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किरण २]
धवना-प्रशस्तिके राष्ट्रकूटनरेश
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जीवनके मध्यान्हको तो पार कर हो चुका था। मृत्युका है। और यह वल्लभराज उपाधि दन्तिदुर्गके समयसे ही किस भरोसा है कब प्राजाय । अपने जीवनमें उसने गृह- राष्ट्रकूट नरेशोंके नामके साथ लगी चली पाती है। ध्र वराज युद्ध और रासक्रान्तियों देखी ही थीं, राज्यक्रान्ति द्वारा ही की भी यह उपाधि थी। मत: उसके ध्र वराजके लिये उसने बड़े भाईको राज्यच्युत करके स्वय राज्य प्राप्त किया प्रयुक्त होने में कोई बाधा नहीं पाती। ध्र वराजके लिये था । राजनैतिक कारणोंसे उसने उपयुक्त प्रबन्ध किया था। पिम्परी और धूलियाकेताम्रपत्रोंमें नरेन्द्र, नरेन्द्र चक्रचूडामणि कब उपके ऐपे विचार हुए और कब उपने वा राज्याभिषेक मद्रपचूडामणि जैसे शब्द-प्रयोग वीरसेनके बोहणरायणरिंदे किया कौन कह सकता है ? डा. अल्तेकरका अनुमान है णरिंदचूड़ामणिम्मि' लेखसे भी अक्षरश: मिल जाता है। कि अपने अन्तिम दिनों में उसने वैपा किया होगा किन्तु इस प्रकार उसके ध्र वराज होनेकीही सर्वाधिक संभावना है। यह भी तो संभव है कि अपने राज्यकाल के प्रारम्भमें ही
सारांश यह कि पवनाप्रशस्तिका उल्लिखित जगतुंग कर दिया हो । कावीके दानपानसे यही बोध होता है कि
देव चाहे गोविन्द द्वितीय हो, अथवा गोविन्द तृतीय, उपके कुटुम्बके ४ च्छेदमें तत्पर शोंके दमनके लिये ही
अपने कथित राज्याभिषेकके पूर्व, चाहे पश्चात् सम्राटके रूपमें उसने गोविन्दको सिंहामनासीन किया था और यही कार्य
अथवा प्रान्तीय शासकके रूपमें उस उल्लेख विक्रम सं. उपके धिपुर्द किया था । उसके कुटुम्बके उच्छेद में तत्पर
८३८ में होने में तो कोई बाधा ही नहीं पाती। जिनसेनका शत्र उसी समय अधिक थे जबकि उसने अपने भाई के
श्रीवल्लभ भी चाहे गोविन्द द्वितीय ध्र व. अथवा गोविन्द राज्यका अपहरण किया। ये शत्र उपके भाई गोविन्दति के
तृतीयमेंसे कोई भी हो शक ७०५ में उसके राष्ट्रकूटनरेश महायक राजा और सामन्त थे । उनके विरुद्ध लड़ने और
हानेकी एकसी संभावना है और इस कारणसे भीषवनाकी सनका दमन करने में ही उसका शेष मारा जीवन व्यतीत हुआ।
समाप्ति वि०सं० ८३८ में होनेमें कोई आपत्ति नहीं पाती। मैंने तो अपने लेग्वमें या सुझाव भी उपस्थित किया
प्रयत इसके, शक संवत् ७३८ में तो किसी भी जगतुगडे था कि यदि उमका राज्याभिषेक भी वि. सं. ८३८
होने की कोई सम्भावना ही नहीं। जगतुंग गोविन्द का (मन् ७८३) में नहीं होचुका था तो कमसेकम अपने अन्य
अस्तित्व भी शक सं० ७३५के पूर्व ही समाप्त होजाता। भाईयों-स्तम्भ कर्क इत्यादिकी भौत वह इस प्रान्तका जिसमें रहकर वीरसेनने धवलाकी समाप्ति की, तत्कालीन
प्रोफेसर हीरालालजीके विवक्षित समय-निर्णयके प्राननीय शासक तो हो ही सकता है। राजकुलके अन्य ।
विषयमें जो मैंने अपने मूल लेख में अन्य अनेक ज्योतिष, प्रान्तीय शासकों और रामपुरुषों के लिये भी राजा और इतिहास, अनावश्यक पाठ-संशोधनादि विषयक प्रबल दोष उनके शासन के लिये राज्य शब्द प्रयुक्त होता ही था। स्वयं निर्दिष्ट किये हैं चौर जिन प्रबल प्रमाणों और यक्तियोंसे स्वामी वीरसेनने वलाटीकाके प्रारम्भिक विवेचनमें कुछ यह सिद्ध किया है कि भवलाप्रशान्तिमें उल्लिखित उक्र एक गांवों के अधिपति तक को राना कहा है।
प्रन्धकी समाप्तिका ममय वि.सं. ८३८ (श. सं७०३, इसके अतिरिक्त पवना प्रशस्तिके अशुद्ध पाठों और सन् ७८०९.)ही हो सकता है, प्रोफेपर माहिब द्वारा वर्ण विपर्ययोंको देखते हुए लिपि-प्रतिलिपिकाकी निर्मात शक संवत् ७३८ (सन्१६ई.) नहीं, सो यह तो असावधानीसे 'ध्र पराज' नामके प्राकृत रूप 'धुबराय' का विषयविशेषज्ञ ही निर्णय करेंगे कि वह सब तथा इस लेखमें 'बाहणराय' रूपमें उपलब्ध होना भी कोई प्राश्चर्यकी बात प्रस्तुत विवेचन भी क्या केवल मेरी थोथी करूपनाएँ ही नहीं। अथवा यह शम्द 'बल्लहराय' का भी भ्रट रूप हो- और उनके पीछे अपलो शक्ति और समयका दुरुपयोग सकता .भंडारकरके अनुमर (पृ. ५७) 'वल्लभराज' करना निष्फन या सफल । मैंने तोइतिहासविषयके एक का प्राकृत रूप बल्हाराय या 'बलराय' होगा। तमामीन विद्यार्थी और सत्यान्वेषकको मियत से प्रस्तुत विषयपर अरब लेखकोंका 'बलोरा' शब्द इसी नामको सूचित करता प्रकाश डालने की चेष्टा की है। १ Kavigrant-Ind. Ant. vol. Vp.147,v.27,