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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रावीगयातिशयस्य सूचकमिदं मोहनदं चेतसो । १० प्रस्तावोंमें ग्रंथयुग्म समाप्त होते हैं। वादस्थानकमाशु दुर्जनजना हंकार हचक्रिरे । ३--प्रति नं. ६ पंचमीकथाका लेखन समय
५ भ पंचाशक (हरिभद्रसूरिकृत), व दशनविशुद्धि सं० ११०६ भी मूल प्रतिके अक्षरोस भिन्न है अतः वह गा० १३०, स पचलिङ्गी (जिनेश्वर सूर), द श्रावकवत. ता भा पीछेसे किसीने लिखा प्रतीत होता है। (जिनेश्वरसूर), ई आगमिकवस्तुविच रमार ( जिनवल्लभ) ४--बड़ा भंडारकी की तादपत्रीय प्रतियों में चित्र फ पौषविधि (जिनवल्लभ)। ज प्रतिक्रमणसमाचार गा. देखने में भये पर सूची में उसका कोई उल्लेख नहीं । ४. (जिनवल्लभ); च सूचमविचारसार, गा० १५३ प्रति नं. ३२, ४१, १२, ११०, १६८, १६६, को केवल (जिनवल्लभ) छ लोकनान गा० १ (जिनवल्लभ), त्रुटित लिख कर छोड़ दिया गया है पर इनमेंसे कई त्रुटि ज श्रागमोद्धार । क लघुक्षेत्र समास गा० १०३, पत्रसंख्या बंडलोंको देखनेपर ग्रंथोंके नाम भी पाये जाते हैं जिसका २०२।
विवरण इस प्रकार है६ जयपाहुड सटीक अपर नाम प्रश्नव्याकरण, पत्र प्रति नं. ४६ अ प्रत्येक बुद्धचरित्र--जिनल सयांक २२८. सं. १३३६ चै० मु. १ लिखित ।
पत्रांक ३ से २८२ बीचमें भी ० ब भागमविचार संबंधी श्रादि-करकमल कजितमौक्तिकफलमिव कालत्रयस्यावज्ञानं । पत्र ४५ से ८०, ६ व्याकरण पत्र ११६ से २६३ र क्षेत्र___ यो वत्ति लीलयव हित सर्वज्ञं जिनं नयतः ॥ १॥ विचारादि पत्र १४ स १७२ एवं पत्र १३४ से १८५ में
ग्रंथकृत प्रभाग्य्यस्य जयपाहुरस्य निमित्त शास्त्रम्यारंभेxx जिनवल्लपमूरि एवं भीमकुमारका नाम कई जगह आता है अंत-जिन ग्रहण परिज्ञानार्थ कृतयोयनामाक्षरक्षरै लाभा- ग्रन्थका मादि अंत न होने से नाम एवं कर्ताका निश्चय नहीं लामादि सर्व वक्तव्य।
हो सका पर ग्रंथ प्रसिद्ध प्रतीत होता है। अब जेसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्थानां सूचीमें उल्लि. प्रति न. ११० न्यायमंजरी, प्रतिक्रमण-नियुक्ति, खित कतिपय तायपत्रीय कृतियों के सम्बन्धमें नया प्रकाश इत्यादि। डाला जाता है:
प्रति न० १६८ श्र मल्लिनाथचरित्र---पत्र ११७ से -तपागच्छ भंडार ताइपत्रीय प्रति नं. ४ का २२४, इसका अंत इस प्रकार हैलेखन संवत् १११५ मूल प्रतिकी सिपिसे भिन्नाक्षरों में नायाधम्मकहाश्रो उद्धरियं मल्लिनाहजिण चरिश्रं । लिखा हुआ है अत: संवत्का उल्लेख पीछेस किसीने लिख सिरि भुवणतुग ठाणं देह सुणंताण मन्वाणं ॥३४॥ दिया प्रतीत होता है।
ब प्रदेशीचरित्र गा० २८० पत्रांक २२५ से २५७ । २--प्रति नं०५ युगादिदेव चरित्र, महावीर चरित्रके प्रति नं. १६६ प्रसिद्धंत जुत्ती गा० ७२ सिद्धसेन. को सूचीमें हेमचंद्र बतलाये गये हैं पर यह एक महस्व सूरि, व गौतमपृच्छा गा० ६४, स पच्चक्खाणा सरूव गा०३२६ की भूल है। सूचीमें प्रकाशित प्रशस्तिसे भी स्पष्ट है कि जसएवमूरि सं० १९८२ विरचित उ प्रायश्चित, कर्ता-देवभद्र उक्त ग्रंथ जयसिंह सूरि विरचित है, फिर न मालूम ऐसी मूरि शिष्य सिद्धमूरि शि. जयानंदसूरि, इ गा० १६ मम्मभूल कैसे हुई। हमने अच्छी तरहसे इसका निरीक्षण सूरि शि. नेमिचंद्रसूरि कृत (अंत---छायालसयं जीवाणं किया तो दोनों ही चरित्रके कर्ता जयसिंह सूरि ही हैं। इस चिरह भव निवासीणं)। प्रतिके प्रारंभके १० पत्र नहीं है। पत्रांक २०३ अ में एक प्रति नं.३२ व १२ में--टित फुटकर पत्रोंका संग्रह प्राचार्यका चित्र और पाक २०३ ब में पुरुपचित्र और इनमें से नं. ३२ में भवभावना वृत्तिका १२६ वां अंत्य. स्त्रीचित्र है। पत्रांक १०१ अ में ऋषभ चरित्रका द्वितीय पत्रकी प्रशस्ति इस प्रकार है--संवत् १२६० वर्षे श्रावण प्रस्ताव (प्रथम प्रस्तावमें १००१ श्लोक पत्र ६६, द्वि० सुदि १४ गुरावयेह श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज.... प्रस्ताव श्लो. ४८४) समाप्त हुमा कुल ६ प्रस्ताव हैं। श्रीभीमदेवकल्याणविजयराज्ये तपारपद्धोपजीविनि इसके बाद महावीरचरित्रसे ७ वां प्रस्ताव प्रारंभ होकर महामात्य राग. श्री चाचाक: श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्रा