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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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THE
NYÁYA DARSHANA
GOTAMA
WITH THE
COMMENTARY OF VATSYAYANA
AND THE
GLOSS OF VISHWANATHA
EDITED BY
PANDIT JIBANANDA VIDYASAGARA B. A.
Superintendent Free Sanskrit College.
49223
Ortutta
PRINTED AT THE SUCHARU PRESS.
1874
Po be had from Pandio Jibananda Vidyasagara B.. Letendent Finansierit College of Culloutta,
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ARUM
१॥०
पण्डित-कुल-तिलक-पूज्यपाद श्रीमत् तके वाचस्पति
पाद-प्रणीत-प्रकाशित-पुस्तकान्य तानि १ याशुबोध व्याकरणम् २ धातुरूपादपाः
३ पूब्दत्तोम-महानिधि [संकत अभिधान... .४ सिद्धान्तकौमुदी-सरलाटीकासहिता ५ सिद्धान्त विन्दुसार वेदान्त ६ तुलादानादि पद्धति वङ्गाक्षरी ७ गयाश्राडादि पति ८ पूब्दार्थ रत्न 2 वाक्यमञ्जरी [वङ्गाक्षरै] १. छन्दोमञ्जरी तथा उत्तरत्नाकर -सटीक ११ वणीसंहार नाटक-सटोक १२ मुद्राराक्षस नाटक-सटीक १३ रनावलौ १४ मालविकाग्निमित्र-सटीक १५ धनञ्चय विजय-सटोक १६ महावीरचरित १७ साङ्यतत्त्व कौमुदी सटीक १८ वैयाकरणभूषणसार १६ लीलावती २० वीजगणित २१ पिपापालबध-सटीक [माघ २२ किरातार्ज नीय-सटीक | भारवि] २३ कुमारसम्भव-पूर्वखण्ड सटीक २४ कुमारसम्भव-उत्तरखण्ड २५ अशकम् पाणिनीयम् २६ वाचस्पत्यम [ संख त वहद भिधान] २७ कादम्बरी-सटोक २८ राजप्रशस्ति २६ अनुमानचिन्तामणि तथा अन मानदीधिति
सर्बदनिसंग्रह
as
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au
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न्यायदर्शनम्।
वात्स्यायनमुनि कृत-भाष्य सहितम् ।
विश्वनाथ कतर त्ति समेतम् ।
वि, ए, उपाधिधारिणा।
श्रीजीवानन्द विद्यासागर-भट्टाचाय्य ण
संस्कृतम् ।
कलिकातानगरे
सुचारु-यन्वे मुद्रितम् ।
ई. १८७४ ।
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम्।
___ पृष्ठासः पङ्गाकः । मोक्षरूपशाखप्रयोजनकथमम् ।
पदार्थामामहेशव , বাঙ্গালীলঙ্গমনি , प्रमाणलक्षणं तद्विभाग, प्रत्यक्षलक्षणम् अनुमानस लक्षणम् विभाग,
८ २५ उपमानलक्षणम् भन्दलक्षवम् भन्दस्य विभागा, प्रमेयस्य लक्षणम् विभाग, আরুলিয, মীলিক, বিবিধ भूतविभाग अर्थस्य विभागः, बुद्धिलक्षणम्, मनोनिरूपणम् प्रतिक्षणं तद्विभाग,
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम् |
दोषलचणम्,
प्र ेत्यभावलक्षणम्,
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फललक्षणम्,
दुःखलक्षणम्,
अपवर्गलत्तणम्,
संशयस्य लक्षणं विभागश्च,
प्रयोजनलक्षणम्,
दृष्टान्तलक्षणम्,
सिद्धान्तलचणम,
सिद्धान्तविभागः,
सर्व्वतन्त्र सिद्धान्तलत्तणम.,
प्रतितन्त्रसिद्धान्तलचणम
burधिकरणसिद्धान्तलचणम
म्युपगमसिद्धान्तलचणम
उपनयलक्षणम्"
निगममलक्षणम,
तर्कनिपचन
2
अवयवविभागः,
प्रतिज्ञालक्षणम.
हेतुलचंयम,
व्यतिरे किन्हे तुलचणम,
उदाहरणलचणम्
व्यतिरेक्युदाहरणलचयम;
पृष्ठाङ्कः
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१३
१४
१४
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१७
१८
१८
१८
१८
१६
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पतपङ्कः ।
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७
१७
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न्यायदर्शनस्य सूचौपत्रम्।
निर्णयनिरूपणम,
बादलक्षणम, जल्पलक्षणम, বিলাল, हेत्वाभासविभागः,
2
सव्यभिचारलक्षणम, विषालमणम,
प्रकरणसमलक्षणम्,
.
M
.
M
पाध्यसमलक्षणम्, अतीतकाललक्षणम्, কুৰ , रलविभागः वाक्कललक्षणम्, सामान्यच्छ लनिरूपणम् उपचारच्छललक्षणम्, छलपूर्वपक्ष, तस्ममाधानम्, जातिलक्षणम्, निग्रहस्थानलक्षणाम, प्रथमाध्यानसमाप्तिः संशयपून पक्षः, संशयसिद्धान्तः, प्रमाणपूर्व पक्षा,
M
३
Nm.
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम् ।
पृ.
तत्समाधामम् ,
0
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0
समाधानान्तरम्, पूर्व पक्षान्तरम्, तत्समाधानम्, प्रत्यक्षलक्षणाक्षेप লালম্নোন, श्राक्षेपान्तरम, समाधानान्तरम्, मनःसिद्धौ युक्तिः प्रत्यचसिद्धान्नसनम, सनिकपीहेतत्वशङ्का, नत्समाधानम्, प्रत्यक्षस्थानुमितिवपक्का, तत्समाधानम्, अपयविपूर्व पक्षसूत्रम्, मत्समाधानम्, अवयवसिद्धान्तलम्, अनुमानपूर्व पक्षसूत्रम्, नत्ममाधानम्, वर्तमानाक्षेप, तत्समाधानम्, उपमानपूर्व पक्षहस्त्रम्, तत्समाधानमा
४
EM
५४
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम्।
उपमामयानुमानान्तर्भावमतम् ,
ततखण्डनम, भन्दपूर्व पक्षसूत्वम्, तहसमाधानम्, बेदप्रामाण्याक्षेपः, तत्सिवान्तः वेदवाक्यविभागः, विधिलक्षणम् । अर्थवादविभागः, अनुवादलक्षणम्, वेदप्रामाण्ये युक्तिः, प्रमाणचतुष्वाक्षेपः, तत्समाधानम्, शब्दानित्यसाधनम्, शब्दपरिणामसंशयः, মৰিজানিজ্য, शब्दविकारव्यवहारः, पदनिरूपणम्, पदार्थसंशयः, জলহ্মিঘবিন, केबलावतिशनिमतखण्डनम्, केवलजातियक्तिखण्डनम् पदार्थनिरूपणम्,
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम् ।
प.
N
.
७
यक्तिलक्षणम्, আনিল, जातिलक्षणम्, द्वितीयाध्यायसमाप्तिः प्रमेयपरीक्षारम्भः, नत्रापि इन्द्रियचैतन्यवाददषणम्; মৰীৰামানুস, आक्षपान्तरम् तत्समाधानम; चक्षु रीतप्रकरणम् तत्खण्डनम्, मनस अात्मत्वशक्का, तत्खण्डनम्
आत्मनित्यत्वप्रतिपादनम्, गरीरस्यैकभौतिकत्वकथनम्, पार्थिवत्वे युक्तान्तरकथनम्; इन्द्रियभौतिकवपरीक्षणम्; इन्द्रियनानात्वपरीक्षणम्, अर्थपरीक्षणम् बुडानियतासंशयः; बुद्धिनित्यतावादिसायमतम्; तत्खण्डनम सायमतान्तरदूषणम्
१०४ .
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न्यायदर्शनस्य सूचीपत्रम् ।
अयुगपदग्रहणव्युत्पादनादि, चाणिकवादिसौगतशङ्काकथनम्; सौगतशङ्कामसाधामम् सौगतमते सायदूषणम्; तनिराकरणादि;
११३ बुद्धरात्मगुषत्वप्रकरणम्; बुझे रुत्यवापयर्गिस्वकथनम्
१२४ वद्धौ शरीरगुणत्वाभावस्य विशिष्य कथनमः १२७ मन:परीक्षाप्रकरणम्
१२६ शरीरख तत्तत्पुरुषार टनिष्पाद्यताप्रकरणम् १३० मृतीयाध्यायसमाप्तिः प्रष्टत्तिपरीक्षा,
१३६ दोषपरीक्षणम्,
१३६ दोषाणां पक्षलयकथमम्,
१२७ प्रेत्यभावसिद्धान्तः, उत्पत्तिप्रकारप्रदर्शनम् शून्यतोपादानप्रकरणमः ब्रह्मपरिणामवादः,
१४० आकस्मिक त्वनिराकरणप्रकरणम् , সৰূৰৰ স্বনিম্মলনিৰূমৰয, বল নিলাম सर्बष्टथक् त्वनिराकरणप्रकरणम्, सर्व शून्यतानिराकरणप्रकरणम्, १४५
.१३८ १२८ १३४
1
१४३
०
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_ नयायदर्शनस्य सूचीपत्रम् ।
१५४
१६८
१७१
বঙ্গানমালিন্ধযেসব फनपरीक्षाप्रकरणम्, दुःखपरीक्षा, अपवर्गपरीक्षाप्रकरणम्, तत्त्वज्ञानोत्पत्तिप्रकरणम, अवयविप्रकरण, निरवयवप्रकरणम् वाह्यार्थभङ्गनिराकरणप्रकरणम् तत्वज्ञानविरद्धिप्रकरणम्, चतुर्थाध्यायसमाप्तिः, नातिविभागसूत्रम् साधर्मवैधर्मप्रसमलक्षणम् माधर्मासमादेरसत्तरत्वे वीजम् ; जातिषट् कनिरूपणम्, जातिघटकामदुत्तरत्ववीजम्, ' प्राप्तप्राप्तिसमनिरूपणम् , तयोरसदुत्तरत्वे वीजम् मसङ्गप्रतिष्टान्नसमनिरूपणम् प्रसङ्गासमोत्तरकथनम्, प्रतिदृष्टान्तसमोत्तरकथनम्, अनुत्पत्तिसमलक्षणम्, वस्योत्तरम, संजयसमनिरूपणम्
१७१
१७२
१७२
१७४
१७४
१७४
१७५
१७५
१७५
१७५
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प्रयदर्शनस्य सूचीपत्रम् |
तस्योत्तरम्,
प्रकरणसमनिमणम्,
प्रकरणसमोत्तरम्,
ग्रहेतुसमप्रकरणम्
प्रर्थापत्तिसमप्रकरणम्,
विशेषममप्रकरणम्,
उपपत्तिसमप्रकरणम्,
उपलब्धिसमप्रकरणम्,
अनुपलब्धिसमप्रकरणम्,
का नित्यसमप्रकरणम्,
नित्यसमप्रकरणम्,
कार्यसमप्रकरणाम्,
कथामासप्रकरणम्,
निग्रहस्थान विभागः,
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प्रतिज्ञाहानिलचणम्,
प्रतिज्ञान्तरलचणम्,
प्रतिज्ञाविरोलक्षणम्,
प्रतिज्ञासन्नप्रासलक्षणम्,
हेत्वन्तरलचणम्,
अर्थान्तरलचणम्,
निरर्थकलचणम्,
व्यविज्ञातार्थलक्षणम्,
पार्थ कलचणम्,
पृ०
१७६
१७६
१७६
१७७
१७७
१७८
१७८
१७६
१७८
१८१
158
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* AAA ÄÄÄ
१८२
१८३.
१८६
१८६
१८७०
१८८
१८८
१८८
१८६
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प०
१
३०
१७
१५.
२४
११
२३
१
१८
११
१६
१४
११
২३
पू
१०
१
له
१३.
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१.
नायदर्शनस्य सूचीपलम् ।
अप्राप्तकाललक्षणम्,
१८८ १८४
१८६
१८६
१८८
१६.
१४.
সুল , अधिकलक्षणम्, पुनरुतालक्षणम्, अननुभाषणलक्षणम्, অাল , अप्रतिभालक्षणम्, विक्षेपलक्षणम्, मतानुसालक्षणम्, पर्य नुयोग्यानुयोगलक्षणम, निरनुयोज्यानुयोगलक्षणम्, अपसिद्धान्तलक्षणम्, हेत्वाभाससूत्रम्, पच्चमाध्यायसमाप्तिः,
१८०
१६१ १९१
१६२
१८२
समाप्तम् ।
-
-
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्यम् ।
-
-
ॐ नमः प्रमाणाय । प्रमाणतोऽर्थ प्रतिपत्तौ प्रत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम् । प्रमाणमन्नरेण नार्थ प्रतिपत्तिः । नार्थ प्रतिपत्तिमन्तरेण प्रवृत्तिसामर्थम् । प्रमाणेन खल्वयं ज्ञाताऽर्थमुपलभ्य तमममीपसति जिहासति वा । तस्ये पसाजिहासा प्रयुक्तस्य समीहा प्रवृत्तिरित्यच्यते सामर्थ्य पुनरस्याः फलेनाभिसम्बन्धः। समोहमानस्तमर्थमी भन् जिहासन् वा तमर्थमा मोति जहाति वा | अर्थस्त सुखं सुखहेतुः दुःखं दुःखहेतुञ्च, मोऽयं प्रमाणार्थे र. परिसलेययः प्राणभने दस्खापरिसङ्घययत्वात् । अथवति च प्रमाणे प्रमाता प्रमेयं प्रमितिरित्यर्थवन्नि भवन्ति, कस्मात् अन्यतमापाये ऽर्थ स्यानुपपत्तेः । सत्र यस्खेमाजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता | स येनार्थ प्रमिणोति नत् प्रमाणन् । योऽर्थः प्रतीयते तत् प्रमेयम् । यदर्थ विज्ञानं मा प्रमितिः। चतररषु चैवंविधाखर्थ तत्त्वं परिसमाप्यते । किं पुनस्तत्त्वम् । मतश्च सद्भावोऽसतश्चासद्भावः। सत्मदिति रट हामा णं यथाभूतम विपरोतं तत्त्वम् भवति, अनचास दिति ग्ट ह्यमाणं यथाभूतम विपरीतं तत्त्वम् भवति । कथमुत्तरस्य प्रमाणेनोपलब्धिरिति सत्यम्यु पलभ्यमाने तद टुपलभेः प्रदीपवत्, यथा दर्शकोन दीपेन दृश्य ग्ट ह्यामाणे तदिव यन्त्र ग्टद्यते तन्नास्ति । यद्यमविया ददमिव व्यज्ञासत विज्ञानाभावान्नास्तीति । एवं प्रमाणेन सति स्ट ह्यमाणे तदिव यन्त्र ग्टह्यते तन्नास्ति यद्यभविष्यत् इदमिव व्यनाथत विज्ञानाभावानासीति तदेवं सतः प्रकाशकं प्रमाणमसदपि प्रकाशयतीति । सच्च खलु षोड़शधा व्यूहमुपदेच्यते तासां खल्वासां सविधानाम् ॥
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न्यायदर्श दवात्स्यायनभाष्ये
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः ॥ १ ॥
निर्देशे यथावचनं विग्रहः । चार्थे इन्दः समासः । प्रमाखादीनान्तत्वमिति शैषिको षष्ठी, तत्त्वस्य ज्ञानम् निःश्रेयसस्याधिगम इति कर्मणि raौ, एतावन्तो विद्यमानार्थाः । एषाम विपरीतज्ञानार्थ मिहोपदेशः, सोऽयमनवयवेन तन्त्रार्थ उद्दिष्टो वेदितव्यः, आत्मादेः खलु प्रमेयस्य तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । तचैतदुत्तरसूत्रेणान्द्यत इति । हेयं तस्य निर्वर्त्तकं ज्ञानमात्यन्तिकं तस्योपायोऽधिगन्तव्य इत्येतानि चत्वार्थ र्थ - पदानि सम्यगबुध्वा निःश्रेयसमधिगच्छति । तत्र संशयादीनां पृथग्वचनमनर्थकम् संशयादयो यथासम्भवं प्रमाणेषु प्रमेत्रेषु चान्तर्भवन्तो न व्यतिरिच्यन्त इति, सत्यमेतत् इमास्तु चतस्रो विद्याः पृथक्प्रस्थानाः प्राणभृतामनुमहायोपदिश्यन्ते यासां चतुर्थीयमान्वितिको न्यायविद्या | तस्याः पृथक् प्रस्थानाः संशयादयः पदार्थाः । तेषां पृथग्वचनमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात् यथोपनिषदः । तस्मात् संशयादिभिः प दाथैः पृथक् प्रस्थाप्यते । तत्र नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यः यः प्रवर्त्तते, किन्तर्हि संशयितेऽर्थे, यथोक्तं “ विस्मृश्य पञ्चप्रतिपचाभ्यामर्थावधार सं निर्णय इति," विमर्शः संशयः । पञ्चप्रतिपक्षौ न्यायप्रवृत्तिः । यर्थावधारणं निर्णयस्मत्त्वज्ञानमिति । स चायं किंखिदिति वस्तुविमर्शमात्त्रमनवधारणं ज्ञानं संशयः प्रमेयेऽन्तर्भवन्द्येवमर्थम्पृथगुच्यते । अथ प्रयोजनम् । येन प्रयुक्तः प्रवर्त्तते 'तत् प्रयोजनम् । यमर्थमभीप्सन् जिहा सन् वा कर्मारभते तेनानेन सर्वे प्राणिनः सर्व्वाणि कर्माणि सर्वच विद्या व्याप्ताः, तदाश्रयञ्च न्यायः प्रवर्त्तते, कः पुनरयं न्याय: । प्रमाणैरर्थ परीच्चणं न्यायः प्रत्यक्षागम: श्रितमनुनानं सान्वीचा प्रत्यक्षागमायामीक्षितस्याम्बोक्षणमन्वीक्षा तथा प्रवर्त्तत इत्यान्वीचिको न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् । यत्प ुनरत्तुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्ध न्यायाभासः स इति तत्र
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ध्याये १ किम् ।
बादजल्पो सम्योजनों, वितण्डा तु परीच्यते वितण्डया प्रवर्त्तमानी वैतण्डिकः । सप्रयोजनमनुयुक्तो यदि प्रतिपद्यते सोऽस्य पच्चः सोऽस्य सिद्धान्त इति वैतण्डिकत्वं जहाति । व्यथ न प्रतिपद्यते नायं लौकिको न परीक्षक इत्यापद्यते । अथापि परपचप्रतिषेधज्ञापनं प्रयोजनं ब्रवीति, एतदपि ताहमेव । यो ज्ञापयति यो जानाति यच्च ज्ञाप्यते एतच्च प्रतिपद्यते यदि तदा वैतण्डिकत्वं जहाति । काथ न प्रतिपद्यते परपचप्रतिषेधज्ञापनं प्रयोजनमित्येतदस्य वाक्यमनर्थकं भवति । वाक्यसमूहश्च स्थापनाहीनो वितण्डा, तस्य यद्यभिधेयं प्रपिपद्यते सोऽस्य पचः स्थापनीयो भवति । अथ न प्रतिपद्यते प्रलापमात्वमनर्थकं भवति वितण्डात्वं निवर्त्तत इति । अथ दृष्टान्तः प्रत्यक्षविषयोऽर्थः । यत्र लौकिकपरीक्षकाणां दर्शनं न व्याहन्यते स च प्रमेयं तस्य पृथग्वचनच तदाश्रयावनुमानागमौ । तस्मिन् सति स्यातामनुमानागभावसति च न स्याताम् । तदाश्रया च न्यायप्रवृत्तिः । दृष्टान्तविरोधेन च परपचप्रतिबेधो वचनीयो भवति दृष्टान्तसमाधिना च स्वपच्चः साधनीयो भवति, नास्तिकश्च दृष्टान्तमभ्युपगच्छन्नास्तिकत्वं जहाति कानभ्युपगच्छन् किं साधन: परमुपालभेतेति निरुक्तेन दृष्टान्तेन शक्यमभिधातुम् " साध्यसा - धर्म्यात् तद्धर्म्मभावो दृष्टान्त उदाहरणं तद्विपरीताद्विपरीतमिति” स्वयमित्यनुज्ञायमानोऽर्थः सिद्धान्तः, स च प्रमेयं तस्य पृथग्वचनम्, सत्य सिद्धान्तभेदेषु वादजल्पवितण्डाः प्रवर्त्तन्ते नातोऽन्यथेति साधनीयार्श्वस्य यावति शब्दसमूहे सिद्धिः परिसमाप्यते तस्य पञ्चावयवाः प्रतिज्ञादयः समूहमपे च्यावयवा उच्यन्ते । तेषु प्रमाणसमवाय यागमः प्रतिज्ञा, हे तुरनुमानम् उदाहरणं प्रत्यचं, उपनयनमुपमानम्, सर्व्वेषामेकार्थसमवाये सामर्थ्यप्रदर्शनं निगमनमिति सोऽयं परमो न्याय इति एतेन वादजल्पवितण्डाः प्रवर्त्तन्ते नातोऽन्यथेति तदाश्रया च तत्त्वव्यवस्था | ते चैतेऽवयवाः शब्दविशेषाः सन्तः प्रमेयेऽन्तर्भूता एवमर्थम् पृथगुच्यन्त इति । तर्के न प्रमाणसङ्ग होतो न प्रमाणान्तरम् प्रभाणानामनुग्राहकतत्वज्ञानाय कल्पते, तस्योदाहरणं किमिदं जन्म कृतकेन हेतुना निवते बाहोखिदलतकेन प्रथाकस्मिकमिति एवमविज्ञ तेऽर्थे कारोप
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न्यायदर्शनवास्यायनभाष्ये
पत्त्या अहः प्रवर्तते यदि कतकेन हेतुना निवर्त्य ते हेतू के दादुपपन्नोऽयं जन्मोच्छदः । अथारुतकेन हेतुना ततो हेतूच्छ दस्थाशक्यत्वा. दनुपपत्रोऽयं जन्मोच्छदः । अथाकस्मिकमतोऽकमाविवर्त्यमानं न पुबनिर्वव्यतीति निवृत्तिकारणं नोपपद्यते तेन जनानुच्छ द इति । एतस्मिंस्तकं विषये कर्मानिमित्त जन्मति प्रमाणानि वर्तमानानि तणानुस्ट ह्यन्ने तत्वज्ञानविषयस्य विभागात्तत्त्वज्ञानाय कल्पाते तर्क इति । सोऽयमित्यम् भतस्तर्कः प्रमाणसहितो वादे साधनायोपालम्भाय वाऽर्थस्य भवतीत्येवमर्थम्पृथगुच्यते प्रमेयान्न भूतोऽपीति, निर्णयस्तत्त्वज्ञानम् प्रमाणानां फलम्, तदवसानो वाद, तस्य पालनार्थं जल्पवितण्डे, तावेतौ तर्कनिर्णयौ लोकयात्रा बहत इति सोऽयं निर्णयः प्रमेयान्तर्भूत एवमर्थम् पृथगुद्दिष्ट इति । वादः खलुः नानाप्रवन कः प्रत्यधिकरणसाधनोऽन्यनराधिकरण निर्णयावसानो वाक्यसमूहः पृथगुद्दिष्ट-उपलक्षणार्थम्, उपलक्षितेन व्यवहारतत्त्वज्ञानाय भक्तीति तहिशेषौ जल्पवितबद्ध तत्त्वा. ध्यवसायसंरक्षणार्थमित्यु तम् । नियहस्थानेभ्यः पृथगुद्दिष्टा हेत्वाभामावादे चोदनीया भविष्यन्तीति, जल्पवितण्डयोस्तु निग्रहस्थानानीति छलजातिनिग्रहस्थानानाम् पृथगुपदेश-उपलक्षणार्थ इति । उपलक्षितानां स्ववाक्ये परिवर्जनम् । छलजाविनियहस्थानानाम् परवाक्ये पर्यनुयोगः । जातेश परेण प्रयुज्यमानायाः सुलभः समाधिः स्वयञ्च सुकरः प्रयोग इति। सेयमान्वीक्षिकी प्रमाणादिभिः पदार्थ विभज्यमाना " प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । पाश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता" तदिदं तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसाधिगमार्थं यथाविद्य वेदितव्यम् । इहत्वयात्मविद्यायामात्मादितत्त्वज्ञानम्, निःश्रेयसाधिगमोऽपवर्गप्राप्तिः । तत् खलु निःश्रेयसं किन्तत्वज्ञानानन्तरमेव भवति नेन्यच्यते किन्तर्हि तत्त्वज्ञानात् || १ ॥
दुःखजन्मप्रत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः ॥२॥
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१ अध्याये १ धाङ्गिकम् ।
तत्रामाद्यपवर्गपर्यन्नप्रमेये मिथ्याज्ञानमनेकप्रकारकं वर्तते श्रामनि तावबास्तोति अनामन्यात्मेति दुःखे सुखमिति अनित्ये निन्यमिति अवाणे बाणमिति सभये नियमिति जुगुमितेऽभिमतमिति हातव्येऽप्रतिहातव्यमिति प्रष्टत्तौ नास्ति कर्म, नास्ति कर्म-फलमिति दोषेष नायं दोष निमित्तः संसार रति प्रेत्यभावे नासि जन्ती वो वा सत्र आत्मावा व प्रेयात् प्रेत्यच भवेदिति । अनिमित्वं जन्म | अनिमित्तो जन्मोपरम इत्यादिमान् प्रेत्यभावोऽनन्तश्चेति नैमित्तिकः सन्न कर्मनिमित्तः प्रेत्यभाव इति। देहेन्द्रियबुद्धिवेदनासन्नानोच्छेदप्रतिसन्धानाभ्यां निरात्मकः प्रत्यभाव इति । अपवर्गो भीष्मः । स खल्वयं सर्वकार्योपरमः सर्वविप्रयोगेऽपवर्गे बहु च भद्रकं लुप्यत इति कथं बुद्धिमान् सर्व सुखोच्छेदमचैतन्यममुमपवर्ग रोचयेदिति । एतस्मान्निध्याजानादनुकूलेघु रागः प्रतिकू वेष द्वेषः रागद्देषाधिकारावास्येामायालोभादयो दोषा भवन्ति । द षैः प्रयुक्तः शरीरेण प्रवर्त्तमानोहिंसास्तेयप्रतिषिद्धमैथुनान्याचरति वाचाऽन्तपरुषसूचनासम्बवानि मनमा परद्रोहं परद्रव्याभीमा नास्तिक्यञ्चेति सेयं पाप्रात्मिका प्रवृत्तिरधर्माय । अथ भूभा शरीरेण दानं परिवाणं परिचरणञ्च। वाचा सत्यं हित प्रियं खाध्यायश्चेति । मनसा दयामस्पृहां श्रद्धाञ्चेति सेयं धर्माय । अत्र प्रवृत्ति साधनो धर्माधम्मौ प्रवृत्तियब्देनोको। यथाऽब्रसाधनाः प्राणाः । "अब वै प्राणिनः प्राणा इति" । सेयं कुत्सितस्याभिपूजितस्य च जन्मनः कारणम्, जन्म पुनः शरीरेन्द्रिय-बुद्धीनां निकायविशिष्टः प्रादुर्भावः । तस्मिन् सति दुःखस्, तत्पुनः प्रतिकूलवेदनीयम् बाधना पीडा ताप इति । इमे मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्ता धम्मा अविच्छेदेनैव प्रवर्त्तमानाः संसार इति । यदा तु तत्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानमपैति तदा मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयन्ति दोषापाये प्रवृत्तिरपति प्रत्ययाये जन्मापैति जन्मा. पाये दुःखमपैति दुःम्वापाये चात्यन्निकोऽपवर्गो निःश्रेयसमिति | तत्त्वजानन्तु खल मिथ्याज्ञानविपर्ययेण व्याख्यातम्, आत्मनि तावदस्तीति घनात्मन्धनात्मेति एवं दुःखेऽनित्ये ऽवाणे सभये जुगुमिते हातव्ये च यथा. विषयं वेदितव्यम्, प्रवृत्तौ अस्ति कर्म अस्ति कीफलमिति दोषेषु दोष.
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
निमित्तोऽयं संसार इति | प्रेत्यभावे खल्वस्ति जन्तु वः सत्त्व अात्मावा यः प्रेत्य भवेदिति । निमित्तवज्जना निमित्तवान् जन्मोपरम-इत्यनादिः प्रेत्यभावोऽपवर्गान्त-इति नैमित्तिकः मन् प्रेत्यभावः प्रवृत्तिनिमित्त इति सात्मकः सन् देहेन्द्रिय द्धिवेदनासन्तानोच्छेद प्रतिसन्धानाभ्यां प्रवर्तत इति । अपवर्गः शान्तः खल्वयं सर्वविप्रयोगः सर्बोपरमोऽपवर्गः । बड़ च कच्छ्र घोरं पापकं लुप्यत इति कथ बुद्धिमान् सर्वदुःखोच्छ दं सर्वदुःखासंविदपवर्ग न रोचये दिति । तद्यथा मधुविषसंप्टनानमनादेयमिति एवं सुखंः दुःखानु पक्कमनादेयमिति । विविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः । उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति, तत्र नामधेयेन पदार्थमानस्थाभिधानमुद्देशः, तत्रोद्दिष्टस्या तत्त्वव्यवछेदको धो लक्षणम् लक्षितस्य यथा लक्षणमुपपद्यते नवेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा, तवोद्दिष्टस्य प्रविभक्तस्य लक्षणमुच्यते यथा प्रमाणानां प्रमेयस्य च, उद्दिष्टस्य लक्षितस्य च विभागवचनं यथा छलस्य वचनविघातोऽर्थ विकल्पोप पत्त्या छचम् तत् विविधमिति अथोद्दिष्टस्य विभाग वनम् ॥
प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ॥३॥
अक्षयाक्षस्य प्रतिविषयं त्तिः प्रत्यक्षम्। वृत्तिस्तु सनिकों ज्ञानं वा यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञान प्रमितिः यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेचाबद्धयः फलम् | अनुमानम् । मितेन लिङ्गनार्थस्य पश्चान्मानमनुमानम् । उपम.नं सारूप्यज्ञानम् यथा गौरेवं गवय इति, सारूप्यन्तु साम न्ययोगः । शब्दः शब्द्यतेऽने नार्थ इत्यभिधीयते जाप्यते उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानीति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याहोद्धव्यम्, प्रमोयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्द स्तहिशेषसमाख्या या अपि तथैव व्याख्यानम् | किं पुन: प्रमाणानि प्रमेयम भिसंप्लवन्ते अथ प्रमेयं व्यवतिष्ठन्त दूत्यु भयथा दर्शनम्। अस्यात्मेत्याप्तोपदेशात् प्रतीयते तत्रानुमानमिछाद्दे प्रयत्न सुखदुःखजानान्यात्मनो लिङ्गमिति । प्रत्यक्षं युञ्जानस्य योगसमाधिजमात्मममसोः संयोगविशेषादात्मा प्रयच इति, अग्नि
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१ अध्याये १ श्रानिकम् ।
७
राप्तोपदेशात् प्रतीयते अवाग्निरिति, प्रत्यासीदता धूमदर्शनेनानुमीयते । प्रत्यासन्नेन च प्रत्यक्षात उपलभ्यते, व्यवस्था पुनरग्निहोत्रं जहुयात् स्वर्गकाम इति । लौकिकस्य खर्गे न लिङ्गदर्शनं न प्रत्यक्षम् । स्तनयित्र - शब्दे व यमाणे शब्दहेतोरनुमानम् तल न प्रत्यक्षं नागमः, पाणौ प्रत्यक्षत उपलभ्यमाने नानुमानं नागम इति । साचेयं प्रमितिः प्रत्यक्ष परा, जिज्ञासितमर्थमाप्नोपदेशात् प्रतिपद्यमानो लिङ्गदर्शनेनापि बभत्स ते । लिङ्गदर्शनानुमितञ्च प्रत्यक्षतो दिक्षते, प्रत्यक्षत उपलब्धेऽर्थे जिज्ञासा निवर्तते । पूर्वोतमुदाहरणम् अग्निरिति प्रमातुः प्रमातव्ये ऽर्थे प्रमाणानां सङ्करोऽभि संप्लवः । असङ्करो व्यवस्थेति अथ विभक्तानां लक्षणवचन मिति ॥
इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकम् प्रत्यक्षम् ॥ ४॥
इन्द्रियस्थार्थे न सन्त्रिकर्षांदुत्पद्यते यत् ज्ञानं तत् प्रत्यक्षम् । न तहीदानोमिदं भवति अात्मा मनसा संयुज्यते मन इन्ट्रि येण इन्द्रियम नेति, नेदं कारणावधारणमेतावत् प्रत्यक्षे कारणमिति किन्त विशिष्ट कारण : बचनमिति यत्प्रत्यक्षतानस्य विशिष्ट कारणं तदुच्यते, यत्तु समानमनुमानादिज्ञानस्य न तद्रिवर्तत इति । मनसस्तहीन्द्रियेण संयोगो वक्तव्यः | भिद्यमानस्य प्रत्यक्षवानस्य नायं भिद्यत इति समानत्वानोक इति यावदर्थं वै नामधेयशदास्तै रर्थ संप्रत्ययः अर्थसम्प्रत्ययाच्च व्यवहारः । तवेदमि न्द्रियार्थसत्रिकर्षानुत्सबमर्थज्ञानं रूपमिति वा रस इत्येवं वा भवति, रूपरमशब्दाच विषयनामधेयम् । तेन व्यपदिश्यते ज्ञानं रूपमिति जानीते रसइति जानी नामधेय शब्देन व्यपदिश्यमानं सत् शाब्दम् प्रसज्य ते अतग्राहाव्यपदेश्यमिति । यदिदमनुपयुक्त शब्दार्थसम्बन्धेऽर्थज्ञान तन्नामधेयशब्देन व्यपदिश्यते, ग्टहीतेऽपि च शब्दार्थसम्बन्धेऽस्याऽयं शब्दो नामधेर्यामति यदात सोऽर्थो ग्टह्यते तदा तत् पूर्वमादर्थ ज्ञानान' विशिष्यते तदर्थ विज्ञानं तादृगेव भवति तस्य त्वर्थ ज्ञानस्यान्यः समाख्याशब्दो नास्ति
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न्यायदर्शनवाक्य यनभाष्ये
येन प्रतीयमानो व्यवहाराय कल्प्येत न चाप्रतीयमानेन व्यवहारः । तस्यान्तेयस्यार्थस्य संज्ञाशब्देनेतिकरणयुक्तेन निर्द्दिश्यते रूपमिति ज्ञानं रस प्रतिज्ञानमिति तदेवमर्थ ज्ञानकाले स न समाख्याशब्दो व्याप्रियते व्यवहारकाले तु व्याप्रियते, तस्मादशाब्दमर्थ ज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षो त्पनमिति । पीठे मरीचयो भौमेनोमय्या संसृष्टाः सन्दमाना दूरस्थस्य चक्षुषा मन्त्रिमण्यन्त तले न्द्रियार्थसन्निकर्षादिकमिति ज्ञानमुत्पद्यते तच्च प्रत्यवम् प्रसख्यत इत्यत श्राह व्यभिचारोति यदतस्मिंस्तदिति तद्यभि वारि, यत्त ु तस्मिंस्तदिति तदव्यभिचारि प्रत्यचमिति । दूराञ्चचुषा ह्ययमर्थं पश्वनावधारयति धूम इति वा, रेणुरिति वा वदेत् तदिन्द्रि यार्थसन्निकर्षेात्पन्नमनवधारणज्ञानम् प्रत्यक्ष ममरुज्यत इत्यत ग्राह व्यवसायात्मकमिति, तचैतन्मन्तव्यम् श्रात्ममनः सन्निकर्षजमेवानवधारणज्ञानमिति । चक्षुषा ह्ययमर्थं पश्यन्नावधारयति तथाचेन्द्रियेणोपलब्धम मनसोपलभते एवमिन्द्रियेणानवधारयन् मनसा नावधारयति यचतदिन्द्रियानवधारणपूर्वकं मनसाऽनवधारणं तद्विशेषापेच्तं विमर्शमात्र संशयोनपूर्वमिति सर्व्वत्र प्रत्यचविषये ज्ञातरिन्द्रियेण व्यवसायः पश्चात् मनसाऽनुव्यवसायः उपहतेन्द्रियाणामनुव्य वसायाऽभावादिति । ब्राह्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यचलचणं वक्तव्यम् अनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं हि बदिति, इन्द्रियस्य वै सतो मनस इन्द्रियेभ्यः पृथगुपदेशो धर्मभेदात् । भौतिकानीन्द्रियाणि नियतविषयाणि | सगुणानाञ्च षामिन्द्रियभाव इति । मनस्त्वभौतिकं सर्वविषयञ्च नास्य सगुणसे न्द्रियभाव इति सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे सन्निधिभसन्निधिं चास्य युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिकारणं बच्याम इति । मनसश्च न्द्रियभावान्न वाच्य लक्षणान्तरमिति । तन्त्रान्तरसमाचाराचैतत् प्रत्येतव्यमिति परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्रयुक्तिः ॥ व्याख्यातम् प्रत्यक्षम् ॥
अथ तत्पूर्व्वकं त्रिविधमनुमानम् पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टञ्च ॥ ५ ॥
तत्पूर्व्वकमित्यनेन लिङ्गलिङ्गिनोः सम्बन्वदर्शनम् लिङ्गदर्शनञ्चाभिसम्
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१ अध्याये १ आश्रिकम् ।
ध्यते लिङ्गलिङ्गिनी सम्बध्वयोर्दर्शनेन लिङ्ग-स्मृतिरमिसम्बध्यते सत्या लिङ्गदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽर्थेऽनुमीयते। पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते । यथा मेघोचन्या भविष्यति दृष्टिरिति । शेषवत्तत् यत्र कार्येण कारणमनुमीयते पूर्वोदकविपरीतसुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ त्वञ्च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमीयते भूतां दृष्टिरिति, सामान्य तो दृष्टं बज्यापूर्वकमन्यत्र दृष्ट स्थान्यत्र दर्शन मिति तथाचादित्यस्य तसादस्य प्रत्यक्षाप्यादित्यस्य ब्रज्येति। अथ वा पूर्ववदिति यत्र यथा पूर्व प्रत्यक्षभूतथे रन्यतरदर्शनेनान्यतरस्याप्रत्यक्षस्थानुमानम् । यथा धू मेनाग्निरिति। शेषवन्नाम परिशेषः स च प्रसन्न प्रतिषेधेऽन्यताप्रसङ्गाच्छिध्यमाणे सम्प्रत्ययः यथा सदंनित्यमित्येवमादिना द्रव्य गुणकर्मणामविशेषेण सामान्यविशेषसमवायेभ्यो निर्भलस्य शब्दस्य तस्मिन् द्रव्यकम गुणसंशये न द्रव्यमेकद्र व्यत्वात् न कर्म शब्दान्तर हेतृत्वात् यस्तु शिष्यते सऽयमिति शब्द स्व गुणत्व प्रतिपत्तिः । सामान्यतो दृष्टं नाम यत्राप्रत्यक्षे खिङ्गलिङ्गिनो. सम्बन्धे केनचिदर्थेम लिङ्गस्य सामान्यादप्रत्यक्षो लिङ्गी गम्यते यथेच्छादिभिरात्मा इच्छादयो गुणाः गुणाच द्रव्य संस्थानाः नद्य देषां स्थानं स अात्मेति विभागवचनादेतत् विविधमितिसिडे त्रिविधवचनम् महतो महाविषयस्य न्यायस्य लघीयसा सूत्रेणापदेशात् परं वाक्यलाघवं मन्यमानस्थानस्मिन् वाक्यलाघवेऽ. मादरः तथा चायमित्यम्भतेन वाक्य विकल्पेन प्रवृत्तः सिद्धान्ते छले शब्दादिषु च बहुलं समाचारः शास्त्र इति सहिषयञ्च प्रत्यक्षं सदसहिषयञ्चानुमानम्, कस्मात् काल्यग्रहणात् त्रिकालयुक्ता अर्था अनुमानेन ग्टह्यन्ते भविष्यतीत्य तुमीयते भवतीति चाभूदिति च असञ्च खत्वतीतमनागतञ्चेति । अथोपमानम् ॥ प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम् ॥ ६ ॥
प्रज्ञातेन सामान्यात् प्रज्ञापनीवस्य प्रज्ञापनमुपमानमिति । यथा गौ. रेवं गवय इति, किं पुनरत्रोपमानेन क्रियते यदा खल्वयं गवासमानधर्म प्रतिपद्यते तदा प्रत्यक्ष तस्तमर्थं प्रतिपद्यत इति समाख्यासम्बन्ध प्रतिपत्ति रुपमानार्थ इत्याह । यथा गौरवं गवय इत्य पमाने प्रयक्त गवा
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
समानधर्ममर्थमिन्द्रियार्थस त्रिकर्षादुपलभमानोऽस्य गायशब्दः संज्ञेति संग संजिसम्बन्ध प्रतिपद्या इति । यथा सुहस्तथा मुगपर्णी यथामाषस्तथा माषपर्णीत्यु पमाने प्रयुक्त उपमानात् संज्ञासङ्गिसम्बन्ध प्रतिपद्यमानस्तामोषधी भैषज्यायाहरति एवमन्याऽप्युपमा नस्य लोके विषयो बुभु मितव्य इति । अथ शब्दः ॥
प्राप्तोपदेशः शब्दः ॥ ७॥ आप्तः खलु साक्षात् कृतधर्मा यथादृ ष्ट स्थार्थस्य चिख्यापयिषया प्रत उपदेष्टा साक्षात्करणमर्थ स्याप्तिस्तया प्रवर्तत इत्याप्तः परध्यार्यम्लेच्छानां समानं लक्षणम् । तथा च सर्वेषां व्यवहाराः प्रवर्तन्त इति । एवमेभिः प्रमाणे वमनुष्यतिरश्च व्यवहाराः प्रकल्पान्ने नातोऽन्यथेति ॥
स विविधो दृष्टाऽदृष्टार्थत्वात् ॥८॥ यस्येह दृश्य तेऽयः स दृष्टार्थः यस्यामुत्र प्रतीयते मोऽदृष्टार्थः एवमपि लौकिकवाक्यानां विभाग इति । किमर्थं पुनरिदमुच्यते स न मन्ये त दृष्टार्थ एवाप्तोपदेशः प्रमाणम् अर्थस्थावधारणादिति । अष्टार्थोऽपि प्रमा. णमर्थ स्थानुमानादिति । किं पुनरनेन प्रमाणेनार्थ जतिं प्रमातव्यमिति तदुच्यते॥
आत्मशरोरेन्द्रियार्थबुद्धिमनः प्रष्टत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ॥ ६ ॥
तात्मा सर्वस्य द्रष्टा, सर्वस्य भोक्ता, सर्वज्ञः, सर्वानुभावो, तेस्य भोगायतनं शरीरम् | भोगसाधनानीन्द्रियाणि भोक्तव्या इन्द्रियार्थाः भोगो बुद्धिः। सर्वार्थोपलब्धौ नेन्द्रियाणि प्रभवन्तीति सर्व विषयमन्तः करणं मनःशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिसुखवेदनानां नि त्तिकारणम्, प्रवृत्तिर्दोघाश्च नास्य, इदं शरीरमपूर्वमनुत्तरञ्च, पूर्वशरीराणामादिर्नास्ति उत्तरेषाम पवर्गोऽन्त इति मे त्यभावः । ससाधनसुखदुःखोपभोगः फलम् । दुःखमिति नेदमनुकूल वेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानम्, किन्तर्हि
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१ अध्याये १ आङ्गिकम् ।
मन्मन एवेदम्, ससुखसाधनस्य दुःखानुषङ्गाहःखेनाविप्रयोगाधिविधवा. धनायोगाइःखमितिसमाधिभावनमुपदिश्यते, समाहितो भावयति, भाव यनिर्विद्यते, निर्विलय वैराग्यम्, विरतस्यापवर्ग रति जन्ममरणप्रबन्धो कोदः सर्वदुःखप्रहाणमपवर्ग इति । अत्यन्यदपि द्रव्य गुणकर्ममामान्यविशेषसमवायाः प्रमेयम् तद्भेदेन चाऽपरिसङ्ख्य यम् । अस्य तु तत्वजानाद पवर्ग: मिथ्याज्ञानात् संसार इत्यत एतदुपदिष्टं विशेषेणेति । सत्तात्मा तानत् प्रत्यवतो न ग्टह्यते स किमाप्तोपदेशमाबादेव प्रतिपद्यत इति नेत्युच्यते अनुमानाञ्च प्रतिपत्तव्य इति कथम् ॥
इच्छाहेषप्रयत्नसुखदुःखजानान्यात्मनो लिङ्गमिति ॥ १०॥
यज्जातीयस्थार्थस्य मधिकर्षात् सुखमात्मोपलब्धवान् तज्जातीयमेवार्थ पश्यन्नपादातुमिच्छति सेयमादातुमिच्छा एकस्यानेकार्थ दर्शिनी दर्शनप्रतिसन्धानाद् भवति लिङ्गमात्मनः, नियतविषये हि बुद्धिभेदमाले न सम्भवति देहान्नरवदिति । एवमेकस्यानेकार्थदर्शिनो दर्शनप्रतिसन्धानाहःखहेतौ हेषः यज्जातीयो यथार्थः सुखहेतः प्रसिद्धस्तज्जातीयमर्थम्पश्यन्नादातम् प्रयतते योग्यम् प्रयत्न एकमनेकार्थदर्शिनं दर्शन प्रतिसन्धातारमन्तरेण न स्यात् नियत विषये बुद्धिभेदमाले न सम्भवति देहानरवदिति एतेन दुःखहेतो प्रयत्नो व्याख्यातः । सुखदुःखमत्या चावं तत्साधनमाददानः सुखमुपलभते दुःखमुपलभते सुखदुःखे वेदयते पूर्बोकएव हेतुः, बुभुत्मानः स्वल्वयं विमृशति किंखिदिति विमृशन् नानीते इदमिति तदिदं जानं बुभुत्माविमाभ्यामभिन्न कर्त कं ग्टह्यमाणमात्मलिङ्गम् पूर्वोक्तएव हेतरिति । तत्र देहान्तरवदिति विभज्यते । यथाऽनात्मवादिनो देहानरेषु नियतविषया बुद्धिभेदा न प्रतिमन्धीयन्ने स्थैकदेहविषया अपि न प्रतिसन्धीयेरन् अविषेपात्, सो ऽयमेकसत्वस्य समाचारः स्वयं दृष्टस्य सरणं नान्यदृष्टस्येति एवं खलु नानासत्यानां समाचारोऽन्यदृष्टमन्ये न भरनीति । तदेतदुमयमशक्यमनात्मवादिना व्यवस्थापयितमिति एवमयपत्रमस्यात्मेति । तस्य भोगाधिष्ठानम् ॥
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न्यायदर्शनवात्यायभाष्थे चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ॥ ११ ॥ कथं चेष्टाश्रयः । ईप्सितं जिहासितं वाऽर्थमधिकत्येमाजिहा. साप्रयुक्तस्य तदुपायानुष्ठानलक्षणा समीहा चेष्टा मा यत्र वर्तते तच्छरीरम् । कथमिन्द्रियाश्रयः । यस्यानुग्रहेणानुग्टहीतानि उपघाते चोपहतानि खविषयेषु साध्वसाधुषु वर्तन्ते स एषामाश्रयस्तच्छरीरम्, कथभर्थाश्रयः यस्मिन्नायतने इन्द्रियार्थ सन्द्रिकर्षा दुत्पन्नयोः सुखदुःखयोः मतिसंवेदनं प्रवर्तते सएषामाश्रयस्त छारीरमिति | भोगसाधनानि पुनः ॥ घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्थोत्राणौन्द्रियाणि भूतेभ्यः ॥१२॥
जिघ्रत्यनेनेति घ्राणं गन्ध ग्टह्वातीति, रसयत्यनेनेति रसनं रसं ग्टहातीति। चष्टेऽनेनेति चक्षु रूपं पश्यतीति, स्पृशत्यनेनेति स्पर्शनम् स्वस्थानमिन्द्रियं त्वक् तदुपचारः स्थानादिति । टणोत्य ने नेति श्रोत्रं
शब्दं ग्टह्णातीति एवं समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याटुबोध्यम् ख विषययह. णलक्षणानीन्द्रियाणीति | भूतेभ्य इति नानाप्रकतीनामेषां सता विषयनियमो नैकप्रकृतीनां सति च विषय नियमे व विषयग्रहणलचणत्वं भवतीति | कानि पुनरिन्द्रियकारणानि ॥
प्रथिव्यापस्तेजो वायुराकाशमिति भूतानि ॥
____ संज्ञाशब्दः पृथगुपदेशो भूतानां विभक्तानां सुवचं कार्यम्भविष्यतोति । इमे तु खल ॥ - गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः ॥ १४ ॥
पृथिव्यादोनां यथाविनियोगं गुणा इन्द्रियाणां यथाक्रममर्था विषया इति । अचेतनस्य करणस्य बुद्धेनिं वृत्तिः चेतनस्याकत रुपलब्धिरिति युक्तिविरुद्धमर्थं प्रत्याचक्षाणक इवेदमाह ॥
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१ अध्याये १ त्राङ्गिकम्। बुद्धिरुपलब्धि नमित्यनर्थान्तरम् ॥ १५ ॥
नाचेतनस्थ करणस्य बुद्धे न भवितुमर्हति तच्चि चेतनं स्यात् एकश्चायं चेतनो देहेन्द्रियसङ्घातव्यतिरिक्त इति प्रमेयलक्षणार्थ थाऽपि वाक्यस्यान्यार्थ प्रकाशनमुपपत्तिसामर्थ्यादिति । सत्यनुमानागमसंशयप्रतिभावज्ञानोहाः सुखादिप्रत्यक्षमिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि तेषु सखियमपि ॥
युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ॥ १६ ॥
अनिन्द्रियनिमित्ताः समुत्यादयः करणान्तरनिमित्ता वितुमर्हन्तीति युगपञ्च खलु घ्राणादीनां गन्धादीनाञ्च सन्निकर्षेषु सत्सु युगपनानानि नोत्पद्यन्ते तेनानुमोयते अस्ति तत्तदिन्द्रियसंयोगि सहकारिनिमित्तान्तरमव्यापि यस्यामन्निधे!त्पद्यते ज्ञानं सन्निधेश्चोत्पद्यत इति मनःसंयोगान पेक्षख हीन्द्रियार्थसद्रिकर्षस्य ज्ञान हेतुत्वे युगपदुत्पद्य रन् ज्ञानानीति । क्रमप्राप्ता त॥
प्रत्तिर्वागबुद्धिशरोरारम्भ इति ॥ १७॥
मनोऽत्र बद्धिरित्यभिप्रेतं, वुद्यतेऽनेनेति बुद्धिः, सोऽयमारम्भः शरीरेण वाचा मनसा च पुण्यः पापश्च दशविधः, तदेतत् कृतभाष्य द्वितीयसूत्र इति ॥
प्रवर्तनालक्षणा दोषाः ॥१८॥
प्रवर्तना प्रवृत्तिहेतुत्वम् ज्ञातारं हि रागादयः प्रवर्त्तयन्ति पुण्ये पापे वा । यव मिथ्याज्ञानं तत्र रागद्दे षाविति प्रत्यात्मवेदनीया हो मे दोषाः कस्मात् लक्षणतो निर्दिश्य न्त इति कर्मलक्षणाः खल रक्त विष्टमूढाः रतो हि तत्कर्म कुरुते येन कर्मणा सुखं दुःखं वा भजते, तथा विष्ट - स्त था मूढ इति दोषा रागद्वेषमोहा इत्युच्यमाने बहुनोक भवतीति |
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः ॥ १८ ॥
उत्पन्नस्य कचित् सत्वनिकाये म्हत्वा या पुनरुत्पत्तिः स प्रेत्यभावः । उत्पन्नस्य सम्बद्भस्य सम्बन्धस्तु देहेन्द्रियमनोबुद्धिवेदनाभिः पुनरुत्पत्तिः पुनर्देहादिभिः सम्बन्धः पुनरित्यभ्यासाभिधानम् । यत्र कचित् प्राणनिकाये वर्त्तमानः पूर्वेपात्तान् देहादीन् जहाति तत्यैति यत् तत्रान्यत्र वा देहादीनन्यानुपादत्ते तद्भवति प्रेत्यभावो मृत्वा पुनर्जन्म सोऽयं जन्ममरणप्रबन्धाभ्यासोऽनादिरपवर्गान्तः प्रत्यभावो वेदितव्य इति ॥
प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम् ॥ २० ॥
सुखदुःखसंवेदनं फलम् सुखविपाकं कर्म दुःखविषाकञ्च तत्पुनर्देहेन्द्रियविषयबुद्धिषु सतीषु भवतीति सह देहादिभिः फलमभिप्रेतम् तथा हि प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलमेतत् सर्व्वम्भवति तदेतत् फलमुपात्तमुपात्तं यं त्यक्त त्यक्तमुपादेयमिति नास्य हानोपादानयोर्निष्ठा पत्रानं वाऽस्ति न खल्वयं फलस्य हानोपादानस्रोत सोह्यते लोक इति । अथैतदेव || बाधनालक्षणं दुःखमिति ॥ २१ ॥
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बाधना पीडा ताप इति । तयानुविङ्गमनुषक्तमविनिर्भागेन वर्त्तमान दुःखयोगाद्दुःखमिति सोऽयं सर्वं दुःखेनानुविद्धं वृहन्तमिति पश्यन् दुःखं जिन्हासुर्जन्मनि दुःखदर्शी निर्विद्यते निर्बिस्पो विरज्यते विरक्तो विमुच्यते यत्र तु निष्ठा सोऽयं यत्र तु पर्यवसानम् ॥
तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः ॥ २२ ॥
तेन दुःखेन जन्मनात्यन्तं विमुक्तिरपवर्गः कथमुपात्तस्य जन्मनो हानअन्यस्य चानुपादानम् एतामवस्थामपर्यन्तामपवर्ग वेदयन्ते ऽपवर्गविदः दभयमजर मम्मृत्युपदं ब्रह्ममप्राप्तिरिति । नित्यं सुखमात्मनो महत्ववन्मोक्षे व्यज्यते तेनाभिव्य क्ते नायन्त' विमुक्तः सुखी भवतीति केचिन् भन्यन्ते तेषां प्रमाणाभावादनुपपत्तिः, ग प्रत्यक्षं नानुमानं नागसो वा विद्यते नित्यं सुखमात्मनो महत्ववन्नीचेऽभिव्यज्यत इति नित्यस्याभि
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१ अध्याये १ आङ्गिकम्।
व्यक्तिः संवेदनं ज्ञान मिति तस्य हेतर्वाच्यो यतस्तदुपपद्यत इति, सुखवनित्यमिति चेत् संसारस्थस्य मुक्त नाऽविशेषः यथा मुक्तः सुखेन तत् संवेदनेन च सन्नित्ये नोपपन्न स्त था संसारस्थोऽपि प्रसज्यत इति । उभयस्य नित्य त्वात अभ्यनुज्ञाने च धर्माधर्म फलेन साहचर्य योगपद्य ग्टह्येत यदिदमुत्पत्तिस्थानेषु धमाधर्म फलं सुखं दुःखं बा संवेद्यते पर्यायेण तस्य च नित्यं स्वसंवेदनस्य च सह भावो यौगपद्य ग्टह्येत न सुखाभावो नाsनभिव्यकिरस्ति उभयस्य नित्यत्वात् अनित्यत्वे हेतुवचनम् । अथ मोच नित्य व सुखस्य संवेदनमनित्यं यत उत्पद्यते स हेतुर्वाच्यः अात्ममनःसंयोगस्य निमित्तान्तरसहितस्य हेतुत्वम् । आत्ममनःसंयोगो हेतुरिति चेत एवमपि तस्य सहकारिनिमित्तान्तरं वचनीयमिति धर्मस्य कारणवचनम् यदि धी निमित्तान्तरं तस्य हेतुर्वाच्यो यत उत्पद्यत इति योगसमाधिजस्य कार्यावसाविरोधात प्रलये संवेदनानिवृत्तिः, यदि योगसमाधिजो धर्मा हेतुस्तस्य कार्यावसायविरोधात प्रक्षये संवेदनमत्य न्न निवर्तयति असंवेदने चाविद्यमानाविशेषः यदि धर्मक्षयात् संवेदनोपरमो नित्य मुखं न संवेद्यत इति किं विद्यमान न संवेद्यते अथाविद्यमानमिति नानुमानं विशिष्टे ऽस्तीति अप्रक्षयश्च धर्मस्य निरनुमान त्यत्तिधर्मकत्वात् योगसमाधिजो धी न क्षीयते इति नास्त्यनुमानमुत्पत्तिधर्म कमनित्यमिति विपर्ययस्य त्वनुमानम् यस्य तु संवेदनोपरमो नास्त तेन संवेदनेन हेतुनित्य इत्य नुमेयम् । नित्ये च मुक्तसंसारस्थयोरविशेष इत्युक्तम् यथा मुक्तस्य नित्यं सुखं तावेदन हेतुश्च संवेदनस्य तूपरमो नास्ति कारणस्य नित्य त्वात् तथा संसारस्थस्था पीति एवञ्च सति धर्माधर्मफलेन सुखदुःखसंवेदनेन साहचव्यं ग्ट ह्ये तेति। शरीरादिसम्बन्धः प्रतिबन्ध हे तरिति येत् न शरीरादीनामुपभोगार्थत्वात् विपर्ययस्य चाननुमानात् । स्थान - मतं संसारावस्थशरीरादिसम्बन्धी नित्य सुखसंवेदनहेतोः प्रतिबन्धकस्तेना.. विशेषो नास्तीति, एतच्चायुक्तम् शरीरादय उपभोगार्थास्ते भोगप्रतिबन्ध करिष्यन्तीत्य नुपपन्नम् न चास्यनुमानमशरीरस्थात्मनो भोगः कश्चिदस्तीति, इष्टाधिगमार्था प्रत्तिरिति चेत् न अनिष्टोपरमार्थत्वात् इष्टाधिगमार्थे। मोक्षोपदेशः प्रवृत्तिश्च मुमुक्षणामिति नेष्ट मनिष्टे नाननुविड़ सकतीति
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न्यायदर्शनवात सायनभाष्य
इष्टमप्यनिष्टं सम्पद्यते अनिष्टहानाय घठमान इष्ट मपि जहाति विवेकहानस्थाशक्यत्वादिति दृष्टातिकमश्च देहादिष तुल्यः यथा दृष्टमनित्यं सुखं परित्यज्य नित्य सुखं कामयते एवं देहेन्द्रियबुद्धिरनित्या दृष्टा अतिक्रम्य मुक्तस्य निन्या देहेन्द्रियबुद्धयः कल्पयितव्याः, साधोयश्च वं मुक्त स्य चैकात्म्यं कल्पितम्भवतीति, उपपत्तिविरुद्धमिति चेत् समानम् । देहादीनां नित्य त्वं प्रमाणविरुद्ध कल्पयितु मशक्यमिति समानं सुखस्यापि नित्य त्वं प्रमाणविरुद्ध कल्पयितमशक्यमिति, आत्य न्निके च संसारदुःखा भावे सुख वचनादागमेऽपि सत्य विरोधः यद्यपि कश्चिदागमः स्यान्मुक्तस्थात्यन्तिकं सुख मिति सुख शब्द आत्यन्ति के दुःखाभावे प्रयुक्त इत्येवमुपपद्यते | दृष्टो हि दुःखाभावे सुखशब्दप्रयोगो बहुलं लोक इति, नित्यसुखरागस्याप्रहाणे मोक्षाधिगमाभावो रागस्य बन्धनसमाज्ञानात् यद्ययं मोजे नित्यं सुखमभिव्यज्यत इति नित्यसुखरागेण मोक्षाय घट. मानो न मोक्षमधिगच्छत्राधिगन्तुमर्हतीति बन्धनसमाज्ञातो हि रागः न च बन्धने सत्यपि कश्चिन्मुक्त इत्युपपद्यत इति प्रहीणनित्य सुखरागस्याप्रतिकूलत्वम् अथास्य नित्य सुखरागः प्रहीयते तस्मिन् प्रहीणे नास्य नित्य सुखरागः प्रतिकूलो भवति यद्येवं मुक्तस्य नित्यं सुखं भवति अथ पि न भवति नास्योभयोः पक्षयो भॊज्ञाधिगमो विकल्पात इति । स्थानवत एव तर्हि संशयस्य लक्षणं वाच्यमिति तदुच्यते ॥ .
समानानेकधर्मोपत्ते विप्रतिपत्तेरुपलब्धानुपलब्धाव्यवस्थातच विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः
समानधर्मोपपत्ते विशेषापेक्षो विमर्शः संशय इति स्यागपुरुषयोः समानं धर्ममारोहपरिणाहौ पश्यन् पूर्वदृष्टञ्च तयोविशेषं वभुत्ममानः किंखिदित्य न्यतरन्नावधारयति तदनवधारणं ज्ञानं संशयः समानमनयो धर्ममुपलभे विशेषमन्यतरस्य नोपलभइत्येषा बुद्धिरपेक्षा संशयस्य प्रवर्तिका वर्तते, तेन विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः। अनेकधर्मोपपत्तेरिति
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१ अध्याये १ आह्निकम् ।
१७
समानजातीयमसमानजातीयञ्चालेकम् तस्याने कस्य धर्मोपपत्ते विशेषस्योभयथा दृष्ट त्वात् ससानजातीयेभ्योऽसमानजातीयेभ्यश्चार्था विशेष्यन्ते। गन्धवत्वात् पृथिवी अवादिभ्यो विशिष्यते गुण कर्मभ्यश्च, अस्ति च शब्द विभागजत्वं विशेषः, तस्मिन् द्रव्यं गुणः कर्म वेति सन्देहः विशेषस्योभयथा दृष्टत्वात् किं द्रव्यस्य सतो गुणकर्मम्यो विशेष आहोखिहुणस्य मत इति अथ कम्मणः सत इति विशेषापेक्षा अन्य तमस्य व्यवस्थापकं धर्मनोपलभे इति बद्धिरिति । विपतिपत्तेरिति व्याहतमेकार्थदर्शनं विप्रतिपत्तिः । । व्याघातो विरोधोऽसहभाव इति अस्त्यात्मेत्ये क दर्शनम् नास्त्यात्मेत्य परम्, न च सद्भावासद्भावौ स हैकत्र सम्भवतः, न चान्यतरसार धको हेतुरुपलभ्यते तत्र तत्वानवधारणं संशय इति | उपलब्धाव्यवस्था त: खल्बघि सच्चोद कमुपलभ्यते तडागादिष मरीचिप वाविद्यमानमुद कमिति ततः कचिदुपलभ्यमाने तत्त्व व्यवस्था पकस्य प्रमाणसानुपलब्धेः किं सटु पलभ्य ते अथासदिति संशयो भवति । अनुपलब्धव्यवस्थात: सञ्च नोपलभ्यते मलकीलकोद कादि, असच्चानुत्पन्न विरुद्धं या, ततः कचिदनुपलभ्यमाने संशयः किं सन्नोपलभ्यते उतासदिति संशयो भवति विशेषापेक्षा पर्ववत्, पूर्वः समानोऽनेकञ्च धर्मो ज्ञेयस्थः, उपलब्धानुपलब्धी पुनटिस्थे, एतावता विशघेण पुनर्वचनम्, समानधर्माधिगमात् समानधर्मोप पत्ते विशेषस्मृत्य पेक्षो विरु दूति, स्थानवता लक्षणवचनमिति समानम्॥
यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम् ॥२४॥ ___ यमर्थ माप्तव्यं हातम्यं वाऽध्यवसाय तदापिहानोपायमनुतिति प्रयोजन नहेदितव्यम्, प्रवृत्ति हेतुत्वा-दिममर्थ माश्यामि हास्यामि वेति व्यवसायोऽर्थ म्याधिकार:, एवं व्यवसायमानोऽर्थोऽधिक्रियत इति ॥
लौकिकपरोक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः ॥ २५ ॥
लोकसाम्यमनतीता लौकिका नैसर्गिक बैनयिक बद्यतिशयम प्राप्ता
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www.kobatirth.orgAcharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायदर्शनवात्यायनभाष्य
१८
स्तविपरीताः परीक्षका स्तर्केण प्रनार, परीक्षितमहन्नति, यथा यमर्थ लौकिका बुध्यन्ते तथा परीक्षका अपि सोऽर्थो दृष्टान्तः। दृष्टान्तविरोधेन हि प्रतिपक्षाः प्रतिषेव्या भवन्तीति । दृष्टान्नसमाधिना च खपक्षाः स्थापनीया भवन्नोति । अवयवेषु चोदाहरणाय कल्पत इति । अथ सिद्धान्तः । इदमित्वम्भतञ्जेत्यभ्यनुज्ञायमानमर्थ जातं सिद्धं सिद्धस्य संस्थितिः सिड्वान्तः। संस्थितिरित्यम्भावव्यवस्था, धमनियमः । स खल्वयम् ॥ तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिः सिद्धान्तः॥२६॥
तन्वार्थसंस्थितिस्तन्त्रसंस्थितिः । तन्त्रमितरेतराभिसम्बस्वार्थ समूहयोपदेशः शास्त्रम्। अधिकरणानुषनार्था संस्थितिरधिकरणसं स्थितिः । अभ्यु पगमसंस्थितिरनवधारितार्थ परिग्रहः तहिशेष परीक्षणायाभ्युपगममसिद्धान्तः । तन्त्रभेदात्तु खनु स चतुर्विधः ॥
. सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् ॥ २७॥
तवैताश्चतस्रः संस्थितयोऽर्थान्त रभूताः, तासाम् ॥
सर्वतन्त्राविरुद्धस्तन्वेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिधान्तः ॥ २८॥
यथा प्राणादोनोन्द्रियाणि गवादय इन्द्रियार्थाः पृथिव्यादीनि भूतानि प्रमाणैरर्थस्य ग्रहणामिति ॥
समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः ॥२६॥
यथा नासत अात्म जामः न सत अात्महानं निरतिशय चेतना: देहेन्द्रियमन:सु विषयेषु तत्तत्कारणेषु च विशेष इति सांख्यानाम्, पुरुष
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१ अध्याये १ आङ्गिकम् ।
कर्मनिमित्तो भूतसर्गः, कर्म हेतवो दोषाः प्रवृत्तिच, स्वगुण विशिष्टाचतनाः, असदुत्पद्यते, उत्पन्नं निरुध्यते इति, योगानाम् ॥
यत्सिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्वान्तः ॥३०॥
यथार्थस्य सिद्धावन्येऽर्था अनुषज्यन्ते न तैर्वि ना मोऽर्थः सिध्यति तेऽर्या यदधिसानाः सोऽधिकरण सिद्धान्तः यथा देहेन्द्रियव्यतिरिक्तो जाता, दर्शनस्मनाभ्यामेकार्थग्रहणादिति । अत्वानुषङ्गिणोऽर्था दून्द्रियनानात्वं नियतविषयाणीन्द्रियाणि स्वविषयग्रहणलिङ्गानि ज्ञातुर्ज्ञानसाधनानि गन्धादिगुणव्यतिरिक्त द्रव्यं गुणाधिकरणं नियतविषय थेतना इति पर्वार्थ सिद्धावेतेऽर्थाः सिद्ध्यन्ति न तै विना सोऽर्थः सम्भवतीति ॥
अपरीक्षिताभ्युपगमात् तविशेषपरीक्षणमभ्यपगमसिद्धान्तः ॥ ३१ ॥
यत्र किञ्चिदर्थजातमभ्यु पगम्यते अस्तु द्रव्यं शब्दः, स तु नित्योऽथाऽनित्य इति द्रव्यस्य सतो नित्यताऽनित्यता वा त विशेष: परीच्यते सोऽभ्युपगमसिद्धान्तः खबु यतिशयचिख्यापयिषया परवुमवज्ञानाच्च प्रवर्तत इति । अथावयवाः ।
प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः॥ ॥३२॥
दशावयवाने के नैयायिका वाक्ये सञ्चचते। जिज्ञासा संशयः शक्यप्राप्तिः प्रयोजनं संशयव्युदास इति ते कम्मा द्रोच्यन्त इति तत्राप्रतीयमानेऽर्थे प्रत्ययार्थस्य प्रवर्ति का जिज्ञासा अप्रतीयमानमर्थ क मा जि. जासते तं तत्त्वतो ज्ञातं हाखामि वोपादास्ये बा,उचेन्निध्ये वेति तावता हामो पागोभेक्षाबवयतत्वज्ञानार्थस्तदर्थ मयं जिज्ञासते सा खल्लियमसाधनार्थस्येति, जिज्ञासाधिष्ठान संशयश्च व्याहतधर्मोपसङ्घातात् तत्त्व.
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न्याय दर्शनवात्स्यायनभाष्य
ज्ञाने प्रत्यासनः व्याहतयोर्हि धर्म्मयोरन्यतरत्तत्त्वं भवितुमर्हतीति स पृथगुपदिष्टेऽप्यसाधनमर्थखेति, प्रमातुः प्रमाणानि प्रमेयाधिगमार्थानि मशक्यप्राप्तिर्न साधकस्य वाक्यस्य भागेन युज्यते प्रतिज्ञादिवदिति प्रयोजनं तत्वावधारणमर्थसाधकस्य वाक्यस्य फलं नैकदेश इति संशयव्युदासः प्रतिपञ्चोपवर्णनम् तत्प्रतिषेधेन तत्त्वज्ञानाभ्यनुज्ञानार्थं न त्वयं साधकवाक्यैकदेश इति प्रकरणे तु जिज्ञासादयः समर्थाः व्यवधारणीयार्थोपकारा अर्थसाधकाभावात्तु प्रतिज्ञादयः साधकवाक्यस्य भागः एकदेशा अवयवा इति । तेषां तु यथाविभक्तानाम् ॥
साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा ॥ ३३ ॥
प्रज्ञापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचनम् प्रतिज्ञा साध्यनिर्देशः अनित्यः शब्द इति ॥
उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुः ॥३४॥
उदाहरणेन सामान्यात् साध्यस्य धर्मस्य साधनं प्रज्ञापनम् हेतुः साध्ये प्रतिसन्धाय धम्मं मुदाहरणे च प्रतिसन्धाय तस्य साधनतावचनं हेतुः उत्पत्तिधर्मकत्वादिति उत्पत्तिधर्माकमनित्यं दृष्टमिति । किमे नावजेतुलचणमिनि नेत्यच्यते किन्तर्हि ॥
तथा वैधर्म्यात् ॥ ३५ ॥
उदाहरण वैधर्म्याच्च साध्यसाधनं हेतुः कथम् अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्म्मकत्वात् व्यनुत्पत्तिधर्माकं नित्यं यथात्मादि द्रव्यमिति ॥
साध्यसाधर्म्यात् तद्धर्म्मभावो दृष्टान्त उदाहर
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णम् ॥ ३६ ॥
माध्येन साधस्य समानव कांता साध्यसाधर्म्यात् कारणात् तदभावो दृष्टान्त इति तस्य धर्मस्तभीः तस्य साध्यस्य साध्यञ्च द्विविधम् धर्म्म - विशिष्टो वा धर्मः शब्दस्यानित्यत्वम् । धर्म्मविशिष्टो वा धर्म्मो नित्यः
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१ अध्याये १ श्राह्निकम् ।
२१
शब्द इति, इहोत्तरन्नग्रहणेन ग्टह्यत इति कस्मात् पृथगधर्म वचनात् । तस्य धर्मस्तवमस्तस्य भावस्तधर्मभाव: स यस्मिन् दृष्टान्ते वर्तते स दृष्टान्तः साध्यसाधात् तद्धर्मभावी भवति स चोदाहरणमिष्यते तत्र यदुत्य यते तदुत्पत्तिधर्म कम् तच्च भूत्वा न भवति आत्मानं जहाति निरुध्यत इत्यनित्यम् । एवमुत्पत्तिमकत्वं साधनमनित्यत्वं माध्य संऽयमेकस्मिन् वयोधर्मयोः साध्यसाधनभावः साधाद्यवस्थित उपलभ्यते तं दृष्टान्ते उपलभमानः शब्देऽप्यनुमिनोति शब्दोऽभ्युत्पत्तिधर्मकत्वाद. नित्यः स्थाल्यादिवदित्युदायिते तेन धर्मयोः साध्यसाधनभाव इन्युदाहरणम् ॥
तविपर्ययाहा विपरीतम् ॥ ३७॥ दृष्टान्त उदाहरणमिति प्रकृतं साध्यवैधम्मात् तद्धर्मभावी दृष्टान्न उदाहरणमिति अनित्य शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात् अनुत्पत्तिधर्माकं नित्यमात्मादि सोऽयमात्मादि दृष्टान्तः साध्यवैधादनुत्पत्तिधर्मकत्वादतवर्मभावी योऽसौ साध्यस्य धर्मोऽनित्यत्वं स तस्मिन् भवतीति । अनात्मादौ दृष्टान्ते उत्पत्तिधर्म कत्वस्याभावाद नित्यत्वं न भवतीति उपलभमानः शब्दे विपर्ययमनुमिनोति एत्पत्तिधर्मकत्वस्य भावाद नित्यः शब्द इति माधोकस्य हेतोः साध्यसाधर्म्यात् तवर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् वैधमोक्लस्य हेतोः साध्यवैधम्मदितवर्म भावी दृष्टान्त उदाहरणम् पूर्वस्मिन् दृष्टान्ने यौ तौ धौं साध्यसाधन भतौ पश्यति माध्येऽपि तयोः साध्यसाधनभावमनु मिनोति उत्तरस्मिन् दृष्टान्ते ययो धम्मयोरेकस्याभावादितरस्थाभाव पश्यति तयोरेकस्वाभावादितरस्याभावं साध्ये अनुमिनो. नीति, तदेत वेत्वाभासेषु न मन्भवतीत्य हेतवो हेत्वाभासाः तदिदं हेलूदाहरणयोः सामर्थ्य म्परमसूक्ष्म दुःखबोधं पण्डितैरुपवेदनोयमिति ॥
उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपनयः ॥ ३८॥
उदाहरणापेक्ष उदाहरणतन्त्रः उदाहरणवशः, वशः साम
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२२
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्यं
र्थ्यम्, साध्यसाधयुक्त उदाहरणे स्याल्यादिद्रव्यमुत्पत्तिधर्मकमनित्य' दृष्टम् तथा शब्द उत्पत्तिधर्मक इति साध्यस्य शब्दस्योत्पत्तिधर्म्मकत्वम्पसंह्रियते, साध्यवैधर्म्ययुक्ते पुनरुदाहरणे व्यात्मादिद्रव्यमनुत्पत्ति क नित्य दृष्टं न च तथा शब्द इति अनुत्पत्तिधकत्वस्योपसंहारप्रतिषेधेनोत्पत्तिधकत्वमुपसंप्रियते
तदिदमुपसंहार तमुदाहरणद्वैताद्भवति उपसंयतेऽनेनेति चोपसंहारो वेदितव्य इति । द्विविधस्य पुनर्हेतो द्विविधस्य चोदाहरणस्योपसंहारते च समानम् ॥
हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् ॥ ३८ ॥
सम्यक्ते वैधयक्ति वा यथोदाहरणमुपसंहियते तस्मादुत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः शब्दः इति निगमनम् निगम्यन्तेऽनेनेनि प्रतिज्ञा हैतूदाहरणोपनया एकत्रेति निगमनम् निगम्यन्ते समर्थ्यन्ते सम्बध्यन्त े, तत्व साधम्यक्ते तावद्ध तौ वाक्यमनित्यः शब्दः इति प्रतिज्ञा, उत्पत्तिधर्मकत्वादिति हेतुः । उत्पत्तिधर्मकं स्याल्यादिद्रव्यमनित्यमित्युदाहरणम्, तथावोत्पत्तिधर्मकः शब्द इत्युपनयः तस्मादुत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः शब्द इति निगमनम्, वैधम्यक्तेऽपि अनित्यः शब्द, उत्पत्तिधर्मकत्यात्, अनुत्यत्तिधर्मकमात्मादिद्रव्यं नित्यं दृटम्, न च तथाऽनुत्पत्तिधर्मकः शब्दः तस्मादुत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः शब्द इति, अवयवसमुदाये च वाक्ये सम्भय इतरेतराभिसम्बन्धात् प्रमाणान्यर्थं साधयन्तोति, सम्भवस्तावच्छ्रब्दविषया प्रतिज्ञा श्राप्तोपदेशस्य प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रतिसन्धानादन्यषेश्च स्वातन्त्र्यानुपपत्तेः अनुमाने हेतुः उदाहरणे संदृश्यप्रतिपत्तेः, तत्रोदाहरणं भाष्ये व्याख्यातम् प्रत्यक्षविषयमुदाहरणम् दृष्टेनादृष्टसिद्धेः । उपमानमुपनयः तथेत्युपसंहारात् न च तथेत्युपमानधर्मप्रतिषेधे विपरीतधर्मेापसंहारसिद्धेः सर्वेषामेकार्थप्रतिपत्तौ सामर्थ्य प्रदर्शनं निगमनमिति । इतरे - तराभिसम्बन्वेऽप्यसत्यां प्रतिज्ञायामनाश्रया हेत्वादयो न प्रवर्त्तेरन्, प्रति हेतौ कस्य साधनभावः प्रदर्श्यते उदाहरणे साध्ये च कस्योप
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१ अध्याये १ किम् ।
I
मंहारः स्यात् कस्य चा पदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनं स्यादिति, असत्युदाहरणे केन साधये वैधस्य वा साध्यसाधनमुपादीयेत कस्य वा साधर्म्यवशादुपसंहारः प्रवर्त्तेत, उपनयनञ्चान्तरेण साध्ये ऽनुपसंहृतः माधको धर्मे नार्थं साधयेत्, निगमनाभावे वानभिव्यक्तसम्बन्धानां प्रतिज्ञादीनामेकार्थेन प्रवर्त्तन' तथेति प्रतिपादनं कस्येति । यथावयवार्थः साध्यस्य धर्मस्य धर्मिणा सम्बन्धोपादानं प्रतिज्ञार्थः । उदाहरणेन समानस्य विपरीतस्य वा धर्मस्य साधकभाववचनं हेत्वर्थः, धर्मयोः साध्यसाधनभावप्रदर्शनमेकत्वोदाहरणार्थ: । साधनभूतस्य धर्मस्य साध्येन धमें सामानाधिकरण्योपपादनमुपनयार्थः । उदाहरणस्थयो- धर्मयोः साध्यसाधनभावोपपत्तौ साध्ये विपरीतप्रसङ्गप्रतिषेधार्थ निगमनम् । न चैतस्यां हेतुदाहरणपरिशुद्धी सत्यां साधये वैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जातिनिग्रहस्यानबहुत्वं प्रक्रमते, व्यव्यवस्थाप्य खल साध्यसा - धनभावमुदाहरणे जातिवादी प्रत्यवतिष्ठते व्यवस्थिते तु खलु धर्मयोः साध्यसाधनभावे दृष्टान्तस्य ग्टह्यमाणे साधनभूतस्य धर्मस्य हेतुत्वेनोपमानं न साधर्म्य मात्रस्य न वैधर्म्यमात्रस्य वेति । श्रत ऊर्द्ध ती लच्चणीय इति अथेदमुच्यते ॥
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२३
अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः ॥ ४० ॥
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विज्ञायमानतत्वेऽर्थे जिज्ञासा तावज्जायते जानीयेममर्थमिति, व्यथ जिज्ञासितस्य वस्तुनो व्याहतो धर्मेो विभागेन विमृशति किंखिदित्यमाहोखिनेत्यमिति विम्श्यमानयोर्धर्मयोरेकं कारणोपपत्त्याऽतुजानाति सम्भवत्यस्मिन् कारणं प्रमाणं हेतुरिति, कारणोपपत्त्या स्यादेवमेतन्नेतरदिति तत्त्र निदर्शनम् योऽयं ज्ञाता ज्ञातव्यमर्थं जानीते तञ्च भोजानीयेति जिज्ञासा, स किमुत्पत्ति में कोऽनुत्पत्तिधर्मक इति विमर्शः, विस्तृश्यमानेऽविज्ञाततत्त्वेऽर्थे यस्य धर्मस्याभ्यनुज्ञाकारणमुपपद्यते तमनुजानाति यद्ययमनुत्पत्तिधर्मकस्ततः स्वकृतस्य कर्मणः फल
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य
मनुभवति ज्ञाता, दुःखज प्रवृत्ति दोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरमुत्तरं पूर्वस्य पूर्वस्य कारणमुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवर्ग इति स्यातां संमारापवगैौ, उत्पत्तिधर्मके ज्ञातरि पुनर्न स्थाताम्, उत्पन्नः खलु ज्ञाता देहेन्द्रियबुद्धिवेदनाभिः सम्बध्यत इति नास्येदं स्वकृतस्य कर्मणः फलमुत्पन्नश्च भूत्वा न भवतीति तस्याविद्यमानस्य निरुङ्घस्य वा खलतकर्मणः फलोपभोगो नास्ति, तदेवमेकस्यानेकशरीरयोगः शरीरादिवियोगचात्यन्तं न स्यादिति । यत्र कारणमनुपपद्यमानं पश्यति तत्रानुजानाति, सोऽयमेवं लक्षण ऊहस्तर्क इत्युच्यते । कथं पुनरयं तत्त्वज्ञानार्था न तत्वज्ञानमेवेति नव- धारणात् अनुजानात्ययमेकतरं धर्मं कारणोपपत्त्या न त्यवधारयति न व्यवस्यति न निश्चिनोति एवमेवेदमिति । कथं तत्व - ज्ञानार्थ इति, तत्त्वज्ञान विषयाभ्यनुज्ञालक्षणानुग्रहोङ्गावितात् प्रसन्नादनन्तरप्रमाणसामर्थ्यात् तत्त्वज्ञानमुत्पद्यत इत्येव तत्त्वज्ञानार्थ इति । मोऽयं तर्कः प्रमाणानि प्रतिसन्दधानः प्रमाणाभ्यनुज्ञानात् प्रमाणस हितो वादे उपदिष्ट इत्यविज्ञाततत्त्व मनुजानातीति यथा सोऽर्थेा भवति तस्य यथाभावस्तत्व न विपर्य्ययो याथातथ्यम् । एतमिव तर्क विषये |
२४
.
विम्टश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय: ॥ ४१ ॥
स्थापना साधनं, प्रतिषेध उपालम्भः, तौ साधनोपालम्भी पक्षप्रतिपञ्चाश्रयव्यतिषक्तावनुवश्वेन प्रवर्त्तमानौ पञ्चप्रतिपच्चावित्य ुच्येते, तयो - रन्यतरस्य नित्तिरेकनरस्यावस्थानम् श्रवश्यम्भावि, यस्यावस्थानं तस्याव - धारणं निर्णयः । नेदं पञ्चप्रतिपच्चाभ्यामर्थावधारणं सम्भवतीति एको हि प्रतिज्ञातमर्थं हेतुतः स्थापयति प्रतिषि चोहरतीति द्वितीयस्य द्वितीयेन स्थापना हेतुः प्रतिषिध्यते तस्यैव प्रतिषेध हेतुवोडियते सनिवर्त्तते तस्य निवृत्तौ योऽवतिष्ठते तेनार्थावधारणं निर्णय इति उभाभ्यामेवार्थावधारणमित्याह, क्या युक्त्या एकस्य सम्भवो द्वितीयस्यासम्भवः antaraौ विमर्श सह निवत्तयतः, उभयसम्भवे उभयासम्भवे
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२५
१ अध्याये २ किम् ।
स्वनिवृत्ते विमर्श इति । विश्येति विमर्श कृत्वा, सोऽयं विमर्शः पच्चप्रतिपञ्चाभावद्योत्यं म्यायं प्रवर्त्तयतोत्बुपादीयत इति एतच्च विरुद्धयोरेकध मिस्ययोर्बोद्धव्यं यत्र तु धर्मसामान्यगतौ विरुद्ध धर्मों हेतुतः सम्भ वतः तत्र च तुतोऽर्थस्य तत्त्वाभावोपपत्तेः, यथा क्रियावद्द्रव्यमिति लचणवचने यस्य द्रव्यस्य क्रियायोगो हेतुतः सम्भवति तत् क्रियावत् यस्य न सम्भवति तद क्रियमिति, एकधर्मिस्थयोच विरुद्धयोरयुगपद्भाविनो का विकल्पः यथा तदेव द्रव्यं क्रियायुक्त क्रियावत् अनुपनपरतक्रियं पुनरक्रियमिति । न चायं निर्णये नियमो विम्टश्यैव पश्चप्रतिपचाभ्यामर्थावधारणं निर्णय इति किन्त्विन्द्रियार्थसन्निकर्षेत्पन्नप्रत्यसे ऽर्थावधारणं निर्णय इतिपरीक्षाविषये तु विमृश्य पच्चप्रतिपच्चाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः शास्त्र बादे च विमर्श वर्जम् ॥
इति वायायनी न्यायभाष्ये प्रथमाध्यायख प्रथममाह्निकम् ।
·
तिस्रः कथा भवम्ति वादो जल्पो वितण्डा चेति तासाम् । प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ: सिद्दान्ताविरुद्ध : पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः ॥४२॥
एकाधिकरणस्यौ विरुद्धौ धम्मा पचप्रतिपच्चौ प्रत्यनीकभावादस्त्यात्मा नाख्यात्मेति, नानाधिकरणौ विरुद्धो न पञ्चप्रतिपच्चौ यथा नित्य खात्मा अनित्या बुद्धिरिति परियहोऽभ्युपगमव्यवस्था, सोऽयं पञ्चप्रतिपक्षपरिग्रहो बादः तस्य विशेषयं प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः प्रमाणैस्तर्केण च साधनमुपालम्भवामि क्रियत इति, साधनं स्थापना, उपालम्भः प्रति
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२६
न्यायदर्शनवाल्यायनभाष्ये
घेधः, तौ साधनोपालम्भौ उभयोरपि पक्षयोर्व्यतिषकावनुबद्धौ च यात्रदेको निवृत्त एकतरो व्यवस्थित इति निवृत्तयोपालम्भो व्यवस्थितस्य साधनमिति जल्प नियहस्थानविनियोगत्वादेतत्प्रतिषेधः, प्रतिषेधे कस्यचिदभ्यनुज्ञानार्थ सिद्धान्ताविरुद्ध इति वचनम्, सिद्धान्तमभ्युपेत्य तविरोधी विरुड्व इति हेत्वाभासस्य निग्रहस्थानस्याभ्यनुज्ञावादे पञ्चावयवोपपन्न इति, हीनमन्यतमेनाम्यवयवेन न्यूनम् हेतृदाहरणाधिकमधिकमिति चैतयोरभ्यनुज्ञानार्थमिति अवयवेषु प्रमाणतर्कान्न वे पृथक् प्रमाणतर्कग्रहणं साधनोपालम्भव्यतिषङ्गज्ञापनार्थम् । अन्यथोभावधि पचौ स्थापना हेतुना प्रवृत्तौ बाद इति स्यात् । अन्तरेणाप्यवयवसम्बन्धम् प्रमाणान्य यं साधयन्तीति दृष्टम् तेनापि कल्पेन साधनोपालम्भौ वादे भवत इति ज्ञापयति । छलजातिनिग्रस्थानसाधनोपालम्भो जल्य इति वचना. . विनिग्रहो जल्प इति मा विज्ञायि। छल जातिनियहस्थानसाधनोपालम्भ एक जल्पः प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भो वाद एवेति मा विज्ञायीत्येवमर्थ पृथक प्रमाणतर्कग्रहणमिति ।
यथोक्नोपन्नग्छ लजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः ॥४३॥
यथोक्तोपपन्न इति प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्नाविरुद्धः पञ्चावयवोषपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भ इति । छलजातिनिग्रहस्थानः साधनमुपालम्भासिन् क्रियत इति । एवंविशेषणो जल्पः न खल वै छलजातिनिग्रहस्थानैः साधनं कस्यचिदर्थस्य समावति प्रतिषेधार्थं चैषां सामान्यलक्षणे च श्रूयते वचनविधातो
विवल्योपपत्त्या छलमिति साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः । विप्रतिपत्तिर तिपत्तिश्च निग्रहस्थानमिति। विशेषलक्षणेष्वपि यथाखमिति न चैतद्विजानीयात् प्रतिषेधार्थ तथैवार्थ साधयन्नीति। छलजातिनिग्रहस्थानोपालम्भ इत्येवमध्य च्यमाने विज्ञायत एतदिति । प्रमाणैः साधनोपालम्मयोश्छलजातीनामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात् न तु वतन्त्राणां
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१ अध्याये २ आह्निकम् ।
सोधनभावः । यत् तत्प्रमाणैरर्थस्य साधनं तत्र छलजातिनिग्रहस्थानानामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात्, तानि हि प्रयुज्यमानानि परपचविघातेन स्वपक्षं रचयन्ति । तथा चोक्तम् । “तत्वाध्यवसायसंरक्षणायें जल्पवितण्ड े वोजप्ररोहरक्षणार्थं कण्टकशाखावरणवदिति" । यश्चासौ प्रमाणैः प्रतिपञ्चस्योपालम्भस्तस्य चेतानि प्रयुज्यमानानि प्रतिषेधविषातामहकारीणि भवन्ति तदेवमङ्गीभूतानां कलादीनामुपादानम् जल्प े न स्वतन्त्राणां साधनभावः । उपालम्भ तु खातन्त्र्यमप्यस्तीति ।
स प्रतिपक्षस्थापना होनो वितण्डा ॥ ४४ ॥
स जल्पवितण्डा भवति, किं विशेषण: प्रतिपक्षस्थापनया हीनः, यौ तौ समानाधिकरणो विरुद्धौ धर्मैा पञ्चप्रतिपचावित्युक्तौ त्योरेकतर वै तण्डिको न स्थापयतीति परपक्षप्रतिषेधेनैव प्रवर्तत इति स्तु त स प्रतिपक्षहीनो वितण्डा यह खलु तत्परप्रतिवेधलक्षणं वाक्यं स वैतण्डिकस्य पक्षः न त्वसौ साध्यं कचिदर्थं प्रतिज्ञाय स्थापयतीति तस्माद्यथान्यास मेवास्त्विति हेतुलक्षणाभावाद हेतवो हेतु सामान्या तुवदाभासमाना स्त इमे ॥
सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातौत
काला हेत्वाभासाः ॥ ४५ ॥
तेषाम् ॥
अनैकान्तिकः सव्यभिचारः ॥ ४६ ॥
२५
व्यभिचार एकत्राव्यवस्था सह व्यभिचारेण वर्तत इति सव्यभिचारः, निदर्शनम् नित्यः शब्दोऽस्त्वात् स्वर्थवान् कुम्भोऽनित्यो दृष्टा न च तथा स्पर्शत्रान् शब्दस्तस्मादस्पर्शत्वान्नित्यः शब्द इति दृष्टान्ते स्पर्शत्वमनित्यत्वं च धर्मेौ न साध्यसाधनभूतौ दृश्येते स्पर्शवांश्चः खुर्नित्यश्चेति । ब्रा मादौ च दृष्टान्ते उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुरिति । अन्स
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न्यायदानवात्स्यायनभाष्ये
त्यादिति हेतनित्यत्वं व्यभिचरति असी बुद्धिरनित्या चेति, एवं हिविधेऽपि दृष्टान्ने व्यभिचारात् साध्यसाधनभावो नास्तीति लक्षणाभावाद हेतु रिति । नित्यत्वमप्ये कोऽन्तः । अनित्यत्वमप्येकोऽन्नः, एकस्मिबन्ने विद्यत इति ऐकान्तिकः । विपर्य यादकान्तिक: उभयान्नव्याकत्वादिति ॥ सिद्धान्तमभ्युपेत्य तहिरोधी विरुद्धः ॥४७॥
तं विरुणडीति तहि रोधी अभ्यु पेतं सिद्धान्त व्याइन्नोति यथा मोऽयं विकारो व्यक्तरपति नित्यत्वप्रतिषेधादपेतोऽप्यस्ति विनाशतिषेधात् न नित्या विकार उपपद्यते इत्येव हे तुळकरपे तोऽपि विकारोऽस्त त्यनेन खसिद्धान्तेन विरुध्यते । कथम् व्यक्तिरात्मलाभः अपायः प्रच्युतिः यद्यात्मलाभात् प्रच्युतो विकारोऽस्ति नित्यत्वप्रतिषेधे नोपपद्यते यद्य करपेतस्यापि विकारस्यास्तित्वं तत् खलु नित्यत्वमिति । नित्यत्वप्रतिबेधा नाम विकारस्थात्मलाभाताच्युते रुपपत्तिः। यदात्मलाभात्प्रच्यवते तदनित्यं दृष्टं यद. स्त न तदात्मलाभात् प्रच्यवते । अस्तित्वं चात्मलामात् प्रच्य तिरिति विरुडातौ न सह सम्भवत इति सोऽयं हेतर्यत्मिवान्नमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्तीति ।
यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः॥४८॥
विमर्शाधिष्ठानो पक्षप्रतिपक्षावनसितो प्रकरणम् तस्य चिन्ना विमत्प्रिति प्राङिनर्णयाद्यत् समीक्षणं सा जिज्ञासा यत्कता स निर्णयाधं प्रयुक्त उभयपक्षस म्यात् प्रकरणमनतिवर्तमानः प्रकरणसमो निर्णयाय न प्रकल्पते प्रज्ञापनं तु अनित्यःशब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुपलममाननित्यधर्म कमनित्यं दृष्टं स्थाल्यादि, यत्र समानो धर्मः संशयकारखं हेतुत्वेनोपादीयते स संशयसमः सव्य भिचार एव । या तु विमर्शस विशेषापेक्षिता उभयपचविशेषानुपलधि च सा प्रकरणं प्रवर्तयति, *
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१ अध्याये २ अह्निकम् ।
२८
थम् । विपर्यये हि प्रकरण निवृत्तेः यदि नित्यधर्मशब्दे ग्टह्यते न स्यातप्रकरणम् यदि वा अनित्य धी ग्रोत एवमपि निवर्तत प्रकरणम् सोऽयं हे तुरुभौ पक्षौ प्रवर्त्त यन्नन्यतरस्य निर्णयाय न प्रकल्पते ॥
साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः ॥४६॥
द्रव्यं छायेति माध्यम्, गतिमत्वादिति हेतः साध्ये नाविशिष्टः साधनीयत्वात्माध्यसमः, अयमप्यसिदत्वात् साध्यवत्प्रज्ञापयितव्यः, साय तारदेतत् किं पुरुषवश्छायापि गच्छति बाहोखिदावरकद्रव्ये संसर्पति श्रावरणमन्नानाद सनिधिसन्तानोऽयं तेजसो ग्टह्यत इति सर्पता खत द्रव्ये ण ज्ञानद्योयस्तेजोभाग आब्रियते तस्य तस्यासबिधिरेवावच्छिानो ग्टहत इति । आवरणन्त प्राप्तिप्रतिषेध : ॥
कालात्ययापदिष्टः कालातीतः ॥ ५० ॥
कालात्ययेन युक्तो यसार्थ स्पेक देशदिश्यमानस्य स कालात्ययापदिष्टः कालातीत इलाच्यते । निदर्शनम् । मित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् रूपवत् प्रागईश व्यक्तेरवस्थितं रूपं प्रदीपघटसंयोगेन व्य ज्यते तथा च शब्दोऽयवस्थितो भैरोदण्ड संयोगेन व्य ज्यते दारुप र शुसंयोगेन वा तस्मात् संयोग व्यङ्ग्य त्वानित्यःशब्द इत्ययम हे तुः कालात्ययापदेशात् व्यञ्जकस्य संयोगस्य कालं न व्यङ्गयस्य रूपस्य व्यक्तिरत्ये ति सति प्रदीपघटसंयोने रूपस्य ग्रहणं भवति न निवृत्ते संयोगे रूपं ग्टह्यते, निवृत्त दारु परशुसंयोगे दूरस्थेन शब्दः श्रूयते । विभागकाले सेयं शब्दव्यक्तिः संयोगकालमोतीति न संयोगनिर्मिता भवति । कस्मात्कारणाभावाडि का भाव इति । एवमुदाहरणसाधर्म्यसाभावादसाधनमयं हेतु त्वाभास इति । अवयवविपासवचनं न सूत्रार्थः, कमात्, “यस्य येनार्थसम्बन्धो दूरस्थस्थापि तस्य सः । अर्थ तो हसमर्थानामानन्तर्यमकारणम्” इत्येतह दनाद्विपर्यासनोको हेतुरुदाहरणमाधात् तथा वैधात्माधनं हेतुलक्षणं न नहाति । अजह दलक्षणं न हेत्वाभासो भवतीति अवयवविपर्य:
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न्यायदर्शनवात्य यनभाष्ये सवचनमप्राप्त कालमिति निग्रह स्थानमुक्त तदेवेदं पुन रुचात इति अतस्तन्न सूतार्थः । अथ छलम् ॥
वचनविधातोऽथ विकल्पोपपत्ता छलम् ॥५१॥ ___ न सामान्य लक्षणे छलं शक्यमुदाहर्त्तम् विभ.गे लूदाहरणानि । विभागश्च ।।
तत् त्रिविधं वाक्छलं सामान्य च्छ लमुपचारछलञ्चति ॥ ५२॥ तेषाम् ॥
अविशेषाभिहितऽर्थे वक्त रभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् ॥ ५३॥
नवकम्बलोऽयं माणवक इति प्रयोगः । अत्र नवः कम्बलोऽस्थति वनुरभिप्रायः | विय हे तु विशेषो न समामे, तवायं छलवादी वकरभिप्रायादविवचितमन्यमर्थ नव कम्बला अखेति तावदभिहितं भवतेति कल्प यति कल्पयित्वा चासम्म वेन प्रतिषेधति एकोऽस्य कम्बलः कुतो नव कम्बला इनि । तदिदं सामान्यशब्दे वाचि छलं वाक् छल मिति । अस्य प्रत्यवस्थानम् सामान्य शब्दस्या ने कार्थत्वेऽन्यतराभिधान कल्पनायां विशेषवचनम् । नवकम्बल इत्यनेकार्थ स्याभिधानं नव: कम्बलऽस्य नवकम्बला अस्येति । एतस्मिन् प्रय के ये यं कल्पना नव कम्बला अस्येत्ये नद्भवताभिहितं तच्च न सम्मवतीति । एत त्यामन्यतराभिधान कल्पनायां विशेषो वक्तव्यः। यस्मा विशेषोऽर्थविशेषेषु विज्ञायते । अयमर्थे । ऽ नेनाभिहित इति, स च विशेषो नास्ति तस्मान्निध्याभियोगमात्रमेतदिति | प्रसिद्दश्च लोके शब्दार्थ सम्बन्धोऽभिधानाभिधेयनियमनियोगः । अस्याभिधानस्यायमर्थे ।ऽभिधेय इति समान: सामान्यशब्दस्य विशेषो विशिष्ट शब्दस्य प्रयत. पृ बीचे मे शब्दा अर्थे प्रयज्य न्ले नाप्रयुकपूर्वाः, प्रयोगश्चार्थ सम्प्रत्ययार्थः, अर्थ प्रत्ययाच व्यवहार इति । तत्रैवमर्थ गत्यर्थे शब्दप्रयोगे सामर्थ्यात् .
