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अनेकान्त
[ वर्ष
की प्राकत पागधना का निकटतम अनुबाद दो और उनकी श्राधार पर की हो, जैसे कि उन्होंने अपने पंचसंग्रह और पंचसंग्रह प्रधानतः प्राकृत पंचमंग्रह के आधार पर ही तैयार अाराधनाकी रचना प्राकृत के पूर्ववर्ती उन उन ग्रन्थोंके किया गया है जो एक हस्तलिग्विन में उपलब्ध हुअा हे ओर अाधार पर की है। संस्कृत रचनाके लिए अपभ्रंश मूलजिमे कुछ दिन हुए पं० परमानन्दजीने' प्रकाशमं लाया ग्रन्थ के उपयोग करने की अपेक्षा प्राकृत मूल (महाराष्ट्री या है। इस प्रकार अमितगतिने अपनी संस्कृत धर्मपरीक्षाकी शौरसेनी) का उपयोग करना सुलभ है। रचना किमी पूर्ववर्ती मूलप कृत रचनाके श्राधारपर की है, (एच) उपर्युक्त प्रश्नके उत्तरके प्रसंगमें मैं प्रस्तुत इसमें हरतरहकी संभावना है।
समस्या पर कुछ और प्रकाश डालना चाहता हूँ । अमितहरिषेण की अपभ्रंश धर्मपरीक्षा-जो अमितगतिकी धर्म- गतिकी धमपरीक्षामें इस प्रकारके अनेक वाक्यममूह हैं, परीक्षासे २६ पर्ष पहले लिम्ब। गई है और विवरण तथा जिनमें हम प्रत्यक्ष प्राकृतपन देख सकते हैं। यदि यह कथावस्तुकी घटनाअकि क्रमका दृष्टि से जिसके साथ अमित- प्राकृतपन हरिणकी धर्मपरीक्षामें भी पाया जाता तो कोई गति पूर्ण रूपमे एकमन है--का प्रकाशमें लानेके माथ ही ठीक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योकि उस स्थिति इस प्रश्नपर विचार करना श्रावश्यक है कि क्या अमितगति में हरिषेण और अमित गति--दोना ही की रचनाएं जयगम अपने कथानकके लिये दरिपेण ऋणी हैं ? इस संबंधों की रचनानुमाग दाती। लेकिन यदि यह चीज प्रसंगानुसार हरिपणने जा एक महत्वपूर्ण बात बनलाई है वह हमें नहीं हरिपंणको रचनामें नहीं है तो हम कह सकते है कि भूल जानी चाहिए। उन्दाने लिखा है कि जो रचना जय- अमितगति किसी अन्य पूर्ववता प्राकृत रचना के ऋणी है रामको पहले से गाथा-बन्द में लिखी थी उसीको मैंने पद्धग्यिा और संभवतः वह जयगमकी है । यहाँ पर इस तरह के दोनों छन्द में लिखा है। इसका अर्थ है कि हरिपेणक सामन भी रचनाअंकि कछ प्रसंग माय साथ दिए जाते हैएक धर्मपरीक्षा थी, जिसे जयरामने गायामि लिग्वा था (१) अमितगतिने ३, ६ में 'इट्ट' शब्द का उपयोग किया है।
और जिसकी भाषा महाराष्ट्र या शौरसेनी रही होगी। जहाँ (१) स्थानों की तुलनात्मक गिनती करते हुए हरिपेगाने इस तक मेरी जानकारी है, इस प्राकृत धर्मपरीक्षाकी कोई भी शब्दका उपयोग नहीं किया है। देखिए, १, १७ प्रति प्रकाशमं नहीं आई है और न ही यह कहना संभव है (२) अमितगतिने ५, ३६ और ७,५ में जेम् धातुका कि यह जयगम उस नामक अन्य ग्रन्थकारोमसे थे, जिन्हें उपयोग किया है। जो इस प्रकार हैहम जानते है। जब तक यह रचना उपलब्ध नहीं होती ततोऽवादन्नृपो नास्य दीयते यदि भूपणम् । है और इसकी हरिण और अमितगनिकी उत्तरवा रच- न जेमति तदा साधो सर्वथा किं करोम्यहम् ॥ नानासे तुलना नहीं की जाती है, इस प्रश्नका कोई भी (२) तुलनात्मक उद्धरणको देखते हुए हरिपणने कडवक रीक्षणीय ही (tentative) बना रहेगा। हारपणने जिस
११-१४ में इस क्रियाका उपयोग नहीं किया है। ढंगसे पूर्ववर्ती धर्मरक्षाका निर्देश किया है उसमे मालूम
तथा दूसरे उद्धरण (११-२४) में उन्होंने इस प्रकार होता है कि उनकी प्राय: समस्त सामग्री जयरामकी रचनामें भुजक्रियाका व्यवहार किया हैमौजूद थी। इससे हम स्वभावत: इस निर्णय पर पहुंचते हैं ता दुद्धरु पभणइ उ भुजइ, कि धर्मपरीक्ष की संपूर्ण कथावस्तु जयरामसे ली हुई होनी जइ तहोण उ अाहरणउ दिजह । चाहिए और इस तरद अमितगति रिपेणके ऋणी है यह (३) अमितगतिने ( ४,१६ में ) योषा शब्दका इस प्रकार प्रश्न दी नहीं उठता। यह अधिक संभव हे अमितगतिने शाब्दिक विश्लेषण किया हैअपनी धर्मपरीक्षाकी रचना जयरामकी मूल प्राकृत रचनाके यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता। १ 'अनेकान्न' ३,३ पृ० २५८।
विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ।। २ देखो, एम० कृष्णामाचारियर कृत 'हिस्ट्री आफ क्लासि- (३) इसमें सन्देह नहीं है कि अमितगतिकी यह शाब्दिक कल लिटरेचर' का इन्डेक्स (१६३७) ।
व्युत्पत्ति प्राकृतके मूल ग्रन्थके आधारपर की गई है,