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अनेकान्त
दोनों जुड़े हुए थे। इसका नाम "टे यांज मी' था। हिमालय के उत्थान के कारण इनका जल नीचे की ओर घरबसागर और बंगाल की खाड़ी में मिल गया और इनके स्थान पर सूखी जमीन निकल आई। कदाचित मी जायके उसी समय 'यूरियन महाद्वीप" के अनेक श्रंश जलमें ब गये और ऊंचे भाग द्वीप स्वरूपमें रह गये तथा प्रदेशका सम्बन्ध उत्तर भारतसे हो गया ।
पुराणों की कथा है कि वर्तमान 'वैवस्वतः' मन्वन्तर के काम पहले 6 चाक्षुष' मन्वन्तरके अंत पर 'मत्स्य अवतार' हुआ, जिसने सरस्वती नदीके तीर पर संध्या करते हुए राजा सस्यवयको श्रानेवाले जलप्रलयकी की सूचना दी और राजाको प्राविर्तकी धन्य वस्तुओंके "बीज" सहित नौका पर चढ़ा कर जे गये। उस समय कदाचित श्रार्याविर्त सरस्वती तक सीमित था। जब प्रलय के उपरान्त वैवस्वत मन्वन्तरके आरम्भ में वैवस्वत मनु भार्यावर्तको लौटे और अयोध्याका नया सूर्यवंशी राज्य स्थापित किया । यह अयोध्या उस प्रदेश में है जो जल प्रलय पूर्व समुद्र था और जल प्रलय के पश्चात् जहाँ सूखी जमन निकल आई । श्रस्तु वैवस्वत मन्वन्तरमे ही आर्य लोग पूर्वी और दक्षिण भारतका ओर अग्रसर हुए और इसीलिए वानर महाद्वीप के अवशिष्टोंके साथ श्रार्य सभ्यताका सम्बन्ध इसी समय हुआ । इससे पहले अर्थात् चाक्षुप मन्वन्तर तक भार्य लोग पंजाब प्रान्त तक ही रहे, क्योंकि इसके पूर्व और दक्षिक में समुद्र थे ।
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ही गिरती थी और वहां जमीन निकल आने पर कदाचित् वह पहाड़ोंमें गुप्त होजाती थी अर्थात पृथ्वी में विलीन होजाती थी। फिर राजा भगीरथने उसके प्रवाहको दिशा देकर व्यवस्थित कर दिया। इसके अतिरिक्त एक विशेष बात यह है कि ऋग्वेद में पूर्वी प्रदेश मिथिखा और मगध का कोई उल्लेख नहीं है। अर्थात् इन प्रदेशोंके प्रकट होनेसे पूर्व ही ऋग्वेद बन चुका था ।
उपर्युक्त विवेचनसे दो बातें सिद्ध होती हैं। पाश्चात्यों का 'लीयूरियन' महाद्वीप ही हमारा 'वानर' महाद्वीप है । दूसरी यह कि जिस समय वानर महाद्वीप के अंश जल-,
समुद्र गर्भ नहीं गये थे जिस समय राजपूताना और गंजमुनी मैदानमै टेज सी लहरे मार रहा था, जो समय भूतस्व-विज्ञानके अनुसार लगभग २५ से ५० हजार वर्ष पूर्व रुक था, जो समय वैवस्वत मन्वन्तरसे पहले चानृप मन्वन्तरका था, उस समय ऋग्वेद उपस्थित था और उस समय श्रार्यावर्तकी प्रधान नदी कदाचित् 'सरस्वती' यी जो श्रम विलीन होगई और उस समयका श्रार्यावर्त मुख्यतः पंजाब प्रदेश में था । कदाचित् ये विचार इन्हिममें क्रान्तिकारी प्रतीत होंगे परन्तु ये मनगढन्त तो नहीं हैं । समयकी गणना हम अपने विचारसे निश्चित न करकेपासूनचाओंके ऊपर छोड़ते हैं। यदि राजपूताना व गंगा-भुनी समुद्र २५ हजार वयं पूर्व थे तो ऋ वेद २५ हजार वर्ष पुराना है और यदि एक लाख वर्ष पूर्व थे तो वह एक लाख वर्ष पुगना है ।
ऋग्वेद २५००० वर्ष पुराना
इस विचारका समर्थन मे भी होता है। ऋग्वेदमें गंगा और यमुना दोनों नदियां 'पूर्वीय समुद्र' में गिरती हुई कही गई हैं। इससे स्पष्ट है कि वेद निर्माण के समय उनका संगम 'प्रयागस्थान' उपस्थित न था। उसके पश्चिम तक समुद्र रहा होगा जिससे यमुना भो समुद्र गिरती हुई कही गई है।
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इस विचारकी पुष्टि उस कथा भी होती है जिसके अनुसार गंगा को सूर्यवंशी राजा भगीरथ ही पृथ्वी पर खाये थे । अर्थात् उससे पहले गंगा हिमालयके अंचल में
भारतीय इतिहासज्ञ
प्रायः पाय इन्होंके पदचिन्होंपर ने लोग प्रामाणिकता समझते हैं और विद्वान के इति हामको 'बाइबिल" के समय से ही गढ़ना चाहते हैं । अनेक प्रमाणों अब कहीं ये ५ या ६ हजार वर्ष ई-पूर्व तक पहुँचे हैं। परन्तु हमारे लिये यह अकाट्य प्रमाण नहीं कहा जा सकता। हम अपनी गणना किमी कल्पनाके श्राधारपर नहीं करते, वरन् पाश्चात्य भूतत्व-विज्ञान के अनुसार ही करते हैं। यदि हमें पाश्चात्य इतिहासकी हमें हां मिलानेका मोह छोड़कर अपने अमुल्य पौराणिक इतिहासका श्रादर करने लगें तो हम और भी अद्भुत