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१ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
सामान्यशब्द त्य प्रयोगनियमः । अजां ग्रामं नय सर्पिराहर बझगणं भोज येति सामान्यशब्दाः सन्तोऽर्थावयवेषु प्रयुज्य न्ने सामर्थ्याद्यनार्थ क्रिया. देशना सम्म वति तत्र प्रवर्त्तन्ने नार्थसामान्ये क्रियादेशनाऽसम्भवात । एव. मयं मामा न्यशब्दो नवकम्बल इति योऽर्थः मम्मवति नव कम्बलोऽस्थति तत्र प्रवर्तते यस्तु न सम्मति नव कद ला अस्येति तत्र न प्रवर्तते सोऽय - मनुपपद्यमानार्थ कल्पनया परवाक्योपालम्मस्तेन व त्यात इति ।
सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसम्भूतार्थकल्पना सामान्यच्छलम् ॥ ५४॥
अहो खत्व सौ ब्राह्मणो विद्याचरणसम्पन्न इत्य त कश्चिदाइ सम्म वति हि न ह्मणे विद्या चरणसम्पत् इत्यस्य वचनस्य विधातोऽर्थ बिकल्पोपपत्त्याऽमम्भूतार्थ कल्प नया क्रियते यदि ब्राह्मण विद्याचरणसम्पत् सम्मवति व्रात्येऽपि सम्म वेत, वात्येऽपि ब्राह्मण : सोऽप्यस्तु विद्याचरणसम्पन इति । यविवक्षितमर्थ माग्नोति चात्ये ति च तदतिसामान्य म्। यथा बाङ्गणत्वं विद्याचरणसम्पदं कचिदानोति क्वचिदत्येति सामान्यलक्षणं छलं मामान्य च्छल भिति | अम्य च प्रत्यवस्थानमविवक्षिततकस्य विषया नुवादः प्रशंसार्थ त्वात् वाक्यस्य, तदबासम्भूतार्थकल्प नानु पपत्तिः । यथा सम्मवन्य म्मिन् क्षेले शालय इति | अनिराकृतमविवक्षितच वीज जन्न, प्रवृत्तिविषयस्तु क्षेत्र प्रशस्यते सोऽयं क्षेत्रानुवादो नास्मिन् शालयो विधीयन्त इति । वीजात शालिनिईत्तिः सती न विवक्षता एवं समवति ब्राह्मणे विद्याचरणसम्मदिति सम्पविषयो ब्राह्मणत्व न सम्पबेतुः । न चात्र हेर्विवक्षित: | विषयानुवादस्वयं प्रशंसार्थ त्वादाक्य स्थ, सति ब्राह्मण त्वे सम्पछेतुः समर्थ ति विषयञ्च प्रशंसता वाक्येन यथा हेतुत: फलनित्ति न प्रत्याख्यायते तदेवं सति वचनविघातोऽसम्भूतार्थकल्पनया नोपपद्यत इति ॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
धर्म विकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचारच्छलम् ॥ ५५॥
अभिधानस्य धमी यथार्थ प्रयोगः । धर्मविकल्पोऽन्यत्र दृष्टस्यान्यन प्र. योगः । तस्य निर्देशे धर्मविकल्प निर्देशे। यथा मच्चाः क्रोशन्तीति अर्थसद्भावेन प्रतिषेधः: मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति न तु मञ्चाः क्रोशनि, का पुनरबार्थविकलोप पतिः अन्यथा प्रयुक्तस्यान्यथार्थ कल्पनम् भत्या प्रयोगे प्राधान्ये न कल्प नम्, उपचारविषयं छलमपचारछलमुपचारो नीतार्थः सहचरणादिनिमित्तेनाऽतगावे तहदभिधानमुपचार इति । अन्य समाधिः प्रसिद्धाप्रसिद्दे प्रयोगे वक्त ये था भिप्रायं शब्दार्थ योरनुज्ञा प्रतिषेधो वा न छन्दतः प्रधानभूतस्य शब्दस्य भातस्य च गुण भतस्य प्रयोग उभयोलेाकसिदः । सिधे प्रयोगे यथा वारभिन यस्तथा शब्दार्यावनुज्ञेयौ प्रतिघे यौ वा न छन्दतः । यदि वक्ता प्रधानशब्दं प्रयुत यथा भूतस्याभ्यनुज्ञा प्रति
धेो वा न छन्दतः । अथ गुणभूतं तदा गुणभूतस्य, यत्र तु वक्ता गुणभुतं शब्द प्रयुत प्रधानभूतमभिप्रेत्य परः प्रतिषेधति स्व मनीषया प्रतिषेधेोऽसौ भवति न परोपालम्भ इति ॥
वाक्छलमेवोपचारच्छलं तदविशेषात् ॥ ५६
न वाक्छलादु पचारच्छलं भिद्यते तस्याप्यर्थान्तर कल्पनाया अविशेपात्, इहापि स्थान्यों गुणशब्दः, प्रधानशब्दः स्थानार्थ इति कल्पयित्वा प्रतिषिध्यत इति ॥
न तदर्थान्तरभावात् ॥ ५७॥
न वाककलमेवोपचारच्छलं तस्यार्थसद्भाव प्रतिषेधवार्थान्तरभावात् । कुतः अर्थान्तरकल्पनातोऽन्यार्थान्तरसद्भावकल्पना अन्याय सद्भावप्रतिषेध इति॥
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१ अध्याये २ आह्निकम् ।
विशेषे वा किञ्चित्साधर्म्यादेकच्छलप्रसङ्गः॥५८॥
छन्मस्य द्वित्वमभ्यनुज्ञाय वित्वं प्रतिषिध्यते किञ्चित्साधर्म्यात् यथा चायं हेतुस्त्रित्वं प्रतिषेधति तथा द्वित्वमभ्यनुज्ञातं प्रतिषेधनि, विद्यते हि योरपीति, अथ द्वित्वं किञ्चित्साधर्म्यान निवर्त्तते नित्य
मपि न निवर्त्यतीति । श्रत ऊर्द्धम् ॥ साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः ॥ ५८ ॥
प्रयुक्त हि हेतौ यः प्रसङ्गो जायते सा जातिः स च प्रसृङ्गः साधयं वैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानम्ठपालम्भः प्रतिषेध इति उदाहरणसाधर्म्यात् • साध्यसाधन हेतुरित्यस्योदाहरणसाधम्र्मेण प्रत्यवस्थानम् । उदाहर णवैधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुरित्यस्योदाहरण वेधस्यैण प्रत्यवस्थानम् । प्रत्यनीकभाव कायमान े ऽर्यो जातिरिति ॥
विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिञ्च निग्रहस्थानम् ॥६॥
३३
विपरीता वा कुत्सिता वा प्रतिपत्तिर्विप्रतिपत्तिः । विप्रतिपद्यमानः पराजयं प्राप्नोति, निग्रहस्थानं खलु पराजयप्राप्तिः । प्रतिपत्तिस्त्वा - रम्भविषये न प्रारम्भः । परेण स्थापितं वा न प्रतिषेधति प्रतिषेधं वा नोद्धरति, समासाञ्च नेत एव निग्रहस्थाने इति । किं पुनर्दान्तवज्जातिनिग्रहस्यानयोरभेदोऽथ सिद्धान्तवद्वेद इत्यत श्राह ॥
तद्विकल्पाज्जातिनिग्रहस्थानबहुत्वम् ॥ ६१ ॥
तस्य साधर्म्यवैधर्म्याभ्याम् प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जातिबण्डत्वम् । तयोश्च विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्त्योर्विकल्पानिय हस्यानवत्वम्, नाना कल्पो विल्प', विविधो वा कल्पो विकल्पः । तत्राननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विच्चेपोमतानुज्ञा पर्य्यनुयोज्यो मे वयमित्यप्रतिपत्तिर्निग्रहस्थानम् शेषस्तु विप्रतिपत्तिरिति । इमे प्रमाणादयः पदार्था उद्दिष्टा यथोद्देश सचिता यथालक्षणं परीक्षिष्यन्त इति विविधस्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिर्वेदितव्येति ॥ ० ॥ इति वात्स्यायनीये न्यायभाष्ये प्रथमाध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् |
समाप्तश्चायं प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
___ अत अर्द्ध प्रमाणादिपरीक्षा सा च विमृश्य पक्ष प्रतिपक्षाभ्योमर्थावधारणं निर्णय इत्यये विमर्श एव परीच्यते ॥
समानानेकधर्माध्यवसायादन्यतरधर्माध्यवसायादा न संशयः ॥१॥
समानस्य धर्मस्याध्यवसायात् संशयो न धर्ममावात् । अथवा समानमनयोर्यवर्ममुपलभत इति धर्मधर्मिग्रहणे संशयाभाव इति । अथवा समानधर्माध्यवसायादर्थान्तरभते धर्मिणि संशयोऽनुपपन्न इति न जात रूपस्वार्थान्तरभूतस्याध्यवसायादर्थान्तरभूते स्पर्श संशय इति । अथवा नाध्यवसायादविधारणादनवधारणज्ञानं संशय उपपद्यते कार्यकारण योः सारूयाभावादिति । एतेनाने कधर्माध्यवसायादिति व्याख्यातम् | अन्यतरधर्माध्यवसायाच्च संशयो न भवति । ततो ह्यन्यतरावधारण मेवेति ।
विप्रतिपत्त्यव्यवस्थाध्यवसायाच्च ॥२॥
न विप्रतिपत्तिमात्राद व्यवस्थामावाहा संशयः । किं तहिं विप्रतिपत्तिमुपलभमानस्य संशयः । एवमव्यवस्थायामपीति । अथवास्यात्मे - त्येके, नास्त्यात्मेत्य परे मन्यन्त इत्युपलब्धेः कथं संशयः स्यादिति । अथोपलब्धिर व्यवस्थिता अनुपलब्धिश्चाव्यवस्थितेति विभागो नाध्यवसिते संशयो नोपपद्यत इति ॥ विप्रतिपत्तौ च सम्प्रतिपत्तेः॥३॥
याञ्च विप्रतिपत्तिं भवान् संशय हेतु मन्यते सा सम्प्रतिपत्तिः । सा हि हयोः प्रत्यनीकधर्मविषया तत्त्र यदि विप्रतिप्रत्तेः संशयः सम्पतिपत्ते रेव संशय इति ॥
अव्यवस्थात्मनि व्यवस्थितत्वाचाव्यवस्थायाः॥४॥ न संशयः । यदि तावदियमव्यवस्था प्रात्मन्ये व व्यवस्थिता व्यवस्था
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२ अध्याये २ अानिकम् ।
नादव्यबस्था न भवतीत्यनुपपन्नः संशयः, अथाव्यवस्थात्मनि न व्यवस्थिता, एवमतादात्म्याद व्यवस्था न भवतीति सशयाभाव इति ॥ तथाऽत्यन्तसंशयस्तधर्मसातत्योपपत्तः॥५॥
येन कल्पेन भवान् समानधर्मोपपत्तेः संशय इति मन्यते तेन खल्वत्यन्तसंशयः प्रसज्यते समानधर्मोपपत्तेरनुच्छेदात् संशयानुच्छ दः नायमतधर्मा धौ विमृश्यमाणे ग्टह्यते सततन्तु तसर्मा भवतीति अस्य प्रतिषेधप्रपञ्चस्य संक्षेपेणोद्धारः॥
यथोक्ताध्यवसायादेव तविशेषापेक्षात् संशये नासंशयो नात्यन्तसंशयो वा ॥६॥
संशयानुपपत्तिः संशयानुच्छ दश्च न प्रसज्यते, कथम्, यत्तावहमानधर्माध्यवसायः संशयहेतुर्न समानधर्ममात्रमिति । एवमेतत्, कस्मादेवं नोच्यत इति विशेषापेक्ष इति वचनात् सिद्धेः । विशेषस्यापेक्षाकाङ्क्षा, मा चानुपलभ्यमाने विशेषे समर्था न चोक समानधर्मापेक्ष इति समाने च धर्मे कथमाकाङ्क्षा न भवेत् यद्ययं प्रत्यक्षः स्यात् । एतेन सामर्थेन विज्ञायते समानधर्माध्यवसायादिति उपपत्तिवचनाहा समानधर्मोपपत्ते रित्यु. च्यते न चान्यासद्भावसंवेदनाहते समानधोपपत्तिरस्ति । अनुपलभ्यमानमगावो हि समानो धर्मो विद्यमानवद्भवतीति | विषयशब्देन वा विषयिणः प्रत्ययस्याभिधानम् । यथा लोके धूमेनाग्निरनुमीयते इत्युक्त धूमदर्शनेनाग्निरनुमोयत इति ज्ञायते कथं दृष्ट्वा हि धूममग्निमनुमिनोति नादृष्ट्वा, न च वाक्ये दर्शनशब्दः श्रूयते अनुजानाति च वाक्यस्थार्थ प्रत्यायकत्वम्, तेन मन्यामहे विषयशब्देन विषयिणः प्रत्ययस्याभिधानम् बोद्धाऽनुजानाति एवमिहापि समानधर्मशब्द न समानधर्माध्यवसायमाहेति । यथोहित्वा समानमनयोधर्ममुपलभत इति । धर्मधर्मिग्रहणे संशयाभाव इति । पूर्वदृष्टविषयमेतत् | यावहमों पूर्वमद्राक्षन्नयोः समानं धर्मभु . पलभे विशेषं नोपलभ इति । कथन्त विशेषं पश्येयं येनान्यतरमबधारयेय
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३६
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न्याय दर्शनवात्स्यायन भाष्ये
मिति, न चैतत्समानधर्मोपलब्धौ धर्मधर्मियहणमात्रेण निवर्त्तत इति यञ्चोक्तम् नार्थान्तराध्यवसायादन्यत्र संशय इति यो हार्थान्तराध्यवसायभात्वं संशयहेतुमुपाददीत स एवं वाच्य इति । यत्पुनरेतत्कार्य्यकारणयोः सारूप्याभावादिति कारणस्य भावाभावयोः कार्य्यस्य भावाभावी कार्य्यकारणयोः सारूप्यम् यस्योत्पादाद्यदुत्पद्यते यस्य चानुत्पादाद्यन्नोत्पद्यते तत्कारणं कार्य मितर दित्येतत्सारूप्यम्, व्यस्ति च संशयकारणे संशये वैतदिति, एतेनानेकधम्र्माध्यवसायादिति मतिषेधः परिहृत इति यत्पुभरेतदुक्त विप्रतिपत्त्य व्यवस्थाध्यवसायाञ्च न संशय इति । पृथक् प्रवादयोर्व्याहतमर्थमुपलभे विशेषञ्च न जानामि नोपलभे येनान्यतरमवधारयेयम् । तत् कोऽत्र विशेषः स्यादुद्येनैकतरमवधारयेयमिति । संशयो विप्रतिपत्तिजनितोऽयं न शक्यो विप्रतिपत्तिसम्प्रतिपत्तिमात्रेण निवर्त्तयितुमिति । एवमुपलब्धानुपलब्धावस्थाकृते संशये वेदितव्यमिति । यत् पुनरेतत् विप्रतिपत्तौ च सम्प्रतिपत्तेरिति विप्रतिपत्तिशब्दस्य योऽर्थः तदध्यवसायो विशेषापेचः संशयहेतुस्तस्य च समाख्यान्तरेण न निवृत्तिः मसानेऽधिकरणे व्याहतार्थी प्रवादौ विप्रतिपत्तिशब्दस्यार्थः तदध्यवसा यश्च विशेषापेचः संशयहेतुः न चास्य सम्प्रतिपत्तिशब्दे समाख्यान्तरे योक्यमाने संशयहेतुत्वं निवर्त्तते । तदिदमकृतबुद्धिसम्मोहनमिति । यत्पुनरव्यवस्थात्मनि व्यवस्थितत्वाञ्चाव्यवस्थाया इति संशयहेतोरर्थस्याप्रतिषेधादव्यवस्थाऽभ्यनुज्ञानाञ्च निमित्तान्तरेण शब्दान्तरकल्पना व्यथां शब्दान्तरकल्पना, अव्यवस्था खनु व्यवस्था न भवत्यव्यवस्थात्मनि व्यवस्थितत्वादिति नानयोरुपलब्धानुपलब्धत्रोः सदसद्विषयत्वं विशेषापेच्च संशयहेतुर्न भवतीति प्रतिषिध्यते यावता चाव्यवस्थात्मनि व्यवस्थिता न तावतात्मानं जहाति तावता ह्यनुज्ञाता भवत्यव्यवस्था । एवमियं क्रियमाणापि शब्दान्तरकल्पना नार्थान्तरं साधयतीति । यत्पुनरेतत्तथात्यन्तसंशयस्तद्धर्मातत्योपपत्तेरिति नायं समानधर्मादिभ्य एव संशयः किन्नर्हि तत्तद्दिषयाध्यवसायाद्विशेषस्मृतिसहितादित्यतो नात्यन्तसंशय इति व्यन्यतरधन्मध्यबसायाद्दा न संशय इति तत्र युक्तम् विशेषापेचो विमर्शः संशय इति -वचनात् विशेषश्चान्यतरधम्म न च तस्मिम्रध्यवसीयमाने विशेषापेक्षा सम्भवतीति ॥
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२ अध्याये २ आङ्गिकम्। यत्र संशयस्तत्रैवमुत्तरोत्तरप्रसङ्गः ॥७॥
यत्र यत्र संशयपूर्बिका परीक्षा शास्त्र कथायां वा तत्र तत्रैवं संशये परेण प्रतिषिट्वे समाधिर्वाच्य इति । अतः सर्वपरीक्षाव्यापित्वात्प्रथम संशयः परीक्षित इति अथ प्रमाण परीक्षा ॥
प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यं त्रैकाल्यासिद्धेः ॥८॥
प्रत्यक्षादीनां प्रमाणत्व नास्ति बैकाल्या सिद्धेः पूर्वापरसहभावानुपपत्ते रिति । अस्य सामान्यवचनस्यार्थविभागः ॥
पूर्व हि प्रमाणसिद्धौ नेन्द्रियार्थसन्निकर्षात्यत्यक्षोत्पत्तिः ॥१॥
गन्धादि विषयं ज्ञानं प्रत्यक्षं तद्यदि पूर्वम्, पश्चाहन्धादीनां सिद्धिः, नेदं गन्धादिसन्निकर्षानुत्पद्यत इति ॥ पश्चात् सिद्धौ न प्रमाणेभ्यः प्रमेयसिद्धिः ॥१०॥
असति प्रमाणे केन प्रमीयमाणोऽर्थः प्रमेयः स्यात् प्रमाणेन खल प्रमीयमाणोऽर्थः प्रमेयमित्येत त्मिध्यति ॥
युगपत्सिवौ प्रत्यर्थनियतत्वात् क्रमत्तित्वाभावो बुद्धौनाम् ॥ ११ ॥
यदि प्रमाणं प्रमेयञ्च युगपद्भवतः । एवमपि गन्धादिष्विन्द्रियार्थेषु ज्ञानानि प्रत्यर्थ नियतानि युगपत्यम्भवन्तीति ज्ञानानां प्रत्यर्थनियतत्त्वात् क्रमत्तित्वाभावः । या इमा बुद्धयः क्रमेणार्थेषु प्रवर्त्तन्ते तासां क्रमसित्वं न सम्भवतीति, व्याघात युगपज्ञानानुत्पत्तिर्मनसोलिङ्गमिति, एतावांच प्रमाणप्र मेययोः सद्भाव विषयः स चानुपपन्न इति तस्मात् प्रत्यक्षादीनां ममाणत्व' न सम्भवतीति, अस्य समाधिः उपलब्धिहेतोरुपलब्धिविषयस्य
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
३८
चार्थ पूर्वापर सहभावानियमाद्यथा दर्शनं विभागवचनम् कचिदुप लब्धिहेतुः पूर्व्वं पश्चादुपलब्धिविषयः । यथादित्यस्य प्रकाशः उत्पद्यमानानां कचित्पूर्वमुपलश्विविषयः पश्चादुपलब्धिहेतुः, ययावस्थितानां मदीपः कचिदुपलब्धिहेतुरुपलब्धिविषयश्च सह सम्भवतः, यथा धूमेनाग्नर्ग्रह - व्यमिति, उपलब्धिहेतुश्च प्रमाणम्, प्रमेयन्तुपलब्धिविषयः एवं प्रमाणप्रमेययोः पूर्वापर सहभावेऽनियते यथाऽर्थो दृश्यते तथा विभक्य व पनीय इति । तत्रैकान्तेन प्रतिषेधानुपपत्तिः सामान्येन खल विभज्य प्रतिषेध उक्त इति समाख्या हे तो कालयं गात् तथाभूता समाख्या, यत् पुनरिदं पश्चात् सिचे च प्रमाणेन प्रमीयमाणोऽर्थः प्रमेयमिति वि यत इति । प्रमाणमित्येतस्य : समाख्याया उपलब्धिहेतुत्वं निमित्त तस्य काल्द योगः, उपलब्धिमकार्षी टुपलब्धिं करोति उपलब्धिं करिष्यतीति समाख्या हे तोस्त्रं काल्य योगात् समाला तथाभूता, प्रमितोऽनेनार्थः प्रमीयते प्रमत्स्यते इति प्रमाणम्, प्रमितं प्रमीयते प्रमास्यत इति च प्रमेयम् । एवं सति भविष्यत्यखिन् हेतुत उपलब्धिः, प्रमास्यतेऽयमर्थः, प्रमेयमिदमित्येतत् सव्व भवतीति, बैकाल्यानभ्यनुज ने च व्यवहारानुपपत्तिः । यश्चैवं नाभ्यनुजानीयात् तस्य पाचकमानय पच्यति, लावकमानय लविष्यतीति व्यवहारो नोपपद्यत इति ॥ प्रत्यच्चः दोनामप्रामाण्यं त्रैकाल्यासिद्धेरित्येवमादिवाक्यम् प्रमाण प्रतिषेधः । तत्रायं प्रष्टव्यः । यथानेन प्रतिषेधेन भवता किं क्रियत इति, किं सम्भवो निवर्त्यते यथासम्भवो साम्यत इति, तद्यदि सम्भवो निवर्त्यते सवि सम्भवे प्रत्यचादीनां प्रतिषेधानुपपत्तिः व्यथासम्भवो ज्ञाप्यते प्रमाणलचणं प्राप्तस्तर्हि प्रतिषेधः प्रमाणासम्भवस्योपलब्धिहेतुत्वादिति । किञ्चातः ॥
T
त्रैकाल्यासिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः ॥ १२ ॥
व्यस्य तु विभागः पूर्वं हि प्रतिषेधसिङ्घावसति प्रतिषेध्ये किमनेन प्रतिषिध्यते, पश्चात् सिद्धौ प्रतिषेध्यासिद्धिः प्रतिषेधाभावादिति युगपसौ प्रतिषेधािभ्यनुज्ञानादनर्थकः प्रतिषेधः इति । प्रतिषेधलचये च बाकोsपपद्यमाने सिद्धं प्रत्यचादीनां प्रामाण्यमिति ॥
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२ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
सर्वप्रमाणप्रतिषेधाच्च प्रतिषेधानुपपत्तिः ॥ १३॥
कथम् नै काल्या सिद्धेरित्यस्य हे तोर्यादाहरणमुपादीयते हेत्वयं स्य साधकत्व दृष्टान्ते दर्शयितव्यमिति न च तर्हि प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यम् । अथ प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यमुपादीयमानमभ्युदाहरणं नाथू साधयिष्यतोति सोऽयं सर्व प्रमाणैाहतो हेतरहेतः । सिद्धान्तमभ्युपेत्य तदिरोधी विरुद्ध इति, वाक्यार्थो ह्यस्य सिद्धान्तः स च वाक्यार्थः प्रत्यक्षादीनि नाथं साधयन्तीति। इदचावयवानामुपादानमर्थस्य साधनायेति । अथ नोपादीयते अप्रदर्शित हेत्वर्थस्य हटान्तेन साधकत्वमिति निषेधो नोपपद्यते हेतुत्वासिजेरिति ॥
तत्यामाण्ये वा न सर्वप्रमाणविप्रतिषेधः ॥१४॥
प्रतिषेधलक्षणे स्ववाक्ये तेषामवयवाश्रितानां प्रत्यक्षादीनाममामाण्येऽस्य नुज्ञायमाने परवाक्येऽप्यवयवाश्रितानां प्रामाण्यं प्ररुज्यते अविशेपादिति । एवञ्च न सर्वाणि प्रमाणानि प्रतिषिध्यन्त इति । विप्रनषेध इति वीत्ययमुपसर्गः सम्प्रतिपत्त्यर्थे न व्याघातेऽर्थाभावादिति ॥
चैकाल्याप्रतिषेधश्च शब्दादातोद्यसिद्धिवत्तत् सिद्धेः ॥ १५ ॥
किमर्थं पुनरिदमुच्यते, पर्योक निबन्धनार्थं यत्तावत् पूर्वोकरुपलबिहेतोरुपलब्धिविषयस्य चार्थस्य पूर्वापरसहभावानियभाद्यथादर्शनं विभागवचन मिति । तदितः समुत्यानं यथा विज्ञायेत । अनियमदर्शी खवयमपिनियमेन प्रतिषेधं प्रत्याचष्टे, वैकाल्यस्य चायुक्तः प्रतिषेध इति । तत्रैकां विधामुदाहरति । शब्दादातोद्यसिद्भिवदिति यथा पश्चात् सिद्धेन शब्देन पूर्व सिद्धमातोद्यमनुमीयते साध्यञ्चातोद्यं साधनञ्च भन्दः । अनहिते ह्यातोद्ये खननुमानं भवतीति । वीणा वाद्यते वेणः पूर्यत इति खनविशेषेण बातोद्यविशेष प्रतिपद्यते । तथा पर्वसिद्धचपलब्धिहे
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४०
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
तुना प्रतिपद्यत इति । निदर्शनार्थ त्वाञ्चास्य शेषयोर्विधयोर्यथोकसदाहरणं वेदितव्यमिति। कस्मात् पुनरिह तन्त्रोच्यते पूर्वोक्तमुपपाद्यत इति सर्वथा तावदयमर्थः प्रकाशयितव्यः सह दूह वा प्रकाश्येत तत्र वा न कश्चिबिशेष इति यदा चोपलब्धिविषयः कस्यचिदुपलब्धिसाधनं भवति तदा प्रमाणे प्रमेयमिति चैकोऽर्थोऽभिधीयते । अस्थार्थस्थावद्योतनार्थमिद सुच्यते ॥
प्रमेयता च तुलाप्रामाण्यवत् ॥ १६ ॥
गुरुत्व परिमाणज्ञानसाधनं तुला प्रमाणं, ज्ञानविषयो गुरुद्रव्यं सुवर्णादि प्रमेयम् । यदा तु सुवर्णादिना तुलान्तरं व्यवस्थाप्यते तदा तुलान्तरप्रतिपत्तौ सवर्णादि प्रमाणम्, तुलान्तरं प्रमेयमिति एवमनवयवेन तन्वार्थ उद्दिष्टो वेदितव्यः । अात्मा तावदुपलश्चिविषयत्वात् प्रमेये परिपठितः । उपलब्धौ स्वातन्त्र्यात् प्रमाता | बुद्धिरुपलब्धिसाधनत्वात् प्रमाणम् उपलब्धिविषयत्वात्त प्रमेयम्, उभयाभावात्तु पमितिः । एवमर्थविशेषे समाख्या समावेशो योज्यः । तथा च कारकशब्दा निमित्तवश त् सम वेशेन वर्त्तन्त इति । वृक्ष स्तिछ तीति खस्थितौ स्वातन्ल्यात कती, वृक्षं पश्यतीति दर्शनानुमिथमाण तमत्वात् कर्म, वृक्षेण चन्द्रमसं ज्ञापयतीति ज्ञापकस्य साधकतमत्वात् करणम् । वायोद कमासिञ्चतीत्यासिच्यमानेनोदकेन वृक्षमभिप्रेतीति सम्प्रदानम्, वृक्षा मणम्पततोति भुवमपायेऽपादानमित्यपादानम् । वृच्छे वयांनि सन्तीत्याधारोऽधिकरणमित्यधिकरणम् । एवञ्च सति न द्रव्यमान कारकं न क्रियामावं किं तर्हि क्रियासाधन क्रियाविशेषयुक्न कारकम् । यत् क्रियासाधनं स्वतन्त्रः स कर्ता न द्रव्य. मात्र न क्रियामा लम् । क्रियया ह्याप्तमिध्यमाणतमं कर्म न द्रव्यमान न क्रियामात्रम्। एवं साधकतमादिष्वपि, एवञ्च कारकार्थान्वाख्यानं यथैवोपपत्तित एवं लक्षणतः कारकान्वाख्यानमपि न द्रव्यमानेण न क्रियया वा, किं तर्हि क्रियासाधने क्रियाविशेषे युक्त इति कारकशब्दश्चायं प्रमाणं प्रमेयमति स च कारकधर्म न हातुमर्हति अस्ति च भोः कारकशब्दानां निमित्तवशात् समावेशः । प्रत्यक्षादीनि च प्रमाणानि उपलब्धिहेतृत्वात्, म मेयञ्चोपलब्धिविषयत्वात्, संवेद्यानि च प्रत्य चादीनि प्रत्येक्षेणोपलभे
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२ अध्याये २ चाझिकम् ।
४१
छ तुमानेनोपलभे उपमाने नोपलभे बागमेनोपलभे प्रत्यच में ज्ञानमानुमानिकं मे ज्ञानमोपमाभिकं मे ज्ञानमागभिकं मे ज्ञानमिति ज्ञानविशेषा ग्टह्यन्ते, लक्षणतश्च ज्ञाप्यमानानि ज्ञायन्ते विशेषेण इन्द्रियार्थसत्रिकर्षातपनं ज्ञानमित्येवमादिना, सेयमुपलब्धिः प्रत्यक्षादिविषया किं प्रमाण न्त. रतोऽथान्तरेण प्रमाणान्तरमसाधनेति कश्चात विशेषः ।
प्रमाणतः सिद्ध : प्रमाणानां प्रमाणान्तरसिद्धिप्रसङ्गः ॥१७॥
यदि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणेन नोपलभ्य न्ते । येन प्रमाणेनोपलभ्यन्त तत्प्रमाणान्तरमगाव: प्रसज्यत इति । अनवस्थामाह तस्यायन्य तरयास्यन्ये नेति नचानवस्था शक्या तुज्ञातमनुपपत्तेरिति। अस्तु तर्हि प्रमाणानरमन्तरेण नि.साधमेति ।
तहिनिहत्तेर्वा प्रमाणान्तरसिद्धिवत् प्रमेयसिद्धिः ॥ १८॥
यदि प्रत्यक्षाा पलधी प्रमाणान्मरं निवर्तते धात्मेत्युपलब्धावपि प्रमाणान्तरं निवसंवत्यविशेषात् । एवञ्च सर्व प्रमाणविलोप इत्यत आह ।
न प्रदीपप्रकाशवत् तमिद्धेः ॥ १६ ॥ यथा प्रदीपप्रकाश: प्रत्यक्षाङ्गत्वादृश्यदर्शने प्रमाणम्, स च प्रत्यक्षान्नरेण चक्षुषः सनिकर्षण ग्टह्यते । प्रदीपभावाभावयो दशनस्य तथा भावाद्दर्शन हेतु रतुमीयते । तमसि प्रदोपसुपादधीथा इत्याप्तोपदेशेनापि प्रतिपद्यते । एवं प्रत्यक्षादीनां यथादर्श नं प्रत्यक्षादिभिरेवोपलब्धिः । इन्द्रियाणि तावत् खविषषयहणेनैवानुमीयन्ते। अर्थाः प्रत्यक्षतो ग्टह्यन्ते, इन्द्रियार्थसनिकर्षस्तु श्रावरणेन लिङ्गनानुमीयते, इन्द्रियार्थसन्निकोत्सवं ज्ञानमात्ममनसोः संयोगविशेषादात्मसमवायाञ्च सुखादिवद
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
ग्टह्यन्ते । एवं प्रमाणविशेषो विभज्य वचनीयः । यथा च दृश्यः सन् प्रदीपप्रकाशो दृश्यान्तराणा दर्शनहेरिति दृश्यदर्शनगवस्था लभते । एवं प्रमेयं सत् किञ्चिदर्थ जातमुपलब्धि हेतृत्वात् प्रमाणन मेयव्यवस्था लमते, सेयं प्रत्यक्षादिभिरेव प्रत्यक्षादीनां यथादर्शनमुपलब्धिर्न प्रमाणान्तरतो न च प्रमाणमन्तरेण नि:साधनेति, तेनैव तस्या यहणमिति चेल नार्थ भेदस्य लक्षणसामान्यात प्रत्यक्षादीनाम् प्रत्यक्षादिभिरेव यह पमित्युकम् । अन्येन ह्यन्यस्य पहणं दृष्ट मिति नार्थ भेदस्य लक्षणसामान्यात प्रत्यक्षलक्षणे नानेकोऽर्थः सङ्गहीतः । तत्र केनचित् कस्यचिद्ग्रहणमित्यदोषः । एवमनुमानादिष्व पीति, यथोड़तेनोदके नाशयस्थस्य ग्रहण मिति ज्ञाटमनसोश्च दर्शनात् । अहं सुखो अहं दुःखी चेति तेनैव ज्ञात्वा तस्यैव यहणं दृश्यो, युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति च तेनैव मनसा तस्यैवानुमानं दृश्य ते, ज्ञातः यस्य चाभेदो ग्रहणस्य पाह्यस्य चाभेद इति । निमित्तभेदोऽवेति चेत् समानम्, न निमित्तान्तरेण विना जाताऽत्मानं जानोते न च निमित्तान्तरेण विना मनसा मनो ग्टह्यत इति समानमेतत्, प्रत्यक्षादिभिः प्रत्यक्षादीनां ग्रहणमित्यत्राप्यर्थ भेदो न ग्टह्यत इति । प्रत्यक्षादीनाञ्चाविषयस्यानुपपत्तेः । यदि स्यात् किञ्चिदर्थजातं प्रत्यक्षादीनामविषयः । यत् प्रत्यक्षादिभिर्न शक्यं यही तस्य यहणाय प्रमाणान्तरमुपादोयेत | तत्तु न शक्य केनचिदुपपादयितु मिति | प्रत्यक्षादीनां यथादर्शन मेवेदं सच्चासच सर्व विषय इति केचित्तु दृष्टान्तमपरिग्टहीतं हेतुना विशेष हेतुमन्तरेण साध्यसाधनायोपाददते । यथा प्रदीपप्रकाशः प्रदीपान्तरप्रकाशमन्तरेण ग्ट ह्यते, तथा प्रमाणानि प्रमाणान्तरमन्तरेण ग्टह्यन्त इति । स चायं किञ्चिबित्तिदर्शनादनित्ति. दर्शनाच कचिदनेकान्तः । यथा चायं प्रसङ्गो ऽनित्तिदर्शनात प्रमाणसाधनायोपादीयते, एवं प्रमेयसाधनायाय पादेयो विशेष हे त त्वात् यथा स्थाल्यादिरूपग्रह प्रदीपप्रकाशः प्रमेयसाधनायोपादीयते । एवं प्रमाणसाधनायाप्युपादेयो विशेष हेत्वभावात् सोऽयं विशेष हेतु परिग्रहमन्तरेण दृष्टाय एकस्मिन् पक्षे उपादेयो न प्रतिपक्ष इत्यनेकान्नः । एक.. सिंच पचे दृष्टान्न इत्य ने कान्तो विशेषहेतु चाभावादिति । विशेष हेतु.
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२ अध्याये २ आश्रिकम् ।
परिय हे सति उपसंहाराभ्य तु ज्ञानादप्रतिषेधः । विशेष तुपरिग्टहीतस्तु दृष्टान्न एअस्मिन् पचे उपसंत्रियमाणो न शक्यो ज्ञातुम् । एवञ्च सत्य नेकान्त इत्ययं प्रतिषेधो न भवति । प्रत्यक्षादीनां प्रत्यक्षादिभिरुपलब्धावनवस्थेति चेत् न संविहिषयनिमित्तानासुपलब्धमा व्यवहारोपपत्तेः । प्रत्यक्षेपामुपलभे अनुमानेनार्थमुपलभे उपमानेनार्थमुपलभे आग मेनार्थमुपलभ इति । प्रत्यक्षं में ज्ञानभानुमाणिक मे ज्ञानमौयमाणिक में ज्ञानमागमिक मे ज्ञानमिति सविन्निमित्तञ्चोपलभमानस्य धर्मार्थ सुखापवर्गप्रयोजनस्तत्प्रत्य नीकपरिवर्जन प्रयोजनश्च व्यवहार उपपद्यते, सोऽर्म तावत्येव निवर्त्तते, न चास्ति व्यवहारान्तरमनवस्था साधनीयम्, येन प्रयुक्तोऽनवस्थामुपादीतेति। सामान्येन प्रमाणानि परीच्य विशेषेण परीच्यन्ते तत्र।
प्रत्यक्षलक्षणानुपपत्तिरसमग्रवचनात् ॥२०॥
आत्मम नः सन्त्रिक हि कारणान्तर नोक्तमिति। न चासंयुक्त द्रव्ये संयोगजन्यस्य गुणस्योत्पत्तिरिति ज्ञानोत्पत्तिदर्श नादात्ममनःसन्निकर्षः कारणम्, मनःसनिकर्षामपेक्षस्य चेन्द्रियार्थसद्रिकर्षस्य ज्ञानकारणत्वे युगपदुत्पद्येरन् बुद्धय इति मनःसनिकऽपि कारणम् । तदिदं सूलपुरस्तात कृतभाष्यम् : नात्ममनसोः सन्निकर्षाभावे प्रत्यक्षोत्पत्तिः॥२१
आत्ममनमोः सन्त्रिकर्षामावे नोत्पद्यते प्रत्यक्षम् इन्द्रियार्थसनिकर्षाभावबदिति, सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे ज्ञान त्यत्तिदर्शनात् कारणभावं ब्रुवते ।
दिग्देशकालाकाशेष्वप्येवं प्रसङ्गः ॥२२॥ दिगादिषु सत्सु ज्ञानभावात्तान्यपि कारणानीति । अकारणभावेऽपि ज्ञानोत्पत्तिर्दि गादिसबिधेरवर्जनी यत्वात् । यदायकारणं दिगादीनि
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४४
न्यायदर्थ नवाव्यायनभाष्ये ज्ञानोत्पत्तौ तदापि सत्म दिगादिष ज्ञानेन भवितव्यम्, न हि दिगादीनां सन्निधिः शक्यः परिवर्जयितमिति तत्र कारणभावे हेतुवचनम् एतस्मातोदिगादीनि ज्ञानकारणानीति । यात्ममनःसन्निकर्षस्तापसङ्ख्य य इति तत्रेदमुच्यते ।
ज्ञानलिङ्गत्वादात्मनो नानवरोधः ॥ २३ ॥ ज्ञानमात्मनो लिङ्ग तद्गुणत्वात न चासंयुक्त द्रव्ये संयोगजस्य गुणस्थे त्यत्तिरस्तीति ।
तदयोगपद्यलिङ्गत्वाच्च न मनसः ॥ २४॥
अनवरोध इति वर्तते, युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमित्यच्यमाने सिध्यत्येव मन सन्त्रिकर्षापेक्ष इन्द्रियार्थसनिकर्षो ज्ञानकारणभिति प्रत्यशनिमित्त त्वाञ्चेन्द्रियार्थयोः सत्रिकर्षस्य शब्देन वचनम्, प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दानां निमित्तमात्म मनः सन्निकर्षः प्रत्यक्ष वेन्द्रियार्थसन्त्रिकर्ष इत्यसमान समानत्वात्तस्य ग्रहणं सुप्तव्यासकमनसाञ्चेन्द्रियार्थयोः सनिकर्षनिमित्तत्वादिन्द्रियार्थ सन्निकर्षस्य ग्रहणं नात्ममनसोः सत्रिकर्षस्येति | एकदा खत्वयं प्रबोधकालं प्रणिधायः सुप्तः प्रणिधानवशात् प्रबुध्यते । यदा तु तीव्रौ ध्वनि सौ प्रबोधकारणम्भवतस्तदा प्रसुप्त न्द्रियार्थसनिकर्षनिमित्तं प्रबोधज्ञानमुप द्यते, तत्र न ज्ञातुर्मनसच सत्रिकर्षस्य प्राधान्यं भवति, किन्नहींन्द्रियार्थयोः सत्रिकर्षय, न ह्यात्मा जिज्ञासमान: प्रयत्नेन मनस्तदा प्रेरयतीति एकदा खल्वयं विषयान्नरासतमनाः सङ्कल्प व शाहिषयान्तरं जिज्ञासमानः प्रयत्नप्रेरितेन मनसेन्द्रियं संय ज्य तत्तविषयान्तरं जानीते। यदा तु खल्वस्य नि:सङ्कल्पस्य निर्जिज्ञासस्य च व्यास नमनमो वाह्य विषयोपनिपातनाज्ञानमुत्पद्यते तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य प्राधान्यम् न ह्यत्वासौ जिज्ञासभानः प्रयत्नेन मनः प्ररयतीति प्राधान्याच्चेन्द्रियार्थ सन्निकर्षस्य ग्रहणं कार्य, गुणत्वात्, नाममनसोः सन्निकर्षखेति । प्राधान्य च हेत्वन्तरम् ॥
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२ अध्याये २ अातिकम् ।
४५
तैश्चापदेशो ज्ञानविशेषाणाम् ॥ २५ ॥
तैरिन्द्रियैरयश्च व्य पदिश्यन्ते ज्ञानविशेषाः, कथम्, प्राणेन जिघ्रति, चक्ष षा पश्यतिः रसनयो रसयतोति, प्राणविज्ञानं, चक्षु विज्ञान, रसनाविज्ञानमिति, गन्धविज्ञानं, रूपविज्ञानं, रसविज्ञानमिति च इन्द्रियविषयविशेषाच्च पञ्चधा बुद्धिर्भवति, अतः प्राधान्यमिन्द्रियार्थसन्निकर्षसे ति | यदुन मिन्द्रियार्थ मनिकर्षग्रहणं कार्यन्नात्ममनसोः सन्निकर्षख ति कस्मात् सुप्तव्यासक्तमनसामिन्द्रियार्थयोः सन्त्रिकर्षस्य ज्ञाननिमित्तत्वादिति, सोऽयम् ॥
व्याहतत्वादहेतुः ॥ २६ ॥
यदि तावत् कचिदात्ममनसोः सन्निकर्षस्य जानकारणत्व नेष्यते तदा यगपजज्ञानानुत्पत्तिमनसोलिङ्गमिति व्याहन्येत तदानीं मनमः सन्निकर्ष मिन्द्रियार्थ सन्निकर्षोऽपेक्षते, मनःमयोगानपेक्षायाञ्च युगपज्ज्ञा नोत्पत्तिप्रसङ्गः । अथ माभू दव्याधात इति सर्थविज्ञानानामात्ममनसोः मविकर्षः कारणमिष्यते तदवस्थमेवेदं भवति ज्ञान कारणत्वादाममनसो. सत्रिकर्षस्य यहणं कार्य मिति | नार्थविशेषप्राबल्यात् ॥ २७॥
नास्ति व्याघात: नह्यात्ममनःसन्निकर्षस्य ज्ञानकारणत्वं व्यभिचरति, इन्द्रियार्थविकष स्य प्राधान्यमुपादीयते अर्थविशेषप्राबल्लाद्धि सप्तव्यासकमनसा ज्ञानोत्पत्तिरेकदा भवति, अर्थविशेषः कश्चिदेवेन्द्रियार्थः तस्य प्राबल्यं तीव्रतापटते तच्चार्थ विशेष प्राबल्यमिन्द्रियार्थसन्निकर्षविषयं नात्ममनसोः सन्निकर्षविषयं, तस्मादिन्द्रियार्थसनिकर्षः प्रधानमिति, असति प्रणिधाने सङ्कल्प चासति सप्तव्यासकमनसां यदिन्द्रियार्थ सन्निकर्षादत्मद्यते ज्ञानं तत्र मनःसंयोगोऽपि कारणमिति मनसि क्रिया कारणं याच्यमिति यथैव ज्ञातुः खल्वयमिच्छाजनितः प्रग्रहो मनसः प्रेरक आत्म गुण एवमात्मनि गुणान्तर सर्वस्य साधकं प्रत्तिदोषजनितमस्ति न प्रेरितं
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न्यायदर्शनवात्य यनभाये
मन इन्द्रियेण सम्बध्यते तेन ह्योर्या मनसि संयोगाभावाजताना. सुत्पत्तौ सर्वार्थ तास्थ निवर्तते, एषितव्यञ्चास्य गुणान्तरस्य द्रव्यगुणकर्मकारणकत्वं अन्यथां हि चतुर्विधानासण ना भूतसूक्ष्याणां मनसाञ्च ततो. ऽन्यस्य क्रिया हेतोरसम्भवात् शरीरेन्द्रियविषयाणामनुत्पत्तिप्रसङ्गः ॥ प्रत्यक्षमतमानमेकदेशग्रहणाटुपलब्धः॥२८॥
यदिदमिन्द्रियार्थसन्निकर्षादुत्पद्यते ज्ञानं वृक्ष इत्येतत् किल प्रत्यक्षं तत् खल्वनुमानमेव, कस्मात्, एकदेशग्रहणात् वृक्षयोपलब्धेरर्वाग्भागमयं ग्टहीत्वा वृक्षमुपलभते नचैकदेशो वृक्षः । तत्व यथा धूम ग्टहीत्वा वङ्गिमनुमिनोति ताडगेव तद्भवति । किं पुनर्ट ह्यमाणा देकदेशादर्थान्तरमनुमेयं मन्यसे अवयवसमूहपक्षे अवयवान्नराणि द्रव्योत्पत्तिपक्षे तानि,चावयवी चेति अवयवसमूह पक्षे तावत् एकदे यग्रहणाहक्षबुट्वेरभावः नाग्टह्यमाणमेकदेशान्तरं वृक्षोग्टह्यमाणैक देशवदिति, अथैकदेशग्रहणादेशान्तरानु माने समुदायप्रतिसन्धानात् तत्र वृक्षबुद्धिः न तर्हि वृक्षद्धिरनुमान मेवं सति भवितुमर्हतीति । द्रव्यान्नरोत्पत्तिपक्षे नावयव्यनुमेयः । अस्यै क देशसम्बन्धस्याग्रहणात् पहणे चाविशेषादनुमेयत्वाभावः । तस्माक्षबुद्धिरनुमानं न भवति । एकदेशग्रहणमाश्रित्य प्रत्यक्षस्थानुमानत्वमुपपाद्यते
न प्रत्यक्षेण यावत्तावदय पलम्भात् ॥ २१ ॥
न प्रत्यक्षमनुमानं कमात् प्रत्यक्षेणैवोपलम्भात् यत्तदेकदेशग्रहणमामात्रीयते प्रत्यक्षेणासावुपलम्भः न चोपलम्भो निर्विषयोऽस्ति यावच्चार्थजातन्तस्य विषयस्तावदभ्यनुज्ञायमानं प्रत्यक्ष व्यवस्थापकम्भवति। किं पुनस्ततोऽन्यदर्थ जातमवयवी समुदायो वा न चैकदेशग्रहणमनुमानं भावयितुं शक्य हेत्वभावादिति । अन्यथापि च प्रत्यक्षस्य नानुमानत्वप्रसङ्गस्तत्पूर्बकत्वात्, प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं, सम्बद्धावग्निधूमौ प्रत्यक्षतो दृष्टवतो धमप्रत्यक्षदर्शनादग्नावनमानम्भवति यत्र च सम्बद्धयोलिङ्गलिङ्गिनोः प्रत्यक्षं यच्च लिङ्गमानपन्यवाहणं नैतदन्तरेणानुमानस्य पुत्ति
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२ अध्याये २ आशिकम् ।
४७
रस्ति न चैतदनुमानमिन्द्रियार्थसनिकर्षजत्वात् न चानुमेयस्थेन्द्रियेण सत्रिकर्षादनुमानम्भवति सोऽयम् प्रत्यक्षानुमानयोल क्षणभेदो महानायितव्य इति ॥ न चैकदेशोपलब्धिरवयविसद्भावात् ॥ ३० ॥
न चैकदेशोपलब्धिमान कि त क देशो पलब्धिस्तत्म हचरिताक्यव्यपलब्धिश्च, कस्मात् अत्रयविसङ्गाबात् अस्ति ह्ययमेक देशव्यतिरिकोऽवयवो तस्यावयवस्थान योपलञ्चिकारण पाप्तस्यैकदेशोपलब्धावनुपलब्धिरनप पति यकृत् स्नग्रहणादिति चेत् न कारणतोऽन्यस्यैकदेशस्थाभावात् न चावयवाः कृत्स्नाः ग्ट ह्यन्ते' अवयवैरेवावयवान्तरव्य वधानात नावयवी कतनो मात इति नायं ग्टह्यमाणेष्व वयवेष परिसमाप्त इति, सेय मेक देशोपपलब्धि रनि. तेति कृत्स्नमिति वै खल्व शेभतायां सत्याम्भवति, प्रकृत्स्न मिति शेधे सति, ततदवयवेषु बइष्वस्ति । अव्य वधाने ग्रहणात् व्यवधाने चायहणादिति। अङ्गत भवान् दृष्टो व्याचष्टां ग्ट ह्यमाणस्थावयविन: किमग्टहीतं मन्यसे येनैकदेशोपलब्धिः स्यादिति न ह्यस्य कारणेभ्योऽन्ये एकदेशा भवन्तीति तत्रावयवत्तं नोपपद्यत इति इदं तस्य वृत्तम्,येषामिन्द्रियार्थसन्निकर्षादग्रहणमवयवानां व्यवधानादग्रहणं तै: सह ग्टह्यते येषामवयवानां व्यव. धानादयहणं तैः सह न ग्टह्यते न चैतत्कतोऽस्ति भेद इति समुदायोऽप्य शेषता वा समुदायो वृक्षः स्यात् तत्प्राप्तिर्वा उभयथाग्रहणभावः । मूलस्कन्वशाखापलाशादीनामशेषता वा समुदायो वृक्ष इति स्यात् पाप्तिा समुदायिनामिति उभयथा समुदायभूतस्य सक्षस्य ग्रहणं नोपपद्यत इति अवयवैस्तावदवयवान्तरस्य व्यवधानाद शेषग्रहणं नोपपद्यते प्राप्तिग्रहणमपि नोपपद्यते 'पाप्तिमतामयणात् मेयमेक देशग्रहणसहचरिता वृक्षबुदिव्यानरोत्पत्तौ कल्पाते न समुदायमान इति ।
साध्यत्वादवयविनि सन्देहः ॥ ३१ ॥
यदुक्तमवयविसद्भावात् प्राप्तिमतामयमहेतुः साध्यत्वात् साध्यन्तावदे. तत्कारणेभ्यो द्रव्यान्तरसत्पद्यत इति अनुपादितमेतत्, एवञ्च सति विप्रतिपत्तिमात्रम्भवति विमतिपत्तेचावयविनि संशय इति॥
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
सर्वाग्रहणमवयव्यसिद्धेः ॥ ३२ ॥
यद्यवयवी नास्ति सर्वस्य ग्रहणं नोपपद्यते किं तत्मवम् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायाः । कथं कृत्वा परमाणसमवस्थानं तावद्दर्शनविषयो भवतीत्यन्द्रियत्वादर. नां द्रव्यानरचावयविभूतं दर्शनविषयस्थाशे मे द्रव्यादयो ग्टह्यन्ते तेन निरधिष्ठाना न ग्टोरन्, ग्टह्यन्न त कुम्मोऽयं श्याम एको महान् संयुक्तः स्पन्दते अस्ति मृण्मयश्चेति, सन्ति चेमे गुणादयो धमी इति तेन सर्वस्य ग्रहणात् पश्यामोऽस्ति द्रव्यान्तरभूतोऽवयवोति ।
धारणाकर्षणोपपत्तेश्च ॥ ३३ ॥ अवयव्यर्थान्तरभूत इति संग्रहकारिते वै धारणाकर्षणे संग्रहो माम संयोगसहचरितं गुणान्तरम् । स्नेहव्यत्वकारितमपां संयोगादामे कुम्भ अग्निसङ्गात् पक यदि त्ववयविकारिते अविष्यताम् पांशुराशिप्रभृतिबप्यज्ञास्येतां द्रव्यान्तरानुत्पत्तौ च टणोपकलाधादिषु जन्तु संग्टहीतेष्वपि नाभविष्यतामिति । अथावयविनं प्रत्याचक्षाणको माभूत् प्रत्यक्षलोप इ त्यसञ्चयं दर्शनविषयं प्रतिजानानः किमनुयोक्तव्य इति। एकमिदं द्रव्यमित्यै कबुड्वे विषयं पर्यनयोज्य: किमेकबुद्धिरभिवार्थविषया, आहो नानार्थविषयेति । अभिन्नार्थ विषयेति चेत् अर्थान्तरानुज्ञानादवर्यावसिद्धिः, नानार्थ विषयेति चेत् भिन्नष्वे कदर्शनानुपपत्तिः। अनेक स्मिन्नेक इति ब्याहताबुद्धिर्न दृश्यत इति । सेनावनवद्ग्रहणमिति चेन्नातीन्द्रियत्वादणूनाम्
__ यथा सेनाङ्गेघु वनाङ्गेषु च दूरादग्टह्यमाणटथक्वेष्वे कमिटमित्यु पपद्यते बुद्धिः, एवं परमाणुष सञ्चितेष्पग्टह्यमाणटयत्वे ध्वे कमिदमित्यु पपद्यते बुद्धिरिति, यथाऽग्टह्यमाण पृथक्वानां खलु सेनावनाङ्गानाकारात् कारणान्सरतः पृथकस्याग्रहणम्, अथाऽम्ट ह्यमाणजातोनां पलाश इति
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२ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
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था खदिर दूति वा नाराज्जातिग्रहणम्भवति, ग्ट ह्यमाण प्रस्सन्दानानारात् स्पन्दग्रहणम्, ग्टह्यमाणे चाथ जाते पृथक्वस्याग्रहणादेकमिति भानः प्रत्ययो भवति, न त्वणनां ग्टह्यमाणष्ट थक्वानां कारणतः पृथक्वस्थाग्रहणात् भात एक प्रत्ययोऽतीन्द्रियत्वादणनामिति । इदमेव च परीच्यते किमेकप्रत्ययोऽणुसंञ्चयविषय आह खिन्नति । अणुसञ्चय एव सेनावनाङ्गानि न च परीच्यमाणमुदाहरण मिति युक्तम्, साध्यत्वादिनि, दृष्टमिति चेन्न तद्दिषयस्य परीच्योपपत्तेः । यदपि मन्यते दृष्टमिदं से नात्रनाङ्गानां पृथत्तस्याग्रहणादभेदेनै कमिति ग्रहणं न च दृष्टं शक्यं प्रत्या. ख्यामिति, तथा नैवं तद्विषयस्य परीच्योपपत्तेः। दर्शनविषयएवायं परीच्यते योऽयमेकमिति प्रत्ययो दृश्यते स परीच्यते किं द्रव्यानरविषयो वाऽथाणुसञ्चयविषय इत्यत्र दर्शनमन्यतरस्य साधकं न भवति नानाभावे चानां पृथक्कस्याग्रहणादभेदेनै कमिति पहणम् | अतस्मिंस्तदिति प्र-- त्ययो यथा स्थाणौ पुरुष इति ततः किमतस्मिंस्त दिति प्रत्ययस्य प्रधानापेक्षितत्वात् प्रधान सिद्धिः, स्थाणौ पुरुषति प्रत्ययस्य किं प्रधानम्, योऽसौ पुरुषे पुरुषप्रत्ययस्तम्किान सति पुरुषसामान्यग्रहणात् स्थाणी पुरुषोऽयमिति, एवं नानाभूतेष्वे कमिति प्रामाण्यग्रहणात् प्रधाने सति भवितुमर्हति । प्रधानञ्च सर्वस्याग्रहणादिति नोपपद्यते, तस्माद भिन्न एवायमभेदप्रत्य य एकमिति, इन्द्रियान्त रविषयेष्वभेदमत्ययः प्रधानमिति चेत् न विशेष हेत्वभावाा दृष्टान्ताव्य वस्था, श्रोत्रादिविषयेषु शब्दादिष्वभिन्ने ध्वे क प्रत्ययः प्रधानमने कस्सिनेकप्रत्ययस्येति । एवञ्च सति दृष्टान्तोपादानं न व्यवतिष्ठते, विशेप हेत्वभावात्, अणषु सञ्चितेषु एकप्रत्ययः किमतस्मिंस्तत्प्रत्ययः स्थाणौ पुरुषप्रत्ययवत्, अथार्थस्य तथाभावात् तस्मिंस्त. दिति प्रत्ययो यथा शब्दस्यैकत्वादेकः शब्द इति । विशेष हेतु परियहमन्तरेण दृष्टान्तौ संशयमापादयत इति, कुम्भवत् सञ्चयमात्र गन्धादयोऽपोत्यनुदाहरणं गन्धादय इति, एवं परिमाणसंयोगस्यन्द जाति विशेषप्रत्ययानप्यनुयोक्त व्यास्तेषु चैवं प्रसङ्ग इति । एकत्वबुद्धिस्तस्मिंस्तदिति प्रत्यय इति विशेषतर्भहदिति प्रत्ययेन सामानाधिकरण्यात् एकमिदं महच्चे ति एक विषयौ प्रत्ययो समानाधिकरणौ भवतः तेन विज्ञायते
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न्यायदर्श नवात्यायनभाष्य
यमहत् तदेकमिति ॥ अणुसमहातिशयग्रहणं महत्पत्यय इति चेत् मोऽयममहत्खणषु महत्पत्य यो ऽतस्मिंस्तदिति प्रत्ययो भवतीति, किचातः अतसिंस्त दितिप्रत्ययस्य प्रधानापेक्षितत्वात् पधानसिद्धिरिति भवितव्यं महत्येव महत्प्रत्ययेनेति । अणुशब्दो महानिति च व्यवस यात् पधानसिद्धिरिति चेत् न मन्दत बतायहमियत्तानवधारणात् यथा द्रव्येऽणुः शब्दोऽल्यो मन्द इत्येतस्य ग्रहणम्, महान् शब्दः पटु तोब इत्येतस्य पहपम् । कस्मात् इयत्तानवधारणात् न ह्ययं महान् शब्द इति व्यवस्थनियानयमित्यवधारयति । यथा वदरामल कविल्वादीनि संयुके दूमे इति च द्वित्वसमानाश्रयं प्राप्तिग्रहणम्, हा समुदायावाश्रयः संयोगस्येति चेत् कोऽयं समुदायः। पाप्तिरनेकखाऽनेका वा प्राप्तिरेकस्य समुदाय इति चेत् पाप्लेरग्रहणं प्राप्ताश्रितायाः संयुके दूमे वस्तुनी इति नात्र हे पाप्ती संयुक्ने ग्दह्येते, अनेकसमूहः समुदाय इति चेन्न हिन्वेन समानाधिकरणस्य ग्रहणात् दाविमौ संयकावर्थाविति पहणे मति नानेकससदायाश्रयः संयोगो ग्टह्यते न च इयोरवोर्यहणमस्ति तस्मान्महती वित्वाश्रयभूते ट्रव्यसंयोगस्य स्थानमिति प्रत्यासत्तिः प्रतीक्षा तावता संयोगो नार्थान्तरमिति चेत् नार्थान्तर हेतुत्वात् संयोगस्य शब्दरूपादिस्यन्दानां हेतुः संयोगो न च द्रव्ययोगुणान्तरोपजननमन्तरेण शब्दे रूपदिषु स्पर्श च कारणत्वं ग्टह्यते तस्माद्गुणान्तरं प्रत्ययविषयश्चार्थान्तरं तत्प्रतिषेधो वा कुण्डली गुरुरकुण्डलखान इति संयोगबुद्धेश्च यद्यर्थान्तरं न विषयः अर्थान्नरप्रतिषेधस्तईि विषयस्तत्र प्रतिषियमानवचनं संयुक्त द्रव्ये इति यदर्थान्तरमन्यत्र दृष्टमिह प्रतिषियते तहत व्यमिति योर्महतोराषितस्य ग्रहणानावाश्रय इति जातिविशेषस्य प्रत्यायानुत्तिलिङ्गस्याप्रत्याख्यानम् प्रत्याख्याने वा प्रत्ययव्यवस्थानुपपत्तिः । व्यधिकर, गास्यानभिव्यक्तरधिकरणवचनम्, अणुभमवस्थानम् विषय इति चेत्, मानाप्राप्तसामर्थ्यवचनम् । किमप्राप्त अणुसमवस्थाने तदाश्रयो जातिविशेषो ग्टह्यते अथ प्राप्त इति, अप्राप्न ग्रहणमिति चेत् व्यवहित. स्थाणसमानस्थामस्याप्युपलबिमसङ्गः, अव्यवहितेऽणुसमवस्थाने ६दात्रयो जातिविशेषो ग्टह्येत, प्राप्त ग्रहणमिति चेत्, मध्यपरभागयोरप्राप्ताव
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२ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
नभिव्यक्तिः, यावत् प्राप्तम्भवति तावत्यभिव्यक्तिरिति चेत् तावतोऽधिकरणत्वमणुसमवस्थानस्य यावति प्राप्ने जातिविशेषो ग्टह्यते तावदस्याधिकरणमिति प्राप्तम्भवति, तकसमुदाये प्रतीयमानेऽर्थभेदः । एवञ्च सति योग्यमणुसमुदायो वृक्ष इति प्रतीयते तत्व वृक्षवडत्वं प्रतीयेत । यत्र यत्र ह्यणुसमुदायस्य भागे वृक्षत्वं ग्टह्यते स स वृक्ष इति । तस्मात् समुदिताणुसमवस्थानस्यार्थान्तरस्य जातिविशेषस्याभिव्यक्तिविषयत्वादवयव्य र्थान्तरभ त इति । परीक्षितं प्रत्यक्षम् । अनुमानमिदानी परीच्यते ।
रोधोपघातसादृश्येभ्यो व्यभिचारादनुमानमप्रमाणम् ॥ ३५॥
अप्रमाण मिति । एकदाप्यर्थस्य न प्रतिपादकमिति । रोधादपि नदी पूर्ण ग्ट ह्यते तदा चोपरिटाइटो देव इति मिथ्यानुमानम् । नीडोपधातादपि पिपीलिकाण्डसञ्चारो भवति तदा च भविष्यति दृष्टिरिति मिथ्या नुमान मिति । पुरुषोऽपि मयूरवासि तमनुकरोति तदापि शब्दसादृश्यान्मिथ्यानुमानम्भवति॥
नैकदेशवाससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात् ॥३६॥ नायमनुमान व्यभिचारः अननुमाने तु खल्वयमनुमानाभिमानः, कथं, माविशिष्टो लिङ्ग भवितुमर्हति । पूर्वेदिकविशिष्ट खलु वर्षीदकं शीघ्रतरत्व स्त्रोतसो बहुतरफेणफलपर्णकाष्ठादिबडलञ्चोपलभमानः पूर्णत्वे न नद्या उपरि दृष्टा देव इत्यनुमिनोति नोदक उनिमात्रेण । पिपीलिकाप्रायस्याण्ड सञ्चारे भविष्यति यष्टिरित्यनुमीयते न कासाञ्चिदिति । नेदं मयूरवासितं तत्मदृशोऽयं शब्द इति विशेषापरिक्षानान्निथ्यानुमानमिति यस्तु सदृशात् विशिष्टाच्छब्दाविशिष्टं मयूरवासितं ग्टह्णाति तस्य विशिष्टोऽर्थी ग्टह्यमाणो लिङ्ग यथा सर्पोदीनामिति, सोऽयमनुमातुरपराधो नानुमानस्य योऽर्थ विशेषेणानुमेयमर्थमविष्टार्थदर्शनेन बुभुतहत इति । त्रिकालविषयमनुमानं काल्यग्रहणादित्यलमत्र च ॥
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५२ न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये ___वर्तमानाभाव: पततः पतितपतितव्यकालोपपत्ते:
A
हन्तात् प्रच्य तस्य फलस्य भूमौ प्रत्यासीदतो यदूर्द्ध स पतितोऽध्वा तत्संयुक्तः कालः, पतितकालः, योऽधस्तात् स पतितव्येोऽध्वा तत् संयुक्तः काल: पतितव्यकालः नेदानी रतीयोऽध्वा वर्तते यत्र पततीति वर्तमानः कालो ग्ट होत, तस्माहर्तमानः कालो न विद्यते इति ॥ तयोरप्यभावो वर्तमानाभावे तदपेक्षत्वात् ॥३८॥
नाध्व व्यङ्ग्यः काल:, किन्तहि क्रियाव्यङ्ग्यः पततीति यदा पतनक्रिया व्यु परता भवति स कालः पतितकालः, यदोत्पत्स्यते स पतितव्यकालः |
माने क्रिया ग्ट गने स वर्तमानः कालः | यटि चा टव्ये यदा द्रव्य . .. ... " वर्तमान पतनं न ग्टह्णाति कस्योपरममुत्पत्यमान तां वा प्रतिपद्यते पतितः काल इति भता क्रिया, पतितव्यः काल इति चोत्पत्मासाना क्रिया, उभयोः कालयोः क्रियाहीनं द्रव्यमधःपत तो ति क्रियासम्बद्धम् सोऽयं क्रियाद्रव्य योः सम्बन्धं ग्टह्णाति वर्तमानः कालस्तदाश्रयौ चेतरौ कालो तदभावे न स्यातामिति । अथापि ॥
नातीतानागतयोरितरतरापेक्षा सिद्धिः ॥३६॥
यद्यतीतानागतावितरेतरापेक्षौ सिध ताम्, प्रतिपद्येमहि वर्तमानविलोपम् । नातीतापेक्षाऽनागतसिद्धिः । नाप्यनागतापेक्षा अतीतसिद्धिः कया युक्त्या केन कल्पनातीताः कथमतीतानागतयोरिति तन्नोपपद्यते विशेष हे त्वभावात् । दृष्टान्तवत् प्रतिदृष्टान्तोऽपि प्रसज्यते । यथा रूपस्यौँ गन्धरसौ नेतरेतापेक्षौ सिद्यते एवमतीतानागताविति नेतरेतरापेक्षा कस्यचित् सिद्धिरिति । यस्मादेकाभावेऽन्यतराभावादुभयाभावः । योकस्यान्यतरापेक्षासिट्रेिकस्येदानौं किमपेक्षा यद्यन्य तरखेकापेक्षा सिद्धिरेकस्सेदानों किम मेक्षा एवमेकस्याभावेऽन्यतरन्न सिद्यतीत्युभयाभावः
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२ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
५३
प्रसज्यते । अर्थ सद्भावव्यङ्ग्य चायं वर्तमानः कालः विद्यते द्रव्यं विद्यते गुणः विद्यते कर्मे ति । यस्य चायं नास्ति तस्य ॥ वत्तमानाभावे सर्वाग्रहणम्प्रत्यक्षानुपपत्तेः ॥४०॥
प्रत्यक्ष मिन्द्रिय समिकर्षजम् न चाविद्यमानमस दिन्द्रियेण सनिशष्यते, न चायं विद्यमानं सत् किञ्चिदनुजानाति प्रत्यक्षनिमित्त प्रत्यक्षविषयः प्रत्यक्ष ज्ञानं सर्वनोपपद्यते प्रत्यक्षानुपपत्तौ घ तत्पूर्वकत्वात् अनुमानागमयोरनुपपत्तिः। सर्व प्रमाण विलोपे सर्वग्रहणं न भवतीति । उभयथा च वर्तमानः कालो ग्टह्यते कचिदर्थ सद्भावव्याः यथा द्रव्ये द्रव्य • मिति, कचित् क्रियासन्नानव्यङ्गवः । यथा पचति छिनत्तीति, नानाविधा चैकार्था क्रिया क्रियासन्नानः क्रियान्यासच नानाविधा चैकार्था क्रिया पचतीति स्थाल्यधिश्रयण मुदकासेचनं तगडुला वपन मेधोपसर्पणमग्नाभिज्वालनं दौंघटनं मण्ड श्रावणमधोऽवतारणमिति | छिनत्तीति क्रियाभ्यास उद्यम्योद्यम्य परशु' दारुणि निपातयन् छिनत्तीत्युच्यते । यच्चदं पच्यमानं च्छि द्यमानच्च तक्रियमाणं तस्मिन् क्रियमाणे ॥ कृतताकत्तव्यतोपपत्तेस्तूभयथाग्रहणम् ॥४१॥
क्रियासन्नानोऽनारधश्चिकीर्षि तोऽनागतः कालः पच्यतीति । प्रयोजमावसानः क्रियासन्तानोपरमोऽतीतः कालोऽपाक्षोदिति। प्रारब्धक्रियासन्तानो वर्तमानः कालः पचतीति । तत्र या उपरता सा कृतता, या चिकीर्षिता सा कर्त्तव्यता, या विद्यमाना सा क्रियमाणा । तदेवं क्रियासन्तानस्थस्त्र काट समाहारः पचति पच्यत इति वर्तमानयहणेन ग्टह्यन्ने क्रिया सन्तानस्य ह्यवाविच्छेदो विधीयते नारम्भो नोपरम इति सोऽयमुभयथा वर्तमानो ग्टह्यते । अपनो व्यपटतच | अतीतानागत, म्यां स्थितिव्यका विद्यते द्रव्य मिति क्रियासन्तानविच्छ दाभिधायी च लैक ल्यान्वितः पचति छिनत्तीति अन्य च प्रत्यासत्तिप्रभतेरर्थस्य विवशायां तदभिध यो बजप्रकारो लोकेषु उत्प्रेक्षितव्यः तसादस्ति वर्तमान; काल दूति ॥
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न्यायदर्शनषात्यायनभाष्ये अत्यन्तप्रायैकदेशसाधर्म्याटुपमानासिद्धिः ॥४२॥
अत्यन्तसाधर्म्याटुपमानं न सिध्यति, न चैव भवति यथा गौरवं गौ'रिति, प्रायः साधर्म्याटुपमा न सिद्धति, नहि भवति यथानवाने महिष इति, एकदेशसाधर्म्याटुपमानं न सिद्यति, नहि सर्वेण सर्वसपमीयत इति। प्रसिद्धसाधर्म्याटुपमानसिद्धेर्यथोक्तदोषानुपपत्तिः
म साध्यस्थ बत्नप्राय सभाबमात्रियोपमा प्रवर्तते, किन्नहि प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनभावमाश्रित्य प्रवर्तते, यव चैतदस्ति न नवोपमानं प्रतिषेधु शक्यम्, तमाद्यथोक्नदोषो नोपपद्यत इति । अख मी पमानमनुमानम् ॥
प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षसिद्धेः ॥४४॥ यथा धूमेन प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य वङ्गेर्य हणमनुमानमेवं गवा प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य मवयस्य ग्रहणमिति नेदसनुमानाविशिष्यते । विशिष्यत स्याह, कया युक्त्या ॥
नाप्रत्यक्षे गवये प्रमाणार्थमुपमानस्य पश्याम इति ॥४५॥
यदा ह्ययमुपयनोपमानो गोदी गवयसम ममर्थ पश्यति, नदाऽयं मवय इत्यस्य संज्ञाशब्दस्य व्यवस्था प्रतिपद्यते, न चैवमनुमानमिति परार्थं चोपमानम् यस्य हापमानमप्रसिद्धं तदर्थं प्रसिद्धोभयेन क्रियत इति परार्थसपमान मिति चेत् न स्वयमध्यवसायात् भवति च भोः स्वयमध्यय. सायः यथा गौरवं गश्य इति । नाध्यवसायः प्रतिषिध्यते उपमाने तु तब भवति प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् न च यस्योभयं प्रसिद्ध वं प्रति साध्यसाधनभावो विद्यत इति । अथापि ॥
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२ अध्याये २ आह्निकम् । ५५ तथेत्युपसंहाराटुपमानसिद्ध विशेषः ॥ ४६ ॥
तथेति समानधर्मोपसंहाराटुपमानं सिध्यति नानुमानम् । अयानयोर्विशेष इति । शब्दोऽनुमानमर्थस्थानुपलब्धेरनुमेयत्वात् ॥४७॥
शब्दोऽनुमानं न प्रमाणान्तरम्, कमात् शब्दार्थ स्थानुमेयत्वात्, कथमतु मे यत्वम्, प्रत्यक्षतोऽनुपलब्धे यथाऽनुपलभ्यमानो लिङ्गी मितेन लिनेम पश्चान्मीयत इति अनुमानम् एवं मितेन शब्देन पश्चान्मीयतेऽयोऽयमनुपलम्यमान इत्यनुमानं शब्दः । इतञ्चानुमानं शब्दः । उपलब्धेरविप्रटत्तित्वात् ॥४८॥
प्रमाणान्तरभावे हिप्रवृत्तिरुपलब्धिरन्यथा ह्यपलब्धिरनुमाने अन्यथोपमाने, तयाख्यानम् शब्दानुमानयोस्त पलब्धि रहित्तियथानुमाने प्रवर्तते तथा शब्देऽपि विशेषाभावादनुमानं शब्द इति ॥
सम्बन्धाच्च ॥४६॥ .
शब्दोऽनुमान मिति वर्तते, सम्बवयोश्च शब्दार्थयोः सम्बन्धमसिनो शब्दोपलब्धे रथेग्रहणम् । यथा सम्बद्धयोलिङ्गलिङ्गिनोः सम्बन्धप्रतीतौ लिङ्गोपलधौ लिङ्गिमहसमिति । यत्तावदर्थस्थानु मेयत्वादिति तन ।
प्राप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दार्थसम्प्रत्ययः ॥५०॥
स्वर्गः अमरस उत्तराः कुरवः सप्तहोपाः समुद्रो लोकसनिवेश इत्येवमादेर प्रत्यक्षस्थार्थस्य न शब्दमानात् प्रत्ययः, किन्नहि अाप्रयमुक्त : शब्द . इत्यतः सम्प्रत्ययः । विपर्य येण सम्प्रत्ययाभावात् । न त्वेवमनुमानमिति । यत् पुनरुपलरवित्तित्वादिति, अयमेव शब्दानुमानयोरुपलब्धेः प्रत्तिभेदः। तत्र विशेषे सत्य हेर्विशेषाभावादिति । यत्युनरिदं सम्द
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य
न्धाचे ति अस्ति शब्दार्थयोः सम्ब धोऽनुज्ञातः अस्ति च प्रतिषिवः । अस्येदमिति षष्ठीविशिष्टस्य वाक्य स्वार्थविशेषोऽनुज्ञातः प्राप्तिलक्षणस्तु शब्दा. दोः सम्बन्धः प्रतिषिड्वः .स्मात् ॥ ..
