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अनेकान्त
[वर्ष ८
पोस
१६.की रचना, कमर भाषाका एक चम्पू प्रन्थ है। नहीबर रहे हैं, जिनकी हस्तलिखित प्रति या संस्करण या दस अध्यायों में विभक्त है। ग्रन्धकारका कहना है कि हमें अबतक प्राप्त नहीं हो सके है। यहां हम केवल इम ग्रन्थकी रचना इससे पूर्ववर्ती संस्कृत रचना प्राधार- हरिषेणकी धर्मपरीक्षाके सम्बन्ध में प्रकाश डालना चाहते हैं। पा कीगई है और तुलना करने पर हमें मालूम होता है कि इस प्रन्थ की मुख्य विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ अपभ्रंश इन्होंने अमितिका अनुसरण किया है। यद्यपि वणनकी भाषामें है और अमितगतिकी संस्कृत धर्मपरीक्षाके २६ रष्टिस दोमोमें अन्तर है, लेकिन कथावस्तु दोनोंकी एक वर्ष पहले इसकी रचना हुई है। वस्तुत: उपलब्ध धर्म
परीक्षा ग्रन्थोंमें यह सर्वप्रथम रचना है। इसके अतिरिक्त यह कन्नद धर्मपरीक्षा अब भी हस्तलिखित रूपमें ही इस ग्रन्थमें जयरामकी एक प्राकृत धर्मपरीक्षाका उल्लेख विद्यमान है। और प्राकाव्य मालिकामें प्रकाशित ग्रन्थोंपे पाता है जो इसके पहलेकी है और जो अब तक प्रकाशमें मालूम होता है कि वृत्तपिलाम गद्य और पद्य दोनों ही में नहीं प्रासकी है। बहुन ।दर कन्नड़ शैलीमें लिखते हैं।
(ए) पूनाकी भण्डारकर प्रोरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्य ट ___-पनमागरकी धर्मपरीक्षा जो सन् १६४५ ई. की।
में हरिषेण कृत धर्मपरीक्षाकी दो हलि०प्रतियाँ(नं. ६१७, रचना है, पं० जुगलकिशोरजीके खोजपूर्ण अध्ययनका
१८७५-७६ की और १००१, १८८७-११ की) विद्यमान हैं। विषय रही है। वे इसके सम्बन्धमें निम्नलिखित निष्कर्ष
यद्यपि १००६ की प्रतिपर तिथि नहीं है, किन्तु कागज और पर पहुँचे है:--पद्यमागरने अमितगतिकी धर्मपरीक्षा
लिखावटकी दृष्टि से यह दूसरीकी अपेक्षा अाधुनिक प्रतीत १२६. पच ज्योंक स्यों उठा लिए हैं। अन्य पद्य भी
होता है। यह प्रति खूब सुरक्षित है, किन्तु इसके ५६५०, इधर-उधर साधारण-से हेर-फेरके साथ ले लिए गए हैं।
५७, ६६, ६६ए. पन्नों में कुछ नहीं लिखा है और पुस्तक कुछ पद्य अपने भी जोड़ दिये हैं। इन्होंने सोंका कोई
की मूल मामग्री में से कुछ स्थल घट गया है। नं. ६१७ विभाग नहीं रखा। अमितगतिक नामके समस्त प्रत्यक्ष
वाली प्रति श्राकार-प्रकारमें इसका अपेक्षा पुरानी है। और परोक्ष उल्लेख बड़ी चतुराई के साथ उदा दिये गये
इपकी कोरें फटी हैं, कागज पुराना । और कहीं-कहीं हैं। इस तरह पद्म पागरने अपनी रचनामें अमितगति
पदिमात्राओंका उपयोग किया गया है। इसमें स. का कहीं नाम-निर्देश तक नहीं किया। इनकी यह साहिस्थिक
१५६५ विखा है और किसी दूसरेके हाथका अपूण रिमार्क चोरी साम्प्रदायिक दृष्टिविन्दुको ध्यान में रखते हुए सफल
भी है जो इस बातको सूचित करता कि यह प्रति सन् रूपसे नहीं हुई है और यही कारण है कि इस प्रन्यमें
१५३८ से भी प्राचीन है। इसका १३७ वां पृष्ठ कुछ कुछ इस प्रकारके भी वर्णन हैं जो श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके
अटित है और चौथा पृष्ठ गायब है। दोनों प्रतियों के सर्वथा अनुरूप नहीं हैं। इस तरह पमपागरने अमितगति
मिलानसे संपूर्ण ग्रन्थ तैयार होजाता है और प्रथम संधि का पूर्णतया अनुपरण हो नहीं किया है, बल्कि उनकी
की सूचम तुलनासे प्रतीत होता है दोनों ही प्रतियां सर्वथा धर्मपरीक्षाकी नकल तक कर डाली है।
स्वतंत्र है-एक दुसरीकी प्रतिलिपि नहीं। ५-इस निबन्धमें हम उन धर्मपरीक्षाओंकी चर्चा
(बी) यह ग्रन्थ ११ संधियों में विभक्त और प्रत्येक से प्रकाशित हुई है। मेरे पाम इस ग्रन्थकी एक ताडात्रकी संधिौ १७ से लेकर २७ कडावक हैं। इस तरह भिन्नहस्तलिखित है। यह शक सं० १३४२(+७८ सन् १४२०) भिन्न मों में कहावकोंकी संख्या निम्न प्रकार है:की लिखी है। इसकी दालन अच्छी नहीं है। फिर भी १२०, २-२४, ३२२, २४, ५-३० ६११, कोई कन्नडके स्कालर इसका श्रालोचनात्मक संपादन ७-१८,८२२. १२५, १०:१७. ११२७ । इस तरह
करना चाहें तो इसे मैं उन्हें सहर्ष उधार दे सकता हूँ। कुल मिलाकर २३८ कावक हैं। इनकी रचना भिन्न-भिन्न १ जैनहितैषी १३-७, पृ० ३१४-३२४ ।
अपभ्रंश छन्दोंमें है, जिनमेंसे कुछ तो खास तौरसे इस