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भनेकान्त
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उपरके सक्स से इतना तो स्पष्ट है कि संवत् १२०. कर दिये गए, इसीसे इनका कोई पता नहीं चलता और के पास-पास दिल्लीपर चौहानोंका अधिकार हुमा, परन्तु इन्हीं नहलसाहकी प्रेरणासे बुध श्रीधरने अपने उक्त पाचइस बातका अभीतक कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिला नायरितकी रचनाकी थी। जिसमें यह बतलाया गया हो कि उक्त पार्श्वनाथ चरितमें
प्रतुत नया मन्दिर वि० सं० १८५७ से १८६४ तक अखिखित अनंगपाखसे ही वीसलदेव या विग्रहराने
सात वर्ष में बनकर तय्यार हुना था और सं. १८६४ की दिल्ली हस्तगती थी। यद्यपि पं. बचमीधर वाजपेयीने
वैशाख शुक्ला तृतीयाको इसकी प्रतिष्ठा हुई थी। उस तृतीय अनंगपासके शासनकाल में दिल्लीका वीसलदेव द्वारा
__ समय इस मन्दिरकी लागत सात लाख रुपया थी। इस विजित करनेका उल्लेख तो किया है, परन्तु उसकी पुष्टि में
मन्दिरमें समोसाणक वेदीमें जो कमल बना हुआ है वह कोई प्रामाणिक उल्लेख उप स्थत नहीं किया।
अत्यन्त दर्शनीय है और उसकी लागत दस हजार रुपया देहलीके ऐतिहासिक दि. जैन मन्दिर
बतलाई जाती है। इस मन्दिरके निर्माणकर्ता ना. हर. दिल्ली या देहबीमें जहां मुगलकालीन इम रतें दर्शनीय सखरायजी थे. जो बादशाहके खजाँची थे और जिन्हें हैं और ऐतिहासिकताके साथ साथ मुस्लिम कालीन बादशाहकी भोरसे 'राजा' का खिताब मिला हुआ था। संस्कृति एवं कलाका प्रदर्शन करती हैं वहां देहलीके यह धर्मात्मा पुरुष थे और उस समय देहलीके जैनियों में दिगम्बर जैनियोंके मन्दिर भी अपनी सानी नहीं रखते। प्रमुख थे। उनमें धर्मपुराका मन्दिर, जिसे नयामन्दिर' के नाममे
पं. लक्ष्मीधर वाजपेयीने 3 इस मन्दिरके सम्बन्ध में पुकारते हैं। इसकी सुवर्णखचित चित्रकारी तो दर्श के
उसका परिचय देते हुए लिखा है कि-'इस मान्दरमें चित्तको मोह खेती । यद्यपि यह मन्दिर विशेष प्राचीन
बुद्धकी मूर्ति हाथीदांतक सिंहासनमें बैठाई गई।" और नहीं है इससे भी पुराने वहीं दूसरे मन्दिर मौजूद हैं।
इसमें उन्होंने उस समय दिल्ली में बौद्धधर्मके प्रचलित उदाहरणस्वरूप खासमन्दिरको ही ले लीजिये जिसे उर्दू .
होने की कल्पना की है जो सर्वया निराधार और भ्रममूलक मन्दिरके नामसे पुकारा जाता है। यह जैन मन्दिर लाल
है, क्योंकि प्रथम इस मन्दिरमें हाथीदांतका कोई किनके पास है। कहा जाता है कि इस मन्दिरका निर्माण
सिंहासन नहीं है । जनियोंके मन्दिरों में हाथीदांत से बनी शाहजहांकी सेना जैन सैनिकोंके लिये किया गया था।
हुई किसी भी चीजका उपयोग भी नहीं होता-वह एक यह मन्दिर जिस स्थानपर बना। वहाँपर पहले शाही
एक प्रकार की हड्डो समझी जाती है। दूसरे इसमें कोई बुद्धछावनी थी और वहां एक जैनी सैनिकको छोलदारी लगी
मूर्ति भी नहीं है. मोंकि बुद्यमूर्ति सवन होती है जबकि हुई थी, उसीमें उसने एक ओर एक मूर्ति अपने दर्शन
दि. जैनियोंकी मूर्तियां नग्न होती हैं जो यथा जात मुद्रांक करने के लिये रखी हुई थी। यह मन्दिर उसी स्थानपर
समान वीतराग, सौम्य तथा शान्तिका मुजस्सिम पिंड बना है । यद्यपि इस बालमन्दिरसे मी पूर्व देहलामें जैन
और जीवनमुक्तरूप अहन्त अवस्थाका प्रतीक होती हैं। मन्दिर थे और वहां मनंगपाल तृतीयके शासनकाल में वि०
मालूम नहीं इस तरहकी ग़लत करूपन। उन्होंने कैसे करती सं.११Eसे पूर्व वहांके प्रसिद्ध अग्रवाल कुलावतंश साहू
है? साथ ही उनकी यह कल्पना तो और भी विचित्र महलने एक चैत्यालय बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठाभी
'- जाम परती है कि देहलीमें उस समय (वि० सं० १८५७ की थी। ये सब मन्दिर बादशाही शासनकाल में कट-भ्रष्ट
5 से १८६४ में) बौद्धधर्म मौजूद था। इस बातको इतिहास १ येनाराध्य विशुद्ध धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं
का एक विद्यार्थी भी अच्छी तरहसे जानता है कि भारतमें सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुण: संतोषिता बान्धवाः । जैन चैत्यमकारि सुंदरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा, २ इस ग्रंथ और कर्ता दके सम्बन्धमें किसी स्वतंत्र लेख द्वारा स श्रीगान् विदितः सदेव जयतात् पृथ्वीतले नट्टलः॥१॥ प्रकाश डालने का विचार है।
-पाश्वनाथचरित संधी ५ ३ देखो, दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ पृ. ५५