प्रमाणतोऽनुपलब्धेः ॥ ५१॥ प्रत्यक्षतस्ताव छब्दार्ग प्राप्त नोपलब्धिरतीन्द्रियत्वात् येनेन्द्रियेण ग्टह्यते शब्दस्तस्य विषयभावमतिवृत्तोऽर्थे । न ग्ट ह्यते । अस्ति चातीन्द्रियविषय तोऽप्यर्थः समानेन चेन्द्रिये छ ग्टह्यमाणयोः प्राप्ति ह्यत इति प्राप्तिलक्षणे च ग्टह्यमाणे शब्दार्थयोः शब्दान्तिके वार्थः स्यात्, अर्थान्ति के वाश दः स्यात्, उभयं वोभयत्र । अथ खल्वयम् ॥
पूरणप्रदाहपाटनानुपलब्धेश्च सम्बन्धाभावः ॥५२॥ - स्थानकरणाभावादिति चाथैः । न चायम नुमानतोऽप्य पलभ्यते शब्दानिकेऽये इति । एकस्मिन् पक्षेऽप्यस्य स्थानकरणोच्चारणीयः शब्द स्तदन्तिकेऽर्थ इति | अन्न ग्न्यसि शब्दोच्चारणे पूरण प्रदाहपाटनानि म्ट ह्येरन्, न च प्रम्टह्यन्ते । अपहणावानुमेयः प्राप्तिलक्षणः सम्बन्धः अर्थान्ति के शब्द इति । स्थान करणासम्भवादनुच्चारणम्, स्थानं कण्ठादयः, करणं प्रयत्नविशेषः । तस्यार्थान्तिकेऽनप पत्तिरिति उभय प्रतिषेधाज नोमयम् । तस्मान्न शब्दे नार्थः प्राप्त इति ॥
शब्दार्थव्यवस्थानादप्रतिषेधः ॥५३॥ शब्दार्थ प्रत्ययस्य व्यवस्थादर्शनादखुमी यतेऽस्ति शब्दार्थसम्बन्धो व्यवस्थाकारगम् । असम्बन्धे हि शब्दमात्रादर्थमाने प्रत्ययप्रसङ्गः। तस्मादप्रतिषेधः सम्बन्धस्येति । अत्र समाधिः ॥ न सामयिकत्वाच्छब्दार्थसम्प्रत्ययस्य ॥ ५४॥
न सम्बन्ध कारितं शब्दार्थ व्यवस्था किन्तहि समयकारितं यत्तदवो वाम | अस्येदमितिषष्ठीविशिष्टस्य वाक्यस्यार्थविशेषोऽनुजातः शब्दा
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२ अध्याये २ प्राज्ञिकरें ।
थयोः सम्बन्ध इति समयं तदवोचामेति । कः पुनरयं समयः । अस्य शब्दस्वेदमर्थजातमभिधेयमित्यभिधानाभिधेयनियमनियोगः । तस्मिन्नुपयुक्त शब्दादर्थ सम्प्रत्ययो भवति | विपर्यये हि शब्दश्रवणेऽपि प्रत्ययाभावः, सम्बन्धवादिनापि चायम वजनीय इति । प्रयज्यमानय हणांच्च समयोपयोगो लौकिकानाम्, समयपालनार्थ चेद पदलक्षणया वाचोऽन्वाख्यानं व्याकरणवाक्यलक्षणयों वाचोऽर्थों लक्षणम् | पदसमूहो बाक्यमर्थ परिसमाप्ताविति । तदेवं प्राप्तिलक्षणस्य शब्दार्थसम्बन्धस्यार्थजुषोऽप्यनुमानहेतुन भवतीति ॥
. जातिविशेषे चानियमात् ॥ ५५ ॥
सामयिकः शब्दादर्थ सम्प्रत्ययो न स्व.भाविकः । ऋध्यार्य म्लेच्छानां यथाकामं शब्दविनियोगोऽर्थ प्रत्यायनाय पवर्त्तते, खाभाविके हि शब्दस्था पत्यायकत्व यथाकामं न स्यात् । यथा तेजमस्य प्रकाशस्य रूप प्रत्ययहेतुत्व न जातिविशेषे व्यभिचरतीति । तदप्रामाण्यमन्तव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः ॥५६॥
पुत्रकामेष्टिहवनाभ्यामेषु तस्येतिशब्दविशेष मेवाधिकुरुते भगवादधिः । शब्दस्य प्रमाणत्वं न सम्भवति, करमादन्तदोषात् । पुत्रकामेष्टौ पुत्रकामः पुरेश्या यजेतेति, नेदौ संस्थितायां पुत्वजन्म दृश्यते । दृष्टार्थ स्य वाक्यस्यान्दतत्वात् अदृष्टार्थमपि वाक्यमग्निहोल जहुयात् वर्गकाम इत्याद्यन्दतमिति ज्ञायते । विहितव्याघातदोषाच हवने "उदिते होत. व्यमनुदिते होतव्यं समयाध्युषिते होतव्यम्' इति विधाय विहितं व्याहन्नि श्यावोऽस्याहुतिमभ्यवहरति य उदिते जुहोति शवलोऽसा, हुतिमभ्यवहरति योऽनुदिते जुहोति स्यावशवलौ वास्याहुतिमभ्यवहरतो यः समयाध्य षिते जुहोति" । व्याघाताच्चान्यतरन्मिथ्येति । पुन रक्तदोषाच अभ्यासे देश्यमाने "विः प्रथमामन्वाह विरुत्तमाम्” इति पुनरुक्तदोषो भवति । पुनरुतञ्च प्रमत्तवाक्यमिति तस्मादप्रमाणं शब्दोऽन्टतव्याघातपुनरुकदोषेश्य इति
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न्याय दर्शनवात्स्यायनभाये न कर्मकर्टसाधनवैगुण्यात् ॥ ५७ ॥
नाटतदोषः पुत्वकामेटो, कमात्, कर्म कर्टसाधनवैगुण्यात् ध्या पितरौ संयुज्य मानौ पुत्र जनयत इति दृष्टेः करणं साधनम् पितरौ कर्तारौ संयोगः कर्म त्रयाणां गणयोगात् पुत्रजन्म वैगुण्याहिपर्य यः । इज्याश्रयं तावत्कर्मवैगुण्यम् समीहाभेष: कार्ट वैगुण्यम् अविद्वान् प्रयोका कप्याचरणश्च । साधनवैगुण्यं हविरसंस्कृ तमुपहतमिति । मन्त्रा न्यू नाधिकाः स्वरवर्ग होना इति । दक्षिणा दुरागता होना निन्दिता चेति । अथोपयजनाश्रयं कर्मवैगुण्यम् मिथ्यासम्प्रयोगः । कर्ट वैगुण्यम् योनिव्यापा दो वो जोपघातश्चेति । साधनवैगुण्यम् इष्टाव भिहितम् लोके चाग्निकामो दारुणीमयी यादिति विधिवाक्यम्, तत्र कर्मवैगुण्यम् मिथ्याभिमन्धनम्, कर्ट वैगुण्यम् प्रज्ञा प्रयत्न गतः प्रमादः, साधनवैगुण्यम् छाई सुधिरं दार्विति, तत्र फलं न निष्पद्यत इति नान्तदोषः । गुणयोगेन फलनिष्पनिदर्शनात् न चेदं लौकिकाद्भिद्यते पुत्रकामः पुत्त्रेश्या यजेतेति ॥
अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् ॥ ५८ ॥
म व्य घातो हवन इत्यनुवर्तते योऽभ्युपगतं हवनकालम्भिनत्ति ततोऽन्यत्र जुहोति तलायमभ्यु पगतकालभेदे दोष उच्यते श्यावोऽस्थाहु. तिमभ्यवहरति य उदिते जुहोति तदिदं विधिनशे निन्दावचनमिति॥
अनवादोपपत्तेश्च ॥ ५६ ॥
पुनरुक्तदोषोऽभ्यासे नेति प्रकृतम् । अनर्थकोऽभ्यासः पुनरुक्तः अर्थ वानभ्यासोऽनुवादः योऽयमभ्यासस्त्रिः प्रथमामन्वाह विरुत्तमामित्यनुवाद उपपद्यते अर्थवत्वात् । विर्वचनेन हि प्रथमोत्तमयोः पञ्चदशत्वं सामिधेनोनाम्भवति । तथाच मन्त्राभिवादः । इदमहं भाव्यं पञ्चदशावरेण वाग्वज्वेण वाधे योऽस्मान् देष्टि यञ्च वयं विम इति पञ्चदशमामिधेनीर्वज मन्नोऽभिवदति तदभ्यासमन्तरेण न स्यादिति ।
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२ अध्याये २ आह्निकम् । वाक्यविभागस्य चार्थग्रहणात् ॥ ६ ॥
प्रमाणं शब्दो यथा लोके विभागच ब्राह्मणवाक्यानां विविधः ॥ विध्यर्थवादानुवादवचनविनियोगात् ॥ ६१ ॥
विधा खलु ब्राह्मणवाक्यानि विनियुक्तानि विधिवचनानि अर्थवादवचनान्यनुवादवचनानीति तल ॥
विधिविधायकः ॥ ६२॥
यहाक्यं विधायकं चोदकं स विधिः । विधिस्त नियोगोऽनुज्ञा वा यथाग्निहोलं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादि ॥ स्तुतिनिन्दा परकृति: पुराकल्प इत्यर्थवादः ॥६॥
विधेः फलवादलक्षणा या प्रशंसा सा स्तुतिः सम्प्रत्ययार्थ स्तूयमानं श्रद्दधीतेति प्रवर्तिका च फलश्रवणात् प्रवर्तते । सर्वजिता वै देवाः सर्वमजयन् सर्वखात्यै सबै स्थ.जित्यै सर्वमेवैतेनासोति सबै जयतीत्येवमादिः । अनिष्टफलवादो निन्दा वजनार्थ निन्दितं न समाचरेदिति । म एष वा प्रथमो यज्ञो यज्ञानां यज्क्योतिष्टोमो य एतेनानिष्ट्वाऽन्ये न यजते गर्ने पतत्ययमेवैतज्जीर्यते वा इत्येवमादि। अन्यकर्ट करय व्याहतस्य विधेर्वादः परकृतिः । हुत्वावपामेवाऽभिधारयन्ति अथ पृषदाज्य बदुह चरकाध्वर्यवः पृषदाज्य मेवाऽभिधारयन्ति । अग्ने : प्राणाः पृषदाज्यं स्तोममित्येवमभिदधती त्येवमादि । ऐतिह्यसमाचरितो विधिः पुराकल्प इति । तम्माहा एतेन ब्राह्मणा हविः पवमानं मामस्तोमतोषन् योने यज्ञ प्रतनवामह इत्येवमादिः । कथं परतिपुराकल्पो अर्थवादाविति । स्तुतिनिन्दावाक्येनाभिसम्बन्धाद्दिध्यात्रयस्य कस्य कस्यचिदर्थस्य द्योतनादर्थवाद दति॥
विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः ॥ ६४ ॥
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न्याय दर्शनवात्स्यायनभाष्ये
विध्य नुवचनञ्चानुवादो विहितानुवचनञ्च, पूर्वः शब्दानुवादोऽपरो
नुवादः । यथा पुनरुक्तं विविध मेयमनुवादोऽपि। किमर्थं पुन वि. हितमनद्यते, अधिकारार्थम्, विहितमधिकृत्य स्तुतिबाध्यते निन्दा वा विधिशेषो वाभिधीयते । विहितानन्तरार्थोऽपि चानुवादो भवति । एवमन्य दम्य त्प्रेक्षणीयम् । लोकेऽपि च विधिरर्थवादोऽनुवाद इति च त्रिविधं वाक्यम्। अोदनं पचेदिति विधिवाक्यम् । अर्थवाद वाक्यमायुर्वचों बलं सुखं प्रतिभानजान्ने प्रतिष्ठितम् । अनुवादः पचतु पचतु भवानित्यभ्यासः क्षिप्रं पच्यतामिति वा, अङ्ग पच्यतामित्यध्ये षणार्थम् । पच्यतामेवेति वाऽवधारणार्थम् । यथा लौकिके वाक्ये विभागेनार्थग्रहणात् प्रमाणत्व मेवं वेदवाक्या नामपि विभागेनार्थग्रहणात् प्रमाणत्वं भवितु. महतीति ॥ नानुवादपुनरुक्तयोर्विशेषः शब्दाभ्यासोपपत्तेः॥६५
पुनरुतमसाधु, साधरनुवाद इति अयं विशेषो नोपपद्यते । कस्मात् उभयत्र हि प्रतीतार्थः शब्दोऽभ्य स्यते चरितार्थस्य शब्दसाभ्यासादुभयमसाध्विति ॥
शीघ्रतरगमनोपदेशवदभ्यासान्नाविशेषः ॥६६॥
नानुवाद पुनरुक्तयोरविशेषः । कस्मात् । अर्थ वदभ्यासस्थानुवादभावात् समानेऽभ्यासे पुनरुतमनर्थकम् । अर्शवाजभ्यासोऽनुवादः । शीधतरगमनोपदेशवत् । शीघ्रं शीघ्र गम्यतां शीनतरं गम्यतामिति क्रियातिशयोऽभ्यासेनवोच्चते। उदाहरणार्थञ्चदम् एवमन्येाऽप्यभ्यासः। पचति पचतोति क्रियानपरमः | ग्रामो ग्रामो रमणीय इति व्याप्तिः । परिपरि विगर्नेभ्यो दृष्टा देव इति परिवर्जनम्, अध्यधि कुचं निषणमिति सामीप्यम् । तिनं तितमिति प्रकारः । एवमनवादस्य स्तति निन्दा. शेषविधिष्वधिकारार्थता विहितार्थता चेति । किं पुनः प्रतिषेधहेतद्वारादेव शब्दस्य प्रमाणत्वं न सियति ||
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२ अध्याये २ आह्निकम्
मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामा
ण्यात् ॥ ६७ ॥
ટ
किं पुनरायुर्वेदस्य प्रामाण्यं यदायुर्वेदेनोपदिश्यते इदं कृष्टमधिगच्छति इदं बञ्जयित्वऽनिष्टं जहाति तस्यानुष्ठीयमानस्य तथाभावः सत्यार्थताऽविपर्य्ययः, मन्त्रपदानाञ्च विषभूताऽथनिप्रतिषेधार्थानां प्रयोगेऽर्थस्य तथाभावः एतत्प्रामाण्यं किं कृतमेतत् । श्राप्तप्रामाण्यकृतम् । किं पुनराप्तानां प्रामाण्यम् साक्षात्कृतधर्मता भूतदया यथाभूतार्थचिख्यापयिषेति | श्राप्ताः खलु साक्षात्कृतधर्माणः इदं हातव्यमयमस्य हानिहेतुरिदमस्याधिगन्तव्य मयमस्वाधिगमहेतुरिति भूतान्यनुकम्पन्ते । तेषां खलु वै प्राणभ्टतां स्वयमनवबुध्यमानानां नान्यदुपदेशादवबोधकारणमस्ति, न चानववोधे समीहा बर्जनं वा, नवाऽकृत्वा स्वस्तिभावः, नाप्यस्यान्य उपकारकोऽप्यस्ति | हन्त वयमेभ्यो यथादर्शनं यथाभूतमुपदिशाम स्त इमे श्रुत्वा प्रतिपद्यमाना हेयं हायन्त्यधिगन्तव्यमेवाधिगमिष्यन्तीति । एवमाप्तोपदेशः एतेन त्रिविधेनातप्रामाण्येन परिग्टहीतोऽनुष्ठीयमानोऽर्थस्य स्वाधको भवति । एवमाप्तोपदेशः प्रमाणमेवमाप्ताः प्रमाणम् । दृटार्थेनालोपदेशेनायुर्वेदेनादृष्टार्थो वेदभागोऽनुमातव्यः प्रमाणमिति श्राप्तपामाण्यस्य हेतोः समानत्वादिति, यस्यापि चैकदेशो ग्रामकामो यजेतेत्येवमादिईष्टार्थस्तेनानुमातव्यमिति । लोके च भूयानुपदेशाश्रयो व्यवहारः । लौकिकस्याप्य ुपदेष्टुरुपदेष्टव्यार्थ ज्ञानपरानुजिघृचया यथाभूतार्थ चिख्यापयिषया च प्रामाण्यम् । तत्परिग्रहादाप्तोपदेशः प्रमाणमिति द्रष्टुमवक्कु मामान्याञ्चानुमानम् । य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रम्टतीनामित्यायुर्वेदप्रामाण्यवद्देदप्रामाण्यमनुमातव्यमिति । नित्यत्वाद्वेदवाक्यानां प्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादित्ययुक्तम् शब्दस्य वाचकत्वादर्थप्रतिपत्तौ प्रमाणत्वं न नित्यत्वात् नित्यत्ये हि सर्व्वख सर्वे वचना छब्दार्थ व्यवस्थानुपपत्तिः । नानित्यत्वे वाचकत्वमिति चेत् न लौकिकेष्वदर्शनात्, तेऽपि नित्या इति चेत् न अनाप्तोपदेशादर्थ विसंवादो
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये ऽनुपपन्नः । नित्यत्वाद्धि शब्दः प्रमाण मिति अनित्यः स इति चेत् अविशेषवचनम् अनाप्तोपदेशो लौकिको न नित्य इति कारणं वाच्यमिति । यथानियोगञ्चार्थस्य प्रत्यायनान्नामधेयशब्दानां लोके प्रामाण्यम् नित्यत्वात्प्रामाण्यानुपपत्तिः । यत्रार्थे नामधेयशब्दो नियुज्यते लोके तस्य नियोगसामर्थ्यात् प्रत्यायको भवति न नित्यत्वात् मन्वन्तरयुगान्तरेषु चातीतानागतेषु सम्प्रदायभ्यासप्रयोगाविच्छे दो वेदानां नित्यत्वम् अाप्तप्रमाण्याच्च प्रामाण्यम् लौकिकेषु शब्देषु चैतत् समानमिति ॥
इति वात्स्यायनीये न्यायभाष्ये हितोयाध्यायस्याद्यमाह्निकम् ॥
अयथार्थः प्रमाणोद्देश इति मत्वाह ।
न चतुष्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्॥१॥
न चत्वार्ये व प्रमाणानि, किन्तर्हि, ऐतिद्यमापत्ति: सम्भवोऽभाव इत्येतान्यपि प्रमाणानि, इति होचुरित्यनिर्दिष्ट प्रवल कम्प्रवाद पारम्प. य॑मैतिह्यम्, अर्यादापत्तिरपत्तिः आपत्तिः प्राप्तिः प्रसङ्गः। यत्राभिधीयमानेऽर्थे योऽन्योऽर्थ : प्ररुज्यते सोऽर्थापत्तिः । यथा मेघेष्वसत्स दृष्टिन भवतीति किमत्र प्रसज्यते सतत भवतीति । सम्भवो नाम अविनाभाविनोऽर्थस्य सत्ताग्रहणादन्यस्य सत्ताग्रहणम् । यथा द्रोणस्य सत्तापहणादाढ कस्य सत्तायहणम् अाढ कस्य सत्ताग्रहणात्मस्थखेति । अभावो विरोधी अभूतं भूतस्य, अविद्यमानं वर्षकर्म विद्यमानस्य वावधसंयोगस्य प्रतिपादकम् विधारके हि वाय्वभ्वसंयोगे गुरुत्वादपा पतनकर्म न भवतीति । सत्यमेतानि प्रमाणानि न त प्रमाणान्तराणि प्रमाणान्तरञ्च मन्यमानेन प्रतिषेधः उच्यते सोऽयम् ।
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२ अध्याये २ आङ्गिकम्।
शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ॥२॥
अनुपपत्रः प्रतिषेधः कथम् प्राप्तोप्रदेशः शब्द इति न च शब्द लक्षणमैतिह्याद्यावर्तते सोऽयं भेदः सामान्यात संग्टह्यत इति । प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य सम्बद्धस्य प्रतिपत्तिरनुमानम्, तया चार्थापत्तिसम्भवाभावाः, वाक्यार्थसम्प्रत्यये नानभिहितस्थार्थस्य प्रत्य नीकमावागहणमर्थापत्तिरनुमानमेव,अविनाभाववृत्त्या च सम्बद्धयोः समुदायसमुदायिनोः समदायेनेतरस्य ग्रहणं सम्भवः । तदप्यनुमानमेव । अस्मिन् सतीदं नोपपद्यत इति विरोधित्वे प्रसिद्दे कार्थानुत्पत्त्या कारणस्थ प्रतिबन्धकमनमीयते सोऽयं यथार्थ एव प्रमाणोद्देश इति सत्यमेतानि प्रमाणानि न त प्रमाणातराणीत्युकम् । अवार्थापत्तेः प्रमाणमावाभ्यनज्ञा नोपपद्यते तथाहीयम् ॥ अर्थापत्तिरप्रमाणमनैकान्तिकत्वात् ॥३।
असम मेघेषु दृष्टिन भवतीति सत्म भवतीत्येतदर्थादापद्यते सत्खपि चैकदा न भवति मेयमर्था पत्तिरप्रमाणमिति | नानकान्तिकत्वमर्थापत्तेः॥ अनर्थापत्तावर्थापत्त्यभिमानात् ॥४॥
पति कारणे कार्यबोत्पद्यते इति वाक्यात् . प्रत्यनोकभूतोऽर्थः सति कारणे कार्य मुत्पद्यत इत्यर्थादापद्यते अभावस्य हि भावः प्रत्यनीक इति । सोऽयं कार्योत्पादः सति कारणेऽर्थादापद्यमानो न कारणस्य सत्ता व्यभिचरति न खल्वमति कारणे कार्यमुत्पद्यते तस्मानानै कान्निकी यत्त सति कारणे निमित्तप्रतिबन्धात् कार्यवोत्पद्यत इति कारणधर्मोऽसौ न त्वर्थापत्तेः प्रमेयं किन्ना स्थाः प्रमेयम् मति कारणे कार्यमुत्पद्यत इति योऽसौ कार्योत्पादः कारणय सत्तां न व्यभिचरति एतदस्याः प्रमेयम् । एवन्तु सति अनर्था पत्तावर्था पत्त्य भिमानं लत्वा प्रतिषेध उच्यत इति । दृष्टश्च कारणधम्मो न शक्यः प्रत्याख्यामिति ॥
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६४ न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये प्रतिषेधाप्रामाण्यच्चानैकान्तिकत्वात् ॥ ५॥
अर्था पत्तिन प्रमाणमनै कान्तिकत्वादिति वाक्यम् प्रतिघेधः तेनानेनार्थापत्तेः प्रमाणत्व प्रतिषिड्यते न सद्भावः एवमनैकान्तिको भवति अनेकानिकत्वादप्रमाणेनानेन न कश्चिदर्थः प्रतिषियते इति । अथ मन्य में नियत विमयेष्वर्थे ष स्वविषये व्यभिचारो भवति न च प्रतिषेधस्यासद्भावो विषयः एवन्नहि॥
तयामाण्ये वा नार्थापत्यप्रामाण्यम् ॥६॥
अर्था पत्तेरपि कार्योत्म देन कारणसत्ताया अव्यभिचारो विषयः न च कारणधो निमित्त प्रतिबन्धात् कार्यानुत्य दत्वमिति । अभावस्य तहि प्रमाणभावाभ्यनुज्ञा भोपपद्यते कथमिति ॥
- नाभावपामाण्यम्प्रमेयासिद्धेः ॥७॥
यभावस्य भूयसि प्रमेये लोकसि वैजात्यादुच्यते नाभावग्रामाण्यम् प्रमेयासिद्धेरिति अथाऽयमर्थबहुत्वादथै कदेश उदाहियते ॥
लक्षितेष्वलक्षणलक्षितत्वादलक्षितानां तत्प्रमेयसिद्धेः॥८॥
वस्थाभावस्य सिद्यति प्रमेयम्, कथम् लक्षितेषु वासस्सु अनुपादेयेषु उपादेया नामलक्षितानां लक्षणलक्षितत्वात् लक्षणाभावेन लक्षितत्वादिति । उभयविधावलक्षितानि वासांस्थानयेति प्रयुक्तो येषु वासस्सु लक्षणानि न भवन्ति तानि लक्षणाभावेन प्रतिपद्यते प्रतिपद्य चानयति प्रतिपत्तिहेतच प्रमाणमिति ।
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२ अध्याये २ अह्निकम् ।
सत्यर्थे नाभाव इति चेन्नान्यलक्षणोपपत्तेः ॥६॥
'च वातस्म
यत्र भूत्वा किञ्चिन्न भवति तत्र तस्याभावः उपपद्यते | कालचितेषु णान भूत्वा न भवन्ति तस्मात् तेषु लक्षणाभावोऽनुपपन्न इति नान्यलचणोपपत्तेः यथायमन्येषु वासः सु लचणानामुप पत्तिम्पश्यति नैवमलच्चितेषु सोऽयं लक्षणाभावं पश्यमभावेनार्थम्प्रतिपद्यते इति ॥
तत्सिद्द रलक्षितेष्वहेतुः ॥ १० ॥
तेषु वासः खचितेषु सिद्धिर्विद्यमानता येषां भवति न तेषामभावो लक्षणानाम्, यानि च लचितेषु विद्यन्ते लचणानि, तेषामलचितेष्वभाव इत्यहेतुः । यानि खल भवन्ति तेषामभावो व्याहत इति ||
७
न लक्षणावस्थितापेक्षसिडः ॥ ११ ॥
न ब्रूमो यान लचणानि भवन्ति तेषामभाव इति । किन्तु केषुचिः लक्षणान्यवस्थितानि अनवस्थानि केषुचिदपेच्तमाणेो येषु लचणानां भावं न पश्यति तानि लक्षणाभावेन प्रतिपद्यत इति ॥
ܘ
प्रागुत्पत्तेरभावोपपत्तेश्च ॥ १२ ॥
व्यभावद्द' तं खलु भवति प्राक् चोत्पत्तेरविद्यमानता उत्पन्नस्य चात्मनो हानादविद्यमानता, तबालचितेषु वासःसु प्रागुत्पत्तेरविद्यमानता लक्षणो लक्षणानामभावो नेतर इति । श्राप्तोपदेशः शब्द इति प्रमाणभावे विशे ब्रुवता नानाप्रकारः शब्द इति ज्ञाप्यते तखिन् सामान्येन विचारः किं नित्योऽथा नित्य इति ॥
षणं
त्रिमहेत्वनुयोगे च विप्रतिपत्तेः संशयः ॥ १३॥
वाकाशगुणः शब्दो विभुर्नित्योऽभिव्यक्तिधर्मक इत्येके, गन्धादिसहष्टत्तिर्द्रव्येषु सन्निविष्टो गम्बादिवदवस्थितोऽभिव्यक्तिधर्मक इत्यपरे,
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न्यायदर्शनवात्यायनभाव्ये
अाकाश गुणः शब्द उत्पत्तिनिरोधधर्मको बुद्धिवदित्यपरे, महाभू तससो. भज: शब्दोऽनाश्रित उत्पत्तिधर्मको निरोधधर्मक इत्यन्ये, अतः संशयः किमत्र तत्त्वमिति, अनित्यः शब्द इत्युत्तरम्, कथम् ॥
आदिमत्वादैन्द्रियकत्वात् कृतकवदुपचाराच॥१४
अादियोनिः कारणम्, आदीयतेऽसादिति कारणवद नित्यं दृष्टम् संयोगविभागजच शब्दः कारणवत्वादनित्य इति, का पुनरियमर्थ देशना कारण वदिति उत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः शब्द इति । भूत्वा न भवति विनाधर्भक इनि, सांयिक मेतत् किसत्पत्तिकारणं संयोगविभागौ शब्दस, पाहोखिदभिव्यनिकारणमित्यत आह । ऐन्द्रियकत्वात् इन्द्रियप्रत्यासत्तिग्राह्य ऐन्द्रियः । किमयं व्यञ्जकेन समानदेशोऽभिव्यज्यते रूपादिवत् । अथ संयोगजाच्छब्दाच्छब्दसन्ताने सति श्रोत्र प्रत्यासनो ग्ट ह्यत इति, संयोगनिवृत्तौ शब्दग्रहणान्न व्य जोन समानदेशस्य पहगम् । दारुबचने दारुपरशुसंयोगनिरत्तो दूरस्थेन शब्दो ग्टह्यते न च व्यञ्जकाभावे व्यङ्गयस्य ग्रहणं भवति, तम्म व व्यञ्ज कः संयोगः । उत्पादके तु संयोगे संयोगजाच्छदाच्छब्दसन्नाने सति श्रोत्रप्रत्यासनस्य यहणमिति । इतव शब्द उत्पद्यते नाभिव्य ज्यते कृतकवटुपचारात् तीन मन्दमिति कतकमुपचर्यते तीब सुखं मन्दं सुखं तीबदुःखं मन्दं दुःख. मिति उपचर्यते च तीब्रः पदो मन्दः शब्द इति। व्याकस्य तथाभावाद्ग्रहणस्य तीब्रमन्दता रूपवदिति चेन्न अभिभवोपपत्तेः संयोगस्य व्यञ्जकस्य तीब्रमन्दतया शश्यहणस्य तीव्रमन्दता भवति न तु शब्दो भिद्यते यथा प्रकाशस्य तीव्र मन्दतया रूपपणस्येति तच्च नैवम् अभिभवोपपत्तेः, तीब्रो भेरी शब्दो मन्दं तन्वीपब्दमभिभवति न मन्दः, न च शब्दपहणमभिभावकं शब्दश्च न भिद्यते शब्द त मिद्यमाने युक्तोऽभिभवः तस्म दुत्पद्यते शब्दो नाभिव्यज्यत इति, अभिभवानुपपत्तिश्च व्य नकसमानदेशस्थाभिव्यक्ती मायभावात् व्यञ्जकेन समान देशोऽभिव्य ज्य ते शब्द इत्येतस्मिन् पक्षे नोपपद्यतेऽभिभवः, न हि भेरीशब्द न तन्वीखनः प्राप्त इति, अप्राप्त अभिभव इति चेत् शब्दमावाभिभवप्रसङ्गः । अथ मन्येता
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१ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
ऽसत्यां प्राप्तावभिभवो भवतीति । एवं सति यथा भेरीशब्दः कश्चित्तन्वीखनमभिभवति । एवमन्निकस्योपादानमिव दवीयस्थोपादानमपि तन्वीखनं नाभिभवेत् अमाप्त रविशेषात् तत्र कश्चिदेव भेया प्रणादितायां सर्वलोकेषु समानकालास्तन्त्रीखना न श्रूयेरन् इति ॥ नानाभूतेषु शब्दसन्नानेषु सत्सु श्रोत्रप्रत्यासत्तिभावेन कस्यचिच्छब्दस्य तीने ण मन्दस्वाभिभवो युक्त इति । कः पुनरयमभिभवो नाम पाह्यसमानजातीयग्रहणमभिभवः । यथोल्काप्रकाशस्य ग्रहणाहस्यादित्य प्रकाशे नेति ॥
न घटाभावसामान्यनित्यत्वात् नित्येष्वष्यनित्यवदुपचाराच्च ॥ १५॥
न खलु आदिमत्त्वादनित्यः शब्दः, क सात् व्यभिचारात् आदिमतः खलु घटाभावस्य दृष्टं नित्यत्वम्, कथमादिमान् कारण विभागेभ्यो हि घटो न भवति कथमस्य नित्यत्वं योऽसौ कारणविभागेभ्यो न भवति न तस्याभावो भावेन कदाचिनिवर्त्यत इति, यदप्यन्द्रियकत्वात् तदपि गभिचरति । ऐन्द्रियकञ्च सामान्य नित्यञ्चेति, यदपि कृतकवदुपचारादिति तदपि व्यभिचरति निस्येष्वनित्यवदुपचारो दृष्टः यथा हि भवति क्षय प्रदेश: कम्बलस्य प्रदेशः एवमाका शस्य प्रदेशः आत्मनः प्रदेश इति भवतीनि॥
तत्त्वभाक्तयोर्नानात्वविभागादव्यभिचारः ॥ १६॥
नित्यमित्यत्र किं तावत्तत्त्वम् । आत्मान्तरस्थानुत्पत्तिधर्मकस्थात्महा. नानु पत्तिनित्य त्वम् । तच्चाभावे नोपपद्यते, भात तु भवति यत्तवात्मा न महानासीत् यद्भूत्वा न भवति न जातु तत् पुनर्भवति तत्रानित्य इव नित्यो घटाभायो दूत्वर्ण पदार्थ इति, तत्व यथाजातीयकः शब्दो न तथा. जातीयकं कार्य किञ्चिनित्यं दृश्य त इत्यव्यभिचारः । यदपि सामान्यनित्यत्व दिति इन्द्रियप्रत्यासत्तिग्राह्यमैन्द्रिय कमिति ॥
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६८
न्यायदर्शनवात्स्यायनभावे
सन्तानानुमानविशेषणात् ॥ १७ ॥
नित्ये व्यभिचार इति प्रकृतम् । नेन्द्रियग्रहणसामर्थ्याच्छन्दस्यानित्यत्वं किन्त न्द्रियमत्यासत्तिग्राह्यत्वात् सन्तानानुमानं तेनानित्यत्वमिति यदपि नित्येष्वप्यनित्यत्ववदुपचारादिति न ||
कारणद्रव्यस्य प्रदेशशब्देनाभिधानान्नित्येष्वप्यव्यभिचार इति ॥१८॥
:
एवमाकाशप्रदेश श्रात्मप्रदेश इति नात्वाकाशात्मनोः कारणद्रव्य मभिधीयते यथा कृतकस्य, कथं ह्यविद्यमानमभिधीयते विद्यमानता च प्रमाणतोऽनुपलब्ध ेः किन्नर्हि तत्त्राभिधीयते संयोगस्याव्याप्यत्तित्वम् परिच्छिन्नेन द्रव्येणाकाशस्य संयोगो नाकाशं व्याप्नोति व्यव्याप्य वर्त्तत इति, तदस्य कृतकेन द्रव्येण सामान्यम् नह्यामलकयोः संयोग श्राश्रयं व्याप्रोति सामान्यक्कृता च भक्तिराकाशस्य प्रदेश इति । अनेनात्मप्रदेशो व्याख्यातः संयोगवन्च शब्दबुद्ध्यादीनामव्याप्यवृत्तित्वमिति । परीक्षिता च तीव्रमन्दता शब्दतत्त्व ं न भक्तिक्कतेति । कस्मात् पुनः सूत्रकारस्या निर्थे
लं न श्रूयत इति, शीलमिदं भगवतः सूत्रकारस्य बहुष्वधिकरणेषु हौ पच्चौ न व्यवस्थापयति तत्र शस्त्र सिद्धान्तात् तत्वावधारणं प्रतिपत्त - मर्हतीति मन्यते शास्त्रसिद्धान्तस्तु न्यायसमाख्यातमनुमतं बहुशाखमनुमानमिति । अथापि खल्विदमस्ति इदं नास्तीति कुत एतत् प्रतिपत्तव्यमिति प्रमाणत उपलब्धेरनुपलब्धेश्च ति । श्रविद्यमानस्तर्हि शब्दः ॥
प्रागुच्चारणाद्यनुपलब्ध रावरणाद्यनुपलब्धेश्च ॥२८॥
प्रागुच्चारणान्नास्ति शब्दः । कस्मात् | अनुपलब्धेः सतोऽनुपलब्धिरावणादिभ्य एतनोपपद्यत कस्मात् श्रावरणादीनामनुपलब्धिकारणानामग्रहणात् । अनेनावृतः शब्दो नोपलभ्यते सनिश्चेन्द्रियव्यवधा
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ܟ
२ अध्याये २ किम् ।
मादित्येवमादि नुपलब्धिकारणं न ग्टहात इति सोऽयमनुचारितो नास्तीति, उच्चारणमस्य व्यञ्जकं तदभावात् प्रागुच्चारणादनुपलब्धिरिति । किमिदमुच्चारणं नामेति । विवचाजनितेन प्रयत्नेन कोष्ठस्य वायोः परितस्य कण्ठताल्व दिप्रतिघातः । यथास्थानं प्रतिघाताद्दर्णाभिव्यक्तिरिति । संयोगविशेषो वै प्रतिषतः प्रतिषिद्धञ्च संयोगस्य व्यञ्चकत्वम् । तस्मान्न व्यञ्जकाभावादग्रहणम् अपि त्वभावादेवेति सोऽयमुच्चार्यमाणः श्रयते श्रयमाणश्च भूत्वा भवतोति श्रनुमीयते ऊर्ध्वं चोच्चारणाच्छ्रयते स भूत्वा न भवतीति अभावान्न श्रयत इति कथं वावरणाद्यनुपलब्धेरित्यक्त तस्मादुत्पत्ति तिरोभावधर्मकः शब्द इति एवञ्च सति तव पांशुभिरिवावाकिरन्निदमाह ॥
तदनुपलब्ध ेरनुपलम्भादावरणोपपत्तिः ॥ ५० ॥
६१
यद्यनुपलम्भादावरणं नास्ति आवरणानुपलब्धिरपि तर्ह्यनुपलम्भानास्तीति तस्या अभावादप्रतिषिद्धमावरयमिति कथं पुनर्जानीतेऽभात्रानावरणानुपलब्धिरुपलभ्यत इति किमत्र ज्ञेयं प्रत्यात्मवेदनीयत्वात् समानम् अयं खल्वावरणमनुपलभमानः प्रत्यात्ममेव संवेदयते नावरणमुपलम्भ इति यथा कुये नाष्टतस्यावरणमुपलभमानः प्रत्यात्ममेव संवेदयते सेयमावरणोपलब्धिवदावरणानुपलब्धिरपि संवेद्येवेति एवञ्च सत्यपहृत विषयसुत्तरवाक्यमस्तीति व्यभ्यनुज्ञावादेन तूच्यते जातिवादिना ॥
अनुपलम्भादप्यनुपलब्धिसङ्गाववन्नावरणानुप
पत्तिरनुपलम्भात् ॥ २१ ॥
यथानुपलभ्यमानाऽय्यावरणानुपलब्धिरस्ति एवमनुपलभ्यमानमप्यावरणमस्तीति यद्यभ्यनुजानाति भवाननुपलभ्यमानाम्यावरणानुपलब्धिरस्ति एवमनुपलभ्य मानमभ्यावरणमस्तीति । यद्यभ्यनुजानाति न चानुपलभ्यमाना नावरणानुपलब्धिर स्तोति श्रभ्यनुज्ञाय च वदति नाख्यावरणमनुपलम्भादिति । एतब्रिभ्यभ्यनुज्ञावादे प्रतिपत्तिनियमो नोपपद्यत इति ॥
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्ध रहेतुः ॥ २२ ॥
यदुपलभ्यते तदस्ति यनोपलभ्यते तन्नास्तीति अनुपलम्भात्मकमसदिति व्यवस्थितम् उपलब्धाभावश्चानुपलब्धिरिति सेयमभावत्वानोपलभ्यते सच्च खल्वावरणं तस्योपलब्धधा भवितव्य म्। न चोपलभ्य ते तमानास्तीति । तच्च यदुक्तं नावरणानुपपत्तिरनुपलम्भादित्ययक्तमिति अथ शब्दस्य नित्यत्वं प्रतिजानानः करम द्धयोः प्रतिजानीते ॥
अस्पर्शत्वात् ॥ २३॥
अस्प शनाकाशं नित्यं दृष्ट मिति तथा च शब्द इति सोऽयमुभयतः स. व्य भिचारः स्पर्श यांचाणनित्यः अस्यञ्च कर्माऽनित्य दृष्टं असत्यादित्येतस्य साध्यसाधयणोदाहरणम् ॥ न कर्मानित्यत्वात् ॥ २४॥
साध्यवैधर्म्य णोदाहरणम् ॥ नाणुनित्यत्वात् ॥ २५॥
उभयस्मिन्नदाहरणे व्यभिचारान हेतुः । अयन्न ह हेतुः ॥ सम्प्रदानात् ॥ २६ ॥
सम्पदीयमानमवस्थितं दृष्टम्, सम्प्रदीयते च शब्द प्राचार्येणान्नेवासिने तस्मादव स्थित इति ॥
तदन्तरालानुपलब्ध रहेतुः ॥२७॥
येन सम्प्रदीयते यस्मै च तयोरन्तरालेऽवस्थानमस्य केन लिङ्गेनोपलभ्यते सम्पदीयमानो ह्यवस्थितः सम्प्रदातरपैति सम्प्रदानञ्च प्रामोतीत्यवर्जनीयमेतत् ॥
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२ अध्याये २ आशिकम् ।
अध्यापनादप्रतिषेधः ॥ २८॥
अध्यापन लिङ्ग असति सम्पदानेऽध्यापनं न स्यादिति ॥ उभयोः पक्षयोरन्यतरस्थाध्यापनादप्रतिषेधः॥२६॥
समानमध्यापनमुभयोः पक्षयोः संशयानतिहत्तेः किमाचार्यस्थः शब्दोऽन्तेवासिनमा पद्यते तदध्यापनम् । . आहोखिनत्योपदेशवह होतस्यानुकरणमध्यापनमिति । एवमध्यापनमलिङ्ग सम्पद नस्येति । अयनहि हेतुः॥
अभ्यासात् ॥ ३०॥
अभ्यस्यमानमवस्थितं दृष्टम् पञ्चकत्वः पश्यतीति, रूपमवस्थित पुनः पुनई श्यते, भवति च भब्देऽस्यामः,दशरुत्वोऽधीतोऽनुवाको विंशतिकत्वोऽधीत इति, तस्मादवस्थितस्य पुनः पुनरुच्चारणमभ्यास इति ॥
नान्यत्वेऽप्यभ्यासस्योपचारात् ॥ ३१ ॥
अनवस्थानेऽप्यभ्यासस्थाभिधानं भवति । दित्यत भवान् नित्यत भवानिति, हिरन्टत्यत् निरन्टत्यत् हिरग्निहोत्रं जुहोति हित एवं व्यभिचारात् प्रतिषिद्धहेतावन्य शब्दस्य प्रयोगः प्रतिषिध्यते ॥
अन्यदन्यस्मादनन्यत्वादनन्यदित्यन्यताऽभावः ॥३२॥
यदिदमन्यदिति मन्यसे तत् स्वार्थेनानन्यत्वादन्यन्न भवति । एवमन्यताया अभावः, तत्र यदुक्कमन्यत्वेऽप्यभ्यासोपचारादित्येतदयुक्तमिति शब्द प्रयोग प्रतिषेधतः शब्दान्तरप्रयोगः प्रतिषिध्यते ॥ तदभावे नास्त्य नन्यता तयोरितरेतरापेक्षसिद्धेः
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
अन्य साद न्यतामुपादयति भवान् उपपाद्य चान्यत् प्रत्याचष्टे चनन्यदिति च शब्दमनुजानाति प्रयुत चानन्यदिति । एतत् समासपदमन्यशब्दोऽयं प्रतिषेधेन सह समस्यते यदिचानोत्तरं पदं नास्ति कस्यायं प्रतिषेधेन सह समासः, तस्मात्तयोरनन्यान्यशब्दयोरितरोऽनन्यशब्द इतरमन्यशब्दमपेक्षमाणः सियतीति तत्र यदुक्तमन्यताया अभाव इत्येतदयुक्तमिति, अस्तु तहौंदानौं शब्दस्य नित्यत्वम् ॥
विनाशकारणानुपलब्धः ॥ ३४ ॥
यद नित्यं तस्य विनाशः कारणाद्भवति यथा लोष्टस्य कारणद्रव्यविभागात्, शब्दश्चेदनित्यस्तस्य विनाशो यस्मात् कारणाद्भवति तदुपलभ्येत न चोपलभ्यते तखाचित्य दूति ॥
अथवणकारणानुपलब्धः सततश्रवणप्रसङ्गः३५
यथा विनाशकारणानुपलब्धेरविनाश प्रसङ्गः । एवमत्रवणकारणानुपलब्धेः सततं श्रवण प्रसङ्गः । व्यञ्जकाभावादश्रवणमिति चेत् प्रतिषिधम् ध्य अकम् । अथाविद्यमानस्य निर्निमित्त श्रवणमिति विद्यमानस्य निर्निमित्तो विनाश इति समान दृष्टविरोधो निमित्तमन्तरेण विनाशे चारवणे चेति || . उपलग्यमाने चानुपलब्ध रसत्वादनपदेशः ॥३६॥
अनुमानाच्चोपलभ्यमाने शब्दस्य विनाशकारणे विनाशकारणानुपलधे रसत्वादित्यनपदेशः । यस्माहिषाणी तस्मादश्व इति किमनुमानमिति चेत् सन्नानोपपत्तिः उपपादितः शब्दसन्तानः संयोगविभाग जाच्छब्दाच्छब्दान्तरं ततोऽप्यन्यत्ततोऽप्यन्यदिति तल कार्यः शब्दः कारणशब्द निरुणद्धि प्रतिघातिद्रव्यसंयोगस्वन्त्यस्य शब्दस्य निरोधकः । दृष्टं हि तिरः प्रतिकुद्यमन्तिकस्थेनाप्य श्रवणं शब्दस्सः श्रवणं दूरस्थेनाध्यसति व्यवधान इति । घण्टाधामभिहन्यमानायां तारस्तारतरो मन्दो मन्दतर इति श्रुतिभेदावानाशब्दमन्तानोऽविच्छ देन श्रयते नव नित्ये शब्द,
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७३
२ श्रध्याये २ वाह्निकम् ।
धण्टास्यमन्यगतं वाऽवस्थितं सन्तान निवृत्तिरभिव्यक्तिकारणं वाच्यम् येन श्रुतिसन्तानो भवतीति शब्दभेदश्वासविश्वतिभेद उपपादयितव्य इवि । नित्ये तु शब्दे घण्टास्यं सन्तानवृत्तिसंयोगसहकारिनिमित्तान्तरं संस्कारभूतं पटुमन्दमिति वर्त्तते तस्यानुवृत्त्या शब्दसन्तानानुवृत्तिः । पथुमन्दभावाञ्च तीव्र मन्दता शब्दस्य, तत्कृतश्च वनिभेद इति न वै निर्निमित्तान्तरं संस्कार उपलभ्यते अनुपलोर्नास्तीति ॥
पाणिनिमित्तप्रश्लेषाच्छब्दाभावे नानुपलब्धिः॥३७॥
पाणिकर्म्मणा पाणिघण्टामशेषो भवति तस्मिंश्च सति शब्दसन्तानो नोपलभ्यते यतः श्रवणानुपपत्तिः । तत्र प्रतिघातिद्रव्य संयोगः शब्दस्य निमित्तान्तरं संस्कारभूतं निरुणङ्घीत्यनुमोयते । तस्य च निरोधा छन्द। सन्तानो नोत्पद्यते अनुत्पत्तौ श्रुतिविच्छेदः । यथा प्रतिघातिद्रव्यसंयोगादिषोः क्रियातौ संस्कारे निरुद्धे गमनाभाव इति कम्पसन्तानस्य स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यस्य चोपरमः कांस्यपात्त्रादिषु पाणिसंश्ले षो लिङ्ग संस्कारसन्तानस्येति, तस्मानिमित्तान्तरस्य संस्कारभूतस्य नानुपलब्धिरिति ॥
विनाशकारणानुपलब्ध श्वावस्थाने तन्नित्यत्वप्रसङ्गः ॥ ३८ ॥
यदि यस्य विनाशकारणं नोपलभ्यते तदवतिष्ठते अवस्थानाञ्च तस्य नित्यत्व' प्रसज्यते । एवं यानि खल्विमानि शब्दश्रवणानि शब्दाभिव्यक्रय इति मतं न तेषां विनाशकारणं भवतोपपाद्यते अनुपपादनादनवस्थानमनवस्थानात् तेषां नित्यत्वं प्रसज्यत इति । अथ नैवन्तर्हि विनाशकारणानुपलब्ध ेः शब्दस्यावस्थानान्नित्यत्वमिति । कम्पसमानाश्रयस्य च नादस्य पाणिप्रश्लेोषात् कम्पवत् कारणोपरमादभावः वैयधिकरण्ये हि प्रतिघातिद्रव्यप्रश्लेषात् समानाधिकरणस्यैवोपरमः स्यादिति ॥
अस्पर्शत्वादप्रतिषेधः ॥ ३८ ॥
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७४
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्य
- यदिदमाकाशगुणः शब्द प्रति प्रतिषिध्यते अयमन पपन्नः प्रतिषेधः अस्पर्शत्वाच्छब्दाश्रयख रूपादिसमानदेशस्थायहणे शब्दसन्तानोपपत्तेरस्पर्श व्यापिद्रव्याश्रयः शब्द इति ज्ञायते न च कम्पसमानाश्रय इति प्रतिद्रव्यं रूपादिभिः सहसनिविष्टः शब्दसमानदेशी व्यज्यत इति नोपमद्यते कथम् ॥
विभक्त्यन्तरोपपत्तेश्च समासे ॥ ४० ॥
सन्तानोपपत्ते चेति चार्थः, तद्याख्यातम् | यदि रूपादयः शब्दाच प्रतिद्रव्यं समस्ताः समुदितास्तमिन् समासे समुदाये यो यथाजातीयकः सन्निविष्टस्तस्य तथाजातीयस्यैव ग्रहणेन भवितव्यं शब्दे रूपादिवत् तत्र योग्यं विभ.ग एकद्रव्ये ननारूपाभिन्न श्वतयो विधर्माणः शब्दा अभिव्यज्यमाना भूयन्ते । यच्च विभागान्तरं सरूपाः समानश्वतयः सधर्माणः शब्दास्नीबमन्दधर्मतया भिन्नाः शू यन्ते तदुभयं नोपपद्यते नानाभतानामुत्पद्यमानानामयं धो नै कस्य व्यज्यमानस्येति । अस्ति चायं विभागो विभागान्तरञ्च तेन विभागोपपत्तेर्मन्यामहे न प्रतिद्रव्यं रूपादिभिः सह शब्दः सन्निविष्टो व्यज्यत इति । विविधचायं शब्दो वर्णात्मको ध्वनिमात्रञ्च, तत्र वर्णात्मनि तावत् ।
विकारादेशोपदेशात् संशयः ॥ ४१॥
दध्यवेति । केचिदिकार इत्वं हित्वा यत्वमापद्यते इति विकार मन्यन्ते । केचिदिकारस्य प्रयोगे विषयकते यदिकारः स्थानं नहाति तत्र यकारस्य प्रयोग व वते । संहित.यां विषये दूकारो न प्रयुज्यते तस्य स्थाने यकारः प्रयुज्यते स आदेश इति । उभयमिदमुपदिश्यते तत्र न जायते किन्तत्त्वमिति । व्यादेशोपदेशस्तषम्। विकारोपदेशे ह्यन्वयस्थाग्रहणादिकारानुमानम् सत्यन्वये किञ्चिविवर्त्तते किञ्चिदुपजायत इति शक्येत विकारोऽनुमातम्, न चान्वयो ग्टह्यते, तस्मा हिकारो नास्तीति, भिन्न करणयोश्च वर्णयोरप्रयोगे प्रयोगोपपत्तिः । वित्तकरण दूकारः
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अध्याये २ अाशिकम् ।
ईषत् स्पष्ट करणो यकारः । ताविमौ पृथक करणाख्ये न प्रयत्नेनोच्चारणीयौ तयोरेकस्या प्रयोगे ऽन्यतरस्य प्रयोग उपपत्र इति अविकारे चाविशेषः । यत्वेमाविकारयकारौ म विकारभूतौ यतते यच्छति प्रायंस्त इति । इकार इदमिति | यत्र च विकारभूतौ इदं व्याहरति उभयत्र प्रयोक्नु रविशेषो यनः, श्रोतुश्च ऋतिरित्यादेशोपपत्तिः । प्रयुज्यमानायहणाच न खल्लिकारः प्रयुज्यमानो यकारतामापद्यमानो ग्टह्यते । किन्तर्हि दूकाास्य प्रयोगे यकारः प्रयुज्यते तस्मादविकार इति । अविकारे च न शब्दावाख्यानलोपः । न विक्रियन्ते वर्णा इति नचैतस्मिन् पक्षे शब्दान्वाख्यानस्यासम्भवो येन वर्णविकारं प्रतिपद्येमहीति न खलु वर्णस्य वर्णान्तरं कार्यम् नहोकाराद्यकार उत्पद्यते यकारादिकारः । पृथस्थान प्रयलोत्पाद्या होमे वर्णास्तेषामन्योन्यस्य स्थाने प्रयुज्यत इति यु कम् । एताबच्चतत् परिणामो विकारः स्यात् कार्यकारणभावो वा उमयञ्च नास्ति तम्मान सन्ति वर्णविकारा वर्ण समुदायविकारानुपपत्तिवच वर्णविकार:तुपपत्तिः अस्ते भूब वो वचिरिति यथा वर्णसनुदायस्य धातुलक्षणस्य कचिद्विधये वर्णान्तरसमुदायो न परिणामो नाकार्य शब्दान्तरस्य स्थाने शब्दान्तरं प्रयुज्यते तथा वर्णस्य वर्णान्तरमिति इतञ्च न सन्ति वर्ण विकाराः।
प्रकृतिविहड्डौ विकारविटद्धेः ॥ ४२॥ प्रकृत्य नु विधानं विक रेषु दृष्टम् । यकारे हखदीर्घानु विधानं नास्ति येन विकारत्वमनुमीयत इति ॥ न्यूनसमाधिकोपलब्धे विकाराणामहेतुः ॥४॥
द्रव्यविकारा न्यू नाः ससा अधिकाच ग्ट हान्ने तहदयं विकारो न्यून: स्थादिति विविधस्यापि हे तोरभावादसाधनं दृष्टान्तः । अत्र नोदाहरण - साधयां खेतस्ति न वैधात् अनुपसंहृतच हेतुना दृष्टान्तो न साधक इति प्रति दृष्टान्ने चानियमः प्रसज्येत । यथाऽनडुहस्थानेऽश्वो बोटु नियुक्तो न तहिकारो भवति, एवमिवर्णस्य स्थाने वकारः प्रयुक्तो न वि. कार इति, न चात्र नियम हेतुरम्ति दृष्टान्तः साधको न प्रतिदृष्टान्त इति, द्रव्यविकारोदाहरण
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
नातुल्यप्रकृतीनां विकारविकल्पात् ॥ ४४ ॥
च्यढल्यातां द्रव्याणां मक्लतिभावो विकल्पते विकारश्च प्रकृतीरनुविधीयते, न तु द्द्रवर्णमनुविधीयते यकारः, तत्मादनुदाहरणं द्रव्यविकार इति ।
द्रव्यविकारे वैषम्यवद्वर्णविकारविकल्पः ॥ ४५ ॥
यथा द्रव्यभावेन तुल्यायाः प्रकृते विकारवैषम्यम्, एवं वर्णभवेन तुल्यायाः प्रकृते विकार विकल्प इति ॥
न विकारधर्मानुपपत्तेः ॥ ४६ ॥
व्ययं विकारधर्मो द्रव्यसामान्ये यदात्मकं द्रव्यं म्टद्दा व वा तस्यात्मनोऽन्वये मूर्ध्वो व्यू हो निवर्त्तते, व्यूहान्तरञ्चोपजायते तं विका रमाचच्छा हे । न वर्णमामान्ये कवि चन्दात्मान्वयी य इत्वं जहाति यत्व - चापद्यते तत्र यथा सति द्रव्यभावे विकारवैषम्ये नानडुहोऽश्वो विकारो विकारधम्मनुपपत्तः, एवभिवर्णस्य न यकारो विकारो विकारधर्मानु पपत्तेरिति । इतञ्च न सन्ति वर्णविकाराः ॥
विकारप्राप्तानामपुनरावृत्तेः ॥ ४७ ॥
•
अनुपपन्ना पुनरापत्तिः । कथम् ।
पुनरापत्तेरननुमानादिति ।
दूकारो यकारत्वमापन्नः पुनरिकारो भवति न पुनरिकारस्य स्थाने यकारस्य प्रयोगोऽपयोगये त्यवानुमानं नास्ति ॥
सुवर्णादौनां पुनरापत्तेरहेतुः ॥ ४८ ॥
अननुमानादिति न दूदं ह्यनुमानम्, सुवर्णं कुण्डलले हित्वा रुचकत्वमापद्यते रुचकत्वं हित्वा पुनः कुण्डलत्वमापद्यते, एवमिकारोऽपि यक्कारत्वमापत्रः पुनरिकारो भवतीति व्यभिचारादननुमानम्, यथा पयो दधिभावमापद्मं पुनः पयो भवति किम्, एवं वर्णानां न पुनरापत्तिः । अथ सुवर्णवत्पुनरापत्तिरिति सवर्णोदाहरणोपपत्तिन ॥
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ध्याये २ प्राधिकम् ।
৩৩
तहिकाराणां सुवर्णभावाव्यतिरेकात् ॥ ४६॥
अवस्थितं सुवर्ण होयमानेनोपजायमानेन धर्मेण धर्मि भवति नैवं कश्चि छब्दात्मा होयमानेने त्वेनोपजायमानेन यत्त्वेन धम्मों ग्टह्यने । तस्मात्मवर्णोदाहरणं नोप्रपद्यत इति । वर्णत्वाव्यतिरेकादर्णविकाराणामप्रतिषेधः ॥५०
वर्णविकारा अपि वर्णत्व न व्यभिचरन्ति । यथा सुवर्ण विकारः सुवर्णत्वमिति ॥ सामान्यवतो धम्र्मयोगो न सामान्यस्य ॥ ५१ ॥
कुण्डलरुचको सुवर्णस्य धम्मौ न सुवर्णत्वस्य एवमिकारयकारौ कस्य वर्गात्मनो धम्मौ वर्णत्व सामान्यं न तस्येमी वयौं भवितुमर्हतः । न च निवर्तमानो धर्म उपजायमानस्य प्रकतिः । तत्र निवर्तमान इकारो न यकारस्योपजायमानस्य प्रातिरिति । इतञ्च वर्णविकारासुपपत्तिः ॥ नित्यत्वे विकारादनित्यत्वे चानवस्थानात् ॥५२
नित्या वर्णा इत्येतस्मिन् पचे दूकारयकारौ वौँ इत्युभयोर्नित्यत्वाहिकारानुपपत्तिः । अनित्यत्वे विमाथित्वात्कः कस्य विकार इति । अथानित्या वर्षा इति पक्षः एवमप्यनवस्थानं वर्णानाम्, किमिदमनवस्थामं वर्णानाम् उत्पद्य निरोधः । उत्पद्य निरु इकारे यकार उत्पद्यते यकारे चोत्पद्य निरुवे दूकार उत्पद्यते इति कः कस्य विकारः तदेतदवग्टह्य सन्धाने सन्धाय चावग्रहे वेदितव्यमिति नित्वपक्षे तु तावत्समाधिः ॥ ___ नित्यानामतीन्द्रियत्वात्तदम्य विकल्पाच्च वणविकाराणामप्रतिषेधः ॥ ५३ ॥
नित्या वर्णा न विक्रियन्त इति विमतिषेधः यथा नित्यत्वे सति किञ्चिदतीन्द्रियं किञ्चिदिन्द्रियपाझमिन्द्रियग्राह्याच वर्णा एवं नित्यत्वे
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न्यायदर्शनमात्यायनभाष्य
मति किञ्चित्र विक्रियते वास्तु विक्रियन्त इति विरोधादहेतुस्तकभविकल्पः, नित्यं नोपजायते नापैति अनुपजनापायधर्मकम्, अनित्य पुनरुपजनापाययुक्तम्, न चान्तरेणोपजनापायौ विकारः सम्भवति, नादि वर्णा विक्रियन्ते नित्यत्व मेषां निवर्तते। अथ नित्या विकारधर्मत्वमेषां निवर्तते सोऽयं विरुडो हेत्वाभासी धम्म विकल्प इति, अनित्यपक्षे समाधिः ॥
अनवस्थायित्वे च वर्णोपलब्धिवत्तहिकारोपपत्तिः५४
यथाऽनवस्थायिनां वर्णानां श्रवणम्भवति एवमेषां विकारो भवनीति असम्बन्धादसमर्था अर्थ प्रतिपादिका वर्णोपलब्धि न विकारेण सम्बन्धादसमर्था या ग्टह्यमाणा वर्णविकारमनुपपादवेदिति। तत्र यागिदं गन्धगुणा पृथिवी एवं शब्दसुखादिगुणापीति ताहगेतद्भवतोति । न च वर्णोरलब्धिर्वण निवृत्तौ वर्णान्तरप्रयोगस्य निवर्तिका योऽयमिवर्णनिवृत्तौ यकारस्य प्रयोगो यद्ययं वर्णोपलधया निवर्तते तदा तलोपलभमान दूवर्णो य त्वमापद्यत इति ग्ट ह्यते । तम्माहगो पलब्धि रहेतुर्वर्ण विकारोति।
विकारधम्मित्वे नित्यत्वाभावात्कालान्तर विकारोपपत्तेश्चाप्रतिषेधः ॥ ५५॥
तर्म विकल्लादिति न युक्तः प्रतिषेधः, न खलु विकारधर्माकं किञ्चित् नित्यमुपलभ्यत इति वर्णोपलब्धिवदिति न युक्तः प्रतिषेधः अवमहे हि दधि अति प्रयुज्य चिरं स्थित्वा ततः संहितायां प्रयने दध्यबेति, चिरनिवृत्ते चामिवणे यकारः प्रयुज्यमानः कस्य विकार इति प्रतीयते कारणाभावात्कार्याभाव इ न्यनुयोगः प्रसज्यत इति । इतञ्च वर्णविकारानुपत्तिः॥
प्रकृत्यनियमावर्णविकाराणाम् ॥ ५६ ॥
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२ अध्याये २ अाशिकम् ।
कारस्थाने यकारः स्त्र यते यकारस्थाने खल्लिकारो विधीयते, विध्यति, तद्यदि स्यात् प्रकृतिविकारभावो वर्णानां तस्य प्रतिनियमः स्य त् दृष्टो विकारधर्मित्वे प्रतिनियम इति । अनियमे नियमान्नानियमः॥५७॥
योऽयं प्रकृतेरनियम उक्तः स नियतो यथाविषयं व्यवस्थितः, निय. तत्वावियम इति भवति, एवं सत्यनियमो नास्ति तत्र यदुक्त' प्रक्षयनियमादित्ये तदय कमिति ॥ नियमानियमविरोधादनियमे नियमाच्चाप्रतिषेधः ॥ ५८ ॥
नियम इत्यवार्थाभ्यनुज्ञा, अनियम इति तस्य प्रतिषेधः । अनुज्ञ. तनिषिड्वयोश्च व्याघातादनान्तरत्व न भवति । अनियमञ्च नियतत्वात्रियमो न भवतीति नावार्थस्य तथाभावः प्रतिषिध्यते किन्तर्हि तथाभूतस्या थस्य नियमशब्देनाभिधीयमानख नियतत्वात्रियमशब्द एवोपपद्यते मोज्यं नियमादनिय मे प्रतिषेधो न भवतीति न चेयं वर्ण विकारोपपत्तिः परिणामात्कार्यकारणभावाहा, किन्तर्हि ॥
गुणान्तरापत्त्य ममईह्रासद्धिलेशश्लेषेभ्यस्तु विकारोपपत्तेवर्णविकारः ॥ ५ ॥
स्थान्य देशभावाद प्रयोगे प्रयोगो विकारशब्दार्थः, स भिद्यते गुणानरापत्ति: उदात्तस्थानुदात्त इत्येवमादिः । उपमहौं नाम एकरूपनिवृत्तौ रूपान्तरोपजनः । हासो दोर्घस्स हस्खः, विर्हस्वस्य दीर्घः, तयोर्वा नतः । लेशो लाघवं त इत्यस्ते विकारः । श्लेष अागमः प्रकृतेः प्रत्ययस्य वा । एत एव विशेषा विकारा इति । एत एबादेशाएते चे विकारा उपपद्यन्न तर्हि वर्णविकारा इति । ते विभक्त्यन्ताः पदम् ॥६॥
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
यथादर्शनं विकृता वर्णा विभयन्ताः पदसंज्ञा भवन्ति । विभक्ति ईयो नामिक्याख्यातिकी च, ब्राह्मणः पचतीत्युदाहरणम्, उपसर्गनिपातास्तहि न पदसंज्ञाः लक्षणान्नरं वाच्यमिति, शिष्यते च खलु नामिक्या विभक्त रव्ययाल्बोपः तयोः पदसंज्ञार्थमिति पदेनार्थसम्प्रत्यय इति प्रयोजनम् नामपदञ्चाधिकृत्य परोक्षा गौरिति पदं खल्विदमुदाहर णम् ॥ तदर्थे व्यक्त्याकतिजातिसन्निधावुपचारात् संशयः६१
अविनाभावत्तिः सविधिः अविनाभावेन वर्तमानासु व्यन्यावतिजातिषु गौरिति प्रयुज्यते तत्र न ज्ञायते किमन्यतमः पदार्थः उत सर्व इति । शब्दस्य प्रयोगसामर्थ्यात्पदार्थावधारणम् तस्मात् ।
या शब्दसमूहत्यागपरिग्रहसंख्याड्युपचयवर्णसमासानुबन्धानां व्यतावुपचाराद्यक्तिः ॥ ६२॥
व्यकिः पदार्थः कस्मात् या शब्दप्रमतीनां व्यकाबुपचारादपचारः प्रयोगः । या गौस्तिष्ठति या गौनिषति नेदं वाक्यं जातेभिधायकमभेदात् द्रव्याभिधायकम्,गवां समूह इति भेदात् द्रव्याधानं न जातेरभेदात्, वैद्याय गां ददातीति द्रव्यस्य त्यागो न जातेरमतत्वात् प्रतिक्रमानुक्रमानपपत्तेश्च परिग्रहः खत्वे नाभिसम्बन्धः, कौण्डिन्यस्य गौ ब्राह्मणस्य गौरिति ट्रव्याभिधाने द्रव्य भेदात् सम्बन्धभेद इति उपपद्रभिदा त जातिरिति, सहा दश गावो विंशतिर्गाव इनि भिन्न द्रव्यं सहायते न जातिरभेदादिति, वृद्धिः कारणवतो द्रव्यस्थावयवोपचयः अवत गौरिति निरवयवा तु जातिरिति, एतेनापचयो व्याख्यातः, वर्णः शुक्ला गौः कपिला गौरिति द्रव्यस्य गुणयोगो न सामान्यस्य, समासः गोहिनं गोसुखमिति ट्रव्यस्य सुखादियोगो न जातेरिति। अनुबन्धः मरूप प्रजमनसम्मानो गौ गा जनयतीति तदुत्पत्तिधर्मत्वाद्रव्ये युक्त न नातौ विपर्ययादिति । द्रव्यं व्यक्तिरिति हिनार्थान्तरम्, बस्य प्रतिषेधः।
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३ अध्याये २ पाकिम्।
१
न तदनवस्थानात् ॥ ६३॥
न व्यक्तिः पदार्थः। कमादनवस्थानात् याशब्दप्रभृतिभिर्थो विशेप्यते स गोशब्दार्थो या गौस्तिष्ठति या गौनिषोति न द्रव्यमात्रमविशिष्टं जात्याविनाऽभिधीयते, किनहि जातिविशिष्टं, तस्मान व्यक्तिः पदार्थः, एवं समूहादिषु द्रष्टव्यम् । यदि न व्यक्तिः पदार्थः कथं तईि व्यकाउपचार इति । निमित्तादतगावेऽपि तदुपचारो दृश्यते खनु ॥
सहचरणस्थानतादर्थ्यवृत्तमानधारणसामीप्ययोगसाधनाधिपत्येभ्यो ब्राह्मणमञ्चकटराजशकुचन्दनगङ्गाशाटकान्नपुरुषेष्वतद्भावेऽपि तदुपचारः ॥६॥
अनभावेऽपि बदुपचार इत्ये तच्छब्दस्य तेन शब्देनाभिधानमिति, सहचरणाष्टिमां भोजयेति यष्टिकासहचरितो ब्राह्मणोऽभिधीयत इति, स्थानात् मच्चाः क्रोशनीति मञ्च स्था: पुरुषा अभिधीयन्ते, तादर्थ्यात् कटार्थेषु वोरणेषु व्यूह्यमानेषु कटङ्करोतीति, सत्तात् यमो राजा कुवेरो राजेति तहदर्तत इति, मानात् आढकेन मिताः शक्तत्रः आढकशक्तव इति, धारणात् तुलया तं चन्दनं तुलाचन्दन मिति, सामीप्यात् गङ्गायां गावचरन्तीति देशोऽभिधीयते सनिकष्टः, योगात् कृष्णेन रागेन युक्तः शाटकः कृष्ण इत्यभिधीय ने, साधनात् अचं प्राणा इति। प्राधिपत्यात् अयं पुरुषः कुलं अयं गोत्रमिति तलायं सहचरणाद्योगाहा जातिशब्दो व्यको प्रयुज्यत इति यदि गौरित्वस्य पदस्य न व्य निरर्थोऽस्तु तईि । प्राकृतिस्तदपेक्षत्वात् सत्त्वव्यवस्थानसिद्धेः ॥६५॥
प्राकृतिः पदार्थः कमात् तद पेक्षत्वात् त्वव्यवस्थान सिद्धः । रुत्वावयवानां दवयवानाञ्च नियतोव्यूह प्राकृतिः तस्यां ग्टह्यमाणायां सत्यव्यवस्थानं सिध्यति अयं गौरयमश्व प्रति नाग्टह्यमाणायाम, यस्य ग्रहयात् सत्यव्यवस्थानं सिध्यति तं शब्दोऽभिधातुमईति मोऽस्वार्थ इति
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আবহমান
नै तदुपपद्यते यस्य जात्या योगस्तदल जातिविशिष्टमभिधीयते गौरिति । नचावयवम्यू हस्य जात्या योगः, कस्य तर्हि नियतावयवव्यूहस्य द्रव्य स्य, तस्मानाकृतिः पदार्थः । अस्तु तहि जातिः पदार्थः ॥
व्यक्त्याकृतियुक्तऽप्यप्रसङ्गालोक्षणादौनां सङ्गवके जातिः ॥६६॥
जातिः पदाथैः, कस्मात् व्ययातियुक्त ऽपि मजवके प्रोक्षणादीनामप्रसङ्गादिति । गां प्रोक्षय गामानय गां देहीति नैतानि महबके प्रयुज्यन्ते कस्मात् जातेरभावात् । अस्ति हि तत्र व्यक्तिरस्याकतिः यदभावात् नत्रासम्म त्ययः स पदार्थ इति ॥ नाक्रतिव्यक्त्य पेक्षत्वाज्जात्यभिव्यक्तः॥६७॥
जातेरभिव्यक्ति राक्षतिव्यको अपेक्षते नाग्टह्यमाणायामालती व्यक्ती जातिमालं शुद्धं ग्ट ह्यते तस्मान्न जातिः पदार्थः इति । न बै पदार्थेन न भवित शक्यम् कः खल्विदानी पदार्थ इति ॥
व्यक्त्याकतिजातयस्तु पदार्थः॥८॥
तुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिष्यते प्रधानाङ्गभाव स्थानिय मेन पदार्थत्वमिति । यदा हि भेद विवक्षा विशेषगतिश्च तदा व्यकिः प्रधानमन्त जात्याकृती। यदा तु भेदोऽविवक्षितः सामान्यगतिस्तदा जातिः प्रधानमङ्गन्त व्यत्यासती खोकते तदेतद्दलं प्रयोगेष्वाकृतेस्तु प्रधानझाव उत्प्रेक्षितव्यः । कथं पुन र्जायते नानाव्यायासतिजातय इति लक्षणभेदात् तत्र तावत् ॥
व्यनिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्तिः ॥ ६ ॥
व्यज्यत इति व्यक्किरिन्द्रियग्राह्येति न सर्व द्रव्यं व्यक्तिः । यो गुणविशेषाणां स्पर्शान्तानां गुरुत्वघनत्वद्वत्वसंस्काराणामव्यापिनः परिमा. णस्थाश्रयो यथासम्भवं तद्व्यम्, मूर्छितावयवत्वादिति ॥
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२ अध्याये २ प्राङ्गिकम्।
आकृति र्जातिलिङ्गाख्या ॥ ७० ॥ यया जाति जर्जातिलिङ्गानि च प्रख्यायन्ते तामाक्षति विद्यात् । मा च नाना सवानां तंदवयवानाञ्च नियत हादिति नियबाबश्वव्यूहाः खलु सत्त्वावयवा जातिलिङ्ग शिरसा पादेन गामनु मिन्वन्नि । नियते च सत्त्वावयवानां व्यू हे सति गोत्वं प्रख्यायत इति। अनातिव्यवायां जातो मृत् सुवर्ण रजतमित्येवमादिवाशति निवत्तते जहाति पदार्थत्वमिति॥
समानप्रसवात्मिका जातिः ॥ ७१ ॥
या समानां बुद्धि प्रसूते भिम्नेष्वधिकरणेषु यथा बहनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते योऽर्थोऽनेकन प्रत्ययानुत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्। यच्च केषाशिङ्गेदं कुतविशदं करोति तत सामान्यविशेषो जातिरिति ॥ ३ ॥ इति वास्य.यनीये न्यायभाष्ये द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयमाझिकम् ।।
समाप्तञ्चायं हितोयोऽध्यायः ॥ २ ॥
परीक्षितानि प्रमाणानि, प्रमेयमिदानी परीच्यते तच्चामादीत्या त्मा विविच्यते । किं देहेन्द्रियमनोबुद्धिवेदनासङ्घातमात्रमात्मा आहोखित्तद्व्यतिरिक्त इति, कुतः संशयः व्यपदेशस्योभयथासिद्धेः क्रिया करणयोः का सम्बन्ध स्थाभिधानं व्यपदेशः स विविधः अवयवेन समुदायस्य मूल
क्षस्तिष्ठति स्तम्भैः प्रासादो भियत इति । अन्ये नान्यस्य व्यपदेशः परशुना वृश्चति प्रदीपेन पश्यति । अस्ति चायं व्यपदेशः चक्षुषा पश्यति मनसा विजानाति बुद्ध्या विचारयति शरीरेण सुखदुःखमनुभवतीति नत्र नावधार्यते किमक्यवेन समुदायस्य देहादिसद्दातस्य अथान्येनान्यस्य तयतिरिकस्य वेति अन्येनायमन्यस्य व्यपदेशः कस्मात् ॥
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८४ न्यायदर्श नवाल्यायनभाष्य
दशनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् ॥१॥
दर्शनेन कश्चिदर्थों ग्टहीत. स्पर्शनेनापि सोऽर्थे। ग्टह्यते यमहमद्राक्षञ्च क्षुषा तं स्पर्शनेनापि स्पशामीति यञ्चास्माई स्पर्शनेन तं चक्षुषा पश्यामीति, एकविषयाविमौ प्रत्ययावेककर्ट को प्रतिसन्धी येते न च सङ्घतकर्ट को नेन्द्रियेणैककर्ट कौ। तद्योऽसौ चक्षुषा त्वगिन्द्रिये ण चैकार्थस्य सपहीता भिन्ननिमित्तावनन्य कर्ट को प्रत्ययो समानविषयौ प्रतिसन्दधाति सोऽर्थान्तरभत अात्मा । कथं पुनर्नेन्द्रियेण ककर्ट को इन्द्रियं खनु ख व विषयग्रहणमनन्यकर्ट के प्रतिसन्धातमहति नेन्द्रियान्नरस्य विषय न्तरग्रहयामिति । कथं न सहासकार्ट को एकः खल्वयं भिन्ननिमित्तौ खात्मकर्ट को प्रत्ययौ प्रतिसहितौ वेदयते न सङ्घातः कम्मात् अनिवृत्तं हि सङ्घ ते प्रत्येक विषयान्तरग्रहणस्याप्रतिसन्धान मिन्द्रियानरेनैवेति॥
न विषयव्यवस्थानात् ॥२॥
न देहादिसङ्घातादन्यश्चेतनः, कमात् विषयव्यवस्थानात् व्यवस्थित विषयाणीन्द्रियाणि चक्षुष्यसति रूपं न ग्टह्यते सति च ग्टह्यते । यच्च यनिवसति न भवति सति भवति तस्य तदिति विज्ञायते । तस्माद् पयहणं चक्षुषः च रूपं पश्यति एवं प्राणादिष्वपीति तानीन्द्रियाणीमानि खखविषयग्रहणाचेतनानि इन्द्रियाणां भावाभावयो विषयमह. यस्य तथामावात् एवं सति किमन्येन चेतनेन सन्दिग्धत्वादहेतः योऽयमिन्द्रियाणां भावाभावयो विषयमहणस्य तथाभावः स किञ्चेतनत्वादाहोखिचेतनोपकरणानां ग्रहणनिमित्वादिति सन्दिह्यते, चेतनोपकरपत्वेऽपीन्द्रियाणां पहनिमित्तत्वाद्भवितुमर्हति यच्चोन विषयव्यवस्थानादिति ॥ तव्यवस्थानादेवात्मसद्धावादप्रतिषेधः ॥३॥
यदि खल्वे कमिन्द्रियमव्य वस्थितविषयं सर्वज्ञ सर्वविषययाहि चेतनं स्थात्, कस्ततोऽन्यं चेतनमनुमातुं शक यात् । यस्मात्तु व्यवस्थितविष
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३ अध्याये १ आह्निकम् ।
८५
याणीन्द्रियाणि तस्मात्तेभ्योऽन्यश्चेतनः सर्वज्ञः सर्व विषयग्राही विषयव्य वस्थितितोऽनुमीयते । वेदमभिज्ञानमध्याख्येयं चेतनवृत्तमुदाहियते रूपदर्शी खल्वयं रसं गन्धं वा पूर्वग्टहीतमनुमिनोति । गन्धप्रतिसंवेदी च रूपरसावनु मिनोति । एवं विषय घेऽपि वाच्यम् । रूपं दृष्ट्वा गन्ध जिप्रति प्रात्वा च गचं रूपं पश्यति । तदेवमनियत पर्यायं सर्व विषयपहण मेकचेतनाधिकरणमनन्यकर्ट के प्रतिसन्धत्ते प्रत्यक्षानुमानागमसंशय प्रत्ययांश्च नानाविषयान् खात्मकट कान् प्रतिसन्धाय वेदयते सार्थविषयञ्च शास्त्रं प्रतिपद्यते । अर्थमविषयभूतं श्रोत्रस्य क्रमभाविनो वर्णान श्रुत्वा पदवाक्यभाव प्रतिसन्धाय शब्दार्थ व्यवस्थाञ्च बुध्यमानोऽनेकविषयमर्थजातग्रहणीयमेकैकेनेन्द्रियेण ग्टह्णाति । सेयं सर्वस जेथा व्यवस्थाऽनुपदं न शक्या परिक्रमितम् | प्राकृतिमात्रन्त दाहृतम् । तत्र यदुत मिन्द्रियचैतन्ये सति किमन्ये न चेतनेन तदयुक्त भवति । दूत देहादिव्यतिरिक्त आत्मा न देहादिसङ्घातमात्रम् ॥
शरीरदाहे पातकाभावात् ॥ ४॥
शरीरयहणेन शरीरेन्द्रियबुद्धिवेदनासङ्घातः प्राणिभूतो ग्टह्यते माणिभूतं शरीरं दहतः प्राणिहिंसाकतं पापं पातक मित्युच्यते तस्याभावः तत्फलेन कर्तुरसम्बन्धात् अकर्तश्च सम्बन्धात् शरीरेन्द्रियबुद्धिबेदनाप्रबन्धे खल्व न्यः सङ्घात उत्पद्यतेऽन्यो निरुध्यते उत्पाद निरोधसन्नतीभूतः प्रबन्धो नान्यत्व' बाधते, देहादिसङ्घातस्थान्यत्वाधिधानत्वात् । अन्यत्वाधिष्ठानो ह्यमौ प्रख्यायत इति एवं सति यो देहादि सङ्घात: प्राणिभती हिंसां करोति नासौ हिंसाफलेन सम्बध्यते, यश्च सम्बध्यते न तेन हिंसा कता, तदेवं सत्त्वभेदे कृतहानमकताभ्यागमः प्रसज्यते सति तु सत्त्वोत्यादे सत्त्वनिरीधे चाकर्मनिमित्तः सत्त्वसर्गः प्राप्नोति । तत्र मुक्त्या ब्रह्मचर्य वासो न स्यात् । तद्यदि देहादिसङ्घातमात्र स्यात् शरीरदाहे पातकं न भवेत् अनिष्टञ्च तत् तमाहेहादिसङ्कालव्यतिरिक्त अात्मा नित्य इति ॥
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८६
न्यायदर्शनवात्यायनभाये तदभावः सात्मकप्रदाहेऽपि तन्नित्यत्वात् ॥५॥
यस्वापि निधनात्मना सात्मकं शरीरं दह्यते तस्यापि शरीरदाहे पातकं न भवेद्दग्ध :, कस्मात् नित्यत्वादात्मन: न जातु कश्चिनियहिंसितुमर्हति अथ हिंसते नित्यत्वमस्य न भवति, सेयमेकस्मिन् पचे हिंसा निष्फला अन्यस्मिंस्त्व नुपपन्नेति ॥
न कार्याश्रयकट बधात् ॥ ६ ॥
म बूमो नित्यस्य सत्वस्य बधो हिंसा, अपित्वयितिधर्मकस्य सस्वस्य कार्यात्रयस्य शरीरस स्खविषयोपलब्धेश्च कर्तृ यामुपधात: पीडा वैकल्य लक्षणः प्रबन्धीछे दो वा प्रमापण लक्षणो वा बधो हिंसेति, कार्यन्त सुखदु.खसंवेदनं तस्यायतनमधियानमाश्रयः शरीरम् । कार्याश्रयस्य शरीरस्य ख विषयोपलब्धेश्च कर्तृणामिन्द्रियाणां बधो हिंसा न नित्यस्यामनः । तत्र यदुनं तदभावः सात्मकादाहेऽपि तन्नित्यत्वादित्येतदयुक्तम् । यस्य सत्वोच्छेदो हिंसा तस्य कृतहानमकृताभ्यागमञ्च दोषः । एतावञ्च - तत् स्यात् । सत्वोच्छेदो वा हिंसा अनुछित्तिधर्मकस्य सत्वस्य कार्याश्रय क बधो वा न कल्यान्तरमन्यदस्ति सत्वाच्छेदश्च प्रतिषिद्धः तल किमन्यच्छ में यथाभूतमिति । अथवा कार्याश्रय कर्तृवधादिति कार्यायो देहेन्द्रियबुद्धिसङ्घातो नित्यस्थात्मनस्तत्र सुखदुःखप्रतिसम्बेदनं तस्याधिछानकायस्तदायतनं तद्भवति न ततोऽन्यदिति स एव का तनिमिताहि सुखदुःखसम्बेदनस्य निई ति: न तमन्तरेणेति बस वध उपधातः पीडा प्रमाप वा हिंसा न नित्यत्वेनात्मोच्छदः । तत्र यदुक्तं तदभावः सालकपदाहेऽपि तबियत्वादेतदेति । इदश्च देहादिव्यतिरिक्त
अात्मा ॥
सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात् ॥ ७॥ पोपरयोर्विज्ञानयोरेकविषये प्रतिमविज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । तमेवैताह पश्यामि यमज्ञामिषं स एवायमर्थ इति । सव्येन चक्षुषा दृष्ट .
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३ अध्याय १ पाङ्गिकम् ।
मथे तरेणापि चक्षुषा प्रत्यभिज्ञामातू । यमद्राक्षं तमेवैतहि पश्यामीति | इन्द्रियचैतन्ये तु नान्यदृष्टंमन्यः प्रत्यभिजानातीति प्रत्यभिज्ञानुपपत्तिः अस्तित्विदं प्रत्यभिज्ञानं तमादिन्द्रियव्यतिरिकतनः ।
नैकस्मिन्नासास्थिव्यवहिते हित्वाभिमानात् ॥८॥ एकमिदं चक्षुर्मध्ये भासास्थिव्यवहितं तस्यान्तौ ग्टह्यमाणो हित्वाभिमानं प्रयोजयतः मध्यव्यवहितस्य दीर्घस्येव ।।
एकविनाशे द्वितीयाविनाशान्नैकत्वम् ॥६॥ एकमिनु पहने चोडु ते वा चक्षु धि द्वितीयमवतिउते चक्षुर्विषयप्रणलिङ्गम् तस्मादे कस्य व्यवधानानुपपत्तिः ।
अवयवनाशेऽप्यवयव्युपलब्धेरहेतुः ॥ १० ॥ एकविनाथे हितीयाविनाशादित्य हेतुः कस्मात् वृक्षस्य हि कासचिछाखा छिनास्पलभ्यत एव वृक्षः ॥
दृष्टान्तविरोधादप्रतिषेधः ॥ ११ ॥
न कारणद्रव्यस्य विभागे कार्य द्रव्यमवतिष्ठते नित्यत्वप्रसङ्गात् बहुध्ववयविषु यस्य कारणानि विभक्कानि तस्य विनाशः । येषां कारणान्य वि. भक्तानि तान्य प्रतिष्ठन्ते अथवा दृश्यमानार्थविरोधो दृष्टानविरोधः मृतस्य हि शिरःकपाले दाववटी भासास्थिव्यवहितौ चक्षुषः स्थाने भेदेन म्टोते न चैतदेकस्मिन्नामास्थिव्यवहिते सम्भबति अथवैकविनाशस्थानियमा हाविमावर्षी तौ च पृथगाबरणोपघातौ अनुमीयेते विभिन्नाविति अवपीडनाञ्च कस्य चक्षुषो रश्मिविषय सन्निकर्षस्य भेदाद् दृश्य भेद दूब ग्रह्यते तञ्चकत्वे विरुद्यते अवपीडन निवृतौ चाभिन्न प्रतिसन्धानमिति सम्मादेकस्य व्यवधानानुपपत्तिः अनुमीयते चायं देहादिसङ्घातव्यतिरिक्त वेतन इति ॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाव्ये
इन्द्रियान्तर विकारात् ॥ १२ ॥
कस्यचिदम्हफलस्य ग्टहीतसाहचर्ये रूपे गधे वा केनचिदिन्द्रि येण म्टामाणे रसनखेन्द्रियान्नरस्य विकारः रसानुम्म तौ रसगाई प्रवर्तितोदन्नोद कसंप्लवभूतो ग्टह्यते तस्येन्द्रियचैतन्ये ऽनुपपत्तिः, नान्यदृष्ट मन्यः स्मरति ॥ न स्म ते: स्पर्तव्यविषयत्वात् ॥ १३ ॥
अतिर्नाम धर्मो निमित्तादुत्पद्यते तस्याः स्मर्तव्यो विषयः तत्कृत इन्द्रियान्तरविकारो नात्मकत इति ॥ तदात्मगुणसद्भावादप्रतिषेधः ॥१४॥
तस्या आत्म गुणत्वे सति सद्भाबाद प्रतिषेध अात्मन: यदि स्मतिरात्मगुणः एवं सति स्मृतरुपपद्यते नान्यदृष्टमन्यः सरतीति, इन्द्रियचैतन्ये तु नानाकर्तृ काणां विषयमहणानामप्रतिसन्धानम्। अप्रतिसन्धाने वा विघयव्यवस्थानुपपत्तिः, एकस्त चेतनोऽनेकार्यदर्शी भिन्ननिमित्तः पूर्वदृष्टमर्थ सरतीति एकस्यानेकार्थदर्शिनो दर्शन प्रतिसन्धानात् स्टतेरात्मगुणत्वे मति सद्भावः विपर्यये च नुपपत्तिः । स्मृत्याश्रया. प्राणभृतां सर्वे व्यवहाराः अात्मलिङ्गमुदाहरणमा लमिन्द्रियान्नरविकार इति ॥
अपरिसङ्ख्यानाच्च स्मृतिविषयस्य ॥ १५ ॥
अपरिसवाय च स्टतिविषयमिदमुच्यते न स्मृतेः स्मर्त्तव्यविषयत्वादिति येयं स्मृतिरग्टह्यमाणेऽर्थे अज्ञासिंघमहमममर्थ मिति । एतस्या जारज्ञान विशिष्टः पूर्वजातोऽर्थोविषयो नार्थमात्रम् ज्ञातवानहममुमर्चमसावर्थो मया ज्ञातः ज्ञातमस्मिन्नर्थे मम ज्ञानमभूदिति चतुर्विधमेतद्वाक्यं स्मृतिविषयज्ञापकं समानार्थम् सर्वत्र खलु जाता ज्ञानं ज्ञेयं च म्ट झते अथ प्रत्यक्षेऽर्थे या स्मृति स्तया त्रीणि ज्ञानान्ये कस्मिन्नर्थे प्रति
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३ अध्याये १ आङ्गिकम् ।
८४
सन्धयन्ने समानकर्ट काणि न मानाकर्ट काणि नाकर्ट काणि किन्नईककई काणि अद्रा समसमर्थ यमेवैतहि पश्यामि अदाच मिति दर्शनं दर्शनसम्बिच्च, न खल्वसम्बिदिते खे दर्शने स्यादेतदद्राथमिति, ते खल्वेते हे जाने यमेवैतहि पश्यामीति हतीयं ज्ञानमेवमेकोऽर्थ स्विभि ने युब्धमानो नाकर्ट को न मानाकर्ट कः किता ककर्ट क इति, सोऽयं मृतिविषयोऽपरिसङ्ग्यायमानो विद्यमानः प्रजातोऽर्थः प्रतिनिध्यते नास्न्यात्मा स्मृतेः स्मत्त व्यविषयत्वादिति न चेदं स्मृतिमात्रं मर्तव्य मात्रविषयं वा इदं खल ज्ञानप्रतिमन्धानवत् स्मृतिप्रतिसन्धानमेकस्य सर्वविषयवार एकोऽयं माता सर्व विषयः स्वानि ज्ञानानि प्रतिसन्ध ते असमर्थ जासाम्यसमर्थ विनानाम्यहमर्थमज्ञासियमसमथे जिज्ञासमानविरमजात्वाऽध्यवस्सत्यज्ञासिषमिति एवं स्मृतिमपि विकालविशिष्ट सम्मूर्षाविशिष्टाञ्च प्रतिसन्धत्ते संस्कारसन्नतिमावे तु सत्वे उत्पद्योत्पद्य संस्कारातिरोभवन्ति स नात्ये कोऽपि संस्कारो यस्त्रिकालविशिष्टं ज्ञानं स्मृतिशानुभवेत् । म चानुभवमन्नरेण ज्ञानस्य समुलेश्च प्रतिसन्धानमहं ममेति चोत्पद्यते देशान्तरवत् अतोऽनुमः यते अस्येकः सर्वविषयः प्रतिदेहं स्वज्ञानप्रबन्ध स्मृतिप्रबन्धञ्च प्रतिसन्धत्ते इति य स देहान्तरेषु वृत्तेरभावाव प्रतिसन्धानं भवतीति।
नात्मप्रतिपत्तिहेतूनां मनसि सम्भवात् ॥ १६ ॥ न देहादिसङ्घातव्य तिरिन आत्मा कस्मात् यात्म प्रतिपत्ति हेतूनां ममसि सम्भवात् । दर्शनस्सनाभ्यामेका वहणादित्येवमादीनामात्मप्रतिपादकानां हेतूनां मनसि सम्भवो यतः मनो हि सव्वविषयमिति नमान शरीरेन्द्रियमनोबुद्धिसङ्घातव्यतिरिक्त अात्मेति ॥
जात नसाधनोपपत्ते: संज्ञाभेदमात्रम् ॥१७
जालः सनु ज्ञानसाधनान्युपपद्यन्ने चक्षुषा पश्यति प्राणेन जिघ्रति सर्मनेन मशति एवमन्तः सर्व विषयस्य मनिसाधनमन्तःकरणभतं सर्व
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१०.
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न्यायदर्शनवात्स्यायन भाष्ये
विषयं विद्यते येनायं मन्यत इति । एवं सति ज्ञातयत्मसंज्ञा न मृष्यते मनः संज्ञाऽभ्यनुज्ञायते मनसि च मनःसंज्ञा न मृष्यते मतिसाधनं त्वभ्यनुज्ञायते तदिदं संज्ञाभेदमानं नार्थे विवाद इति प्रत्याख्याने वा सर्वेन्द्रियविलोपप्रसङ्गः, ग्रथ मन्तुः सर्व्वविषयस्य मतिसाधनं सर्व्वविषयं प्रत्याख्यायते नास्तीति । एवं रूपादिविषयग्रहणसाधनान्यपि न सन्तीति सर्वेन्द्रिय. विलोप: प्रसज्यत इति ॥
नियमश्च निरनुमानः ॥ १८ ॥
योऽयं नियम इष्यते रूपादियहण साधनान्यस्य सन्ति मतिसाधनं सर्व्वविषयं नास्तीति, कायं निरनुमानो नावानुमानमस्ति येन नियम प्रतिपद्य मह इति । रूपादिभ्यश्च विषयान्तरं सुखादयस्तद् पल पलब्ध करणान्तरसद्भात्रः, यथा चक्षुषा गन्धो न ग्टह्यत इति करणान्तरं घ्राणम्, एवञ्चच्चु - प्रीणाभ्यां रखो न ग्टह्यत इति करणान्तरं रसनम् एवं शेषेषु तथा चतुरादिभिः खादयो न ग्टन्त इति करणान्तरेण भवितव्यम् तञ्च ज्ञानायौगपद्यलिङ्गम् । यच्च खाद्यपलब्ध करणं तच्च ज्ञानः यौगपद्य लिङ्गम् तस्येन्द्रियमिन्द्रियं प्रति सन्निधेरसन्निधेर्न युगपज्ज्ञानान्युत्पद्यन्ते तंत्र यदुक्तमात्मप्रतिपत्तिहेतुनां मनसि सम्भवादिति तदयुक्तम् किं पुनरथं देहादिसङ्घातादन्योनित्य उत्तानित्य इति कुतः संशयः उभयथा दृष्टत्वात् संशयः । विद्यमानमुभयथा भवति नित्यमनित्यञ्च प्रतिपादिते चात्मसङ्गावे संशयानिटतेरिति श्रात्मसङ्गावे हेतुभिरेवास्य प्रागदेहभेदादवस्थानं सिद्धम् ऊर्द्धमपि देहभेद दवतिष्ठते कुतः ॥
>
-
पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धात् जातस्य ह जातस्य हर्षभयशोक
सम्प्रतिपत्तेः ॥ १८ ॥
जातः खल्वयं कुमारकोऽस्मिन् जन्मन्यग्टहीतेषु हर्षः यशोक हे तृषु हर्षयशोकान् प्रतिपद्यते लिङ्गानुमेयान् तेच स्मृत्यनुबन्धादुत्पद्यन्ते नान्यथा स्मृत्यनुबभ्वश्च पूर्वाभ्यासमन्तरेण न भवति पूर्वाभ्यासश्च पूर्वजन्मनि सृति नान्यथेति सिद्ध्यत्येतत् अवतिष्ठतेऽयमुद्धं शरीरभेदादिति ॥
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३ अध्याये १ आह्निकम् ।
१ पद्मादिषु प्रबोधसंमोलनविकारवत्तविकारः॥२०॥
यथा पद्मादिष्वनित्येषु प्रबोधसमीलनं विकारो भवति एवमनित्यस्यात्म नो हर्षभयशोकसम्मतिपत्तिर्विकारः स्थात् हेत्वभावादयुक्तम् अनेन हेतुना पद्मादिषु प्रबोधसंमीलन विकारवदनित्यस्यात्म नो हर्षादिसम्पतिपत्तिरिति, नाबोदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनहेतु न वैधादस्ति हेत्वभावादसंबड्वार्थ कमपार्थ कमुच्यत इति । दृष्टान्त च हर्षादिनिमित्तस्थानित्तिः या चेयमासेवितेषु विषयेष हर्षादिसम्पतिपत्तिः स्मृत्यनुबन्धकता प्रत्यात्म ग्टद्यते मेयं पद्मादिसंमीलनदृष्टान्तेन न निवर्तते यथा र न निवसते तया जातथा गीति, क्रियाजातश्च पर्ण विभागः संयोगप्रबोधः, संमीलने क्रियाहे तुश्चानुमेयः। एवञ्च सति किं दृष्टान्तेन प्रतिषियते । अथ निर्निमित्तः पद्मादिषु प्रबोवसंमीलनविकार इति मतम् एवमात्मनोऽपि हर्षादिसम्प्रतिपत्तिरिति तच्च ॥
नोष्णशोतवर्षाकालनिमित्तत्वात् पञ्चात्मकविकाराणाम् ॥ २१ ॥
__ उष्णादिषु सत्म भावात् असत् स्वभावात् तबिमिसाः पञ्चभतानुग्रहेण नित्तानां पद्मदीनां प्रबोध संमीलन विकारा निमित्तानवित मर्हन्ति न निमित्तमन्तरेगा, नचान्य त् पूर्वाभ्यस्त सत्य नुबन्धात् निमित्तमस्तीति । न चोत्पत्तिनिरोधकारणानुमानमात्मनो दृष्टान्नात् न हर्षादीनां निमित्तमन्त रेणोत्पत्ति: नोष्णादिवनिमित्तान्नरोपादानं हर्षादानं तमाद्यक मेतत् दूतश्च नित्य आत्मा ॥
प्रत्याहाराभ्यासकतात् स्तन्याभिलाषात् ॥२२
जानमावस्य वत्मस्य प्रतिलिङ्गः स्तन्याभिलायो ग्टह्यते सच नान्तरेणाहारास्यासम् । कया युनया, दृश्यते हि शरीरिणां तु धापीद्यमानानामाह.रस्यासकतात स्मरणानुबन्धादाहाराभिलाषः, न च
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये मन्तरेणासो जातमावस्योपपद्यते, तेनालुमीयते भूतपूर्व शरीरं यनानेमाहारोऽभ्यस्त इति। स खल्वयमात्मा पूर्वशरीरात् मेत्य शरीरान्नरमापन्नः क्षुत्पीडितः पूर्वाभ्य स्तमाहारमनुसरन् स्तन्यमभिलपति तम्मान देहभेदादात्मा भिद्यते भवत्येवोई देहभेदादिति ॥
अयसोऽयस्कान्ताभिगमनवत्तदुपसर्पणम् ॥२३॥ यथा खल अयोऽभ्यासमन्तरेणायस्कानमुपसर्पति, एवमाहाराम्यासमन्तरेण बालः स्तन्यमभिलपति, किमिदमयसोऽयस्वान्ताभिसर्पणं निर्नि. भित्तमथ निमित्तादिति निनिमित्तन्नावत् ।
नान्यत्र प्रत्यभावात् ॥ २४॥
यदि निर्निमित्तं लोछादयोऽव्ययस्कानमुपसपैंयु नजात नियमे कार. समस्तीति अथ निमित्त त् तत्क नोपलभ्यत इति क्रियालिङ्गः क्रिया हेतुः क्रियानियमलिग क्रिया हे नियमः तेनान्यत्र प्रत्त्यभावः बालस्यपि नियतमुपसर्पणं क्रियोपलभ्यते नच स्तन्याभिलापलिङ्गमन्यदाहाराभ्यासकतात् स्मरणानुबन्धात् । निमित्त दृष्टान्तेनोपपाद्यते न चामति निमित्ते कस्य चिदुत्पत्तिः, न च दृष्टान्तो दृष्टमभिन्नाष हेतुं बाधते, तस्मादयसोऽयकान्नाभिगमनमदृष्टान्त इति, अयसः खल्वपि नान्यत्र प्रवृत्तिर्भवति न जास्वयो लोधमुपसर्पति किं कृतोऽस्थानियम इति यदि कारणनियमाः मर्चक्रियानियमलिङ्गः एवं बालस्यापि नियत विषयोऽभिलाष: कारणनियमाद्भवितुमर्हति तच्च कारणमभ्यस्तस्मरणमन्यद्देति दृष्टेन विशिष्यते दृष्टोहि शरीरिणामभ्य स्तस्मरणादाहाराभिलाष इति । इतथ नित्य छात्मा कस्मात् ॥ वीतरागजन्मादर्शनात् ॥ २५ ॥
स रागो जायत इत्यर्थादापद्यते अयं जायमानो रागानुबडो जायते रागय पूर्वोत्तभूनविषयानुचिन्तनं योनिः पूर्वानुभव व विषयाणामन्यचिन्
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३ अध्याये १ आह्निकम् । जन्मनि शरीरमन्तरेण नोपपद्यते,सोऽयमात्मा पूर्वशरीरानुभूतान विषया ननुस्मरन् तेषु तेषु रज्यते तथा चायं वयोर्जन्मनोः प्रतिसन्धिः, एवं पर्वशरोरस्य पूर्वतरेण पूर्वतरस्य पूर्वतमे नेत्यादिना ऽनादिश्चेतनस्य शरीरयोगः अनादिश्च रागानुबन्ध इति सिहं नित्यत्व मिति । कथं पुनर्ज्ञायते पूर्वविषयानु चिन्तनजनितो जातस्य रागो न पुनः ॥
सगुणद्रव्योत्पत्तिवत्तदुत्पत्तिः ॥ २६ ॥
यथोत्पत्तिधर्मकस्य द्रव्यस्य गुणाः कारणत उत्पद्यन्ते यथोत्पत्तिधर्म. कस्थात्मनो राग: कुतश्चिदुत्पद्यते, असायमुदितानुवादो निदर्शनार्थः ॥
न सङ्कल्पनिमित्तत्वाद्रागादौनाम् ॥ २७ ॥
न खलु सगुणद्रव्योत्पतिवदुत्पत्ति रात्मनो रागस्य च, कम्मात् सङ्कपनिमित्त त्वाद्रागादीनाम् । अयं खलु प्राणिनां विषयानासेवमानानां सङ्कल्प जनितो रागो ग्ट ह्यते सङ्कल्पच पूर्वानुभूतविषयानु चिन्तनयोनिः, तेनानुमीयते जातस्यापि पूर्वानुभूतार्थचिन्न नरुतोराग इति । आत्मोन्यादाधिकरणात्तु रागोत्यत्ति भवन्ती सङ्कल्पादन्यमिन् र गकारणे सति वाच्या कार्य द्रव्य गुणवत् न चात्मत्यादः सिद्धो नापि सङ्कल्यादन्यद्रागकारणमस्ति । तस्मादयुक्त सगुणद्रव्योत्पत्ति बत्तयोरुत्पत्ति रिति, अथापि सङ्कल्पादन्यदागकारणं धर्माधर्मलक्षण मदृष्टमुपादोयते तथापि पूर्वशरोरय गो ऽप्रत्याख्येयः । तत्र हि तस्य निई त्तिः नास्मिन् जन्म नि तन्मयत्वाद्राग इति विषयाभ्यासः खल्वयं भावनाहेतः तन्ना यत्वमुच्यत इति जातिविशेषाच्च रागविशेष इति, कम्म खल्विदं जातिविशेषनिवर्त कम् तादात्ताच्छब्दय विज्ञायते, तम्मादनुपपन्न सङ्कल्पादन्यदागकाररणमिति, अनादिश्चेतनस्य शरीरयोग इत्युक्त, स्वकृत कर्मनिमित्त चास्य शर रं सुखदुःखाधिशानं तत् परीच्यते किं प्राणादिवदेक प्रकृतिकम् उत नाना प्रकृती ति, कुतः संशयः, विप्रतिपत्तेः संशयः, पृथिव्यादीनि भूतानि समाविकल्प न शरीरप्रतिरिति प्रनिजान त इति किन्नत तत्वम्॥
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२४
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये पार्थिवं गुणान्तरोपलब्धेः ॥ २८॥
तत्र मानुषं शरीरं पार्थिवम् । कमात् गुणान्तरोपलब्धेः गन्धवती पृथिवी गन्धवच्छरीरम् अवादीनामगन्धत्वात् तत् प्रत्यगन्ध स्थात् न त्विदमवादिभिरसंप्टकया पृथिव्यारब्धं चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयभावेन कल्पत इत्यतः पञ्चानां भतानां संयोगे सति शरीरं भवति भूतसंयोगोहि मिथ: पञ्चानां न निषित इति, प्राप्यतेजसवायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि, तेष्वपि भूतसंयोगः पुरुषार्थतन्त्र इति स्थाल्यादिद्रव्य निष्पत्तावपि निःसं शयो नावादि संयोगभन्तरेण निष्पत्तिरिति । पार्थिवाप्यतैजसं तरणोपलधेः, निश्वासोच्छासोपलब्धेशातौंतिकम्, गन्धलेदपाकव्यूहावकाशदानेभ्यः पाञ्चभौतिकम्, त इमे सन्दिग्धा हेतब इत्यु पेक्षितवान् सूत्र कारः, कथं सन्दिग्धाः सति च प्रतिभावे भूतानां धर्मोपलब्धिरसति च संयोगाप्रतिषेधात् सविहितानामिति । यथा स्थाल्यामुद कतेजोवाखाकाशानामिति तदिदम कभूतप्रति शरोरमगन्धमरसमरूपमसञ्च अत्यनु विधानात् स्यात् नत्विदामित्वं भूतम् तस्मात् पार्थि गुणान्तरोपनः ।
श्रुतिप्रामाण्याच्च ॥ २६ ॥
सूर्यन्ने चक्षु गच्छ तादित्यत्र मन्वे प्रथिवीन्ने शरीरमिति श्रूयते तदिदं प्रकृतौ विकारस्य प्रलयाभिधानमिति सूर्य ते चक्षुः मणोमो त्यत्र मन्त्रान्तरे प्रथिवीन्ते शरीरमिति श्रूयते सेयं कारणाविकारस्य स्मृतिरनिधीयत इति, स्थाल्यादिषु च तुल्य जातीयानामेककार्यारम्भदर्शना. निवजातीयानामेककार्यारम्भानुपपत्तिः । अथेदानीमिन्द्रियाणि प्रमेयक्रमेण विचार्यन्ने किमाव्यनिकान्याहो खिगौतिकानीति कुतः संशयः ॥
कृष्णसारे सत्युपलम्भाद्यतिरिच्य चोपलम्भात् संशयः ॥ ३०॥
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३ अध्याये १ प्राक्रिकम् ।
५
कृष्णसारम्भौतिक तसिवनपरते रूपोपलब्धिः उपहते चानुपलब्धिरिति व्यतिरिच्य कृष्णसारमवस्थितस्य विषयस्थोपालम्भो न कृष्णसारप्रामय, न चाप्राप्यकारित्वमिन्द्रियाणाम् तदिदमभौतिकत्वे विभुत्वात् सम्भवति, एव सुभयधर्मोपलब्धे संशयः, अभौतिकानि इत्याह कस्मात् ।
महदणुग्रहणात् ॥३१॥
महदिति महत्तरं महत्तम चोपलभ्यते यथा न्ययोधपर्वतादि, बविल्यणुतरमणतमञ्च ग्ट ह्यते न्यग्रोधधानादि, तदुभयमुपलभ्यमानं चक्षुषो भौतिकत्व बाधते भौतिकं हि यावत्तावदेव व्यानोति अभौतिकन्तु विमत्वात् सर्वव्यापकमिति न महदणुमहणमाबादमौतिकत्वं विभुत्ववेन्द्रियाणां शक्यं प्रतिपत्त म् इदं खलु ।
रमार्थसन्निकर्षविशेषात् तहणम् ॥ ३२ ॥
तयोर्महदण्वोहणं चक्षुरप्रमे रर्थस्य च सन्निकर्षविशेषाद्भवति यथा प्रदीपरश्मेरस्य चेति रश्मार्थ मविकर्षश्चावरणलिङ्गः, चाच्च षो हि रश्मिः कुद्यादिभिरावृतमथं न प्रकाशयति यथा प्रदीपरश्मिरिति भावरणानुमेयत्वे सतोदमाह॥ तदनुपलब्ध रहेतुः ॥३३॥
रूपस्सी वद्धि तेजो महत्वाद नेकट्रव्यवत्त्वाञ्चोपलब्धिरिति प्रदीपवत् प्रत्यक्षत उपलभ्येत चक्षुषोरश्मि र्य दिस्यादिति । नातुमीयमानस्य प्रत्यक्षतोऽनुपलब्धिरभावहेतुः॥३४ . सन्निकर्ष प्रतिषेधार्थे नावरणेन लिङ्गेनानुमीयमानस्य रमे र्या प्रत्यचतोऽनुपलब्धि नसावभाव प्रतिपादयति । यथा चन्द्रमसः परभागस्य दृथिव्याश्चाधोभागय ॥
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५६ न्यायदर्शनवात्य यनभाष्ये द्रव्यगुणधर्मभेदाच्चोपलब्धि नियमः ॥ ३५॥
भिन्नः खल्वयं द्रव्य धर्मो गुणधर्मश्च महदनेकद्रव्यवञ्च विष लावयव. माय गं प्रत्यक्षतो नोपलभ्यते स्पर्शस्तु शी तो ग्टह्यते तस्य द्रव्यस्यानु. बन्धात् हेमन्त शिशिरौ कल्पते । तथाविधमेवच तैजसं द्रव्यमनुन तरूपं सह रूपेण नोपलभ्यते स्वास्त्वस्योष्ण उपलभ्यते तस्य द्रव्यस्यानुबन्धात् ग्रीभयसन्नौ कल्पवते यत्र त्वेषा भवति ॥ अनेकद्रव्यसमवायाद्रपविशेषाञ्च रूपोपलब्धिः॥३६॥
यत्र रूपञ्च द्रव्यञ्च तदाश्रयः प्रत्यक्षतः उपलभ्यते रूपविशेषस्तु यद्भावात् कचिद्रपोपलब्धिः यदभावाच्च द्रव्यस्य कचिद तुपलब्धिः स रूपधौऽयमुद्भवसमाख्यात इति, अनुङ्ग तरूपश्चायं नायनो रश्मिः, तस्मात्प्रत्यक्षतो नोपलभ्यत इति दृष्टश्च तेजसोधर्मभेदः उन तरूपस्पर्शम्प्रत्यक्षं तेजो यथादित्यरश्मयः, उद्भूतरूपमनद्भूतस्पर्श ञ्च प्रत्यक्षम् यथा प्रदीपरश्मयः । उगतस्पर्शमनुद्भूतरूपमप्रत्यक्षम् यथावादिसंयुक्त तेजः । अनुङ्ग, तरूपस्पर्शोऽप्रत्यक्षश्चाक्षुषोरश्सिरिति ॥ कर्मकारितश्चेन्द्रियाणां व्यूहः पुरुषार्थतन्त्रः॥३७
यथा चेतनस्यार्थो विषयोपलब्धिभूतः सुखदुःखोपलब्धिभूतच कल्पाते तथेन्द्रियाणि व्यूढानि विषय प्रात्यर्थश्च रश्मे वर्षस्य व्यूहः, रूपस्यानभिव्यक्तिश्च व्यवहारमा लत्यर्था द्रव्यविशेधे च प्रती घातादावरणोपपत्तिर्व्यवहारार्थी सर्बद्र व्याणां विश्वरूपोव्यूह इन्द्रियवत्कर्मकारितः पुरु. पार्थतन्त्रः । कर्म तु धर्माधर्मभूतं चेतनस्योपभोगार्थ मिति ।
अव्यभिचाराच्च प्रतीघातो भौतिकधर्मः ॥३८॥ यश्चावरणोपलम्मादिन्द्रियस्य द्रव्य विशेषे प्रतीघातः स भौतिकधी न भतानि व्यभिचरति नाभौतिकं प्रतिधातधर्मकं दृष्टमिति । अप्रतिघातस्त व्यभिचारो भौतिकाभौतिकयोः समानत्वादिति । यदपि मन्यते
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३ अध्याये १ आङ्गिकम् ।
१७
प्रतिधात भौतिका नीन्द्रियाणि अप्रतिघातादभौतिकामीतिप्राप्तम् दृष्ट - साप्रतिधातः काचाच पटलस्फटिकान्तरितोपल धेः तत्र युक्तम् कस्मात् यम्मानौतिकमपि न प्रतिहन्यते काचाच पटलस्फटिकान्तरित प्रकाशात् प्रदीपरश्मीना, स्थाल्यादिषु पाचकस्य तेजसो प्रतिघातः, उपपद्यते चानुपलब्धिः कारणभेदात् ॥ मध्यन्दिनोल्काप्रकाशानुपलब्धिवत्तदनुपलब्धिः॥३६ ___ यथाऽनेकद्रव्येण समवायाद पविशेषाञ्चोपलब्धिरिति सत्युपलब्धि का. रखे मन्दिनोल्काप्रकाशो नोपलभ्य ते आदित्यप्रकाशेनाभिभूतः, एवं महदनेकद्रव्य ववादूपविशेषाञ्चोपलब्धिरिति, सत्य पलब्धि कारणे चाक्षुषो रश्मि!पलभ्यते निमित्तान्तरतः, तच्च व्याख्यातमनुद्भतरूपस्पर्शद्रव्यस्य प्रत्यशतोऽनुपलब्धिरिति, अत्यन्तानुपलब्धि श्वाभावकारणम्, योहि नवीति लोट प्रकायो मध्यन्दिने श्रादित्यप्रकाशाभिभवानोपलभ्यत इति तस्यैतत्यात ॥
न रात्रावष्यनुपलब्धेः ॥ ४० ॥
अप्यनुमानतोऽनुपलब्धिरिति एवमत्यन्नानुपलब्धे ोष्ट प्रकाशो नास्ति नत्वे चक्षुषो रस्मिरिति उपपत्ररूपा चेयम् ॥
वाह्यप्रकाशानुग्रहादिषयोपलब्धेरनभिव्यक्तिताऽनुपलब्धिः ॥ ४१ ॥ ___ वाद्येन प्रकायेनानुग्टहोतं चक्षुर्विषयग्राहकम्, तदभावेऽनुपलब्धिः, सति च प्रकाशानुग्रहे शीतपापलब्धौ च सत्यां तदाश्रयस्य द्रव्यस्य चक्षषा ऽग्रहणम् रूपस्यातुङ्ग तत्वात् सेयं रूपानभिव्य तितो रूपाश्रयस्य
व्यस्यानुपलब्धिईष्टा तत्र यदुनं तदनुपलब्धेरहेवरियेतदयुक्तम्, करमात् पुनरभिभवोऽनुपलब्धि कारणम् चाक्षुषस्य रश्मेोंच्यत इति ॥
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४८ न्यायदर्शनवात्यायनभाष्थे
अभिव्यक्तौ चाभिभवात् ॥ ४२ ॥ वाह्यप्रकाशानुयहनिरपेक्षतायाञ्चति चार्थः, यद्रूपमभिव्यक्तमतं वाह्यप्रकाशानुग्रहं च नापेक्षते तविषयोऽभिभवोविपर्यये ऽभिभवाभावात् अनुभूतरूपत्वा चानुपलभ्यमानं वाह्यप्रकाशानुपहाच्चोपलभ्यमानं नाभिभूयत इति एवम् पपत्रम् अस्ति चाक्षुषो रश्मिरिति ॥
नक्त चरनयनरश्मि दर्शनाच्च ॥ ४३ ॥
दृश्यन्ते. हि न नयनरश्मयो नकचराणां वृषदंशमभृतीनाम्, तेन शेषस्थानुमानमिति, जातिभेददिन्द्रियभेद इनि चेत् धर्ममात्र चानुपपन्नम् बावरणस्य माप्तिप्रतिषेधार्थस्य दर्शनादिति। इन्द्रियार्थ सनिकर्षस्य ज्ञानकारणत्वानुपपत्तिः कस्मात् ॥ .
