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अनेकान्त
[वर्ष ८
जिनेन्द्रधर्मके अनुराग और सिद्धसेनके प्रसादसे प्रस्तुत
तो वि जिगिंद-धम्म-अणुराएं अन्य जिव ही डाला। इस बातकी झिझक न रक्खी .क
बुड-सिरि-मिदसण-सुम्साएं । हमारी रचना किस दृष्टिसे देखी जायगी।।
करमि सयं जि णलिणि-दल-थिउजलु (डी) हरेषेण ने अपने पूर्ववतियोंमें चतुर्मुख, स्वयंभू अणुहरेइ णिरुवमु मुत्ताहलु । और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। वे लिखते हैं- पत्ता-जा जयगमें श्रामि विरइय गाह-पबंधि । चतुर्मुम्बका मुख सरस्वतीका प्रावास-मन्दिर था। स्वयंभू
माहमि धम्मपरिक्व सा पद्धडिया-बंधि लोक और अलोकके जानने वाले महान् देवता थे और मालूम होता है सिद्धसेन, हरिषेणके गुरु रहे हैं और पुष्पदन्त वह भालौकिक पुरुष थे जिनका माथ सरस्वती इसीलिए सिद्धसेन अन्तिम सर्गमें भी इस प्रकार स्मरण कभी छोड़ता ही नहीं थी। हरिषेण कहते हैं कि इनकी किए गए हैं:-संधि ११, कडावक २५:सुमनाम मैं अन्यन्त मन्दमतिका मनुष्य हैं। पुष्पदन्तने घत्ता-सद्धमण-पय वंदहिं दुक्कि उणि दहिजिण रिसेण णवंता अपना महापुराण सन् १६१में पूर्ण किया है और उन्होंने तहि थिय ते खग-सहयर कय-धम्मायर विविह सुहइंपावंता स्वयंभू तथा चतुर्मुखका भी उल्लेख किया है। स्वयंभूकी (मी) इन तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए, कि हरिषेण अपेक्षा चतुमुख पूर्ववर्ती हैं।
और अमितगतिके ग्रन्थों का नाम एक ही है और एक धर्मपरीक्षा, पहले जयरामने गाथा-छन्दमें जिग्नी थी रचना दूसरी केवल २६ वर्ष पहले की है, यह अस्वाभाविक और हरिपेणने उमीको पद्धडिया छन्दमें लिखा है। न होगा कि हम दोनों रचनाओं की विस्तारके साथ तुलना
उपरिलिखित बातें प्रारंभक कहावकमें पाई जाती है, करनेके लिए सिद्ध हों। दोनों ग्रन्थों में उल्लेखनीय जो इस प्रकार है:
समानता है और जहांतक घटना-चक्रके क्रमका सम्बन्ध है संधि १, कडावक-१:--
अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके विभिन्न सर्ग हरिषेण कृत मिद्धि-पुरं धिहि कंतु सुढे तणु-मण-वयणे । धर्मपरीक्षा विभिन्न संधियोंकी तुलनामें स्थूल रूपसे भत्तिए जिगु पणवेवि चिंतिउ बुह-हरिमण ।। विभक किये जा सकते हैं:-हरि १= अमित १, १७मणुय-जम्मि बुद्धप किं किग्जद
३. ४३, हरि. २-अमित, ३, ४४-७, १८, हरि० ३% मणहरु जाइ कवु ण रइज्जइ ।
अमित. ७. ११-१०, ५१ हरि० ४-अमित०, १५,५२-- तं करंत अविया गाय धारिम
१२ २६, हरि०, १ अस्ति० २१. २७ - १३; हरि०६% हासु लहडिभड रणि-गरपोरिम।
हरिषेणानं लोकस्वरूपका जो विस्तृत वर्णन किया है वह उम च उमुहं कविरणि संयम व
कोटिका अमितगतिकी रचनामें एक जगह नहीं है। हरि० ७% पुष्फयंतु अण्णणु यिमुभिवि ।
अमित० १४.१-१५ १७, हरि: ८-अमित. १५, १८ तिगिण वि जोग्ग जेगा तं पीपइ
प्रादि, हरि० -अमित १६, २१ इत्यादि, हरि० १०= चउमुह-मुहे थिय ताव सरामद ।
कल्पवृक्षोंके वर्णनके लिए अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका जो सयंभु सो देउ पहाण उ
१८वों मर्ग देखिए और हरि० 11 अमित. २०, कुछ अह कह लोया जोय-वियाणउ ।
प्रारम्भिक पद्य । पुष्फयंतु णवि माणुसु वुच्चाइ
कुछ स्थानोंमें ठीक ठीक समानता इस कारण नहीं जो सरसहए कयावि ण मुबह ।
मालूम की जा सकती है कि दोनों रचनाओं में एक ही ते एवंविह हउं जहु माण उ
स्थानपर शिक्षाप्रद और सैद्धातिक चर्चाय समानकोटिकी तह छंदालंकार-विहण उ
नहीं पाई जाती। लोकस्थितिक जो विवरण हरिषेणने कन्यु करंतु केम णवि लज्जमि
सातवीं संधिमें दिए हैं उन्हें अमितगतिने उन्हीं के समानान्तर तह विसेस पिय-जणु किह रंमि ।
स्थानपर सम्मिलित नहीं किया है और न नहोंने अपनी