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भनेकान्त
[वर्ष
सम्मामिछाइहि-संजदासजद-संजब-हाणे शियमा है। अपितु उक्त सूत्रकालके पूर्वसे ही सी भारही। पजसा ॥१०॥
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अपर्याप्त अवस्थामें एवं मणुस्स-पजत्ता ॥१॥
बियों के मादिके दो गुणस्थान और पुरुषोंके पहला, दूसरा
और चौथा ये तीन गुणस्थान हीसंभव होते हैं और इसलिये पज्जत्तियानी मिया अपज्जत्तियामो ||१२||
इन गुणस्थानोंको छोड़कर अपर्याप्त अवस्था में भाववेद या सम्मामिछाइटि-प्रसंजदसम्माइटि-संजदासंजद-संजद- भावलिङ्ग नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यणियोंकी तरह ठाणे णियमा पातियानो ॥३॥
अपर्याप्त मनुष्यनियोंके १४ भी गुणस्थान कहे जाते और षटगडागम और राजवार्तिक इन दोनों उद्धरणों- इस लिये वहां भाववेद या भावलिङ्गकी विवक्षा-अविवक्षा पामे पाठक यह सहजमें समझ जावंगे कि राजवार्तिकों का प्रश्न नहीं ठता। हां, पर्याप्त अवस्थामें भाववेद होता षटम्बरबागमका ही भावानुवाद दिया हुआ और सूत्रों में इस लिये उसकी विवक्षा-प्रविवक्षाका प्रश्न जरूर उठेगा। जहां कुछ भ्रान्ति हो सकती थी उसे दूर करते हुए सूत्रोंके अत: वही भावलिङ्गकी विवक्षासे १४और द्रव्यविकी हार्दका सुस्पष्ट शब्दों द्वारा खुलासा कर दिया गया है। अपेक्षा से प्रथमके पांच ही गुणस्थान बतलाये गये। रानवात्तिक उपर्युक्त उल्लेखमें यह स्पातया पतला दिया इन दो निष्कर्षोंपरसे बीमुक्ति-निषेधकी मान्यतापर भी गया है कि पर्याप्त मनणियोंके १४ गणस्थान होते महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है और यह मालूम हो जाता हैं किन्तु वे भावलिंगकी अपेक्षास है, द्रव्यालङकी कि स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यता कुंदकुंदकी अपनी चीज अपेक्षाम तो उनके आदिके पांच ही गणस्थान होते नहीं। किन्तु वह भ. महावीरकी ही परम्पराकी चीज
इससे प्रकट कि वीरसेनस्वामीने नो मावस्तीकी और को उन्हें उक्त सूत्रों-भूतबलि और पुष्पदन्तके य. अपेक्षा १४ गुणस्थान और दम्यस्त्रीकी अपेक्षा ५ गुणस्थान चोंके पूर्वसे नसी भाती हुई प्राप्त हुई। षट् खण्डागमके १३ वे सूत्रको टीकामें व्याख्यात किये है तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यहाँ सामान्य मनुऔर जिन्हें ऊपर प्रकलंकदेवने भी बतलाये है वह बहत प्यणीका प्रहण है-द्रव्यमनष्यणी या द्रव्यस्त्रीका नहीं। प्राचीन मान्यता है और वह सूत्रकार के लिये भी है। क्योंकि प्रकलदेव भी पर्याप्त मनुष्यमियोंके गुण. प्रतएव सूत्र १२ में उन्होंने अपर्याप्त सियों में सिर्फ दो स्थानोंका उपपादन भावनिकी अपेक्षासे करते हैं और ही गुणस्थानका प्रतिपादन किया है और जिसका सपपावन दम्यलिङ्गकी अपेक्षासे पांच ही गुणस्थान बतलाते हैं। 'अपर्याप्तिकास द्वे श्रदो, सम्यक्त्वेन सह सीजनना- यदि मूत्रमें द्रव्यमनुष्यणी या द्रव्यस्त्रीमात्रका ग्रहण होता
क लदेवने किया प्रकला तो वे सिर्फ पांच ही गुणस्थानोंका उपपादन करते भावस्फुट प्रकाशमें सूत्र और १२ से महत्वपूर्ण तीन निष्कर्ष
लिङ्गकी अपेक्षासे १४ का नहीं। इस लिये जिन विद्वानोंका और निकलते हुए हम देखते हैं। एक तो यह कि सम्य- यह कहना है कि 'सूत्र' में पर्याप्त शब्द पड़ा है वह अच्छी ग्दृष्टि स्त्रियों में पदानहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था तरह सिद्ध करता है कि द्रव्यस्त्रीका ही यहां प्रहण है क्यों में बियोंके प्रथमके दोही गुणस्थान कहे गये हैं जबकि कि पर्याप्तियां सब पुद्गल द्रव्य ही है... 'पर्याप्तमं का पुरुषों में इन दो गुणस्थानोंके प्रक्षावा चौथा भसंयत-सम्य- ही द्रव्यस्त्री अर्थ. वह संगत प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ग्दष्टि गुणस्थान भी बतलाया गया है और इस तरह उनके अकलकदेवके विवेचनसे प्रकट है कि यहां पर्याप्त स्त्री' का पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान कहे गये। अर्थ दम्यस्त्री नहीं है और न द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है किन्तु इसी प्राचीन मान्यताका अनुसरण और समर्थन स्वामी सामान्यस्त्री उसका अर्थ है और उसीका प्रकरण है और समन्तभदने रस्नकरगहश्रावकाचार (श्लोक ३५) में किया भावनिजकी अपेक्षा उनके १४ गुणस्थान है। दसरे. है। इससे यह प्रकट हो जाता है कि यह मान्यता कुन्दकुन्द १ देखो, पं० रामप्रस दजीशास्त्रीके विभिन्न लेख और 'दि. या स्वामी समन्तभद्र भादि द्वारा पीछेसे नहीं गढ़ी गई नसिद्धान्तदर्पण' द्वितीयभाग पृ.८और पृ. ४५ ।