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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रति अंग-अंगकी दिव्य-ज्योति, (११)
(२०) गत, दिवसोंमें क्या-क्या देवा, जब हृदयोंका तम खोती थी !
उनका भी गौरव गान करो ? अमिताभासे जगमग-जगमग,
भंकृत हो उठे हृदय-तंत्री जब अन्तरात्मा होती थी !
वह भूला स्वर सन्धान करो ? (१२) कितनी श्रद्धाएँ बढ़ती थीं, क्या यही धर्माण थी, यही व्योम, (२१)
लख चरणोंका उज्ज्वल प्रताप ? क्या तब भी था मंभार यही ? कितने हृदयोंमें मान लिये क्या थे रवि-शशि-नक्षत्र यहो,
नत हो जाते थे भाल आप ? था ऋतुओंका व्यौहार यही? उस मधु-जीवनकी मधुर कथा, (१३)
(२२) क्या ऐसे ही थे नर-नारी, कह श्राज सुधा-रस बरसाओ ?
थीं यही धारणाएँ उनकी ? फिर आज उसी यौवन-लयमें,
क्या इसी तरह की थीं तब भी, वह मधुर रागनी दुहरायो ?
प्रतिकार- भावनाएँ उनकी ? (१४) हे मौन-व्रती, बोलो, तुमको | क्या इमी तरहका आडम्बर, (२३)
किसने है साँचे में ढाला? | धोखा दुराव था आपसमें ? किसने सम्मोहन रूप दिया, क्या इसी तरहकी स्वार्थ-सिद्धि
किसने पहनाई जयमाला ? | ईर्षा छाई थी घर-घरमें ? यह किन हाथोंका कौशल है, (१५)
(२४) यह छूत-छात, यह वर्ग-दोष, यह किन अस्त्रोंकी माया है?
यह वर्ण-भेद, यह तिरस्कार ! यह यत्न कौन-सा है जिसने,
दुर्दम्य घृणा, कल्मष, पशुता, प्रस्तरको मोम बनाया है ?
क्या तब भी था लिप्सा-प्रसार ? (१६) वे कौन कलाविद् थे महान, | बोलो-बोलो, कुछ तो बोलो, (२५)
जो रचकर नैसर्गिक रचना, हे युग-युगके प्रहरी महान् ? स्वर्गीय -- कला -- कौतूहलसे इस महाघोर परिवर्तनका
कर गये अमर जीवन अपना ? | क्या कारण है, हे भाग्यवान ? अब तक. इन भग्न-शिलाओंमें, (१७)
(२६) वे स्वर्ण-युगी संगी-साथी, है निहित भावनाएँ जिनकी ।
क्यों तुमसे नाता तोड़ गये ? प्रति मूर्ति-मूर्ति से बोल रहीं
इस निर्जन सूनेपनमें क्यों वे पुन्य आत्माएँ जिनकी।
वे तुम्हें बिलखता छोड़ गये ? (१८) प्रस्तर की ये प्रतिमाएँ हैं, | धंस गये कहाँ चन्देलोंके (२७)
या कलाविदों की तपोलीक । । वे सिंह-द्वार, वे राज-भवन ? या आर्य संस्कृति का स्वरूप, विर्गालत होगये कहाँ किसमें
स्वर्गीय-भावनाका प्रतीक ? | बहु-रत्न जटित वे सिंहासन ? युग-युगी सभ्यता का सुपाठ (१६)
(२८) वह यशोवर्म, वे धंग, गंड, शत-मुखसे जगको पढ़ा रहीं।
वैभवशाली सोगये कहाँ ? प्राचीन शिल्पके विधि-विधान
वे दो खजूरके स्वर्णवृक्ष की गौरव-गाथा सुना रहीं।
जीवन-सहचर खोगये कहाँ ?