अप्राप्य ग्रहणम् काचावपटल स्फटिकान्तरितोऽपलब्धे ॥४४॥
तृणादिसर्पद्व्यं काचेचपटले वा प्रतिहतं दृष्टमव्यवहितेन मत्रिसध्यते व्यवहन्यते वै प्राप्तिय॑वधानेनेति यदि च रश्मार्थसत्रिकीमहणहेतः स्यात् न व्यवहितस्य सनिकर्ष इत्यग्रहणं स्थात् अस्ति चेयं काचाचपटलस्फटिकान्तरितोपलब्धिः सा शापयत्व प्राप्यकारीणीन्द्रियाणि अत एवाभौतिकानि प्राप्यकारित्व हि भौतिकधर्म इति ।
न कुड्यान्तरितानुपलब्धे रप्रतिषेधः ॥ ४५ ॥ अप्राप्यकारित्वे सतीन्द्रियाणां कुद्यान्न रितस्यानुपन धिन स्यात् प्राध्यकारित्वेऽपि न काचमपटलम्फटिकान्तरितोपलचिर्न स्थात् ॥
अप्रतिघातात् सन्निकर्षोपपत्तिः ॥ ४६ ॥
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३ श्रध्याये । चह्निकम् ।
न च काचाभ्रपटलं वा नयमरसिं विष्टम्नाति सो ऽप्रतिहन्यमानः सन्निकृष्यत इति यच मन्यते न भौतिकस्याप्रतीषात इति तत्र ॥
,
तात् ॥ ४७ ॥
आदित्यरश्मेः स्फटिकान्तरेऽपि दायेविषा
ع
च्यादित्यरश्मेर विधातात् स्फटिकान्तरितेऽभ्यविधातात् दाह्येऽविषातत्काविघातादिति च पदाभिसम्बन्धभेदाद्वाक्य भेद इति यथा वाक्यं चार्थभेद इति प्रतिवाक्य वाक्यार्थभेदः चादित्यरश्मिः कुम्भादिषु न प्रतिहन्यते यविधातात् कुम्भस्यमुदकन्नपति प्राप्तौ हि द्रव्यान्तरगुणस उष्ण स्पर्शस्य ग्रहणम् तेन च शोतस्पर्धाभिभव इति, स्पटिकान्तरितेऽपि प्रकाशनीये प्रदीप रश्मीनामप्रतिघातः प्रतिघातात् प्राप्तस्य ग्रहणमिति भर्जनकपालादिस्यञ्च द्रव्यमाग्न येन तेजसा दह्यते तत्राविघातात् प्राप्तिः प्राप्तौ तु दाहोनाप्राप्यकारि तेज इति विधातादिति च केवलं पदसुपादीयते कोऽयमविधातो नाम अव्ययमानावयवेन व्यवधायकेन द्रव्येणासर्वतो द्रव्यस्याविष्टम्भः क्रिया तोरप्रतिबन्धः माझेरप्रतिषेध इति, दृष्टं हि कल निषक्तानामपां वहिः शीतस्पर्धस्य यहणम्, न च इन्द्रियेणाभन्निकृष्टस्य द्रव्यस्य स्पर्शोपलब्धिः दृष्टौ च प्रस्यन्दपरिस्रवौ तत्त्र काचानपटलादिभिर्नयमरमे रम्रतिघाताद्दिभिद्यार्थेन
सह सन्निकर्षादुपपक्ष
महणमिति ॥
नेतरेतरधर्म्मप्रसङ्गात् ॥ ४८ ॥
काचापटलादिवडा कुड्यादिभिरप्रतिघातः कुद्यादिवद्दा काचाम
पटलादिभिः प्रतिघात इति नियमे कारणं वाच्यमिति ॥
आदर्शोदकयोः प्रसादस्वाभाव्याद्रूपोपलब्धि
वत्तदुपलब्धिः ॥ ४६ ॥
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१००
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
बादशादकयोः प्रसादो रूपविशेषः वो धर्मेनियमदर्शनात् प्रसा दस्य वा स्वोधर्मोरूपोपलम्भनम् यथादर्श प्रतिहतस्य पराष्टत्तस्य नयनरश्मः खेन मुखेन सत्रिकर्षे सति खमुखोपलम्भनं प्रतिविम्बग्रहणाख्यमादर्शरूपानुग्रहात्तनिमित्तं भवति श्रादर्श रूपोपघाते तदभावात् कुयादिष च प्रतिबिम्ब ग्रहणं न भवति एवं काचाभ्रपटलादिभिरविघातश्चत्रश्मः कुद्ध्यादिभिच प्रतिघातोद्रव्य स्वभावनियमादिति ॥ :
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5
O
दृष्टानुमितानां नियोगप्रतिषेधानुपपत्तिः ॥५०॥
A
A
प्रमाणस्य तत्त्वविषयत्वात् न खलु भोः परीच्यमाणेन दृष्टानुमिता अर्था: शक्या नियोक्तुमेवं भवतेति नापि प्रतिषेडुमेवं स भवतेति नहीदमुपपद्यते रूप वह्नन्धाऽपि चाचुषो भवत्विति गन्धवद्दा रूपञ्चाक्षुषं माभूदिति काग्निप्रतिपत्तिव मे नोदक प्रतिपत्तिरपि भवत्विति उदकाप्रतिपत्तिवा धूमेनाग्निप्रतिपत्तिरपि माभूदिति किं कारणम् यथा खवर्धा भवन्ति य एषां स्वोभावः खोधर्म इति तथाभूताः प्रमाणेन प्रतिप्रद्यन्त इति तथाभूतविषयकं हि प्रमाणमिति इमौ खलु नियोगप्रतिषेधौ भवतादेशितौ काचाभ्रपटलादिवद्दा कुयादिभिरप्रतिघातो भवतु कुद्यादिवा काचाम्रपटलादिभिरप्रतिघातो काभूदिति न दृष्टानुमिताः खलिमे द्रव्यधर्माः प्रतिवाताप्रतीघातयो पलब्धानुपलब्धी व्यवस्थापिके ब्यवहितानुपलब्धप्रानुमीयते कुयादिभिः प्रतिघातः, व्यवहितोपलब्बाऽनुमीयते काचाचपटलादिभिरप्रतिषात इति अथापि खल्वे कमिदमिन्द्रियं बनीन्द्रियाणि वा कुतः संशयः ॥
स्थानान्यत्वे नानात्वादवयविनानात्वादवयविनानास्थानत्वाच्च संशयः ॥ ५१ ॥
बहूनि द्रव्याणि नानास्वानानि दृश्यन्ते नानास्थानश्च सन्देकोऽवयवी चेति तेनेन्द्रियेषु भिन्नस्थानेषु संशय इति एकमिन्द्रियम् ॥
त्वगव्यतिरेकात् ॥ ५२ ॥
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३ अध्याये १ धाङ्गिकम्। १०१ त्वगेकमिन्द्रियमित्याह कस्मात् अव्य तिरेकात् न व वा किञ्चिदिन्द्रि. याधिष्ठानं न प्राप्तम् न चासव्या त्वचि किञ्चिद्दिषयग्रहणं भवति यया सर्वेन्द्रियस्थानानि व्याप्तानि यस्याञ्च सत्यां विषयग्रहणं भवति सा वगेकमिन्द्रियमिति ॥
नेन्द्रियान्तरार्थानुपलब्धेः ॥ ५३॥
स्पर्शो पलब्धि लक्षणायां सत्यां त्वचि ग्टह्यमाणे त्वगिन्द्रियेण स्पर्शेन्द्रियान्तरार्या रूपादयो न ग्टह्यन्ने अन्धादिभिः न स्वर्थयाहकादिन्द्रियानरमस्तीति सर्यवदन्वादिभिर्ट होरन् रूपादयो न च ग्टह्यन्ते तमावैकमिन्दियं त्वगितिक
त्वगवयवविशेषेण धमोपलब्धिवत्तदुलपब्धिः ॥५४॥
यथा त्वचोऽवविशेषः कश्चिञ्चक्षषि सचिलटा धमस्स” म्टहाति नान्यः एवं खचोऽवयव विशेषोरूपादिग्राहकस्तेषा पघातादन्वादिभि नग्टान्ने रूपादय इति ॥
आहतत्वादहेतुः ॥ ५५॥ त्वगव्य तिरेकादेकमिन्द्रियमित्युक्त्वा त्वगवयव विशेषेण धमोपलब्धिव पाळूपलब्धिरित्युच्यते एवं च सति नानाभूतानि विषयग्राहकाणि विषयव्यवस्थानात् तद्भाधे विषयत्रहणस्य भावानदपघाते चाभावात् तथा च पूर्वोवाद उत्तरेण वादेन ब्याहन्यत इति, सन्दिग्धश्चाव्यतिरेकः पृथिव्यादिभिरपि भूतैरिन्द्रियाधिष्ठानानि व्याप्तानि न च तेष्वसत्य विषयग्रहणं भवतीति वमान त्वगन्यदा सर्व विषय मेकमिन्द्रिय मिति ॥
न युगपदर्थानुपलब्धः ॥५६॥
बात्मा मनसा संबध्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियं साथैः सनिष्टमिति अात्मेन्द्रियमनोऽर्थ सन्त्रिकर्षेन्यो युगपङ्गहणानि स्यः, न च युगपद्
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१०२ .
न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
रूपादयो ग्टह्यन्ने, तस्माकमिन्द्रियं सर्व विषयमस्तीति असाहचर्याच्च विषयग्रहणानां नैकमिन्द्रियं सर्वविषयकम्, साहचर्ये हि विषयग्रह. पानामन्वन्द्यनुपपत्तिरिति || विप्रतिषेधाच्च नत्वगेका ॥ ५७॥
न खलु त्वमेक मिन्द्रियं व्याघातात् त्वचा रूपाण्य प्राप्तानि ग्टह्यन्न इति छ प्राप्य कारित्वे स्वादिष्वप्येवं प्रसङ्गः, स्पर्शादी नाच प्राप्तानां ग्रहणाद्रपादीनाममाप्तानामग्रहणमिति प्राप्तम्, प्राप्थाप्राप्य शारित्वमिति चेत् प्रावरणानुपपत्ते विषयमावस्य यहणम्, अथापि मन्ये त प्राप्त: स्पर्शादयस्व चा ग्टह्यन्ते रूपाणि त्वप्राप्तानीति, एवं सति नास्यावरणम् अावरणानुपपत्तेश रूपमालस्य ग्रहणं व्यवहितस्य चाव्य हितस्य चेति। दूरान्तिकानुविधानं च रूपोपलब्ध अनुपलब्धयो न स्यात् अप्राप्त स्वचा ग्ट ह्यते रूपमिति दूरे रूपस्याग्रहणमन्नि के च ग्रहणमित्ये तन्नस्यादिति एकत्वप्रतिषेधाच नानात्य सिवौ स्थापना हेतुरस्य पादीयते ॥
इन्द्रियार्थपञ्चत्वात् ॥ ५८॥
अर्थः प्रयोजनं तत् पञ्चविधमिन्द्रियाणाम्, स्पर्श नेनेन्द्रियेण स्यग्रहणे सति न तेनैव रूपं ग्टह्यत इति रूपग्रहणप्रयोजनं चक्षुरनुमोयते, स्पर्शरूपग्रहणेच ताभ्यामेव गन्धो न ग्ट ह्यत इति गन्धग्रहणप्रयोजनं ध्राणमनुमीयते, बयाणां यहणे न तैरेव रसो ग्टह्यत इति रसग्रहणप्रयोजनं रस नमनुमोयते, न चतुणा यहणे तैरेव शब्दः श्रूयत इति शब्दग्रहण प्रयोजनं श्रोत्रमनुमीयते, एवमिन्द्रियप्रयोजमस्थानितरेतरमाधनसाध्यत्वात् पञ्चैवेन्द्रियाणि ॥
न तदर्थ बहुत्वात् ॥ ५ ॥
न खल्विन्द्रियार्थ पञ्चत्वात् पञ्चन्द्रियाणीति सियति, कम त् तेषामर्थानां बढ़त्वात्, बहवः खल्लि मे इन्द्रियार्थाः, स्पर्शास्तावच्छीतोबणानुष्णशीता इति, रूपाणि शुक्लहरितादोमि, गन्धा इष्टानिष्टापेक्ष
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३ अध्याये । चह्निकम् ।
१०३
श्रीयाः रसाः कटुकादयः शब्दा वर्णात्मानो ध्वनिमात्राश्च भिन्नाः, तद्यस्थेन्द्रियार्थपञ्चत्वात् पञ्च ेन्द्रियाणि तखेन्द्रियार्थ बहुत्वाद्दह नीन्द्रियाणि प्रमुज्यन्त इति ॥
गन्धत्वाद्यव्यतिरेकाङ्गन्धादीनामप्रतिषेधः ॥ ६० ॥
,
गत्वादिभिः स्वसामान्यैः कृतव्यवस्थानां गन्धादीनां यानि गन्धादि ग्रहणानि तान्यसमानसाधनसाध्यत्वाग्राहकान्तराणि न प्रयोजयन्ति, अर्थ समूहोऽनुमानमुक्तो नार्थेकदेशः यथेकदेशञ्चाश्रित्य विषयपञ्चत्वमात्र' मवान् प्रतिषेधति, तस्मादयुक्तोऽयं प्रतिषेध इति कथं पुनर्गन्धत्वादिभिः स्वसामान्यैः कृतव्यवस्था मन्वादय इति । स्पर्शः खल्वयं त्रिविधः शोन उष्णाऽनुष्णशीतश्च स्पर्शत्वेन स्वसामान्येन सङ्ग होत: गृह्यमाणे च शीतस्पर्शे नोष्णस्यानुष्णाशीतस्य वा ग्रहणम् ग्राहकान्तरं प्रयोजयति, स्पर्शभेदानामेकसाधनसाध्यत्वात् । येनैव शीतस्पर्थे। ग्टह्यते तेनैवेवराव पीति । एवं गन्धत्वेन गन्धानां रूपत्वेन रूपाणां रसवेन रसानां शब्दवेन शब्दानामिति, गन्धादिग्रहणानि पुनरसमानसाधनसाध्यत्वाद्वाहकान्तराणां प्रयोजकानि, तस्मादुपपन्नमिन्द्रियार्थ पञ्चत्वात् पञ्चेन्द्रियापोति, यदिसामान्य संग्राहकं प्राप्तमिन्द्रियाणाम् ॥
विषयत्वाव्यतिरेकादेकत्वम् ॥ ६१ ॥
विषयत्वेन हि सामान्येन गन्वादयः संग्टहोता इति ॥
न बुद्धिलक्षणाधिष्ठानगत्याद्य तिजातिपञ्चत्वेभ्यः। ६
न खलु विषयत्वेन सामान्येन कृतव्यवस्था विषया ग्राहकान्तरनिरमेचा एकसाधनग्राह्या अनुमीयन्ते, अनुमीयन्ते च पञ्च गवादयो गन्धत्वादिभिः स्वसामान्यैः कृत व्यवस्था दून्द्रियान्तरमायास्तस्माद सम्बर्द्धमेतत् । त्रयमेव चार्थे प्रद्यते बुद्धिलचणपञ्चत्वादिति, बुद्धय एव लक्षणानि विषयग्रहणलिङ्गत्वादिन्द्रियाणाम्, तदेतदिन्द्रियार्थपञ्चत्वादित्येतस्मित् सले छानिति, रुमा बुद्धिलच यपञ्चत्वात् पञ्चेन्द्रियाणि,
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१०४ न्यायदर्शनवाब्यायनभाष्ये अधिष्ठानान्यपि खलु पञ्चेन्द्रियाणाम् सर्वशरीराधिष्ठानं स्पर्शनं सर्श. पहलिङ्गम्, कृष्णसाराधिष्ठान चक्षुर्वहिनिःसृतं रूपग्रहणलिङ्गम्, नासाधिधानं घ्राणम, जिह्वाधिष्ठानं रसनम्, कर्णच्छिद्राधिष्ठान श्रोनम्, गन्धरसरूपस्पर्शशब्दयहलिङ्गत्वादिति । गतिभेदादपीन्द्रियभेदः, कृष्ण सारोपनिबच्वं चक्षुर्वहिनिःसृत्य रूपाधिकरणानि द्रव्याणि मा प्रोति, स्पर्श नादीनित्विन्द्रियाणि विषयाएवाश्रयोपसर्पणात् प्रत्यासीदन्ति, सन्तानसत्त्या शब्दस्य श्रीवप्रत्यासत्तिरिति प्राकृतिः खलु परिमाथमियत्ता सा पञ्चधा स्वस्थानमात्राणि प्राणरमनपर्शमानि विषयपहणे नानु मेयानि, चक्षुः कृष्णसाराश्रयं वहिनि:सृतं विषयव्यापि, श्रोत्रं नान्यदाकाशात्, तच विभु शब्दमानानुभवानुमेयं पुरुषसंस्कारोपपहाच्चाधिष्ठाननियमेन शब्दस्य व्य अकमिति | जातिरिति योनि प्रच. क्षते, पञ्च खत्खिन्द्रिययोनयः पृथिव्यादीनि भतानि, तस्मात् प्रकृतिपञ्चत्वादपि पञ्चेन्द्रियाणीति सिद्धम्, कथं पुन जायते भूतप्रकृतीनीन्द्रियाणि नाव्यक्त प्रकतीनीति ॥ भूतगुणविशेभोपलब्ध स्तादात्माम् ॥ ६३ ॥
दृष्टोहि वाह्यादीनां भूतानां गुणविशेषाभिव्यक्ति नियमः, वायः स्पर्श व्यञ्जकः, अपो रसव्यक्षिकाः, ते जो रूपव्याकम्, पार्थिवं किञ्चिद्द्रव्यं कचिद्व्यस्य गन्धव्यञ्जकम् । अस्ति चायमिन्द्रियाणां भूतगुणविशेषोपधिनियमः, ते न भूतगुणविशेषोलब्धे मैन्यामहे भूतप्रकृतीनीन्द्रियाणि नाव्याप्रकतोनीति, गन्धादयः पृथिव्यादिगुणा इत्यु पदिष्टम् उद्देशव पृषिव्यादीनामेकगुणत्वे समान दूत्यत आह ।
गन्धरसरूपस्पर्शशब्दानां स्पर्शमय॑न्ताः पृथिव्याः अप्लेजोवायूनां पूर्व पूर्व मपोह्याकाशस्योत्तरः ॥१४॥
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३ अध्याये १ प्राज्ञिकम् ।
१०५
स्मर्थ पर्यन्नानामिति विभक्ति विपरिणाम:, अकाशयोत्तर शब्दः सर्थ पर्यन्तेभ्य इति कथन्तरनिर्देशः स्वतन्त्रविनियोगसामर्थ्यात्, तेनोतरशब्दस्य परार्थाभिधानं विज्ञायते, उद्देशमूवेहि पथपर्यन्तेभ्यः परशब्द इति तन्त्र वा स्पर्शस्य विवक्षितत्वात् स्पर्श पर्यन्तेष नियनष योऽन्यस्तदुत्तरः शब्द इति ॥
न सर्व गुणानुपलब्धः ॥ ६५ ॥
नायं गुणनियोगः साधुः, कस्मात् यस्य भूतस्य ये गुणा न ते तदा। लम केनेन्द्रियेण सर्वे उपलभ्यन्ते पार्थिवेन हि प्राणेन स्पर्श पर्यन्ता न ग्टह्यन्ते गन्धएको ग्टह्यते एवं शेषेष्वपीति कधन्तहोंमे गुणा, विनियोकव्या इति॥
एकैकस्यैवोत्तरोगुणसद्भावादुत्तरोत्तराणां तदनुपलब्धिः ॥ हद्द ॥
गन्धादीनामेकैको यथाक्रमं दृथिव्यादीनामेकैकस्य गुण: अतस्तदनु. पलब्धिः तेषान्तयोस्तस्य चानुपलब्धिः, घाणेन रसरूपस्पर्शानी रसेन रूपसश्योः, चक्षुषा स्पर्शस्येति, कथन्तमुनेकगुणानि भूतानि ग्टह्यन्त इति । संसग्गोच्चानेकगुणग्रहणम् ॥७॥
अवादिसंसर्गाच्च प्रथिव्यां रसादयो ग्टह्यन्ने एवं शोषेष्व पोति निय. मस्तहि न प्रानोति संसर्गस्यानियमाञ्चवर्गुणा प्रथिवी त्रिगुणा आपो वि. गुणं तेज एकगुणो वायुरिति नियमचोपपद्यते कथम् ॥ विष्टं ह्यपरम्परेण ॥४८॥
पृथिव्यादीनां पूर्वम्पर्ध्वमुत्तरेणोत्तरेण विष्टमतः संसर्गानियम इति तञ्च तद्भूतसृष्टौ वेदितव्यतीति ॥ न पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् ॥ ६ ॥
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१०६
न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
नेति त्रिस्तूत्रों पव्याचष्ट, कस्मात् पार्थिवस्य द्रव्यस्याभ्यस्य च प्रत्ये चत्वात् महत्त्वानेकद्रव्यत्वाद्रूपाञ्चोपलब्धिरिति तैजसमेव द्रव्यं प्रत्यक्षं स्यात् न पार्थिवमाम्य' वा रूपाभावात् तेजसवन्तु पार्थिवाप्ययोः प्रत्यचत्वात् न संसर्गादनेकगुणग्रहणं भूतानामिति । भूतान्तररू पलतन्तंञ्च पार्थिवाप्ययोः प्रत्यचत्व ं ब्रुवतः प्रत्यन्चो वायुः प्रसज्यते नियमे वा कारणमुच्यतामिति, रसयोर्वा पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् पार्थिवो रसः षड्विधः, ग्राथ्यो मधुरएव नचैतत् संसर्गाद्भवितुमर्हति, रुपयोर्वा पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् तैजसरूपानुग्टहीतयोः संसर्गेहि व्यञ्जकमेव रूपं न व्यङ्गयमस्तीति एकानेकविधत्वं च पार्थिवाप्ययोः प्रत्यचत्वात् रूपयोः, पार्थिवं हरित लोहितपीताद्यमेकविधं रूपम्, ग्राम्यन्तु शुक्तमप्रकाशम् । नचेतदेकगुणान संसर्गे सत्युपलभ्यत इति । उदाहरणमात्रञ्चैतत् अतः परं प्रपञ्चः, स्पर्शयोर्वा पार्थिवतेजसयोः प्रत्यचत्वात् पार्थिवोऽनुष्णाशीतः सर्थः, उष्णस्तै - जसः प्रत्यच्चो, नचैवदेक गुणानामनुष्णशीत सर्भेन वायुना संसर्गेोपपद्यत इति, अथवा पर्थिवाप्ययो ट्रैव्ययोर्व्यवस्थितगुणयोः प्रत्यचत्वात् चतुर्गुणं पा र्थिवं द्रव्यं त्रिगुणमः प्यं प्रत्यक्षन्तेन तत्कारणमनुमीयते, तथाभूतमिति तस्य कार्यं लिङ्ग' कारणभावाद्धि कार्यभाव इति, एवं तैजसवायव्ययोर्द्रव्ययोः प्रच्चत्वा सव्यवस्थायास्तत्कारये द्रव्ये व्यवस्थानुमानमिति । दृष्टश्च विवेक : पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् पार्थिवं द्रव्यमवादिभिर्वियुक्त ं प्रत्यचतो ग्टहृते ब्राप्यञ्च पराभ्यां तैजसृञ्च वायुना न चैकैकगुणं ग्टह्यत इति निरनुमानन्तु बिष्ट' ह्यपरं परेणेत्येतदिति नावलिङ्गमनुमापकं ग्टह्यत इति येनैतदेवं प्रतिपद्येर्माह यत्रोक्तं विष्टं ह्यपरम्परेणेति भूतसृष्टौ बेदितभ्यां न साम्प्र तमिति नियमकारणाभावादयुक्त ं दृष्टञ्च सम्प्रितमपरम्परेण विष्टमिति बायना च विष्टं तेज इति । वित्व संयोगः सच द्वयोः समानो 'वायुना च विष्टत्वात् स्पर्शवत्तेजो न तु तेजसाविष्टत्वाद्रूपवान् वायुरिति नियमकारणं नास्तीति । दृष्टञ्च तैजसेन सर्थेन वायव्य सार्थस्याभिभवादपणमिति न च तेनैव तस्याभिभव इति । तदेवं न्यायविरुद्धं प्रवादं प्रतिषिध्यन् सर्व्वगुणानुपलश्धेरिति चोदि तं समाधोयते ॥
и
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३ श्रध्याये १ श्रह्निकम् ।
१०७
पूर्व पूर्व
गुणोत्कर्षात्तत्तव्यधानम् ॥ ७० ॥
तस्मान्न सर्व्वगुणोपलब्धिः प्राणादीनां पूर्व्वं पूर्वं मन्वादेर्गुणस्यो त्कर्षात्तत्तत्प्रधानम् का प्रधानता विषयग्राहकत्वम्, को गुणोत्कर्षः भिव्यक्तौ समर्थत्वम्, यथा वाह्यानां पार्थिवाप्यतैजसानां द्रव्याणां चतुर्गत्रिगुणद्दिगुणानां न सर्व्वगुणव्यञ्जकत्वस्, गन्धरसरूपोत्कर्षात्त यथाक्रमं गन्धरसरूपव्यञ्जकत्वम्, एवं घ्राणरसनचक्षुषां चतुर्गुणत्रिगुणद्विगुणानां सर्व्वगुणग्राहकत्वम् । गन्धरसरूषोत्कर्षात्तु यथाक्रमं गन्धरसरूपग्राहकत्वं तस्माद् घ्राणादिभिर्न सर्वेषां गुणानामुपलब्धिरिति । यस्तु प्रतिजानीते गन्धगुणत्वाद्वाणं गन्धपाइकं एवं रसनादिष्वपीति तस्य यथागुणयोगं प्राणादिभिर्गुणग्रहणं मन्यत इति किंकृतं पुनर्व्यवस्थानम् किञ्चित् पार्थिवमिन्द्रियं न सर्व्वाणि कानिचिदाप्यतैजसवायव्यानीन्द्रियाणि न सपोनि ।
।
T
तयवस्थानन्तु भूयस्त्वात् ॥ ७१ ॥
कार्थनिरृतिसमर्थस्य प्रविभक्तस्य द्रव्यस्य संसर्गः पुरुषसंस्कारकारितो भूयस्त्वम्, दृष्टो व्हि प्रकर्षे भूयस्वग्रब्दः मष्टो यथा विषयोभूयानित्युच्यते । यथा पृथगर्थ क्रियासमर्थानि पुरुषसंस्कारवणाद्विषौषधिमणिप्रभृतीनि
।
द्रव्याणि निर्वत्र्त्यन्तेन सर्वं सर्वार्थम् एवं पृथग्विषयग्रहणसमर्थानि घ्राणादीनि निर्वत्यन्ते न सर्व्व विषयमासमर्थानीति स्वगुणानोपलभन्त इन्द्रियाणि कस्मादितिचेत् ॥
सगुणानामिन्द्रियभावात् ॥ ७२ ॥
स्वान् गन्वादोनोपलभन्ते प्राणादीनि केन कारणेनेतिचेत् स्वगुणे : सह घ्राणादीनामिन्द्रियभावात् घ्राणं खेन गन्धेन समानार्थकारिया मह बाह्य गवं ग्टह्णाति तस्य स्वगभ्वग्रहणं सहकारिवेकल्पात् न भवति, एबं शेषाणामपि यदि पुनर्गन्धः सहकारी च स्यात् घ्राणस्य ग्राह्यश्चेत्त
तबाह ||
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये तेनैव तस्याग्रहणाच ॥ ७३ ॥
न गुणोपलब्धिरिन्द्रियाणाम्। यो व्रते यथा वाह्य द्रव्यं चक्षघा ग्टह्यते तथा तेनैव चक्षुषा तदेव चक्षुर्ट हतामिवि ताहगिदम् डल्लोाभयत्र प्रतिपत्ति हेत्वभाव इति ||
न शब्दगुणोपलब्धः ॥ ७४॥
खगुणान्नोपलमन्ते इन्द्रियाणौत्येतत् न भवति उपलभ्यते हि खगुणः शब्दः लेणेति॥ तदुपलब्धिरितरतरद्रव्यगुणवैधात् ॥ ७५ ॥
न शब्देन गुणेन सगुणमाकाशमिन्द्रियं भवति न शब्दः शब्दस्य व्यञ्जकः न च प्राणादीनां स्वगुणग्रहणं प्रत्यक्षं नाप्यनुमीयते अनुमीयते तु श्रोत्रेणाकाशेन शब्दस्य ग्रहणं शब्दगुणत्वञ्चाकाशस्येति, परिशेषश्चानुमान वेदितव्य म्, आत्मा तावत् श्रोता न करणं मनमः श्रोत्नत्वे वधिरत्याभावः पृथिव्यादीनां प्राणादिभावे सामर्थं श्रोत्रभावे चासामर्थम् अस्ति चेदं श्रोत्रमाकाशञ्च शिष्यते परिशेषादाकाशं श्रोमिति ॥
इति वात्स्यायनीये न्यायमाष्य रतीयाध्यायस्याद्यमालिकम् ॥
परीक्षितानीन्द्रियाण्यर्थाश्च बुवेरिदानी परीक्षाक्रमः सा किमनित्या नियावेति कुतः संशयः ॥ कर्माकाशसाधर्म्यात् संशयः ॥१॥
अस्सर्शवत्वन्नाभ्यां समामो धर्म उपलभ्यते । बुडो विशेषश्चोपजनापायधर्मवत्वम् विपर्य यश्च यथाखनित्यमित्ययोस्तस्यां बुद्धौ नोपलस्यते
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३ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
१०६
तेन संशयः । अनुपपत्ररूपः खल्वयं संशयः, सर्वशरीरिणां हि प्रत्यात्मबेदनीयाऽनित्या बुद्धिः सुखादिवत्, भवति च संवित्तिास्यामि जानामि अनासिषमिति नचोपजनापायौ अन्तरेण काल्यव्य तिः, ततञ्च काल्यव्यक्त रनिया बुद्धिरित्येतत् सिद्धम्, प्रमाणसिद्धञ्चेदम् शास्तेऽप्युक्तम् इन्द्रियार्थसविकर्षीत्यवं यगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमित्येवमादि, तस्मात् संशयप्रक्रियानुपपत्तिरिति । दृष्टिप्रवादोपालम्भार्थन्तु प्रकरणम्। रवं हि पश्यन्तः प्रवदन्ति सायाः पुरुषस्थान्तःकरणभूता नित्याः बुद्धिरिति माधने प्रचक्षते ।।
विषय प्रत्यभिज्ञानात् ॥२॥
किं पुनरिदं प्रत्यभिज्ञानम् यं पूर्व मजासिषमर्थं तमिमं जानामीति ज्ञानयोः समा नेऽर्थे प्रतिसन्धि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् एतच्चावस्थिताया बुद्धे रुपपन्नम्, नानात्वे व बुद्धिभेदेष मन्ना पबर्गिघु प्रत्यभिसामानुपपत्तिः नान्य ज्ञातमम्यः प्रत्यभिजानातीवि ॥
साध्यसमत्वादहेतुः ॥३॥
यथा खलु नित्यत्व' बुद्धेः माध्यमेवम्प्रत्यभिज्ञानमपीति किं कारएम् चेतनमय करणेऽनुपपत्तिः पुरुषधर्मः खल्वयं ज्ञानं दर्शनम्पलमिर्बोधः प्रत्ययोऽध्यवसाय इति, चेतनो हि पूर्वज्ञातमर्थम्प्रत्यभिजानातोति तसै बस्माद्दे तो नित्यत्वं युक्तमिति, करणचैतन्याभ्यु पगमे तु चेतन खरूपं वचनीयं नानिर्दिटवरूपमात्मान्तरं शक्यमस्तीति प्रतिपत्तम्, ज्ञानञ्चेबखेरन्तःकरणस्याभ्युपगम्बते, चेतनखेदानी किं स्वरूप को धर्मः किन्तत्त्वम् ज्ञानेन च बुद्धौ वर्तमानेनायं चेतनः किं करोतीति, चेतयत इति चेत् न ज्ञानादर्थान्तरवचनम्। पुरुषश्च तयते बुद्धिानातीति नेदं ज्ञानादर्थान्तरमुच्यते चेतयते जानीते बुध्यते पश्यन्तु पलभ्यत इत्ये कोऽयमर्थ इति, बुद्धि पयतीतिचेत् अवा जानीते पुरुषो बुद्धि पयतीति सत्य- . मेतत् एवचाभ्युपगमे ज्ञानं पुरुषखेति सिद्ध भवति न बुझेरन्तःकरण
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न्यायदर्शनवासायनभाष्य
स्पेति प्रतिषु रुषश्च शब्दान्नरव्यवस्था प्रतिक्षाने प्रतिषेधहेतवचनम् । यञ्च मातिजानीते कश्चित् पुरुषचे तयते कश्चिद्बुध्यत्वे कश्चिदुपलभते कश्चित् पश्यतीति पुरुषान्तराणि खुल्चिमानि चेतनोबोधोपलभया द्रष्टेति नैक
ते धर्मा इति, अन कः प्रतिषेधहेतरिति, अर्थस्याभेद इति चेत् समानमभिन्नार्था एते शब्दा इति तत्र व्यवस्थानुपपत्तिरित्येवं चेन्मन्यसे समानं भवति पुरुषश्चेतयते बुद्धिर्जानीते इत्यत्वाभ्यर्थो न भिद्यते तत्रोभयोश्चेतनत्वादन्यतरलोप इति यदि पुनर्बुध्यतेऽनयेति बोधर्म बुद्धिर्मका एबोच्यते बच नित्यम् अस्व तदेवं न त मनमोविषयप्रत्यभिज्ञानानित्यत्वत् । दृष्ट हि करणभेदे मातरेकत्वात् प्रत्यभिज्ञानम् सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानादिति चक्षुर्वत् प्रदीपवच्च प्रदीपान्तरदृष्टस्य प्रदीपान्तरेण प्रत्यभिज्ञानमिति तस्माज्ञातरयं नित्यत्वे हेतुरिति । यञ्च मन्यते बुद्धेरवस्थिताया यथाविषयं वृत्तयो जानानि निचरन्ति वृत्तिच तिमतो नान्येति ॥
न यगपदग्रहणात् ॥४॥
वृत्तिलिमतोरनन्धत्ते वृत्तिमतोऽस्थानावृत्तीनामवस्थानमिति यानीमानि विषययणानि तान्यतिष्ठन्त इति युगपहिषयाणां ग्रहणं प्रसज्यत इति ॥
अप्रत्यभित्ताने च विनाशप्रसङ्गः॥५॥
अतीते च प्रत्यभिचाने इत्तिमानप्यतीत इत्यन्तःकरणस्य विनाश प्रसज्यते विपर्यये च नानात्वमिति । अविभुः चैकम्मनः पर्याये न्द्रियः संयुज्य त इति॥
क्रमत्तित्वादयुगपडहणम् ॥ ६ ॥
इन्द्रियार्थानां वृत्तित्तिमतो नात्वमिति, एकत्वे च प्रादुर्भावतिरोभावयोरभाव इति॥
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३ अध्याये २ आह्निकम् ।
१११
अप्रत्यभिज्ञानञ्च विषयान्तरव्यासङ्गात् ॥७॥
प्रत्यभिज्ञानमनुपलब्धिः, अनुपलब्धिश्च कस्यचिदर्थस्य विषयान्तरध्यास मनस्युपपद्यते वृत्तिवृत्तिमतोर्नानात्वात् एकत्वे ह्यनर्थकोव्यासङ्गः इति । विभुत्वे चान्तःकरणस्य पर्यायेणेन्द्रियैः संयोगः ||
`न गत्यभावात् ॥ ८॥
प्राप्तानीन्द्रियाण्यन्तः करणेनेति माध्यर्थस्य गमनस्याभावः । तव 'क्रमढत्तित्वाभावादयुमपट्ट हयानुपपत्तिरिति गत्यभावाञ्च प्रतिषिद्ध विभुनोऽन्तःकरणस्यायुमपर हणं न लिङ्गान्तरेणानुमीयते । यथा चक्षुषो शतिः प्रतिषिद्धा सष्टिविमष्टयोस्तुल्यकालयहणात् परयचन्द्रमसोर्व्यवधानप्रबोघातेनानुमीयत इति सोऽयं नान्तःकरणे विवादो न तस्य नित्यत्वे सिद्धं हि मनोऽन्तःकरणं नित्यचे ति, क तर्हि विवादः तस्य विभुत्वे तच प्रमाणतोऽनुपलब्धे प्रतिषिद्धमिति एकञ्चान्तःकरणं नाना चैता ज्ञानात्मिका दृत्तयः चच्तुर्विज्ञानं प्राणविज्ञानं रूपविज्ञानं गभ्वबिज्ञानमेतच वृत्तिमतोरेकत्ये ऽनुपपद्ममिति । एतेन विषयान्तरव्यासङ्गः प्रत्युक्तः । विषयान्तरग्रहणलक्षणो विषयान्तरव्यासङ्गः पुरुषस्य नान्त: करणस्येति केनचिदिन्द्रियेण सन्निधिः केनचिदसन्निधिरिति । न्ायन्त व्यासङ्गोऽनुज्ञायते मनस इति । एवमन्तः करणं नाना वृत्तय इति सत्यभेदे वृत्ते रिदमुच्यते ||
स्फटिकान्यत्वाभिमानवत्तदन्यत्वाभिमानः ॥९॥
T
तस्यां तृप्ता नानात्वाभिमानः यथा द्रव्यान्तरोपहिते स्फटिके अन्यस्वाभिमानो नोलो लोहित इति । एवं विषयान्तरोपधानादिनि ॥
न हेत्वभावात् ॥ १० ॥
स्फटिकान्यत्वाभिमानवदयं ज्ञानेषु नानात्वाभिमानो गौणो न पुनमन्वाद्यन्यत्वाभिमानवदिति हेतुर्नाति हेत्वभावादनुपपच इति, समानो
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न्यायदशनवात्सायनभाष्य
हेत्वभाव इति चेत् न जानानां क्रमेणोपजननापायदर्शनात् क्रमेण हीन्द्रियार्थेषु चायायु पज्ञायन्ने चापयन्ति चेति दृश्य ते तस्माइन्वान्यत्वाभिमानवदयं ज्ञानेषु नानात्वाभिमान इति ॥ स्फटिकान्यत्वाभिमानवदित्येतदमृष्यमा णः क्षणिकवाद्याइ॥ स्फटिकेऽप्यपरापरोत्पत्तेः क्षणिकत्वाद्यकीनाम
स्फटिकस्थाभेदेनावस्थितस्योपधानभेदानानात्वाभिमान इत्ययमविद्यभान हेतः पच्च:, कमात् स्फटिकेऽप्यपरापरोत्यत्तेः, स्फटिकेऽप्यन्याव्य - कय उत्पद्यन्ने अन्या निरुध्यन्त इति, कथम् चणिकत्व यकीनां क्षणवाल्मीयान् कालः, क्षणस्थितिकाः चणिकाः कथं पुनर्गम्यते क्षणिकाव्यलय इति, उपचयापचयप्रबन्धदर्शना छरीरादिषु पनिनित्तस्थाकाररसस्य शरीररुधिरादिभावेनोपचयोऽपप यच्च प्रबन्धेन प्रवर्तते उपचयायकोनासत्पादः अपचयाद्यनिनिरोधः, एवं च सत्यवयवपरिणामभेदेन द्भिः शरीरस्य कालान्तरे ग्टह्यते इति सोऽयं व्यक्तिमाले बेदितव्य प्रति नियमहत्वभावाद्यथादर्शनमभ्यनुज्ञा ॥ १२ ॥
पदार्थानां सर्वासु व्यनिष्पचयापचयप्रबन्धः शरीरवदिति नायं नियमः, कमात् हेखभावात, नाव प्रत्यक्षमनुमानं वा प्रतिपादकमतीति, तस्माद्यधादर्शनमभ्यनुज्ञा यत्र यत्रोपचयापचयप्रबन्धो दृश्यते तत्र तत्र व्यकीनाम-परापरोत्पत्ति-रूपचयापचय प्रबन्धदर्शनेनाभ्यनुज्ञायते यथा शरीरादिषु, यत्र यत्र न दृश्यते तत्र तत्र प्रत्याख्यायते यथा पावमझतिषु, स्फटिकेऽथ पचयापचयप्रबन्धी न दृश्यते तनादयुक स्फटिकेऽथपरापरोत्पत्तिरिति, यथा चार्कस्य कटुकिन्ना सर्वद्रगापां कटकिमानमापादयेत्, ताडगेनदिति । यथाशेषनिरोधेनापर्योत्पाद निरन्षयं दूव्यसनाने चाणिकरस सन्धते तसतत् ॥
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३ अध्याये २ प्राधिकम् ।
नोत्पत्तिविनाशकारणोपलब्धः ॥ १३ ॥
उत्पत्तिकारणं तावदुपलभ्यते अवयवोपयोवल्मोकादीनाम्, विनाभकारखञ्चोपलभ्यते घटादीनामवयव विभागः । यस वनपचितावयवं निरुध्यते अनुपचितावयवञ्चोत्पद्यते तस्याशेषनिरोधे निरन्वये वा पूर्वोत्पादे म कारणसमयबाथ पलभ्यत इति ॥
क्षीरविना कारणानुपलब्धिवध्युत्पत्तिवच्च तदुपपत्तिः ॥ १४॥
यथानुपलभ्यमानं चोरविनाशकारणं दध्युत्पत्तिकारणञ्चायतुजायते था स्फटिकेऽपरापरासु व्यक्तिष विनाशकारणमुत्पत्तिकारणं चाभ्यनुज्ञेयमिनि॥ लिङ्गतो ग्रहणानामुपलब्धिः ॥ १५ ॥
क्षीरविनाशनिङ्ग क्षीरविनाकारणं दयुत्पत्ति लिङ्ग दध्युत्पत्तिकारखञ्च ग्टह्यतेऽतोनानुपलब्धिः। विपर्ययस्नु स्फटिकादिषु द्रव्येषु अपरापरोत्पत्ती व्यक्तीनां म लिङ्गमस्तीत्यत्तिरेवेति, श्रव कश्चित् परिहारमाह
न पयसः परिणामगुणान्तरप्रादुर्भावात् ॥१६॥ पवसः परिणामो न विनाश इत्येक आह। परिणामश्चावस्थितस्य द्रव्यस्ख पूर्वधर्मनिहसौ धर्मान्तरोत्पत्तिरिति ! गुणान्तरमादुर्भाव इत्यघर प्राह गुणान्तरप्रादुर्भाव सतो व्यस्य पूर्वगुणनिवृत्ती गुणान्तरमुत्पद्यत इति स खल्वेकपक्षीभाव दूब, छात्र व प्रतिषेधः ॥
व्यूहान्तराद्र्व्यान्तरोत्पत्तिदर्शनं पूर्वद्रव्यनिटत्तेरनुमानम् ॥१७॥
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११४
न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
सम्म छनलक्षणादवयवव्यूहाव्य नरेदध् न्युत्पन्ने ग्टह्यमाणे पूर्व पयोद्रव्यमवयवविभागेभ्योनिवृत्तमित्यनुमीयते यथा मदवयवानां व्यहान्तराहव्यान्तरे स्थाल्यासत्पबायां पूर्व मलिण्डद्रव्यं मदवयव विभागेभ्यो निव
तर ति मुद्दहावयवान्वयः पयोदनो शेषनिरोधे निरन्वयो द्रव्यान्नरोत्पादो घटत इति अभ्यनुजाय च निष्कारणं चीरविनायं दध्युत्मादञ्च प्रतिषेध उच्यते इति ।
कचिदिनाशकारणानुपलब्धः कचिच्चोपलब्धे. रनेकान्तः ॥१८॥
क्षीरदधिवाविष्कारणी विनाशोत्यादौ स्फटिकादिव्य कीनामिति नायमेकान्त इति, कस्मात् हेत्वभावात् नानहेतुरस्ति अकारणौ विनाशोत्यादौ स्फटिकादि व्यक्तीनां क्षीरदधिवत् न पुनर्विनाशकारणाभावात् कुम्भस्य विनाश: उत्पत्तिकारणाभावासोत्पत्ति: एवं स्फटिकादिव्यक्तीनां विनाय त्यत्तिकारणाभावाहिनाशपत्तिभाव रति निरधिष्ठानच दृष्टान्तवचनम् ग्टह्यमाणयोर्विनाश त्यादयोः स्फटिकादिष सादयमाश्रयवान् दृष्टान्तः क्षीरविनाशकारणानुपलब्धि वध्यपलब्धिवचेति तौ तु न स्टह्येते तस्माविरधिष्ठानोऽयं दृष्टान्त इति, अभ्यनुज्ञाय च स्फटिकस्योत्पाद. विनाशौ योऽल साधकस्तस्याभ्यनुजानादप्रतिषेधः। कुम्भवन मिश्कारयौ विनाशोत्मादौ स्फटिकादीनामित्यभ्यनुज्ञेयोऽयं दृष्टान्तः प्रतिषेशमशका. त्वात् क्षीरदधिवतु निष्कारणौ विनायोत्पादाविति शक्योऽयं प्रतिषेछ कारणतो विनाशोत्पत्तिदर्शनात् क्षीरदमोविनाशोत्पत्ती परखता तत्कारणमनुमेयम्, कार्यलिङ्ग हि कारणमित्युपपन्नमनित्या बुद्धिरिति । इदन्त चित्यते कस्येयं बुद्धिः आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां गुण इति प्रसिद्धोऽपि च खल्वयमर्थः परीक्षाशेषं प्रवर्चयामोति प्रक्रियते सोऽयं बुडा सबिकर्पोत्पत्तेः संशयः विशेषस्याग्रहणादिति । नवायं विशेषः ॥
नेन्द्रियार्थयोस्तदिनाशेऽपि ज्ञानावस्थानात् ॥१६
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३ अध्याये २ आह्निकम् ।
नेन्द्रियाणामर्थानां वा गुणेो ज्ञानं तेषां विनाशे ज्ञानस्य भावात् भवति खल्विदमिन्द्रियेऽर्थे च विनष्टे ज्ञानमद्राचमिति न च ज्ञातरि विनष्टे ज्ञानम्भवितुमर्हति अन्यत् खलु चैतदिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं ज्ञानं यदि - न्द्रियार्थं विनाशे न भवति इदमन्यदात्मनः सन्निकर्षजं तस्य युक्तोभाव इति, स्मृतिः खल्वियमद्रायमिति पूर्वदृष्ट विषया न च विज्ञावरि नष्टें पूर्वोपलब्धेः स्मरणं युक्तम्, न चान्यदृष्टमन्यः स्मरति, न च मनसि ज्ञातर्य्यभ्युपगम्यमाने शक्यमिन्द्रियार्थयोर्ज्ञात्वं प्रतिपादयितुम्, वस्तु तर्हि मनो गुणोच्ज्ञानम् ॥
a
युगपज्ज्ञेयानुपलब्ध ेश्च न मनसः ॥ २० ॥
युगपज्ज्ञेयानुपलब्धि र न्तःकरणस्य लिङ्गम्, तत्र युगपज्ज्ञेयानुपलवप्रानुमोयते अन्तःकरणं न तस्य गुमोज्ञानम्, कख तर्हि इस वशित्वात्, वशी जाता, वश्यं करणम्, ज्ञानगुणत्वं च करणभावनिवृत्तिः घ्राणादिधनस्य च मातुर्गवादिज्ञानाभावादनुमीयते अन्तःकरण साधनस्य सुखादिज्ञानं स्मृतिकेति तत्र यज्ज्ञानगुणं स श्रात्मा, यत्तु सुखाःद्युपलब्बिसाधनमन्तःकरणं मनस्तदिति संज्ञाभेदमात्रवार्थभेदइति युमपज्ज्ञेयानुपलश्वेश्वायोगिन इति चार्थ: योगी खल दो मादुर्भूतायां विकरणधर्मा निर्माय सेन्द्रियाणि शरीरान्तराणि तेषु तेषु युगपज - ज्ञेयानुपलभते तचैतद्दिभ ज्ञातर्युपपद्यते नाणौ मनसीति, विभुत्वे वा मनसो ज्ञानस्य नात्मगुणत्वप्रतिषेधः, विभु मनस्तदन्तः करणभूतमिति तय सर्वेन्द्रियैर्युगपत् संयोगाद्युगपज्ज्ञानान्युत्पद्ये रनिति ॥
११५
तदात्मगुणत्वेऽपि तुल्यम् ॥ २१ ॥
विभुरात्मा सर्वेन्द्रियैः संयुक्त इति यगपज्ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्ग इति ॥
इन्द्रियैर्मनसः सन्निकर्षाभावात् तदनुत्पत्तिः॥२२॥
गन्धाद्युपलब्धेरिन्द्रियार्थसन्निकर्षवदिन्द्रियमनः सन्निकर्षेऽपि कार
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष
पम् तस्य चाबौग बामणत्वात् मनसः, अयोगपद्यादत्तत्म ति युगपजजानानामात्मगुणत्वेऽपीति । यदि पुनरात्मेन्द्रियार्थपत्रिकर्षमात्रादुगन्धादिज्ञानमुत्पद्यते ।
नोत्पत्तिकारणानपदेशात् ॥ २३ ॥
आत्मेन्द्रियन्त्रिकर्ष मात्राइन्धादिज्ञानमुपद्यत इति नालेात्पत्तिकारमपदिश्यते ये नैतत् प्रतिपद्येमहीति ।
विनाशकारणानुपलब्धेश्चावस्थाने तन्नित्यत्वप्रसङ्गः ॥२४॥
दामगुणत्वेऽपि तुल्यमित्येतदनेन समुचीबते। द्विविधो हि गुणभाशहेतः, गुणानामात्रयाभावो विरोधी च गुणः, नित्यत्वादाममोग्नुपपद्रः विरोधी च बुद्धे गुणो न ग्टह्यते तबादामगुणत्व मति पनि. व्यवसङ्गः ॥
अनित्यत्वग्रहाबुद्देव॒यन्तरादिमाशः शब्दवत् ॥२५
अनित्या बुद्धिरिति सर्वशरीरिणां प्रत्यावेदनीयमेतत् ग्टद्यते च बुद्धिसन्नानस्तन बड़े बुधनरं विरोधी गुण रत्यनुमोयते, यथा शब्दसन्नाने शब्दः शब्दानरविरोषीति, बसने येष जानकारितेषु संसारेष स्मृति हेतुम्बात्मसमवेतेयात्ममनसोच सत्रिकर्षे सनाने महति हेतौ सति न कारणखाबोमपद्यमशीति युगपत् मुक्या प्रादुर्भवेयुः वदि बुद्धिरात्मगुगः स्वादिति । तत्र कवि सबिवर्ष खायोगपश्चनपपादयिषसाह ।
ज्ञानसमवैतात्मप्रदेशसन्निकर्षान्मनसः स्मृत्युत्पत्तेर्न युगपदुत्पत्तिः ॥२६॥
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३ अध्याये २ आह्निकम् । ११७ भानसाधनः संस्कारो ज्ञानमिन्यच्यते ज्ञानसंखतरात्म प्रदेशः पायेण मनः सविनष्यते श्रात्मममःमत्रिकर्षात् मृतयोऽपि पर्यायेन भवन्तीति॥
नान्तःशरौरवृत्तित्वान्मनसः ॥ २७ ॥
सदेहस्यात्मनो मनसा संयोगो विपच्यमानकर्माशयसहितो जीवनमिध्यते । तवास्थ प्राक् प्रापणादन्तःशरीरे वर्तमानस्य मनसः भर राहहिनिसंस्कृतैरात्म प्रदेशैः संयोगो नोपपद्यत इति ॥ साध्यत्वादहेतुः ॥ २८॥
विपच्यमाभकर्माशयमात्र जीवनम्, एवञ्च मति माध्यमन्त शरीरवृत्तित्वं मनम इति ॥ स्मरत: शरीरधारणोपपत्तेरप्रतिषेधः ॥ २६ ॥
सम्पूर्षया खल्वयं मनः परिणदधानः चिरादपि कञ्चिदर्थं परति सरतच शरीरधारणं दृश्यते यात्ममन:सविकर्षजच प्रयत्नो द्विविधः धारकः प्रेरकस, निस्ते च शरीराइहिमनसि धारकस्य प्रयत्नसाभावाहुरुत्वात्मतमं स्यात् शरीरस्य भरत इति ॥ न तदाशुगतित्वान्मनसः॥३०॥
प्राशुगति मनस्तस्य वहिः शरीरादात्म प्रदेशेन ज्ञानसंस्कृतेन मनि. कर्षः प्रत्यागतस्य च प्रयत्नोत्पादनमुभयं यज्यत इति, उत्याद्य वा धारक भयनं शरीरानिःसरणं मनसोतलवोपपन्न धारणमिति ॥ न स्मरणकालानियमात् ॥ ३१ ॥
किञ्चित् शिमं कार्यते किञ्चिविरेण, यदा चिरेण तदा समर्षया ममसि धार्थमाणे चिन्ताप्रबन्धे सति कचिदर्थस्य लिङ्गभूतस्य चिन्तनमाराधितं सहति हेतर्भवति तवैतचिरनिश्चरिते मनसि नोपद्यते इति,
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११८
न्यायदर्शनवात्यायनभाणे
शरीरमयोगानपेक्षशात्मन संयोगो व स्मृति हेतुः शरीरख भोगावतमत्वात् उपभोगायतनं पुरुषस्य ज्ञातः शरीरं न ततो निश्चरितस्य मनस अात्मसंयोगमात्र ज्ञानसुखादीनामुत्पत्तौ कमाते, लामो वा शरीरवैयर्थ भिति आत्मप्रेरणयदृच्छाजताभिश्च न संयोगविशेषः३२
आत्मप्रेरणेन वा मनसो बहिः शरीरात् संयोगविशेषः स्यात्, यडया वाकस्मिकतया, जतया वा मनसः सर्वथा चानुपपतिः, कथम् स्मत्तव्यत्वादि छातः सरज्ञानासंभवाज, यदि तावदात्माऽमुध्यार्थस्य स्मृति हेतुः संस्कारः अमुभिनात्मप्रदेशे समये तस्तेन मनः संयज्यतामिति मनः गैरयत्ति तदा सत एवासावर्थो भवति न मर्तव्यः। न चात्म प्रत्यक्ष प्रात्मप्रदेशः संखारोवा तत्रानुपपन्नात्म प्रत्यक्षेण संवित्तिरिति, सुस्मर्षया पायं मनः प्रणिदधानचिरादपि कञ्चिदयं परति नाकमात्, चत्वञ्च मनसोनास्ति मान प्रतिषेधादिति, एच।
व्यासक्तमनसः पाद व्यथनेन संयोगविशेषेण समानम् ॥ ३३॥
यदा खल्वयं व्यासकामनाः कचिद्दे शे शर्करयां कण्टकेन वा पादव्यथभमानोति तदात्ममनः संयोगविशेष एषितव्यः, दृष्ट हि दुःखं दुःखवेदमञ्चेति तनायं समानः प्रतिषेधः, यह च्छया तु विशेषो माकमिकी क्रिया, भाकस्मिकः संयोगः इति, कर्मादृष्टसुपभोगार्थ क्रियाहेरितिचेत समानम्, कर्मादृष्ट पुरुषस्थ पुरुषोपभोगार्थमनसि क्रियाहेतरेवं दुःख दुःखसं ये दनञ्च सिध्यतीत्ये बच्चेन्नन्यसे समानं मतिहेतावपि संयोगविशेषो भवितुमर्हति । तत्र यदुक्तंमात्मप्रेरणाय छाताभिश्च न संयोगविशेष
মনির খুনি মূল মনিষী নান:মীদিলাননি : खल्लिदानीं कारणयोगपद्यमगावे युगपदमरणय हेरिति ।
प्रणिधानलिङ्गादिज्ञानानामयुगपद्भावायुगपदस्मरणम् ॥ ३१॥
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३ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
११६
यथा खल्वात्ममनमोः सन्निकर्षः संस्कारश्च स्मृति हेतरे प्राविधानं जिङ्गादिज्ञानानि तानि च न युगपङ्गवन्नि तत्वता सतीनां युगपदनुत्पत्तिरिनि॥
प्रातिभवत्तु प्रणिधानाद्यनपेक्षे स्माः यौगपद्यप्रसङ्गः ॥३५॥
यत् खलिदं प्रतिममिव ज्ञानं प्रणिधानाद्यन पैनं स्मार्त सत्पद्यते कदाचित्तस्य युगपदुत्पत्तिप्रसङ्गो हेत्वभावात् सतः तिहेतोरसम्बेदनात प्रातिभेन समानाभिमामः, बर्थविषये वै चिन्ताप्रबन्धे कश्चिदेवार्थः कस्या चित् स्मृतिहेतुः तस्थानुचिन्न नात् तस्य तिर्भवति, नचायं स्मर्ता सर्वे
इतिहेतु संवेदयते, एवं मे समाप्तिरुत्पत्त्यसंवेदनात्, प्राविभमिवज्ञानमिदं मामिति । मातिभे कथमितिचेत् पुरुषकर्म विशेषाङपभोगन्त्रियमः । प्रातिभभिदानी ज्ञान युगपत् कस्मात् नोत्पद्यते यथोपभोगार्थ कर्म युगपटुपभोगं न करोति । एवं पुरुषकर्मविशेषः प्रतिभाहेतर्न युगपदने मातिभं ज्ञानमुत्मादयति, हेवभावादयुक्तमेतदिति चेत् न करपस्य प्रत्ययपर्याये सामर्थ्यात्, 'उपभोगवनियमइत्यस्ति दृष्टान्तः, ता - तीति चैनन्य से न करणस्य प्रत्ययपाये सामर्थ्यात् नैकस्मिन् जये युगपदनेकं ज्ञानसत्पद्यते, नचानेकस्मिंस्तदिदं दृष्टेन प्रन्ययपर्यायेणातुमेयं करणसामर्थमित्यम्भूमिति न बाबर्विकरपधर्मिणो देहनानात्वे प्रत्यबयोगपद्यादिति, अयञ्च द्वितीयःप्रतिषेधः अवस्थितशरीरस्य चानेकज्ञान नसमवायादेक प्रदेशे युगपदनेकार्थस्मरणं स्यात् कचिदेवस्थितशरीरस्य . सावरिन्द्रियार्थ प्रबन्धेन ज्ञानमनेकमेकश्मिनात्मप्रदेशे समवैति तेन यदा मन संयुज्यते तदा ज्ञातपूर्व खानेकस युगपत् मरणं प्रसज्यते प्रदेशस्य संयोगपOयाभावादिति आत्मप्रदेशानामव्यानरत्वादेकार्थ समवायस्थाविशेष स्मृतियोगपद्यप्रयिषेधानुपपत्तिः, शब्दसन्ताने न श्रोत्राधिष्ठान, प्रत्यासत्या शब्द वणवत् संस्कार प्रत्यासत्या मनसः स्मृत्वलत्तेर्न युगपढ़त्मत्तिप्रसङ्गः, पूर्व एव व प्रतिषेधो नानेकज्ञानसमवाया देकप्रदेशे युगपत्
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न्यायदर्शनाखायेनभाष्य
अतिप्रसङ्ग इप्ति, यतपुरुषधोज्ञानमन्तः करणस्ये च्छाद्देषजयत्नसखदुः. खानि धर्मा इति कखचिद्दर्शनं तत् प्रतिविध्यते ॥ जस्वेच्छा षनिमित्तत्वादारम्भनित्त्योः ॥ ३६ ॥
पमा
अयं खन जानीते तावत् इदं मे सुखसाधनमिदं मे दुःखमाधर्मिति, ज्ञातं सुखसाधनमाप्न मिच्छति दुःखसाधनं हातुमिच्छति, प्राप्त इछा. प्रयतस्यास्य सुखसाधनावाप्तये समीहाविषप्रारम्भः जिहासा प्रयत्नस्य दुःखसाधनपरिवर्जनं नित्तिरेव ज्ञानेच्छाप्रयत्न सुखदुःखानामेकेनाभिसम्बन्धः एककर्वकत्व ज्ञानेच्या प्रवृत्तीनां समानाश्रयत्वञ्च, तमानसकाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखानि धर्माः नाचेतनस्येति, बारम्बनिवृत्त्योश्च प्रत्यगाहम नि दृष्ट त्वात्परत्वानुमान वेदितव्यमिति । अत्र भूतचैतनिक ग्राह। तल्लिङ्गत्वादिच्छा षयोः पार्थिवाद्येष्वप्रतिषेधः॥३७
श्रारम्भनितिलिङ्गाविच्छाषाविति यथारम्भनिवृत्ती तस्येच्छाद्वेषौ तस्य ज्ञानमिति प्राप्त पार्थि वायतै जसवायवीयानां शरीराणाभारम्भनित्तिदर्शनादिच्छा प्रज्ञानर्योग इति चैतन्यम् ॥
परश्वादिष्वारम्भनिवृत्तिदर्शनात् ॥३८॥
शरीरेचैतन्यनित्तिरारम्भनित्तिदर्थनादिच्छा पन्जानोग इति प्राप्तम् परश्वाः करणास्त्रारम्भनित्तिदर्शनाञ्चतन्यमिति । अथ शरीर. झेच्छादिभियोगः घरवादेस्तु करणस्यारम्भनिवृत्ती व्यभिचरतः न त - भयं हेतुः पार्थिवाप्यतेजसवायवीयानां शरीराणामारभनिवृत्तिदपनादिच्छाद्देषज्ञानर्योग इति । अयन्त हान्योऽर्थः तसिङ्गत्वादिच्छाद्देषयोः पार्थिवाद्येव प्रतिषेधः पृथिव्यादीनां भूतामामारम्भस्तावत बसस्थावर• शरीरेषु तदवयवव्यू हलिङ्गः प्रतिविशेषः, लोष्टादिषु च लिङ्गाभावात् मत्तिविशेषाभावो नित्तिः प्रारम्भनितिलिङ्गाबिच्छाषाविति पा. धि वाप्येष्वणुष तहर्श नादि छाषियोनद्योगाजज्ञानयोग इति सिद्ध मत चैतन्य मिति॥
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३ अध्याये २ प्रादिकम् ।
१२१
कुम्भादिष्वनुपलब्ध रहेतुः ॥ ३९ ॥
कुम्भादिमदवयवानां न्यू हलिङ्गः प्रवृत्तिविशेष प्रारम्भः, सिकता. दिष प्रवृत्तिविशेषाभावोनिवृत्तिः, न च मसिकतानामारम्भनित्तिदर्शनादिच्छाद्देष प्रयत्नज्ञानयोगः, तस्मात् तल्लिनत्वादिच्छाषियोरित्यहेरिति । नियमानियमौ तु तविशेषकौ ॥ ४ ॥
तयोरिछावेषयोनि यमानियमो विशेषको भेदको जसेच्छाह पनिभित्ते प्रचिनिवृत्ती न खात्रये किनहि प्रयोज्यात्रये, तत्र प्रयुज्यमानेषु भूतेत्र प्रवृत्तिनिवृत्ती स्त: न सर्वेष इत्यनियमोपपत्तिः । यस्य तु ज्ञानाद्भतानामिछाहेषनिमित्ते प्रारम्भनिवृत्ती खात्रये तस्य नियमःस्यात् । यथा भतानां गुणानरनिमित्ता प्रत्तिर्गुणप्रतिबन्धाच निवृत्तिर्भूतमात्रे भवति नियमेन एवं भूतमाने जानेच्छा द्वेषनिमित्त प्रतिनिवृत्ती खाश्रये खाताम् | तस्मात् प्रयोजकाश्रिताज्ञानेच्छाद्देषप्रयत्नाः प्रयोज्याश्रये न प्रतिनिटत्तीति सिद्धम् । एकथरीरे प्रारबद्धत्व निरनुमामानम् । भूतचैतनिकस्यैकशरीरे बहनि भूतानि ज्ञानेच्छा प्रयत्नगुणानीति जाटबहुत्व प्राप्तम्, बोमिति बतः प्रमाणं नास्ति । यथा नानाशरीरेषु माना जातारो बुधादिगुणव्यवस्थानात्, एवमेकशरीरेऽपि बयादिव्यवस्थानुमानं सात् जाटबहत्वयोति दृष्टश्चान्यगुणनिमित्त: प्रकृत्तिविशेषो भनानाम् मोऽनुमानमन्यत्रापि दृष्ट: करणलक्षणेषु भूतेषु परश्वादिषपादामलक्षणेषु च ममभूतिध्वन्यगुणनिमित्तः प्रत्तिविशेषः सोग्तुमानम् धन्यवापि च । बसस्थावर शरीरेषु तदवयवव्यू हलिङ्गः प्रहतिविशेषो भूतानामन्यगुणनिमित्त इति स च गुणः प्रयत्नसमानाश्रयः सं. खारो धर्माधर्मसमाख्यातः सर्वार्थः पुरुषार्थाराधनाय प्रयोज को भूतानां प्रयत्नवदिति। यात्मास्तित्व हेतभिरामनित्यत्वहेतुभिश्च भतचैतन्य प्रतिघेधः कतो वेदितव्यः, नेन्द्रियार्थयोस्तहिनाशेऽपि ज्ञानावस्थानादिति च समानः + तिषेध इति, क्रियामा क्रियोपरममावञ्च पत्तिनिवृत्ती इत्य
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न्यायदर्शनवात्यायनमाथे
भिमे त्यो क्लन्नसिङ्गत्वादिच्छाशेषयोः पार्थिवाद्ये व प्रतिषेधः, अन्यथात्विमे प्रारम्भनिवृत्ती श्राख्याते न च तथाविधे प्रथिव्यादिषु दृश्येते, तस्मादयुक्तं तलिङ्ग त्यादिच्छाद्दे षयोः पार्थिवाद्येष्व प्रतिषेध इति । भूतेन्द्रियमनसां ममान: प्रतिषेधोमनस्तूदाहरणमात्रम् ॥
यथोक्तहेतुत्वात् पारतन्त्र्यादकताभ्यागमाच्च न मनसः ॥४१॥
इच्छा षप्रयत्न सुखदुःखज्ञानान्यात्मनोलिङ्गमित्यतः प्रति यथोक्त संग्टह्यते तेन भतेन्द्रियमनसाञ्चैतन्य प्रतिषेधः । पारतन्त्र्यात् परतन्त्राणि भूतेन्द्रियमनांसि धारणप्रेरणव्यूहनक्रियास प्रयत्नवशात् प्रवर्तन्ते चैतन्ये पुनः खतन्त्राणि सुरिति । अवताभ्यागमाच्च प्रवृत्तिर्वागबुद्धिशरीरारम्भ इति चैतन्ये भूतेन्द्रियमनसा परतं कर्म पुरुषेण भुज्यत इति स्यात् अचैतन्ये तु तत्साधनस्य वकतकर्मफलोपभोगः पुरुषस्येत्युपपद्यत इति, अथायं सिद्धोपसंग्रहः॥ परिशेषाद्यथोक्तहेतूपपत्तेश्च ॥ ४२ ॥
आत्मगुणोज्ञानमिति प्रकृतम्, परिशेषो नाम प्रसतप्रतिषेधेऽन्यत्राप्रसङ्गाच्छिष्यमाणे सम्प्रत्ययः, भूतेन्द्रियमनमा प्रतिषेधे द्रव्यानरं न प्रस-- ज्यते शिष्यते चात्मा तस्य गुणोजानमिति जायते, यथोक हेतूपपत्तेचे ति दर्शनपर्शनास्यामेकार्थयहणादित्येवमादीनामात्म प्रतिपत्तिहेतूनामप्रति
धादिति परिशेषज्ञापनार्थं प्रकृतस्थापनादिज्ञानार्थञ्च यथोक्लप.. पत्तिवचन मिति । अथवोपपत्तेश्चेति हेत्वन्तरमेवेदम् नित्यः खल्वयमात्मा थमादेकस्मिन् शरीरे धर्मचरित्वा कायभेदात् खर्गे देवेषपपद्यते अधर्मचरित्वा देहभेदावरोषपपद्यत इति उपपत्तिः शरीरान्तरप्राप्तिलक्षणा, मा सति सत्ये नित्ये चायवती बुद्धि प्रबन्धमान त निरात्मके निराश्रया नोपपद्यत इति । एकसत्वाधिष्ठानचानेकशरीरयोगः संसार उपपद्यते । शरीरप्रबन्धोच्छेदश्चापवर्गो मुक्तिरित्युपपद्यते, बुद्धिमन्नतिमात्रे त्वेक
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३ अध्याये २ चाङ्गिकम्। १२३ सत्वानुपपत्तेर्न कश्चिदीर्घ मध्वानं सन्धावति न कश्चिछरीरमबन्धादिसच्यत इति संसारापवर्गानुपपत्तिरिति बुद्धिसन्ततिमावे च सत्वभेदात् सर्वमिदं प्राणिव्यवहारजातमप्रतिसंहितमव्यात्तमपरिनिष्ठनञ्च स्थात्, ततः स्मरणाभावानीन्यदृष्टमन्यः परतीति, मरणञ्च खलु पूर्वमातस्य समानेन जात्रा यहणम् अज्ञासिषममुम) शेयमिति, मोऽयमेको ज्ञाता पूर्वज्ञातम) ग्टहाति सञ्चास पहणं सारणमिति, तद्बुद्धिप्रबन्धमा निरात्म के नोपपद्यते ॥
स्मरणन्वात्मनोजखाभाव्यात् ॥ ४३ ॥
उपपद्यत इति, प्रात्मन एव स्मरणं न बसिन्नतिमावस्येति, तशब्दोऽवधारणे, कथम् जखभावत्वात् जइत्यस्य स्वभावः खोधर्मः । अयं ৰ মানি জানানি অনাৰীৰিনি নিজামিন কাল सम्बध्यते तच्चास्य त्रिकाल विषयं ज्ञानं प्रत्यात्म वेदनीयम् ज्ञास्यामि जानामि अज्ञासिमिति वर्तते तद्यस्थायं खो धर्मस्तस्य स्मरणं न बुद्धिप्रबन्धमात्रस्य निरम्मकस्येति । स्मृतिहेतूनामयोगपद्याद्युगपदमरणमित्यु नम्, अथ केभ्यः स्मृतिरुत्पद्यते इति, स्टतिः खलु ॥
प्रणिधाननिबन्धाभ्यासलिङ्गलक्षणसादृश्यपरिग्रहाश्रयाथितसम्बन्धानन्तर्यवियोगैककार्याविरोधातिशयप्राप्तिव्यवधानसुखदुःखेच्छाद्देषभयाऽर्थित्वक्रियारागधर्माधर्मानिमित्तेभ्यः ॥ ४४ ॥
सुस्मूर्षया मनसो धारणं प्रणिधानम्, सुस्मूर्षित लिङ्गचिन्तनञ्चार्थस्मृतिकारणम्. निबन्धः खल्व कपन्योपयमोऽर्थानाम् एक पन्थोपयताः खल्वर्था अन्योऽन्यस्मृतिहेतव अासपूर्वेत्रतरथा वा भवन्तीति । धारणाशास्त्रकबो वा, मनातेष वस्तुष मर्चव्यानासपनिःक्षेपोनिबन्ध इति,
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-१२४
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्य
भ्यासस्तु समाने विषये ज्ञानानामभ्यावृत्तिरस्यासजनितः संस्कार बालगुग्णोऽभ्यासशब्देनोच्यते स च स्मृतिहेतुः समान इति, लिङ्गं पुनः संयोगिसमवाय्ये कार्थसमवायिविरोधिचेति, संयोगी यथा धूमोऽग्ने, गोविषाणं, पाणिः पादस्य रूपं स्वर्थस्य व्यभूतं भूतस्येति । लचणं पश्ववयवस्य गोत्रस्य स्मृतिहेतुः विदानामिदं गर्भाणामिदमिति, सादृश्य चित्रगतं प्रतिरूपकं देवदत्तस्येत्येवमादि, परिमहात् खेन वा खामो स्वामिना वा स्वं स्मर्य्यते श्राश्रयात् ग्रामण्या तदधीनं स्मरति । ब्राश्रिनात् तदधीनेन ग्रामण्यमिति, सम्बम्बात् अन्तेवासिना गुरु स्मरति ऋत्विजा याज्यमिति व्यानन्तर्यात् इति करणीयेष्वर्थेषु वियोगात् येन विप्रयुज्यते तद्दियोगप्रतिसम्बेदी भृशं स्मरति, एककार्यात् कर्तन्तरदर्शमात् कर्तन्तरे स्मृतिः, विरोधात् विजिगोषमाणयोरन्यतरदर्शनादन्यतरः स्मर्य्यते, अतिशयात् येनातिशय उत्पादितः, प्राप्त, यतो येन किञ्चित् प्राप्तमाप्तव्यं वा भवति तमभीक्षा' सरति, व्यवधानात् कोशादिभिरमिप्रभृतीनि खान्ते, सुखदुःखाभ्यां तद्धेतुः स्मर्यते, इच्छाद्वेषाभ्यां यमिच्छति यञ्च द्वेष्टितं स्मरति भयात् यतो विभेति, अर्थित्वात् येनार्थी भोजनेबाच्छादनेन वा, क्रियाया रथेन रथकारं स्मरति, रागात् यस्यां स्त्रियां रक्तो भवति तामभीक्षण सरति, धर्मात् जात्यन्तरमरणमिह चाधीतश्रुतावधारणमिति, अधर्म्मात् प्रागनुभूतदुःखसाधनं स्मरति न चैतेषु निमित्तेषु युगपत्संवेदनानि भवन्तीति युगपदस्मरणमिति, निदर्शनचेदं स्मृतिहेतूनां न परिसयानमिति अनित्यायाञ्च बुद्धावुत्पद्यापवर्गित्यात् कालान्तरावस्थानाञ्चानित्यानां संशयः । किमुत्पन्नापवर्गणी बुद्धिः शब्दवत् ग्राहोस्वित् कालान्तरावस्थायिनो कुम्भवदिति, उत्पन्नापवर्गिणोति पच्चः परिग्टह्यते कस्मात् ॥
"
,
कमनवस्थायिग्रहणात् ॥ ४५ ॥
क ेऽनवस्थायिनो ग्रहणादिति चिनस्येषोराघतनात् क्रियासन्तानो ग्टह्यते प्रत्यर्थ नियमाञ्च बुद्धीनां क्रियासन्तानव बुद्धिसन्तानोप पत्तिरिति अवस्थितग्रहणे च व्यवधीयमानस्य प्रत्यक्ष निवृत्तेः कावस्थिते
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३ अध्याये २ आनिकम् । च कुम्भे ग्टह्यमाणेन सन्तानेनैव बुद्धिवर्तते प्राग्व्यवधानात् तेन व्यवहिते प्रत्यक्षं ज्ञानं निवर्तते कालान्तरावस्थाने तु बबेर्ड प्यव्य वधानेऽपि प्रत्यक्षमवतिले तेति, स्मृतिश्चालिङ्गं बुद्ध्यवस्थाने संस्कारख बुद्धिजस्य स्मृति हेतुत्वात्, यश्च मन्ये तावतिष्ठते बुद्धिः दृष्टाहि बुद्धिविषये मतिः सा च बुद्धावनित्यायां कारणाभावानखादिति, तदिदलिङ्ग कस्मात् बुद्धिजो हि संस्कारो गुणान्तरं स्मृतिहेवन बद्धिरिति हेत्वभावादयुक्त मिति चेत् ।
बुद्धावस्थानात् प्रत्यक्षत्वे स्मृत्यभावः ॥ ४६ ॥
यावदवतिष्ठते बुद्धिस्तावदशौ बोध्योऽर्थः प्रत्यशः, प्रत्यक्षे च स्मृतिरनुपपन्नेति ॥
अव्यक्त ग्रहणमनवस्थायित्वात् विद्यसम्पाते रूपाव्यक्त ग्रहणवत् ॥४७॥
यद्युत्पन्नाऽपवर्गिणी बुद्धिः प्राप्तमव्यक्त' बोद्धव्यस्य पहणम्, यथा विद्युत्मम्पाते वैद्युतस्य प्रकाशयानवस्थानादव्यक्तं रूपग्रहणमिति व्यक्तन्त द्रव्याणां ग्रहणं तस्माद्युक्त मेतदिति ॥
हेतपादानात् प्रतिषेदव्याभ्यनुज्ञा ॥४८॥
उत्पन्नापवर्गिणी बुद्धिरिति प्रतिषेद्धव्यन्नदेवाभ्यनुज्ञायते विद्युत्मम्पाते रूपाव्य नयहणवदिति यत्राव्य न पहणं तबोमनापवर्गिणी बुद्धि रिति ग्रहण हेतुविकल्पाङ्गहणविकल्पो न बुद्धिविकल्यात्, यदिदं कचिदव्यक्त ग्रहणमयं विकल्पो यहण हेतुविकल्पात, यत्रानवस्थितो ग्रहण हेतुस्तलाव्यक्त ग्रहणम् यत्रावस्थितस्तत्र व्यक्तं न तु बुझेरस्थानानवस्थानाभ्यामिति, कस्मात् अर्थग्रहणं हि बद्धिः यत्तदर्थ पहणमव्य नं व्यक्त वा बुद्धिः सेति विशेषायहणे च सामान्ययहणमात्रमव्य क्रयहणम् तत्र विषयान्तरे
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
बुद्ध्यन्तरानुत्पत्तिर्निमित्ताभावात् यत्र समानधर्मयुक्तख धर्मो ग्टह्यते 'विशेषधर्मयुक्तश्च तद्यक्त' ग्रहणम्, यत्र तु विशेषेऽग्टह्यमाणे सामान्यग्रहणमात्र ं तदव्यक्त यहणम्, समानधर्मायोगाञ्च विशिष्टधर्म्मयोगो विषयान्तरम् तत्त्र यहणं न भवति तग्रहणनिमित्ताभावात् न बुद्धेरनवस्थानादिति यथाविषयञ्च महणं व्यक्तमेव प्रत्यर्थनियतत्वाञ्च बुद्धीनाम् सामान्यविषयञ्च ग्रहणं स्वविषयं प्रत्यव्य क्तं विशेषविषयञ्च ग्रहणं खविषयं प्रत्यव्यक्त ं विशेषविषयञ्च ग्रहणं स्वविषयं प्रति व्यक्तम्, प्रत्यर्थ नियताहि बुद्धयः तदिदमव्यक्तयहणं देशितं क विषये वचनवस्थानकारितं स्यादिति धर्मिणस्तु धर्मभेदे बुद्धिनानात्वस्य भावाभावाभ्यां तदुपपत्तिः धर्मिणः खल्वर्थस्य समानाश्च धर्माविशिष्टास तेषु प्रत्यर्थनियता नानाबुद्धयस्ता उभय्या यदा धर्म्मिणि वर्त्तन्ते तदा व्यक्तं ग्रहणम् धर्मिणमभिप्रे त्य यदातु_सामान्यग्रहणमात्रं तदाऽव्यक्तां ग्रहणमिति, एवं धर्मिणमभिप्रेत्य व्यक्ताव्यक्तयोर्य हणयोरुपपत्तिरिति, नवेदमव्यक्तं महणं बुड़ेाइव्यस वा ऽनवस्थायित्वादुपपद्यत इति इदं हि न
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".
