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अनेकान्त
[वर्ष ८
भी होगई हैं। हनुमानजी जैसे महान् पराक्रमी राजा, चेत्तस्स पढमदिवसे सिरिकंठो निग्गो सपरिवारो। विद्याधर एवं योगी पुरुषको बन्दर बनना देना और उनके रहनाय-तुरय-समग्गो दीवाभिमुहो समुप्पइओ ॥३६।। पूछ तक लगा देना ऐसी ही भूलों तथा कल्पनाओंका
+ + + परिणाम है। अत: खोजमें प्रवृत्त होनेवालोंको इन अल- "इक्खण य इक्खागो जाओ विज्जाहराण विज्जाए। कारों तथा रूपको प्रादिक पदको फारकर उसके भीतर- तह वाणराण वंसो वाणरचिन्धेण निव्वडियो ll स्थित प्रकृत अर्थको सूचमदृष्टि से खोज निकालना चाहिये वाणरचिन्ऽण इमे छत्ताइ-निवेसिया कई जेण । और विकृत अथक विकारका पता लगाना चाहिये. तभी विजाहरा जणणं वच्चंत्ति ह वाणरा तेणं ॥८९ll सच्ची खोज बन सकेगी। इसके लिये जैनपुराणों, चरितग्रंथों सेयंसस्म भयवओ जिणंतरे तह य वासुपुज्जस्स । तथा दावढीय रामायणादिको जरूर देखना चाहिये-उनसे अमरप्पभेण एवं वाणरचिन्धं परिवियं ॥९॥ वस्तुस्थितिको समझने में कितनी ही मदद मिल सकेगी।
__ --पउमचरिथ, उद्देस ६ ___ यहाँ गर मैं यह भी बतला देना चाहता हूँ कि जैन इतो वगेत्तरे भागे समुद्र-परिवेष्टिते। ममान और उसके पुराणों में हजारों वर्ष पहलेसे ही हनु- शतत्रयमतिक्रम्य योजनानामलं पृथः ॥७१॥ मानादिको बन्दर नहीं माना जाता और न उन्हें असभ्य अस्ति शाखामृग-द्वीपःप्रसिद्धो भूवनत्रये । जंगली मनुष्य ही बतलाया जाता है, बलिक विद्याधरों द्वारा यस्मिन्नवान्तरद्वीगाः सन्ति रम्याः सहस्रशः ॥७॥ प्रतिष्टित उम सुमभ्य वानरवंशके प्रतिष्ठित व्यकि. माना ततश्चैत्रस्य दिवसे प्रथमे मंगलाचिंते । जाता है। जिनमें बड़े बड़े राजा, योद्धा, विद्याधर, योगी, ययौ सपरिवारोऽसौ(श्रीकण्ठः)द्वीपं वानर लाँछितम्॥८६ त्यागी और तपस्वी मुनि तक हो गये हैं और जो छत्र, तथा वानरचिन्हेन छत्रादिविनिवेशिना। धगा तथा सिंहासनादिमें सर्वत्र वानर चिन्ह धारण करनेसे विद्याधरा गता ख्याति वानरा इति विष्टपे ॥२१॥ वानर वंश कहलाता था । वानरवंशको उत्पत्ति-विषयक श्रेयसो देवदेवस्य वासुपूज्यस्य चान्तरे । अच्छी रोप था भी जैनपुगणोंमें दी है। इसके लिये अमरप्रभसंज्ञेन कृतं वानरलक्षणम् ॥२६॥ विमलमूरिका 'पउमचरिय' और रविषेणाचार्यका 'पद्म
--पद्मचरित, पर्व ६ चरित' खास तौरस देखनेके योग्य हैं । पद्म चरित वीर- अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि निर्वाणसे १२०३ वर्ष ६ महीने बाद (वि० सं० ७३४ में) उपरके वाक्यों में जिस 'श्रीकण्ठ' राजाका चैत्र मासके प्रथम बनकर समाप्त हुआ है और पउमचरियमें उसका रचना- दिन (वदि १ को) वानरद्वीपको सपरिवार प्रस्थान करनेका काज वीरनिर्वाण से ५३० वर्ष बाद (वि० सं० ६०) दिया उल्लेख है वही भारतीय प्रथम विद्याधर राजा था जो हुआ है। इन दोनों प्राचीन पुराणग्रन्थों में उस 'वानर- विजयाधं (वैताट्य) पर्वत परसे उक्त वानरद्वीपमें जाकर महाद्वीप' का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है जिसकी प्र० बसा था और जिसने वहीं चौदह योजन (२६ कोस) के सिंहलमीने अपने इस लेख में कल्पना की है। साथ ही, यह विस्तारका किकुपुर अथवा कि किंधापुर नामसे एक महान् भी बतलाया है कि वह समुद्र में तीनसौ योजनके फासलेपर समृद्धिशाली नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया उत्तरकी भोर स्थित है। रविषेणाचार्यने इस वानर-द्वीपमें था । इस राजाकी ७वीं पीढीमें होनेवाले 'अमरप्रम' बहुतसे अन्तर द्वीपोंका भी उल्लेख किया है और इसे 'मलं' नामके विद्याधर राजास वानरवंशकी उत्पत्ति हुई है, तथा 'पृथु' विशेषण भी दिये हैं, जिससे इस वानरद्वोप जिसका उत्पत्तिसमय ११ वें श्रेयांस और १२ वे वासुका महाद्वीप होना और भी स्पष्ट हो जाता है। इस संबंध पूज्य तीर्थकरके मध्यमें पड़ने वाले अन्तरालका कोई समय में दोनों प्रन्योपरसे कुछ वाक्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं- है, जबकि श्री भ० रामका अवतार उससे हजारों वर्ष बाद
"अवरुत्तराए एत्तो तिषणेव जोयणसयाई। २० वें तीर्थ कर श्री मुनिसुव्रत जिनेद्रके समयमें हुमा है। लवणजलमझयारे वाणरदीवो त्ति नामेणं |३४| और इसलिये प्रो. साहबने जो यह कल्पना की कि म.