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किरण १]
विश्वपुर्वा मुनिसे किया। इनकी संतानमें राषण पैदा हुमा देकर इतिहासका एक नया युग प्रारम्भ करेंगे। इससे जिसने लंकाको यक्षों से जीत लिया। रावण महापण्डिन भौर भी अनेक विचित्र वात प्राप्त होंगी। जो कुछ लिग्वा
और राजनीतिज्ञ था। उसने यतोंका संहार नहीं किया है वह इसके लिये पर्याप्त है कि भारतीय विद्वान सममें व वरन् यक्ष और 'रा' के उपासक दैत्योंकी सभ्यताका मिश्रण देखें कि हमारे पुराणों में कैसा बजाना भरा पड़ा। कर 'राक्षस' (रा-यक्ष) सम्यता स्थापित की । इन राक्षसोंसे सम्पादकीय नोटपूर्व उद्दण्ड स्वभावके लोग दय व दानव कहलाते थे। प्रो. ज्वालाप्रसादजी सिंहल एम० ए०का यह लेख परन्तु रातभोंका प्रादुर्भाव रावण के साथ ही होता है। 'छाया हिन्दुस्तान' नामक पत्रके ४ नवम्बर मन् १९४५ के ये राक्षस लोग फिर दक्षिण प्रदेशके किनारे किनारे
अङ्कमें मुदित हुआ है और 'भनेकान्त' को श्रीमाई बड़े । एक किनारे मारीचने राज्य जमाया और दूसरे
दौलतरामजी 'मित्र' इन्दौरके सौजन्यसे प्राप्त हुना है, किनारेके अधीश्वर स्वरदूषण थे। यही सुमालीकी संतान
जिमके लिये मैं उनका आभारी है। लेख में लेखक महोदय महेन्द्रजोदारो होती हुई फिर मेसोपुटामिया पहुंची, जहां
ने अपनी खोजके प्राचारपर जो कल्पनाएँ की हैं और जिन उन्होंने सुमाली अथवा सुमेरियन सभ्यताकी स्थापना की।
के वर्णनको लेखके अन्त में स्वयं ही 'संकेतमात्र बतला कर वहांपर पूर्व स्थित दैत्य-सभ्यता थी ही। दोनों में समानता
यह सूचना की है, कि उनके विषय में स्वाज करनेके लिये भी थी। प्रस्तु, दोनोंका एकत्व होकर पीछेकी सभ्यताएं
बहुमुल्य अवसर है,वे निस्सन्देह विचारणीय हैं और खोजियों बन गई।
के लिये खोजकी एक अच्छी दिशा प्रदान करती हैं। उनकी
जरूर गहरी तथा गंभीर खोज होनी चाहिये, उससे भार. राजा बलि जब देवासुर-संग्राममें हार गये तब
तीय इतिहास ही नहीं किन्तु संमार भरके इतिहास में उन्होंने इन्द्रासन जीतनेको यज्ञ प्रारम्भ किये भर्थात्
बहुत कुछ कान्तिका होना संभव है। लबाई की तैयारी की, इन्द्र वामन पिकी शरण गये।
यपि सभी भारतीय पुराणोंक विषय में जोगांकी एक उन्होंने रामा बलिको माध्यात्मक उपदेश देकर इस
सी धारणा नहीं है और न मब हिन्द्र तथा हिन्द पुराण प्रयानस निवृस किया। और भागेको मगहेकी शंका न रहे
पूर्णत: अथवा अंशत: गप्प समझे जाते हैं, फिर भी जो इसलिये राजा बलिको पातालका राज्य दिया तथा दैत्य
लोग पुराणों को सर्वथा गप्प समझते हैं और यह मान बैठे लोकका त्याग करा दिया। इसपर पारसमें प्रसाद के समयके
हैं कि उनमें वणित कथाओं में कुछ भी तय नहीं । वे गय हुये पार्योंका तथा उनके अगुवा शुक्राचायका वामन
गनतीर अवश्य है और लेखकके शब्दों में यह उनकी से घोर विरोध हुआ। इसी कारण भारतीय प्रार्य (वामन
'बड़ी भूल' तथा पुरायोंके प्रति 'अन्याय' जरूर है। जिनके प्रतिनिधि थे) और पारसी भार्यों में विरोध होगया।
प्रोफेसर माहवका यह लिखना प्रायः टीक है कि "पुगगों में उपरका वर्णन सकेतमात्र है। यह वह विषय है जिसमें
वे कथाएँ हैं जो उनके लिखे जानक समय भारतीय इतिहास
जो खोज करने के लिये बहुमूल्य अवसर है। यह खोज संपारके के सम्बन्ध में प्रचलित थीं। उनके वर्णनमें अतिशयोक्ति इतिहास और विशेषकर भारतीय इतिहाममें क्रांति पैदा
तथा क्रम परिनर्तन होना स्वाभाविक है ।" परन्तु उनमें । कर देगी। क्या भारतीय विद्वान् पश्चिमी इतिहामज्ञोंके
भूलीका होना तथा कल्पित बातीका शामित होजाना भी अनुसरण करने मात्रके बदले इम प्रायः अस्ते विषयकी कुछ अस्वाभाविक नहीं है- खासकर उन पुराणों में जो खोज करके आर्य देशके सिरको ऊँचा नहीं करेंगे ! भारत- मर्वज्ञके ज्ञानकी परम्परा संस्कारित नहीं है अथवा राग वर्षका नया इतिहास बन रहा है। परन्तु उसमें भी क्या द्वेषादिमे अभिभूत व्यक्तियों के द्वारा लिखे गये हैं। क्योंकि हमारे पश्चिमी स्वामियों की कही हुई बातोंका प्रचार होगा? अबकारों, रूपको तथा द्वयर्थकादि-शब्दोंके पर्दे में छिपे हए मुझे विश्वास है कि इस जातीय उत्थानके युग; इन अभिमत अर्थको समझने में बहुनाने भूलं की है और उन विचारोंके प्रचारमें सभी प्रार्याभिमानी प्रियजन सहयोग परसे पुराणों में अनेक विचित्र देवी-देवताओंकी कल्पना