प्रदीपार्च्चिः सन्तत्यभिव्यक्तग्रहणवत्तग्रहणम्॥४१॥
अनवस्थायित्वेऽपि बुद्धेस्तेषां द्रव्याणां प्रतिपत्तव्यम्, कथम् प्रदोपार्चिः सन्तत्यभिव्यक्तग्रहणवत् प्रदीपार्चिषां सन्तत्या वर्त्तमानानां ग्रहग्यानवस्थानं पाह्यानवस्थानञ्च प्रत्यर्थनियतत्वात् बुद्धीनां यावन्ति मदीपार्चों षि तावन्त्यो बुङ्गय इति दृश्यते चात्र व्यक्त' प्रदीपार्चिषां ग्रहणमिति, चेतना शरीरगुणः सृति शरीरे भावादसति चाभावादिति ॥
द्रव्ये स्वगुणपरगुणोपलब्ध: संशयः ॥ ५० ॥
सांशयिकः सति भावः स्वगुणोऽच द्रवत्वमुपलभ्यते परगुणचोष्णता, तेनायं संशयः किं शरीरगुणश्च केतना शरीरे गृह्यते नाथ द्रव्यान्तरगुण इति न शरीरगुणश्चेतना कमात् ॥
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३ अध्याय २ श्राविकम् ।
यावच्छरौरभावित्वाद्रूपादीनाम् ॥ ५१ ॥
नरूपादिहीनं शरीरं ग्टह्यते चेतनाहीनन्तु ग्टह्यते । यथोष्णताहोना व्याप:, तनाव शरीरगुणच तनेति, संस्कारवदिति चेन्न कारणानुच्छेदात् यथाविधे द्रव्ये संस्कार स्तथाविधे एवोपरमो न तत्त्र कारणोदादत्यन्तं संखारानुपपत्तिर्भवति यथाविधे शरीरे चेतना ग्टह्यते तथाविध एवात्यन्तोपरमखे तनाया गृह्यते, तस्मात् संस्कारवदित्यसमः समाधिः, अथापि शरीरस्थञ्च तनोत्पत्तिकारणं स्यात् द्रव्यान्तरस्थं वोभयस्य वा तत्व नियम हेत्वभावात् शरीरस्थेन कदाचिच तनोत्पद्यते कदाचित्रेति नियम हेतुर्नास्तीति द्रव्यान्तरस्थेन शरीर एव चेतनोपद्यते न लोष्टादिषु इत्यत्र न नियम हेतु रस्तीति उभयस्य निमित्तत्वे शरीरसमानजातीये द्रव्ये चेतना नोत्पद्यते शरीर एव चोत्पद्यते इति नियम हेतुर्भास्तीति यच्च मन्येत सति श्यामादिगुणे द्रव्ये श्यामाद्युपरमो दृष्टः एवं चेतनोपरमः स्यादिति ॥
न पाकजगुणान्तरोत्पत्तेः ॥ ५२ ॥
१२७
नात्यन्तं रूपोपरमोद्रव्यस्य याने रूपे निवृत्ते पाकजं गुणान्तरं रक्त रूपमुत्पद्यते शरीरेत चेतनामात्रोपरमोऽत्यन्त मिति, अथापि ॥
प्रतिद्वन्द्विसिद्धेः पाकजानामप्रतिषेधः ॥ ५३ ॥
यावत्सु द्रव्येषु पूर्व्वगुणप्रतिद्वन्दिसिद्धिस्तावत्सु पाकजोत्पत्ति रयते पूर्व्वगुणैः सह पाकजानामवस्थानस्थाग्रहणात्, न च शरीरे चेतना प्रतिसहानवस्थायिगुणान्तरं ग्टह्यते येनानुमीयेत तेन चेतनाया विरोधः, तमादप्रतिषिद्धा चेतना यावच्छरीरं वर्त्तेत न तु वर्त्तते तमानशरीरगुणश्चेतना इति, इतच न शरीरगुणश्च तना ॥
शरौरव्यापित्वात् ॥ ५४ ॥
शरीरं शरीरावयवाश्च सर्वे चेतनोत्पत्त्या व्याप्ताइति न कचिदतुत:
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाथ्थे
पत्तिश्चेतनायाः, शरीरवरीरावयवाश्चेतना इति प्राप्तं चेतनबहुत्वम्, तत्र यथा प्रतिशरीरं चेतनबहुत्वे सुखदुःखज्ञानानां व्यवस्थालिङ्गमेवमेकशरोरेऽपि स्यात् न तु भवति तस्मानयरोरगुणचेतने ति, यदुक्कन कचिच्छरीरावयवे चेतनाया अनुत्पत्तिरिति सा न ॥
केशनखादिष्वनुपलब्धः ॥५५॥
केशेषु नखादिषु चानुत्पत्तिचेतनाया इति । अनुप प न शरीरव्या. पित्वमिति ॥ त्वपर्यन्तस्वाच्छरौरस्य केशनखादिष्वप्रसङ्गः॥५६
इन्द्रियाश्रयत्वं शरीरलक्षणं स्वपर्यन्नं जीवमनःसुखदुःखसंवित्त्वायतनभूतं शरीरम्, तम्मान केशादिषु चेतनोत्पद्यते । अर्थकारितस्तु शरीरोपनिबन्धः केशादोमामिति, इतश्च न शरोरगुणतना ॥ शरोरगुणवैधात् ॥ ५७॥
विविधस शरीरगुणः अमत्यवच गुरुत्वम् इन्द्रियपाह्यश्च रूपादिः, विधान्तरन्त चेतना प्रत्यक्षा संवेद्यत्वात् नेन्द्रियग्राह्या मनोविषयत्वात्, तस्मात् द्रव्यान्तरगुण इति ॥
न रूपादौनामितरतरवैधात् ॥ ५८॥
यथेतरेतरविधर्माणो रूपादयो न शरीरगुणत्वं जहति एवं रूपादिवैधाच्चेतना शरीरगुणत्वं न हास्यतीति ।
ऐन्द्रियकत्वाद्रपादौनामप्रतिषेधः ॥ ५ ॥
अप्रत्यक्षत्वाञ्चेति । यथेतरेतरविधर्माणो रूपादयो न हैविध्यमतिवर्तत यदि शरीरगुणःस्यादिति, अतिवत ते तु, तस्माब शरीरगुणइति। भूतेन्द्रियमनमा धानप्रतिषेधात् सिधे सत्यारम्भावियेमजाप
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३ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
नार्थम् बहुधा परोच्यमाणं तत्त्व सुनिश्चिततरं भवतीति परीक्षिता पुद्धिः, मनस इदानी परीक्षाक्रमः तत् किं प्रतिशरोरमेकमनेकमिति विचारे॥
ज्ञानायौपपद्यादेकं मनः॥ ६ ॥
अस्ति खलु वै ज्ञानायौगपद्य मेकैकस्येन्द्रियस्य यथाविषयम् करणस्पैकप्रत्ययनिई तौ सामर्थ्याच तदेकत्वे मनसोलिङ्गम्, यत्त खल्विदमिन्द्रियान्नराणां विषयान्तरेषु ज्ञानायौगपद्यमिति तल्लिङ्गं कमात् सम्भवति खल वै बहुषु मनःस इन्द्रियमनःसंयोगयोगपद्यमिति ज्ञानयोगपा स्थात् न त भवति तस्माद्विषये प्रत्ययपीयादेकं मनः ।
न युगमदनेकक्रियोपलब्धेः॥ ६१ ॥
अयं खल्वध्यापकोऽधीते बजति कमण्डल धारयति पन्थानं पश्यति श्टणोत्यरण्यजान् शब्दान् विभ्यत् व्याललिङ्गानि बुभुत्मते सरति च गन्तव्यं स्यानीयमिति क्रमस्यायहयागपदेताः क्रियाः इति प्राप्तं मनसो बहुत्वमिति । अलातचक्रदशनवत्तटुपलब्धिराशुसञ्चरात् ॥६२
आशुसञ्चारादलातस्य संधमतो विद्यमानः क्रमो न ग्टह्यते क्रमस्याय. हणादवि के दवद्या चक्रवबुद्धिर्भवतीति तथा बुद्धीनां क्रियाणाञ्चाशुष्टत्तित्वाविद्यमान: क्रमो न ग्टह्यते क्रमस्याग्रहणागपक्रियाभवन न्यभिमानो भवति । किं पुन क्रमस्यापहणाय गपत् क्रियाभिमानः अथ युगपनाबादेव युगपदनेकक्रियोपलचिरिवि बाबविशेष प्रतिपत्त : कारण. मुच्यते इति उक्नमिन्द्रियान्नराणां विषयानरेषु पर्यायेण बुद्धयो भवन्तीति तञ्चाप्रत्याख्येयमात्म प्रत्यक्षत्वात् । अथापि दृष्टतान चिन्तयतः क्रमेण बुड्यो वर्तन्ते न युगपदनेनानुमातव्यमिति वर्णपदवाक्यबुद्धीनां तदर्थबुद्धीनाञ्चाशुवृत्तित्वात् क्रमस्याग्रहणम् कथम् वाक्यस्थेषु खल वर्णेषञ्चरत्म प्रतिवर्ण तावत् श्रवणं भवति ऋतं वर्णमेकमनेकं वा पदभावेन स प्रतिस
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न्यायदर्थनवात्यायनभाये
भ्वत्ते प्रतिसन्धाय पदं व्यवस्थति पदव्यवसायेन मृत्या पदार्थप्रतिपद्यते पदसमूहप्रतिसन्धानाञ्च वाक्यं व्यवस्थति सम्बतांश्च पदार्थान् ग्टहीत्वा वाक्याथै प्रतिपद्यते न चासो क्रमेण वर्तमानानां बुद्धीनामाशु यत्तित्वात् क्रमो ग्टह्यते तदेतदनुमानमतन्वं बुद्धिक्रियायोगपद्याभिमानस्येति न चास्ति मुक्तसंशया युगपदुत्पत्तिबुद्धीनां यया मनसा बहुत्व मेकशरीरेनुमोयत इति ॥ यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु ॥ ६३ ॥
अणु मन एकञ्चेति धम्म समुच्चयो ज्ञानायौगपद्यात् महत्त्वे मनसः सर्बेन्द्रियमं योगाद्युगपहिषयग्रहणं स्थादिति मनसः खलु भोः सेन्द्रियस शरीरे वृत्तिलाभो नान्यत्र शरीरात् ज्ञातश्च पुरुषस्य शरीरायतना बुद्यादयो विषयोपभोगो जिहामितहानमोमितावाप्तिश्च सर्वे च शरीरात्रया व्यवहाराः, तत्र खलु विप्रतिपत्तेः संशयः किमयम्पुरुषकर्मनिमित्तः शरीरसर्ग आहोखिन भत्तमात्मादकर्मनिमित्तइति श्रूयते खल्वत्र विप्रतिपत्तिरिति तदन्त त्वम् ॥
पूर्वकृतफलानुबन्धात्तदुत्पत्तिः ॥ ६४ ॥ ___ पूर्वशरोरे या प्रवृत्ति 'बुद्धिशरीरारम्भलक्षणा तत् पूर्व कृतं कर्मोक तस्य फलं तज्जनिती धर्माधौं तत्फलस्थानुबन्धः आत्मसमवेतस्थावस्थ नं तेन प्रयुक्ने भ्यो भूतेस्वस्तस्योत्पत्तिः शरीरस्य न स्वतन्त्रेभ्य इति यदधिष्ठानोऽयमात्मा यमहमिति मन्यमानो यत्राभियतो यनोपभोगटष्णया विषयानुपलभमानो धमाधम्मौ संसारोति तदस शरीरम, सेन संस्कारेण धर्माधर्मलक्षणेम भूतसहितेन पतितेऽस्मिन् शरीरे उत्तर निध्याद्यते निष्पवस्य चास्य पूर्व शरीरवत् पुरुषार्थ क्रिया पुरुषस्य च पूर्वशरीरवत् प्रवृत्तिरिति कर्मापेक्षेप्यो भूतेभ्यः शरीरमर्गे सत्येतदुपपद्यत इति | दृष्टा च पुरुषगुणेन प्रयत्नेन प्रयने ग्यो भतेभ्यः पुरुषार्थक्रियासमर्थानां द्रव्याणां रथप्रस्तोनामुत्पत्तिः तथानुमानव्यं शरीरमपि पुरुषार्थक्रियाममर्थमुत्पद्यमानं पुरुषस्य गुणानरापेक्षेभ्यो भूतेभ्य उत्पद्यते इति । অন লাদি ।
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३ अध्याये २ आझिकम्।
भूतम्योमूत्यं पादानवत् तदुपादानम् ॥६५॥
यथा कर्मनिरपेक्षेभ्यो भूतेभ्यो नित्ता मूर्तयः सिकत शर्करापाषागगरिकाचनप्रभृतयः पुरुषार्थ कारित्वादुपादीयन्ते तथा कर्मनिरपेक्षेभ्यो भूतेभ्यः शरीरसत्यव पुरुषार्थ कारित्व दुपादीयत इति ॥ न साध्यसमत्वात् ॥ ६६ ॥
यथा शरीरोत्पत्तिरकर्म निमित्ता माध्या तथा सिकताशर्करापाषाणगैरिकाञ्जन प्रसुतीनामप्यकर्मनिमित्तः सर्गः साध्यः साध्यसमत्वादसाधनमिति । भूतेभ्योमूर्च्य पादानवत् तदिति चानेन साम्यम् । नोत्पत्तिनिमित्तत्वान्मातापित्रोः ॥ ६७॥
विषमचायमुपन्यासः कस्मात् निर्वी जाः इमाः मूर्तयः उत्पद्यन्ने बीजपूर्विका तु शरीरोत्पत्तिः, मातापिटशब्देन लोहितरेतसी वीजभते ग्टह्येते, तत्र सत्वस्य गर्भवासानुभवनीयं कर्म पित्रोच पुत्रफलानुभवनीये कर्मणी मार्गर्भाशये शरीरोत्पत्तिं भूतेभ्यः प्रयोजयन्तीत्युपपन्नं वीजासुविधानमिति ॥
तथाहारस्य ॥ ६८॥
उत्पत्तिनिमित्तत्वादिति प्रकृतम्, भुक्तं पीतमाहारस्तस्य पक्तिनिहत रमद्रव्यं मारशरीरे चोपचीयते वीजे गर्भाशयस्य वीजसमान पाक मात्रया चोपचयो बीजे या वयूहसमर्थः सञ्चय इति सञ्चितं चार्चदमांसपे. शोकललकण्डराशिरःपाणिपादादिनाच व्यूहेनेन्द्रियाधिष्ठानभेदेन व्यूह्यते व्यूहेच गर्भनायावतारितं रसद्रव्यसपचीयते यावत्प्रसवसममिति, न चायमनपानस्य स्थाल्यादिगतस्य कल्यात इति एतस्मात् कारणात् कर्मनिमि. तत्व शरीरस्य विज्ञायत इति ॥ पाप्तौ चानियमात् ॥ ६६ ॥ .
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य
न सर्बो दम्पत्योः संयोगो गर्भाधान हेतुई प्यते तबामति कर्मणि न भवति सति च भवतीत्यनुपपत्री नियमाभाव रति, कर्मनिरपेक्षेषु भूतेषु शरीरोत्पत्तिहेतष अनियमःस्यात् नहब कारणाभाव इति, अथापि ।
शरीरोत्पत्तिनिमित्तवत् संयोगोत्पत्तिनिमित्त कर्म॥ ७॥
यथा खल्विदं शरीरं धातुमाणसंवाहिनीनां नाडीनां शुक्रान्नानां धातूमाञ्च स्वावसिशिरापेशीकललकण्ड राणाञ्च घिरोवाइदराणां शक. थाञ्च कोष्ठगानां वातपित्तकफानाञ्च सुखकण्ड हदयामाशयपकाशयाधःस्रोतसाञ्च परमदुःखसम्पादनीयेन सनिवेशेन व्यूहनमशक्यं प्रथिव्यादिभिः कर्मनिरपेक्ष रुत्यादयितुमिति कर्मनि मित्ता शरीरोत्पत्तिरिति विज्ञायते, एवञ्च मत्यात्मनियतस्य निमित्तस्याभावाविरतिशयरात्मभि संबन्धात सर्वामनाञ्च समान पृथिव्यादिभिरुत्पादितं शरीरं पृथिव्यादिगतख च निय. महेतोरभावात् सर्वात्मनां सुखदुःखसंवित्यायतनं समान प्राप्तम्, यत्त प्रत्यात्म व्यवविठते तत्र शरीरोचिनिमित्त कर्म व्यवस्था हेतरिति विज्ञायते परिपच्यमानो हि प्रत्यात्मनियतः काशयो यस्मिन्त्रात्मनि वर्तते तस्यैवोपभोगायतनं शरीरसत्याद्य व्यवस्थापयति । तदेवं शरीरोत्मत्तिनिमित्तवत् अयोगनिमित्त कर्म इति विज्ञायते । प्रत्यात्मव्यवस्थानन्तु शरीरस्थात्मना संयोग प्रचच्महे इति ॥
एतेनानियमः प्रत्युक्तः ॥ ७१ ॥
योग्यमकर्मनिमिञ शरीरमर्गे सत्य नियम इत्युच्यते अयं परीरो. त्यत्तिनिमित्तवत् स्योगोत्पत्तिनिमित्त कर्मे बनेन प्रत्यकः, कस्तावदयं नियमः यथैकस्यात्मनः शरीरं तथा सर्वेषामिति नियमः, अन्यस्याऽन्यथे त्यनियमो भेदो व्यावृत्तिर्विशेष इति । दृष्टा च जन्मव्यात्तिरुञ्चाभिजनोनिकृष्टाभिजनः इति, प्रशस्तं निन्दितमिति, व्याधिवद्धलमरोगमिति, समय विकलमिति, पीडाबद्धलं सुखबहुलमिति,
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३ अध्याये २ आह्निकम् ।
पुरुषाविषय लचयोपपत्रं विपरीतमिति, प्रशस्तलक्षणां निन्दितलचसमिति, पट्टिन्द्रियं दृद्दिन्द्रियमिति सूक्ष्मञ्च भेदोऽपरिमेयः । सोऽयं जन्मभेदः प्रत्यात्मनियतात् कर्मभेदादुपपद्यते सति कर्मभेदे प्रत्यात्मनियतात् कर्मभेदादुपपद्यते, वसति कर्मभेदे प्रत्यात्मनियते निरतिशयत्वादात्मनां समानत्वाञ्च पृथिव्यादीनां पृथिव्यादिगतस्य नियम हे तोरभावात् सर्व सर्वात्मनां प्रसज्येत नत्विदमित्यन्भूतं जन्म त स्नात् क निमित्ता शरीरोत्पत्तिरिति ॥
उपपन्नश्च तद्वियोगः कर्मक्षयोपपत्तेः ॥ ७२ ॥
कर्मनिमित्त े घरोरसर्गे तेन शरीरेणात्मनो वियोगः उपपन्नः, कस्मात् कर्मचयोपपत्तेः उपपद्यते खलु कर्मक्षयः सम्यग्दर्शनात् प्रचीणे मोहे वीतरागः पुनर्भवहेतुककायवाङ्मनोभिर्न करोति इत्युत्तरस्यानुपचयः पूर्वेपचितस्य विपाकप्रतिसंवेदनात् प्रञ्चयः । एवं प्रसवहे तोरभावात् पतिते ऽस्मिन् शरीरे पुनः शरीरान्तरानुपपत्तेरमतिसन्धिः कर्म्मनिमित्त े व शरीरसर्गे भूतच्चयानुपपत्तेस्तद्वियोगानुपपत्तिरिति ॥ तददृष्टकारितमितिचेत् पुनस्तत्प्रसङ्गोऽपवर्गे ॥७३
१३३
ब्रदर्शनं खलु ब्रदृष्टमित्युच्यते श्रष्टकारिता भूतेभ्यः शरीरोत्पत्तिः, न जात्वनुत्पत्रे शरोरे द्रष्टा निरायतनोदृश्यं पश्यति, तञ्चास्य दृश्यं विविश्रम् विषयश्च नानात्वच्चाव्यक्तात्मनोस्तदर्थः शरीरसर्गः तस्मिन्नवसिते चरितार्थानि भूतानि म शरीरमुत्पादयन्तीत्युपपन्नः शरीरवियोग इति । एवं चेन्मन्यसे पुनस्तत्प्रसङ्गोऽपवर्गे पुनः शरोरोत्पत्तिः प्रसज्यते इति, या चाहत्पत्रे शरीरे दर्शनानुत्पत्तिरदर्शनाभिमता या चापवर्गे शरोरनिवृत्ती दर्शनात्पत्तिरदर्शनभूता नैतयोरदर्शनयोः कचिद्विशेष इत्यदर्शनस्यानिवृत्ते रपवर्गे पुनः शरोरोत्पत्तिप्रसङ्ग इति । चरितार्था - विशेष इति चेत् ॥
१२
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| লাভলাষসমাজ न करणाकरणयोरारम्भदर्शनात् ॥ ७४॥
चरितार्थानि भूतानि दर्शनावसानाब भरीरामरमारभन्ने इत्ययं विशेष एवं चेदुच्यते करणाकरणयोरारम्भदर्शनात् चरितार्थानां भूतानां विषयोपलब्धिकरणात् पुनः पुनः शरीरारम्भो हसते प्रतिपुरुषयोनानात्वदर्शनस्याकरणाविरर्थकः शरीरारम्भः पुनः पुनई श्यते । तस्मादकर्मनिमित्तान्यां भूतसृष्टौ न दर्शनार्था शरीरोत्यत्तिर्युता युक्तात कर्मनिमित्त सर्गे दर्शनार्था गरीरोत्पत्तिः। कर्मविपाकसम्बेदनं दर्शनमिति तददृष्ट कारितमिति चेत् कचिहर्शनमदृष्टं नाम परमाणनां गुणविशेषः क्रियाहेतस्तेन प्रेरिताः परमाणवः समर्छिताः शरीरमुत्पादयन्तीति तन्मनः समाविशति खगुणेनादृष्टेन प्रेरिते समनके शरीरे द्रष्टुरूपलब्धिर्भवतीति एतस्मिन् वै दर्शने गुणानुच्छोदात् पुनस्तत्मसङ्गोऽपर वर्गे अपवर्गे शरीरोत्पत्तिः परमाणुगुणसादृष्ट स्थानुक द्यत्वादिति ॥
मनःकर्मनिमित्तत्वाच्च संयोगानुच्छेदः ॥ ७५ ॥
मनोगुणे नादृष्टेन समावेशिते मनसि संयोगव्यु छ दो न स्यात् तब किङ्कतं शरीरादपसर्पणं मनस इति । कर्माशयक्षये तु कर्माधयान्तरादिपच्यमानादपसर्पणोपपत्तिरिति । अष्टादेवापसर्पणमितिचेत् योदृष्टः शरीरोपसर्पणहेतुः स एवापसर्पणहेतरपीति नैकस्य जीवन मायण हेतवानुपपत्तेः, एवं च सति एकोऽदृष्ट जीवनमायणयो तरितिप्राप्तम् नैतदुपपद्यते ॥
नित्यत्वप्रसङ्गश्च प्रायणानुपपत्तेः ॥ ७६ ॥
विपाकसंवेदनात् कर्माशयक्षये शरीरपातः प्रायणम् काशयान्तराञ्च पुनर्जन्म । भूतमात्रात्तु कर्म निरपेक्षात् शरोरोत्पत्तो कस्य चयात् शरीरपातः प्रायणमिति । प्रायणानुपपत्तः खलु वै नित्यत्वप्रसङ्ग विद्मः
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३ अध्याये २ प्राङ्गिकम्। यादृच्छिकेतु प्राय प्रायणभेराहपपत्तिरिति, पुनस्सअसङ्गो पवर्मे इत्येसत् समाधिमुराह॥ अणुश्यामतानित्यत्ववदेतत् स्यात् ॥ ७७॥
यथाऽणोः स्यामता नित्या अग्निसंयोगेन प्रतिषिद्धा न पुनरुत्पद्यते एवमदृष्टकारितं शरीरमपवर्ग पुननोत्पद्यते इति । नाकताभ्यागमप्रसङ्गात् ॥ ७८॥
नायमस्ति दृष्टान्नः कमात् अवताभ्याममप्रसङ्गात् अक्तं प्रमाणतो. अनुप्रपन्नं तस्याभ्यागमोऽभ्युपपत्तियवसायः एतच्छ धानेन प्रमाणतोऽनुपपन्न मन्तव्यम् तस्मांबायं दृष्टानो न प्रत्यचं न चानुमान किञ्चिदुच्यत इति । तदिदं दृष्टान्नस्य साध्यसमत्वमभिधीयत इति । अथवा नाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् अणुश्यामतादृष्टान्तेनाकर्मनिमित्तां शरीरोत्यत्ति समादधानस्याकताम्बामममसङ्गः बनते सुखदुःखहेतौ कर्मणि पुरुषस्य सुखं दुःखमभ्यागच्छतीति प्रसज्येत, बौमितित्रवतः प्रत्यक्षानुमानागमविरोधः प्रत्यक्षविरोधस्तावत् भिवमिदं सुखदुःखं प्रस्थात्मवेदनीयत्वात् प्रत्यक्षं सर्वशरीरापा को भेदः तीब्रमन्दञ्चिरमाए नानाप्रकारमेक प्रकारमिति एवमादिविशेषः, नचास्ति प्रत्यात्मनियतः सुखदुःखहेतु विशेषः नचासति हेतुविशेषे फलविशेषो दृश्यते कर्ममिमित्तेत सुखदुःखयोगे कर्मयां तीअमन्दतोपपत्तः कर्मसञ्चयानाश्चोत्कर्षापकर्षभावानानाविधैकविधभावाच कर्मणां सुखदुःखभेदोपपत्तिः । सोऽयं हेतभेदाभावात् दृष्टः सुखदुःखभेदोनस्यादिति प्रत्याविरोधः । तथानुमानविरोधः दृहि पुरुषगुणव्यवस्थानात् सुखदुःखव्यवस्थानम्, यः खलुचेतनाबान साधननिर्वर्तनीयं सुखं बुहा नदीभन् तदाप्तिसाधनागलये प्रयते स सुखेन युज्यते न विपरोतः य साधननिर्व नीयं दुःखं बुद्धा तखिहासः साधनपरिवज नाय यतते स दुःखेन परित्यज्यो म विपरीतः अस्सिचेदं यत्नमन्तरेण चेतनामां सुखदुःखव्यवस्थानम् सेनापि चेतनगुणान्नरव्यवस्थानकतेन ' भतितव्यमित्यतुमानम् । तदेतदकर्मनिमित्त सुखदुःखयोगे विरुद्यत इति, तच्च गुणा.
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न्यायदानवात्यायनभाष्य
नरमसंवेद्यत्वाददृष्ट विपाककालानियमाच्चाव्यवस्थितम् बुद्यादयस्तं संके. द्याश्चापवर्गिणश्चेति । अथागमविरोधः। बहु खल्विदमार्षमृषीणामुपदेशजातमनुठानपरिवर्जनाश्रयमुपदेशफलञ्च शरीरिणां वर्णाश्रमविभागेनानुष्ठानलक्षणा प्रवृत्तिः परिवज नलक्षणा निवृत्तिः, तबोभयमेतस्या दृष्टौ नास्ति कर्म सुचरितं दुश्चरितं वा, कर्मनिमित्तः पुरुषाणां सुखदुःखयोगः इति विरुद्यते, मेयं पापिठानां मिथ्याष्टिरकर्मनिमित्ता शरीरसृष्टिरकर्म निमित्तः सुखदुःखयोगः इति ॥
इति वात्स्यायनीये न्यायभाष्ये रतीयाऽध्यायस्य द्वितीयमाणिकम् ॥
समाप्तञ्चायं रतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
मनसोऽन्तन्तरं प्रवृत्तिः परीक्षितव्या तत्र खल यावर्माधर्माश्रय रीरादि परीचितम् पर्जा माँ प्रवृत्ती परीक्षा इत्याह ॥
प्रवृत्ति यथोक्ता ॥१॥
तथा परीक्षितेति प्रहत्त्वनन्तरास्तहि दोषाः परीच्यन्तामित्यत आह ।
तथा दोषाः ॥ २॥ परीक्षिता इति बुद्धिसमानाश्रयत्वादात्मगुणाः, प्रतिहेतत्वात् पुनर्भवप्रतिसन्धानसामर्थ्याच्च संमारहेतवः, संसारस्थानादित्वादनादिना प्रबन्धेन प्रवर्तन्ते, मिथ्याज्ञाननिवृत्तिस्तत्वज्ञानात् तचित्तौ रागद्देष. प्रबन्धोन्देऽपवर्ग इति प्रादुर्भावनिरोधधर्मका इत्येवमाद्युक्त दोषाणामिति प्रवर्तनालक्षणा दोषा इत्युक्त तथा चेमे मानेासूयाविचिकित्मामत्सरादयः ते कमानोपसयायन्ते इत्यत आह ॥
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. ४ अध्याये १ आह्निकम् । तत्वैराश्यं रागद्दे षमोहार्थान्तरभावात् ॥ ३॥ _तेषां दोषाणां बयोराशयस्त्रयः पक्षाः, रागपक्षाः कामो मत्सरः पहा तृष्णा लोभ इति, द्वेषपञ्चाः क्रोधः ईष्याऽसूया दोहोऽमर्ष इति, मोहपक्षाः मिथ्याज्ञानं विचिकित्मा मानः प्रमादः इति वैराण्यानोपसङ्ख्यायन्ते इति, लक्षणस्य तमुभेदात् वित्वमनुपपन्नम्, नानु पपन्न रागद्देषमोहानरभावात् आसक्तिलक्षणो रागः, अमर्षलक्षणो हे षः, मिथ्या. प्रतिपत्तिलक्षणो मोह इति, एतत् प्रत्यात्मवेदनीयं सर्वशरीरिणाम, विजानात्ययंशरीरी रागमुत्पत्रम्, अस्तिमेऽध्यात्म रागधर्म इति, विरागञ्च विजानाति नास्ति मेऽध्यात्म रागधर्म इति । एवमितरयोरपीति | मानेोऽस्याप्रमतयस्तु बैराश्यमनु पतिता इति नोपसङ्ख्यायन्ते ॥
नैकप्रत्यनौकभावात् ॥ ४॥
नार्थान्तरं रागादयः कस्मात् एकप्रत्यनीकभावात् तत्त्वज्ञानं सम्यमतिरार्यप्रज्ञा सम्बोध इत्ये कमिदं प्रत्यनीकं त्रयाणामिति ॥ व्यभिचारादहेतुः ॥५॥
एकप्रत्यनीकाः पृथिव्यां श्यामादयोऽग्निसंयोगेनैकेन, एकयोनयश्च पाकजा इति, मति चार्थान्तरभावे । तेषां मोहः पापीयान्नामूढस्थेतरोत्पत्तेः ॥ ६ ॥
मोहः पापः पापतरो वा वविभिप्रेत्य लम्, कस्मात् नाम ढस्थेतरोपत्तेः अमू ढस्य रागद्दे पौ नोत्पद्येते मढस्य तु यथासङ्कल्पमुत्पत्तिः, विषयेषु रञ्जनीयाः सङ्कल्पाः रागहेतवः, को पनीयाः सङ्कल्पा (पहेतवः, उभये च सङ्कल्या न मिय्याप्रतिपत्तिलक्षणत्वान्मोहादन्ये ताविमौ मोहयोनी रा. गहषाविति तत्वज्ञानाच्च मोहनिवृत्तौ रागद्देषानुत्पत्तिरित्येकप्रत्यनीकभावोपपत्तिः । एवञ्च कृत्वा तत्वज्ञानाद् दुःखजन्म प्रत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवर्ग इति व्याख्यातमिति ॥
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये प्राप्तस्तहि निमित्तनैमित्तिकभावादर्थान्तरभावो दोषेभ्यः ॥७॥
अन्यवि निमित्तमन्यच्च नैमित्तिकमिति दोषनिमित्तत्वाददोषोमोइइति॥
न दोषलक्षणावरोधान्मोहस्य ॥८॥ ___ प्रवर्तनालक्षणा दोषो इत्यनेन दोषलक्षणेनावरुध्यते दोषेषु मोह इति । निमित्तनैमित्तिकोपपत्तेश्च तुल्यजातीयानामप्रतिषेधः ॥६॥
द्रव्याणां गुणानां वाऽनेकविधविवल्लो निमित्तनैमित्तिकभावे खल्यजातीयानां दृष्ट इति । दोषानरं प्रत्यभावस्तस्यासिद्धिः आत्मनो नित्यत्वात्, न खलु नित्यं किञ्चिज्जायते बियते इति जन्ममरणयो निव्यत्व दात्मनोऽनुपपत्तिः उभयञ्च मे त्यभाव इति तवायं सिद्धानुवादः ॥ ___ आत्मनित्यत्वे प्रेत्यभावसिद्धिः ॥ १० ॥
नित्योऽयमात्मा प्रति पूर्वशरीरं जहाति मियत इति । प्रत्य च पर्वशरीरं हित्वा भवति जायते शरीरानरमुपादत्ते इति । तच्चत. दुभयं पुनरुत्पत्ति: मेत्यभाव इत्यत्रोक्त पूर्वशरीरं हित्वा शरीरान्नरोपादानं प्रेत्वभाव इति तच तन्नित्यत्वे सम्भवतीति यख तु सत्व त्यादः सत्वनिरोधः प्रत्यभावस्तस्य कृतहानमकृताभ्यागमञ्च दोषः । उच्छदहेतुबादे भ्युपदेशाचानर्थ का इति, कथमुत्पत्तिरिति चेत् ॥
व्यक्ताद्यक्तानां प्रत्यक्षप्रामाण्यात् ॥ ११ ॥
केन प्रकारेण किंधर्मकात् कारणाशक्त शरीराद्युत्पद्यते इति, व्य ह.भू तहमाख्यातात् पृथिव्यादितः परमसूहानियाद्यक्तं शरीरे
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४ अध्याये १ आङ्गिकम् । १३८ न्द्रियविषयोपकरणाधारं प्रज्ञातं द्रव्यमुत्पद्यते । व्यक्तञ्च खल्लिन्द्रिय. पाह्यं तत्मामान्यात् कारणमपि व्यक्रम, किं सामान्यं रूपादिगुणयोगः, रूपादिगुणयुक्त भ्यः पृथिव्यादिभ्यो नित्येभ्यो रूपादिगुणयुक्त शरीराद्युत्पद्यते प्रत्यक्षप्र माण्यात् । दृष्टोहि रूपादिगुणयुक्तभ्यो मत्प्रतिभ्य स्तथाभूतस्य द्रव्यस्थोत्पादः, तेन चादृष्ट स्थानुमानमिति, रूपादीनामन्वयदर्शनात् प्रकृतिविकारयोः पृथिव्यादीनामतीन्द्रियाणां कारणभावोऽनुमीयते इति ॥
न घटाइटानिष्पत्तेः ॥ १२॥
इदमपि प्रत्यक्षम् न खल व्यनाहटाधनोघट उत्पद्यमानो दृश्यत पति व्यक्ताद्यनस्थावत्यत्तिदर्शनान व्यक्त कारणमिति ॥
व्यक्ताहटनिष्पत्तेरप्रतिषेधः ॥१३॥
न ब्रूमः सर्वे सर्वस्य कारणमिति किन्तु यदुत्पद्यते व्यक्तद्रव्यं तत् तथाभूतादेवोत्पद्यते इति । व्यक्तञ्च तन व्यं कपालसंज्ञकं यतो घट उत्पद्यते मचैतविहवामः कचिदभ्य नुत्ता लब्धुमह तीति। तदेतत् तत्त्वम्, अतःपरं प्रावादुकामां दृष्यः प्रदर्शन ।
अभावादावोत्पत्तिर्नानुपमद्यप्रादुर्भावात् ॥१४॥ समतः सत्पद्यते इत्ययं पक्षः कस्मात् उपमृद्य वीजमङ्कुर उत्पद्यते नानुपमद्य नचेद्दोजोपमर्दोऽङ्कुरोत्मभिः स्वादिति, अवाभिधीयते ॥
व्याघातादप्रयोगः ॥१५॥
उपमृद्य प्रादुर्भावादित्य युक्तः प्रयोगी व्याघातात् यदुपद्नाति न तदुपमद्य प्रादुर्भवितुमर्हति विद्यमानत्वात् यच्च प्रादुर्भवति न तेनाप्रादुभूतेनाविद्यमानेनोपमई इति ।
नातौतानागतयोः कारकशब्दप्रयोगात् ॥१६॥
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न्याय दर्शनवात्सायनभाष्ये
अतीते चानागते चाविद्यमाने कारकशब्दाः प्रयुज्यन्ते पुत्रो जनिध्यते जनिष्यमाणं पुत्त्रमभिनन्दति पुत्त्रस्य जनिध्यमाणस्य नाम करोति । अभूत् कुम्भी भिन्नं कुम्भमनुशोचति । भिन्नस्य कुम्भस्य कपालानि, अजाताः पुत्राः पितरन्नापयन्तीति बहुलं भाक्ताः प्रयोगाः दृश्यन्ते , का पुनरियं भक्तिः अानन्तर्य भक्तिः बोनन्तर्यसामर्थ्याटुपमद्य प्रादुर्भावार्थः प्रादु. भविष्यन्नर उपमनातीति भातं कर्ट त्वमिति ॥
न विनष्टेभ्योऽनिष्पत्तेः ॥२७॥
न विनष्टाहोजादङ्कर उत्पद्यत इति तस्मानाभावाद्भावोत्पत्तिरिति ॥
क्रमनिह शादप्रतिषेधः ॥१८॥
उपमर्द प्रादुर्भावयोः पौर्चापर्य नियमः क्रमः स खल्वभावाझावोत्पसे निर्दिश्यते स च न प्रतिषिध्यत इति । व्याहतव्यूहानामवयवानां पूर्वव्यूहनिवृत्तौ व्यू हान्तराद्र्व्यनिष्पत्ति भावात् । वोजावयवाः कुतचिनिमित्तात् प्रादुर्भूतक्रिया: पूर्वव्यू हं जहति व्यूहान्नरञ्चापद्यन्ते व्यू हान्तरादकर उत्पद्यते । दृश्यन्ते खल्ववय वास्तत्म योगाचारोत्पत्ति. हेतवः । नचानिवृत्ते पूर्वव्यूहे वोजावयवानां शक्यं व्यूहानरेण भवि.. तमित्यु पमई प्रादुर्भावयोः पौर्वापर्यनियमः क्रमः, तस्मानाभावाद्भावो. त्यत्तिरिति । न चान्यद्दोजावयवेभ्योऽङ्करोत्पत्तिकारणमित्युपपद्यते वीजोपादाननियम इति । अथापर आह॥
ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् ॥ १६ ॥
पुरुषोऽयं समीहमानो नावश्य समीहाफलमानोति तेनानुमीयते परावीनं पुरुषकर्मफलाराधन मिति यदधीनं स ईश्वरः तस्मादीश्वरः कारणमिति ॥
न पुरुषकर्माभावे फलानिध्यत्तेः ॥२०॥
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४ श्रध्याय ३ श्रह्निकम् ।
१४१
ईश्वराधीना चेत् फलनिष्पत्तिः स्यादपि तर्हि पुरुषस्य समीहा
न्तरेण फलं निष्पद्येतेति ||
तत्कारितत्वादहेतुः ॥ २१ ॥
1
पुरुषकारमीश्वरोऽनुग्टह्णाति फलाय पुरुषस्य यतमानस्येश्वरः फल सम्पादयतीति । यदा न सम्पादयति तदा पुरुषकर्मा फलम्भवतोति तमदीवरकारितत्वादहेतुः पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्तेरिति गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः तस्यात्मकल्पात् कल्पान्तरानुपपत्तिः । अध मिथ्याज्ञानप्रमादहान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्ट कामान्तरमीश्वरः तस्य च धर्मासमाधिफलम विमाद्यष्टविधमैश्वर्यम् सङ्कल्पातुविधायी चास्य धर्मः प्रत्यात्मवृत्तीन् धर्माधर्मासञ्चयान् पृथिव्यादीनि च भूतानि प्रवयति एवञ्च स्वकृताभ्यागमयालोपेन निर्माण प्राकाम्यमीश्वरस्य स्वशतक - र्मफलं वेदितव्यम्, आप्तकल्पञ्चायं यथा पिताऽपत्यानां तथा पितृभूत ईश्वरो भूतानाम्, न चात्मक्ल्पादन्यः कल्पः सम्भवति न तावदस्य बुद्धिं बिना कश्चिद्धम्र्मो लिङ्गभूतः शक्यः उपपादयितुम्, बागमाञ्च द्रष्टा बोजा सर्व्वज्ञातेश्वरइति बुद्ध्यादिभिचात्मलिङ्गे निष्टरुपाख्यमीश्वरं प्रत्यचानुमाना गमविषयातीतं कःशक्त उपपादयितुम् ॥ स्वकृताभ्यागमलोपेन च प्रवर्त्तमानस्यास्य यदुक्तं प्रतिषेधजातमकर्मनिमित्ते शरीरसर्गे तत् सर्व्वम्प्र सज्यते इति । अपरं इदानीमा |
श्रनिमित्ततो भावोत्पत्तिः कण्टकतैच्प्रादि
दर्शनात् ॥ २२ ॥
तै
व्यनिमित्ता शरीराद्युत्पत्तिः कण्टकतैच्प्रादिदर्शनात् कण्टकस्य पर्व्वतधातूनां चित्रता माबू: अच्छता निर्निमित्तञ्चोपादानं दृष्ट तथा शरीरसर्गोऽपीति ॥
अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्ततः ॥ २३ ॥
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न्यायदर्शनात्यायनभाचे
अनिमित्ततो भावोत्पत्तिरित्युच्यते यतकोत्पद्यते तनिमित्तमनिर्मित्तस्य निमित्तत्वाबानिमित्ता भावोत्पत्तिरिति ॥
निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तरभावादप्रतिषेधः ॥२४
अन्यति निमित्तमन्यच निमित्त प्रत्याख्यानम्, न च प्रत्याख्यान में व प्रत्याख्येयम्, यथानुदंकः कमण्डलरिति नोदकप्रतिषेध उदकम्भवतीति, स खल्वयं वादोऽकर्मनिमित्तः शरीरादिसर्ग इत्येतस्मांध भिद्यते । अभेदा. सत्प्रतिषेधेनैव प्रतिषिद्धो वैदितव्य इति, अन्येऽनुमन्थन्ने । सर्वमनित्यमुत्पत्तिविनाशधर्मकत्वात् ॥ २५॥
किमनित्यनाम यस कदाचिद्भावस्तदंनित्यम् उत्पत्तिधर्मकमनुत्मवं नास्ति विनाशधर्मकमविनष्टं मास्ति किं पुनः सर्वम्, भौतिकञ्च शरीरादि अभौतिकञ्च बयादि तदुभयमुत्पत्तिविनाशधर्मकं विज्ञायते तस्मानमर्चममित्यमिति ॥
नानित्यतानित्यत्वात् ॥ २६ ॥ - यदि तावत्सर्वखानित्यता नित्या, तनित्यत्वा सर्वमनित्यम्, अाँमित्या तस्याम विद्यमानायां स नियमिति । तदनित्यत्वमग्न ह्यं विनाश्यानुविनाशवत्॥२७॥
तस्या अनित्यताया अनित्यत्वम् कथम्, यथाग्निदोह्यं विनाश्यानुविनश्यति एवं सर्वस्यानित्यता सर्व विनाण्यानुविनश्यतीति ॥
नित्यस्याप्रत्याख्यानं यथोपलब्धिव्यवस्थानात् ॥२८॥ अयं खल बादो नित्यं प्रत्याचष्टे नित्यस्य च प्रत्याख्यावमनुपपत्रम् कमात्, यथोपलब्धिव्यवस्थानात् यस्योत्पत्तिविनाशधर्मकत्वमुपलभ्यते प्रमाणतस्तदनिाथम्, यस्य नोपलभ्यते तविपरीतम्, न च परमसूत्राणां भूतानामा
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४ अध्याये १ आफ्रिकाम।
कायकालदिगात्मममसा नहुणानाञ्च केषाञ्चित् सामान्यविशेषसमवायामाञ्चोत्पत्तिविनायधर्मकावं प्रमाणत उपलभ्यते तस्मानित्यान्ये तानीति । अयमन्य एकान्तः ॥ सर्व नित्यं पञ्चभूतनित्यत्वात् ॥ २६ ॥ भूतमात्वमिदं सई तानि च नित्यानि भूतो छ दानुषपत्ते रिति । नोत्पत्तिविनाशकारणोपलब्धेः ॥ ३० ॥
उत्पत्तिकारणचोपलभ्यते विनाशकारणञ्च तत् सनित्यत्वे व्याहभ्यत इति ॥ तल्लक्षणावरोधादप्रतिषेधः ॥ ३१ ॥
यस्योत्पत्तिविनाशकारणमुपलभ्यत इनि मन्यसे तद्भूतलक्षणहीनमर्थान्तरं ग्टह्यते भूतलक्षणावरोधाद्भूतमात्रमिदमित्ययुक्नो ऽयं प्रतिषेधः इति॥ नोत्पत्तितत्कारणोपलब्धेः ॥ ३॥
कारणसमानगुणसोत्पत्तिः कारणचोपलभ्यते । न चैतदुभयं नित्यविषयं नचोत्पत्तितत्कारणोपलब्धिः शक्या प्रत्याख्यातम्, नचाविषया काचिदुपलब्धिः उपलब्धिसामर्थात् कारणेन समानगुणं कार्यमुत्पद्यत इत्यनुमीयते स खलपलब्धेविषय इति । एवञ्च तलक्षणावरोधोपपत्ति. रिति, उत्ससिविनाशकारण प्रयत्नस्य ज्ञातुः प्रयत्नो दृष्ट इति, प्रसिबचावयवी तइर्मा उत्पत्तिविनाशधर्मा चावयवी सिद्ध इति । शब्दकर्म बुयादीनां चाव्याप्तिः पञ्चभूतनित्यत्वात्तनाणावरोधाचेत्यनेन शब्दकर्मबुद्धिसुखदुःखेच्छाहेषप्रय नाच न व्याप्लास्तरमादनेकान्तः, खविषयाभिमानवन्मिथ्योपलब्धिरिसिचेत् भूतोपलब्धौ तुल्यम् । यथा खने विषयाभिमान एवमुत्पत्तिकारणाभिमानः इति एवञ्चैत तोपलब्धौ बल्यम्, द्यष्टथिव्याापलब्धिरपि स्वविषयाभिमानवत् प्रसच्यते, पृथिव्याद्यभावे सर्व
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१४४
न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
व्यवहारविलोप इतिचेत् तदितरत्र समानम् उत्पत्तिविनाशकारणोपलब्धिविषयस्याप्यभावे सर्वव्यवहारविलोप पति मोऽयं नित्यानामतीन्द्रि. यत्वादविषयत्वाञ्चोत्पत्तिविनाशयोः स्वमविषयाभिमानवदनित्य तरिति । अवस्थितस्योपादानस्य धर्ममा निवर्त ते धर्ममानमुपजायते स खल त्यन्तिविनाशयोविभयः । यच्चोपजायते तत् प्रागयुपजननादस्ति। यच्च निवतते तमित्तमप्यस्तीति । एवञ्च सर्वस्य नित्यत्वमिति !
न व्यवस्थानुपपत्तेः॥ ३३ ॥
अयमुपजनः इयं निवृत्तिरिति व्यवस्था नोपपद्यते उप्रजातनिहत्तयोर्विद्यमानत्वात् अयं धर्म उपजातोऽयं निवृत्तइति सद्भावाविशेषादव्यवस्था । इदानीसपजननिवृत्ती नेदानीमिति कालव्यवस्था नोपपद्यते सर्वदा विद्यमानत्वात् अस्य धर्मयोपजननिवृत्ती नास्येति व्यवस्थानुपपतिरुभयोरविशेषात् | अनागतोऽतीत इति कालव्यवस्थानुपपत्तिः वर्त्त मानस्य सद्भावलक्षणत्वात् अविद्यमानस्यात्मलाभउपजनोविद्यमानसात्महानं निवृत्तिरित्येतस्मिन् मति नैते दोषाः तस्माद्यइन मागप्युपजनना. इस्ति निहत्तञ्चास्ति तदधुतमिति अयमन्य एकान्तः ।
सर्व पृथग्भावलक्षणस्थत्वात् ॥ ३४॥
सव्वं नाना न कश्चिदे को भावोविद्यते कमात् भावलक्षणष्टथक्वात् भावस्य लक्षणमभिधानं येन लभ्यते भावः स समाख्याशब्दः तस्य पृथग्विन. यत्वात् सर्वोभावः समाख्याशब्दः समूहवाची कुम्भइति संज्ञाशब्दोगन्धरसरूपस्पर्शसमू हे बुनपार्श्वयोवा दिसमूहे च वर्त ते निदर्शनमात्रञ्चेदमिति॥ नानेकलक्षणैरेकभावनिष्पत्तेः ॥ ३५॥
अनेकविधलक्षणैरिति मध्यमपदलोपी समासः। गन्धादिभिश्च गुणैर्धनादिभिचावयवैः सम्बद्ध एकोभावो निष्पद्यते गुणव्यतिरिक्तञ्च द्रव्यमवयवातिरिक्तचावयवीति विभनन्यायञ्चैतदुभयमिति । अथापि ॥
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१४५
४ अध्याये १ आह्निकम्। लक्षणव्यवस्थानादेवाप्रतिषेधः ॥ ३६ ॥
न कश्चिदे कोभाव इत्ययुक्तः प्रतिषेधः कस्मात् लक्षण व्यवस्थानादेव यदिह लक्षणं भावस्य संज्ञाशब्दभूतं तदेकस्मिन् व्यवस्थितम् यंकुम्भमद्राचं तं स्पशामि यमेवासानं तं पश्यामीति, नाणुसमूहे ग्टहते इति | अणुसमूहे चाग्टह्यमाणे यहह्यते तदेकमेवेति । अथाये तदनून नास्यको भावो यस्मात् समुदायः । एकानुपपत्ते न स्येव समूहः नास्येकोभावो यस्मात् समूहे भावशब्दप्रयोगः एकस्य चानुपपत्तः समूहो नोपपद्यते । एकसमुच्चयोहि समूह इति व्याहतत्वादनुपपन्न नास्त्येको भाव इति यस्य प्रतिषेधः प्रतिज्ञायते समूहे भाव शब्दप्रयोगादिति हेतुं ब्रुवता स एवाभ्यनुज्ञायते एकसमुच्चयोहि समूह इति समूहे भावशब्दप्रयोगादिति च समूहमाश्रित्य प्रत्येक समूहिप्रतिषेधो नास्येकोभाव इति सोऽयमुभयतोव्याघाताद्यत्किञ्चनवाद इति । अयमपर एकान्तः ॥
सवमभावो भावेष्वितरेतराभावसिद्धेः ॥ ३७ ॥
यावद्भावजातं तत्सर्वमभावः कस्मात् भावेष्वितरेतराभावसिद्धेः असन् गौरश्वात्मनानश्वो गौः । असन्नश्वोगवात्मनाऽगौरश्व इत्यसत्प्रत्ययस्थप्रतिषेधस्य च भावशब्दे न सामानाधिकरण्यात् सर्चमभाव इति प्रतिजरवाक्ये पदयोः प्रतिज्ञाहे त्योश्च व्याघातादयुक्तम्, अनेकस्याशेषता सर्व. शब्दस्यार्थीभावप्रतिषेधश्चाभावशब्दस्वार्थः पूर्व सोपाख्य मुत्तरं निरुपाख्यम् नत्र समुपाख्यायमानं कथं निरुपाख्यमभाव: स्यादिति न जात्वभावो निरूपाख्योऽनेकतयाऽशेषतया शक्यः प्रतिज्ञातमिति, सर्वमेतदभाव इति चेत् यदिदं सर्वमिति मन्यसे तदभाव इति एवं चेदनिवृत्तो व्याघातः अनेकमशेषञ्चेति नाभावात्ययेन शक्यं भवितुम्, अस्ति चायं प्रत्ययः सर्वमिति तस्मान्नाभाव इति, प्रतिज्ञाहेत्वोश्च व्याघातः सर्वमभाव इति भाव प्रतिधेधः प्रतिज्ञा भावेष्वितरेतराभावसिद्धेरिति हेतः । भाववितरेतराभावमनुज्ञायाश्रित्य चेतरेतराभावसिद्ध्या सर्वमभाव इत्युच्यते यदि सर्वमभा
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
बोभावेष्वितरेतरामावसिझेरिति नोपपद्यते अथ भावेवितरेतराभावसिद्धिः सर्वमभावः इति नोपपद्यते सूलेण चाभिसम्बन्धः ॥
न स्वभावसिद्धे र्भावानाम् ॥३८॥ ___ न सर्वभावः कस्मात् खेन भावेन सद्भावात् भावानाम्, खन धर्मेण भावाभवन्तीति प्रतिज्ञायते कश्च वोधर्मो भावानां द्रव्यगुणकर्मणां सदादिसामान्यम् द्रव्याणां क्रियावदित्येवमादिविशेषः, स्पर्श पर्यन्ताः टथिव्याइति च प्रत्येकञ्चानन्नोभेदः । सामान्य विशेषसमवायानाञ्च विशिष्टा धर्मा ग्टहन्ने सोऽयमभावस्य निरुपाख्यत्वात् सम्प्रत्यायकोऽर्थभेदो न स्यात्, अस्तित्वयन्तमान सर्वमभाव इति । अथवा न खभावसिद्धेर्भावानामिति । स्वरूपसि रिति गौरितिप्रयुज्यमाने शब्दे जातिविशिष्ट द्रव्यं ग्टह्यते नाभावमात्रम् यदि च सर्वमभावः गौरित्यभावः प्रती येत गोशब्देन चाभावः उच्चत, यस्मात्तु गोशब्दप्रयोगे ट्रव्यविशेषः प्रतीयते नामावस्तस्मादयु नमिति, अथवा न स्वभावसिझेरिति । असन् गौरश्वात्मनेति गवात्मना कसानोच्यते अवचनात् गवात्मना गौरस्तीति स्वभावसिद्धिः, अनश्वोऽश्व इति वा अगौगौरिति वा कस्मानोच्यते अवचनात् खेन रूपेण विद्यमानता द्रव्यस्येति विज्ञायते अध्यतिरेकप्रतिषेधे च भावानामसंयोगादिसम्बन्धी व्यतिरेकः, अत्राव्यतिरेकोऽभेदाख्य सम्बन्धः । प्रत्ययसामानाधिकरण्यम् यथा न मन्ति कुण्डे बदराणीति असन् गौरश्वात्मनामनश्वे गौरिति च गवाश्वयोरव्यतिरेकः प्रतिषिध्यते गवाश्वयोरेकत्वं नास्तीति । तस्मिन् प्रतिषिध्यमाने भावेन गवा सामानाधिकरण्यममत्प्रत्ययस्यासन गौरश्वात्मनेति, यथा न सन्नि कुण्डे वदराणीति कुण्डे वद, रसंयोगे प्रतिषिध्यमाने सङ्गिरसत्प्रत्ययस्य सामानाधिकरण्यामिति ॥ न स्वभावसिद्धिरापेक्षिकत्वात् ॥ ३९ ॥
अपेक्षासतमामेचि कम हसापेक्षाकृतं दीर्घ दीर्घापेक्षाकतं हव, न खेनात्म नावस्थितं किञ्चित्, कस्मात् अपेक्षामामर्थात् तस्मान्न खभावसिद्धिर्भावानामिति ॥
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४ अध्याये १ आदिकम् ।
व्याहतत्वादयतम् ॥४०॥
यदि खापेक्षाकृतं दीर्घ किमिदानीमच्य हस्खमिति ग्टह्यते, अथ दीर्घापेक्षाकृतं ह्रख दीर्घमनापेक्षिकम्, एवमितरेतरात्रययोरेकाभावेऽन्य तराभा बाटुभयाभाव इति अपेक्षाव्यवस्थानुपपना, स्वभावसिका. वसत्याम् समयोः परिमण्डलयोर्वा द्रव्ययोरापेक्षिके दीर्घ वह खत्वे क. स्मान्न भवतः । अपेक्षायामन पेक्षायाञ्च द्रव्ययोरभेदः, यावती द्रव्ये अपेक्षमाणे तावतो एवानपेक्षमाणे नान्य तरत्र भेदः आपेक्षिक चे तु सत्यन्य त - रत्र विशेषोपजनः स्यादिति, किमपेक्षासामर्थ्य मिति चेत् इयोहणेऽतिशयमहणोपपत्तिः । हे द्रव्ये पश्य नेकन विद्यमानमयिशयं ग्टह्वाति, तबीर्घ मिति व्यवस्थति, यच्च होने ग्टह्णाति तङ्क,खमिति व्यवस्थतीति । एतच्चापेक्षासामर्थ्य मिति । अथे मे सबैकान्ताः । सर्वमेकं सदविशेषात, सब वेधा नित्यानित्यभेदात् सर्व वेधा ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयमिति, सर्व चतुर्दा प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति, एवं यथासम्भवमन्ये ऽपीति । तत्र परीक्षा ।
सद्ध्यैकान्ता सिद्धिःकारणानुपपत्त्य पपत्तिम्याम्॥४१॥
यदि माध्यसाधनयो नात्व मे कान्तो न सिद्ध्यति व्यतिरेकात् अथ साध्यसाधनयोरभेदः एषमप्येकानो न सियति साधनाभावात् नहि तमन्तरेण कस्यचित् सिद्धिरिति । न कारणावयवभावात् ।। ४२॥
न सबै कान्नानाममिद्धिः, कमात् कारणयावयवभावात् अवयवः कश्चित् साधनभूत इत्यव्यतिरेकः, एवं दैतादीनामपीति ॥ निरवयवत्वादहेतुः ॥४३॥
कारणयावयवभावादित्य हेतुः कस्मात् सर्वमेकमित्य नपवर्गेण प्रति
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्य ज्ञाय कस्यचिदेकत्वमुच्यते तत्र व्यपत्तोऽवयवः साधनभूतो नोपपद्यते एवं दैतादिष्वपीति । ते खल्लिमे सबैकान्ताः विशेषकारितस्थार्थ विस्तारस्य प्रत्याख्याने न वर्तन्न प्रत्यक्षातुमानागमविरोधान्मिथ्यावादा भवन्ति | अथाभ्यनुज्ञानेन वर्तन्ने समानधर्मकारितार्थ संग्रहो विशेषकारितश्चार्थ भेद इति एवमेकान्त त्वं जहतीति । ते खल्वेते तत्त्वज्ञान प्रविवेकार्थ मेकान्नाः परीक्षिता इति । प्रेत्यभावानन्तरं फलं तस्मिन् ॥
सद्यः कालान्तरे च फलनिष्पत्तेः संशयः ॥४४॥
पचति दोग्धीति सद्यः फलमोदन पयसी, कृषति वपतीति कालान्तरे फलं शस्साधिगम इति। अस्ति चेयं क्रिया अग्निहोत्र हुयात् रूगकाम इति, एतस्याः फले संशयः ॥
न सद्यः कालान्तरोपभोग्यत्वात् ॥ ४५ ॥
स्वर्गः फलं श्रूयते तच्च भिन्न कस्मिन् देहभेदाटुत्पद्यत इति, न सद्योयामादिकामानामारम्भफल मिति ||
कालान्तरेणानिष्पत्तिहेतुविनाशात् ॥ ४६॥
ध्वस्तायां प्रवृत्तौ प्रवृत्तेः फलं न कारणमन्तरेणोत्पत्तुमर्हति, न खल वै विनष्टात्कारणात् किञ्चिद्वत्पद्यतति ॥ प्रनिष्पत्ते क्षफलवत्तत् स्यात् ॥ ४७॥
यथा फलार्थिना वृक्षमूले सेकादिपरिकर्म क्रियते तस्मिंश्च मध्वस्ते टथिवीधातुरमातुना सङ्गहीतः प्रान्तरेण तेजसा पच्यमा नो रसद्रव्यं निवर्तयति स द्रव्यभ तो रसोक्षानुगतः पाकविशिष्टो व्यहविशेषेण सन्निविशमानः पर्णादिफलं निवर्तयति । एवं परिषेकादि कर्म चार्थवत् न च विनदान फलनिष्यत्तिः, तथा प्रवृत्त्या संस्कारो धर्माधर्मलक्षणो जन्यते स .
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४ अध्याय १ आङ्गिकम्।
१४८
जातो निमित्तान्तरानुग्टहीतः कालानरे फलं निष्पादयतीति। उक्तञ्चैतत्पूर्वकतफलानुबन्धात्तदुत्पत्तिरिति तदिदं प्रानिष्यत्तेनिष्प्रद्यमानम् ॥ . नासन्नसन्नसदसदत्सतोर्वैधात् ॥४८॥
मानिध्यत्तेनिष्पत्निधर्मकं नासत् उपादाननियमात् कस्यचित्पत्तये किञ्चिदुपादेयं न सर्व सर्वस्ये त्यसद्भावे नियमो नोपपद्यत इति, न सत् मागुत्पत्ते विद्यमानस्योत्पत्तिरनुपपन्नेति, न सदसत् सदसतोवैधात् सदित्यर्थाभ्यनुज्ञा अदित्यर्थप्रतिषेधः एतयोाघातोवैधम्यं व्याघातादव्य तिरेकानुपपत्तिरिति प्रागुत्पत्तेरुत्पत्तिधर्म कमसदित्यहा कस्मात् ॥ उत्पाद व्ययदर्शनात् ॥ ४६॥ यत्पनरुक्तं मागुत्पत्तेः कार्यवासटुपादाननियमादिति ॥
बुद्धिसिद्धन्तु तदसत् ॥५०॥
इदमस्योत्पत्तये समर्थ न सर्व मिति प्रागुत्पते नियतकारणं कायं बुद्ध्या सिद्धमुत्पत्तिनियमदर्शनात् तस्मादुपादाननियमयोपपत्तिः सति त कार्ये प्रागुत्पत्ते रुत्पत्तिरेव नातीति ॥ . आश्रयव्यतिरेकादृक्षफलोत्पत्तिवदित्यहेतुः ॥५१॥
मूलसेकादि परिकर्म फलञ्चोभयं वृक्षात्रयम्, कर्म चेह शरीरे फलञ्चासत्रेत्याश्रयव्यतिरेकादहेरिति॥ प्रोतरात्माश्रयत्वादप्रतिषेधः ।। ५२ ॥
मोतिरात्म प्रत्यच्चत्वादात्माश्रया तदाश्रय मेव कर्म धर्मसंज्ञितम् धर्मसात्म गुणत्वात् । तस्मादायव्यतिरेकानुपपत्तिरिति ॥ न पुत्रपशुस्त्रीपरिच्छदहिरण्यान्नादिफलनि:शात् ।। ५३ ॥
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न्यायदानवात्यायनभाष्ये
पुत्रादि फलं निहिश्य ते न प्रीतिः यामकामो यजेत पुत्रकामो यजेतेति । तत्न यह तं मोतिः फलमित्येतदयुनामिति ॥
तत्सम्बन्धात् फलनिष्पत्तेस्तेषु फलवदुपचारः॥५४॥
- पुत्रादिसम्बन्धात् फलं मोतिलक्षणमुत्पद्यत इति पुत्रादिषु फलवदु पचारः यथाऽन्ये प्राणशब्दोऽन्न वै प्राणाइति । फलानन्तरं दुःखमुद्दिष्टम्, उक्तञ्च बाधनालक्षणं दुःखमिति । तत् किमिदं प्रत्यात्मवेदनीयस्य सवैजन्त प्रत्यक्षस्य सुखस्य प्रत्याख्यानम्, आहोखिद न्यः कल्प इति, अन्य इत्याह कथम् न वै सर्वलोकसाक्षिकं सुखं शक्यं प्रन्याख्यातुम्, अयन्त जन्ममरणप्रबन्धानुभवनिमित्तादुःखानिर्विणस्य दुःखतिहासतो दुःखसंज्ञाभावनोपदेशो दुःखहानार्थ इति, कथा युतया सर्वे खलु सत्वनिकायाः सर्बाण्युत्पत्ति स्थानानि सर्वः पुनर्भवो बाधनानुष को दुःखसाहचर्याहाधनाल क्षणं दुःखमित्यनम् ऋषिभि ई :खसंज्ञाभावनमुपदिश्यते अन च हेतुरुपादीयते ॥
विविधबाधनायोगाहःखमेव जन्मोत्पत्तिः ॥५५
जन्म जायत इति शरीरेन्द्रियबड्वयः, शरीपदीनाञ्च संस्थान विशिघानां प्रादुर्भाव उत्पत्तिः । विविधा च बाधना होना मध्यमोत्कृष्टा चेति । उत्कृष्टा नारकिणाम्, तिरश्चान्तु मध्यमा, मनुष्याणान्त होना, देवानां हीनतरा वीतरागाणाञ्च, एवं सर्वस्त्पत्तिस्थान विविधबाधनानुपक्तं पश्यतः सुखे तत्साधनेषु च शरोरेन्द्रियबुद्धिषु दुःखमंज्ञा व्यवतिष्ठते, दुःखसंज्ञाव्यवस्थानात् सर्वलोकेष्वनभिरतिसंज्ञा भवति, अनभिरतिसंज्ञामुपासीनस्य सर्वलोकविषया सृष्णा विच्छिद्यते, तृष्णाग्रहाणात् सर्वदुःखादिमुच्यत इति । यथा विषयोगात् पयोविषमिति बुध्यमानो नोपादत्ते, अनुपाददानो मरणदुःखं नामोति, दु:खोद्देशस्तु न सुखस्य प्रत्याख्यानम्, कस्मात् ॥
न सुख स्थान्तरालनिष्पत्तः ॥५४॥
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१५१
न खल्वयं दुःखोद्देशः सुखस्य प्रत्याख्यानम् । कस्मात् सुखयान्तरालनिष्पत्तेः । निष्पद्यते खल बाधनान्तरालेषु सुखं प्रत्यात्मवेदनीयं शरीरियाम्, तदशक्यं प्रत्याख्यातुंमिति, व्यथापि ॥
बाधनाऽनिवृत्तेर्वेदयतः पर्येषणदोषादप्रतिषेधः ॥ ५७
*
४ अध्याय १ आह्निकम् ।
सुखस्य दुःखोद्देशेनेतिप्रकरणात् पर्येषणं प्रार्थनाविषयार्जनतृष्णापर्येषणस्य दोषो यदयं वेदयमानः प्रार्थयते तस्य प्रार्थितं न सम्पद्यते, सम्पद्य वा विपद्यते, न्यूनं वा सम्पद्यते, बड़े प्रत्यनीकं वा सम्पद्यते इत्येतस्मात् पर्येषणदोषाखानाविधो मानसः सन्तापों भवति । एवं वेदयतः पर्येषणदोषाद्वाधनाया ध्वनिहन्तिः । बाधनानिटसेदु:खसंज्ञाभावनमुद्दिश्यते अनेन कारणेन दुःखं जन्म न तु सुखस्याभावादिति । अथाप्येतदनुक्तम् । कामं कामयमानस्य यदा कामः सम्टयति, अथैनमपरः कामः चिप्रमेव प्रबाधते । अपि चेदनेमिं समन्ताद्भूमिमिमां लभते स गवाश्वाम्, न स तेन धनेन धनैषी तृप्यति किन्तु सुखं धनकाम इति ॥
1
दुःखविकल्पे सुखाभिमानाच्च ॥ ५८ ॥
दुःखसंज्ञाभावनोपदेशः क्रियते, अयं खलु सुखसंवेदने व्यवस्थितः सुखं परमपुरुषार्थं मन्यते न सुखादन्यनिःश्रेयसमस्ति सुखे माप्ते चरितार्यः लतकरणीयो भवति । मिथ्यासङ्कल्पात् सुखे तत्साधनेषु च विषयेषु संरज्यते संरक्तः सुखाय घटते घटमानस्याऽस्य जन्मजराव्याधिप्रायणानिष्ट संयोगेष्ट वियोगार्थतानुपपत्तिनिमित्तमनेकविधं यावद्दः खमुत्पद्यते तं दुःखविकल्प' सुखमित्यभिमन्यते सुखाङ्गभूतं दुःखम्, न दुःखमनापाद्य शक्यं सुखमवाम् तादर्थ्यात् सुखमेवेदमिति सुखसंज्ञोपहतपत्रो जाra fara सन्वावतीति संसारं नातिवर्त्तते, तदस्याः सुखमज्ञायाः प्रतिपच्चो दुःखसंज्ञाभावनमुपदिश्यते दुःखानुषङ्गाद् दुःखं जन्म े तिन सुखस्याभावात् यश्चेवं कस्माद्दुःखं जन्म े ति नोच्यते सोऽयमेवं वाच्ये यदेव - माह दुःखमेव जन्मदेति तेन सुखामात्रं ज्ञापयतीति । जन्मनिग्रहार्थी यो
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न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्ये
बै खल्वयमैवशब्दः कथं न दुःखं जन्म स्वरूपतः किन्त दुःखोपचारात्, एवं मुखमपीति, एतद नेनैव निवर्त्य ते न तु दुःखमेव जन्मेति । दुःखोद्देशानन्तरमपवर्गः स प्रत्याख्यायते । ऋणक्लो शप्रत्त्यनुबन्धादपवर्गाभावः ॥ ५६ ॥
ऋणानुबन्धावास्यपवर्गः, जायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रि भई गईणवान् जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिम्यो यज्ञेन देवेभ्यःप्रजया पिढभ्य रति, ऋपानि तेषामनुबन्धः स्वकर्मभिः सम्बन्धः कर्मसम्बन्धवचनात् । जरामय था एतत् सत्र यदग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ चेति जरया ह एष तस्मात् सत्रादिमुच्यते मृत्युना ह चेति, ऋणानुबश्वाद पवर्गानुशन कालो नास्तीत्य पवर्गाभावः । क्लेशानुबन्धात्रास्त्यपवर्गः, लेशानुबतच जायते न-स्य लशानुबन्धविच्छेदो ग्टह्यते । प्रत्यनुबन्धानास्त्यपवर्गः | जन प्रमत्ययं यावत् प्रायणं वाग्बुद्धिशरीरारम्भेणाविमुक्तो ग्टह्यते तत्र यदुक्त दुःख. जन्मप्रत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवर्ग इति तदनुपपत्रमिति | अनाभिधीयते, यत्तावणानुबन्धादिति ऋणैरिव ऋणैरिति ॥
प्रधानशब्दानुपपत्तेर्गुणशब्देनानुवादोनिन्दाप्रशंसोपपत्तः ॥६॥
ऋणैरिति नायं प्रधानशब्दः यत्र खल्वे कः प्रत्यादेयं ददाति हिती यश्च मतिदेयं ग्टहाति तत्वास दृष्टत्वात् प्रधानमृणशब्दः, न चैतदिहोपपद्यते प्रधानशब्दानुपपत्ते पशब्देनायमनुवादः करणैरिव क गरिति प्रयुक्तोप. मञ्चैतत् अग्निर्माणवक इति । अन्यत्र दृष्टवायमणशब्दह प्रयुज्य ते यथाग्निशब्दो माणवके, कथं गुणशब्देनानुवादः निन्दाप्रशंसोपपत्तेः कमलोमे ऋणीव करणादानाविन्दरते, कर्मानुष्टाने च ऋणीव ऋणद.नात् प्रशस्यते । जायमान इति गुणशब्दो विपर्यये ऽनधिकारात् | जायमानो ह वै ब्राह्मण इति च शब्दो ग्टहस्यः सम्म द्यमानो जायमान इति । यदायं ग्टहस्थो जायते तदा कर्मभिरधिक्रियते माटतो जायमानस्थानधिकारात्,
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४ अध्याये १ आह्निकम् ।
यदा तु माटतो जायते कुमारो न तदा कर्मभिरधिक्रियते, अर्थिनः शक्तम चाधिकारात् । अर्थिनः कर्मभि रधिकारः कर्मविधौ कामसंयोगस्टतेः अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः इत्येवमादि, शक्तस्य च प्रवृत्तिसम्भवात् शक्तस्य कर्मभिरधिकारः प्रवृत्तिसम्भवात्, शक्तः खल विहिते कर्मणि प्रव. र्तते नेतर दूति, उभयाभावस्तु प्रधानशब्दार्थे माटतो जायमाने कुमारे उभयमर्थिता शक्तिश्च न भवतीति। न भिद्यते च लौकिकाह क्यादिकं वाक्यम् प्रेक्षापूर्वकारिपुरुषप्रणीतत्वेन तत्व लौकिक स्तावदपरीक्षकोऽपि न जातमात्र कुमारकमेवं ब यादधीष्व यजस्व ब्रह्मचर्य चरेति । कुतएवं ऋषिरुपपन्नानवद्यवादी उपदेशार्थे न प्रयुक्त उपदिशति | न खलु वै मर्त्त कोऽधेष प्रवर्त्तते न गायनो वधिरेष्विति, उपदिष्टार्थविज्ञानञ्चोपदेशविषयः यचोपदिष्टमर्थ विजानाति तं प्रत्यू पदेशः क्रियते न चैतदस्ति जायमानकुमारके इति गार्हस्थ्यलिङ्गञ्च मन्त्र ब्राह्मणं कर्माभिवदति यच्च मन्त्रब्राह्मणं कर्माभिवदति तत्पत्नीसम्बन्धिना गार्हस्थ्यलिङ्गेनोपपन्नम् । तस्माइ हस्याऽयं जायमानोऽभिधीयत इति । अर्थि त्वस्य चाविपरिणामे जरामर्थ्य वादोपपत्तिः, यावच्चास्य फलेनार्थि त्वं न विपरिणमते न निव
ते तावदनेन कर्मानुष्ठेयमित्युपपद्यते जरामर्यवादस्तं प्रतीति, जरया ह वेत्याय घस्तुरीयस्य चतुर्थ स्य प्रबज्याय कास्य वचनम्, जरया ह वा एष एतमाहिमुच्यत इति, आयुषस्तुरीयं चतुर्थे प्रवज्यायुक्न जरेत्य च्यते तत्र हि प्रवज्या विधीयते अत्यन्त जराम योगे जरया ह वेत्यनर्थ कम् अशक्तोविमुच्यत इत्येतदपि नोपपद्यते स्वयमशक्तस्य वाह्यां शक्तिमाह | अन्तेवासी वा जुहुयाद्बा ह्मणा स परिक्रीतः क्षीरहोता वा जड़याधनेन स परीक्रीत इति । अथापि विहितं वान द्येत कामावार्थः परिकल्पात विहितानुवचनं न्यायमिति ऋणवानिवाख तन्त्रो ग्टहस्थः कर्मसु प्रवर्तते इत्यु पपन्न वाक्यस्य सामर्थ्यम्, फलस्य हि साधनानि प्रयत्नविषयो न फलम्, तानि सम्पन्नानि फलाय कल्पान्ते, विहितञ्च जायमानं विधीयते च जायमानं तेन यः सम्बध्यते सोऽयं जायमान इति । प्रत्यक्ष विधानाभावादिति चेत् न प्रतिषेधस्यापि प्रत्यक्षविधानाभावादिति । प्रत्यक्षतोविधीयते गाहस्य॑ ब्राह्मणेन, यदि चापमान्तरमभविष्यत् तदपि व्यधा
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
खत प्रत्यक्षतः, प्रत्य नविधानाभावावास्याश्रमान्तरमिति न प्रतिषेघस्ये प्रत्यक्षविधानाभावात् न प्रतिषेधोऽपि वै बामणेन प्रत्यक्ष तो विधीयते न सन्त्याश्रमान्तराणि एक एव ग्टहस्थाश्रम इति प्रतिषेधस्य प्रत्यक्षतोऽश्रवणादयुक्त मेदिति ॥ अधिकाराच्च विधानं विद्यान्तरवत् ॥ ६१ ॥
यथा शास्त्रान्तराणि खे खेधिकारे प्रत्यक्षतो विधायकानि नार्यातराभावात्, एवमिदम् बाह्मणं ग्टहस्थशास्त्र खेऽधिकारे प्रत्य न तोविधायकं नामान्तराणामभावादिति । कगनाहा सञ्चापवर्गाभिधाय्य भिधीथते । ऋचश्च ब्राह्मणानि चापवर्गाभिवादोनि भवन्नि । ऋचश्च तावत्, कर्मभिर्मत्यु मृषयो निघेदुः प्रजावन्तो द्रविणमिच्छमानाः, अथापरे ऋषयो मनीषिणः परं कर्मभ्योऽमृतत्वमानशुः, न कर्मणा न प्रजया धनेन, त्यागे. नैके अमृतत्वमानशुः । परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयोविशन्ति, वेदाहमेतं पुरुष महान्नमादित्यवर्णन्तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमत्य मेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । अथ ब्राह्मणानि, यो धर्मखावाः यज्ञोऽध्ययनं दानमिति, प्रथमस्तपएव, द्वितीयो ब्रह्मचार्या चार्य कुलवासी, टतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्य कुलेऽवसादयन्, सर्व एवैते पुण्यलोका भवन्ति । ब्रह्मसंस्थोऽस्तत्व मेति । एतमेव प्रवाजिनो लोकमभीमन्नः प्रव्रजन्नीति अथो खल्वाहुः काममयएवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तथा क्रतुर्भववि तथा तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते इति कर्मभिः संसरणमुक्त्वा प्रकृतमन्यदुपदिशन्ति इति तु कामयमनो योऽकामोनिष्काम आत्म कामो भवति न तस्य प्राणा उत्क्रा. मन्ति दहेव समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्य तीति । तत्र यदुक्त मणानुवन्धादवर्गाभाव इत्येतद् युक्तमिति ये चत्वारः पथयो देवयाना इति च चातुरायम्यश्रुतेरैका श्रम्यानुपपत्तिः, फलार्थिनचेदं ब्राह्मण रामय घा एतत् सत्रं यदग्निहोत्र दर्श पूर्णमासौ चेति, कथम् ॥ समारोपणादात्मन्यप्रतिषेधः ॥ ६२ ॥
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४ अध्याये १ प्राज्ञिकम्।
१५५
प्राजापत्यामिष्टि निरूप्य तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा यात्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेदिति व यते, तेन विजानीमः प्रजावित्तलोकै घणयाश्च व्यस्यायाथ भिक्षाचयं चरन्तीति, एषणाभ्यश्च व्युवितस्य पान. चयान्तानि कर्माणि नोपपद्यन्न इति नाविशेषेण कर्तुः प्रयोज कफलं भवतीति । चातुरात्रम्यविधानाचे तिहासपुराणधर्मशास्त्रेष्ठ काश्रम्यानुपपत्तिः । तद प्रमाणमिति चेत् न प्रमाणेन खनु ब्राह्मणे नेतिहासपुराणस्थ प्रामाण्यभम्यनुज्ञायते, ते वा खल्वेते अथर्वाङ्गिरस एतदितिहास पुराणमभ्यवदन इतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेद इति । तस्मादयुक्तमेतदप्रामाण्य मिति | अप्रामाण्ये च धर्मशास्त्रस्य प्राणभृतां व्यवहारलोपालोको. छेद प्रसङ्गः । द्रष्टु प्रवक्तसामान्याञ्चाप्रामाण्यानुपपत्तिः, य एव मन्त्र ब्राह्मयस्य दृष्टारः प्रकारच ते खल्लितिहासपुराणस्य धर्म शास्त्रस्य चेति । विषय व्यवस्थानाच्च यथाविषयं प्रामाण्यम् अन्यमन्त्र ब्राह्मणस्य विषयोऽज्यवेतिहासपुराणधर्मशास्त्राणामिति | यज्ञो मन्त्रब्राह्मणस्य, लोकत्तमितिहासपुराणस्य लोकव्यवहारव्यवस्था नं धर्मशास्त्रस्य विषयः। तत्र केन सर्व व्यवस्थाप्यत इति, यथाविषयमेतानि प्रमाणानीन्द्रियादिवदिति | यत्सुनरेतत् ले शानुबन्धस्याविच्छेदादिति ॥
सुषप्तस्य स्वप्नादर्शने क्लेशाभावादपवर्गः ॥६३ ॥
यथा सुषप्तस्य खल खप्रादर्श ने रागानुबन्धः सुखदुःखानुबन्धश्च विच्छिद्यते तथा ऽपवर्गेऽपीति । एतच्च ब्रह्मविदो मुक्तस्यात्मनो रूपसुदा. हरन्नोति । यदपि प्रवृत्त्यनुबन्धादिति ॥ न प्रत्तिः प्रतिसन्धानाय होनल शस्य ॥ ६४ ॥ __ प्रक्षीणेषु रागद्देषमोहेषु प्रवृत्तिर्न प्रतिसन्धानाय, पूर्वसन्धिस्तु पूर्वजन्मनिवृत्तौ पुनर्जन्म तञ्चादृष्टकारितम्, तखां प्रहीणायां पूर्वजमानावे जन्मान्तराभावोऽ प्रतिसन्धानमपवर्गः । कर्म वैकल्य प्रसङ्ग इति चेत् न कर्मविपाकप्रतिसंवेदनस्याप्रत्याख्यानात् पर्वजन्न निवृत्तौ
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्य
पुनर्जन्म न भवतीत्युच्यते न तु कर्मविपाकप्रतिसंवेदनं प्रत्याख्यायते । सर्वाणि पर्व कर्माणि ह्यन्ते जन्मनि विपच्यन्त इति ॥
न ल शसन्ततः स्वाभाविकत्वात् ॥ ६५ ॥
नोपपद्यते क्लेशानुबन्ध विच्छेदः, कस्मात् क्लेशसन्ततेः स्वामाविक त्वात् अनादिरियं लेशमन्ततिः नचानादिः शक्यः उच्च तुमिति । अत्र कश्चित् परीहारमाह॥
प्रागुत्पत्तेरभावानित्यत्ववत्स्वाभाविकेऽप्यनित्यत्वम् ॥ ६६ ॥
यथाऽनादिः प्रागुत्पत्तेरभाव उत्पन्नेन भावेन निवर्त्य ते एवं खाभाविकी क्लेश सन्ततिरनित्येति ॥ अणुश्यामताऽनित्यत्ववदा ॥ १७॥
अपराह तथाऽनादिरगु श्यामता अथ चाग्निसंयोगादनित्या तथा क्ले शसन्ततिरपीति, सतः खलु धर्मो नित्यत्वमनित्यत्वञ्च तत्त्वभावे भावे भानमिति । अनादिरणुश्यामतेति हेत्वभावादयुक्तम्, अनुत्पत्तिधर्ममनित्यमिति नात्र हेतरस्तीति । अयन्तु समाधिः ॥ न सङ्कल्पनिमित्तत्वाच्च रागादीनाम् ॥ ६८ ॥
कर्मनिमित्तत्वादितरेतरनिमित्तत्वाञ्चेति समुच्चयः । मिथ्यासङ्कयेभ्यो रञ्जनीयकोपनीयमोहनीयेभ्यो रागहषमोहा उत्पद्यन्ते कर्म च सत्त्वनिकायनिबर्तकं नैयमिकान् रागद्देषमोहान् निर्वत यति निय. भदर्शनात, दृश्यते हि कश्चित्मत्त्व निकायोरागबहुल: कश्चिद्देषबहुलः कश्चिन्मोहबहुल इति । इतरेतरनिमित्ता च रागादीनामुत्पत्तिः मूढो. रज्यति, मढः कुष्यति, रक्तोमुह्यति, कुपितोमुह्यति । सर्वमिथ्यासङ्कल्पानां तत्त्वज्ञानादनुत्पत्तिः । कारणानुत्पत्तौ च कार्यानुत्पत्ते रिति, रागादीना
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४ अध्याये २ आह्निकम् ।
मत्यन्तमनुत्पत्तिरिति । अनादिश्च क्लेशसन्ततिरित्यय कम् । सर्वे इमे खल्वाध्यात्मिका भावा अनादिना प्रबन्धेन प्रवर्तन्ते शरीरादयः, न जात्वत्व कश्चिदनुत्पन्नपूर्वः प्रथमत उत्पद्यते अन्यत्र तत्त्वज्ञानात्, नचैवं सत्यनुत्पत्तिधर्मकं किञ्चिद्ययधर्मकं प्रतिज्ञायत इति । कर्म च सत्त्वनिका. यनिवर्तकम् तत्त्वज्ञानकृतात् मिथ्यासङ्कल्पविघातान्न रागाद्युत्पत्तिनिमित्तं भवति सुखदुःखसम्बित्तिफलन्त भवतीति |
इति वात्मायनीये न्यायभाष्ये चतुर्थाध्यायखाद्यमाह्निकम् ॥
किन्तु खल भी यावन्तो विषयास्तावत्स प्रत्येकं ज्ञानमुत्पद्यते । अथ कचिटुमद्यत इति कश्चात्र विशेषः, नतावदेकैकत्र यावद्विषयसुत्पद्यते जेयानामानन्त्यात्, नापि कचिदुत्पद्यते, यत्र नोत्पद्यते तत्रानिवृत्तो मोह इति मोहशेषप्रसङ्गः । न चान्यविषयेण तत्त्वज्ञानेनान्यविषयोमोहः शक्यः प्रतिषेड मिति । मिथ्याज्ञानं वै खलु मोहो न तत्त्वज्ञानस्यानुत्पत्तिमावं, तच्च मिथ्याज्ञानं यत्र विषये प्रवर्तमान संसारवीजं भवति स विषयस्तत्त्वतो ज्ञेय इति, किं पुनस्त नियाज्ञानम् अनात्मन्यात्म महः,अहममोति मोहोऽहङ्कार इति । अनात्माहं खल्व हमम्मीति पश्यतो दृष्टि रहङ्कार इति, किं पुनस्तदर्थजातं यद्दिषयोऽहङ्कारः शरोरेन्द्रियमनोवेदनाबद्धयः, कथं तहिषयोऽहङ्कारः संसारवीजं भवति । अयं खल घरीराद्यर्थजातमहमस्मीति व्यवसितस्तदुच्छ देनेनात्मोच्छदं मन्यमानोऽनुच्छेदहष्णापरिलतः पुनः पुनस्तदुपादत्ते तदुपाददानो जन्ममरणाय यतते तेनावियोगानात्यन्तं दुःखादिमुच्यते इति । यस्तु दुःखं दुःखायतनं दुःखानुषतं सुखञ्च सर्वमिदं दुःखमिति पश्यति, स दुःखं परिजानाति परिजातनञ्च दुःखं प्रहोणं भवत्यनुपादानात् स विषाबवत्, एवं दोषान् कर्म च दुःखहेतुरिति पश्यति, न वा प्रहोणेषु दोषेषु दुःखप्रबन्धोच्छेदेन शक्यम्भवितुमिति दोषान् जहाति, महीणेषु च दोषेषु न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानायेत्युक्तम्,
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
प्रेत्यभावफलदुःखानि च से यानि व्यवस्थापति कर्म च दोषांश्च प्रहेयान अपवर्गोऽधिगन्तव्यस्तस्याधिगमोपायस्तत्त्वज्ञानम्, एवं चतसृभिर्विधाभिः प्रमेयं विभन्नमासेषमानस्याभ्यस्यतो भावयतः सम्यग्दर्शनम् यथाभूतावबोधस्तत्वज्ञानमुत्पद्यते, एवं च ॥ दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहङ्कारनित्तिः ॥१
शरीरादि दुःखान्न प्रमेयं दोषनिमित्तं तद्दिषयत्वान्निध्या ज्ञानसा, तदिदं तत्वज्ञानं तविषयमुत्पन्नमहवार निवर्तयति, समान विषये तयोविरोधात, एवं तत्वज्ञानादुःखजन्म प्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवगै इति, स चायं शास्त्रार्थ सङ्गाहोऽनद्यते नाप. वो विधीयत इति । प्रसयानानुपर्ध्या तु खलु ॥
दोषनिमित्तं रूपादयो विषयाः सङ्कल्पकताः॥२॥
कामविषया इन्द्रियार्था इति रूपादय उव्यन्ते ते मिथ्यासङ्कल्यामाना रागद्वेषमोहान् प्रवर्त्तयन्ति तान् पूर्वम् सञ्चचीत, तांश्च प्रसञ्चज्ञाणस्य रूपादिविषयो मिथ्यासङ्कल्पो निवर्तते, तमित्तावध्यामं शरीरादि प्रसञ्चचीत, तत्प्रसङ्घयानादध्यात्मविषयोऽहङ्कारो निवर्त्तते, मोऽयमध्यात्म बहिच विविक्तचित्तो विहरन मुक्त इत्यच्यते । अतः परं काचित् संज्ञा हेया, काचिद्भावयितव्येत्यपदिश्यते, नार्थ निराकरणमर्थोपादनं वा कथमिति ॥
तन्निमित्तन्त्ववयव्यभिमानः ॥ ३॥ .. तेषां दोषाणां निमित्तन्त्ववयव्यभिमानः सा च खनु स्त्रीसंज्ञा सपरिकारा पुरुषस्य, पुरुषसंज्ञा च स्त्रियाः। परिकार निमित्त संज्ञा अनुव्यञ्जनसंज्ञा च, निमित्तसंज्ञा दन्तोष्ठ' चक्षुर्नासिकम्, अनुव्यञ्जनसंज्ञा इत्यं दन्तौ इत्यमोठाविति, सेयं संज्ञा कामं बई यति तदनुषकाश्च दोषान् विवर्जनीयान्, वजनन्वयाः भेदेनाक्यवसंज्ञा केश
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४ अध्याये २ क्रिकम् ।
सोमनाथोणितास्थिस्नायु शिरा कफपित्तोचारादिसंज्ञा, तामश्शुभसंज्ञेत्याचचते, तामस्य भावयतः कामरागः प्रहीयते, सत्ये च द्विविधे विषये काचित् संज्ञा भावनीया काचित् परिवर्जनीयेत्युपदिश्यते यथा 'विषसम्पृक्रेन' नसंज्ञोपादानाय विषसंज्ञा महाणायेति । अथेदानीमर्थं निराकरिष्यताऽवयव्युपपाद्यते ॥ विद्याऽविद्याद्वैविध्यात् संशयः ॥ ४ ॥
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सदस्ntereम्भादिद्या विविधा, सदसतोरनुपलम्भादविद्यापि द्विविधा, उपलभ्यमानेऽवयविनि विद्याई विध्यात् संघयः, अनुपलभ्यमाने चाविद्याहं विध्योत् संशयः सोऽयमवयवी यद्युपलभ्यते अथापि नोपलभ्यते न कथञ्चन संशयात् मुच्यते इति ॥
तदसंशयः पूर्वहेतुप्रसिद्धत्वात् ॥ ५ ॥
तस्मिन्ननुपपन्नः संशयः, कस्मात् पूर्वोक्र हेतूनामप्रतिषेधादस्ति द्रव्यान्तरारम्भ इति #
वृत्त्यनुपपत्तेरपि तर्हि न संशयः ॥
६ 11 वृत्त्यनुपपतेरपि तर्हि संशयानुपपत्तिर्नास्त्यवयवीति तद्विभजते ॥
कृत्स्नैकदेशाष्टत्तित्वादवयवानामवयव्यभावः ॥७॥
एकैकोऽवयवो न तावत् कृत्स्नेऽवयविनि वर्त्तते तयोः परिमाणाभेदादवयवान्तरसम्बन्धाभावप्रसङ्गाच, नाप्यवयव्ये कदेशेन नास्यान्येऽवयवाः एकदेघभूताः । सन्तीति । अथावयवेष्वेवावयवी वर्त्तते ॥
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तेषु चाटतेरवयव्यभावः ॥ ८ ॥
न तावत् प्रत्यवयवं वर्त्तते तयोः परिमाणभेदात् द्रव्यस्य चैकद्रव्यत्वप्रसङ्गात्, नाप्येकदेशैः सर्व्वेषु अन्यावयवाभावात्, तदेवं यक्तः संशयो नास्त्यवयवीति ॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्य
पृथक् चावयवेभ्योऽटत्तेः ॥६॥
पृथक् चावयवेभ्यो धर्मिभ्यो धर्मस्थायहणादिति समानम् ॥ नचावयव्यवयवाः ॥१०॥
एकस्मिन् भेदाभावा दशब्दप्रयोगानुपपत्तेरप्रश्नः ॥११॥
किं प्रत्य वयवं कृत्स्नोऽवयवी बर्त ते अथैकदे शेने ति नोपपद्यते प्रमः, कस्मात् एकस्मिन भेदाभावा दशब्दप्रयोगानुपपत्तेः। कृत्स्नमित्य नेकस्थाशेषाभिधानम्, एकदेशइति नानात्व कस्यचिदभिधानम्, ताविमौ कत् नेकदेशशब्दा भेदविषयौ नैकस्मिनवयविन्युपपद्येते भेदाभावादिति, छान्यावयवाभावान कदेशेन वर्तते इत्य हेत्तः ॥ अवयवान्तराभावेऽप्यत्त रहेतुः ॥ १२ ॥
अवयवान्तराभावादिति यद्यप्येक देशोऽवयवान्तरमतः स्यात् तथाप्यवयवेऽवयवान्तरं वर्तत नावयवीति, अन्यावयवभावेऽप्य वृत्ते रवयविनो नैकदेशेन वृत्तिरन्यावयवाभावादित्य हेतः, वृत्तिः कथमिति चेत् एकसानेकलाश्रयाश्रितसम्बन्धलक्षणा प्राप्तिः, आश्रयाश्रितभावः कथमिति चेत् यस यतोऽन्यत्रात्मलाभानुपपत्तिः स आश्रयः, न कारणद्रव्येभ्यो ऽन्यत्र कार्य द्रव्यमात्मानं लभते, विपर्य यस्तु कारणव्येष्विति, नित्येषु कामति चेत् अनित्येषु दर्शनात् सिद्धम् । नित्येषु द्रव्ये घु कथमाश्रयायिभाव इतीति चेत् अनित्येष द्रव्यगुणेषु दर्शनादाश्रयाश्रितभावस्य नित्येषु सिद्धिरिति । तस्मादवयव्य भिमानः प्रतिषियते निःश्रेयसकामस्य नावयवी यथा रूपादिषु मिथ्यासङ्कल्पो न रूपादय इति । सर्वायहणमबयव्यसिद्धेरिति प्रत्यवस्थितोऽप्येतदह ।
केशसमूहे तैमिरिकोपलब्धिवत्तदुपलब्धिः ॥१३॥
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४ अध्याये २ अातिकम् ।
यथै कैकः केशस्तै मिरिकेण नोपलभ्यते, केशसमूहस्तू पलभ्य ते, तथै कै कोऽणु!पलभ्य ते अणुसञ्चयस्त पलभ्यते, तदिदमणुसमूहविषयं ग्रहण मिति ॥
खविषयानतिक्रमेणेन्द्रिस्य पटमन्दभावादिषयग्रहणस्य तथाभावो नाविषये प्रत्तिः ॥१४॥
यथा विषयमिन्द्रियाणां पटुमन्दभावाविषयग्रहणानां पट मन्दभावो भवति, चक्षुः खलु प्रवष्यमाणं नाविषयङ्गन्धं ग्टह्णाति, निकृष्यमाणञ्च न खविषयात् प्रच्यवते, सोऽयं तैमिरिकः कश्चिञ्चक्षुर्विषयं केशं न ग्टह्णाति कश्चित् ग्टह्वाति केशसमूहम्, उभयं यतैमिरिकेण चक्षुषा ग्टह्यते, परमाणवस्वतीन्द्रियाः इन्द्रियाविषयाभूता न केनचिदिन्द्रियेण ग्टह्यन्ते , समुदितास्तु ग्टह्यन इत्यविषये प्रवृत्तिरिन्द्रियस्य प्रसज्ये त, न जात्वर्षान्नरमणुभ्यो ग्टह्यत इति, ते खल्वि मे परमाणवः सन्धिता ग्टह्यमाणा अती. न्द्रियत्वं जहति, वियुकाचाग्टह्यमाणा अतीन्द्रियत्व जइति इति सोऽयं द्रव्यान्नरानुत्पत्तावतिमहान् व्याघातः, इत्युपपद्यते द्रव्यान्न रम्, यत् ग्रहणस्य विषय दूति, सञ्चयमानं विषय इति चेत् न समयख संयोगभावात्तस्य चातीन्द्रियखाग्रहणादयुक्तम्, सञ्चयः खल्वनेकस्य संयोगः स च ग्टह्यमाणाश्रयो ग्टह्यते नातीन्द्रियात्रयः । भवति ही दमनेन संयुक्तमिति, तस्मादयु कमेतदिति । ग्टह्यमाणस्य चेन्द्रियेण विषयसावरणाघनुपलब्धिकारणमुपलभ्यते तस्मान्नेन्द्रियदौर्बल्यादनुपलब्धि रणनाम् | यथा नेन्द्रिय. दौर्बल्याञ्चक्षुषाऽनुपलब्धि र्गन्धादीनामिति ।
अवयवावयविप्रसङ्गश्चैवमाप्रलयात् ॥ १५ ॥ यः खल्ब वयविनोऽवयवेषु वृत्ति प्रतिषेधादभावः सोऽयमवयवस्या वयवेष प्रसज्यमानः, सर्व प्रलयाय वा कल्पत, निरवयवाहा परमाणत्व निवर्तेत, उभयथा चोपलब्धिविषयस्याभावः, तदभावादपलब्धाभावः । उपलब्धधाश्रयायं वृत्तिप्रतिषेधः स आश्रयं व्यानन्नात्मयोताय कल्पात इति । अथापि॥
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न्याय दर्शनवात्स्यायनभाष्ये
न प्रलयोऽणुसद्भावात् ॥ १६ ॥
अवयवविभागमाश्रित्य वृत्तिप्रतिषेधादमात्रः प्रसज्य मानो निरवयवात् परमाण निवर्त्तते न सर्वप्रलयाय कल्पते । निरवयवत्वं तु खलु परमाणोविभागैरल्पतरसङ्गस्य यतो नाल्पीयस्तवावस्थानात् लोष्टस्य खल प्रविभज्यमानावयवस्याल्पतर मल्पतममुत्तरमुत्तरं भवति स चायमल्पतरमसङ्गः यस्मान्नाल्पतरमस्ति यः परमोऽल्पस्तत्र निवर्त्तते, यतश्च नाल्पीयोऽस्ति तं परमाणु ं प्रचक्ष्मह इति
परं वा चुटेः ॥ १७ ॥
व्यवयवविभागस्थानवस्थानाद्द् व्याणामसङ्गेयत्वात् बुद्धिनिवृत्तिरिति । च्यथेदानीमानुपलम्भकः सर्व नास्तीति मन्यमान ग्रह ||
आकाशव्यतिभेदात् तदनुपपत्तिः ॥ १८ ॥
तस्यागोर्निरवयवस्यानुपपत्तिः, कस्मात् श्राकाशव्यतिभेदात् । ग्रन्तर्बहिश्वाणुराकाश्शेन समाविष्टो व्यतिभिन्नः व्यतिभेदात् सावयवः, सावयवत्वादनित्य इति ||
आकाशा सर्वगतत्वं वा ॥ १६ ॥
अर्थतन्नष्यते परमाणोरन्तर्नास्त्याकाश मित्य सर्वगतत्वं प्रसज्यत इति ॥ अन्तर्बहिश्च कार्य्य द्रव्यस्य कारणान्तरवचना
"
दका तदभावः ॥ २० ॥
अन्तरिति पिहितं कारणान्तरैः कारणमुच्यते, वहिरिति च व्यवधायकमव्यवहितं कारणमेवोच्यते, तदेतत्कार्यद्रव्यस्य सम्भवति नाणोरकार्यत्वात कार्ये हि परमायावन्तर्वहिरित्यस्याभावः । यत्र चास्य भावोऽणुका तन परमाणुः यतो हि नाल्पतरमस्ति स परमाणुरिति ॥
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४ अध्याय २ आङ्गिकम्। सर्वसंयोगशब्दविभवाच्च सर्वगतम् ॥ २१॥
१
यत्र कचिदुत्पन्नाः शब्दा विभवन्त्य (काशे तदाश्रयाभवन्ति मनोभिः परमाए भि स्तत्कार्यं च संयोगा विभवन्त्याकाशे नासंयुक्त का शेन किञ्चिनु - मर्त्तद्रध्यमुपलभ्यते तस्मानासर्वगतमिति ॥
अव्यूहाविष्टम्भविभुत्वानि चाकाशधर्माः ॥२२॥ संयताप्रतिघातिना द्रव्येण न व्यू ह्यते यथा काठे नोदकम्, कस्मात् निरवयव त्वात् सर्पच प्रतिघाति द्रव्यं न विष्टनाति, नास्य क्रियाहेत गुणं प्रतिबध्नाति, कस्मात अस्पर्श त्वात विपर्यये हि विष्टम्भो दृष्ट इति । स भवान् स्पर्श पति द्रव्ये दृष्टं धम्म विपरोते नागङ्कितमर्हति । अण्ववयत्रखाण तरत्वप्रसङ्गादणु कार्थप्रतिषेधः | सावयवत्व चाणोरखवयवोऽणु तरइति प्रसज्यते, कस्मात् वार्यकारणद्रव्ययोः परिमाणमेददर्शनात् । तस्मादण्ववयव खाणतरत्वम्, यस्तु सावयवोऽणकार्य तदिति, तस्मादण - कार्थमिदं प्रतिषिड्यत इति, कारणविभागाच कार्यस्यानित्यत्वं नाकाशव्यतिभेदात लोठस्य वयव विभागादनित्यत्व नाकाश समावेशादिति ॥ मति मताञ्च संस्थानोपपत्तेरवयवसद्भावः ॥२३॥
परिच्छिनानां हि मशवतां संस्थानं त्रिकोणं चतुरस्त्रं समं परिमण्डलमित्युपपद्यते, यत् तत्स्थानं सोऽवयवस निवेशः, परिमण्डलाशा. रावस्तस्मात् सावयवाइति ॥ संयोगोपपत्तेश्च ॥ २४ ॥
मध्ये सत्रणुः पूर्वापराभ्यामणुभ्यां संयुक्तस्तयोर्व्यवधानं कुरुते व्यवधानेनानुमीयते, पूर्वभागेन पूर्वेणाणुना संयुज्यते, परभागेणाघरेणाणुना संयुज्यते, यौ तौ पूर्वापरौ भागौ तावस्थावयवौ, एवं सर्वतः संयुज्यमानस्य सर्वतोभागा अवयवा इति, यत् तावन्नति मतां संस्थानोपपत्ते रवयवस
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न्याय दर्शनवात्स्यायनभाष्ये
द्भाव इति, अलोक किमुक्तम् विभागाल्पतरप्रसङ्गस्य यतो नापीय स्तन निहत्तेरखवयवस्य चाणु तरत्व प्रसङ्गादण कार्य प्रतिषेध इति । यत् पुनरेतत् संयोगोपपत्तेश्चति स्पर्शवत्वावधानमा त्रयस्य चाव्याप्नत्रा भागभक्तिः, उक्त मात्र मानणः स्पर्शवतोरखोः प्रतिघाताद्यवधायको न सावयवत्वात्, स्पर्शवत्वात्, स्पर्श वत्वाञ्च व्यवधाने सत्य णुसंयोगो नाश्रयं व्यामोतीति भागमनिर्भवति । भागवानिवायमिति, उक्नञ्चात्र विभागेऽल्पतरप्रसङ्गस्य यतो नालोयस्तवावस्थानात् तदवयवस्य चाणुतरत्वप्रसङ्गादणुका र्यपतिषेध इति मूत्ति मताज संस्थानोपपत्तेः संयोगोपपत्तेच परमाणुनां मावयवत्वमिति हेत्वोः ।
अनवस्थाकारित्वादनवस्थानुपपत्तेश्चाप्रतिषेधः २५
यावन्यू सिमद्यावञ्च संयुज्यते तत्सव सावयवमित्यनवस्थ कारिणाविमौ हेतू, सा चानवस्था नोपपद्यते सत्यामवस्थायां सत्यौ हेतू स्याताम् | तस्मादप्रतिषेधोऽयं निरवयवत्वस्येति । विभागस्य च विभज्यमानहानेनोपपद्यते तस्मात् प्रलयान्नता नोपपद्यत इति । अनवस्थायाच प्रत्यधिकरणं द्रव्यावयवानामा नन्त्यात् परिमाणभेदानां गुरुत्वस्य चाग्रहणम्, समानपरिमाणत्व पापयवावयविनोः परमाख वयविभागादूई मिति । यदिदं भावान् बुवीराश्रित्य व विविषयाः सन्तोति मन्यते । मिथ्यावजय एताः । यदिहि तत्त्वबुड्वयः स्युर्बुद्या विवेचने क्रियमाणे याथात्म्यं ब निविषयाणामुपलभ्येत ॥
बुद्ध्याविवेचनात्तु भावानां याथाम्यानुपलब्धिस्तन्त्वपकर्षणे पटसद्भावानुपलब्धिवत् तदनुपलब्धि: ॥ २६ ॥
यथःयं तन्तुरयं तन्तरिति प्रत्येकं तन्तुषु विविच्यमानेषु नार्थान्नर किञ्चिदुपलभ्यते यत्म रबुद्धे विषयः स्यात् याथात्यानुपलब्धेरसति विषये पट बद्धिर्भवतीति मिथ्याबधिर्भवति एवं सर्वत्रेति ॥
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४ अध्याये २ आह्निकम् । व्याहतत्वादहेतुः ॥ २७॥
यदि वद्या विवेचनं भावानाम्, न सर्वभावानां याथास्यानुपलब्धिः । अथ सर्वभावानां याथात्स्यानुपलब्धिर्न बुद्या विवेचनं भावानां याथात्स्यानुपलब्धिश्चेति व्याहन्यते, तदुलमवयवावयविप्रसङ्ग चैवमाप्रलयादिति ||
तदाश्रयत्वादस्थगग्रहणम् ॥२८॥
कार्य द्रव्यं कारणद्रव्यात्रितं तत् कारणेभ्यः पृथङ् नोपलभ्यते विपय्यये पृथग्रहणात्, यत्वाश्रयाश्रितभावो नास्ति तत्र पृथग्रहण मिति बुद्या विवेचनात तु भावानां पृथग्रहणमतीन्द्रिये ध्वणुष यदिन्द्रियेण ग्टह्यते त देतया बुद्या विविच्यमानमन्यदिति ॥ प्रमाणतचाऽर्थप्रतिपत्तेः ॥ २६ ॥
बुद्ध्या विवेचनाद्भावानां याथात्योपलब्धिः । यदस्ति यथा च तत् सर्वम्प्रमाणत उपलब्ध्या सिद्ध्यति । या च प्रमाणत उपलब्धिस्तद्दया विवेचनं भावानाम, तेन मर्यशास्त्राणि सर्व कर्माणि सर्वे च शरीरिणां व्यवहाराः व्याप्ताः । परीक्षमाणो हि बुद्ध्याध्यवस्थति इदमस्तीदं नास्तीति तत्र न सर्वभावानुपपत्तिः ॥
प्रमाणानुपपत्तापपत्तिभ्याम् ॥ ३०॥
एवञ्च सति सर्थनास्तीति नोपपद्यते, कस्मात प्रमाणानुपपत्त्य पप. त्तिभ्याम्, यदि सर्वनास्तीति प्रमाणमुपपद्यते सर्व नास्त. त्येत ह्याहन्यते । अथ प्र नाणं नोपपद्यते सर्व नास्तोत्यस्य कथं सिद्धिः, अथ प्रमाणमन्तरेण सिद्धिः, सर्व मस्तीत्यस्य कथं न सिद्धिः ॥ वनविषयाभिमानवदयं प्रमाणप्रमेयाभिमानः ३१
यथा व ने न विषयाः सन्त्यथ चाभिमानो भवति, एवं न प्रमाणानि पमेयाणि च सन्ति, अथ च प्रमाणप्रमेयाभिमानो भवति ॥
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१६६ न्यायदर्शनवात्यायनभाये मायागन्धर्वनगरमृगटष्णिकाबद्धा ॥ ३२ ॥ हेस्वभावादसिद्धिः ॥ ३३ ॥
खप्रान्ने विषयाभिमानवत् प्रमाणप्रमेयाभिमानो न पुनर्जागरित तान्ने विषयोपलचिवदित्यन हेतुर्नास्ति हेत्वभावादसिद्धिः। खपान्ते चासन्तो विषया उपलभ्यन्त इत्यत्रापि हेत्वंभावः। प्रतिबोधेऽनुपलम्मादिति चेत् प्रति बोधविषयोपलम्भादप्रतिषेधः, यदि प्रतिबोधेऽनुपलम्भात् खने विषयों न सन्नीति तैहि य इमै प्रतिबुद्देन विषया उपलभ्यन्ते उपलम्भामन्नीति विपर्यये हि हे तसामर्थम्, उपलमाभावे सत्यत पलम्भादभावः सिद्ध्यति, उभयथा त्वंभावे नानुपलम्भस्य सामर्थ्यमस्ति, यथा प्रदीपस्याभावाद्रूपस्यां दर्शन मिति, तत्र भावेनाभावः समर्थ्य त इति, खानवि. कल्पे च हेतवचनम् स्वप्रविषयाभिमानवदिति अवता स्वप्रान्त विकल्प हेतर्वाच्यः, कश्चित् खप्रोभयोपसहितः, कश्चित् प्रमोदोपसंहितः, कश्चिद्धभयविपरीतेः कदाचित् खप्रमेव न पश्यतीति, निमित्तवतस्तु खन. विषयाभिमानय निमित्त विकल्लाहिकल्पोपपत्तिः॥
स्पतिसङ्कल्पवच्च खपविषयाभिमानः ॥ ३४॥
पूर्बोपलधी विषयो यथा स्टतिच सङ्कल्पच पर्वोपलब्धविषयो न तस्य प्रत्याख्यानाय कल्पेते । तथा ख ने विषयग्रहणं पूर्वोपलश्चाविषयं न तस्य प्रत्याख्यानाय कल्पते । एवं दृष्टविषयश्च स्वप्रान्तोजागरितान्नेन यः सप्तः खप्नं पश्यति स एव जापत् खप्रदर्शनानि प्रतिसन्धत्ते इदमदानमिति । तब जापबुद्धित्तिवशात् स्वप्रविषयाभिमानो मिथ्येति व्यवसायः, मति च प्रतिसन्धाने या जायतो बुद्धित्तिस्तदशादयं व्यवसायः स्वप्रविषयाभिमानो मिथ्ये ति । उभयाविशेषे तु साधनानर्थक्यम्, यस्य स्वमान्नजागरितान्नयोरविशेषस्तस्य ख प्रविषयाभिमानवदिति साधनमनर्थकम्, तदा. श्रयप्रत्याख्यानात् । अतस्मिंस्तदिति च व्यवसायः प्रधानात्रयः, अपुरुषे स्थाणौ पुरुष प्रति व्यवसायः स प्रधानायो न खलु पुरुषेऽनुपलब्धे पुरुष
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४ अध्याये २ आह्निकम् ।
इत्यपुरुषे व्यवसायो भवति, एवं स्वप्नविषयस्य व्यवसायो हस्तिनमद्राचं पर्वतमद्राचमिति प्रधानाश्रयो भवितुमर्हति । एवञ्च सति ॥
१६७
मिथ्यापलब्धिविनाशस्तत्त्वज्ञानात् स्वप्नविषयाभिमानप्रणाशवत् प्रतिबोधे ॥ ३५ ॥
स्थाणौ पुरुषोऽयमिति व्यवसायो मिथ्योपलब्धिरतस्मिंस्तदिति नम्, स्थायौ स्थाणुरिति व्यवसायस्तत्त्वज्ञानम्, तत्त्वज्ञानेन च मिथ्योप लब्धि निवर्त्यते नार्थः स्याम्पुरुषसामान्यलक्षणः, यथा प्रतिबोथे या ज्ञानवृत्तिस्तया स्वतविषयाभिमानो निवर्त्यते नार्थो विषयसामान्यलचणः, तथा मायागन्धर्व नगरम्मृगतृष्णिकानामपि या वज्योतसिंस्तदिति व्यवसायास्तत्राप्यनेनैव कल्पेन मिथ्योपलब्धिविनाशस्तत्वज्ञानान्नार्थ प्रतिषेध इति । उपादानवच्च मायादिषु मिथ्याज्ञानम् । प्रज्ञापनीयखरूपञ्च द्रव्य - सुपादाय साधनवान् परस्य मिय्याध्यवसायं करोति सा माया । नोहारप्रभ्रभृतीनां नगरस्वरूपश्चन्निवेशे दूरान्नगरबुद्धिरुत्पद्यते, विपर्य्यये तदभावातृ, सूर्यमरोचिषु भौमेनोशणा संसृष्टेषु सन्दमानेषूदकबुद्धिभवति, सामान्यग्रहणात् श्रन्तिकस्यस्य विपर्य्यये तदभावात्, कचित् कदाचित्कस्यचिञ्च भावान्नानिमित्तं मिथ्याज्ञानम् । दृष्टञ्च बुद्धिद्वैर्त माय़ाप्रयोक्तुः परस्य च दूरान्तिकस्ययोर्गन्धर्व्व नगर म्टगणिका, सुप्तप्रतिबुद्धयोश्च स्वमविषये तदेतत्सर्वस्याभावे निरुपाख्यतायां निरात्मकत्वेनोपपद्यत इति ॥
9
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•
बुद्धेश्चैवं निमित्तसद्भावोपलम्भात् ॥ ३६ ॥
मिथ्याबुते स्वार्थवदप्रतिषेधः कस्मात् निमित्तोपलम्भात् सद्भावोपलम्भाच्च, उपलभ्यते मिथ्याबुद्धिनिमित्तम्, मिथ्याबुद्धिश्च मत्यात्ममुत्पन्ना ग्टह्यते संवेद्यत्वात्, कस्मात् मिथ्याबुद्धिरम्यस्तीति ॥
प्रधानभेदाच्च मिथ्याबुद्धे हे विध्योपपत्तिः॥३७॥
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न्यायदर्श नवात्यायनभाष्ये तत्त्वं स्थाणुरिति प्रधानं पुरुष इति । तत्त्वप्रधानयोरलोपाझेदात् स्थाणौ पुरुष इति मिथ्याबुद्धिरुत्पद्यते सामान्य ग्रहणात्, एवं पता कायां वलाकेति, लोठे कपोतति, न तु समाने विषये मिथ्याबुद्धीनां समावेशः, सामान्य ग्रहणाव्यवस्थानात् । यस्य तु निरात्मकं निरुपाख्यं सर्वं तस्य समावेशः प्रसज्यते, गम्बादौ च प्रमेये गन्धादिबुद्धयो मिथ्याभिमतास्तत्वप्रधानयोः सामान्यपहणस्य चाभावात् तत्त्वबुद्धय एष भवन्ति । तस्मादयुतमेतत् प्रमाणप्रमेयबद्धयो मिथ्येति, दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहङ्कारनिवृत्तिरित्युक्तम् अथ कथं तत्त्वज्ञानसुत्पद्यत इति ।
समाधिविशेषाभ्यासात् ॥ ३८॥
स तु प्रत्याहतस्येन्द्रियेभ्यो मनसो धारकेण प्रयत्नेन धार्यमाणस्थातमना संयोगस्तत्त्व बुभुत्माविशिष्टः, सति हि तस्मिनिन्द्रियार्थेषु बद्धयो नोत्पद्यन्ते, तदभ्यासवथात् तत्त्वबुद्धिरुत्पद्यते, यदुनं पति हि तमिविन्द्रियार्थेषु बुद्धयो नोत्पद्यन्न इत्येतत् ॥
नार्थविशेषप्रावल्यात् ॥ ३९ ॥ ___ अनिच्छतोऽपि बुड्युत्पत्ते नै तद्युक्तम्, कमात् अर्थविशेष प्रावल्यात् अब भुत्म मानस्थापि बुझ्ा त्पत्तिईष्टा । यथा स्तनयित्नुशब्दप्रतिषु । तत्र समाधिविशेषो नोपपद्यते ॥
क्षुदादिभिः प्रवर्तनाच्च ॥ ४०॥ क्षत्यिपासाभ्यां शीतोष्णाम्यां व्याधिभिश्चानिच्छतोऽपि बुद्धयः प्रवतन्ते । तस्मादैकायमानुपपत्तिरिति । अस्वेतत् समाधिव्य स्थान निमित्तं समाधिप्रत्यनीकञ्च सति त्वे तस्मिन् ।
पूर्वकृतफलानुबन्धात् तदुत्पत्तिः ॥ ४१ ॥
पूर्वकृतो जन्मान्तरोपचितस्तत्त्वज्ञामहेतुर्धर्मप्रविवेकः फलानुबन्धी योगाभ्याससामर्थ्य म्, निष्फले हि अभ्यासेनाभ्यास आद्रि येरन् । दृष्टं हि लौकिकेषु कर्मखम्याससामर्थम् प्रत्यनीकपरिहारार्थञ्च ।
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१६६
४ श्रध्याय २ चाह्निकम् ।
अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ॥४५
योगाभ्यास जनितो धम्र्म्मो जन्मान्तरेऽप्यनुवर्त्तते प्रचयकाष्ठागते तत्त्वज्ञानहेतो धर्मे प्रकृष्टायां समाधिभावनायां तत्त्वज्ञानमुत्पद्यत इति, दृष्टश्च समाधिर्नार्थविशेषप्राबल्याभिभवः । नाहमेतदश्रौषं माहमेतदज्ञासिषमन्यत्र मे मनोऽभूदित्याह लौकिक इति । यद्यर्थविशेषप्राबल्यादनिच्छतोऽपि ब्रह्मत्पत्तिरनुज्ञायते ॥
अपवर्गेऽप्येवं प्रसङ्गः ॥ ४३ ॥
मुक्तस्यापि बाह्यार्थसामर्थ्याबुद्धय उत्पद्येरन्निति ||
न निष्पन्नावश्यम्भावित्वात् ॥ ४४ ॥
कथाविष्पनशरीरे चेष्टे न्द्रियार्थाश्रये निमित्तभावादवश्यम्भावी बुद्धीनामुत्पादः न च प्रबलोऽपि सन् वाह्येोऽर्थ आत्मनो बुद्धुत्पादे समर्थो भवति । तस्येन्द्रियेण संयोगाद्बुद्धुत्पादे सामर्थ्यं दृष्टमिति ॥
तदभावश्चापवर्गे ॥ ४५ ॥
तस्य बुद्धिनिमित्ताश्रयस्य शरीरेन्द्रियस्य धर्माधर्माभावादभावोऽपवर्गे तत्र यदुक्तमपवर्गेऽप्येवं प्रसङ्ग इति तदयुक्तम् । तस्मात् सर्वदुःखविमोच्चोऽपवर्गः यस्मात् सर्वदुःखवीनं सर्वदुःखायतनं चापवर्गे विच्छिद्यते, तस्मात् सर्वेण दुःखेन विवक्तिरपवर्गो न निर्वोजं निरायतनञ्च दुःखमुत्पद्यत इति ॥
•
तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ॥ ४६ ॥
तस्यापवर्गस्याधिगमाय यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारः । यमः समानमात्र मियां धसाधनम्, नियमस्तु विशिष्टम्, श्रात्मसंस्कारः पुनरधर्मा
१५
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न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
१७०
हानं धर्मोपयच, योगशास्वाञ्चाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । स पुनस्तपःप्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारयेति इन्द्रियविषयेषु प्रसयानाभ्यासो रागद्वेषप्रहाणार्थः । उपायस्तु योगाचारविधानमिति ॥
ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवादः ॥ ४७ ॥
तदर्थमिति प्रकृतम्, ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमात्मविद्याशास्त्रन्तस्य ग्रहणमध्ययनधारणे अभ्यासः सततक्रियाध्ययनश्रवणचिन्तनानि तद्विद्यैश्च मह सम्बाद इति प्रज्ञापरिपाकार्थम्, परिपाकस्तु संशय क े दममविज्ञातार्थावबोधोऽध्यवसिताभ्यनुज्ञानमिति । समायवादः संवादः । तद्विद्येव मह संवाद इत्यविभक्तार्थं वचनं विभज्यते ॥
तं शिष्यगुरुसब्रह्मचारिविशिष्टा योऽर्थिभिरनसूयिभिरभ्युपेयात् ॥ ४८ ॥
निगदेनैव नीतार्थमिति यदिदं मन्येत पचप्रतिपञ्च परिग्रहः प्रतिकूलः परस्येति ॥
प्रतिपक्ष हौनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे ॥ ४६ ॥
तमुपेयादिति वर्त्तते परतः प्रज्ञामुपादिसमानस्तत्त्व बुभुत्सा प्रकाशनेन वपञ्चमनवस्थापयन् स्वदर्शनम् परिशोधयेदिति । अन्योऽन्यत्यनी - कानि च मावादुकानां दर्शनानि स्वपचरागेण चैके न्यायमतिवर्त्तन्ने तत्र ॥
•
तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे वोज - प्ररोहसंरक्षणार्थं कण्टकशाखावरणवत् ।। ५० ।।
अनुत्पन्नतत्वज्ञानानाममही पदोषाणां तदर्थं घटमानानामेतदिति । विद्यानिर्वेदादिभिव परेणाविज्ञायमानस्य, ताभ्यां विग्टह्य कथनम् ।
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५ अध्याये १ आङ्गिकम्।
विग्ट ह्येति विजिगीषया न तत्त्वबुभुत्मयेति । तदेतविद्या पालनार्थं न लाभपूजाख्यात्यर्थ मिति ॥ इति वात्स्यायनीये न्यायभाष्ये चतुर्थाऽध्यायस्य हितोयमाणिकम् ॥ ० ॥
समाप्तश्चायं चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
साधर्म्य वैधम्माभ्यां प्रत्यवस्थानस विकल्लाज्जातिबद्धत्वमिति संक्षे. पेण त तद्विस्तरेण विभज्य ते, ताः खल्विमाः जातयः स्थापनाहेतौ प्रयको चविंशतिः प्रतिषेधहेतवः ॥ .
