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अनेकान्त
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कर दिया तो उनका जोरा हुमा 'च' दोनो विशेषणोंको (६५) किसी गुणस्थानमें किसी कर्मका बन्ध न होने मोदकर उन्हें एक मुनिके हो तो विशेषण बनाता है। उस से वहाँ उम. उदयाभाव नहीं सिद्ध होतासे दो मुनि कहाँप खड़े होगये जिनमें से एक वीतराग! पंडितजीन सिद्धान्त में एक नया शोष यह किया है पर विद्वान् नहीं और दूपरा विद्वान् है किन्तु वीतगग कि "यथार्थत: संसारी जीवों में स्थितिबन्ध और अनुभागनहीं? पंडिनजाने इन्हें अलग अलग तपम्वी साधु और बन्धपूर्वक ही सुख दुम्बकी वेदना देखी जाती है। केवली उपाध्याय परमेष्ठी पर घटाया है। परन्तु क्या जो तपस्वी में यह दोनों प्रकार के बन्ध नहीं होते तब उनके वेदना कैसे साधु होतावह वीतराग होकर विद्वान् नहीं होता या हो सकती है?" न्यायाचार्य जीकी इतनी स्थूव सैद्धान्तिक उपाध्याय परमेष्ट' विद्वान् होकर वीतराग नहीं होते? प्रान्तिये एक साधारण कर्मसिद्धान्तज्ञको भी माश्चर्य हुए न्यायालायजीने इस सम्बन्ध में लिखा है-"जान पड़ता बिना नहीं रहेगा। यदि जिम गुणस्थानमें जिस कर्मकाबन्ध प्रो० मा को कुछ भ्रान्ति हहै और उनकी दृष्टि 'च' नहीं होता उसका वेदन अर्थात उदय भी न होना हो तो शब्द पर नहीं गई। इसीसे उन्होंने बहुत बड़ी गलती में पंडितजीमे पूछता हूँ कि जब नपुंसक वेदका बन्ध प्रथम खाई है और वे 'वीनगग विद न मुनि' जैमा एक ही पद गुणस्थामें व सीवेदका द्वितीय गुणस्थानमें ही न्युच्छित मान कर उसका कनली अयं करने में प्रवृत्त हुए हैं।" मैं
काली प्रकार प्रयत्न "मैं होजाता है तब उनका वेदन नौवे गुणस्थान तक किस प्रकार पंडितजीप पूछना हूँ कि च' शब्द पर मेरी ही रष्टि नहीं होता होगा? नरक गतिका बन्ध प्रथम गुणस्थान में ही गई या स्वयं प्रातमीमांसाकारकी मी नहीं गई. क्यों कि ममाप्त होजाने पर भी ये गुणस्थान तक उसका उदय उनी कारिकामें भी 'च' कहीं दिखाई नहीं देना बड़ी
कैप होता है ? तिर्य नगति व मनुष्यगतिका बंध क्रमश: का होगी यदि पंडित जी यह बतला देंगे कि प्रमत्तसंयत
द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानमें ही टूट जाने पर भी उनका
उदय क्रमश: पां-वे और चौदहवें गुणस्थान तक कैसे गुणस्थानमें कौनमा तप करके माधु वीतराग' संज्ञा प्राप्त
माना गया होगा? ज्ञानावरया, दशनावरण और अन्तराय कर लेता है जिससे उसके दुबमे पुण्यबंध नहीं होता और
कर्मों का बंध दशवें गुगास्थानके आगे नहीं होता, फिर कौन मी विद्या पदकर वह ऐसा विद्वान्' हो जाता है जिम
बारहवेंके अन्त तक उनकी वेदना कैप होती होगी? स्वयं से उपके सुख पापबन्ध नहीं होता उनके इम स्पष्टी
तीर्थकर प्रकृति पाठवें गुणस्थानसे धागे नहीं बंधती, तब करणमे मेगही नहीं, किन्तु समस्त जनपिन्दान्तकी 'भ्रांनि'
फिर उसका वेदन तेरहवे गुसस्थानमें के संभव होता है? और 'बहुत बड़ी गलती' सुधर जावेगी, क्योंकि अभी
यथार्थतः मयोंकिवलीके बन्ध तो केवल सातावेदनीय. तक उप पिद्धान्नानुसार छठे गुणस्थानमें प्रबन्धक भाव
मात्रका होता है और वह भी स्थिति और अनुभाग-रहित किमी प्रवम्यामें भी नहीं पाया जाता । हम गुणस्थानवाया
केवल र्यापथिक । किन्तु उदयानुपार वेदना उनके ४२ साधु नो जो भी दुख-सुख अनुभव करता या कराता। कर्म प्रकृतियोंकी पाई जाती है और प्रयोगिकेवलीक भी उममे पुण्य-पापबन्ध होना अनिवार्य है, क्यों कि उसको १३ की। इनका वहां स्थिति व अनुभाग बन्ध न होने पर कोई भी प्रवृत्ति कषायसे सर्वथा मुक्त हो ही नहीं सकती। मी वेदन कहां भाता है। वीतरागता और विद्वत्ता बबस मन, वचन और काय की पंडितजी! कर्ममिद्धान्तकी व्यवस्था तो यह है कि ऐसी प्रवृत्तियां जिनके द्वारा पुण्य-पाप बन्ध न हो, तो सब प्रकृतियोंकी बन्ध और उदयम्युच्छिति एक ही माय स्वामा समन्तभद्र ने केवल सयोगिकेवली ही मानी है व एक ही गुणस्थानमें नहीं होती। बांधे हुए कर्मों का क्यों कि मैंने स्वयंभूस्तोत्रमें स्पष्ट कहा है कि
तत्काल उदय भी नहीं होता। उनके स्थितिबन्यानुपार
जब उनका भावापाकाल समाप्त हो जाता है तभी वे काय-बाय-मनसा प्रवृत्तयो नामवंस्तव मुनेशिकीर्षगा। उदयमें पा सकते हैं, और फिर वे अपने उदयम्युच्छिति नासमीच्य भवत: प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्यमोहितम् । स्थान तक अपना वेदन कराते रहते हैं, चाहे वहां उनका