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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(ले० प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए० )
। गत किरणसे आगे] (६ क) कारिकामें अपेक्षित हेतु और उसका स्थान- कि बन्धका कारण केवल सुन-दुख नहीं होता ? यदि कोई
न्यायाचार्यजीमे अपने पूर्वलेख में कहा था कि गीली लकडीको जलती देखकर कहता है कि अग्नि ही "माप्तमा. काल में जो वातराग मुनिमें सख दःख धूमकी उत्पत्तिका कारण है, तब उसे सूखी बकरी निधूम स्वीकार किया गया है वह छठे भादि गुणस्थानवी वीत. जली हुई दिखाकर ही तो यह विश्वास कराया जा सकता राग मुनियों के ही बतलाया, न कि तेरहवें चौदहवें है कि शुद्ध अग्नि धूमका कारण नहीं किन्तु लकडीके गुणस्थानवी वीतराग मुनि--केवलियोंके।" इसपर मैंने गीलेपन महित भग्नि ही उसका कारण है। केवल गीजी अपने पूर्व लेख में लिखा था कि यदि उक्त कारिकामें छठे लकडी ही मधूम जलती हुई दिखा दिखाकर उसकी भ्रांति भादि गुणस्थानवर्ती मुनिका प्रहण किया जाय तो फिर का निवारण नहीं किया जा सकता। ठीक इसी प्रकार प्रतिपाच विषयकी युक्ति ही बिगड़ जाती है और विपरीत प्राप्तमीमांसाकी उस कारिकामें पूर्वपक्षीकी जो शंका है कि होनेसे जो बात प्रसिद्ध करना चाहते हैं वही सिद्ध होती अपने दुखसे पुण्य और सुध पापका बंध होता है, उसके है, क्योंकि छठे गुणस्थान में सुख-दुःखकी वेदनाके साथ निराकरण के लिये भाचार्य उसे एक ऐमा व्यक्त दिखलाते प्रमाद और कषाय हमदो बन्धके कारणोंस कर्मबन्ध हैं जिप्तके दुख-सुख तो, किन्तु फिर भी पुण्य-पापका अवश्य होगा। यहाँ ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों की पाप पन्ध नहीं है। ऐसा व्यक्ति, वेदनीयोदयसे युक्त किन्तु प्रकृतियोंका एवं वेदनीयादि प्रघातिया कर्मोकी पुण्य प्रबन्धक जीव ही हो सकता है। छठे भादि गुणस्थानवर्ती प्रकृतियोंका परिणामानुसार बन्ध होना अनिवार्य है। बंधक जीवोंके उदाहरण पेश करनेसे पूर्वपक्षीकी प.तका सातवें गुणस्थानमें प्रमादका प्रभाव हो जानेपर भी कषायो. खंडन कदापि नहीं हो सकता, बकिन उससे तो उसकी दयसे कर्मबन्ध होगा ही, और यही बात सचम साम्पराय शंकाकी ही पुष्टि होगा, क्यों कि उन साधुओंके सुख दुख गुणस्थान तक भी उत्तरोत्तर हीनक्रमसे पाई जावेगी । कषाययुक्त होनेसे कर्मबन्धक हैं ही। अतएव पंडितजाके भतएव छठेसे दश गुणस्थान तक तो भाप्तमीमांसाकारको समाधानमे उनके पक्षका समर्थन नहीं होता, बल्कि उससे युक्ति किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होती।"
और भी सुस्पष्ट हो जाता है कि भाप्तमीमांसाकी १३ वीं पायाचार्य जीके मतानुसार "इस शंकाका समाधान कारिकामें छठे गुणस्थानवर्ती मुनिका नहीं, किन्तु प्रबन्धक यह है कि पूर्वपत्ती प्रमाद और कषायको बन्धका कारण
गुणस्थानव संयमीका ग्रहण किया गया है और यदि नहीं मानना चाहता, वह तो केवल एकान्ततः दावोत्पत्ति विद्वान् विशेषण वहां कोई सार्थकता रखता है तो उससे को ही बन्धकारया कहना चाहता है, और उसके इस कथन केवलीका ही बोध होता है जैसा कि भागे दिखाया जायगा। में ही उपयुक्त दोष दिये गये हैं। जब उसने अपने एकान्त (६ख) स्वयं प्राप्तमीमांसा और उसकी टीकाओं पक्षको छोड़कर यह कहा कि 'भनिसन्धि' (प्रमाद और में अज्ञानको मल ही कहा हैकषाय) भी उसमें कारण हैं तब उससे कहा गया कि यह इस सिलसिले में पंडितजीने मेरे सिर एक सैद्धान्तिक तो अनेकान्त सिद्धि भा गई।"
भूल जबर्दस्ती मद दी है कि मैने "अज्ञानको भी बन्धका यहाँ प्रश्न यह है कि प्राचार्यने पूर्वपक्षीका वह एकान्त कारण" बतलाया है और फिर मापने उस पर एक बम्बा पक्ष छुदाया कैसे, और उसे यह कैसे विश्वास कराया कि व्याख्यान भी मादा है। मुझे मार्य है कि पंडितजीने मेरे