साधर्मावैधोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्ताप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तानुत्पत्तिसंशयप्रकरणहेत्वर्थापत्यविशेषोपपत्तुरपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः॥१॥
साधर्म्य ण प्रत्यवस्थानमविशिष्यमाणं स्थापना हेततः साधर्म्य समः अविशेषं तत्र तलोदाहरिष्यामः । एवं वैधर्म्यसमप्रभृतयोऽपि निर्वतव्याः ।
বন্ত।
साधर्मवैधाभ्यामुपसंहार तधर्मविपर्ययोपपत्तेः साधम्मावैधर्मसमौ ॥२॥
साधर्म्य णोपसंहारे साध्यधर्मविपर्ययोपपत्ते: साधर्म्य णैव प्रत्यवस्थानमविशिष्यमाणं स्थापनाहेततः साधर्म्यसमः प्रतिषेधः । निदर्श नम्,
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न्यायदर्शनवाल्यायनभाष्ये क्रियावानात्मा द्रव्यस्य क्रियाहेतगुणयोगात् द्रव्यं लोटः क्रिया हे तगुणयुक्तः क्रियावान तथा चात्मा तस्मात् क्रियावानिति, एवमुपसंहृते परः साधयेणैव प्रत्यवतिछते निष्क्रिय आत्मा विभुनो द्रव्य स निक्रियत्वात् विभु चाकाशं निष्क्रियञ्च तथा चात्मा तम्मानिष्क्रिय इति, न चास्ति विशेषतः क्रियावत्माधर्म्यात् क्रियावता भवितव्यम् न पुनरक्रियसाधा निष्क्रियेणेति विशेषहेत्वभावात् साधर्म्यसमः प्रतिषेधो भवति, अथ वैधर्म्यममः । क्रियाहेतुगुणयको लोष्टः परिच्छिन्द्रो दृष्टो न च तथात्मा तस्मान्न लोप्टवत् क्रियावानित | न चास्ति विशेषतः । क्रियावकाधात् क्रियावता भवितव्यम् न पुनः क्रियावद्देधाद क्रियेणेति। विशेषहेत्वभावाधर्म्य . समः । वैधर्म्य ण चोपसँहारे निष्क्रियः यात्मा विभुत्वात् क्रियावद्व्यमविभ दृष्टम्, यथा लोष्टः न च तथ त्मा तम्मानिष्क्रिय इति वैधम्र्येण प्रत्यवस्थानम् निष्क्रियं द्रव्यमाकाशं क्रियाहेवगुणरहितं दृष्टम् न तथात्मा तम्मान निष्क्रिय इति न चास्ति विशेषतः, क्रियाववैधानिष्क्रियेण भवितव्यं न पुनरक्रियवैधात् क्रियायतेति। विशेषत्वभावाधर्म्य समः,क्रियावान् लोष्टः क्रियाहे वगुणयुक्तो दृष्टस्तया चात्मा तरमात् क्रियावानिति न चासि विशेषहेतः । क्रियावधानिष्क्रियो न पुनः क्रियावत्साक्षात् क्रियावानिति विशेषत्वभावात साधर्म्यसमः अनयोरुत्तरम् ॥
गोत्वाह्रोसिद्धिवत् तत्मिद्धिः ॥३॥
साधर्म्यमात्रेण वैधर्म्यमात्रेण च साध्यसाधने प्रतिज्ञायमाने स्थादव्यवस्था, सा तु धर्मविशेषे नोपपद्यते गोसाधर्म्यात् गोत्वाजाति विशेपागाः सियति न तु मास्त्रादिसम्बन्धात्, अश्वादिवैधयाहोत्वादेव न गौः सिद्यति न गुणादि भेदात् तच्चै तत्कृतव्यवस्थानमवयव प्रकरणे प्रमाणानामभिसम्बन्धाञ्चक र्थ कारित्वं समानं वाक्य इति हेत्वाभासात्रया खत्वि. यमव्यवस्थेति ॥ साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः ॥४॥
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५ अध्याये १ आह्निकम् ।
दृष्टान्नधर्म माध्येन समासञ्जबुत्कर्षसमः । यदि क्रियाहेतगुणयोगालेष्टिवत् क्रियावानेवात्मा लोष्ट वदेव स्पर्श वानपि प्राप्नोति, अथ न स्पर्श. वान् लोटवत् क्रियावानपि न मानोति विपर्यवे वा विशेषो वक्रव्य इति साध्ये धर्माभावं दृष्टान्नात् प्रसजतोऽपकर्षसमः, लोष्ट: खल क्रियावानविभईष्टः काममात्मापि क्रियावान विभुरस्त विपर्य ये वा विशेषो वनव्य इति । ख्यापनीयो वण्य विपर्ययादवर्ण्यः । वावेतो साध्यदृष्टान्तधम्मों विपर्ययस्य तौ वावर्ण्य समौ भवतः, साधनधर्मयुक्त दृष्टान्ने धर्मान्नरविकल्पात् साध्यधर्म विकल्प प्रसजतो विकल्पसमः। क्रियाहेतगुणयन . किञ्चिगुरु यथा लोष्ट: किञ्चिलघु यथा वायुः एवं क्रिया हेतुगुणयुक्त किञ्चित् क्रियावत् स्यात् यथा लोष्टः किञ्चिदक्रियम् यथामा विशेषो वा वाच्य इति हेत्वाद्यवयवसामर्थ्य योगी धर्मः साध्यः । तं दृष्टान्ने प्रसजतः साध्यसमः । यदि यथा लोष्टस्तथात्मा प्राप्तस्तहि यथात्मा तथा लोष्ट इति साध्यश्चायमात्मा क्रियावानिति कामं छोटेsपि साध्यः । अथ नवं न तहि यथा लोष्टस्तथात्मा एतेषारुत्तरम् ॥
किञ्चित्माधम्मादुपसंहारंसिद्धे_धम्मादप्रतिषेधः५
अलभ्यः सिवय निङ्गवः सिद्धञ्च किञ्चित्माधर्म्याटुपमानं यथा गौस्तथा गवय इति । तत्र न लभ्यो गोगवययोधर्मविकल्प चोदयितुम् । एवं माधके धर्मे दृष्टान्नादिसामर्थ्य युक्त न लभ्यः साध्यदृष्टान्नयोधर्म विकल्पावैधात् प्रतिषेधो वनुमिति ॥
साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तेः ॥ ६ ॥
यत्र लौकिकपरीक्षकाणां बुद्धिसाम्यं तेनाविपरीतोऽर्थेऽतिदिश्यते प्रज्ञापनार्थ मेवं माध्यातिदेशाद्दष्टान्न उपपद्यमाने साध्यत्वमनुपपन्न मिति ॥
प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्त्या अविशिष्टत्वादप्रात्या असाधकत्वाच्च प्राप्स्यप्राप्तिसमौ ॥७॥
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१७8
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये
हेत: प्राप्य वा साध्य साधये दनाप्य वा, न बाबत्याय, पास्यामविशिष्टत्वादसाधकः। योर्विद्यमानयोः माता सन्या किं कस्य साधकं साध्यं वा। अप्राप्य साधकं न भवति नाप्राप्तः प्रदीपः प्रकाशयतीति प्रात्या मत्यवस्थान प्राप्तिसमः | अप्राप्त्या प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसमः। अनयोरुत्तरम् ।
घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पौड़ने चाभिचारादप्रतिषेधः ॥८॥
उभयथा खल्वयुक्तः प्रतिषेधः, कत करणाधिकरणानि प्राप्य मृदं घटादि कार्य निष्पादयन्ति अभिचाराच्च पीडने सति दृष्टमप्राप्य साधकत्वमिति ॥
दृष्टान्तस्य करणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तसमौ ॥ ६ ॥
साधनस्यापि माधनं वक्तव्यमिति प्रसङ्गे प्रत्यवस्थ नं प्रसङ्गासमः प्रवि. घेधः क्रियाहेतुगुणयोगी क्रियावान लोष्ट इति हेतु पदिश्य ते न च हेमन्तरेण मिद्विरस्तीति प्रतिदृष्टान्नेन प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टान्तसमः । क्रियावानात्मा क्रिया हेतगुणयोगात् लोटवदित्युक्त प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतगुणयुक्नमाकाशं निष्क्रियमिति कः पुनराकाशस्य क्रियाहेतुर्गुणो वायुना संयोगः संस्कारापेक्षः वायुवनसतिसंयोगवदिति, अनयोरुत्तरम् ॥
प्रदौपादानप्रसङ्गनित्तिवत्तहिनिवृत्तिः ॥ १० ॥ इदं तावदयं दृष्टो वनमर्हति अथ के प्रदीपमुपाददते किमथं वेति दिडक्षमाणदृश्यदर्शनार्थमिति । अथ प्रदीपं दिक्षमाणः प्रदीपान्तर कमानीपाददते, अन्तरेणापि मंदीपान्तरं दृश्यते प्रदीपः, तत्र प्रदीपदर्शनार्थं प्रदीपोपादानं निरर्थ कम् अथ दृष्टान्तः किमर्थ रुच्यत इति।
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५ अध्या १ वेत्राङ्गिकम् ।
अप्रज्ञातस जापार्थमिति, अथ इष्टान कारणापदेशः, किमर्थ रश्यते यदि प्रज्ञापनार्थम् प्रज्ञातो दृष्टान्तः, स खा लौकिकपरीक्षकाणां यधिवर्थे बुद्धिसाम्य' स दृष्टान्त इति तत्प्रज्ञानार्थः कारणापदेशो निरर्थक इति प्रसङ्गसमस्योत्तरम् । अथ प्रतिहष्टान्नसमस्योत्तरम् ॥
प्रतिदृष्टान्तहेतुत्वे च नाहेतुइष्टान्तः ॥ ११ ॥ प्रतिदृष्टान्नं ब्रवता न विशेषतरपदिश्यते अनेन प्रकारेण प्रति. दृष्टानः साधकः न दृष्टान्न इति एवं प्रतिदृष्टान्न हेतुत्वेनाहेदृष्टान्त इत्युपपद्यते स च कथम हेतुर्न खाद्यद्यप्रतिषिद्धः साधकः स्यादिति ॥ प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादनुत्पत्तिसमः ॥ १२ ॥
अनित्यः शब्दः प्रयत्नानगरीयकत्वात् घटवदित्य के अपर याह प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्चे शब्द प्रयत्नानन्तर यकत्वमनित्यत्वकारणं नास्ति तदभावानित्यत्व प्राप्तं नित्यस्य चोत्पत्तिर्नास्ति अनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थाममनुत्पत्तिसमः अस्योत्तरम् ॥ तथाभावादुत्पन्नस्यकारणोपपत्ते कारणप्रतिषेधः।१३
वथा भावाढत्पन्नस्येति उत्पनः खल्वयं शब्द इति भवति प्रागुत्पत्तेः शब्द एव नास्ति उत्पनस्य शब्दभावात् शब्दस्य सतः प्रयत्नानन्तरीयकत्वमा नित्यकारणमुपपद्यते कारणोपपत्तेरयुक्तोऽयं दोषः प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादिति ॥
सामान्यदृष्टान्तयोरैन्द्रियकत्वे समाने नित्यानित्यसाधम्मात् संशयसमः ॥ १४ ॥
अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् घट दित्युक्त हेतौ संशयेन प्रत्यवतिष्ठते सति प्रयत्नानन्नरोयय त्वे अस्य वास्स निश्धेन सामान्येन सा. धर्म्यमैन्द्रियकत्वमस्ति च घटेनानियेन । अतो नित्यानित्यसाधादनिछत्तः संशय इति । असोत्तरम्॥
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१७६ न्यायदर्शनवाल्यायनभाष्य ___ साधर्म्यात्मंशये न संशयो वैधाटुभयथा वा संशयो ऽत्यन्तसंशयप्रसङ्गो नित्यत्वान्नाभ्युपगमाच्च सामान्य स्थाप्रतिषेधः ॥ १५ ॥
विशेषावैधादवधाय॑माणेयें पुरुष इति न स्थाणुपुरुषसाधर्म्यात् संशयोऽवकाशं लभते एवं वैवाहिशेषात्प्रयत्नानन्तरीयकत्वादवधार्थमाणे शब्दस्यानित्यत्वे नित्यानित्यसाधात् संशयोऽवकाशं न लभते, यदि वै लभेत तत: स्टाणुपुरुषमाधानुछ दादत्यन्न संशयः सात् ग्ट ह्यमाणे च विशेषे नित्यसाधयं संशयहेतुरिति नाभ्युपगम्यते न हि ग्टह्यमाणे पुरुघस्य विशेषे स्थाणुपुरुषमाधयं संशयहेतुर्भवति ॥ उभयसाधर्म्यात् प्रक्रियासिडेः प्रकरणसमः॥१६
उभयेन नित्ये न चानिदेन साधर्म्यात् पक्ष प्रतिपक्षयोः प्रतिः प्र. क्रिया, अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वा हटवदित्ये कः पत्तं प्रवर्तयति । हितीयश्च नित्यसाधात् एवञ्च सति प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति हेतर नित्य साधर्म्य णोच्यमा नेन हेतौ तदिदं प्रकरणानतिष्ठच्या प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमः, समानञ्चैत धर्थेऽपि उभयवैधात् प्रक्रियासिद्धेः प्रकरणपम इति । अस्योत्तरम् ॥
प्रतिपक्षात् प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेधानपत्ति: प्रतिपक्षोपपत्तः ॥ १७॥
उभयसाधम्यांत प्रक्रियासिद्धिबक्ता प्रतिपक्षात् प्रक्रियासिहिरुका भवति यधुभयसाधम्य तब कतरः प्रतिपक्ष इत्येवं सत्युपपन्नः प्रतिपक्षो भवति प्रतिपक्षोपपत्तेरनुपपन्नः प्रतिषेधो यतः प्रतिपक्षोपपत्तिः प्रतिधेधोपपत्तिश्चेति विप्रतिषिवमिति तत्त्वानवधारणाच्च प्रक्रियासिद्धिर्विपय॑ये प्रकरणावसानात् वत्त्वावधारणे ह्यवसितं प्रकरणं भवतीति ॥
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५ अध्याये १ आह्निकम्। १७७ चैकाल्यासिद्धेहें तोरहेतुसमः ॥१८॥ हेतुः साधनं तत्माध्यात् पूर्वम् पश्चात् सह वा भवेत् यदि पूर्व साधनमसति साध्ये कस्य साधनम्। अथ पश्चात् असति साधने कस्येदं मा. ध्यम् | अथ युगपत्माध्यसाधने योविद्यमानयोः किं कस्य साधनं किं कस्य साध्यमिति हेतुना न विशिष्यते अहेतुता साधात् प्रत्ययस्थानमहेतुसमः | कायोत्तरम् ॥
न हेतुतः साध्यसिद्धे स्त्रैकाल्यासिद्धिः ॥ १६ ॥ न व काल्यासिद्धिः कमात् हेततः माध्यमिकः। निवर्तनीयस्य नित्तिः विज्ञेयस्य विज्ञानम् उभयं कारणो दृश्यते सेयं महान् प्रत्यक्षविषय उदाहरणमिति । यत्त खलनामसति साध्य कस्य साधन मिति यत्तु निर्वर्त्य ते यञ्च विज्ञाप्यते तस्येति ।
प्रतिषेधानुपपत्ते : प्रतिषेहव्याप्रतिषेधः ॥२॥ पूर्व पश्चाद्य गपदा प्रतिषेध इति नोपपद्यते प्रतिषेधानुपपत्तेः स्थापनाहेतः सिद्ध इति ॥
अर्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धे रापत्तिसमः ॥२१
अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्व हटवदिति स्थापिते पक्षे अर्थापत्त्या प्रतिपक्ष साधयतोऽर्थापत्तिसमः, यदि प्रयत्नानन्तरीयकत्वादनित्यसाधादनित्यः शब्दः रत्वादापद्यते नित्यसाधर्म्यानित्य इति अस्तित्वस्य नित्येन साधर्म्यम स्पर्श त्वमिति । असोत्तरम् ।
अनुक्तस्यार्थापत्त: पक्षहानेरुपपत्तिरनुक्तात्वादनैकान्तिकत्वाच्चार्थापत्तः ॥२२॥
अनुपपाद्य सामर्थ्य मनुनमर्यादापद्यत इति न वतः पक्षहानेरुपपतिरनुकत्वात् अनित्यपक्षसिद्धावादापनमनित्यपक्षस्य हानिरिति,
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न्यायदर्शनवात्यायनभाये
अनैकान्निकत्वाचा पत्तेः उभयपक्षसमा चेयमापत्तिः, यदि नित्यसाधादस्पर्शत्वादाकाशवञ्च नित्यः शब्दः अर्थादापनमनित्यसाधर्म्यात् प्रयत्नानन्तरीयत्वादनित्य इति, न चेयं विपर्ययमाबादेकान्ते नार्थापत्तिः, म खन वै घनस्य याबणः पतनमित्यर्थादापद्यते द्रवाणामपां पतनाभाव इति
एकधर्मोपपत्त रविशेषे सर्वाविशेषपसङ्गात् सदभावोपपत्तरविशेषसमः ॥२३॥
एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दघट योरुपपद्यत इत्यविशेषे उर. योरनित्यत्व सर्वस्थाविशेषः प्ररुज्यते कथम् सद्भावोपपत्तेः एको धर्मः सद्भावः सर्वस्योपपद्यते सद्भावोपपत्तेः सर्वाविशेषप्रसङ्गात् प्रत्यवस्थानमविशेषसमः। अस्योत्तरम् ॥ क्वचिदनुिपपत्तेः कचिच्चोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः ॥ २४॥
यथा माध्यदृष्टानयोरेकधर्मस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्योपपत्तेरनिस्यत्वधर्मान्तरमविशेषेण, एवं सर्वभावानां सद्भावोपपत्तिनिमित्तं धर्मानरमस्ति येनाविशेष: स्यात् अथ मतमनित्य त्वमेव धर्मान्तरं सद्भावोपपचिनिमित्तं भावानां सर्वत्र स्थादित्येवं खलु वै कल्पामाने अनित्याः सर्वे भावाः सद्भावोपपतेरितिपक्षः प्राप्नोति तल प्रतिज्ञार्थव्यतिरिक्रमन्यदुदाहरणं नास्ति अनुदाहरणच हेतुर्नास्तीति प्रतिजैकदेशस्य च उदाहरणत्वमनुपपन्नं न हि माध्यमदाहरणं भवति ततश्च नित्यानित्यभावादनित्यनित्यत्वानुपपत्तिः तस्मात् सद्भावोपपत्तेः सर्वा विशेष प्रसङ्ग इति निरभिधेयमेतद्वाक्य मिति सर्वभावानां सद्भावोपपत्तेरनित्यत्वमिति ब्रव. ताऽनुज्ञातं शब्दस्यानित्यत्वं तत्रानुपपन्नः प्रतिषेध इति ॥ उभयकारणोपपत्त रुपपत्तिसमः ॥ २५ ॥
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५ अध्याय १ श्रानिकम् ।
१७६
यद्यनित्यत्वकारणमुपपद्यते शब्दखेत्यनित्यः शब्दो नित्यत्वकारणमप्युपपद्यते असासर्यत्वमिति नित्यत्वमप्युपपद्यते अभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च कारणोपपत्त्या प्रत्यय स्थानमुपपत्तिसमः । असोत्तरम् ॥ उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः ॥ २६ ॥
उभय कारणोपपत्ते रिति अवता नानित्यत्वकारणोपपत्तेरनित्यत्वं मतिषिध्यते यदि प्रतिषिध्यते नोभयकारणोपपत्तिः स्यात् उभयकारणोपपतिवचनादनित्यत्वकारणोपपत्तिरभ्यनुज्ञायते अभ्यनुज्ञानादनुपपन्नः प्रतिघेधः, व्याघातात् प्रतिषेध इति चेत् समानो व्याघातः एकस्य नित्यत्वानिबत्वप्रसङ्ग व्याहतम् अवतोतः प्रतिषेधः इति चेत् खपक्षपरपक्षयोः समानो व्याघातः स च नैकतरस्य साधक इति ॥ . निर्दिष्टकारणाभावेऽप्य पलम्भादुपलब्धिसमः २७
निर्दिष्ट प्रयत्नाननरीयकत्वस्यानित्यत्वकारणस्थाभावेऽपि वायुनोद नावशाखाभङ्गजस्य अब्दस्यानित्यत्वमुपलभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्थाभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्धया प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमः । अस्योत्तरम् ॥ कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेधः २८
प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति अवता कारणत उत्पत्तिरभिधीयते न कार्यस्य कारणनियमः यदि च कारणान्तरादप्युपपद्यमानस्य शब्दस्य तदनित्यत्वमुपपद्यते किमत्व प्रतिषिध्यत इति न प्रागुधारणादविद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिः कस्मात् बावरणाद्यनुपलब्धेः, यथा विद्यमानखोदकादेरर्थस्थावरणादेरनुपलचिः नैवं शब्दस्याग्रहणकारणेनावरणादिनानुपलब्धिः ग्टह्येत चैतदस्यायहणकारणमुदकादिवन्न ग्टह्यते, तस्मादुदकाकादिविपरीतः शब्दोऽनुपलभ्यमान इति ॥
तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तविपरीतो. पपत्तेरनुपलब्धिसमः ॥२६॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
तेषामावरणादीनामनुपलब्धि! पलभ्यते अनुपलम्मानास्तीत्यभावोऽस्याः सियति, अभावसिद्धौ हेत्वभावात्तविपरीतमस्तित्वमावरणादीनामवधार्यते तविपरीतोपपत्तेर्यत् प्रतिज्ञातं न माहसञ्चारणाविद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिरित्येतत्र सियति सोऽयं हेतरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणाद्यनुपलब्धौ च समयानुपलब्धमा प्रत्यवस्थितोऽनुपलब्धिसमो भवति । असोत्तरम् । अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्ध रहेतुः ॥३०॥
आवरणाद्यनुपलब्धिर्नास्त्यनुपलम्भादित्यहेतः कमात् अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलधेः, उपलम्भाभावमावत्वादनुपलब्धेः, यदस्ति तदुपलधे विषयः उपलब्धधा तदस्तीति प्रतिज्ञायते, यवास्ति तदनुपलब्धे विषयः अनुपलभ्यमानं नासीति प्रतिज्ञायते । सोऽयमावरणाद्यनुपलधेरनुपलम्भाभावोऽनुपलब्धौ स्वविषये प्रवर्तमानी म स्खविषयं प्रतिषेधति । अप्रतिषिद्धा चावरणाद्यनुपलब्धिहें तत्वाय कल्पाते, आवरणादीनि तु विद्यमानत्वादुपलब्धेविषयास्तेषामुपलब्धता भवितव्यम्, यत्तानि नोपलभ्य ने तडपलब्धेः स्वविषयमतिपादिकाया अभावादनुपलम्भादनुपल. ब्धेविषयो गम्यते न सन्त्यावरणादीनि शब्दस्याग्रहणकारणानीति अनु. पलम्भादनुपलब्धिः सिद्यति, विषयः स तखेति ॥
ज्ञानविकल्पानाञ्च भावाभावसंवेदनादध्यात्मम्
अहेतुरिति वर्तते । शारीरे शरीरिणां ज्ञानविकल्यानां भावाभावौ संवेदनीयौ, अस्ति मे स्थयज्ञानं नास्ति मे संशय ज्ञानमिति, एवंप्रत्यक्षानुमानागमस्मृतिनानेषु सेयमावरणाद्यनुपलब्धिरुपलब्धप्रभावः स्वसंवेद्यो नास्ति मे शब्दस्यावरणाद्यनुपलब्धिरिति नोपलभ्यन्ते शब्दस्यायइणकारणान्यावरणादो नीति, तत्र यह तदनुपलब्धे रनुपलम्भादभावमिद्धिरिति एतद्रोपपद्यते ॥
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५ अध्याये १ प्राज्ञिकम् ।
साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्तेः सर्वा नित्यत्वप्रसङ्गादनित्यसमः॥३२॥
अनित्येन घटेन साधादनित्यः शब्द इति ब्रवतोऽस्ति घनानियेन सर्वभावानां साधर्म्य मिति सर्वस्यानित्यत्व मनिष्ट सम्पद्यते, सोऽयममित्य त्वेन प्रत्यवस्थानादनित्यसम इति । अस्योत्तरम् ।
साधादसिद्धेः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधाच्च ॥३३॥
प्रतिज्ञाद्यवयवयुक्त वाक्यं पक्षनिवर्तकं प्रतिपक्षलक्षणं प्रतिषेधस्तस्य पक्षेण प्रतिष ध्ये न साधम्यं प्रतिज्ञादियोगः तद्यद्यनित्यसाधादनित्यत्व - स्यासिद्धिः साधादसिद्धेः प्रतिषेधस्याप्यसिद्धिः प्रतिघेयेन माधर्म्यादिति ॥
दृष्टान्ते च साध्यसाधनभावेन प्रजातस्य धर्मस्य हेतुत्वात्तस्य चोभयथाभावान्नाविशेषः ॥३४॥
दृष्टान्ने यः खलु धर्मः साध्यसाधनभावेन प्रजायते स हेतुत्वेनाभिधीयते स चोभयथा भवति, केनचित् समानः कुतश्चिद्दिशिष्टः, सामान्यात् साधर्म्यम् विशेषाञ्च वैधय॑म् एवं साधर्म्यविशेषो हेतः नाविशेषेण साधर्म्यमानं वैधय॑मानं वा, साधर्म्यमात्र वैधय॑मानं चाश्रित्य भवानाह । साधर्म्यात्त ल्यधर्मोपपत्तः सर्वानित्यत्वप्रसङ्गादनित्यसम इति एतदयुकमिति अविशेषसमप्रतिषेधे च यदुन्न तदपि वेदितव्यम् ॥
- Momen
नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्त नित्यसमः॥३५॥
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न्यायदर्शनवात्सायनभाष्ये
अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञायते तदनित्यत्वं किं शब्दे नित्यमथानि. त्यम्, यदि तावत् सदा भवति धर्मस्य सदाभावामिणोऽपि सदाभाव इति नित्यः शब्द इति । अथ न सर्वदा भवति अनित्य त्यस्थाभावा नित्यः शब्दः । एवं नित्यत्वेन प्रत्यवस्था नान्नित्यसमः । अस्योत्तरम् ॥
प्रतिषेध्ये नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तः प्रतिषेधाभावः ॥ ३६॥
সনি ঘ নিবনিন্ম মানাল্ডিনান ঘাनित्यत्वम्, अनित्यत्वोपपत्तेश्च नानित्यः शब्द इति प्रतिषेध नोपपद्यते, अथ नाभ्य पगम्यते नित्यमनित्यत्वस्य भावादिति हेतर्न भवतीति हेत्वभावाप्रतिषेधानुपपत्तिरिति, उत्पनस्य निरोधादभावः शब्दस्यानित्यत्वं तत्र परिप्रश्नानुपपत्तिः, मोऽयं प्रत्रः तदा नित्यत्व किं शब्दे सर्वदा भवति अथ नेत्यनुपपत्रः, कस्मात् उत्पनख यो निरोधादभावः शब्दस्य तदनित्यत्वम्, एवञ्च सत्य धिकरणाधेयविभागो व्याघातानास्तीति नित्यानित्यविरोधाच नित्यत्वमनित्यत्व चैकस्य धर्मिणो धी विरुध्येते न सम्भवतः तत्र यदक्तम् नित्यमनित्यत्वस्य भावावित्य एव तदवर्तमानार्थमुक्तमिति ॥
प्रयत्नकार्यानेकत्वात्कार्यसमः ॥ ३७॥
प्रयन्नानन्तरीयकत्वादनित्यः शब्द इति, यस्य प्रयत्नानन्तरमात्मताभस्तन खल्वभूत्वा भवति यथा घट दिकार्यमनित्यमिति च भत्वा न भवती येनदिज्ञायते । एवमवस्थिते प्रयत्न कार्यानेकत्वादिति प्रतिषेध उच्यते । प्रयत्नानन्तरमात्मलाभश्च दृष्टो घटादीनाम् व्यवधानापोहाचाभिव्यक्तिव्यवहितानाम्, तत् किं प्रयत्नानन्तरमात्मलाभः शब्दस्य बाहोऽभिव्यक्ति रिति विशेषोनास्तिः कार्याविशेषेण प्रत्यवस्थ नं कार्यसम. असोत्तरम् ।
कार्यान्यत्वे प्रयत्नाहेतृत्वमनुपलब्धिकारणोप
पत्तः ॥३८॥
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५ अध्याये १ आह्निकम् ।
१८३
सति कार्यान्यत्वे अनुपलब्धि कारणोपपत्तेः मयस्त्र स्याहेतुत्वं शब्दस्वाभिव्यये यत्र प्रयत्नानन्तरमभिव्यक्तिस्तत्रानुपलब्धिः कारणं व्यवधानमुपपद्यते । व्यवधानापोहाश्च प्रयत्नानन्तरभाविनोऽर्थस्योपलब्धिलचणाभिव्यक्तिर्भवतीति नतु शब्दस्यानुपलब्धि कारणं किञ्चिदुपपद्यते, यस्य प्रयत्नानन्तरमपोहाच्छब्दस्योपलब्धिलचणाभिव्यक्तिर्भवतीति तस्मादुत्पद्यते शब्दो नाभिव्यज्यत इति है तो वेदनेकान्तिकत्वमुपपाद्यते अनैकान्तिकत्वादसाधकः स्यात् इति, यदि चानैकान्तिकत्वादसाधकम् ॥
प्रतिषेधेऽपि समानो दोषः ॥ ३८ ॥
प्रतिषेधोऽप्यनेकान्तिकः किञ्चित् प्रतिषेधति किञ्चिन्नेति अनेकान्तिकत्वादसाधक इति, अथ वा शब्दस्यानित्यत्वपचे प्रयत्नानन्तरमुत्पादनाभिव्यक्तिरिति विशेषहेत्वभावः, नित्यत्वपचेऽपि प्रयत्नानन्तरमभिव्यक्तित्यादइति विशेषहेत्वभावः सोऽयमुभयपक्षसमो विशेष हेत्वभावइत्यमप्यनैकान्तिकमिति ॥
T
सर्वत्रैवम् ॥ ४० ॥
सर्वेषु साधनप्रभृतिषु प्रतिषेधहेतुषु यत्न विशेषो दृश्यते तत्त्रोभयोः पक्षयोः समः प्रसज्यत इति ॥
प्रतिषेधविप्रतिषेधे प्रतिषेधदोषवद्देोषः ॥ ४१ ॥
योऽयं प्रतिषेधेऽपि समानो दोषोऽनैकान्तिकत्वमापाद्यते खोऽयं प्रतिषेधस्य प्रतिषेधेऽपि समान:, तवानित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति साधनवादिनः स्थापना प्रथमः पचः, प्रयत्नकार्य्यानेकत्वात् कासम इति दूषणवादिनः प्रतिषेधहेतुना द्वितीयः पचः, स च प्रतिषेध इत्युच्यते तस्मिन् प्रतिषेधविप्रतिषेधेऽपि समानो देषोऽनेकान्तिकत्वम् चतुर्थः पच्चः ॥
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१८४
न्यायदर्शनवात्यायनभाष्ये प्रतिषेधं सदोषमभ्युपेत्य प्रतिषेधविप्रतिषेधे समानो दोषप्रसङ्गोमतानुज्ञा ॥ ४२ ॥
प्रतिषेधं द्वितीयं पक्ष सदोषमभ्य पेत्य तदुद्धारमनुत्ता अनुज्ञाय पतिघेधविप्रतिषेधे हतीये पक्षे समानम ने कान्तिकत्वमिति समानं दूषणं प्रसजतोदूषणवादिनो मतानुज्ञा प्रस्ज्य त इति पञ्चमः पक्षः ।
स्वपक्षलक्षणापक्षोपपत्त्य पसंहार हेतुनिर्देशे परपक्षदोषाभ्युपगमात्ममानोदोष इति ॥ ४३ ॥
स्थापनापचे प्रयत्न कार्यानेकत्वादिति दोषः स्थापनाहेतबाटिन: स्वपक्षलक्षणो भवति, कस्मात् स्वपक्षसमुत्थत्वात्, सोऽयं स्वपक्षलक्षणं दोषममेक्षमाणेोऽ तुडत्यानुज्ञाय प्रतिषेधेऽपि समानो दोष इत्य पपामानं दोषं परपक्ष उपसंहरतित्यं वा नै कान्तिकः प्रतिषेध इति हेतु निर्दिशति तत्र स्वपक्षलक्षणापेक्षयोपपदमानदोषोपसंहारे हेतुनिर्देशे च सत्यनेन परपक्षोऽभ्युपगतो भवति, कथं कृत्वा यः परेण प्रयत्नकार्यानेकत्वादित्यादिनाउनैकान्निकदोष उतस्तमइत्य प्रतिषेधेऽपि समानो दोषो भवति यथा परस्य प्रतिषेधं सटोषमभ्यु पेत्य प्रतिषेधेऽपि समानं दोषं प्रमजतः परपक्षाभ्यु पगमात् समानो दोषो भवति, यथा परस्य प्रति
धं सदोषमम्य मेत्य प्रतिषेधेऽपि समानं दोषं प्रसजतो मतानुज्ञा प्रसज्यत इति, स ख त्वयं षष्ठ: पक्षः, तत्र खलु स्थापनाहेतवादिनः प्रथमतीय पञ्चमपक्षाः, प्रतिषेध हेतुवादिनो वितीयचतुर्थ षष्ठपक्षाः, तेषां साध्वसाधुतायां मीमांस्यमानायां चतुर्थपथ्योरविशेषात् पुनरुतादोषप्रसङ्गः । चतुर्थपक्षे समानदोषत्वं परस्योच्यते प्रतिषेधविप्रतिषेधे प्रतिषेधदोषवद्दोष इति, षष्ठेऽपि परपक्षायुपगमात् समानो दोष इति समान दोषत्व मेवोच्यते, नार्थ विशेषः कश्चिदस्ति समानस्त तोयपञ्चमयोः पुनरुक्तदोषप्रसङ्गः,टतीयपक्षऽपि प्रतिषेधेऽपि समानो दोषइति समानत्वमभ्य पगम्यते, पञ्चक
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५ अध्याये २ आत्रिकम् ।
पक्षेऽपि प्रतिषेधम तिषेधे समानो दोष प्रसङ्गोऽभ्य पगम्यते नार्थविशेषः कश्चिदुच्यतइति, तत्त्र पञ्चमषष्ठ पक्षयोर विशेषात् पुनस्कदोषः, हतीयचतुर्थयोमतानुज्ञा, प्रथमद्वितीययोर्विशेषहे त्वभावदति, षट् पच्यामुभयोरसिद्धिः, कदा षट्पक्षो यदा प्रतिषेधेऽपि समानो दोष इत्येवं प्रवर्तते तदोभयोः पक्षयोरसिद्धिः, यदा त कार्यान्यत्वे प्रयत्नाडेतत्त्वमनुपलब्धि. कारणोपपत्ते रित्य नेन हतीयपक्षो युज्यते तदा विशेष हेतुवचनात् प्रयत्नानन्तरमात्मलाभः शब्दस्य नाभिव्यक्तिरिति मितिः प्रथमपञ्चो न षट्पदी प्रवर्तत इति
इति वास्यायनीये न्यायभाष्ये पञ्चमाध्यायखाद्यमाह्निकम् ॥
विप्रतिपत्त्य प्रतिपत्त्योर्विकल्यावियहस्थानबहुत्वमिति सङ्घ पेयोन दिदानी विभजनीयम् निग्रहस्थानानि खल पराजयवस्त न्यपराधाधिकरणा न प्रायेण प्रतिज्ञाद्यवयवात्रयाणि तत्ववादिनमत व वादिनचाभिसंशवन्ते तेषां विभागः ।
प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तर प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिक्षासन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुतमननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपो मतानुज्ञा पर्य नुयोज्योपक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि ॥ १॥
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१८६ न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य
तानीमानि हाविंशतिधा विभज्य लक्ष्यन्ते ॥ प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः ॥२॥
साध्यधर्म प्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते प्रतिदृष्टान्नधर्म स्वदृष्टान्ते. स्यनुजानन प्रतिज्ञा जहातीति प्रतिज्ञाहानिः, निदर्शनम् ऐन्द्रियकत्वाद नित्यः शब्दो घटवदिति कते अपर आह दृष्टमैन्द्रियकत्वं सामान्ये नित्ये क मान्न तथा शब्द इति प्रत्यवस्थिते इदमाह यद्यन्द्रियकं सामान्य नित्यं कामं घटो नित्योऽस्विति स खल्वयं साधकस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसञ्जयनिगमनान्तमेव पच्वं जहाति पक्षं जहत् प्रतिज्ञा जहा ती त्यच्यते प्रतिज्ञा प्रयत्वात् पशखेति ॥
प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देश: प्रतिक्षान्तरम् ॥३॥
प्रतिज्ञातार्थेऽनित्यः शब्द ऐ न्द्रियकत्वात् घर वदित्यु के योऽस्य प्रतिघेधः प्रतिदृष्टान्ते न हेतव्यभिचारः सामान्यमन्द्रियकं नित्यमिति तस्मिंश्च प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्प दिति दृष्ट न्त प्रतिहटान्तयोः साधर्म्य योगे धर्मभेदात् सामान्यमै न्द्रियकं सर्वगतम् ऐन्द्रिय कम्त्व सर्च गतो घट इति धर्मविषल्मात् तदर्थ निर्देश इति माध्यसियर्थम्, कथम् यथा घटसर्वगत एवं शब्दोऽप्यसर्वगतो घट व देवानित्य इति, तत्रानित्यः शब्द इति पर्खा प्रतिज्ञा, असर्व गत इति हिती या प्रतिज्ञा प्रतिज्ञानरम्, तत्कथं नियहस्थानमिति, न प्रतिज्ञायाः साधनं प्रतिज्ञान्तरं, किन्तु हेतुदृष्टान्तौ साधनं प्रतिक्षायाः, तदेतदसायनोपादानमनर्थ कमिति आनर्धक्यान्निग्रहस्थानमिति ॥ प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः प्रतिज्ञाविरोध: ॥४॥
गुगए व्यतिरिक्तं द्रव्य मिति प्रतिज्ञा, रूपादितोऽर्यान्तरस्यानु पलञ्चेरिति हेतः, सोऽयं प्रतिज्ञाहेत्वाविरोधः, कथम् यदि गुणव्यतिरिक्त
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५ अध्याये २ अादिकम् ।
द्रव्यं रूपादिभ्योऽन्निरसातुपल धिर्नोपपद्यते, अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः, गुणव्यतिरिनं द्रव्यमिति नोपपद्यते, गुणव्यतिरिकञ्च द्रव्यं रूपादिभ्यश्चार्थान्तरस्यानुपलब्धि रिति विरुध्यते व्याहन्यते न सम्भवतीति ॥
पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासन्यासः५
अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकवादित्युक्ने परेब्यात् सामान्यमन्द्रियक न च अनित्य मेवं शब्दोऽप्यन्द्रियको न चानित्य इति, एवम्प्रतिषिड्ने पक्षे यदि ब यात् कः पुनराह अनित्यः पन्द इति, सोऽयं प्रतिज्ञातार्थनिङ्गवः प्रतिज्ञ सनग्रास इति ।
अविशेषोक हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतोहेत्वन्तरम् ॥ ६॥
निदर्शनम् एकप्रकतोदं व्यक्तमिति प्रतिज्ञा, कमद्धे तोः एकप्रल तीनां विकाराणां परिमाणात् मत्पूर्व काणां शरावादीनां दृष्टं परिमःणम्, यावान् प्रकतेय हो भवति तावान् विकार इति, दृष्टञ्च प्रतिविकार परिमाणम्, अस्ति चेदम्परिमाणं प्रति व्यक्तम्, तदेक प्रकृतीनां विकाराणां परिमाणात्मण्य मो व्यक्तमिद मेक प्रकृतीति । अस्य व्यभिचारेण प्रत्यवस्यानम्, नाना प्रकृतीनामेकप्रकतीनाञ्च विकाराणां दृष्टं परिमाणमिति, एवं प्रत्यवस्थिते आइ एक प्रकृतिसमन्वये सति शरावादिविकाराणां परिमाणदर्शनात् सुखदुःखमोहसमन्वितं ह.दं व्यक्त परिमितं ग्टह्यते तत्र प्रकृत्यन्तररूपसमन्वयाभावे सत्ये क प्रकृतित्वमिति, तदिदम - विशेधोक्त हेतौ प्रतिषिद्ध विशेष व वतो हेवन्तरम्भवति, मति च हेत्वनरभावे पर्वस्य होतोरसाधकत्वावियहस्थानम्, हेत्वन्तरवचने सति यदि हेत्वर्थनिदर्शनो दृष्टान्न उपाहीयते नेदं व्यक्त मेक प्रकृति भवति प्रकृत्यन्नरोपादानात्, अथ नोपादोयते दृष्टान्त हेत्वर्थ स्थानिदशि तस्य साधकभावानुपपत्रानर्थ क्या तोरनिवृत्त निग्रहस्थानमिति ॥
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न्यायदर्शनात्यायनभाष्ये प्रकतादर्थादप्रतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम् ॥ ७ ॥
यथोक्तलक्षणे पक्षप्रतिपक्षपरियहे हेतुतः माध्यसिद्धौ प्रकतायां ब यात् नित्यः शब्दोऽमर्शत्वादिति हेतः, हेतुर्नाम हिनोतेर्धातोस्तुनिप्रत्यये कदन पदम्, पदच्च नामाख्यातोपसर्गनिपाता: अभिधेयम्य क्रियान्तरयोगाद्दिशिष्यमाणरूपः शब्दो नाम, क्रियाकारकसमुदायः, कारकसह्या विशिष्ट क्रियाकालयोगाभिधायाख्यातम्. धात्वर्थमात्रञ्च कालाभिधानविशिष्टम्,योगेष्वर्थादभिद्यम, नरूपानिपाताः उपसग्ध मानाः क्रियाबद्योतका उपसर्गा इत्येवमादि, तदर्थान्तरं वेदितव्य मिति ॥
वर्णक्रमनिर्देशवन्निरर्थकम् ॥८॥
यथा नित्यः शब्दः कचटतपा: जवगडदशत्वात् भभञ्ध ढवभवदिति एवम्प्रकारं निरर्थ कम्, अभिधानाभिधेयभावानुपपत्नौ अर्थ गतेरभावाद्. धाएव क्र मेण निर्दिश्यन्त इति ॥
परिषत्प्रतिवादिम्यां घिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् ॥६॥
यदाक्यं परिषदा प्रतिवादिना च विरभिहितमपि न विज्ञायते लिष्ट शब्दमप्रतीत प्रयोगमति तोच्चारितमित्येवमादिना कारणेन तद. विज्ञातमविज्ञातार्थमसामर्थ्य सम्बरणाय प्रय कमिति नियहस्थानमिति ॥
पौळपर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् ॥ १०
यत्रानेकस्य पदस्थ वाक्यस्य वा पौर्चापर्येणान्वययोगोनास्तीत्वसम्बधार्थ त्वम् ग्टह्यते तत्ममुदायोऽर्थ थापायाद पाथै कम् । यथा दश दाडिमानि घड़पूपाः कुण्ड मजाजिनम्मलल पिण्डः । अथ रोस्कमेतत्कमार्थ: पायम् तस्याः पिता अप्रतिशीन इति ॥
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१८६
५ अध्याये २ आह्निकम् । अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ॥ ११ ॥ प्रतिज्ञादीनामवयवानां यथालक्षणमर्थवशात् क्रमः, तलावयवदिपयामेन वचनम प्राप्तकालमसम्बन्वार्थ कालं निग्रहस्थानमिति ॥ होनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम् ॥१२॥
प्रतिज्ञादीनामवयवानामन्यतमेनाप्यवयवेन होनं न्यनं निग्रहस्थानम्, साधनाभावे साध्यामिजिरिति ॥
हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ॥ १३॥
एकेन कृतत्वादन्यतरस्थानर्थ क्यमिति तदेतन्द्रियमाभ्यु पग मे वेदितव्यमिति॥ शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् ॥१६
अन्यत्रानुवादात् शब्दपुनरुक्तमर्थ पुनरुक्त वा, नित्यः शब्दो नित्यः शब्द इति श द पुनरुक्तम्, व्यर्थ पुनरुक्तमनित्यः शब्दो निरोधधर्मकोवान इति ॥ अनुवादे त्वपुनरुक्तं शब्दाभ्यासादर्थविशेषोपपत्तेः॥१५
यथा हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञाया. पुनर्ब चनं निगमनमिति ॥ अर्थादापन्नस्य खशब्देन पुनर्वचनम् ॥ १६ ॥
पुनरुक्तमिति प्रकृतम्, निदर्शनम् उत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यमित्य का अर्थादापत्रस्य योऽभिधायकः शब्दस्ते न स्वशब्देन याद नुत्पत्तिधर्मक नित्य मिति | तञ्च पुनरुतम्बेदितव्यम्, अर्थ सम्प्रत्ययार्थे शब्दप्रयोगे प्रतीतः सोऽर्थोऽर्था पत्त्येति ॥ विज्ञातस्य परिषदा विरभिहितस्याप्यनुच्चारणमननुभाषणम् ॥१७॥
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न्याय दर्शनवात्यायनभाष्य
विज्ञातस्य वाक्यार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना विरभिहितस्य यद
प्रत्यवारयन् किमा
प्रत्युच्चारणन्तदमन्नुभाषणं नाम निग्रहस्थानमिति श्रयं परपत्रप्रतिषेधं ब्रूयात् ॥
अविज्ञातञ्चाज्ञानम् ॥ १८ ॥
विज्ञातार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना विरभिहितस्य यदविज्ञानन्तदज्ञानं निग्रहस्थानमिति । वायं खल्वविज्ञाय ब्रूयादिति ॥
कस्य प्रतिषेधं
उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा ॥ १६ ॥
परपक्षप्रतिषेधः पः उत्तरम् तद्यदा न प्रतिपद्यते तदा निग्टहीतो
भवति ॥
कार्य्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेपः ॥ २० ॥
यत्र कर्त्तव्यं व्यासज्य कथां व्यवच्छिनत्ति इदं मे करणीयं विद्यते तस्मिन्नवसिते कथयिष्यामीति विश्ले पो नाम निग्रहस्थानम् । एकनियहाautotri कथायां स्वयमेव कथान्तरं प्रतिपद्यत इति ॥
तानुज्ञा ॥ २१ ॥
.
स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषप्रसङ्गो म
यः परेण चोदितं दोषं खपचेऽभ्युपगम्यानुद्धृत्य वदति भवताचे समा नो दोष इति स स्वपच्चे दोषाभ्युपगमात्परपले दोषं प्रसञ्जयन् परमतमनुजानातीति मतानुज्ञा नाम निग्रहस्थानमापद्यत इति ॥
निग्रहस्यानप्राप्तस्यानिग्रहः पर्य्यनुयोज्योपेक्ष
णम् ॥ २२ ॥
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५ अध्याये २ आह्निकम् ।
पर्य नुयोज्यो नाम मियहोपपत्या चोदनीयस्तस्योपेक्षणम् निगहस्थान प्राप्तोऽमीत्य ननुयोगः, एतच कस्य पराजय इत्यनुयुतया परिषदा बचनीयम्, न खलु निग्रहं प्राप्तः स्वकोपीनं विष्णुयादिति ॥
अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः ॥ २३॥
निग्रहस्थानलक्षणस्य मिथ्याध्यवसायादनियहस्थाने निग्टहीतोऽसीति परं अवन निरनुयोज्यानुयोगाविग्टहीतो वेदितव्य इति ॥
सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिडान्तः ॥ २४ ॥
कचिदर्थ स्य तथाभावं प्रतिज्ञाय प्रतिज्ञाताविपर्ययादनियमात् कथा प्रसञ्जयतोऽपसिद्धान्तो वेदितव्यः यथा न सदात्मानहाति न सतो विनाशो नासदात्मानं जमते नासत्पद्यत इति, सिद्धान्तमभ्युपेत्य खपच्छं व्यवस्थापयति एकप्रकतीदं व्यक्त विकाराग्यामन्वयदर्शनात् मृदवितानां परावादीनां दृष्टमेकप्रकृतित्वम् तथा चायं व्यक्तभेदः सुखदुःखमोहान्वितो दृश्यते तमात् समन्वयदर्शनात् सुखादिभिरेकमकतीदं शरीरमिति एवसनवाननुयुज्यते । अथ प्रकृतिविकार इति कथं लक्षितव्यमिति । यथावस्थितस्य धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरं प्रवर्तते सा प्रकृतिः । यच्च धर्मान्तरं प्रवर्तते स विकार इति, सोऽयं प्रतिज्ञाताविपर्यासादनियमात् कथा मसञ्जयति प्रतिज्ञातं खल्लनेन नासदाविर्भवति सत् तिरोभवतीति । सदसतोस तिरोभावाविर्भावमन्तरेण न कस्यचित्पत्तिः प्रकृत्त्य परमश भवति, मदि खल्ववस्थितायाम्भविष्यति शरावादिलक्षणं धर्मान्न र मिति महत्तिर्भवति, अदिति च प्रवृत्त्य परमः, तदेता वर्माणामपि न सात् एवं प्रत्यवस्थि तो यदि सतश्चात्महानममतश्चात्मलाभमभ्युपैति, तदस्यामासिवानोनियहस्थानभवति । अथ नाभ्युपैति पक्षोऽस्य न सिद्ध्यति ।
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१६२ न्यायदर्श नवाल्यायनभाष्य हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः ॥ २५॥
हेत्वाभासाच निग्रहस्थानानि किं पुनरीक्षणानरयोगात् हेत्वाभासाः नियह स्थानत्वमा पन्नाः यथा प्रमाणानि प्रमेयत्वमित्यत आह । थथोक्ता इति । हेत्वाभासलक्षणेनैव नियहस्थानभाव इति । त इमे प्रमाणादयः पदार्था उद्दिष्टा लचिताः परोहिताशेति ॥
इति वात्स्यायनीये न्यायभाष्ये पञ्चमाध्यायस्य द्वितीयमाङ्गिक समातचायं पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ समाप्तञ्चेदं शास्त्रम् ॥
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श्रीगणेशाय नमः ।
न्यायसूत्रत्तिः।
वपुलॊलालक्ष्मौजितमदनकोटिब्रजवधूजनानामानन्दं कमपि कमनीयं विरचयन् ।. सकोऽपि प्रेमाणं प्रथयतु मनोमन्दिरचर स्त्रिलोकोलोकानां सजलजलदश्यामलतनुः ॥१॥ संयुक्तांयुक्तरूपामभिनवनिहितालककारक्तभासा सम्यापीयूषभानोरतिरुचिरतरां चूर्णयन्तीमभिख्या मानव्यामोकनमत्रिपुरहरशिरोरम्यभूषाविशेषं भूयोभव्यं विधातुं चरणनखरुच भावयामोभवान्याः यदीयतर्ककिरणैरान्तरध्वान्तसन्ततिम् । सन्तस्तरन्तिभावन्तमक्षपादं नमामि तम् ॥ ३॥ अद्वैतं गुरुधर्मयोरिव लसत्क्ष्मामण्डलीमण्डनं रूपं किञ्चन पौरुषं गिरव प्रागल्भ्यसम्पादकम् । दाने कर्णमिवावतीर्णमपरं दौने दयादक्षिणं
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१६४
न्यायसूवत्तौ!
