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किरण १]
जेसलमेरके भंडार में प्राप्त कुछ नवीन ताडपत्रीय प्रतियां
व्यापारानादि पंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने रुद्रपल्जीय जांच होनी चाहिए जिससे कोई महत्वपूर्ण ज्ञातव्य मिजे श्री............. ....... देव सचोपदेशेन भवभावनावृत्ति और नवीन ग्रंथोंका पता चले । कागज परके ग्रंथों की सूची पुस्तकं विषय पथके कांसाग्राम वास्त. लेखक सोहह उन में भी सैकड़ों ग्रंथोंको टित लिख छोड़ा है म रम ग्रन्थों महिलणे भन्नावर शुद्धाक्षरैश्च लिखितमिति । छ शुभं भवतु का नाम है न पत्र संख्या, हमने उन्हें देख कर भी कई
प्रति नं. १५. में सूची में दिये हुए प्राध्यात्मगीता नये २ अन्धोका पता लगाया है। जिनदत्तसूरि कृतका उल्लेख है (सं० १९९५ लि.) पर जेसलमेरके संघ और विशेषत: ज्ञानमंडारके ट्रस्टियोंका वह ग्रन्थ उसमें नहीं मिला, सुगुरु पारतंत्र्यके अंतमें ध्य न भी हम इस भावश्यक कार्यकी और भाकर्षित करते मिनारों में पीछे किसीका लिखा हश्रा सं. १११५ अवश्य हैं कि वे इस साहित्य संपत्तिकी भलीभांति सुरक्षा करें एवं पाया जाता है। पता नहीं श्री दलाल महोदयने इसीको योग्य साहित्य वेसामोके जाने पर कुछ उदारतापे काम प्राध्यात्म गीता नहीं लिख दिया हो।
लेकर उन प्रतियोंका भलीभांति निरीक्षण करवाके सूचीको प्रति नं. १० (१) प्रश्नोत्तर रत्नमाला वृत्तिकी प्रति प्रमाणिक बनवावें । हमने अपूर्ण खंतह से निकाली पर उसकी प्रशस्ति वाले के कागज पर लिखित ग्रन्थोम हमारे खोजसे करब २०० अंतिम पत्रका भाषा हिस्सा खोजने पर भी न मिला प्रतएव ऐसे ग्रन्योका पता चला हे अद्यावधि साहित्यसंसार में उस महत्वकी प्रशस्तिकी अधूरी ही नकल हो सकी।
अज्ञात हैं ऐसे अन्यत्र अप्राप्य ग्रन्याको सूच। अन्य सूचीके अतिरिक्त कागज व ताड़पत्रके कई बंडल स्वतंत्र लेख में दी गई है जो कि जैनमत्यप्रकाशक बाहरकी पेटीमें अस्तव्यस्त डाले हुए हैं उनमेंस १ बंडनमें अगले अङ्क में प्रकट होगी। तादपत्रीय बहत सी प्रतियोंके फुटकर पत्र हैं जिनमें प्राचीन दरिमागर सूरिजीमे ज्ञात हुया कि कागच्छ के जिपियोंके कई पत्र लिपिकी दृष्टिसे महत्वके हैं हमारे भंडार में भी ताडपत्रीय ५ प्रतिय मिली है जिनमें भगवना खयालसे समस्त ताडपत्रीय ग्रंथोंकी दुवारा भलीभांति ज्ञाता विपक. उपासक. अंतगडादिमत्र ग्रंथ है।
रे प्राण ! नीचतर ! कायर ! कर्म-हीन !
जो जन्मते नहि ग्रहो कर तव्यवान । निःस्वाभिमान ! बल-वीर्य-प्रभा-विहीन ।।
होता न भारत कभी जग फीतिमान॥ कर्तव्य हेतु यदि कुण्ठित शक्ति तेरी।
कोई विशेष प्रतिभा न यहाँ दिखानी । तो दूर भाग तज नश्वर देह मेरी ॥४॥
ये देश-भक्ति, महिमा, मष नष्ट जाती॥५॥ तू त्याग दे यदि मुझे नहि है विषाद ।
जौलों स्वधर्मरन सजन थे प्रसिद्ध । पै कर्म त्याग नहि सह्य जनाऽम्वाद ॥ सच्चा था देशपूर्ण मुग्व सम्पद में समृद्ध ।। है मृत्यु श्रेय विन कर्तब सज्जनोंको ।
होते विहीन इममे जन श्री नरेन्द्र । होता बिनिन्द्य 'प्रय जीवन दर्जनोंको ।।
सच्चि भारत बना अतिदःख-केन्द्र ॥६॥ था पुण्य-भूमि यह भारत कम-क्षेत्र ।
पौरुष्य-हीन नर भी बन कर्म-वीर । देखें तिसे हम विनष्ट सजीव-नेत्र ।।
है सिहनी पकड़के दुह लत क्षीर ।।
श्रीमाधवशुफ्त है दुःख और इसमे जग क्या महान ।
जो वो करै नहि असम्भव बात कोई । तो भी नहीं समझता भयभीत प्रान ॥३॥
लेता निकाल घुस सागर वस्तु खोई ।।७।। जैसे शरीर विच तू सर्वस्त्र प्रान !
कत्तव्य ही मनुजमें गुगा है प्रधान । त्यों देश-बीच रहते जन कर्मवान ।।
कतव्य से निपट दीन बने महान ।। तेरे बिना यह शरीर मरा कहाता।
कत्तव्य की जगत में महिमा अशेष । त्यों कर्म-हीन जन देश नहीं सुहाता ॥४॥
कर्तव्य पालन हि कृष्ण महोपदेश ॥८॥