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वर्ष
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जैनियोंपर घोर अत्याचार
बर्माको शैव धर्म में ले लिया। उसके बाद इस राजाने कड- जैनों को अपने मन्दिर में शैव क्रियाकांड के अनुसार पहले जोरका जैन मंदिर तोड़कर शिव मंदिर बनवाया ! चोल भस्म और ताम्बूल जाना चाहिये और इसके बाद अपने वंशके राजाओंके दरबार में तो शवोंको खाम मम्मान प्राप्त हुअा। इनके प्रभावका खास कारण तो यह था कि मदुरा जब दक्षिण भारतमें शैवधर्म इस तरहम नये रूपये के पांड्य राजा भी जो अन्त तक जैन थे, शैव बन महत्वशाली बन रहा था उमी ममय वैष्णव धर्ममें भी गए । पांढ्य राना सुंदरने (११ वीं सदी ?) चोल कन्या प्रचंड विकास हो रहा था। राजा राजेन्द्रकी बहिनके साथ विवाह किया और रानीक प्रसिद्ध श्राचार्य रामानुज (१०५०-५५३७) त्रिचिना प्रभावसे सुंदरने शैवधर्म स्वीकार कर लिया। पीछ सुंदर पलीके पास धीरंग वेण्याब धर्मक विशिष्टाद्वैत मतका इतना दुराग्रही शैव हुअा कि जिनने शवधर्म स्वीकार नहीं प्रचार करने थे और लोगांगे अपना शिष्य बनाते थे। किया उन पर अनेक जुल्म किये। जिन लोगोंने जैनधर्म चील गजाने रामानुजाचार्यसे विष्णुम शैव बड़े है" नहीं छोड़ा एमे करीब पाठ हजार लोगोंको इसने फांसी इम मतक प्रचार करने को कहा, मगर अापने यह स्वीकार पर चढ़ानेका हुक्म किया !!! कहा जाता है कि इन भाग्य- नहीं किया और वहांम अन्यत्र चले गये। तब होयमत हीन धर्मवीरों की प्रतिमाय उत्तर श्राकाटमें विद्यमान तिवतूर गजा विद्धिदवने उन्हें अश्रय दिया और वह उनका शिष्य के देवालयोंकी भीतों पर अङ्कित हैं।
होगया । तया पहले के जिन महधर्मी जनाने इस नए धर्म जैनधर्मके दमरे प्रचण्ड शत्र शवधर्मक लिंगायत में श्रान इनकार किया उन्हें पानी में डालकर पिल वाहाला" सम्प्रदायी निकले बसव नामक ब्राह्मणने लिंगायत धर्मकी सन १३६८ के एक शिलाले ग्बम मालूम होता है कि म्थापना का अथवा उपका पुनरुद्धार किया। बसव, कलचुरि
इसके बाद भी वैष्णवोंने जैनियोंपर बहुत जुल्म किये थे । राजा विजलका (११२६-११६७ ) अमान्य था। जैनांका
इम शिलालेखमें बताया गया है कि -- जैनाने विजय नगर कहना है कि 'बमवने विवेकशून्य बनकर अपने महा प्रचंड
के गजा बुक्कगयक पाम फरियाद की थी कि हमें वैष्णव बलम अनेक लोगोंको अपने एकेश्वर संप्रदायका शिष्य
लोग मनाते हैं। उसपरम राजाने श्राज्ञा दी कि "हमारे बनाया।' लिंगायतोंने जैनों पर असह्य अत्याचार किये।
राज्य में सभी धर्मके लोगोंको समान भावमे रहने और उनके जन मालका नाश किया. उनके मन्दिर तोड़ डाले
अपने धर्म पालन करनेकी संपूर्ण स्वतंत्रता है।" इम और उन्हें स्वधर्मी बना लिया। इस नवीन सम्प्रदायके
शिलालेखमें यह भी बताया गया है कि श्रवण बेलगोल में प्रचार में प्राचार्य एकांतद रामैयका नाम विशेष उल्लेखनीय है।
गोम्मट (गोम्मटस्वामी-बाहुबलि) की प्रतिमाको कोई भ्रष्ट न लिंगायत अपनेको वीर-शैव कहते हैं। इन्होंने थोडं कर, इमोल
कर, इसी लिए वहां २० श्रादमियोंका पहरा रखा गया था। समय में ही कनड़ी और तेलगु प्रदेशों में उत्तम स्थान प्राप्त
वंडित किए गए देवालयोंक पुनरद्वारकी श्राज्ञा दी गई थी। कर किया। इन लोगों का धर्म मैमूर, उम्मतूर, वोडेयर
रामानुजके मौ वर्ष बाद कानद्दा प्रदेश में एक दूसरे (१३६१-१६१०) तथा केलडीके नायक राजाभोंका (१५५०
वैया वाचार्य हुए। उनका नाम मध्य अथवा श्रानंदतीर्थ १७६३) राजधर्म था। अभी तक दक्षिण भारत के पश्चिम (११६१-१२७८) था। इनने हुँतमतका प्रचार किया। किनारेक प्रदेशामें बहुसंख्यक लोग यह धर्म पालने है। पश्चिम किनारेपर इनके अनेक अनुयायी होगए। जैन लोगोंक साथ इन लोगोंका सम्बन्ध हमेशास द्वेषभाव
इम संप्रदायने भी जैन धर्मपर बड़ा धक्का लगाया। पूर्ण रहा मालूम होता है।
इसके बाद ब्राह्मण कुलोत्पन्न निम्बकाचार्यने (१३वीं सदी एक शिलालेखसे मालूम होता कि १६३८ में एक में !) भेदाभेद वादका प्रचार खाम करके उत्तर भारत में मतांध लिंगायतने हलेवीरके जैनों के एक मुख्य हस्तिस्तम्भ मथुरामें किया । परन्तु इनके द्वारा जैनोंकी हानि हुई पर शिवलिंग चिह्नित कराया। जैनोंने इसका घोर विरोध मालूम नहीं होती है। एक लेखस तो मालूम होता है कि किया । अन्त में सुना हो गई। सुलहकी शर्त यह हुई कि जैनौने उनके सम्प्रदायको उखाड़ दिया था, फिर पीछेस