तातं विश्वविसारिचारुयशसं विद्यानिवासं नुमः॥४॥ अलसमतिरपौदं विस्तृतं न्यायशास्त्र विरहितबहुयत्नोलोलया वेत्तुविनः। इति विनिहितचेता:कौशलं कर्तुकामो गुरुचरणरजोऽहं कर्णधारौकरोमि ॥५॥ विद्यानिवाससूनोः कतिरेषा विश्वनाथस्य । विदुषामति सूक्ष्मधियाममत्मराणां मुदे भविता॥६॥
प्रयोजनमनभिसन्धाय प्रेक्षावन्तो न प्रवर्तन्ते अतः प्रथमं प्रयोजन मभिधानीयं तथा वाहुः सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्ध श्रोत श्रोता प्रवर्तते । शास्वादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः॥ सिद्धो ज्ञातोऽर्थः प्रयोजनं यस्य तत्तथा एवं सिद्धसम्बन्धमित्यपि अतस्तत्प्रतिपादनाय भगवानक्षपादः प्रथम सूचयति । अव तत्त्वज्ञाननिःश्रेयसयोः शास्वतत्त्वज्ञानयोश्च हेत हेतुमद्भावः प्रमाणादि तत्वज्ञानयोर्विषयविषयिभावः प्रमाणादिशानयोः मतिपाद्यप्रतिपादकभावः शास्त्रनिःश्रेयसयोश्च प्रयोज्यसयोजकभावः सम्बन्धः तत्व ज्ञायतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या तत्त्वज्ञानं शास्त्र तथा च शास्त्र निःश्रेयस्योरपि तत्त्वज्ञानद्दारकहेत हेतुमद्भाव एव सम्बन्ध नि सम्प्रदाविदः, अत्र च सर्व पदार्थ प्रधानोहन्दः समासः यद्यपि भेदे छन्दविधानादन च बहना पदार्थानामभेदान इन्दसम्भवस्तथापि पदार्थतावच्छेदकभेदादेव इन्हति न दोषद्त्यन्यत्र विस्तरः तत्र च निर्देशे यथा वचनं विग्रहइति यथावतभाष्यानुसारिणः प्रमाणानि च प्रमेयञ्च संशयञ्च प्रयोजनञ्च दृष्टान्नश्च सिद्धानश्च अवयवाश्च तर्कश्च निर्णयच वादश्च जल्पञ्च वितण्डा च हेत्वाभामाश्च छलञ्च जातयश्च निग्रहस्थानानि चेति विग्रहं वर्ण यन्ति | सम्प्रदायविदस्तु भाष्यस्थवचनप देन कचिमौत कचिदार्थ वचनं ग्टह्यते तत्र प्रमाणे
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__ १ अध्याये १ आह्निकम् ।
१८५
प्रमेये च सौवं वचनं ग्टह्यते समयोजनत्वात् तच्च वच्यते नतु दृष्टान्तादावेककचनं सप्रयोजनं तथाच दृष्टान्ने विवचनम् अन्वयव्यतिरेकिभेदेन दृष्टान्न विध्यस्य वच्य माणत्वात् । संशये सिद्धान्ने छले च बहुवचनं संशये छले च वैविध्यस सिद्धान्ते चातुर्विध्यस्य वच्यमाणत्वात्, अन्यथा नातिनिग्रहस्थानयोबहुवचनं तवापि व्याइन्येत एकवचनस्यैव लक्षणसूत्रे सत्त्वादिति वदन्ति । नव्यास्तु सर्वत्र प्रथमोपस्थित कवचनेनैव विग्रहः, नाव बहुवचनेनैव प्रमाणादीनां बहुत्वं परिछियते किन्द - ग्रिमविभागेन, नोकहित्र धवखदिरादौ धवश्व खदिरच पलाशचेति न विग्टह्यते अतएव प्रयोजनखे कवचनान्तत्वेऽपि तहिभागाकरणेऽपि सुखदुःखाभावतलाधनभेदेन तस्स बहुत्व न विरुध्य तदूति प्राइः । अत्र च निःश्रेयसे सिद्धे पादिवत्त प्राप्तये न प्रयत्नान्तरमपेक्षितमिति प्रतिपादनायाधिगमपदम् । ननु प्रमाणादयः पदार्थाइति शब्दात् प्रथमसूत्रादेव वा तत्वज्ञानं स्वादिति चेच तेमां विशिष्य ज्ञानं हि तत्वज्ञानं तबोद्देशलक्षणपरीक्षा प्रकाशका च्छास्त्रादेव, शास्त्रं हि विशिष्टानुपूर्वी का पञ्चाध्यायी अध्यायस्वाट्रिकसमूहः आङ्गिकन्त तादृश प्रकरणसमूहः, प्रकरणन्त तादृशसूत्रसम्हः सूलन्त ताशवाक्यसमूहः व क्यन्त त दृशपदसमूहदति बदन्ति । अत्र समूहशब्दे नानेकत्व विवक्षितं तेनाध्यायादेरातिकादि. यात्मकत्वेऽपि न चतिः । अव च यद्यपि मोक्षजनकज्ञानविषयत्वेन प्रमेयमेवादौ निरूपयितु मद्य तथापि प्रमाणस्य सकल पदार्थ व्यवस्थापकत्वेन प्राधान्यात्प्रथममुद्देशः । ततोऽवसरतो भुमितप्रमेयस्य ततश्च पदार्थव्यवस्थापनस्यन्यायाधीनतया न्याये निरूपणी येऽभ्यहितयोायपोङ्गयोः संशयप्रयोजनयोः तत्राप्यभ्यहिततया संशयस्य प्रथम नच निर्णीतेऽपि मननविधानात्र संशयस्य न्यायाङ्गत्वमिति वाच्यम् | आहार्यसश्योपगमात् यद्यपि प्रयोजनं न न्यायागमपि तु तज्ज्ञानं तथापि तदेव निरूपणीयं न तु ज्ञाननिरूपणापेक्षेति । परम्त्यायने दृष्टान्नस्य मूलत्वादनन्तरं दृष्टान्नस दृष्टान्नमल को न्यायः सिद्धान्तविषय इत्यतोऽनन्तरं सिद्धान्नस्य,ततश्चावसरतः सिद्धान्नाधीनस्य, पञ्चाक्यवरूपस्य न्यायस्य ततश्चैक कार्य्यतया न्यायसहकारिणतर्कस्य, ततश्च तर्कजन्यतया निर्णयस्य, ततश्च निर्णयानुकूलत्वा
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१८६
न्यायसूत्रत्तौ।
हादस्य, जल्प स्थापि वादकार्यकारित्वादनन्तरं जल्पस्य,ततश्च विजयरूपैककार्यानुकूलतया वितण्डायाः कथात्रयस्थापि दूषणसापेक्षतयानन्तर दूषणेष निरूपणीयेषु वादे देशनीयत्वरूपोत्कर्षवत्त्वा तवदाभासमानत्वाचादौ हेत्वाभासानां, ततश्च हेत्वाभासोपजीवनेन छलस्य, स्वव्याघातकत्वेन अत्यन्तासत्तरत्वात्ततो जातेः कथावसानत्वेनार्थाद नन्तरं निग्रहस्थानानामिति, अत्र च प्रमेयान्तःपातिबुद्धिरूपस्यापि संशयादेर्निरनुयोज्यानुयोगरूपनिग्रहस्थानान्तःपातिनोश्छलजात्योश्च प्रकारभेदेन प्रतिपादनं शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थमस्तु निग्रहस्थानान्तःपातिनां हेत्वाभासानां पृथगभिधान प्रयोजनन्त जानाति भगवानक्षपाद एव । भाष्ये तु वादे देश नीयतया हेत्वाभासानां पृथगुपन्यासइ त्यकम् अत्र वार्तिकं,यदि वादे देशन यत्वात् पृथगभिधानं तदा न्यूनाधिकापसिद्धान्तानां वादे देशनीयत्वात्पथग भि. धानं स्यात्,यदि टथगभिधानाबादे देशनीयत्वं तदा संशयादीनामपि वादे देशनीयत्व स्यात् । तसादान्वीक्षिकीत्रयीवार्तादण्ड नीतिरूपविद्याप्रस्थानभेदज्ञापनार्थ संशयादेर्हेत्वाभासस्य च पृथग्व चनमिति तदप्यमत नियहस्थानान्तर्गतत्वेनैव तनिरूपणेन प्रस्थानभेदसम्भवात् । वयन्तु हेत्वाभासानां न निग्रहस्थानत्व तथा सति सर्वत्र हेत्वाभाससत्त्वात् सर्वस्यैव निग्ट ही तत्त्वापत्तेः । तस्मात् हे स्वाभास प्रयोगो निग्रहस्थानं तद्विभाजकसूत्रस्थहेत्वाभास पदञ्च तत्प्रयोगपर, तत्र च प्रयोगस्य न लक्षणमपेक्षणीय अपि तु हेत्वाभासानामिन्यतउक्त हेत्वाभासाश्च यथोक्काइति चरमसूत्र,न च हेत्वाभासस्यावच्छेदकप्रवेशादेव पृथनिरूपणापेक्षेति वाच्य तथा सति प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भइति वादाद्यवच्छेदकप्रमाणादेरपि पृथ. निरूपणापत्तेरिति युक्तमत्पश्यामः । अत्र केचित् सूत्रादौ मङ्गलाकरणेन मङ्गलं न प्रामाणिकमित्यत्र सूत्रकृतां तात्पर्य वर्णयन्ति, सदसत् कृतस्थाप्यनिबन्धनसम्भवात् विघ्नाभावनिर्णयेनाकरण सम्भवाच्च वयन्त प्रमाणं प्राण निलय इति भगवन्नामगणान्तःपातिप्रमाणशब्दस्योञ्चारणमेव मङ्गल. मिति ब्रूमः, अत्र च उद्देशल क्षणपरीक्षाणां पूर्वपूर्वसापेक्षतया प्रथममुद्देशोऽनन्तरं लक्षणं प्रसङ्गाच्छल परीछेति सोद्देशपदार्थ लक्षणछलपरीक्षा प्रथमाध्यावार्थः तत्र च सपरिकरन्यायलक्षणं प्रथमाणिवार्थः, तत्र
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१ अध्याये १ आह्निकम् ।
१८७
च स योजनाभिधेयप्रतिपादकं प्रथमहितोयसूत्राभ्यामेकं प्रकरणं, ततः प्रमाणलक्षणप्रकरणं ततः प्रमेयलक्षणप्रकरणं ततो न्यायपूर्वाङ्गप्रकरणं ततोन्यायसिद्धान्त प्रकरणं ततोन्य यस्वरूपप्रकरणं ततो न्यायोत्तराग-प्रक. रणमिति प्रथमाजिके सप्तप्रकरणानि । श्रवणादनु पश्चादीक्षा अन्वीक्षा उन्नयनन्ननिर्वाहिका सेयमान्वीक्षिकी न्यायतर्कादिशब्दैरपि व्यवह्वियते तथा च "न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्राणीति,, ऋतिः, पुराण न्यायमीमांसे - त्यादि स्टतिः । मीमांसा न्यायतकच उपाङ्गः परिकीर्तित इति पुरा. णम् । विद्येभ्यस्त्रयों विद्या दण्डनोतिञ्च शाश्वतीम् । प्राचीक्षिकीवात्मविद्यां वा रम्भांश लोकत इति मनुः, नया यस्त ग्यानुसन्धत्ते सधर्म वेदनेतर इत्यादि मोक्षधर्मे तत्रोपनिषदं तात! परिशेषन्त पार्थिव ! । मथामि मनसा तात ! दृष्ट्वा चान्वीक्षिकी परामित्य पनिषदर्थ श्वान्वीक्षिक्यनुसारी पाह्य इत्युक्तमिति ॥ १ ॥
ननु तत्त्वज्ञानस्य न माज्ञादेव निःश्रेयसहेतत्व निःश्रेयसं नावविविध परापरभेदात् तत्रापरं जीवन किलक्षणं तत्त्वज्ञानानन्तर मेव तदप्य वधारितात्मतत्वस्य नैर नयाभ्यासापहृत मियाज्ञानस्य -प्रारब्ध कर्मोपभुञानस्य परन्त क्रमेण, तब क्रमप्रदिपादनापेदं सूत्रमिति दुःखादीनां मध्ये यतुत्तरोत्तरं तेष.मपाये तदनन्तरस्य तत्मविहितस्य पर्व पर्व स्वापायाद पवर्ग: प्रयोजकत्वं प्रये ज्यत्व वा पञ्चम्ट र्थः दण्डाभावा हटाभाव इति वत्स्वरूप सम्बन्धविशेष ए व तत् तदयमर्थः तत्त्वज्ञानेन विरोधितयापहृते मिथ्याज्ञाने कारणाभावाच निहत्ते रागवेषात्म के दोषे तदभावाञ्च प्रहत्तेधर्माधर्मात्मिकाया अत्त्पत्तौ तदभावाच जन्मनोविशिष्टशरीरसम्बन्धस्थाभावे दुःखाभाव द प वर्गः । यद्यपि ज्ञानि. नोऽपि राग दयस्तिष्ठन्ति तथा प्युत्कट रागाद्यभावे तात्मयम् । यद्यपि दोपाणां न धम्मादि जनकत्वं व्यभिचारात्तथापि तत्तद्दषाणां तत्त मर्मादिहेतुत्वादोषाणये धमाद्यपायः वस्तुतोविनापौच्छां गङ्गाजलसंयोगादितो धर्मादिसम्भवाद्यभिचारः तस्मात् मिथ्याज्ञानज वासनै वात्व दोषः, तस्याच मिय्याज्ञाननाथात् तत्कालीनतत्त्वज्ञानजवासमातो वा नाश इत्याशय इत्यपि वदन्ति । यद्यपि दुःखापायाबापवर्गः किन्तु स एव सः तथा
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न्यायसूत्ररत्तौ।
ध्यभेद एव तत्र पञ्चभ्यर्थः, अपवर्गपदं बा तयवहारपरम् अनन्तरपदेन जनान्तरमेव परामध्य त इति तु न व्याख्यानं दुःखपदवैयर्थ्यापत्तेः दुःखानुत्पत्तेवरमदुःखध्वंसप्रयोजकत्व कल्पात इत्याशयेनेदमित्यपि कश्चित् ॥ २॥
इति सूत्रत्तो सप्रयोजनाभिधेयप्रकरणम् ।
अथ यथोद्देश लक्षणस्यापेक्षितत्वात् प्रथमोद्दिष्टप्रमाणं लक्षयति विभजते च । अत्र तहति ततमकारकत्वरूपप्रकर्षविशिष्टज्ञान प्रशब्दविशिष्टेन माधाना प्रत्याय्यते तत्करणत्वं प्रमाणत्वं ज्ञानं चावानुभवा विवक्षितस्तेन स्मृतिकरणे नातिव्याप्तिः लक्षिनानां प्रमाणानां विभाग: प्रत्यक्षानु.. मानोपमानशब्दाति विभागयोद्देश एवान्त भूतत्वादयं विशेषोद्देशः ॥ प्रत्ये कलक्षणन्तु वच्य ते । इति त्रिसूत्री वृत्तिः समाप्ता ॥ ३ ॥
अथ विभक्कानि यथावमं लचयितुमारभते । अत्र प्रतिगतमा प्रत्यक्ष मिति योगादिन्द्रियवाचकत्वात् प्रत्यक्ष शब्दस्य प्रस्तु तत्वाच करणलक्षणस्य प्रमितिलक्षणं यद्ययनुचितं तथापि यत इत्यध्याहारेण प्रत्यक्षप्रमाकरणलक्षणे वाच्चे तदेकदेशप्रनास्वरूपे जाते तत्करणत्वं सुज्ञेय मित्याश्येन वा सङ्गमनीयम् । यात्ममनःसंयोगजन्य सुखादिवारणाय ज्ञानमिति यद्यपि तज्जन्य त्वात् जानमालेऽतिव्याप्तिरीश्वर प्रत्यक्षे चाव्यप्ति तयापि साक्षात्करोमीत्यनु व्यवसायसिसाक्षात्त्व जात्य वच्छिन्ने ज्ञानमित्यन्तए तात्यायें, यहा इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्न मिति सावधारणा इन्द्रियार्थसन्निकर्षातिरिक्तानुत्पन्न अतिरिक्त चात्र ज्ञानं तेन ज्ञाना. करणकमित्यर्थः, भ्रमवार कमव्य भिचारीति भ्रमभिन्नमित्यर्थः, इदचांशिकचमस्याल च्या त्वेन ल च्यत्वे तु नइति त प्रकारकत्व निर्विकल्प कस्य लक्ष्य चे तदभाववति तदप्रकारकत्वमर्थः तस्य विभागः अव्य प्रदेश्य व्य वस य त्म कमिति निर्विकल्प के सर्विकल्पकं चेति विविध प्रत्यक्षमित्यर्थः ॥ ४॥
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१ अध्याये १ किम् ।
٢٤
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अनुमानं लचयति विभजते च । ग्रानन्तर्यबोधकाथशब्दों हेतु हेतुमद्भ । वसङ्गतिस्चनाय तत्पूर्वकं प्रत्यचपूर्वकं प्रत्यचं प्रत्यक्षविशेषो व्याप्यादिविषयकस्ते न व्याप्तिविशिष्टपचधर्मताज्ञानजन्यत्व ं लभ्यते अनुमानम् अनुमिति र्यत इत्यध्याहारेण च करणलक्षणं अथ वा करणलक्षणमेवेदं तत्वानुमानमिति करणल्युटा अनुमिति करणमिति समाख्यात्रलादेव लब्धं, तच्च व्याप्तिज्ञानं प्रत्यवपूर्वक सहचारप्रत्यचपूर्वकं विभजते विविधमिति पर्व कारणं तद्दत् तलिङ्गकं यथा मेघोन्नति - विशेषेण दृष्यनुमानं शेषः कार्यं तलिङ्गकं शेषवत् यथा नदोहया वृष्यनुभानं सामान्यतो दृष्ट कार्यकारणभिन्नलिङ्गकं यथा पृथिवीत्वेन द्रव्यत्वानुमानम् अथ वा पूर्व्वम् अन्वयस्तद्वत् केवलान्वयौत्यर्थः यथा अभिधेयं प्रमेयत्वादित्यादि शेषो व्यतिरेकस्तद्दत् केवल व्यतिरे कीत्यर्थः यथा पृथिवो इतरेभ्योभिद्यते गन्धवत्त्वादित्यादि सामान्यतो दृष्ट अन्वयव्यतिरेकि यथा वह्निमान् धूमादित्यादि ॥ ५ ॥
उपमानं लचयति । प्रसिद्धस्य पर्व्व प्रमितस्य गवादेः साधयत्यात् तज्ज्ञानात् साध्यस्य गवयादिपद वाच्यत्वस्य साधनं सिद्धिरुपमानमुपमितियेत इत्यध्याहारेण च करणलक्षणं अथ वा साध्यसाधनमिति करणल्युटा करणलक्षणमेवेदम् अत्र च वैध स्योपमितिमपि मन्यन्ते टीकाकृतः, यथा च कातिदीर्घग्रीवत्वादि पश्वन्तरवैधर्म्यज्ञानादुष्ट् करभपदवाच्यताग्रहः । एवमन्योऽ घ्युपमानस्य विषयइति भाष्य, तथा मुद्रपर्णीसहथी प्रोषधी विषं हन्नीत्यतिदेशवाक्यार्थे ज्ञाते सुपर्णोसाज्ञाने जाते इयमोषधी विषहरणोत्यपमित्या विषयीक्रियतइत्यादि ॥ ६ ॥
शब्दं लचयति । शब्दद्दति लच्यकथनं तदर्थः प्रमाणशब्द इति आप्तोपदेश इति लचणं प्राप्तः प्रकृतवाक्यार्थयथार्थज्ञानवान् तस्योपदेश इत्यर्थः प्रकृतवाक्यार्थययार्थज्ञानप्रयुक्तः शब्द इति फलितार्थः श्रथ वा प्राप्तो यथार्थ उपदेशः शाब्दबोधोयमात् । शाब्दत्वञ्च जातिविशेषस्तथा च यथार्थशाब्दज्ञानकरणत्वमर्थः । यत्र च विशेष्यावृत्य प्रकारकत्वतइति तत्प्रकारकत्वादिप्रमालच गानामेकं लच्चये परञ्च लक्ष्यतावच्छ ेदके निवेशनीयमतो नाभेदः ॥ ७ ॥
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न्यायसूत्रदृत्तौ ।
विभजते । सप्रमाणशब्दः शब्दतदुपजीवि प्रमाणातिरिक्तप्रमाण गम्याको हeार्थकः शब्दतदुपजीवि प्रमाणमात्र गग्यार्थ कोऽहeार्थकः तथा च
टाकत्वादृष्टार्थकत्वभेदात्प्रमाणब्दस्य हैविध्य मित्यर्थः ॥ ८ ॥
समाप्तं प्रमाणलक्षणप्रकरणम् ॥ २ ॥
प्रमेयं विभजते लचयति च । यत्र तु शब्दः पुनरर्थे तथाचेतेषां पुनः प्रमेयत्वं न तु प्रभा विषयत्वेन संयोगादीनामपि प्रमेयशब्दो हि वादादिशब्दवत् परिभाषाविशेषेण द्वादशसु प्रवर्त्तते तत्र च प्रकृष्ट' मेयं प्रमेय मिति योगार्थ : प्रकर्षय संसारहेतुमिथ्याज्ञान विष यत्व' मोचहेतुधीविषयत्वं वा रूपा च तावदन्यान्यत्वमर्थः जच्चामपि तदेव प्रमेयं किमित्याकाङ्गायामात्मादयो दर्शिता इत्यतो वचनभेदेऽपि नानन्वयः वेदाः प्रमाणमित्यादावप्येवं, अन्यथा श्रात्मसूत्रे विगतिः स्यात्तयः च वच्यते प्रमेयत्व नैक्यमिति प्रतिपादनाय अन्यतमाज्ञानेऽपि नापवर्ग इति प्रतिपादनाय वा प्रमेयमित्येकवचनमित्यन्ये, तञ्चिन्त्यं, अत्रापि व्यात्मा च शरीरञ्च इन्द्रियाणि च अर्थाश्च बुद्धिश्व मनश्च प्रवृत्तिश्च दोषाञ्च प्रेत्यभावश्च फलञ्च दुःखञ्च व्यपवर्गश्चेति यथावचनं विग्रहं वर्णयन्ति त्र पाधान्यात्कारणरूपषटकमभिधाय कार्य्यरूपप्रमेयषट्कमभिहितं तत्व पूर्व पूर्व्वस्य प्रधान्यात् पूर्वपूर्वस्य प्रधान्यात् प्रथममुद्देश इति वदन्ति ॥ ६ ॥
तव प्रथमोहिमात्मानं लचयति । अव चात्मनः प्रत्यचत्वालिङ्गकथनमसङ्गतं न च शरीरातिरिक्तात्मव्युत्पादनार्थं तदितिबाच्यं अग्रिमपरीचावैयर्थ्यापत्तेः लक्षयाकथनेन न्यूनत्वं चेति चेन तलिङ्गपदस्य लक्षणार्थत्वात् न च लिङ्गमित्येकवचनेन मिलितानां लक्षणत्वं प्रतीयते तच्चायुक्त वैयर्थ्यादिति वाच्य किं लक्षणमित्याकाङ्गायामिच्छादीनामभिधानामिलितं लक्षणमिति प्रत्यायकाभावात्, तथा च प्रत्येकमेव लक्षणं अत्र ज्ञानेच्छाप्रयत्नानामात्ममात्रस्य लचणत्व सुखदुःखद्दोषाणां संसारियो लक्षणत्वमिति ॥ १० ॥
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१ अध्याये १ आह्निकम् ।
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क्रमप्राप्तं शरीरं लचयति । अत्र चेष्टादीनां मिलितानां श्राश्रयत्वं न लक्षणं वैयर्थ्यादपि त्वाश्रयपदस्य प्रत्येकमन्वयाचेष्टाश्रयत्वादिलचणत्रये तात्पर्यं चेष्टत्त्वञ्च प्रयत्न जन्यतावच्छेदको जातिविशेषः न च शरीरावयवेऽतिव्याप्तिः अन्त्यावयवित्वेन विशेषणात् न च निक्रिशरीरेऽव्याप्तिस्तादृशे मानाभावात् यतएवाह इन्द्रियाश्रय इति इन्द्रियाश्रयत्वञ्च वच्छ ेदकता ख्य स्वरूप सम्बन्ध विशेषेण चतुष्नान् देवदत्तोऽयमित्यादिप्रतीतेः, अर्थाश्रयत्वमित्यत्वार्धशब्दो न रूपादिपर स्तदाश्रयत्वस्य घटादावतिव्याप्तः किन्तु सुखदुःखान्यतरपरः अतएव भाष्यं यस्मिन्नायतने सुखदुःखयोः प्रतिसम्बेदनं प्रवर्त्तते सएषामाश्रयस्तच्छरीरमिति, वस्तुतस्त्वन्यतराश्रयत्यमपि न लक्षणं, किन्तु सुखाश्चयत्वं दुःखाश्रयत्वञ्चेति लक्षणद्वये तात्पर्यं शरीरस तदाश्रयत्वमवच्छेदकतासम्बन्धेन हस्तादेरलच्यत्वे त्वन्त्यायवित्वेन विशेश पोयं स्वर्गिशरोरे नारकिशरीरे दृच्चादौ च सुखदुःखखीकारान्नाव्याप्तिः, न च तच्छू न्यखण्डशरीरेऽव्याप्तिः सुखाद्याश्रय उत्तिद्रव्यत्वव्याप्यव्य प्यजातिमत्त्वस्य विवचितत्वात् ताजातिश्च मनुष्यत्वचेत्वत्वादिः कल्पभेदेन नरसिंहशरीरणां भेदान्नरसिंहत्वजाति मादाय नरसिंगरीरे लचणसमन्वय इति ॥ ११ ॥
इन्द्रियं विभजते लचयति च । यद्यपि मनसोऽपीन्द्रियत्वमस्त्यत्र तथापि घाणेत्यादेरुपलचणपरत्वान्न दोषः वस्तुतस्त्विन्द्रियाणीत्यस्य बहिरिन्द्रियाणीत्यर्थः तेन भूतेभ्यइत्यस्य नासङ्गतिः अत्र चैतानीन्द्रियाणीति वदता प्राणाद्यन्यान्यत्वं लचणमिति सूचितं प्रत्यचज - नकतावच्छेदकतया इन्द्रियत्वमखण्डोपाधिरूपमित्यन्ये वाणत्वादिकं जातिविशेषरूपं कर्णशष्क ल्यवच्छिन्नं नभः श्रोत्रं प्राणादीनि किं प्रक्क
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तिकानीत्याकाङ्गायामाह भूतेभ्य इति तेनेन्द्रियाणामहङ्कार प्रकृतिकत्वं नेति मन्तव्यं व्युत्पादयिष्यते चेदं तृतीयाध्याये, अब प्राणादीनां चतुणी पृथिव्यादिजन्यत्वं सम्भवति श्रोत्रस्य कर्णशष्क ल्यत्र नाकाशस्य कर्णशष्कुल्याजन्यत्वादेव जन्यत्वव्यपदेशः अथवा अभिन्नानीति पूरयित्वा भूताभिन्नानीति व्याख्येयम् । घ्राणादीत्यस्योपलचणपरत्व तु तेभ्य इति वहिरिन्द्रियपरम् ॥ १२ ॥
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२०२
न्यायसूत्तौ ।
भूतान्येव कानीत्याकाङ्क्षायामाह । आरम्भे परसरानपेचत्ववनायासमासकरणं भूतत्वन्तु बहिरिन्द्रियग्रहण योग्य विशेषगुणवत्त्व पृथि बीत्वादयस्तु जातिविशेषा इति ॥ १३ ॥
क्रमप्राप्तमर्थं विभजते लचयति च । वैशेषिकाणां द्रव्यगुणकर्मस्वर्थ शब्दाभिधेयत्वमतः पञ्चानां गवादीनामेव कथं तपत्यमित्याशङ्कामिरामाय तदर्षा इत्यक्तां तेषामिन्द्रियाणामर्था विषया उद्दिष्टाश्रपि तएवेत्याशयः इत्थञ्च तदर्थत्वं लचणमिति मन्तव्यं तच्छब्देन बहिरिन्द्रियाणि परामृश्यन्ते तथा चैकबहिरिन्द्रियमात्र पाह्यविशेषगुणत्व बहिरिन्द्रियहिरिन्द्रियाया गुणत्वं वा तदर्थः । पृथिव्यादिगुणा इति लच्यनिर्देशस्ते के गुणां इत्याकाङ्गायां गम्बेत्यादि पृथिव्यादीनां गुणा इति षष्ठीसमासो भाष्यादिसम्मतस्तेन गुणगुणिनोरभेदो नेति चितम् ॥ १४ ॥
बद्धिं लक्षयितुमाह । अनर्थान्तरं समानार्थकं न तु सायानामिव बुद्धि वय महत्त्वत्वा परपयस्य परिणामविशेषो ज्ञानं यथा चैतत्तथा बच्यते तथाच बुद्ध्यादिपदवाच्यत्वमनुभव सिद्धज्ञानत्वजातिरेव वा लक्षएमिति भावः ॥ १५ ॥
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मनो वक्ष्यति। युगपत् एककाले एकात्मनीति पूरणीयं ज्ञानानामनुत्पत्ति र्यतः स एव धर्मो ज्ञानकरणाणुत्व मनसोलिङ्ग' लक्षयमित्यर्थः । तथाहि चचुरादिषु विषयसम्वद्ध ष्वपि यस्यासत्त्यभावादेकं न ज्ञानं जनयति यत्सम्व न्वादपरञ्च ज्ञानं जनयति तदेव चाणु निखिलज्ञानजनकं सुखादिसाचात्कारासाधारणकारणं तदेकमेव लाघवात्सिङ्घ मन इत्यर्थः एवमव्याख्याने च लचणप्रकरणे प्रमाणोपन्यासोऽसङ्गतः स्यादिति अन्ये तु सति धर्मिणि लक्षणचिन्तेत्यतोमनःसाधनाय युगपदिति सूत्रं प्रत्यञ्च मनःसिद्धौ निःष्पगुत्वादिकं लक्षणं सुकरमित्याशय इति वदन्ति ॥ १६ ॥
प्रतं लचयति विभजते च । यत्र च प्रवृत्तित्वं रागजन्यताबच्छेदको जातिविशेषः स एव लक्षणं ईश्वरकृतेरपि लच्यत्वे यत्नत्वमेव तथा । जीवनयोनियन निवृत्तौ च मानाभावात् तत्सद्भावेऽपि प्रवृत्तित्वं नित्ययत्नसाधारणं तद्यावृत्तं वा तथा, इन्दानन्तरश्रुता
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१ अध्याय १ आङ्गिकम् ।
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रम्भपदस्य प्रत्येकमन्वयारागारम्भादिभेदेन विविधा प्रवृत्तिः बुद्धिशब्दे नाल मनोऽभिप्रेतमिति शरीरशदश्च चेष्टावत्त्वेन हस्तादिसाधा. रणः तथा च वचनानुकूली यत्नेावागारम्भ : शरीरगोचरो यत्नश्च धानुकूलयनोवा शरीरारम्भः एतद्द्वय भिन्नो यत्नोबु द्यारम्भः स च ध्यानोदया. देव दर्शनाद्यन कूलः पथ्यं वस्यति प्राञ्चस्तु सामान्यविशेषलक्षणे चादृष्ट. जनकत्व' निवेशयन्ति इयञ्च कारणरूपा प्रत्तिः कार्यरूपा तु धर्माधर्मात्मिकेति ॥ १७॥ .
दोघं लक्षयति। दोषा इति बहुवचनं रागद्वेषमोहात्मकलक्ष्यवयज्ञापनाय प्रवर्तना प्रवृत्तिजनकत्वं तदेव लक्षणं येषां यद्यपीदं शरीरादृष्टे श्वरेच्छादावतिव्याप्तं तथापि लौकिक प्रत्यक्षसविषयत्वे सतीति विशेषणीयं यागादिगोचरप्रमावारणाय प्रमान्यत्वे मतीति विशेषयन्ति ॥ १८ ॥
प्रेत्यभावं लक्षयति । प्रेत्य मृत्वा भावो जनन प्रेत्यभावः । तत्र पुनरित्यनेनाभ्यासकथनात् प्रागुत्पत्तिस्ततोमरणं तत उत्पत्तिरिति प्रेत्यभावोऽयमनादिरपवर्गान्तः एतज्ज्ञानञ्च वैराग्य उपयुज्यते इति प्रति न व्यर्थं तदीयमरणञ्च तदीयजीवनादृष्टनाशस्तदीयश्वरम माणसंयोगध्वंससदीयप्राणध्वंसो वा तदीयोत्पत्तिस्तु तदीयविजातीयशरीराद्यप्राणसंयोग इति || १६॥
फलं लक्षयति । अत्र च मुख्यं कालं सुखदुःखोपभोगः तथाच भाष्यं सुखदुःखसंवेदनं फलं, तत्र च धर्माधर्मात्मकप्रत्तेः प्रयोजकत्वात्तत्र च दोषस्य हेतुत्वात् प्रवृत्तिदोषजतितेत्य तं लक्षणन्त सुखदुःखान्यतरसाक्षात्कार इति गौणं फलन्त शरीरादिकं सर्वमेव तथा च भाष्य तत्पुनः हेन्द्रियब द्धिषु सतीष भवतीति सह देहेन्द्रियादिभिः फलमभिप्रेतं तथाहि प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलमेतत्सर्वे भवतीति इत्यञ्च जन्यत्वमेव फलत्व प्रत्तिदोषजनित इति तु निर्वेदोपयोगादनम् ॥ २० ॥ ___ दुःखं लक्षात। बाधना पीड़ा तदेव लक्षणं स्वरूमं यस्य तथाचानुभवसिङ्घदुःखत्वजातिरेव लक्षणं शरीरेन्द्रियार्थेषु दुःखसाधनत्वात्म खे च
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न्यायसूत्ररत्तौ।
दुःखानुषङ्गात् दुःखव्यवहारो गौण दूति अतएवाग्रिमसूत्रे तत्मदेन मुख्य दुःखपरामर्शः ॥ २१ ॥
अपवर्ग लक्षति । तस्य दुःखस्य अत्यन्त विमोक्षः वसमानाधिकरणदुःखासमानकालीनो ध्वसः तस्य च जन्मापायादेव सम्भव इन्याशयेन दुःखेन जन्मनात्यन्त विमुक्तिरपवर्ग इति भाष्य दुःखेन दुःखानुसङ्गिग त्यर्थः ॥१३॥
समाप्त प्रमेयलक्षण प्रकरणम् ॥
क्रमप्राप्तं संशयं लक्षयति | संशय इति लच्यनिर्देश: विमर्श इत्यत्र विशब्दोविरोधार्थः मृशिर्जानार्थः एकस्मिन् धर्मिणीति पूरणीयं तेन एकर्मिणि विरोधेन भावाभावप्रकारकं ज्ञानं संशयः तत्र कारणमुखेन विशेषलक्षणान्याह समानेत्यादि उपपत्तिर्ज्ञानं तथाच समानस्य विरुद्धवकोटिहयसाधारणधर्मस्य ज्ञानादित्यर्थः अनेकधर्मः असाधारणधर्मः तजजानादित्यर्थः तथा व साधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्याऽसाधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यश्चेत्यर्थः, विप्रतिपत्तिविरुइकोटियोपस्यापकः शब्दस्तस्मादि. त्यर्थः यद्यपि शब्दस्य न संशायकत्वं तथापि शब्दात्कोटियोपस्थितौ मा. नमः संशय इति वदन्ति उपलब्धेचीनस्य अनुपलब्र्व्यतिरेकज्ञानस्य याsव्यवस्था सहिषयकत्वानिर्धारणं प्रामाण्य संशय इति फलितोऽर्थः, अन्ये तु उपलब्धयव्यबस्थाप्रामाण्यसंशयः अनुपलब्धि रुपलब्धिविरोधिधमत्वं तदव्यवस्था तत्संशय इत्याहुः । वस्तुतस्तु प्रामाण्यसंशयस्य न संशय हेतुत्व किं त्वग्टहीताप्रामाण्य कज्ञानस्य विरोधितया सति प्रामाण्यसंशये तज्ज्ञानस्थाविरोधितया साधारणधर्मदर्शनादित एव संशयोत्पत्तिरिति उपलब्धीत्यादिकं तादृशस्थले संशयोभवतीत्येतावन्मानपरं चकारोव्याप्यसंशयस्य व्यापकसंशयहेतृत्व समुच्चीनोतीति वदन्ति, विशेषापेक्षः कोटि. स्मरणसापेछः वस्तुतस्तु संशयधारावाहिकत्वं स्थादत प्राह विशेषेति विशेषं विशेषदर्शनं अपेक्षते निवर्तकत्वेन तथाच विशेषदर्शननिवर्त्य त्वकथनमुखेन विशेषादर्शनजन्य संशय इत्युक्तम् ॥ २३ ॥
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१ अध्याय १ पाह्निकम्।
२०५ क्रमप्राप्त प्रयोजनं लक्षयति । अधिक्षन्य उद्दिश्य तथाच प्रवृत्तित्विच्छाविषयत्व प्रयोजनत्व विषयत्व साध्यताख्य विषयताविशेषः तेन ज्ञानसुखवादिवारणं प्रवृत्तिहेविति खरूपकथनं वक्षकचूडामणि सुमेर्वादिमाप्ति वारकं तदिति केचित् अत्र निरुपाधीच्छाविषयत्वात् सुखदुःखाभा. वयोमुख्य प्रयोजनत्यं तदुपायस्य तु तदिच्छाधीनेच्छाविषयत्वाहौण प्रयो. जनत्वमिति ॥२४॥ ___ क्रमप्राप्त दृष्टान्तं लक्ष यति। लौकिकोऽप्राप्तशास्त्र परिशीलनजन्यबुद्धिप्रकर्षः प्रतिपाद्य इति फलितोऽर्थः परीक्षकः शास्त्रपरिशीलनप्राप्तबुद्धिप्रकर्षः प्रतिपादक इति फलितार्थः तथाच प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरिति पर्यवसनं बहुवचन कथाबद्धत्वमभिप्रेत्य बुद्ध साध्यसाधनोभविविण्यास्तदभावविषयिण्या वा साम्यं अविरोधो यस्मिन्नर्थे सोऽर्थोदृष्टान्तः वादिप्रतिवादिनोः साध्यसाधनोभयप्रकारकतदभावदयप्रकारकाचतरनिश्चयविषयोदृष्टान्त इति पर्यवसितोऽर्थः । समाप्त न्यायपूर्वीत. সহ্মঘ। ২৪।
क्रमप्राप्त सिद्धान्तं समयति । तन्त्र शास्त्रं तदेवाधिकरणं ज्ञापकतया यस्य ताइशस्य योऽभ्युपगमस्तस्य समीचीनतयाऽसंशयरूपतया स्थितिस्तथाच गास्तितार्थनिश्चयः सिवान्नः अत्र चाभ्युपगम्यमानोऽर्थ: सिछान्न इति भाष्यम् अभ्य पगमः सिद्धान्त इति वार्तिकटीका,नचालविरोधः स्याङ्कनीयः प्राचार्यः परिहृतत्वाम् तथाच त्रिसूत्रीनिबन्धः अर्थाभ्यु पगमयोप्पप्रधानभावस्य विवक्षा तन्त्रत्वादाभ्य पगमोऽभ्य पगम्यमानोवार्थ: सिद्धान्तस्तेन सूत्रभाष्यवार्तिकटीकास न विरोधः अत्र च भाष्यानुसारात्मवतन्त्र प्रतितप्राधिकरणाभ्युपगम सिद्धान्नान्य तमः सिद्धान्त इति सूत्रार्थ इति तु न युक्त अयिमसूवाहत्यानापत्तेः तम्वसिद्धान्नत्वेन इयमनुगमय्य तन्वाधिकरणाभ्यु पगमान्यतमः सिद्धान्त इति कश्चित् ॥ १६ ॥
विभजते । स चतुर्विध इति शेषः सर्वतवादिसंस्थिती नामर्थान्तरभावात् भेदादित्यर्थः ॥ २७ ॥
मर्वतन्त्र सिद्धान्त लक्षयति । सर्वतन्त्राविरुद्धः सर्वशास्वाभ्य पगत इति बहवः वस्तुनो यथावत एवार्थः अन्य या तन्त्रेऽधिकत इत्यस्य वैयऱ्यांपत्तेरत
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२०६
न्यायसूत्रसौ।
एव च जाला देरसत्तरत्वमपि सर्वतन्त्र सिद्धान्तः न च तन्त्रेऽधिकृत इति स्पष्टार्थ लक्षणे तु न देयमेवेति वाच्य मनस इन्द्रियत्व स्थापि सर्व तन्त्रसिद्वान्नतापत्तेः नव्यास्तु सूत्रस्योपल क्षणमात्रत्वादादिप्रतिवाद्युभयाम्य पगतः कथ नु कूलोऽर्थः स इति वदन्ति ॥ १८ ॥ __ प्रतितन्त्र सिद्धान्न लक्षयति । समानशब्द एकार्थ स्ते नै कतन्त्रसिद्ध दूत्यर्थः स्वतन्त्रसिद्धति पर्यवसितोऽर्थः तथा च वादिप्रतिवाद्येकतरमालाभ्य पगतस्तदेक तरस्य प्रतितन्त्रसिट्वान्त इति फलितार्थः यथा मीमांसकानां शब्दनित्यत्वम् ॥ २६ ॥
अधिकरणसिद्धान्त लक्षयति ॥ यथार्थस्य सिद्धौ जायमानायामेवान्यस्य प्रकरणस्य प्रस्तुतस्य सिद्धिर्भवति सोऽधिकरण सिद्धान्त इत्यर्थः यथा ताणु कादिकं पत्नीकत्येोपादान गोचरापाज्ञज्ञानचिकीर्षाकतिमज्जन्य त्वे माध्यमाने सर्वन त्वमोशस्य एवं हेतुबलादपि यथा दर्शनस्पर्श नाभ्यामेकार्थग्रहणादिन्द्रियादिव्यतिरिक्त आत्मनि साधिते इन्द्रियनानात्व तथा च यदर्थ सिद्धिं विना योऽर्थः शब्दादनुमानाद्दा न सिध्यति मोऽधिकरणसि. द्यान्न इति, वस्तुतस्तु शब्द त्वभनुमान त्वं चाविवक्षितं प्रमाणमात्रमपेक्षित अतएव प्रत्यक्षेण स्थलत्वसाधनानन्तरमुक्तमात्मतत्त्वविवेके सोऽयमधिकरण सिद्धान्तन्यायेन स्थूलत्वसिद्धौ क्षणभङ्गभङ्ग इति तत्र च व क्यासिढौ तदनुषङ्गी यो यः सोऽधिकरणसिद्धान्त इति वार्तिक फकिका लिखित्वा येन केनापि प्रमाणे न वाक्य थे सिद्धौ जन्यमानायां योऽन्यार्थः सिध्यति स तथेत्यर्थः, इति व्याख्यातं, दीधितिकता, एवं हेतरीदृशः पक्षश्च वाक्यार्थ इति टोकावचने च उपलक्षणमेदियुक्त तत्र तत्र विशिष्यैव लक्षणं कायं यत्त जनकीभूतव्यापक ताज्ञाने व्यापक कोटावेव विषयः प्रकतानुमित्या व्यापक कोटौ विषयी कृतः शाब्दजनकपदार्थज्ञानविषयत्वे सति शाब्दविषयश्चेति इयमधिकरणसिद्धान्त इति तन्त्र इन्द्रियनान त्वादौ भाष्याद्युदाहृतेऽव्याप्ते रिति ॥ ३० ॥ .. अभ्यु पगमसिद्धान्न लक्षयति। अपरीक्षितस्य साक्षादसूत्रितस्य विशेषपरीक्षण विशेषधर्मकथनं व्यस्य पगलादिति ज्ञापकत्वे पञ्चमी अभ्य - पगमज्ञापकमित्यर्थः विशेष परोक्षणाज ज्ञायते सूतकतोऽभ्युपगतमिद
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१ अध्याये १ आह्निकम् ।
२०७
मिति तथा च साक्षादसूलिताम्य पगमोऽभ्य पगमसिहान्नः यथा मनसइन्द्रियत्वमिति ॥ ३१॥ समाप्त न्यायाश्रयसिङ्गान्न लक्षण प्रकरणम् ॥ ५ ॥
क्रमप्राप्तानवयवाहक्षयितु विभजते। अनेन विभागेन प्रतिज्ञाद्य न्यतमत्वमवयवत्वमिति लक्षणं सूचितं, अत्र च प्रतिज्ञादीनां पञ्चानामवय. वत्वकथनाद्दशावयववादो व्यु दस्त इति मन्तव्यं, ते च यथा दर्शिता भाष्य जिज्ञासासंशयः शक्यप्राप्तिः.मयोजन मंशयव्य दासवेति एते प्रतिज्ञादिसहिता दश व्याख्याताच ते तात्पर्यटोकायां प्रयोजनं हानादिबुद्धयः तत्प्रवर्तिका जिज्ञासा तज्जनकः संशयः शक्यप्राप्रिः प्रमाणानां ज्ञानजननसामर्थं संशयव्युदासतर्कः अयमेवार्थोनिबन्धे निष्टतः जिज्ञासा विप्रतिपत्तिरिति कचित् एतेषाञ्च न ध यावयवत्व न्य याघट त्वात् नच न्यायजन्य बोधानुकूलत्वेनै यादयवत्वं एक देशस्थापि तत्त्व रसङ्गात् प्रयोनने व्याप्ने श्च ॥ ३३॥ ___ प्रतिज्ञा लक्षयति । माधनीयस्वार्थ स्व योनिर्देशः स प्रशिक्षा साध - नीयच वनिमत्त्वादिना पर्वतादिस्त था च पक्षताव छेदकविशिष्ट पच्छे साध्यतावछेदकविशिष्ट वैशियबोधक शब्द इत्यर्थः निगमनवारणाय च साध्यांश साध्यतावच्छेदकातिरिकप्रकारकत्व वाच्यं तदर्थश्वसाध्यतावच्छेदकमकारतादिलक्षण प्रकारताशून्यत्वं तेन प्रमेयवतः माध्यत्वे नासिद्धिः उ. दामीनवाक्यवारणाय च न्यायान्नर्गतत्वे सत्तीति विशेषणीयम्, न्यायान्तमतत्व मति प्रकृतपक्ष बच्छेद भावच्छिन्न पक्षकप्रकृतसाध्यतावच्छेदकावछिनमाध्यविषयताविलक्षणविषयताकबोधाजनकत्वे सति प्रकृतपक्षे प्रकृतमाध्यघोषजनकत्वं तत्प्रतिज्ञात्वावयवत्वादिकं परिभाषाविशेषविषयत्वरूप तत्तद्यनित्वरूपं चेत्यपि वदन्ति ॥२३॥
क्रमप्राप्त हेतुं लक्षयति घिभजते च सूत्राभ्याम् । अत्र साध्यसाधनं हेरिति सामान्य लक्षणं माध्यसाधनं साध्यासानुकूलतापकत्वबोधक इत्यर्थः तथा च साध्यतावच्छेद कावच्छिन्नसाध्यान्वितज्ञापकत्वबोधकः साध्या वितखार्थबोधकोवाऽवयव इति फलितार्थः तस्य वैविध्यमाइ उदाहरणसाधर्म्यात्तथा वैधादिति साधर्म्यमन्वयः वैधर्म्य व्यतिरेकः तादृशव्याप्तिरिति फलितार्थः उदाहरणसावयं उदाहरणबोध्य.न्वयव्याप्तिस्ततोऽन्वयी
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न्यायसूत्रहत्तौ।
हेतु तव्यउदाहरणेति स्पष्टार्थ तथा च ज्ञावान्वयव्याप्तिकहे तुबोधकों हेत्ववयवः अज्ञातव्यतिरेकव्याप्तिकहेतुबोध कोहेत्यवयव इति फलितार्थः एवमप्रतीतान्त्रय व्याप्तिकहे तबोधको हेत्ववयवो व्यतिरेकी हेतुः इत्यमेव प्रतोतान्वयव्य तिरेकव्याप्तिकहेतुबोधको हेत्ववयवोऽन्वयव्यतिरेकीत्यपि सूचितमिति वदन्ति ॥ ३४,३५ ॥
क्रमप्राप्तसुदाहरणं लक्षयति | घटान्नउदाहरणमिति लक्षणं दृष्टान्तो दृष्टान्नवचनं दृष्टान्तकथनयोग्यावयवइत्यर्थः तेन दृष्टान्तस्य सामयिकत्वेनासार्वत्रिकत्वेऽपि न क्षति योग्यतावच्छ दकन्तु अवयवान्न रार्थानन्वितार्थकावयवत्वं ; तच्च विविधं अन्वयिव्य तिरेकिभेदात्त वाग्वयंदाहरणं लक्षति साध्यसाधात्तसम्ममावीति अन्वय्य दाहरणमिति शेषः परे तु सम्पूर्ण मूवमन्वय दाहरणमेव सामान्यलक्षणं बह्यमित्याहुः, साध्यसाधामाध्यसहचरितधर्मात् प्रकृतसाधनादित्यर्थः तं माध्यरूम धर्म मावति तथा च साधनवत्ताप्रयुकसाध्यवत्तानुभावकोऽवयवः साध्यसाधनव्यानुप्रपदर्शको. दाहरणमिति यावत् ॥ ३६॥ ____ व्यतिरेक्युदाहरणं लक्षयति । तहिपर्थयात् साध्यसाधनध्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनात्तथा च साध्यसाधनव्यतिरेकव्याप्तपदर्शकोदाहरणं व्यतिरेक्युदाहरणं यथा जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्यात् यचैवं तत्रैव यथा घट इति वाकारः प्रयोगममेच्य तथा चान्त्रव्युदाहरणं व्यतिरेक्युदाहरणं वा प्रयोक्तव्यमित्यर्थः ॥ ३७ ॥
क्रमप्राप्तमुपनयं लक्षति। साध्यस्य पक्षस्य उदाहरणापेक्षउदाहरणानुसारी य उपसंहार उपन्यासः प्रकृतोदाहरणोपदशितव्याप्तिविशिष्ट हेतविशिष्ट पक्षविषयकबोधजनको न्यायावयवर्त्यर्थः निगमनं हेतविशिष्टत्वेन न पक्षबोधकं किन्तु पत्ति हेतुबोधकमिति ताटासः प्रस्न चान्वयव्यतिरेकव्याप्तयोरन्यतरत्वादिनानुगमः कार्य उदाहरणो. पदर्शिते ति तु परिचायकमात्रमिति तु न बाच्चं उदाहरणविपरीतव्या. मुपदर्श कोपनयवारकत्वात् वस्तु तोऽवयवपदेनैव तयुदासः सचोपन यो हिविधोऽन्य यिव्यतिरेकिभेदात् तथेति साध्यस्योपसंहारोऽन्वय पनयः न तथेति साध्यखो पसंहारो व्य तिरेक्यु पनयः अत्र च तथाशब्दप्रयोगावश्यक
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१ अध्याये १ आह्निकम्।
२६
वन तात्पर्य किन्तु व्याप्रिविशिष्ट व त्वबोधे तथा च वङ्गिव्याय धूमवांचा. यमिति वा तथा चायमिति बोपन्यास एवं व्यतिरेकिण्यपि वयभावव्यापकीभताभावप्रतियोगिधूमवांश्चायमिति वा न तथेति वोपन्यासः॥३८॥
निगमनं लक्षयति। हे तोर्व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मस्य अपदेशः कथनं प्रतिक्षायाः प्रतिज्ञार्थस्य साध्यविशिष्ट पक्षस्य वचनं निगमन तथा च व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्म हेतकथनपूर्व कसाध्यविशिष्ट पक्ष प्रदर्शकः व्याप्त पक्षधर्म हेवज्ञाप्यसाध्यविशिष्ट पक्ष बोधकस्तायसाध्यबोधको वा न्यायावयको निगमन मिति अस्य त्वयिव्यतिरेकिभेदान भेदह त्याशयः व्यतिरेकिणि तु तसाव तथेत्येवाकारइत्यपरे ॥ ३८ ॥ समाप्तं न्यायस्वरूप प्रकरणम् ॥६॥
क्रमप्राप्त तक लशयति । तर्क इति लक्ष्य निर्देशः कारणोपपत्तित जह इति लक्षणं अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे तत्वज्ञानार्थ मिति प्रयोजनकथनं कारणं व्याथ तखोपपत्तिरारोपस्तस्मात् अारोपः अर्थाद्यापकस्य तथाच व्यापकाभावः त्वेन नि ते व्याप्यस्याहार्यारोपाद्यो व्यापकस्याहाारोपः स बर्क यथा निर्बहिषारोपाविधूंमत्वारोपः निर्बङ्गिः स्यात्रिधूमः स्यादित्यादि हदोनिङ्गिः सान्निधूमः स्थादित्यादिवारणाय व्यापकामावर पेन निर्गात इति निर्वणिः स्यात् बद्रव्यं स्थादित्यादिकारणाय व्याप्यस्येति तद्याप्यारोपाधीनस्तदारोपइत्यर्थलाभाय व्याप केति न चानुमानादितोऽमि वेस्तोव्यर्थ इति वाच्य अप्रयोजकत्वादिशङ्काकलङ्कितेन हेवनार्थस्य साधयितुमशक्यत्वा तदेतदुक्तमविचारतत्त्वेऽर्थे तत्त्वज्ञानार्थमिति तत्त्वनिर्णयार्थमित्यर्थः यल नाप्रयोजक त्वाद्याशङ्का तत्र नारेक्षएवेति: भावः । परे तु अह इत्येव लक्षणं जहत्वञ्च मानमत्वव्याथोजातिविशेषस्त कयामोत्यनुभवसिद्धः तर्कः किं खतएव निर्णायकः परम्परया बेत्यताह कारणेति कारणस्य व्याप्तिज्ञानादे रूपपादनहारेत्यर्थः तथा च धूमो यदि वन्तिव्यभिचारी सात् वहिजन्यो न स्थादित्य नेन व्यभिचारशङ्कानिरासे निरगुन व्याप्तिज्ञानेनानुमितिरिति परम्परयेवास्योपयोगत्या हुः स चायं पञ्चविधः अात्माश्रयान्योन्याश्रयचक्रका.. नवस्थातदन्यबाधितार्थप्रसङ्गभेदात् खथ खापेक्षित्वेऽनिष्ट प्रसङ्गात्माश्रयः सच उत्पत्ति स्थितिज्ञप्तिहारा वेधा यथा यद्ययं घटए तहटजन्यः स्यात.
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२१०
न्यायसूत्रत्तौ।
दैतहटानधिकरनक्षणोत्तरवत्ती न स्यात् यद्ययं घट एतहटत्तिः स्यात् एतहटव्याप्यो न स्यात् यद्ययं घटएतहटज्ञानाभिन्नः स्यात् ज्ञानसामग्रीजन्यः स्यात् एतहट भिन्नः स्यादिति वा सर्वलापाद्यं तद पेच्यापेक्षित्व. निबन्धनोऽनिष्ट प्रसङ्गोऽन्योन्याश्रयः सोऽपि पूर्व पत्रेधा तदपेच्यामेच्यपे । क्षित्वनिबन्धनोऽनिष्ट प्रसङ्गचक्रक चतुः कक्षादावपि स्वस्य स्वापेक्ष्यापच्येपेक्षित्वसत्त्व ब्राधिक्यं अस्यापि पूर्ववत्वैविध्य अव्यवस्थितपरम्परारोपा. धीनानिष्ट प्रसङ्गोऽनवस्था यथा यदि घटत्वं घटजन्यत्वव्याप्यं स्यात्कपालसमवेतत्व व्याप्य न स्यात् तदन्यबाधितार्थ प्रसङ्ग स्तु धूमो यदि वङ्गिव्य मिचारी स्थाङ्गिजन्यो न स्यादित्यादिः प्रथमोपस्थितत्वोत्सर्गविनिगमना- . विरहलाघवगौरवादिकन्तु प्रसङ्गानात्मकत्वात् न तर्कः किन्तु प्रमाणम्. हकारित्वरूपसाधात्तथा व्यवहार इति संक्षेपः ॥ ४० ॥ ___ क्रमप्राप्तं निर्णय लक्षयत। विमृश्य सन्दि ह्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यां साधनोपालम्भाभ्यां उपालम्भः परपक्षदूषणं अर्थस्वावधारणं तदभावाप्रकारकं तत्प्रकारकं ज्ञानं यद्यप्येतावदेव निर्णयसामान्य लक्षणं तथापि विस्ध्ये त्यादिकं जल्पवितण्ड स्थलीयनिर्णयमधिकृत्य तटुन भाष्ये शास्त्र वादे च विमर्श वर्जमिति एवं प्रत्यक्ष तः शब्दाचनिर्णये न विमर्शपक्षपतिपच्चापेक्षेति ॥ ४० ॥ 'समाप्त न्यायोत्तराङ्गप्रकरणम् ॥ ७ ॥
• इति श्रीविश्वनाथभट्टाचार्यकतायां न्यायसूत्रत्तौ प्रथमाध्यायस्य प्रथममाणिकम् ॥ १ ॥
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२ अध्याय २ श्रानिकम् ।
प्रथमाङ्गिोन सपरिकरे न्याये लक्षिते वादादिलक्षणीय हितोयागिकारम्भः छलपरीक्षा च प्रसङ्गाद्भविष्यति तथा च छलपरीक्षासहित. बादादिलक्षणं द्वितीयाङ्गिकार्थः तत्र चावरि प्रकरणानि प्रादौ व.थाप्रकरणं ततो हेत्वाभासप्रकरणं छलप्रकरणं दोपलक्षण प्रकरण चेति अत्र कथासामान्यस्थायं विशेषो वादादिस्तथा च विभिः सूबरेकं कथा प्रकरणं अन्य य कसूत्वस्य प्रकरणभावाभावादसङ्गतिः स्थादित्याशयेनो भाष्यकता तिस्रः न कथा भवन्ति वादो जल्पो वितण्डा चेति तत्र तत्त्वनिर्णयविजयान्यतरखरूपयोग्योन्यायानुगतवचनसन्दर्भः कथा लौकिकविवादवारगाय न्यायेत्यादि, यत्न केन न्यायः प्रयुक्तोऽपरेण तु मतपरिग्रहोऽपि न कृतस्तहारणाय आद्यं विशेषणमिति कथाधिकारिणस्तु तत्त्वनिर्णयविजयान्यतराभिलाषिणः सर्वजनसिहानुभवान पलापिनः श्रवणादिपटवः अकलहकारिणः कथोपथिकव्यापाररूमा इति ।
तत्र वादं लक्षति । अत्र च वाद इति लच्यनिर्देशः पक्ष प्रतिपक्षी विप्रतिपत्तिकोटी तयोः परिग्रहस्तसाधनोद्देश्य कोक्ति प्रत्यक्तिरूपवचनसन्दर्भः तावनात्रञ्च कथान्तरसाधारणमताह प्रमाणेत्यादि प्रमाणतर्काम्या सद्रूपेण ज्ञाताभ्यां साधनोपालम्भौ यत्र स तथा उभयत्रापि प्रमाणादिसद्भावे कोटि दयस्यापि सिद्धिः स्यादतनद्रपेण ज्ञाताभ्यामिति ज्ञानमनाहार्य विवक्षितं उपालम्भो दूषणं जल्पादौ तु प्रमाणाभासत्वादिमा ज्ञाताभ्यामपि साधनोपालम्मौ भवत इति तदारणं तथा दूतरथा तु तद्धेतो रेव दृष्ट त्वं इत्यञ्च प्रमाणाभास त्वमकारकज्ञानविषयकरणकसाधनोपालमयोग्यान्यत्वे सतीत्यर्थ स्तेन तादृशजल्पविशेष नातिव्याप्तिः तत्व च नियहस्थानविशेष नियमार्थ सिद्धान्ने त्यादिविशेषण इयं अन्ये तु तदपि लक्षपघट कमेव तदर्थश्च तापमान निग्रहस्थामयोग्यत्व तावदतिरिक्त निग्रह स्थानोपन्यास योग्य त्व' वा निग्रहस्थानं प्रतिज्ञाहान्य दीनामेकैकं धृत्वा तदुपन्या सायोग्य त्वमिति निष्कर्षः तेनोल जल्प विशेषवारणमित्याहुः सिवानाविरुवइत्यनेनाप सिद्धान्तोद्भावनं पञ्चावयवोपपन्न इत्यनेन न्यनाधिकोद्भावने अवयवाभासस्य दृष्टान्नारियादेवोद्भावनं प्रमाणे त्यनेन च प्रमाए भासत्वेन हेत्वाभासानां तांभारुख चोपन्यासो नियम्यते तथा
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६१२
न्यायसूत्ररत्तौ।
चाव हेत्वाभासन्यू नाधिकापसिद्धान्त रूपनिपहस्थान चतुष्टयोद्भावन मिति वदन्ति वस्तुतस्तु वादस्य वीतरागकथा त्वेन तत्त्व निर्ण यस्योद्देश्य तया पुरुषदोषस्याविज्ञानार्थादेरित न्यूनाधिकयोरपि नोगाव नमुचितमतएव पञ्चावयवावस्यकत्वमपि भाष्यकारों नानु मेने हेत्वाभासाद्यद्भावनेनापिच तदैव कथाविच्छ दो यदि हेत्वन्तरेणापि साधयितुं न शक्यते इतरथा तु तवेतोरेव दुष्ट त्वं इत्यञ्च पञ्चावयवोपपत्र इति प्रायिकत्वाभिप्रायेणेवि तत्त्ववादाधिकारिणस्तु तत्व त्रुभुत्सवः प्रकृतोक्ति काः अविप्रलम्भकाः यथाकाल स्फूर्ति का अनाचे पका युक्तिसिद्धमत्ये तारः अनुविधेयस्येयः सन्यपुरुषवती जनता सभा अनुविधेयो राजादिः स्पेयान् मध्यस्थः साच काहे नावश्यकी वीतरागव.थात्वादिति ॥ ४२ ॥
जल्य लक्षयति । यथोक्लेषु यदुपपन्नं तेनोपपनइत्यर्थः मध्य पदलोपी समासः तथा च प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः पक्षप्रतिपक्षपरियह इत्यस्य योग्यतया परामर्शः अन्यथा जल्पस्य वादविशेषत्वापत्तिः प्रमाणतर्काभ्यां तद्रूपेण ज्ञाताभ्यां न तु ज्ञानेऽनाहार्यत्वं विवक्षितं यारोपितप्रमाणाभावेना भासेऽपि जल्पनिर्वाहात् यद्यपि छलादिभिरुपालभएव न तु साधनं तथ पि साधनस्य परकीयानुमानसोपालम्भो यवेत्यर्थान्न दोषः परपक्षदूषणे सति स्वपक्षसिद्धिरित्यतः साधने तदुपयोग इत्यन्ये उभयपक्षस्थापना वन च विशेषणीयमतो वितण्डायानातिव्याप्तिः सप्रतिपक्षस्थापना होनइ त्यत्तरसूत्रात्मकते उभयपक्ष स्थापनावत्व बामः स्थापनावत्वादेवच पञ्चावयव. नियमोऽपि लभ्यत इति वदन्नि अन च छत्लादिभिः सबै रुपालम्भो न वि. शेषणाय व्याप्तिरपि तु तद्योग्यतयैव योग्यताक्छेदकन्तु बादभिन्न कथात्वमेव तत्र चोक्तवादत्वावछिन्नभेदस्तत्तद्वादभेदो वा विशेषणमिति छलेत्यादिना विजिगीषकथात्वं बोध्यते विजिगीषहि छलादिकं करोति तथाचोभय. पक्ष स्थापनावती विजिगीषुकथा जल्प इत्यर्थः इत्यपि वदन्ति अब चायं क्रमः वादिना स्वपक्षसाधनं प्रयुज्य नायं हेत्वाभासस्तल्लक्षणायोगादिति सामान्यतो नायमसिद्ध इत्यादि विशेषतो वा प्रतिवादिना स्वस्थाज्ञानादिनिरासाय परोक्त सम्भवादेव लाभे उच्चमानग्राह्याणासमालकालार्थान्तरनिरर्थ कानामलाभे उक्तग्राह्याणां प्रतिज्ञाहानि
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१ अध्याये १ आह्निकम् । प्रातिशान्तर प्रतिज्ञा विरोध प्रतिज्ञासन्यामहेत्वन्नराविज्ञातार्थविक्षे. पमतानुज्ञान्यूनाधिक पुनरुननिरनुयोज्यानुयोगापसिद्धान्तानामलाभे पर्यनुयोज्योपेक्षणस्य मस्यौद्भाव्यत्वादेवानु पन्यासाहतया यथा सम्भव हेत्वाभासेन परोक दूषयित्वा खपक्षउपन्यसनीयः ततो वादिना द्वतीयकक्षाश्रितेन परोक्कमनद्य खपशदूषणमुङ्ग, त्यानुक्तियाह्योच्य. मानयााहेत्वाभासातिरिकन पाह्याणामलाभे हे त्याभासेन यथा सम्भव प्रतिपक्षवादिनः स्थापना दूषणीया अन्यथा क्रमविपर्यासेऽप्राप्तकलं अनवसरे दूषणोद्भारने च निरन्योन्यातयोगः यथा त्यच्य सि चेत् प्रतिमाहानिर्विशेषयसि चेदेवन्तरपित्यादि प्रतिज्ञाहान्या दिववेत्वाभा. मानासन पाद्यत्वाविशेषेऽपि अर्थदोषत्वेनाप्रधानत्वाञ्चरमसन्धानमिति ॥ ४ ॥
वितण्डां क्रमेमाता लक्षयति । यद्यपि तच्छब्देन जल्यो न परा. मष्टुं शक्यते जल्पस्य स्थापना इयवतः प्रतिपक्षस्थापनाहीन त्वस्य विरुद्धत्वात् तथापि स्थापनाइयवत्व विहाय जल्लैकदेशः परामश्यते प्रतिपक्षोद्वितीय पशस्तथा च प्रतिपक्ष स्थापनाहीना विजिगीषकथा वितण्डेति न च स्वस्थ स्थापनीयाभावात् कथमियं कथा प्रवर्स सामिति बाच्थं परपक्षखण्डमेन जयस्यैवोहे ग्यत्वात् परे त यत्परपक्षमण्डनेनैव वपक्षसिवेरर्थादेव सिद्धिनत्याधनाभावेऽपि न प्रत्त्यनुपपत्तिरिति वदन्ति || ४४ ॥ समाप्तं कमा प्रकरणम् । ___क्रमप्राप्तान हेत्वाभासांलक्षति विभजते च। नचाल लक्षणं न प्रतोयत इति वाच्य हेत्वाभासयब्दस्य हेतवदाभा:समानार्थ कन्वेनैव तत्सूचनास् सूचनादि सूत्र तथा हि पक्षरुत्व सपक्षरुत्व विकासत्त्वाबा. भितत्व सत्प्रतिपक्षितत्वोपपनो हेतुर्गभकः तहदाभ सत इत्यत्र वत्त्वार्थ - स्तद्भिवत्वे मति तद्धर्मवत्त्व तथा च पञ्चरू पोपपनत्वाभावे सति तद्रूपेण भासमान इति फलितार्थः, तत्र च लक्षणं सत्यन्त तस्यैव दूषकतायामुपयोग.त् न च असाधकतायां पक्षमत्वाद्ये कैकाभावस्यैव गमकत्वसम्भवेअधिकवैयर्थ एतेन पञ्चान्यत्वं लक्षणमित्यपि प्रत्य ऋमिति वाच्य पञ्चत्वावच्छिन्नाभावस्य पक्ष सत्त्वाभावाद्यघटितत्वेन वैयर्थ्याभावात् वस्तुतस्तु
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२४
न्यायसूत्रवृत्तो ।
पृथिवी इतरेग्यो भिद्यते स्पर्शवत्त्वात् प्रमेयमाकाशादित्यादौ सपच्चाद्यप्रसिद्धेतस्य लक्ष्क्षणत्वे तत्पयं परन्तु विपचासत्त्व संपत सत्त्वाभ्यामव्यभिचरितमानानाधिकरण्यं पचरुत्व वहितस्य चैतस्य विरोधित्वं त्रिभि र्लब्ध तेन व्याप्तिविशिष्टपचधर्म नगविरोधित्वं चरमयोस्त्वनुमिति विरोधिरूपानवच्छिन्नत्वार्थ कयोरभावादनुमितिविरोधित्वं तेनानुमिति तत्कारणाज्ञानान्यतरविरोधित्व पर्य्यवस्यति ॥ ४५ ॥
७
सव्यभिचारं लच्तयति । एकस्य साध्यस्य तदभावस्य च च योऽन्तः सहचारः व्यव्यभिचरितसह चारः सोऽन्तः सहचारः व्यव्यभिचरितसहचारः इत्याशयः सचात्वव्याप्तिग्राहकतया वैकमात्र व्याप्तिग्राहकसहचार वानकान्तिस्तदभ्यो ऽनैकान्तिकः स च साधारण साधारणोऽनपसंहारी चेति त्रिविधः साधारणः साध्यवत्तदन्य उत्तिः यथा शब्दो नित्यः निःस्पर्श - त्वात् न च विरुद्धसङ्कीर्णदोषः उपधेयसङ्करेऽप्युपाधेरसङ्करात् असाधारणः सपच्चविपचव्यावृत्तः सपच्चः साध्यवत्त्वनिश्चयविषयः यथा शब्दोनित्यः शब्दत्यादित्यादौ अनुपसंहारी च केवल : न्वयिधर्मानि पञ्चकः यथा सव्वें नित्यं मेयत्वादित्यादि यत्र च साध्यसन्देहाद्याप्तिग्रहो न भवतीत्याशयः नव्यास्तु वसाधारणः साध्यवदवृत्तिः एतस्य साध्यसहचारग्रहप्रतिबन्धेन व्याप्तिग्रहप्रतिबन्धो दूषकतावीजं अनुपसंहारी च केव खान्वयिसाध्यकस्तस्य चात्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यकत्वरूपस्य ज्ञानाद्यतिरेकव्याप्तिग्रहप्रतिबन्धो दूषकतावीजं इत्याजः ॥ ४६ ॥
क्रमप्राप्तं विरुद्ध लचयति । अत्र च सिद्धान्तं साध्यं प्रतिज्ञायां हि पक्षस्य सिद्धस्याने साध्यमभिधीयते तथा च माध्यमभ्युपेत्य उद्दिश्य प्रयुक्तस्तद्दिरोधो साध्याभावव्याप्त इति फलितार्थ: यथा वह्निमान् हृद त्वादिति एतस्य साध्याभावानुमिति सामग्रीत्वेन साध्यानुमिति प्रतिबन्धो दूषकतावीजं नव सत्प्रतिपचाविशेषः तत्र हेत्वन्तरं साध्याभावसाधकं इह तु हेतुरेव साध्याभावसाधकः साध्यसाधकत्वेन त्वयोपन्यस्त इत्यथ - किविशेषोन्नायकत्वेन विशेषात् ॥ ४७ ॥
क्रमप्राप्तं प्रकरणसमं लचयति । सहेतुः स्वसाध्यस्य परसाध्याभावस्य
वा निर्णयार्थमपदिष्टः : प्रयुक्तः मकरणसम उच्यते स कद्दू त्याकाङ्क्षाया
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.१ अध्याये १ प्राङ्गिकम् ।
२१५
म.ह यस्मात्प्रकरणचिन्नतिकरणं पक्षप्रतिपचाविति भाष्यं साध्यतद. भाववन्नाविति तदर्थ स्तथा च निर्णयार्थ प्रयु तो हेतु यंत्र निर्णयं जनयित मशकस्तुल्यब तेन परेण प्रतिबन्धात् किन्तु धर्मिणः मध्यवत्त्वं तदभाववत्त्वं वेति चिन्ता जिज्ञासा प्रवर्तयति मप्रकरणसभः यहा प्रकट करणं लिङ्ग परामर्यो वा कोहे तरनयोः साधकः एतयोः क; परामर्श. प्रमेति वा यत्र जिज्ञासाभवतीत्यर्थः यम दित्य दित वस्तुस्थि तमात्र लक्षणन्त तुल्यबलविरोधि परामर्श कालोन परामर्शविषयत्व स्वसाध्य परामर्शकालीन तुल्यबलविरोधिपरामर्शो वा विरोधिपरामस्य च हेतुनिष्ठत्वमेकज्ञानविषयत्वसम्बन्धेन अन्यथाहेतोद्रत्वं न सात् अयञ्च दशाविशेष दोषः इव्यतः सङ्घ तोरपि विरोधिपरामर्शकाले दुष्ट त्वमिष्ट मेवेत्यवधेयम् ॥४८॥
क्रमप्राप्तं साध्यसमं लक्षयति । साध्ये न वयादिनाऽविशिष्टः कुत इत्यत आह | माध्यत्वादिति साधनीयत्वादित्यर्थः यथा हि साध्य साध. नीयं तथा हेतुरपि चेत्माध्यसम इत्युच्यते अत वचासिद्ध इति व्य व जियते त्रयञ्चाश्रयासिद्धिवरूपासिधिव्याप्यत्वासिद्धिभेदात्त्रिविधः । अाश्रया सिद्धिश्च पक्षे पक्ष तावच्छ द काभावः यथा काञ्चनमयः पर्वतोवनिमानित्यादौ खरूपासिद्धिः पक्षे हे ततावच्छेदकावच्छिन्नसाभावः यथा हृदो. ट्रव्यं धमादित्यादौ व्याप्यत्व सिद्धिचाव्यभिचरितसामानाधिकरण्यस्याभावः न च खरूपासिवेरेव सूवालच्यत्वप्रतीते!भयेर्ने तरलच्यत्वमिति वाच्य हेतुरिति पदं ह्यत्र परणीयं हेतु पदञ्च गमक हे तोतिविशिष्ट पक्षधर्मस्य वाचकं व्याग्निविशिष्ट पक्षधर्म इत्येव वा पूर्यतां तथा च तस्य किञ्चिदंशसाध्यत्वेनैव माध्यसमत्वम् अतएव साधे माध्यतावछेद काभावः साधने साधनतावछेदकाभावश्च व्याप्यत्वासिद्धिः यथा पक्षतान छेदकाभावपक्षतावछेद कवझेदादे रन्यतमत्वेनाश्रयासिडित्व यथा च पक्षे हेत्वभावहेतुभनेदा. हेरन्यतमत्वेन स्वरूपासिद्धित्व तथा साध्यताव छेद काभावादेर न्य तमत्वेन व्याप्यत्वासिद्धित्व वितयान्य तमत्व चासिद्धिसामान्यलक्षणं नीलधमत्वादे. रपि व्याप्यत्वा सिद्धावन्तर्भावं वदन्ति तेषामयमाशयः व्याप्तिहि साध्यसम्बन्धिताव छेदकरूपा गुरुधर्मश्च साध्यसम्बन्धि तानबछेद कोऽतो नीलधमत्व देः साध्यसम्बन्धितान वछेदकत्वान्न व्याप्तिस्वरूपत्व तथा च साध्य
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२१६
न्यायसूत वृत्तौ ।
तावकेदकाभावादिरिव साधनतावकेदके व्याप्यतानवकेदकत्वमपि भवति व्याप्यत्वासिद्धिरिति ॥ ४६ ॥
क्रमप्राप्तमतोतकालं लच्चयति । छातीतकालस्य समानार्थकत्वात् कालाततशब्देनोक्त कालस्य साधनकालस्यात्ययेऽभ विपदिष्टः प्रयुक्तो हेतुः एतेन साध्याभावप्रमालचणार्थ इति सूचितं साध्याभावनिर्णये साधनासम्भवा दयमेव बाधायक इति गीयते यथा वरितुष्णः कृतकत्वादित्यादौ न च बाधे श्रावश्यकस्य व्यभिचारस्वरूपा सिद्ध्यन्यतरस्यैव दोषत्वमुचितमिति वाच्यं तदप्रतिसन्धानेन बाधस्य दोषत्वावश्यकत्वात् उपधेयसङ्करेऽप्यपाधेरसङ्करात् उत्पत्तिकाल व किवो घंटो गन्धवान् शिखराव छिनः पर्वतवह्निमानित्यादावसङ्कराच्च साध्याभाववत्प्रत्ययतावकेदकावकिन्नकत्वस्य तत्र सश्त्वात् । परेत्तु घटः सकर्ट कः काखत्वादित्यादौ यत्र लाघवोपनीत मेकमात्त्रककत्वं भासत इत्युच्यते तत्र तदभावोऽसङ्कीर्णोदाहरणमिति - बदन्ति ॥ ५० ॥ समाप्त हेत्वाभासप्रकरणम् ॥ ६ ॥
क्रमप्राप्त' कलं लचयति । अर्थस्य वाद्यभिमतस्य यो विकल्पो विरुद्धः कल्पो अर्थान्तरकल्पनेति यावत् तदुपपत्त्या युक्तिविशेषेण यो वचनस्य वाद्युक्तस्य विद्याधातोदूषणं तच्छल मित्यर्थः वक्तृतात्पर्याविषयार्थकल्पने न दूषणाभिधानमिति फलितं तात्पर्य्याविषयत्वं विशेष्ये विशेषणे संसर्गे वा यथा नेपालादागतोऽयं नवकम्बलवत्त्वादित्यत्र नवसङ्ख्या परत्वकला नयाऽसियविधानं प्रमेयं धर्मत्वादित्यव पुण्यत्वार्थकल्पनया भोगा सियविधानं वि मान् धूमादित्यत्र धूमावयवे व्यभिचाराभिधानम् ॥ ५१ ॥
•
लचितं कलं विभजते । तत्र वाक छलं लचयति । यत्र शक्य ये सम्भवति एकार्थनिर्णायक विशेषाभवादनभिये तथक्यार्थकल्पनेन दूषणाभिधानं तद्दाक्कलं लक्षणन्तु शक्त्या एकार्थशाब्दबोधतात्पर्य कशब्दस्य क्यार्थान्तर तात्पर्थकत्वकल्पनया दूषणाभिधानं यथा नेपालादागतोऽयं नवकम्बलवत्त्वादित्युक्त कुतोऽस्य नवसङ्ख्यकाः कम्बला इति एवं गौर्विषापीत्युक्त े कुतोगजस्य श्टङ्ग' वेतोधावतीति श्वेतरूपवद भिप्रायेणोक्तश्वेतो न धावतीत्यभिधानमित्यादिकमुह्यम् ॥ ५५ ॥
सामान्यकलं लचयति । सामान्यविशिष्टसम्भवदर्थाभिप्रायेणोक्तस्य अति
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१ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
सामान्थयोगादसम्भवदर्थकत्वकल्प नया दूषणाभिधानं सामान्य च्छ लम् । यथा ब्राह्मणोऽयं विद्याचरणसम्पन्न इत्यु के ब्राह्मणत्वेन विद्याचरणसम्पद साक्ष्यतीति कल्पयित्वा परो वदति कुतो ब्राह्मणत्वेन विद्याचरणसम्पहाल्ये व्यभिचारात् ॥ ५४ ॥
उपचारछलं लक्षति | धर्मशब्दस्यार्थे न सम्बन्धस्तस्य विकल्पो विविधः कल्पः शक्तिलक्षणान्यतररूपस्तथा च शक्तिलक्षणयोरेकतरच्या प्रयुको शब्दे तदपरवृत्त्या यः प्रतिषेधः स उपचारलं यथा मञ्चाः क्रोन्ति नीलो घट इत्यादौ मवस्था एव क्रोशन्ति न तु मचा एवं घटस्य कथं नीलरूपाभेदः एवम् अहं नित्य इति शतया प्रयुक्त अमुकरमादुत्पन्नस्त्वौं कथं नित्य इति प्रतिषेधेोऽथ पचारच्छल बाद्यभिप्रेतार्थ यादूषणेन छलस्थासदुत्तरत्वम् । न च विष्ट लाक्षणिके प्रयोगाद्दादिनएवापराधः स्यादिति वाच्य तत्तदर्थ बोधकत या प्रसिदस्य शब्दस्य प्रयोगे वादिनोऽनपराधात् अन्यथा पर्वतोवनिमानियत पर्वते ऽयं कथमवनिमानित्यादिदूषणेनानुमानाधुच्छेदः स्यात् ॥ ५५ ॥
प्रसङ्गाच्छलं परीक्षितु पूर्व पक्षयति । शब्दस्यार्थान्न र कल्पनाविशेषाहाक्छल मेवोपचार कूलं स्थादिति छलस्य हित्वमेव न त बित्वमिति शङ्कार्थः । ५६ ॥
समाधत्ते। उपचार छलस्य वाक् छलाभेदो न तथोरर्थान्तरभावात् भिन्नत्वात् भिन्नतया प्रमाणसिदत्वादिति फलितार्थः पूर्वोक्तभेद कधर्मेण भेदसम्भवेऽपि यत्किञ्चिद्धर्मे णाभेदे सामान्य धर्मेणाभेदस्य सर्वत्र सम्भवाद्विभागः कुत्रापि न स्यादिति ॥ ५७ ॥
विपचे बाधकमभिप्रेत्याह । यत्किञ्चिद्धर्मादविरोधे किञ्चित्माधाच्छलत्वादिरूपालस्यैक्यं स्थान त त्वदभिमतं हित्वमपोति भावः ॥ ५८॥
समाप्त छलप्रकरणम् ॥ १०॥ क्रमप्राप्तां जाति लक्षयति । साधर्म्य वैधाभ्यामिति सावधारणोनिर्देश स्तेन व्याप्तिनिरपेक्षाभ्यां साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं दूषणाभिधानं जातिरित्यर्थः यद्यम्य भाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य प्रत्येक प्रत्यवस्यानेऽव्यातिरेकप्रत्यवस्थानस्य लक्षणत्वे परप्रत्यवस्थानेऽव्याप्तिनवान्यतरप्रत्यवस्थान
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न्यायसूत्ररत्तौ!
