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किरण १]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
लेखमें उक्त बात कही ली। उन्होंने अपने दोषारोपड चार्यजीने उसकी भूल बतलानेका सुयश सूटने के लिये जान की पुष्टिमें जो मेरा वाक्यांश उद्धत किया। वह अपनी बम कर स्वयं कल्पित कर लिया है। ऐसी हीनप्रवृत्त कारखापरंपराको निये हुए पूर्णत: इस प्रकार - एक म्यायाचार्य योग्य नहीं। ___ कारिकामें जो विद्वान् विशेषण भी बगाग गया (६ ग) वीतराग और विद्वान् पद दो अलग अलग है, और जिसपर न्यायाचार्यजीने सर्वथा ही कोई ध्यान नहीं मुनियोंके वाचक नहींदिया है, सप्लसे स्पष्ट है कि प्राचार्य ग्यारहवें और बारहवें यपि पूर्वोक्त विवेचनसे पूर्णत: मिद हो जाता है कि गुणस्थानोंके भी पार बार केवनीके दो स्थानों की भोर भातमीमांसाकी ३ वीं कारिकामें बठे भादि गुणस्थानवता ही यहाँ दृष्टि रखते हैं। उनके ऐसा करनेका कारण यह साधुका ग्रहला कदापि नहीं बन सकता और इस लिये प्रतीत होता है कि ग्यारहवें और बारहवें गणस्थानों में पंडितजीकी तत्संबंधी अन्य करूपनामोंकी कोई मार्थकता वीतरागता होते हुए मी अज्ञानके सद्भावसे कुछ मनोत्पत्ति नहीं रह जाती। तथापि उन्होंने अपने निष्फल प्रया में की आशंका हो सकती है। किन्तु अन्तिम दो गणस्थान ऐसी भूलें की है जिनपे साधारण पाठकों को प्रान्तियां ऐसे हैं जहाँ साता व अमाता वेदनीय आदि अघातिया उत्पन्न हो सकती हैं। अतएव उनका निवाया कर देना भी कोंके उदयसे सुख और दुखका वेदन तो संभव है, किन्तु उचित जान पड़ता है। पंडितजी बिखते हैं कि"३ वीं कषाय व अज्ञानक अमावसे पुण्यपाप बन्ध या किसी भी कारिकामें जो वीतरागो मुनिविद्वान् शनका प्रयोग है वह प्रकार के अन्तरंग मनकी संभावना नहीं रहती। अतएव एक पद नहीं है और न एक मकि उसका वाच्य। उन्होंने इनी दो गुहस्थानोंका ग्रहण किया है।" किन्नु १२ वीं कारिकामें भाये हुए 'प्रचेतनाकषायो' की
कृपाकर पाठक देखें कि मैंने यहां कहां प्रज्ञानको बन्ध तरह इसका प्रयोग है और उसके द्वारा कीतराग मुन' का कारण कहा ! मैंने तो उससे मलोत्पत्तिकी बात कही तथा विद्वान मुनि' इन दोका बोध कराया है " किन्तु है और वह ठीक भी है क्यों कि स्वयं प्राप्तमीमांसाकारने उक्त दोनों कारिकामोंमें जो बदा भारी भेद उस पर उसे दोष कहा और उसे मनकी उपमा दी और पंडितजीकी दृष्टि नहीं गई जान पड़ती। प्रथम कारिकामें अकलंक तथा विजानन्दि जैसे टीकाकारोंने भी उसे मारमा प्राच.यने परमें सुख-दुख उत्पन्न करने वाले दो भिन्न प्रकार का मन ही कहा है। यथा
के उदाहरण दिये हैं-एक चेतनका और दपा सचेतन दोषावरणयोहीनिनिश्शेषारस्य तिशायनात । का और इसी लिये जन्होंने उनके साथ द्विवचनका प्रयोग कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलक्षयः । किया है और उनकी क्रिया मी द्विवचनमें रखी गई है। वचनसामर्थ्यादज्ञानादिदोषः।...."प्रतिपक्ष एवात्मना- किन्तु दूसरी कारिकामें स्वत: दुख सुख संवेदन करने वाला भागन्तुको मलः परिक्षयी स्वनिहर्हामनि मत्तविवर्द्धनवशात। उदाहरण केवल एक सचेतनका ही दिया जा सकता, द्विविधो यात्मनः परिणामः स्वाभाविक भागन्तुकश्च । तत्र अचेतनका नहीं। वीतराग और विद्वान् गुण परस्पर विरोधी स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मनः पुनर- मीनहीं जो एक ही व्यक्ति में न पाये जाते हो। यथार्थत: तो ज्ञानादिरागन्तुकः कमोदय मिमित्तकत्वात् ।
वे परस्पर सापेत हैं। यह बात भी नहीं कि वीतराग मुनि अवसाकारने ज्ञान और दर्शन पावरखोंको रज के दुखसेतो पुण्यबंधन होता हो किन्तु सुखसे पाप बन्ध कहा है। यथा
होने लगता हो और न विद्वान् मुनिके सुखसं पापका ज्ञान-हगावरणानि रजांसीव बहिरंगान्तरंगाशेष- प्रभाव होते हुए दुखसे पुश्य बंध हो जाता हो। इस त्रिकालगोचरानन्तार्यव्यंजनपरिणामकवस्तुविषयबोधानुभ- कारिका किया मी एक वचन है। तब फिर यहां वीतराग वप्रतिबन्धकत्वाद् रजांसि। (षट् ख.प्र.१ पृ.१३) और विद्वान् दोनोंके विशेष्य दो अलग अलग मुनि मानने
मैं पंडितजीसे जानना चाहता कि इसमें मेरी कौनसी कीच्या सार्थकता और रसके लिये कारिकामे क्या सैदान्तिक भून! प्रज्ञानको बन्धका कारण तो म्याया- प्राधार! यदि टीकाकारने 'वीतरागो विद्वांस मुनिः' मी