण्डागम भावलिङ्गापेक्षया, द्रव्यालङ्गापेक्षेण तु पंचाद्यानि । के इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोंके भावको बतलाने वाला अपर्याप्तिकास द्वे प्रायो, सम्यक्त्वेन मह स्त्रीजननावीरसेनस्वामीसे पूर्ववर्ती कोई शास्त्रीय प्रमाणोक्लेख किसीकी भावात्।'-तत्त्वाथराजवात्तिक पृ०३३१.अ.ह-म.। भोरसे भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। यदि वीरसेनस्वामीसे पाठकगण इसे पट खण्डागमके निम्न सूत्रोंके साथ पदंपहले षट् खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोंका स्पष्ट मणुस्सा मिच्छाइटि-सामणसम्माइट्टि प्रसंजदसम्मा. अर्थ बतलानेवाला कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख मिल जाता इद्वि-हाणे सिया पजत्ता सिया पजला ॥