नियत सर्वत्र जातावभावात्तथापि व्याप्तिनिरपेक्षतया दूपणाभिधानमित्येव वाच्यं तेन च सन्दर्भेण दूषणासमर्थ त्व' स्वव्याघातकत्वं वा दर्शितं तथा च छलादिभिन्नदूषणासमर्थमुत्तरं स्वव्याघातकमुत्तरं वा जानिरिति सूचितं साधर्म्यसमादिचविंशत्यन्यान्यत्व तदर्थ इत्यपि वदन्ति || ५६ ॥
क्रमप्राप्तं निग्रहस्थानं लक्षति | निग्रहस्य खलीकारस्य स्थान तच्च विप्रतिपत्तिर प्रतिपत्ति विप्रतिपत्तिविरुवा प्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिः प्रकृताज्ञानं यद्यये तदन्यतरत् परनिष्ठ नोद्भावयित महें प्रतिज्ञाहान्यादे. निग्रहस्थानत्वानुपपत्तिय तथापि विप्रतिपत्त्य प्रतिपयन्यतरोबायकधर्मवक्व तदर्थः उद्देश्यानुगुणसम्यक् ज्ञानाभावखिङ्गत्वं प्रतिज्ञाहान्याद्यन्यतमत्वं वा लक्षणमित्यपि वदन्ति ॥ ६० ॥ __ जातिनिग्रहस्थानयोविभागो नास्तीति भ्रमो माभूदित्यत अाह । तद्विकल्पासाधा दिना प्रत्यवस्थानस्य विप्रतिपत्त्याानायकव्यापारस्य च विकल्प खेदानानाप्रकारत्वादिति यावत् इत्यञ्च तयोबहुत्वेऽपि प्रमाणादिपरीक्षाविषयकशिष्यजिज्ञासया प्रतिबन्धानेदानी तविभागः क्रियत इति भावः ॥ ६१ ॥ समाप्त पुरुषाशनि लिङ्गदोषसामान्यलक्षण प्रकरणम् ॥ ११ ॥
प्रथमाध्यायस्य द्वितीयमानिकम् ॥ २ ॥ इति विश्वनाथभट्टाचार्थकतन्यायसूत्रत्तौ प्रथमाध्याय
वृत्तिः समाना ॥१॥
प्रमाणैः प्रथितैर्दोभिर्विवादेषु परीक्षितैः ।
हरि हितीयमध्यायं भासमानमहं भजे ॥ १ ॥ अथ प्रमाणादिषु लक्षितेषु परोक्षणीयेषु संशयं विना परीक्षाया अमम्मवादादौ संशय ए व परिक्षणीयः शिष्यजिज्ञासानुसारात्म चीकटाहन्यायाचाऽतः संशयपरीक्षायाः प्रमाणादिपरीक्षोपयोगित्वात् प्रमाणपरीनै वाध्यायार्थ इति वदन्ति । वस्तुतस्तु छलस्य परीक्षितत्वात् तृतीय
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२ अध्याये १ आह्निकम् ।
चतुर्थयोः प्रमेयस्य पञ्चमे च जाते परीचिष्यमाणत्वः तदतिरिक्तयावत्पदार्थपरीचैवाध्यायार्थः ॥ प्रयोजनादिपरीचाया अभ्यत्रैवातिदेशेन करिष्यमाणत्वात् तत्व विभागसापेचप्रमाणपरीक्षातिरिक्तोक्तयावत्पदार्थ परीचाप्रथमाज्ञिकार्थः तत्र च नव प्रकरणानि तवादौ संशय परोक्षाप्रकरणं व्यन्यानि यथायथं वच्यन्ते तत्त्र संशयपरीचणाय पूर्वपचसूत्रम् ।
यत्र सूत्रकृता संशयस्याऽदर्शनात् संशय परीक्षायां संशयो नाङ्गमनवस्याभयादित्याशयं सूत्रकृतो वर्णयन्ति तदसत् न ह्यत्र संशयखरूपं परीचते । येनानवस्था स्यात् अपि तु लक्षणलेोकं संशयकारणं तथा च संशयः समानधर्मदर्शनादिजन्यो न वेति संशयः सम्भवत्येव । सूत्रकृतो निर्णयकत्वात् पूर्वपच निराससात्वस्यापेक्षणात् संशयो न दर्शित एवमेव प्रमाणादिपरीचायामपि श्रतएवाभिहित भाष्ये शास्त्रवादे च विमषैवजेमिति तच समानादिधर्मदर्शनात्र संशयः प्रत्येकं व्यभिचारात् अन्यतरत्वेनानुगतीकृततद्दर्शनादपि न संशयः न हि स्थाणुधर्मसमानधर्मायं पुरुषधर्मसमानधर्मायमिति वा जानन् स्थाणुर्भवेति सन्दिग्धे समानत्वस्य भेदगर्भत्वाधिपेन ज्ञाते तद्भेदयहस्यैव सम्भवात् यद्दा समाना रेकधर्मोपपत्तेरिति लच्चणसूत्रे उपपत्तिपदं स्वरूपपरमिति भ्रान्तस्थेयं शङ्का तथाचायमर्थः न संशयः समानधर्मादितः स्वरूपसत इति शेषः यतः समानधर्मादेरध्यवसायादन्यतरत्वेनानुगतीलततदध्यवसायाचा संशयः अन्यया संशयस्य सार्वत्रिकत्वापत्तेः ॥ १ ॥
२१८
-
विप्रतिपत्त्यादिजन्यसंशयत्रयं प्रतिचिपति । न संशय इत्यनुवर्त्तते विप्रतिपत्तेरुपलब्धप्रव्यवस्थाया अनुपलब्धपव्यवस्थायाञ्च न संशयजनकत्व' प्रत्येकं व्यभिचारादित्यर्थः यद्दा स्वरूपसद्दिप्रतिपत्त्यादितो न संशयः किन्तु तदध्यवसायादित्यर्थः ॥ २ ॥
विप्रतिपत्तिजसंशयमात्त्रप्रतिक्षेपाय सूत्रान्तरम् । विप्रतिपत्तो न संशयहेतुत्वं संप्रतिपत्तेः निश्चयात् वादिनोर्मध्यस्थस्य च निश्वयसत्वात् सति च निश्वये संशयायोगादिति भावः ॥ ३ ॥
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उपलब्धग्रनुपलब्धपव्यवस्थातः संशयद्वय निरासाय सूत्रम् । उपलब्खाव्यवस्थाया अनुपलब्धा व्यवस्थायाश्च संशयजनकत्वं तदा स्यात् यदि
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२२०
न्यायसूत्ररत्तौ।
स्वस्मिनप्य व्यवस्थित त्वं स्यात् नत्येवं तथा च स्वात्मनि व्यवस्थितायास्त स्थाः कथम न्यत्राव्यवस्थात्वमित्यर्थः ॥ ४ ॥
नन्व व्यवस्थाप्रामाण्यमंशयस्तस्य च न स्वसंशयरूपत्वं मंशयस्य विषयविशेषघटि तत्वात् तस्य चान्य संशयजनकत्वं न विरुद्धम् । अतो दूषणान्तरमाइ।
तथा तथा सति अव्यवस्थाया हेतुत्वे सति सथागब्दोऽयं न सूत्रान्तर्गतोऽपितु भाष्यस्य इत्यन्ये अत्यन्तसंशयः संशयानुच्छेदः स्यात् तव मस्य नज्जन कस्य ज्ञानत्वादिसाधारगाधर्मदर्श नस्य सातत्योपपत्तेः सर्वदा सम्भवादथ ज्ञानत्वादिसाधारणधर्मदर्श रेऽपि कारणान्तरविलम्बान्न सर्वत्र प्रामाण्यसंशय इति यदि तदा तस्यैव विषयसंशयेऽपि हेतुत्वमस्त्विति किं प्रामाण्य संशयग्य साधारणधर्म दर्शनादेर्वा संशय हेतुत्वे नेति भावः ॥ ५ ॥
सिवान्नमाह । यथोक्ताध्यवसायात् माधरणादिधर्मदर्शनान् तस्य पुरुषत्वादेर्यो वशेष इतरव्यावर्त कोधर्मस्तस्थापगत ईक्षई क्षणं ततः विशेघादशादित्यर्थ स्तथा च विशेषादर्शनसहितसाधारणधर्मदर्शनादितः मंशये स्वीकृते न कारणाभावाद मंशयो नवा यत्किञ्चित्कारण सक्वादत्यन्तसंशय इत्यर्थः साधारणधर्मदर्शनादेश्च संशय विशेघे जनकत्वात् संशयत्वावछिन्नप्रति व्यभिचारेऽपि न क्षतिः विप्रतिपत्तौ च वादि वाक्याभ्यां मध्यस्थस्यैव संशय पगमात् यच्चोक्तं समानधर्मदर्शनात् कथं संशयः समानत्वस्य भेदगर्भ त्वादिति तद पिन नहि समानधर्मत्वेन तजज्ञानं हेतुरपि तु उभयसहचरितधम्मवत्व ज्ञानं तथे त्यक्तदोषाभावात् ॥ ६ ॥
सम्प्रति संशयपरीक्षयैव परेषां पदार्थानां परीक्षामनिटिशवाह । एवमुक्तरीत्या उत्तरोत्तरेष प्रयोजनादि प्रसङ्गः प्रकृष्टः सङ्गः परीक्षायाः सम्बन्धो बोध्य व्यस्त त्कि प्रयोजनमपि परीक्षणीय नेत्याह यत्र संशय इति यदि तल्ल नणार्य संशयस्तदा तदपि परोक्षणीयं अथवा उत्तरोत्तरं उक्तिप्रत्यक रूपं तत्प्रसङ्गः तद पा परीक्षा संशयितेऽर्थे कर्तव्येत्यर्थः । ७॥
समाप्त संशयपरीक्षा प्रकरणम् ॥ १५ ॥
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२ अध्याये १ आङ्गिकम्। २२१ इदानीमवमरतः प्रमाणसामान्य परीक्षणाय पूर्वपक्षयति । काल - लयेऽपि प्रमाणाप्रमायाः सिकिमशक्यत्वात् मन्यक्षादीनां न प्रामाण्यमित्यर्थः ॥ ८॥
विस्मूलया काल्यासिद्धत्व व्युत्पाद यति । प्रमाणस्य पूर्व त्वं तावन सम्भवति हि यतः प्रमायाः पूर्व प्रमाणसिद्धौ प्रमाणसत्त्वे इन्द्रियार्थसत्रिकर्षात् प्रत्यन सिध्यतीति न स्यात् प्रत्यक्ष प्रमाणतः पूर्वमेव प्रमायाः सत्त्वात् प्रमाणत्व हि प्रमाकर णत्व पूर्व प्रमाया अभावे प्रमाकरणत्वमपि कथं स्यात् पूर्वमेव प्रमायाः सिद्धि रुपेयेति कथं इन्द्रिया थस त्रिकर्षात् इन्द्रियार्थसन्त्रिकर्षादिति प्रत्यक्षोत्पत्तिः प्रत्यक्षाद्युत्पत्तिः परेतु प्रत्यक्षं प्रति करणत्वे खण्डिते तद्रीत्या करणान्नरमपि खण्डनीयमित्याशयं सूत्रकतो वर्ण यन्नि प्रमाण य प्रमाशिश्चाभावे प्रमाणमिति ज्ञानेऽपि प्रमावैशिट्यसंशयः स्यादिति भावः ॥ ६ ॥ ____ प्रमाणस्य प्रमातः पश्चात् सिकौ विषयस्य प्रमेयत्व प्रमाणात्पर्व मेत्र सिवमिति न प्रमाणतः प्रमाया उत्पत्तिः प्रमेयस्य च ज्ञप्तिरिति ॥ १२ ॥
दञ्च सूत्रद्वयं अनुमानाद्य भिप्रायेण चक्षः श्रोलादेः प्रमानन्तर प्रमासमकाल वा सत्त्वस्येष्टत्वादुत्पत्तेः शङ्कितमशक्यत्वात् तदयमर्थः प्रमाण - प्रमयोयुग पत्म चे युगपटुत्पत्तौ बुद्धीनामर्थविशेषनियतत्वाद्यक्रमत्तित्वं तन्द्र स्थात् पदज्ञानं हि य दविषयकं श्रावण प्रत्यक्षरूपं शाब्दबोधश्च पदार्थ विषयकः परोक्षरूपो विजातीयइत्यनयोन योगपद्य सम्भवति कार्यकारणभाववत्वात् क्रमिकत्वेनैव सिद्धेरतएवैकमेव ज्ञानमुभयविषयकमित्यपि नाशङ्कनीयं सङ्करप्रसङ्गश्च एवं व्याप्तिज्ञानानुमित्यादापि द्रष्टव्य परेतु प्रमाण प मेययोन युगप सिदिन युगपत्ज्ञानं बुद्धीनामर्थविशेषनियतत्वात् क्रमत्तित्व तथा सति न स्यात्तथाहि चक्षुषो जानम नु मित्यादि रूपं घटादेश्च प्रत्यक्षादिरूपं न चानयोर्योगपद्यं सम्भवतो त्यर्थ इत्याहुः॥११॥
सिड्वान्तसूत्रम् । यदि काल्यासिया प्रमाणात् प्रमेयसिद्धिर्नोग्यते नदा तट्रोत्या त्वदीयः प्रतिषेधोऽप्यनुपपन्न इति जात्युत्तरमेतदिति भावः किञ्च सर्व प्रमाण प्रतिषेधे प्रतिषेधक प्रमाणमपि नाम्युपगन्तव्यम् ॥ ११ ॥
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२२२
न्यायसूत्ररत्तो।
तथा च कथं प्रतिषेधसिद्धिरित्याह । यदि च प्रतिषेधकं प्रमाण मुपेयते तदा कथं सर्वप्रमाणप्रतिषेध इत्याह ॥ १३ ॥ ___ननु मन्मते वस्तुसिद्धिर्नापेक्षिता विश्वस्य शून्यत्वात् प्रमाण प्र मेयभावोऽपि न वास्तविकस्त्वन्मते च बैकाल्यासिविरुक्त वेत्य तस्तदुःट्वरति ॥ १४ ॥
वैकाल्यो यः प्रतिषेध उक्तः स न सम्भवति कुत इत्यत अाह शब्दादिति यथा शब्दात्यचा नाविनः पूर्वसिद्धसातोद्यस्य सुरजादेः सिद्धितिः यथा वा पूर्व सिवात्मादुत्तरकालीनवस्तुप्रकाशनं यथा वा वतिसमकालोनाड्डूमाइङ्गिसिद्धिस्तथानापि प्रमा वः सर्वत्र प्रमाणादुत्तरभाविन्ये व प्रमाणस्य चक्ष रादेः प्रमानः पूर्वभावित्वमस्त्येव पूर्व प्रमावशिश्चन्त तस्य नोपेयते यदा कदाचित्यमासम्बन्धे नैव प्रमाणत्वसम्भवाद्यदा कदाचित् पाकसम्बन्ध - नैव पाचकमानयेत्यादिवदिति भावः अत्र चकारान्त न सूत्रान्तर्गतमिति तत्त्वालोके वस्तुतष्टीकादिस्वरसास् सूत्रान्तर्गतमेव ॥ १५ ॥
नन्वनियतत्वादेव प्रमाणप्रमेयव्यवहारो न पारमार्थिकः रज्जौ सादिकव्यवहार वदित्याशङ्कायामाह | यथाहि तुलायाः सुवर्णादिगुरुत्वे यत्तापरिछेदकत्वात्प्रमाणव्यवहारस्तुलान्तरेण च तदीयगुरुत्वेयत्तापरिछेदे च प्रमेयव्यवहारस्तथा निमित्तहयसमावेशादिन्द्रियादेरपि प्रमाणप्रमेयव्यवहार इति यहा प्रमाणता प्रमेयता च प्रमावैशिध्यादिति यागाशङ्कितं तबाह प्रमेयता चेति यथा कदाचिहुरुत्व यत्तापरिछेदकत्वातलाया: प्रमाण व्यवहारस्तथेन्द्रियघटादेरपि प्रमाण प्रमेयव्यवहारइति ॥ १६॥
अनवस्थया प्रत्यवस्थानपरं पूर्वपक्षसूत्रम् । प्रमाणानां प्रमाणत: सिद्धेः खीकारे प्रमाणान्तरखीकारः स्यात् तथाहि प्रमाणस्य तावन्न स्वतःसिद्धिरात्माश्रयापत्तेरतः प्रमाणान्तरं स्वीकार्य तयोश्च परम्परसाधकत्वेन्योन्याश्रयापत्तिरतस्तत्रापि प्रमाणान्तरमङ्गी कार्यमित्येव मनवस्थेति भावः॥१७
न त प्रमाणसिद्धिः प्रमाणं विनैव स्थादित्यवाह । यदि च प्रमाणविनित्तितः प्रमाण व्यतिरेकात् प्रमाणसिद्धिः स्वीक्रियते तदा तहदेव तलिविः स्वीक्रियतां किं प्रमाणाङ्गी कारेण तथा चाव्य वस्थितमेव जगत्स्थादिति शून्यतायां पर्यवसानमिति भावः ॥ १८ ॥
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२ अध्याये १ आह्निकम् ।
२२३
सिद्धान्तसूत्रम् । यथाहि प्रदीपालोकाहटादिप्रकाशस्तथा प्रमाणानां प्रमेयप्रकाशकत्वमन्यथा प्रदीपस्य घ. प्रकाशकत्वं प्रदीप प्रकाशकं चक्षु स्तज्ज्ञापकमन्यदित्य नवस्थाभयात्प्रदीपोऽपि न घटप्रकाशकः स्याद्यदि च घटप्रत्यक्षे तत्तत्प्रकाशानां नापेचे ति नानवस्ये त्युच्यते तदा प्रकतेऽपि तुल्यं नहि प्रमाणात्प्रमेयसिसौ प्रमाणसिद्धिरपेक्षिता यदा च प्रमाणसिद्धिरपेक्षिता तदा तत्रापि प्रमाणामपेच्यतां तच्चानुमानादिकमे. वेति न प्रमाणान्तरकल्पना नवानवस्था सर्वत्र प्रमाणसिद्धेरनपेक्षितत्वात् कचिद्दोजाङ्कुरवद पेशापि न क्षतिकरीति भावः प्रदीपस्य प्रदीपान्तरं নিন সমকালমন্সলানাগঘি সলাযুলৰ ঘৰয় সন্ধাযকালকিনি स्वार्थ केचन मन्यन्ते तान् मन्याइ भाष्यकार: । कचिवित्तिदर्शनादनिवृत्तिदर्शनाञ्च कचिदनै कान्तः कचित्प्रदीपादौ प्रमाणान्तरान्नित्ति. दर्शनात् कचिवादौ प्रमाणान्तरादनित्तिदर्शनात् प्रमाणान्तरापेक्षा दर्शनात्वदीयो हेतरनै कान्तः अनियतः तथा च प्रदीपदृष्टान्नात् प्रमाणान्तरापेक्षा निवृत्तिः माध्यते घटदृष्टान्नेन प्रमाणान्तरापेक्षेव किं न तत्र साध्यते तथा च दृष्टान्तसमा जातिरियमिति भावः त्वद्याख्याने कथं नानै. कान्त इत्यत्राह भाष्यकारः विशेषहेतपरिय हे सत्युपसंहाराभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः मनाते विशेष हेतोः व्याप्तिपक्षधर्मतात्रयस्य परियहे सत्य पसंहा. रस्य साध्यसाधनस्याभ्यनुज्ञानादुकान कात्मकः प्रतिषेधो न भवति ॥ १६ ॥
समाप्त प्रमाण सामान्य परीक्षा प्रकरणम् ॥ १३ ॥
দলাযাদাষৰীঘালন সৰি ঘাম দীঘীম দগীद्दिष्ट प्रत्यन परीक्षणीयं तत्र च फलहारकमेव लक्षणं पूर्वमुक्तमतः फल. लक्षणं यथावतमाक्षिपति। प्रत्यक्षस्य यल्लक्षणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न त्व नद्रोपपद्यतेऽसमपवचनात् अयमर्थः प्रत्यक्षस्य कारणघटितं लक्षणमभिहितं तत्व कारणकलापघटितायाः सामग्रमा विनिवेशनमतिव्याप्तिनिरासकं तच्च नाभिहितम् असमग्रम् इन्द्रियार्थसनिक प्रैज न्यत्वमात्र ह्यभिहितम् अात्ममनः संयोगेन्द्रियमनःसंयोगादिकन्तु नाभिहितं तथा चात्ममन संयोगरूपेन्द्रियार्थसंयोग जन्यतयानुमित्यादावति व्याप्तिरित्यर्थः ॥२०॥
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२२४
न्यायसूत्रत्तौ।
नन्वात्ममनोयोगादेः कारणत्वमेव नास्तीत्याशङ्कायामाह । शरी. रावछिन्नस्यात्मनो मनसा यः सन्निकर्ष सदभावे न प्रत्यक्षोत्पत्तिर्यतोऽत आत्ममन: मंयोगस्य कारणत्वमावश्यकम् । प्रत्यक्षोत्यत्तिरिति प्रकृतं ज्ञानोत्पत्तिरिति विवक्षितम् ॥ २१ ॥ ___ नन्वेवं दिगादीनामपि कारणत्वं स्थादित्याशङ्कते । यथाकथचित्पोर्खापर्यस्य तत्त्वापि सत्यात्तेषामन्यथा सिड्विचेत्मकतेऽप्ये - वम् ॥ २२॥
अनोत्तरमभिधातुमाह । श्रात्मनो मावरोधोऽसंग्रहः कारण त्वे नेति म कुतः जामलिङ्गत्वात् ज्ञानं लिङ्ग यस्य तत्तथा ज्ञानं हि भावकार्य समवायिकारणं साधयति तच्च परिशेषादात्मैव दिगादीनाञ्च कारणत्व न मानमिति भावः इत्यञ्च समवायिकारणस्थात्मनोमनसा संयोग ऽसमवा यि कारणमिन्यप्यर्थात् सिद्धम् ॥ २३ ॥ - आत्मशरीरादिसंयोगस्य कुतो नासमवायिकारणत्वमित्यतो मनमः प्राधान्ये युक्तिमाह ! नानवरोध इत्यनुवर्तते इन्द्रियमनोयोगहारा ज्ञानायौगपद्यनियामकत्वान्ममसोऽपि हेतुत्वमावश्य कमिति शरीरमनोयोगादेश्च न तन्नियामकमिति भावः इत्यञ्चात्ममनः संयोगसासमवायिकारणत्वं युक्तम् ॥ २४ ॥
प्रत्यक्षनिमित्तत्वाच्चेन्द्रियार्थयोः सन्निकर्षस्य पृथवचनम् ॥]
सिद्धान्तसूत्रम् । प्रत्यक्ष निमित्तत्वात् प्रत्यक्षासाधारणकारणत्वात् अयमर्थः प्रत्य नसूत्रे इन्द्रियार्थ विकर्षाभिधानं हि न कारणाभिधित्मया ये नाममनोयोगाद्यनभिधानेन न्यू नत्वं अपितु लक्षणाभिप्रायेण नव च सामग्रीघटि तस्येवासाधारणकारणघटि तस्यापि लक्षणस्य सुवचत्वादिन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य चासाधारणत्वात् पृथग्वचनम् अात्ममनः संयोगादिसाधारणकारणावच्छिद्य लक्षणघट कनया वचनं युक्तम् अयं भावः इन्द्रियार्थसनिकपत्रावछिन्न कारणताप्रतियोगिककार्य ताशालित्वस्य इन्द्रि
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२ अध्याये १ आह्निकम् ।
२२५
यस्वावछिन्न कारणता प्रतियोगिक कार्यताशालि त्यस्य वा लक्षणस्य सम्यक्त कृतमात्म मनोयोगाद्यनुप्रवेशेनेति परिष्कतं चेदमधस्तात् इदं न सूत्र किन्तु भाष्यमिति केचित् ॥ क ॥
[सुप्तव्यासक्रमनसाञ्चेन्द्रियार्थयोः सन्निकर्षनिमित्तत्वात् ॥
समाध्यन्त रमाह । ज्ञानस्येति शेषः सप्तानां व्यास तमनसाञ्च धनगर्जितादिना श्रोत्रसन्निकर्षाहयादिना त्वक्सन्त्रिकर्षाच्च द्रागेव ज्ञानोत् - पत्तेरिन्द्रियार्थ सन्निकर्षस्य प्राधान्यम् ॥ ख ॥
युत्यन्तरमाह। ज्ञान विशेषाणां तैरिन्द्रियार्थमन्त्रिक रप देशोविशेषणं व्या प्रत्ति: प्राममनोयोगादिकं हि न व्यावर्तकं तज्जन्यत्वस्य ज्ञानान्तरमाधारणत्वात् एवमिन्द्रियमनोयोगजत्वमपि न लक्षणं मानसेव्या नः परे तु तैरिन्द्रियैनि विशेषाणां प्रत्यक्षविशेषाणामपदेशोभाषणं यतस्ते नेन्द्रियार्य सन्निकर्षस्य प्राधान्यं भापन्ते हि चाक्षुषं प्रत्यक्षं रासनं प्रत्यक्षमिती त्याहुः नव्यास्तु प्रत्यक्षविशेषाणामिन्द्रियैर पदेशो यतोऽतचाक्षु धादिघटितविशेषलक्षण न्यपि सम्भवन्ति चाक्षुषत्यनु मित्य वृत्ति जातिमत्वादीनि लक्षणानराण्यपि टूटव्यानी त्या शयं वर्णन्नि || २५ ॥
__ इन्द्रियार्थ सन्निकर्पी न हेतुरन्वयव्यभिचारादित्याशयेन शङ्कते । गोतवणादि काले चक्षर्घटसंयोगादौ विद्यमानेऽपि चानघा देव्याह तत्वे इन्द्रियार्थसंयोगो न हेतु रित्यर्थः ॥ २६ ॥ ___समाधत्ते। अर्थ विशेषस्य गीतादेः प्राबल्यात् बुभत्मितत्व होतादिश्रवणं नथा च गोनशुव पाश्चाक्षुषादिप्रतिबन्धक त्वात् प्रतिबन्ध काभावस्य च कार्यार्जकत्वात्तत् सहकारेण चेन्द्रियाओं सन्निकर्षस्य हेतृत्वमतः पूर्वपक्षो न युक्त इति परे तु इन्द्रियार्थसन्नि कर्षस्य हेतुत्वमित्यन इन्द्रियमनोयोगादेर हेतुत्वमिति भान्तः शङ्कते व्याहतत्वाद हे तुः इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्यैव हेतत्वमित्यत्र यो हेतरुक्तः स न युक्तः कुतः व्याहतत्वात् दून्द्रियमनयोगादे है तुताया अभ्युपगमात्तयाघाता पत्तेः भ्रम खण्डयति नार्थ
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२२६
न्यायसूत्तौ ।
विशेषप्राबल्यात् नास्ति व्याघातः कुतः व्यर्थविशेषस्य इन्द्रियार्थस्य मात्रल्यात् तथा चेन्द्रियार्थसन्निकर्ष प्राधान्यार्थं हि पूर्वमुक्त' नत्वितरनिषेधार्थमिति || ২७ ||
ननु सति प्रत्यक्षस्य प्रमाणान्तरत्वे तक्षण परीक्षासच्छछते । तदेव तु नास्तीत्याशङ्कते | प्रत्यक्षत्वेनाभिमतं घटादिज्ञानमनुमानमनुमितिरेकदेशस्य यहणः नन्तरमुपलब्धे स्तथाचेक देश यहणात्मक लिङ्गज्ञान
पुरोभागस्य जन्यत्वाह, चादिज्ञानमनुमितिरित्यर्थः ॥ २८ ॥
समाधत्ते । प्रत्यन्तमनुमानमिति न प्रत्यचत्वावच्छ देनानुमितित्व' नेत्यर्थः यावत्तावदुपलम्भात् यावत्तावतोऽपि यस्य कस्यचिद्भागस्य प्रत्यक्षेणेन्द्रियेणोपलम्भादुपलम्भस्य त्वयाप्यभ्युपगमात् इदमुपलचणं यदगम्वादिपत्यन्नस्यावारणात् न प्रत्यक्षमात्र निषेधद्रत्यपि बोध्यम् ॥ २६ ॥
>
यदपि वृचादिज्ञानस्यानुमितित्वमिति तदपि दूषयति । न च नवेत्यर्थः न चैकदेशस्यैवोपलब्धिरित्यपि युक्तं श्रवयविद्भावात् यतोहि व्यवयव्यस्ति यतस्तदवयव प्रत्यच कालेऽवयविनोऽपि प्रत्यक्षं न व्याहतं तेनापि सह चतुः संयोगादिसत्त्वादिति भावः ॥ १० ॥
IT
समाप्त प्रत्यच परीक्षा प्रकरणम् ॥ १४ ॥
वयविसङ्गावादिति
हेतुसाधन योपोद्वातस त्यावयविप्रकरणमारभते । अत्र चावयविनि सन्देहः साध्यत्वादिति यथा श्रुतार्थो न सङ्गच्छते वज्रप्रादौ व्यभिचारात्तस्मादयमर्थः वयविनि साध्यत्वादसिद्धत्वात् सन्देहोऽवयविसङ्गावादित्युक्तहेतोस्तथाच सन्दिग्धा सिङ्गो हेतुरित्यर्थ: तत्व च द्रव्यत्व स्पर्शवत्त्वं वा त्वव्याप्यं न वेत्यादयोविप्रतिपत्तयः तत्र सकम्पत्वाकम्पत्वरक्कत्वा रक्त त्वा तत्वानावृतत्वादिलचणविरुद्धधम्मध्यासादेकोऽवयवी न सम्भवति तथाहि शाखावच्छ ेदेन कम्पो मूलावच्छ ेदेन तद्भावोऽप्युपलभ्यते न चैकस्मिन्नेव द्रव्ये एकदेव विरुद्धधर्मयसमावेशः सन्भवति तस्मादवयवा एव तथाभूता नत्वन्योऽवयवी मानाभा वात् . . एवं महारजन र लैकदेशस्यांशुकस्य दशाव को देनारक्तत्वोपलम्भादेषं त्याङ्कत ष्टष्ठादेरनावृतत्योपलम्भादवसेयं इति बौद्धानां पूर्वपचः व
च
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N
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२ अध्याय १ आह्निकम् ।
ܟ
व बौद्धानां पूर्वपच्च सूत्राणि वार्त्तिकता लिखितानि च विस्तारभयान्न लिख्यन्ते ॥ ३१ ॥
सिद्धान्तत्रत्वम् । श्रवयविनोऽसिद्धौ तगुणकर्मादीनां सर्वेषामयहणं तथा च सकम्पाकम्पत्वरक्कारक्तत्वादिकमपि न सुग्रहं परमाणुगत त्वात् प्रत्यचे महत्त्व य हेतुत्वात् ॥ १२ ॥
हेत्वन्तरमाह । व्यवयवेभ्योऽवयव्यतिरिच्यते तथा सति धारणाकर्ष - णयोरुपपत्तेरन्यया परमाणु पुञ्जत्वे चैकदेशधारणेन सकलधारण मेकदेशाकर्षथेन सकलाकर्षणञ्च न स्यादित्यर्थः ॥ ३३ ॥
२२७
इदमवद्य' नौकावर्षणेन नौकास्थाकर्षणवत् कुण्डधारणेन कुण्ड - स्वदधिधारणवचोपपत्तेर्विजातीयसंयोगबले नै वावयवावयविभावाभावेऽप्यु पपत्ते रतः पूर्वोक्तां युक्तिमेव साधीयसीं मन्यमानस्तत्र परोक्त समा धानमाशङ्क्य दूषयति । अतिदूरस्यैक मनुष्यैकवृक्षादेरप्रत्यचत्वेऽपि सेना - बनादि प्रत्यन्तवदेकपरमापोरप्रत्यचत्वरेऽपि तत्समूहरूपघटादेः प्रत्यचं स्यादिति चेन्न तदपि काणनामतीन्द्रियत्वात् प्रत्यचे महत्त्वस्य हेतुत्वान्तत्सत्त्वात्येनावनादि प्रत्यक्षं युज्यते नत्वणूनां महत्त्वाभावादिति भावः ||३४|| समाप्तमवयविपरीक्षा प्रकरणम् ॥ १५ ॥
ब्रवसरेण क्रमप्राप्तमनुमानं परीचितुं पूर्वपचयति । अनुमानस्य लैविध्य पूर्वमुक्तं तत्र विविधस्याप्रामाण्ये साधितेऽनुमानमप्रमाणमर्थासिद्धमित्याशयेनेदं चानुमानं अनुमानत्वेनाभिमतं न प्रमाणं प्रमितिकरणं व्यभिचारिहेतुकत्वात तत्र त्रिविधे व्यभिचारं दर्शयति रोधेत्यादिना नदीवृड्या पिपीलिकाण्डसञ्चारेण मयूररुतेन च दृष्ट्यनुमानं त्रिविधम्दाहणं न सम्भवति नदीरोधाधीननदीया श्राश्रमोपघाताधीनपिपीलिकाण्डसञ्चारेण मनुष्यकत कमयूररुतस दृशरुतेन व्यभिचारात् पिपी - लिकाण्डसञ्चारस्य दृष्टिहेतुत्वाभिप्रायेणेदं अथवा लच्तणसूत्रे पूर्ववत् पूर्वकालीन साध्यानुमापकं शेषवदुत्तरकालीन साध्यानुमापकं सामान्यतो दृष्ट' विद्यमानसाध्य स्याम्यनुमापकमित्यर्थ इत्याशयः एतेन त्रैकालिकसाध्यानुमापकत्वं सम्भवति परेतु पिपीलिकाण्डसञ्चारेणात्यन्तो नानुमानं ततश्च महाभूतच्चोभानुमानं तस्य च दृष्टिहेतुत्वात्तेन वृष्ट्यनुमान
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न्यायतत्तौ ।
२२८
मिति वदन्ति एवमन्यत्रापि व्यभिचारशङ्कासम्भवादव्यभिचारनिश्चयस्था नुमितिहेतोरेव दुर्लभत्वात्तत्प्रामाण्यं न सम्भवतीत्याशयः ॥ १५ ॥
||
समाधत्ते | अनुमानाप्रामाण्यं न युक्त एकदेशरोधजनदोहो स्वासजपिपीलिकाण्डसञ्चारा मयूररुतसदृशस्ताञ्च लिङ्गोभूतानां नदीह्यादीनां भिन्नत्वान्न दोषः न च सर्वत्र व्यभिचारशङ्का सत्याञ्च तस्यान्तर्केण तदपनयनान्न दोष इत्याशयः ॥ ३६ ॥ समाप्तमनुमानप्ररोक्षा प्रकरणम् ॥ १६ ॥ अनुमानस्य त्रिकालविषयत्वमभिमतं तन्न युक्त वर्त्तमानाभावेन तदधीनज्ञानयोरतीतानागतयोरभावेन कालत्रयात्मक विषयाभावादित्यागयेनवर्त्तमान परीक्षा प्रकरणमारभमाणो वर्त्तमानमाचिपते । वर्त्तमानाभावः अतीतानागतभिन्ने कालत्वाभावः व्युत्पादयति पतत इति पततः फलादेचावधिकः कश्चन देशः पतिताध्वा भूग्यवधिकः कश्चम पतितव्याध्वा न तु वर्त्तमानस्य प्रसङ्गोऽपीति भावः ॥ २७ ॥
समाधत्ते । वर्त्तमानाभावे व्योरतीतानागतयोरप्यभावः स्यात्तयो - स्तदपेक्षत्वात् वर्त्त मानध्वंसप्रतियोगित्वं ह्यतीतत्वं वर्त्तमान प्रागभावप्रतियोगित्वं ह्यनागतत्वमिति भावः ॥ ३८ ॥
ननु तयोः परस्परापेचयैव सिद्धेर्न वर्त्तमानापेक्षेत्यत ग्राह । ग्रन्योन्यायादिति भावः ॥ ३६ ॥
तयोरप्यभावे का चविरतो युक्तयन्तरमाह । वर्त्तमानाभावे प्रत्यक नोपपद्यते प्रत्यन्तस्य वत्तमानविषयत्वात् यतएवाह सम्बद्धं वर्त्तमानञ्च ग्टह्यते चच्चरादिनेति प्रत्ययाभावे च सर्वमेव ग्रहणं ज्ञानं न स्यात् प्रत्यक्ष मूलकत्वादितरज्ञानानामिति भावः ॥ ४० ॥
ननु यदि वर्त्तमानध्वंस प्रतियोगित्वमतीतत्वं वर्त्तमानप्रागभावप्रतियोगित्वञ्च भविष्यत्त्वं तदा व वर्त्तमान एव घटे कथं श्याम वासीद्रको भवि ष्यतीति धीरत ग्राह । वर्त्तमानस्यापि घटादेः श्यामरक्तरूपादीनां कृतता कर्त्तव्यतयोरतीतता भविष्यत्तयोरुपपत्तेर्घटादेरम्यतीतानागतत्वेन व्यव
हारः परम्परासम्बन्वादित्यर्थः ॥ ४१ ॥
समाप्तं वर्त्तमानपरीक्षाप्रकरणम्॥१७
यथावसरेण क्रमप्राप्तोपमानं परीचितुं पूर्वपच्चयति । प्रसिद्धसाधर्म्या
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२ अध्याये १ आह्निकम् ।
२२६
टुपमानमुक्त तन्त्र युक्त यतः साधर्म्यमात्यन्तिकं प्रायिकमै कदेशिक वा न सम्भवति न हि प्रात्यन्निकसाधर्म्यण गौरिव गौरित्युपमानं प्रवर्तते न वा प्रायिकसाधर्येण गौरिव महिष इति न च यत्किञ्चित्माधर्म्य ण मेरुरिय सर्षप इति साधर्म्यय चोपलक्षणत्वाधोपमान मध्येवं खण्डनीयम् ॥४॥
समाधत्ते । प्रसि; प्रकर्षण महिषादिव्यात्या सिद्धं ज्ञातं यत्साधर्म्यन्त ज्ञानस्योपमितिकरणत्वान्न दोषः साधर्म्यञ्च प्रकरणाद्यनुसारात्कचित्किञ्चिदिति ॥ ४३ ॥ ___ अनुमानेन चरितार्थ नोपमानं प्रमाणान्न रमिति वैशेषिकमतमाशङ्कते। प्रत्यक्षेण गोसादृश्य विशेषेण अप्रत्यक्षस गवय पदवाच्यत्वस्यानु - मिते!पमानं मानान्तरमिति ॥ ४४ ॥ ____ अनोत्तरयति । अप्रत्यक्ष व्याप्यवत्तयाऽप्रत्यक्ष अनुमानत्वेन प्रमाणार्थ प्रमाप्रयोजन सुपमानस्य न पश्याम इत्यर्थः अथवा गवये गवयत्तौ अप्रत्यचे गवयपद वाच्यत्वे उपमानस्य प्रमाणार्थं प्रमां उपमानजन्यां प्रमां अनुमानत्वेन न पश्यामइत्यर्थः व्याप्तिज्ञानाभावादिति भावः ॥ ४५ ॥
ननु व्याप्तिज्ञाननियमः कल्पातामित्यनुशयेन युक्त्यन्नरमाह | अतुमानादुपमानस्य नाविशेषः तथेत्यु पसंहारात यथा गौतथा गव्य इति ज्ञानादु पनाम सिवेरुपमा नाधीनसि रूपमितेः तथा च व्याप्तिज्ञाना. नपेक्षसादृश्यज्ञानाधीनोपमिति रित्यनुभवसिद्ध किञ्च नानुमिनोमि किन्न पमिनोमीत्यनुव्यवसायसिडोमिति पलपितुं शक्यत इत्याशयः ॥६॥ समानमुपमानप्रामाण्यपरीक्षाप्रकरणम् ॥ १७ ॥
क्रमप्राप्त शब्दं परीक्षित पूर्व पक्षयति । शब्दोऽनुमानमित्यस्य शाब्दबोधोऽनुमितिरिति पर्यवसितार्थस्त था च शब्दो लिङ्गविधयानुमितिकरणं अर्थस्य शब्द प्रतिपाद्यस्य अनुपलब्धेर प्रत्य क्षत्वात् अनु मेयत्वादिति तथा च शाब्दज्ञानमन मितिरप्रस्थ क्षविषयत्वात् प्रत्यक्षभिन्नत्वाद्दे त्यत्र तात्यर्थम् ॥ ४७ ॥
हेत्वन्तरमाइ। उपलब्धेः शाब्दबोधत्वेनाभिमताया अनुमितिलेनाभि. म तायाश्च अदित्तित्वात् अहिप्रकारत्वात् अनुमितित्वं शाब्दत्वञ्च न
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२३०
न्यायसूत्तौ ।
जातिद्दयं शब्दस्य लिङ्गविधया बोधकत्वाल्लिङ्गान्तरजज्ञान वह्निजातीय
त्वाभावात् ॥ ४८ ॥
हेत्वन्तरमाह । सम्बन्धान्नियतसम्बन्धात् ज्ञायमानादितिशेषः शब्दो हि व्याप्तिग्रहसापेचो बोधयति तेन शाब्दबोधोऽनुमितिरिति
भावः ॥ ४६ ॥
T
सिद्धान्तसूत्रम् । श्राप्तस्य वमादिशून्यस्य य उपदेशः शब्दस्तत्र यत्साम श्राकाङ्क्षायोग्यतादिमत्त्वं ततः अथवा आप्त प्राप्त यदुपदेशसामाकाङ्क्षादिमत्त्वं ततः तत्सहकारात्साधारणश्चायं निर्देशस्तेन व्याप्तिनिरपेचादाकाङ्क्षादिज्ञानादर्थे सम्प्रत्ययः शाब्दबोधः सम्भवतीति नानु - मानान्तर्भावः शब्दस्येत्यर्थः शब्दादमुमर्थं प्रत्येमि नत्वनुमिभोमीत्यनुभवादिति भावः ॥ ५० ॥
शब्दार्थयोः सम्बन्धाभाव इत्यप्याह । शब्देन सहार्थस्य मम्बन्धाभावः व्याप्तप्रभावः हेतुमाह पूरणेति, यदि शब्दस्यार्थेन व्याप्तिः स्यात्तदा न्नाग्निबासीशब्देर्मुखपूरणमुखप्रदाहमुखपाटनानि स्युः शब्दस्य व्याप्यस्य सत्ये - नान्नादेरर्थस्यापि सत्त्वात् ॥ ५२ ॥
:
तत्कि शब्दोऽसम्बद्धमेवार्थ प्रत्याययति तथा सत्यतिप्रसङ्ग इत्याशङ्कते । प्रतिषेधः शब्दार्थयोः सम्बन्धप्रतिषेधो न शब्दार्थयोर्व्यवस्थितत्वात्कविदेव हि शब्दः कञ्चिदेवार्थं बोधयति न सर्व्वः सर्व्वमिति द्रत्यञ्च सम्बन्धे खोलते तेन सम्बन्धेन व्याप्तिरप्यावश्यकी सच सम्बन्धो न मुखपूरणादिनियामक इति भावः ॥ ५३ ॥
उत्तरयति । मन्मतेऽपि शब्दार्थयोरव्यवस्था न शब्दाधीनस्यार्थ - संप्रत्ययस्य सामयिकत्वात् शक्तिग्रहाधीनत्वात् शक्तिरूपसम्बन्धेन न च व्याप्तिस्तस्यावृत्तिनियामकसम्बन्धाधीनत्वादिति भावः ॥ ५४ ॥
शब्दस्यार्थेन सह न स्वाभाविकः सम्बन्धः जातिविशेषेऽनियमात् शब्दस्यानियतार्थकत्व दर्शनादाय हि यवशब्दाद्दीर्घम्यूकविशेषं प्रतियन्ति म्लेच्छास्तु कङ्गमिति नियमे तु सर्वः सर्व्वं प्रतीयात् श्रापाततश्चेदं नानाशक्तावपि यत्र यस्य शक्तिग्रहस्तस्य तदर्थोपस्थितेः ॥ ५५ ॥ समाप्त शब्दमामान्यपरीज्ञाप्रकरणम् ॥ १८ ॥
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२ अध्याये १ प्रातिकम्।
२३१
शब्दस्य दृष्टादृष्टार्थ कत्वेन वैविध्यसक्त तत्र चादृष्टार्थकशब्दस्य वेदस्य प्रामाण्यं परीक्षित पूर्व पक्षयति । तस्य दृष्टार्थ कव्यतिरिक्त शब्दस्य वेदस्य अप्रामाण्यं कुतः अन्तत्वादिदोषात् तत्र च पुलेष्टिकारी यागादौ कचित् फलानुत्पत्तिदर्शनादरत त्वं व्याघातः पापरविरोधः यथा उदिते जुहोति अनुदिते जुहोति समयाध्युषिते जुहोति श्यावोऽस्याहुतिमभ्य बहरति यउदिते जुहोति शवलोऽस्याहुतिमभ्यवहरति योऽनुदिते जुहोति श्यावशवलावस्याहुतिमभ्यवहरतो यः समयाध्यषिते जुहोति अत्र चोदितादिवाक्यानां निन्दानुमितानिष्टसाधनताबोधकवाक्येन सह विरोधः पौनरुत्यादप्रामाण्यं यथा नि:प्रथमा मन्वाह विरुत्तमामन्वाहेत्यवोत्तमत्वस्य प्रथमत्व पर्यवसानात् त्रिःकथ नेन पौन रुत्य एतेषामग्रामाण्ये तहटान्तेन तदेकर्ट कत्वेन तदेक जातीयत्वेन वा सर्ववेदान माण्यं साधनीयमिति भावः ॥५६॥
सिद्धान्तसूत्रम् न वेदाप्रामाण्यं कर्मकर्ट साधनवैगुण्यात् फलाभावोप पत्तेः कर्मणः क्रियायावैगुण्यमयथाविधित्वादि कर्त्त बैगुण्यमविद्वत्त्व दि साधनस्य हविरादे गुण्यममोक्षितत्वादि यथोक्त कर्मणः फलाभावे ह्यन्ट तत्वं न चैवमस्तीति भावः ॥ ५७ ॥
व्यघात परिहरति। न व्याघात इति शेषः अग्न्याधानकाले उदि. तहोमादिकमभ्यपत्य स्वीकृत्यानुदितहोमादिकरणे पर्बोक्नदोषकथनान्न व्याघातदूत्यर्थः ।। ५८ ॥
पौनरुत्यं परिहरति । च पुनरर्थे अन वादोपपत्तेः पुनर्न पौन - रुत्यं निष्प्रयोजनत्वे हि पौनरुत्य दोष उक्तस्थले त्वनुवादस्य उपपत्तेः प्रयोजनस्य सम्भवात् एकादशसामधेनीनां प्रथमोत्तमयोः विरभिधाने हि पञ्चदशत्व सम्भवति तथा च पञ्चदशत्वं यते इममहं माटव्यं पञ्चदशावरेण वाग्वज्वेण च बाधे योऽस्मान्दष्टि यञ्च वयं विश्व इति ॥ ५ ॥
अनुवादस्य सार्थकत्वं लोकसिवमित्याह । वाक्य विभागस्य अनुवादत्वेन विभक्त वाक्यस्यार्थग्रहणात् प्रयोजनस्वीकारात् शिष्टैरिति शेषः शिष्टा हि विधायकानुवाद कादिभेदेन वाक्यं विभज्यानुवादकस्यापि सप्रयोजनत्व मन्यन्ते वेदेऽप्येव मिति भावः ॥ ६ ॥
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न्यायतत्तौ ।
वेदे वाक्यविभागं दर्शयति । मन्त्रब्राह्मणभेदाद्दिधा वेदस्तत्व बालयस्यायं विभागः विधिवचनत्वेनार्थवादवचनत्वेनानुवादवचनत्वेन च वेदस्य विनियोगात् विभजनात् अथवा विनियोगात् भेदात् तथा च विध्यादिभेदाद्ब्राह्मणभागखिधेति शेषः ॥ ६१ ॥
तत्र विधिलक्षणमाह । इष्टसाधनताबोधक प्रत्ययसमभिव्याहृतवाक्यं विधिः अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादि अर्थवादः श्रर्थस्य प्रयोजनस्य वदनं विध्यर्थप्रशंसापरं वचनमित्यर्थः यर्थवादोहि स्तुत्यादिद्वारा विध्यर्थं शीघ्र प्रवृत्तये प्रशंसति ॥ ६२ ॥
तत्व स्तुत्यादिभेदादर्थवादं विभजते । स्तुतिः साचाद्विध्यर्थस्य प्रशंसार्थकं वाक्यं यथा मजिता वै देवाः सर्व्वमजयन् सर्वस्य श्राप्य सर्वस्य जित्ये सर्वमेवैते नाप्नोति सर्वं जयतीत्यादि अनिष्टबोधनद्वारा वि ध्यर्थं प्रवर्त्तकं निन्दा एषवावप्रथमोयज्ञानां यज्जयोतिष्टोमोय एतेनानिष्ट्वा अन्येन यजते स गर्ने पतत्ययमेवैतज्जीर्यते प्रत्रामीयत इत्यादि पुरुषविशेत्रनिष्ठमिथोविरुद्धकथनं परकृतिः यथा हत्वा वपामेवाग्रेऽभिघारयन्त्यथ पृषदाज्यं तदुहच रकाध्वर्यवः पृषदाज्यमेवास भिघारयत्यग्नेः प्राणाः पृषदाज्यमित्यभिदधतीत्यादि ऐतिह्यसमाचरिततया कीर्त्तनं पुराकल्पः यथा तस्माद्दा एतेनपुराब्राह्मणावहि: पबमानसामस्तो मम स्तौषन् यज्ञं प्रतनवामह इत्यादि ॥ ६३ ॥
अनुवादलक्षणमाह । प्राप्तस्य अनु पश्चात्कथनं स प्रयोजनमनुवाद इनि सामान्य लक्षणं तद्विशेषविधिविहितस्येति विध्यनुवादविहितावादचेत्यर्थः व्ययं चार्थवादानुवादविभागोविधिसमभिव्याहृतवाक्यानां तेन भूतार्थवादरूपाणां वेदान्तवाक्यानामपरिग्रहान्न न्यूनता ॥ ६४ ॥
:
शङ्कते । शब्दाभ्यासस्य बोधितार्थक शब्दस्य योऽभ्यासः पुनः प्रयोग स्तस्योपपत्तेः सत्त्वात् व्यनुवादः पुनरुक्तान्न भिद्यतइत्यर्थः ॥ ६५ ॥
६३२
समाधत्ते । अनुवादस्य पुनरुक्तान्नाविशेषः अभ्यासात् अभ्यासस्य सप्रयोजनत्वात् तत्र दृष्टान्तमाह शोषेति यथा लोके गम्यतामित्यक्का पुनगम्यतां गम्यतः इत्यादि कर्माविलम्बादिबोध मुच्यते तथा मकते
ऽपीति ॥ ६६ ॥
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२ अध्याय १ आत्रिकम् ।
२३३
एवम प्रामाण्यसाधकं निरस्य प्रामाण्यं साधयति । प्राप्तस्य वेदकत्तः प्रामाण्यात् यथार्थोपदेशकत्वात् वेदस्य तदुक्तत्वमर्थालचं तेन हेतुना वेदस्य प्रामाण्यमनु मेयं तत्र दृष्टान्नमाह मन्त्रायुर्वेदवदिति मन्त्रीविषादिनाशकः अायुर्वेदभागश्च वेदस्य एव तत्र सम्बादेन प्रामाण्यग्रहात् तदृष्टान्ने न वेदत्वावच्छेदेन प्रामाण्यमनुमेयम् आप्नं ग्टहीतं प्रामाण्यं यत्र स वेदस्ता. दृशेन वेदत्वेन प्रामाण्यमनुमेयमिति केचित् ॥ ६ ॥
समाप्त शब्दविशेषपरीक्षाप्रकरणम् || १६ ||
इति श्री विश्वनाथ भट्टाचार्यशतायां न्यायसूत्रवृत्तौ विभागपरीक्षानिरपेक्षमाङ्ग प्रमाणपरीक्षणं नाम द्विवीयस्था
यमा निकम् ॥१॥
अथ विभागसापेक्ष प्रमाण परीक्षणं तदेवचानिकार्थः चत्वारि चान प्रकरणानि ततादौ चतुष्वपरीक्षा प्रकरणम् । अन्यानि च तत्र तत्र वछहान्ने तत्त्राक्षेपसूत्रम् । प्रमाणानां न चतुष्व प्रमाणत्वं नोक्ल चतुष्कान्य. तमत्व व्याप्य उनान्यत्तित्वात् तत्राम्यत्तित्वं व्युत्पादयति ऐतिथेत्यादि ऐतिह्य इति होचुरित्यनेन प्रकारेण यदुच्यते तद्धि अनिर्दिष्ट प्रवक्त कं परम्परागतं वाक्यं यथा वटे वटे यक्ष इत्यादि तस्य चाप्तोक्तत्वानिश्चय न शब्देऽन्न व इति भावः अर्था पत्तिरनुपपद्यमानेनार्थे नोपपादकवल्पनं यथा वृश्या मेवज्ञानं दृष्ट्या सह मेघस्य वैयधिकरण्यान्न व्याप्तिरिति नानुमानेअन्तर्भावः सम्भवो भूयः सहचाराधीनन्नानं यथा सम्भवति ब्रहणे विद्या. सम्भवति सहस्र शतं अत्र च व्याप्ति पेक्षितेत्याशयः अावस्तु विरोध्यभावज्ञान धीनविरोध्यन्नरकल्पनं यथा नकुलाभावज्ञानेन नकुलविरो. धिनो व्यालस्य कल्पतम् अत्रापि व्याप्ति मेचितेत्याशयः अथवा कारणाभावादिना कार्याभावादिज्ञानम् अभावः भावनिष्ठ व्याप्तिरेवानुमानाङ्गमित्याशयः ॥ १ ॥
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न्यायसूवत्तौ।
सिद्धान्तसूत्रम्। न प्रमाण चतुदयस्य प्रतिषेधः शब्दे ऐतिय स्थानर्थान्तरभावादन्तर्भावात्मामान्यत प्राप्तोनत्वज्ञानसम्भवास्तुत प्राप्त तत्वज्ञ.नं न शाब्दे कारणं किन्त्वाकाङ्गादिज्ञानं योग्यताप्रमाधीना च शाब्दअमेति अर्थापत्य देरनुमानेऽन्तर्भावः उपपादककल्पनं हि विना व्याप्तिज्ञानं न सम्भवति दृष्टित्वादावपि मेघ जन्यत्वव्याप्तिरत्य व सम्भवोऽपि व्याप्तिम लकत्वादनुमानं व्यः स्यन पेक्षित्वे च व्यभिचारादप्रमाणम् एवमभावो व्याप्तिसापेक्षोऽनुमानम् अभावनिष्ठव्याप्तेश्चानुमानाङ्गत्वे न वि. रोध इति भावः ॥ ३ ॥
सत्य पत्तेः प्रामाण्ये वहिर्भावान्नर्भावचिन्ता तदेव तु नास्तीति नटस्थः शङ्कते। असति मेधे वृष्टिन भवतीत्यनेन मति मेधे धिर्भवतीयर्थापत्तिविषयस्तत्र च न प्रामाण्यं सत्यपि मेधे श्यभाव दनै कालिकस्वात् ॥ ३॥
समाधत्ते । अर्था पत्ते न नै कान्तिकत्वमिति शेषः असम मेघेष न कृष्टिरित्यनेन सति मेघे वधिरिति तत्र च वृध्या मेघज्ञानमभिमतं यत्र च मेघे न दृष्टिज्ञानं तत्रानपत्तावर्धापत्तिभ्रमः नचैता व ता प्रामाण्य विरोधः व्यायादिभ्रमात्रमानुमिति दर्शनाद नमानस्थाप्य प्रामाण्टापत्तेः नानकान्तिकत्वमर्थापत्तेरिति भाष्यस्थावतारणिकां सूत्रादौ केचिल्लिन्ति ॥ ४
प्रतिबन्धिमप्याह । त्वदु करीत्या त्वदीयप्रतिषेधस्थाप्य प्रामाण्यं स्यादनैकान्तिकत्वात् यत्र कुत्वचिदनै कान्तिकत्व त्य प्रतिषेधासाधकत्वादनैकालिकत्वात् ॥ ५॥
अथ यत्र कुवचिदनै कान्ति कत्वं न दोषाय किन्त स्वविषये इति यदि तदा पत्तेरपि नाप्रामाण्य मित्याह । अनैकान्निकत्वस्य सविषये साधकत्वाद्यदि स्वहेतोः प्रामाण्यं मन्य से तदार्था पत्ते रपि स्व विषये प्रामाण्ट - मिति ॥६॥
अभावस्य न प्रमाणे नर्भाव इति तटस्थः शङ्कते । अभावनामक प्रमाणं तदा स्याद्यदि तस्य प्रमेय सियेत्तदेव व नास्ति अभावस्य तुच्छत्वान्न तत्र प्रमाण प्रवृत्तिरिति भावः ॥ ७ ॥
सिद्धान्तसूत्रम् । तस्यमा प्रमाणस्य प्रपेयसिदि: भावप्रधानो निर्देशः
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२ अध्याये २ आश्रिकम् । २३५ किन्नत्य मेयमित्यलाह लक्षितेष्विति लक्षितेष घटादिष्वलक्षितानां तत् - प्रमेयत्वसिद्धिः अलक्षितानां कथं प्रमेयत्वमत आह अलझणलक्षितत्वादिति यद्ययभावस्य गुणकर्मादिभिलक्षणं न सम्भवति तथाप्यलक्षणेनैव तल्लक्षितं भवति अनीलमानयेत्यु को नीलाभावो हि दूतरव्यावर्तकतया लक्षणम् अतोऽभावोनाप्रामाणिक इति भावः ॥ ८॥
आक्षिप्य समाधत्ते । असति प्रतियोगिन्यभावो वक्नु न शक्यते सक्ति च प्रतियोगिनि कथं तदभाव इति चेनान्यत्र लक्षणेन सत्त्वेनार्थात्पतियोगिनः उपपत्तेरभावोपपत्तेः न हि तत्र प्रतियोगिनः सत्त्वमधे. क्षितम् ॥ ८॥
शङ्कने । लक्षितेषु लक्षणस्य तसिद्धेः व्याव कत्वसिद्धेरलक्षितेषु अभावेषु अहेतुः अहेतुत्वं व्यावत्यहेतुत्वम् अभावस्य लक्षणाभावानिःस्वरूपस्य न व्यावर्त क त्वमिति भावः ॥ १० ॥ ___ समाधत्ते । पूर्व पक्षो न युक्तः प्रतियोगिनो लक्षणस्य यदवस्थित-- मव स्थानं तस्या पेक्षाय त दृसिद्धेः अयमर्थः प्रतियोगिस्वरूप ज्ञानादेवा. भावस्ख रूपनिरूपणसम्भवान्नाभावलक्षणापेक्षेति भावः ॥ ११ ॥
प्रमेय सिद्धिरिलि। मण्ड काल त्यानुवर्तते प्रतियोगिन उत्पत्तेः प्राक् अभावस्य उपपत्तेः उपलम्भात् घटो भविष्यतोत्यादिमागभावविषयक प्रत्यक्षस्य सार्वलौकिकत्वादिति भावः चकारेण ध्वंसादेरपि प्रत्यक्षसिद्धत्वं समुच्चीयते चेष्टाया निापारत्वेन न प्रामाण्यं वस्तुतो लिप्यादिवत्साङ्केतिकत्वात्तस्याप्यनुमाने शब्देवान्तर्भाव इति ॥ ११ ॥
समाप्त प्रमाणचतुष्वप्रकरणम् ॥ ५० ॥ बेदस्य प्रामाण्यमातप्रामाण्यासिद्धं न चेदं यज्य ने वेदस्य नित्यत्वादित्याशङ्कायां वर्णानामनित्यत्वात् कथं तत्समुदायरूपस्य वेदस्य नित्यत्वमित्याशयेन शब्दानित्यत्व प्रकरणमारभते तत्र सिद्धान्तसूत्रम् । शब्दोऽनित्य इत्यादिः आदिमत्त्वात् सकारणकत्वात् ननु न सकारणकत्वं कण्ठताल्लाद्यभिघातादेव्य॑ञ्जकत्वेनाप्य पपत्तेरत आह ऐन्द्रियकत्वादिति सामान्यवक्त्वे सति वहिरिन्द्रियजन्य लौकिक प्रत्यक्षविषयत्व दित्यर्थः परे तु ऐन्ट्रियकत्वं लौकिक प्रत्य नविशेष्यत्व सामान्यसमवाययोस्तु न तथात्वं जाति
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न्यायसूत्रहत्तौ।
त्यादिना विशेष्यत्वसम्भवेऽपि जातित्वादेर प्रत्यक्षत्वान्न व्यभिचार: मनस इन्द्रियत्वाभावाच्च नात्मनि व्यभिचार आत्मन ऐन्द्रियकत्वाभावावे त्याहुः अप्रयोजकत्वमाशङ्ग्याह कतकेति कृतके घटादौ यथा उपचारो ज्ञानं तथैव कार्यत्वप्रकारक प्रत्यक्ष विषयत्व दित्यर्थः तथा च कार्यत्वे नाना हार्थसार्बजौकिक प्रत्यक्षबलाद नित्यत्वमेव सिध्यति केचित्त उपचारादिन शि त्वात् कृतकवत् इति दृष्टान्त इति परे त कतकवटुपचारात् कृतकसुखदुःखादिवद्यवहारात् यथाहि सुखादौ तीब्रमन्दादिव्य वह र: शब्देऽप्येवं न त नित्ये तथेत्याहुः ॥ १४ ॥
यथावते हेतूनां व्यभिचारमाशङ्कते | नोका हेतवः घटाभावस्य घटव सस्य नित्य त्वाद विनाशित्वादादिम व व्यभिचारि ऐन्द्रियकत्वं सा. मान्ये व्यभिचारिनित्येवम्यनित्य बदुपचारात् यत्रा घटाकाशमुत्पत्रम् अहं सुखीजात इत्यादि ॥ १५ ॥
प्रथमे व्यभिचारं परिहरति । तत्त्वस्य पारमार्थिकस्य भातस्य च नानात्वस्य भेदस्य विभाग त् विवेकान व्यभिचारः ध्वसे हि उत्पत्ति. मत्त्वलक्षणम् ग्रादिमत्त्वं लैकालिकत्वरूपनि त्यत्वाभावरूपञ्चानित्यत्वम स्त्येवाविनाशित्वाविन्यत्वमौपचारिकमतो न व्यभिचारः आदिमत्त्वं प्रागभावायच्चिनसत्त्व न चैतदभाव इति वायः॥ १६ ॥ ___हितोये व्यभिचारमुवति । सन्नानस्थानुमानेऽनुमिति करणे लिने विशेषणात् सन्तान: सन्तन्यमानः एकधर्मावछिनत्वेन ज्ञायमानः तेन सामान्य वत्व सतीति विशेषणीयमिति ॥ १७ ॥
हतीये व्यभिचार वारयति ! आकाशे हेतुर्नास्य व आकाशे प्रादेशिकत्व व्यवहारस्तु गौणः प्रदेशशब्देन कारणद्रव्यस्य कारणवतो द्रव्य स्थाभिधानान्न चाकाशं तादृशं ताश चे वा साध्यसत्यान्न व्यभिचारः एवं सुखोजात इत्यादौ सुखाद्युत्पत्तिरेव विष्य इति भावः ॥ १८ ॥ ____न चोकहेतूनामप्रयोजकत्वं विपक्षबाधकसत्वादित्याह। शब्दो यदि नित्यः स्यादुच्चारणात् प्रागप्यपलभ्येत श्रोत्र मनिकर्षस त्वा नचात्र प्रतिबन्धकमतीत्याहावरणेति आवरणादेः प्रतिबन्धकस्यानुपलब्धयाऽभावनिर्णयात् देशा नरगमनन्त शब्दस्यामत त्वा न सम्भाव्य ते अतीन्द्रियानन्न
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२ श्रध्याय २ श्रह्निकम् ।
२३७
प्रतिबन्धकत्वकल्पनामपेच्य शब्दानित्यत्वकल्पनैव लघीयसीति भावः ॥ १६ ॥ भ्वान्नस्य पूर्वपचपरं स्वत्रद्दयम् । अनुपलम्भादनुपलब्धिसद्भाववन्नावरणानुपपत्तिरनुपलम्भात् यथा त्वया आवरणस्यानुपलचा अभाव इत्युच्यते तथा ग्रावरणानुपलब्धेरनुपलम्भात्तदभाव आवरणोपलब्धिरेव स्यात् यदि वा ग्रावरणानुपलब्धेरनुपलम्भेऽपि नावरणानुपलब्धेरभावस्तदा व्यावरणस्यानुपलम्भादपि नावरणस्यानुपपत्तिरित्यर्थः ॥ २० ॥ सिद्धान्तस्त्रवम् । आवरणानुपलब्धेरनुपलम्भादावरणोपलब्धिरिति जान्छुत्तरम् अहेतुः न सन्नतप्रतिषेधसाधनम् कानुपलब्धे रावणानुपलब्धेरनुपलम्भात्मकत्वादुपलम्भाभावात्मकत्वात्तस्य च मनसैव सुग्रहत्वात्तदनुपलब्धिरसिद्धेति भावः ॥ २२ ॥
सन्प्रतिपक्षमाशङ्कते । शब्दो नित्यः स्पर्शत्वाङ्गगनवदिति भावः ॥ ५३ ॥ न सप्रतिपचस्वदीयहेतोरनैकान्तिकत्वादित्याह । व्यस्पर्शत्व न शब्दनित्यत्वसाधकं कर्मणि व्यभिचारात् ॥ २४ ॥
अनैकान्तिकमपि साधकं स्यादत्वाह । ग्रनैकान्तिकस्य साधकत्वेऽणोः परमाणोर्नित्यत्वं पश्वादिना
नस्याद्रूपा
तवानित्यत्वानुमानापत्तेरि
त्यर्थः ॥ २५ ॥
शङ्कते । गुरुणा शिष्याय विद्यायाः सम्प्रदानात् तथा च शब्दस्य प्रः क्सत्त्वं सिद्ध तथा च तावत्कालं स्थिरं चैनं कः पश्चानाभ्यमिष्यतीति न्यायानित्यत्वमर्थसिद्धमिति भावः || २३ ||
सिङ्घान्नसूत्रम् । शिष्ये उपसन्ने गुरुरध्यापयति यदि च शब्दोनित्यः स्यात्तदाशिष्यागमनानन्तरमध्यापनात् पूर्वमपि शब्द उपलभ्येतेत्यनुपलच नास्ति शब्दइत्यतस्वदुक्तोन हेतुः ॥ ५७ ॥
A
पूर्वपत्रम् | मदीयहेतोः प्रतिषेधो न युक्तः कुतः व्यध्यापनात् यद्यन्नरालकाले शब्दो न स्यात् कथमध्यापनं घटेत अनुपलब्धिस्तु शब्दस्य कण्ठतालवाद्यभिघातरूपव्यञ्जकाभावादुपपद्यत इति भावः श्राचाय्र्यास्तु त्रयमेवं प्रचचते विभक्तिष्यत्यासाद हेतोस्तदनन्तरालानुपलब्धिरर्थस्तथा च हेतोः स्वत्वस्याभावात्तदनन्तरालस्य स्वत्वध्वंसस्यानुपलब्धिरतोन
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२३८
न्यायसूत्तौ ।
दानमित्यर्थः प्रतिषेधोन युक्तः न हि दानं ममाभिप्रेतं किन्त्वध्यापनं तञ्च विद्यमानस्य शब्दस्यैवेति भावः ॥ २८ ॥
सिद्धान्त सूत्रम् । अन्यतरस्य पक्षस्यानित्यत्वसाधकस्याध्यापनाद्यः प्रतिषेधः स न सम्भवति उभयोः पच्चयोरध्यापनस्य समानत्वादिति शेषः अध्यापनं हि गुरूच्चारणानूच्चारणं शिष्योच्चारणानुकूलोञ्चारणं वा तच्च स्थेयस्यैर्यपक्षयोस्तुल्यं न शब्दनित्यतायाः साहायक विधातुमलं न ह्यध्यापनं दानं येन स्वस्वत्वध्वं सपरखत्वापादनार्थं तस्य स्वर्य्यमाशङ्कनीयं न वा सम्भवति वहूनामेकदा स्वत्वविरोधात्परखदानासम्भवाञ्च यपि तु न्टत्याध्यापन. दाविवोपदेशमात्त्रमिति भावः ॥ २६ ॥
पूर्व्वपक्षसूत्रम् । यति स्थिरं तदभ्यस्यमानं दृष्ट' यथा दशलत्वोरूपं पश्यति एवं शतकृत्वो नुवाकमधीत इत्यभ्यासात्स्वयें शब्दस्येति भावः ॥ ३० ॥
उत्तरयति । पूर्व्वपच्चीन युक्तः कुतः अन्यत्वं भेदेपि शब्दानां काव्ययनाभ्यासस्य उपचारात्सम्भवात् न ह्यभ्यासः स्थैर्यं साधयति द्विर्जुहोति - त्रिन्त्यतीत्यादौ भेदेऽप्यभ्यास दर्शनादिति भावः ॥ २१ ॥
अन्यतैव जगति नास्तीति कथमन्यत्वेऽप्यभ्यासोपपत्तिरिति तटस्य वाशङ्कते । यदन्यस्मादन्यदुच्यते तत् स्वस्मादनन्य दभिन्न तत्कथमन्यङ्गेदाभेदयोर्विरोधादिति भावः स्वाभेदस्यावश्यकत्वमिति हृदयम् ॥ ३५ ॥
समाधत्ते । तदभावेऽन्यत्वस्याभावेऽनन्यतापि नास्ति तयोर्भेदाभेदयोः सिद्धेः परस्परसापेचत्वात् वस्तुतस्तु तयोर्मध्यतरस्य एकतरस्य अनन्यत्वस्य इतरापेचसिद्ध: इतरत्वस्य भेदस्य ज्ञानापेक्षा सिद्धिर्यस्य ताडशत्वादित्यर्थः ॥ ३३ ॥
शङ्कते । शब्दो नित्यइत्यादिः अनुपलब्धिरमत्यन्तमज्ञानं वा ॥ ५४ ॥ यो प्रतिवन्विमाह । यद्यप्रत्यच्तत्वादभावसिद्धिस्तदा श्रवणकारणस्याप्रत्यच्तत्व दश्रवणं न स्यादिति सततश्रवणप्रसङ्गदूत्यर्थः ॥ ३५ ॥
द्वितीयेत्वाह । अनुमानादिना उपलभ्यमाने विनाशकारणे अनुपलो रभावत्व होयो हेतुरनुपदेश असाधकः प्रसिद्धत्वात् जन्यभावत्वेन विनाशकल्पनमिति भावः ॥ ३६ ॥
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२ अध्याये २ आङ्गिकम् ।
२३६
सिद्धान्निनः सूत्रानरम् । शब्दायमाने कांस्थादौ पाणिरूपनिमिसस्य प्रश्लेषात् संयोगा छब्दाभावे उपलभ्यमाने शब्दाभावकारणस्य नानुपलचिरिति यथा तानुयायिनः परेत पाणिरूपनिमित्तस्य प्रश्लेषः सम्बन्धो यत्र स पाणिज: शब्दः अर्थात् उत्तर शब्दः ततःशब्दाभावे शब्द. ध्वं मे सति न विनाशकारणानुपलब्धिरित्यर्थ इत्याहुः अन्येत पूर्वसूत्र - अब्दस्य तावद्दे ग म कः संस्कार विशेषोहे उस्त स तीव्रतीब्रतरमन्दमन्दरतत्त्वाछब्दोऽपि तादृशः तत्र चोत्तरोत्तरशब्दानां पूर्व पर्व शब्दनाशकत्वं वल्लात इत्यर्थः ननु तादृशसंक रएव नास्तीत्यवाह पाणीति नानुपलब्धि : संत रखेति शेषः पाणेनिमत्तस्य प्रश्लेषात् घण्टादिसंयोगात्मस्काररूपकारणाभावहारा शब्दाभावे शब्दानुत्पत्तौ नानु पलम्भः संस्कारयेत्यर्थ इत्याहुः ॥ ३७॥
ननु घण्टादिपाणि योगस्य शब्दनिवर्तकत्वे घण्टाद्याश्रयएव शब्दः स्यादित्याशङ्कायामाह। उक्तः प्रतिषेधो न सम्भवति अस्मीत्वात शब्दाश्रयस्येति शेषः शब्दोहि न स्पर्शवविशेषगुणः अग्निसंयोगासमवायिकारणकत्वाभाववदकारण गुण पर्व क कायंत्यादित्याशयः ॥ ३६॥
एतदेव व्युत्पादयितुमाह। समासे स्पर्शादिसमुदाये साहित्येन शब्दो वर्तत इति न युनं विभच्यन्तरस्य विभागान्तरस्य नारमन्दादेरुपपत्ते: अय मर्थः एकस्मिन्नेव शहादौ तारमन्दादि नानाशब्दा जायन्ते गन्धादयस्तु विनाग्निसंयोगं नपरावर्तन इति भावः ॥ १०५॥ समाप्त शब्दानित्यत्वप्रकरणम् ॥ ४० ॥
प्रसङ्गाछब्दपरिणामवादं दूषयित संशयं प्रदर्शयति । इकोयणची त्या. दिना इकारादेविकारो यकारादिति केचित् भारं वा व्याचक्षते परेत दूकारे प्रयोकव्ये यकारः प्रयोक्तव्य इत्यादेशमादिशन्ति अतश्च वर्णाविकारिणो न वेति संशयः विकारश्च स्वरूपस्य विनाशेऽविनाशे वा द्रव्यानरारम्भ कत्व यथा दुग्धादेई ध्यारम्मकत्व वीजादे माद्यारम्भकत्वञ्च सुवर्णादेरपि लोहाघातजन्यावयवसंयोगनाशांदवयविनो नाशे सत्येव कुएडलारम्भकत्व क पालादेश्च स्वरूपाविनायेन घटायारम्भकत्वम् ॥४१॥
तत्र विकार निराकरणाय सूत्रम् । न व विकारिणस्तथा सति
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न्यायसूत्ररत्तौ।
तत्पकते रुपादानत्वाभिमतस्थविद्या विकारस्यापि विड्यापत्ते: महद. ल्यावयवारधावयविनो महदल्यत्ववत् हखेकारारब्धयकारापेक्षया दीर्धेकारारब्धय कारस्य विधिः स्यादित्यर्थः तस्मादादेश पक्षः श्रेयानिति भावः॥४२॥
आक्षिपति । उनोहेतुन युक्तः विकाराणां प्रसत्यपेक्षयान्यूनत्वस्थ समत्वस्याधिकस्य चोपपत्ते दर्शनात् यथा ठूलकपरिमाणापेक्षया तहिकारस्तन्तुरल्पपरिमाणः यथा वा न्यग्रोधवीजादुत्कृष्टे न नारिकेलीवीजेन न्यग्रोधादल्यो नारिकेलीतर्जन्यते कनकादिसमपरिमाणं कटकादि च यथा वा न्य नाधिकनारिकेलोवीजाभ्यां समौ क्षौ न्य नपरिमाणाच वटवोजात् महान् वट तरुरिति ॥ ४३ ॥
समाधत्ते । नोक्तं समाधान युक्त अतुल्य प्रकृतीनां भिन्न प्रकृतीनां हि विकाराणां विकल्पः वैलक्षण्यं मयाभिहितं न हि वीजादेहास वृद्ध्यादिना वृक्षादेसियादिकं प्रक्रान्त मदुकाबलक्षण्य न्तु तत्राथस्ति तथा च त्वदुक्क सुपचार छलमिति भावः ॥ ४४ ॥ ___शङ्कते । द्रव्यत्वेन न्ययोधादिप्रकृतीनां तुल्यत्वेऽपि विकारवैषम्यं यथा एवमेव वर्णत्वेन तुल्ययोरपि हखदीर्घयोर्यो विकारोयकारस्तस्य अविकल्प एकरूप्य नानुपपन्न मित्यर्थः ॥ ४५ ॥
समाधत्ते । नात्र द्रव्यविकारतुल्यता विकाराणां हि अयं धर्मों प्रकृत्य नुविधानं तङ्गे दे भेद इति प्रकृते तदनुपपत्तिः हस्खत्वदीर्घत्वादिना प्रतिभेदेऽपि कार्यभेदाभावात् ॥ ४६ ॥
__ दूतश्च न विकार इत्याह । विकारप्राप्तस्य न पुनः प्रकृतिरूपता दृष्टा न खलु दधि क्षीरतां पुनरापद्यते इकारस्तु यकारतां प्राप्तः पुनरिकारतामापद्यते दध्यनेत्युक्त्वा पुनरपि दधि अवेत्युच्यत एवेति भावः ॥ ४७॥
प्राज्ञिपति | उनो हेर्न यतः सवर्णादिकं हि कटकीभाव विहाय कुण्डलतामापन्नं पुनः कट कतामा पद्यत एवेति भावः ॥ ४८ ॥
निराकरोति। सुवर्ण विकारस्थले हि सुवर्णत्यादिना प्रकृतिता न तु कट कत्वादिना तनोभयमपि सुवर्णभावं न जहाति यदि हि सुव
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२ अध्याये २ आङ्गिकम्।
२४१
सवर्णतामपहाय कट कतामापन्नं पुनः सुवर्णता तदा व्यभिचारः शक्येत न चैवं प्रकृते त इकारतां हित्वा यकारतां प्राप्तस्यापीकारतापत्तिरस्वेवेति दोषोदुःपरिहर इति भावः ॥ ४६ ||
अविकारे मूलयुक्तिमाह । वर्णानां नित्यत्वे विकारासम्भवाद नित्यत्वे चाचिरस्थायित्वेनेकारप्रत्यक्षानन्तरमिकारनाशादिकारानुपपत्तिरित्यर्थः ॥ ५३॥
अत्र विकारवादी नित्य त्वमतमालम्बा परिहरति । विकाराणां प्रतिषेधो न युनः नित्यानां धर्मविकल्पाद्धर्मस्य नानाविधत्वादतीन्द्रियत्वात चकारेणैन्द्रियकत्वं समुच्चीयते यथा हि नित्यानामाकाशादीनामतीन्द्रियत्वेऽपि गोत्वादोनां नित्यत्वमेवमन्येषां नित्यानामविकारित्वेऽपि वर्णानां विकारित्वं स्यादिति || ५३ ॥
अनित्यत्वमालम्बा स साह। अनवस्थायित्वेऽपि वर्णानां यथाप्रत्यहं भवत्येवं विकारोऽपि स्यादिति भावः ॥ ५४॥
___ उभयत्रोत्तरयति । उक्तः प्रतिषेधो न युक्तः विकारधर्मित्वे नित्यवासम्भवात् विकारोह्यत्र खरूपपरित्यागेन रूपान्तरापत्तिः तथात्वे च नित्यत्वविरोधात् न हि घटादेः कपालाद्यपादेयत्ववत्मकतेः सम्भवति यकारकाले इकारानुपलब्धेः अनित्यत्वपक्षेऽपि प्रतिषेधो न युक्तः प्रत्यक्ष हि वर्णस्य द्वितीयक्षणे युज्यते विकारस्तु कालान्तरोयो न युज्यते दधीति शब्दानन्नरम वेत्यादि शब्देन तस्य नाशादिति भावः ॥ ५५ ॥
इतश्च विकारानुपपत्तिरित्याह । विकाराणां हि प्रकृतिनियमो यथा जोरदनोः प्रकृति विकारभावो नत वैपरीत्यं प्रकृतेतु दध्यवेत्यादौ विकारो यकारप्रकृतिविध्यतीत्यादौ तु यकार कारप्रकृतिरिति भावः ॥ ५६ ॥ . अत्र छलवादी शङ्कते । अनियमो य उन्नः स न युक्तः कुतः अनियतत्वस्य नियमादित्यर्थः ॥ ५७ ॥
समाधत्ते । अनियमे नियमात् यस्त्वया नियमप्रतिषेधः कृतः स न युक्तः
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न्यायसूवरत्तौ।
कुत: नियमानियमयोर्विरोधात् अनियमोहि नियमाभावस्तस्मिन् मति नि. यमासम्भवादिति भावः ॥ ५८॥
तदेवं वर्णानां प्रकृतिविकारभावं निरस्य व पक्षे विकारव्यवहार. सुपपादयति । तु शब्दः पुनरर्थे एतेभ्यः पुनर्ब विकारोपपत्ते वर्णविकारस्य एकवर्ण प्रयोगेण वर्णान्तरप्रयोगस्य उपपत्ते वर्णविकार इति व्यवहियते तानेवाह गुणान्तरेति गुणान्तरापत्तिर्धर्मिणि सत्येव धर्मान्न रापत्तिः यथोदात्त ऽनुदात्तत्व उपमर्दोधर्मि निवृत्तौ धर्नान्तरमयोगः यथास्तेमुंहासोदीर्घस्य हस्खत्व वृद्धिःहखस्य दीर्घत्व लेशः अल्पत्व यथास्तेरकारलोपः श्लेष बागमः एतैः कारणेविकारव्यवहार इति ॥५॥ समाप्त शब्दपरिणामप्रकरणम् ॥ २५॥ __शाब्दबोधे पदजन्य पदार्थोपस्थिते तत्वात्तदुपपादनाय पदार्थे निरूपणी ये पदमादौ निरूपयति। ते वर्णा विभक्त्यन्नाः पदं बद्ध त्वमविवक्षितं विभक्त च सत्वमनपेक्षितं विभक्निश्च सप्तिकरूपा वस्तुतस्तु नेदं पदं शाब्दबोधोपयोगि किन्विदमाकासाखरूपमथ वा विभलिई तिरन्नः सम्बन्धस्तेन दृत्तिमत्वं पदत्वमिति इत्यञ्च पदं निरूप्य तदर्थनिरूपणं सङ्गछते यत्तु प्रसङ्गात् पदार्थनिरूपणमिति तन्न पदनिरूपणयामङ्गतत्वापत्तेः एक सूत्रस प्रकरणत्वाभावात् ॥ ६॥
तव पदे निरूपिते तहाच्यत्वं पदार्थवं निरूपितं तत्रापि धात्वाद्यर्थस्य निर्विवाद त्वाइवादिपदार्थ निरूपयितमाह । व्यक्तिर्गवादिः जातिः गोत्वादिराकृतिरक्यवसंस्थान विशेषः तेषां सन्निधिः सामीप्य मिलनं तत्र सति उपचारात् ज्ञानात् तथा च त्रयाणां युगपत्प्रत्ययात्कि मेतेषां प्रत्येक पदार्थ उत सस्तमिति संशयइत्यर्थः इदंभाष्यमिति केचित् वस्तुतस्तु दुर्बोधादिस्वरसात् सूत्रमेव तदर्थ इत्यंशस्तु भाध्यकतः पूरणमिति प्रति. भाति ॥ ६॥
तत्र व्यक्तिशक्ति वादिनो मतमाह | पदार्थ इति शेषः उनानां उपचारात् व्यवहारात् अनुवन्धः प्रजननं या गौर्ग छत्तीत्यादि व्यवहारोव्यकावेव जात्यावत्योरमतत्वात् एवं गवां समूहः गां ददाति गां प्रतिग्द.
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२ अध्याये २ प्राज्ञिकम् ।
२४३
हाति दश गावः गौवे ते कशा गौः कपिल गौः गोलोहितं गौः प्रसूतइत्यादि व्यवहाराणां व्यक्तावेव सम्भवात् समासः सम्यगासनं सम्बन्धो.. ऽनुबन्धरत्यर्थे गौरास्ते गोर्मुखमित्युदाहरणीयम् ॥ ६ ॥
तहषयति। न व्यक्ती शक्तिय॑क्रिमावस्यानवस्थानात् अव्यवस्थानात् ॥६॥
व्यक्तिमानस्य शक्यत्वे हि गवादिपदात्किञ्चिद्यने रुपस्थितिः स्यादतो गोत्वविशिष्टाव्य निर्वाच्या तथा च नाग्टहोत विशेषणान्यायात् जातावेव शक्तिरस्तु कथं तहि व्यक्तिबोध इत्यग्निमसूत्रम् । अतद्भावेऽपि तत्पदाशक्यत्वेऽपि तदुपचारः तच्छन्दव्यपदेशो यथा सहचरणादितो ब्राह्मणादौ यञ्चादिपदप्रयोगः सह चरणामयोगविशेषाद्यष्टिं भोजयेत्यव यष्टिधरबामणे यष्टिशब्दप्रयोग एवं स्थानान्मचाः क्रोशन्तोति मत्स्थ पुरुषे ताद
त्कि: करोतीति कटाथ करीर कट स्यामिद्धत्वेन कारकत्वायोगात यमय वृत्तादनुशासनादितो राजनि यम इति मानात् अाढ केन मिताः शक्तव अाढ कशतव इति धारणात्तुन्तया तं चन्दनं तुलाचन्दनमिति सामोप्यागङ्गायां गावसरन्नोति कृष्णद्रव्ययोगात् शक? कृष्णः शकट इत्युदाहर
की+ स्नं माया अनि-कापिकापावापास कुलमिति कुलाधिपतिः प्रतीयते तथा च यथा गङ्गादिपदाहङ्गातीरत्वादिना बोधस्तथा गोपदादितो गोत्वविशिष्टस्य लक्षण या बोध एतेन यगपत्तियविरोध एकपदार्थयोः परस्परानन्वयश्च प्रत्युनः गोवत्वेन रूपेण शनिपहात्तथैवोपस्थितिरतोनिष्क्रकारकपदार्थोपस्थितिरपि नास्तीति मनव्यम् ।। ६४ ॥
याकतिरेव शक्ये ति मतमपन्यस्यति । प्राकृतिः पदार्थः कुतः सत्त्वस्य प्राणिनो गवादेव्यवस्थान सिद्धेर्व्यवस्थितत्वसिद्धेस्तदपेच त्वादालतपेक्षत्वादयमश्वो गौरयमित्यादिव्यवहारस्थावत्यपेक्षत्वादावतिरेव शक्येत्यर्थः ॥६५॥
फलतस्तद्ः दूषयति । मायके व्यत्यावतियुनेऽपि प्रोक्षणादीनामप्रसङ्गाद प्रसञ्जनाज्जाति: पदार्थ इतरथा महवकस्यापि व्यक्तित्वाइवाकृति. सत्त्वाच्च वैध मोक्षणादिप्रसङ्गादिति भावः || ६ |
केवलव्यायालतिशक्तिपक्षं निरामय केबलजातिपक्षं निराक रोहि । न जातिमात्र पदार्थः जात्यभिव्यक्तर्जातिशाब्दबोधस्य प्राकृति
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२४४
न्यायसूत्तौ ।
व्यक्त्यपेचत्वादाकृतिव्यक्ति विषयकत्वनियमात्तयोरपि वाच्यत्वमावश्यकं शक्तिं विना तज्ज्ञानासम्भवात् न च गोत्वप्रकारकताहशाकतिविशिष्टशाब्दत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वात्तङ्गानमिति वाच्यं तथा सति गवादिपदस्य घटत्वादावपि शक्तिप्रसङ्गस्तखात्पदं स्ववाच्यमेवोपस्थापयति ॥ ६७ ॥
प्रत्यञ्च त्रयाणामपि वाच्यत्वं सिद्धमित्याह । तुशब्देन के कमालपदार्थत्वव्यवच्छेदः पदार्थ इत्येकवचनन्तु तिसृष्वप्येकैव शक्तिरिति सूचनाय विभिन्नशक्तौ कदाचित्कस्य चिदुपस्थितिः स्यात् शक्नेस्तुल्यत्वेऽपि व्यक्ते - विशेष्यत्वात् प्राधान्य' तथैव शक्तिग्रहात् नचालत्यादिसाधारणशक्यता - बच्छेदका भावान शत्यं क्यमिति वाच्यं तथा नियमे मानाभावात् इदं गवादिपदमभिप्रेत्य तेन पश्वादिपदख जात्यवाचकत्वेपि न चति: जातिपदं वा धर्म्मपरं तथैव लक्षणस्य वच्यमाणत्वात् || ६८ ||
तत्व के व्यक्त्यादय इत्याकाङ्गायामाह । यद्यपि जात्यादेरपि व्यक्तित्वात् प्रमेयत्वमेव व्यक्तित्वं तथापि जात्याकृतिशक्तिविषयव्यक्तेरिदं लचणं तथाच गुण विशेषो जात्याकृति समानाधिकरणो गुणः संख्यादिभिन्नस्तदाश्रयः मूर्त्तिर्व्यक्तिरिति समानार्थकमित्यर्थः परे तु गुणा रूपादयः विशेषाविशेषकाः उत्चेपणादयस्तेषां श्राश्रयी द्रव्यं तेन जात्या नवीन व्यक्तिरित्याशयः विशेषलचणमाह मूर्त्तिरिति मूर्त्तिः संस्थानविशेषस्तहानित्याः अत्र च मध्यपदलोपी समास इत्याशयः अन्येतु व्यक्त लचणं मूर्त्तिरिति क्षेत्र केत्याह गुणविशेषाश्रय इति गुणविशेषस्यावच्छिन्नपरिमाणस्याश्रय इत्यर्थ इत्याङः ॥ ६६ ॥
प्राकृतिं लचयति । जातिलिङ्गमित्याख्या यस्य । जाते गत्वादेहि मास्नादि संस्थानविशेषोलिङ्गं तस्य च परम्परया द्रव्यवृत्तित्वं जाति व्या. समवायिकारणतावच्छेदिका लिङ्गं धर्मोयस्याः सेत्यर्थ इति कश्चित् ॥ ७० ॥
जातिं लचयति । समानः समाना कारकः प्रसवो बुद्धिजननं श्रात्मा स्वरूपं यस्या सां तथा च समानाकार बुद्धिजननयोग्यत्वमर्थः समानाकाबुद्धिजननयोग्य धर्म विशेषो नित्या नेकसमवेतरूपार्थ इत्यपि वदन्ति इदन्तु बोध्यं एवं सत्यालत्यविषयको गवादि पदात् न शाब्दबोधः अनुभवलेन तथैव कार्यकारणभावकल्पना दन्धधालाघवा होपदस्य
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३ अध्याय १ प्राज्ञिकम् ।
२४५
गौत्वविशिष्ट शक्तिरेव स्वादिति ॥ ७१ || समाप्त शब्दशक्तिपरीक्षामकरणम् ।। २३ ॥
हितीयाध्यायस द्वितीयमाजिकञ्च ॥ ३ ॥
विभागपरीक्षाहारकमाङ्गप्रमाणपरीक्षणं नाम | इति श्रीविश्व
नाथभट्टाचार्यक्षता न्यायसूत्ववृत्तौ द्वितीयाध्याय
हत्तिः समाता ॥३॥
से रुमतितुल्यता भवति यत्कृपामन्नरा यदीयकरुणाकणात्तरति मोहजालं ननः । विधाय हृदयाम्बुजे रुचिराक्प्रचाराय तां
नमामि परदेवता सततमेव वाणीमहम् ॥ अथावसरत: प्रमेयेषु परीक्षणीयेषु प्रथमोद्दिष्टमात्मादिषट्कं हतीये परीक्षणीयं तेनात्मादिषट्क परीक्षवाध्यायाः तन्त्रात्मादिचतुष्कपरीक्षा प्रथमाजिकार्थः तत्र च नवप्रकरणानि तवादाविन्द्रिय भेदप्रकरणं तवेन्द्रियं ज्ञानवन वेति संशये करणत्वेन सिद्धानामिन्द्रियाणां चैतन्यमस्तु लाघवात्तथा चात्म शब्दस नानार्थ स्वादिन्द्रियानामभौतिकत्वाहा न साकर्यमितीन्द्रियचैतन्यवादिनस्तनिराकरणाय सूत्रम् । एकस्यैव दर्शन स्मनाभ्यामर्थस्य पहणात् दर्शनस्पी ने ज्ञानविशेषौ टतीया च प्रकारे तेन चाक्षुषसानोभयव त्वेनै कस्य धर्मिणः प्रतिसन्धानादित्यर्थः तथा च योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहं शामीत्यनुभवादात्मेन्द्रियव्यतिरिक्त एक इति॥ १॥
अत्र शङ्कते। चक्षु स्वगादीनां रूपस्पर्शादिनियत विषय त्वाञ्चक्षुरादेचाक्षुषादिसमवायित्वमित्यञ्चाभेदप्रत्ययो भ्रान्त इति भावः ॥ ३ ॥
समाधत्ते । उक्त प्रतिषेधो न युनः उक्न विषयव्यवस्थानादेवात्म सद्भावादतिरिकात्म कल्पनादित्यर्थः अयं भावः तत्तदिन्द्रियाणां तत्तविषयक
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२४६
न्यायसूत्ररत्तौ।
प्रत्यक्षं प्रति समवायित्वं वाच्यं न तु प्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति अनुमित्यादि जनकत्वे तु विनिगमकाभावः तेन जन्यज्ञानत्वावच्छिवजनकतावच्छेदकमात्मत्वं चक्षुरादेरनित्यत्वादात्मनश्च नित्यतायावच्यमाणत्वाञ्चक्षुरादिनाशेऽपि स्मरणाञ्चनरहमित्याद्य प्रतीतेश्च नेन्द्रियात्मवादो युज्यत इति ॥३॥
समाप्तमिन्द्रियभेदप्रकरणम् ॥ १४ ॥ ननु गौरोऽहं जानामीत्यादि प्रतीते रस्तु शरीरमात्मेत्याशङ्ख्य दूषयति । पातकाभावात् पातकादेरभावप्रसङ्गात् तथा चोत्तरकालिकं दुखादिकं न स्यादिति यहा दाहोनाशः तथा च शरीरनाथे कते कर्तरि शरीरे विनष्टे पातकं न स्यादित्यर्थः । यद्यपि भूतचैतन्य वादिना पातका दकं नोप्रेयते तथापि तस्य प्रसाध्याङ्गकत्वादेकदेशिनः पूर्व पश्चित्वाहा न दोष इति भावः ॥ ४॥
तवापि तुल्य दोष इत्याशङ्कते । तदभावः पातकाभावः सात्म कशरीरस्य प्रदाहेऽपि प्रसक्तः तन्नित्यत्वात् तस्य प्रात्मनो नित्यत्व त् नित्यत्वे न निर्विकारत्वं तेन जन्यमानाश्रयत्वमभिमतमिति केचित् तन्नित्यत्वात् शरीरनाशे शरीरविशिष्टात्मनाशस्य नियतत्वादिल्यपि कश्चित् किञ्च सात्मकशरीरन शेऽपि हन्तुः पातकाभावः स्यात् तस्यात्मनो नित्यत्वेन तनाशकत्वाभावात् ॥ ५ ॥ ___ परिहरति । कार्याश्रयस्य चेष्टाश्रयस्य कर्तः कृत्यवच्छेदकस्य शरीर-.. स्यैव नाशो न त्वात्मन दूति न पातकाभावः यद्दा न हन्तुः पातकाभावः कार्याश्रयकर्तर्वाधात् शरीरस्य नाशात् ब्राह्मणत्वादेः शरीरत्तित्वात्तबाशा देव पापोत्पत्तिरिति भावः वस्तुतस्तु पूर्वशरीरावछिन्न प्राणविमाशिनो बन्धनमुखनिरोधादेहि सात्वं न स्यात् पातकानभ्यु पगन्तचार्वाकादिमते शरीरभेदसाधनन्त वक्ष्यमाणयुक्तिभिरिति ध्येयम् ॥ ६ ॥
समाप्तं देहभेदप्रकरणम् ॥ २५ ॥ प्रसङ्गाञ्चक्षुरतप्रकरणमारभते । वामेन चक्षुषा दृष्टस्य दक्षिणेन चक्षुषा प्रत्यभिज्ञानात् स्थिरात्ममि विरिति केषाच्चिन्म तं तनिराकरणायै तदुपन्यासः ॥ ७॥ .
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३ अध्याये १ प्रातिकम्।
एतद्दूषयति । मध्यस्थ सेतुना तड़ागस्येव नासास्थिव्यवहितगोलकानरावच्छिन्न तया दैतप्रत्ययो भ्रम इत्यर्थः ॥ ८ ॥
आक्षिपति | चक्षुरैक्ये एकचक्षु शेऽन्यत्वं स्यादिति भावः ॥ ६ ॥ अनेक देशो परिहरति । अवयवस्य शाखादे शेऽप्यस्यविनो वृक्षस्य प्रत्यभिज्ञानानावयवनाथे सर्वत्रावयविनाशनियमस्तथा चैकनाशेऽपि नान्धवमिति ॥ १०॥
एकदेशिम तस्य पूर्वोक्ताक्षेपख च समाधानाय सिद्धान्तिनः सूत्रम् । उक्त प्रतिषेधो न युक्तः दृष्टान्नस्य विरोधादयुनत्वात् न हि शाखाच्छे दे वृक्षस्तिष्ठति तथा सति पक्षस्थानाशप्रत्यङ्गादतोऽवस्थि तावयवै स्तन खण्ड. वृक्षोत्पत्तेन कदे शिमतं युक्तम् एतेनैकनाशे द्वितीयाविनाशाझेदमाधनमपि प्रत्य तं चक्ष शेऽपि गोलकान्तरावच्छिनावयवैः खण्डचक्षुः सम्भवात् दत्यञ्च लाघवाञ्चच रहतमिति टीकास्वरससिद्धं परे तु चक्ष तमेव सूलार्थ मन्यमाना व्याचक्षते मिडान्निनः सूत्र सव्येति शङ्कते नैकस्मिन्निति समाधत्ते एकेतिशङ्कते अवयवेति निराकरोति दृष्टान्तेति शाखानाशे वृक्ष.. नाशावश्यकत्वात् दृष्टान्तो न युनः यहा दृष्टान्तस्य गोलकभेदविरोधादन्यथा अनुपपन्नत्वादृष्टं हि मृतस्य चक्षुरधिष्ठानगोलक वयं भेदेनेवोपलभ्यत इति वदन्ति ॥ ११ ॥
अात्मन इन्द्रियभेदे युक्तयन्नरमाह । चिरविल्लाद्यन्नद्रव्ये दृष्टे तद्. रसस्मरणाहन्नोद कसंलवरूपरसनेन्द्रियविकारादिन्द्रियव्यतिरिक्त अात्मा सिद्ध्यति ॥ १२॥
याक्षिपति | स्मृतिहि मर्त्तव्यविषयिणीति नियमस्तस्याश्च दर्शनादिना सामानाधिकरण्ये माताभावात् व्यस्तु वा विषयतयैव सामानाधि. करण्यमिति भावः ॥ १३ ॥
समाधत्ते। एक प्रतिषेधो न युक्तः धर्मियाहकमानेन स्मृतेरात्मगुणत्वात्पर शेषेणात्म गुणत्वास रहं बरामी त्यनुभवात् विषयनिष्ठ कार्यकारणभावे चैवस्य ज्ञानान्त्रस्य स्मरणापत्ते रिति भावः ॥ १४ ॥
विषयाणां मर्तव्यानां सृष्टतिसमवायित्वं स्यादित्याशय समाधते । अपरिस ह्यानात् अानन्त्यात् तथा च लाघवादतिरिक्तात्म सिविः इदं न
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२४८
न्यायसूत्ररन्त्तौ
सत्वं किन्तु भाष्यमिति केचित् ॥ १५ ॥ समाप्तं चचुरद्वैतप्रकरणम् ॥ १६ ॥ ननु मनसो नित्यत्वादात्मत्वमस्त्वित्याशङ्कते । नातिरिक्त श्रात्मा यात्मसाधकमानानां मनसार्थान्तरमिति भावः ॥ १६ ॥
समाधत्ते । यदि मनसो ज्ञात्वं तदा व्यासङ्गाद्युपपादनाय करणान्तरमवश्यं वाच्यं तथा चैको ज्ञाता ज्ञानसाधनं चैकं सिद्धं मन आत्मस्विति संज्ञामात्रं किञ्च व्यासङ्गोपपादकतया मनसोऽकुत्वं सिद्धमात्मनख प्रत्यचोपपादकतया महत्वमिति भेद आवश्यक इति भावः ॥ १७ ॥
ननु रूपादिप्रत्यचं सकरणकमस्तु न तु सुखादिप्रत्यचं एवं परमाखन्नर स्वातीन्द्रियत्वेऽपि मनसः प्रत्यचं खादत्राह । उक्तो नियमविशेषो निरनुमान: निष्प्रमाणकः गौरवाई परीत्ये च विनागमकाभावाचेति भावः ॥ १८ ॥ समाप्त' मनोभेदप्रकरणम् ॥ २७ ॥
एवं साधितेऽपि देहादिभिन्ने आत्मनि विना तन्नित्यतां न परलोकार्थिनः प्रवृत्तिरत वात्मनित्यतामतिपादनाय सूत्रम् । जातख बालस्य एतज्जन्माननुभूतेष्वपि हर्षादिहेतुषु सत्सु हर्षादीनां सम्प्रतिपति: उत्पत्तिस्तस्याः पूर्व पूर्वानुभवाधीन स्मृतिसम्बन्धादेव सम्भवात् इत्थं चेदानीन्तनस्यात्मनः पू पूर्वपूर्वसिद्धौ तस्यानादित्वमनादेख भावस्य न मान इति नित्यत्वसिद्धिरिति भावः ॥ १६ ॥
ara शङ्कते । बालस्य हर्षादयोमुख विकासाद्यनुमेया न च तत्सभवः पद्मादीनां प्रबोधादिवददृष्टविशेषाधीन क्रियावादेव तदुपपत्तेरिति भावः ॥ २० ॥
सिद्धान्तलम् । उक्तन युक्त यतः पञ्चात्मकानां पाञ्चभौतिकानां पद्मादीनां वे विकारास्तेषां उष्णकालादिनिमित्तत्वात् मनुष्यादीनान्त हर्षादिनिमित्तकामुखविकासादय इति न तुल्यतेति भावः ॥ २१ ॥
वात्मनित्यत्वे हेत्वन्तरमाह । प्रेत्य म्हत्वा जातमात्रस्य यः स्तन्याभिलाषः सतावदाहाराभ्यासजनितः जन्मान्तरीणाहारेष्टसाधनताधी जन्यजीवनादृष्ट होधितमसंस्काराधीनेष्टसाधनतास्मरणेन हि बालः स्तन पानेमर्त्तत इत्यनादित्वमिति ॥ ५२ ॥
शङ्कते ।
यथायान्नसत्रिहितस्याय सोऽयस्का न्नाभिमुखतयागमनं
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३ अध्याये ? आक्रिकम् ।
१.
तथैव वत्सस्यापि स्तनोपसर्पणं न त्विटसाधनताज्ञानाधीनप्रवृत्तिजन्यचेष्टे
यमित्यर्थः
ः ॥ २३ ॥
समाधत्ते । स्तनपान एव बालः प्रवर्त्तते नत्वन्यत्व ेति नियमः कथं स्यात् वस्तुतस्तु अन्यत्र वयसि प्रत्त्यभावात् प्रवृत्तिर्हि चेष्टानुमिता लिङ्ग' न तु क्रियामात्रमतो न व्यभिचार इति भावः ||२४||
st
२४८.
हेत्वन्तरमाह । वीतरागो रागशून्यस्ताव नोत्पद्यतेऽपितु सरा गस्तल च जन्मान्तरीयेष्टसाधनताज्ञानाधीनमरणं हेतुरिति पूर्व स्तन्याभिलाषउक्तः सम्मति तु पतगादीनां कणादिभचणाभिलाषसाधारणं रागमात्रमित्यपौनरुत्यम् ॥ २५ ॥
B
शङ्कते | द्रव्यस्य घटादेर्यथा सगुणस्य रूपादिविशिष्ट स्योत्पत्तिर्यथा घटादिः स्वतएव रूपादिमान् भवति तथैवात्मापि खतएव सरागो भवतीत्यप्रयोजकत्व त्वदीयहेतुनामिति भावः ॥ २६ ॥
समाधत्ते । मङ्गल्पो ज्ञानमिष्टसाधनताज्ञानं इति यावत् तनिमितका हि रागादय स्तथाचेष्टसाधनताज्ञानत्वेने च्छात्वादिना कार्यकारणभावात् प्रवृत्तित्वेन चेष्टात्वेन च काय्यकारणभावान्नाप्रयोजकत्वमिति
क्रममा
शरीरपरोक्षणे मानुषादिशरीरं पाञ्चभौतिक मित्येके तत्र सिद्धान्तस्त्वम् । मानुषादिशरीरं पार्थिवं पृथिवीसमवायिकारण कं गुणान्तरस्य गभ्वनीलादिरूपकाठिन्यादेरुपलब्धेरिति ॥ २८ ॥
पार्थिवाप्यतैजसं तङ्गुणोपलब्धेः ॥ क ॥ निश्वासोच्छ्रासोपलब्धेचातुर्भीतिकम् ॥ ख ॥ गन्धक्लेदपाकव्यूहावकाशदानेभ्यः पाञ्चभौतिकम् ॥ग ॥
मतान्तराभिधानाय त्रिसूत्री । तहखाणानां पृथिव्यप्तेजोगुणानां गन्धस्नेहोष्णस्पर्शानामुपलब्धेः एतावता त्रिभौतिकत्वं सिद्ध निःश्वासादितचातुर्भोतिकत्व' निःश्वासोच्छ्रासौ माणवायोर्व्यापार विशेषौ क्लेदोज लविशेघो जलविषिष्ट पृथिवीवेत्युभयथापि जलमावश्यकं पाकस्य तेजः संयोगा
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२५०
न्यायसूत्ररत्तौ।
धीनत्वात्तेजः सिद्धिय॑ हो निःश्वासादिः अवकाशदानं छिद्रं एतानि मतानि सूत्रकता तु च्छत्वान दूषितानि तथाहि एकस्मिन् शरीरे पृथिवीत्वादिनानाजातेः सङ्करापत्ते रसम्भवात् नवा नानोपादान कवं विजातीयानामनारम्भकत्वात् तथात्व वा जलाधारब्धस्य न पृथिवीत्व व्यभिचारात् नवाचिबद्रव्यं गववव विरोधात् गन्धादीनामानाशमनपायाच्च पार्थिवत्वमित्यु का प्रायं यद्दा पार्थिवत्वे कथं जलादिसम्बन्ध इत्याशङ्कायां जलादिनिमित्तवशाल भौतिकत्वादिव्यपदेश इत्याशयेन त्रिसूत्री ॥ क H ॥ ख॥ ग ॥ ___ पार्थिवत्व युक्त्यन्तरमाह | सूर्य्यन्ते चक्षः श्टयोमीति मन्वान्ने टथिब्यान्ते शरीरमित्यभिधानादेवं प्रकृती विकारस्य लयाभिधाने सूर्यन्ने चक्षुर्गच्छतादि मन्त्रान्ते पृथिव्यान्नेशरीरमिति इमां चतुःसूत्रों केचन भाष्यतया वर्ण यन्ति तन्त्र तथा सत्ये कसलय प्रकरणत्वानुपपत्ते: छतएव चेतथं सूत्र मेवेल्ल परे अन्ये तक्तयैवानुपपत्त्या बाप्यतै जमवायव्यानि लोकान्नरशरीराणि तेष्वपि भूत संयोगः पुरुषार्थ तन्त्र इति भाष्य सूत्तया वर्णयन्ति तदर्थस्तु अाम्यादीनि लोकान्तरेषु वरुण लोकादिषु प्रसिवानि ... ... ... ... ... . . . . . . . . . •-21- ग. थिव्यपष्ट म्भः पुरुषार्थतन्त्र उपभोगसम्पादकः ॥ २६ ॥
समाप्त शरीरपरीक्षाप्रकरणम् ॥ २६ ॥ अथेन्द्रियं परीक्षणीयं तत्र लक्षणसूत्रोक भौतिकत्व मिन्द्रियाणां परोशित संशयमाह कृष्णसारे चक्षुर्गोलके सति घटायु पलम्भाडोलकस्ये न्द्रियत्वमिति बौद्धाः व्यतिरिच्य विषयं प्राप्य उपलम्भात् उपलम्भ जननाहोलकातिरिकानीत्य परे तत्र इन्द्रियाणि गोलकातिरिकानि नवेति संशयो गोल कातिरिक्तानीति नैयायिकादयः तत्राप्यभौतिकान्याहङ्कारिकाणीति सांख्याः भौतिकानीत्यपरे ॥३०॥
तत्र सांख्य मतेन वौद्धमतमुदस्य वाह । गोलकं नेन्द्रियं अप्रायकारित्वेऽति प्रसङ्गात् दूत्यञ्च गोलकातिरिक्त भौतिकमिति वाच्यं तदप्यसङ्गतं चक्षुषाहि न्यू न परिमाणं महत्परिमाणञ्च ग्टह्यते नच न्यूनेन महतो व्या.
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३ अध्याये १ धाङ्गिकम् ।
२५१
पन सम्भवति नवाऽ व्ययग्रहणमतोऽ भौतिकानीन्द्रियाण्याहवारिकाणीति ॥ ३१॥
सांख्यं निरस्पति | रश्मिर्गोलकावच्छिन्न तेज: तेजोऽर्थस्य घटायः सनिकर्षविशेषः संयोगविशेषस्तमात् महदण्वोर्गणमुपपद्यते भौतिकेऽपि प्रदीपादौ महदणुप्रकाशकत्व दृष्ट अभौतिकत्वे तु पुरः पश्चाहर्तिनां सर्वेषामेव पहः स्यात् ॥ ३२ ॥
तैजसे चक्षध्यनुपलब्धिकाधं वौद्धः शङ्कते। रश्मार्थसन्निकर्षो न हेतुर्गोल कातिरिक्तस्य रश्म रनुपलब्धे : ॥३॥
समाधत्ते । रूपोपलब्धेः सकरणकत्वादिनानमीयमानस्य प्रत्यक्षतोऽनपलब्धि भावनिर्णायिकेत्यर्थः ॥ ३४ ॥
कथं तर्हि नोपलम्भइत्य त अाह । द्रव्य स्ख धर्मभेदो मह वादिगुणस्य धर्मभेदः उद्भूतत्व तदधीनत्वात् प्रत्यक्षस्य द्रव्यमाने उपलब्धेन नियमः यत्रो तरूप महत्त्वादिकं तस्य प्रत्यक्षं तदभावाच्चक्षुरादेरमत्यनम् ॥ २५ ॥ __चक्षुरादावन तरूपमेव न कुत इत्याशङ्कायां भाष्यम् | अष्टविशेषाधीन इन्द्रियाणां व्य होरचनाविशेष उपभोग साधन मिति सूत्र मेवेदमिति केचित् ॥ ३७॥ ____ महतो रूपवतोऽनुपलब्धौ दृष्टान्तमाह। महतो रूपवतचोल्काप्रकाशस्य सौरालोकेनाभिभवान्मध्यन्दिनेऽनुपलब्धिवदतुङ्ग तरूपवत्वाचक्षुषोऽप्यनुपलम्भः सम्भवतीति भावः ॥३६॥ ___ नन्वेवं घटादेरपि रश्मिः स्यात्मौरालोकेनाभिभवात्पुनरयह इत्यवाह | नेत्यय घटादौ रश्मिरिति शेषः ॥ ४० ॥
नन्वनुङ्ग तरूपत्वाञ्चक्षुषोऽनुपलब्धि त्वभिभवादित्यत्र किं विनिगमकमिति तटस्थाशङ्कायामाह | अनभिव्यक्तितोऽनुगतरूपवत्त्वाच्चक्षु घोऽनुपलब्धि : कुतः वाह्य प्रकाशानुग्रहात् सौरालोकादिसाहित्याहिषयोपलब्धः तस्योग तरूपत्वे वाह्यप्रकाशापेक्षा न स्यात् अभिभूतत्व च तत्माहित्ये - नापि प्रत्यक्षजननं न स्यादभिभूतस्य कार्याक्षमत्वादिति भावः ॥ ४१ ॥
ननु चक्षुषो नाभिभवः किन्तु तद्रूपस्य तस्य च प्रत्यक्ष जनकत्वे मानाभावः किञ्चाभिभवात्तस्य न प्रत्यक्षमितरप्रत्यक्षजनने च विरोधाभाव
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२५२
न्यायसूत्रवृत्ती ।
इत्याशङ्कायामाह । रूपस्य अभिव्यक्तौ प्रत्यक्षे उद्भूतत्व इति यावत् उङ्गतरूपस्य प्रत्ययाभावे ह्यभिभवकल्पना नत्वेवं प्रकृते सुवर्णादिवत्सर्वदाभिभावकद्रव्यान्तरकल्पनेच गौरवमिति भावः ॥ ४२ ॥
चच्चु ।
तुषि प्रमाणान्तरमाह । नक्तञ्चराणां वृषदंशादीनां गोलके रश्मिदर्शनात् तद्दृष्टान्तेन परेषामपि रश्क्ानुमानमिति भावः अन्यथा तर्मासि तस्य प्रत्यच्तं न स्यादिति हृदयम् ॥ ४३ ॥
अप्राप्यकारित्व ं चच्क्षुषः स्यादित्याशङ्कते ॥ ४४ ||
समाधत्ते | परेत्तु उक्तस्त्रत्त्रस्य पूर्वपच्चपरत्व ं मन्यमानस्य भाष्यकारस्यावनारणिका अप्राप्यग्रहणमिति वस्तुतः सिद्धान्तसूत्रमेव तत्प्रदीपदृष्टान्तेन काचाद्यन्तरितप्रकाशकत्वेन तैजसत्व सिध्यतीति नन्वप्राप्य - कारित्वं किं न स्यादवाह कुझेति उक्तस्य तैजसत्वस्य प्रतिषेधो गोलकात्मकत्व न सम्भवति कुड्यान्तरितस्यानुपलब्धेरित्याद्धः ॥ ४५ ॥
ननु कुड्यान्तरित दूव काचान्तरितेऽमि सत्रिकर्षो न सम्भवतीति कथं प्राष्यकारित्वमित्याशङ्कायामाह । काचादिना स्वच्छद्रव्येणाप्रतिघातादप्रतिबन्धात्सन्निकर्ष उपपद्यत इति भावः ॥ ४६ ॥
तत्त्र दृष्टान्तमाह | दाह्य इति वस्तुमात्रोपलचणं परेतु दाह्य कपालादौ वप्रादेरविघातपरं तदित्याङः ॥ ४७ ॥
व्याचिपति । अप्रतिघातो न युक्त इतरस्य स्फटिकादेरितरस्य कुते र्यो धर्मः प्रतिघातकत्वं तत्प्रसङ्गात् स्फटिकादिकर्मापि कुयादिवत्प्रतिबन्धकं भवेदित्यर्थः ॥ ३८ ॥
समाधत्ते । बादर्शे उदके च प्रसादखाभाव्यात्ख च्छ खभावत्वात् मुखादिरूपोपलब्धिर्नतु भित्तादावेवं स्फटिकाद्यन्तरितस्योपलब्धिर्नतु कुड्याद्यन्तरितस्येति स्वाभाव्यान्न दोषः एतेन वप्रादेर्घटादिनाऽप्रतिघातवचक्षुषोऽपि प्रतिघातो न स्यादिति मत्यक्तं वाद्यप्रतिबन्धेऽपि दीपालोकादेः प्रतिबन्धवत्सम्भवादिति भावः ॥ ४६ ॥
चक्षुषस्तादृशत्वकल्पने किं मानमित्यत्राह । हि यस्मात् दृष्टानामनुमितानां वा पदार्थानां दृष्टेनानुमितानामिति वार्थः तेषामेवं भवितेति
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३ अध्याये १ आह्निकम् ।
२५३
नियोग एवं मा भवितेति प्रतिषेधो वा नोपपद्यते युक्त्यनुसारिणी हि वल्पनेति भावः ॥ ५० ॥ समाप्त मिन्द्रियपरीक्षा प्रकरणम् ॥ ३० ॥ .
दर्शनसर्थ नाभ्यामित्यादिकमिन्द्रियनानात्व युज्यते इत्युपोद्घातेनेन्द्रियनानात्वं परीक्षणीयं तत्र संशयमाह। स्थानान्यत्वे स्थानभेदे घटपटादीनां नानात्वदर्शनानानावयवस्थितस्यावयविन एकत्वदर्शनाञ्च इन्द्रि याणां नानात्वमेकत्व वेति संशयः ॥ ५१ ॥
पूर्व पक्षसूत्वम् । सर्वेष्विन्द्रियप्रदेशेष्वव्यतिरेकात् सत्यात्त्व गेवैकमिन्द्रियमस्तु ॥ ५ ॥
उत्तरयति | युगपत् एकदा अर्थानां गन्धरूपादीनाम् अनुपलब्धेर्न त्वमेवैकमिन्द्रियं अन्यथा तस्य व्यापकत्वाचाक्षुषादिकाले प्राणजादिकमपि स्वादिति भावः ॥ ५६ ॥
इन्द्रियाणां नानात्वे कार्यभेदमानमाह | इन्द्रियार्थानामिन्द्रियया ह्याणां रूपादीनां पञ्चत्वात् पञ्चविधत्वात् रूपादीनां हि चक्षुरायेकैकेन्द्रियमावग्राह्यत्वा(लक्षण्यः तच्चै केन्द्रियपक्षे न सम्भवति अन्धादीनां रूपायपलब्धिप्रसङ्गति भावः ॥ ५८॥
शकते। इन्द्रियार्थानां नीलपीतादीनां बहुत्वादिन्द्रियाणां बहुतरत्वप्रमङ्गादिन्द्रियार्थ पञ्चत्वादिन्द्रियभेदो न युक्तः ॥ ५ ॥
समाधत्ते। उक्त प्रतिषेधो न गन्धादीनां सौरभादीनां गन्ध त्वाद्यव्यतिरेकाहुन्ध त्वादिसक्व त् तथा च विभाजक गन्ध त्वावच्छिवग्राहकत्वमभितं नत्ववान्तरधर्मावच्छिवग्राहकत्वमिति भावः ॥६॥
यदि गवत्वादिना सुरभ्यादीनामैक्यं तदा विषयत्वेन गन्धरसादीनामप्यै क्यादिन्द्रियैक्यं स्यादिति ।।
शङ्कते | विषयत्वाव्यतिरेकाविषयत्वेन क्यात् ॥ ६ ॥
उत्तरयति । इन्द्रियाणामैक्यं न हेतुमाह बुद्धी त्यादि बुझे शातु पादेर्यलक्षणं चाक्षुषत्वादि तत्पञ्चत्व न तदवच्छिन्त्रकरणानां पञ्चत्व एवमधिष्ठानं रूपादिविषयस्तत्पञ्चत्वात् गतिः दूरादौ गमनं इदं चक्षु रधिकृत्य यद्दा गतिः प्रकारस्तथा च मकाराणां पञ्चत्वात् चक्षु हि गत्वा ग्टह्णाति त्वग्देहाव छ देन श्रोन कर्णावच्छेदेनेत्यादिप्रकारभेदात् प्राकति
२२
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२५४
न्यायसूत्ररत्तौ।
गोलकानां संस्थान विशेषः जातिः पृथिवीत्वादि वस्तुतोजातिः धर्मस्तेन प्रोत्रत्वसंग्रहः ॥ ६॥
घाणादेः पृथिवीत्वादिर चे मानमाह। भूतानां पृथिव्यादीनां ये गुणविशेषा गन्धादयस्तदु पलम्मकत्वात् कुङ्कमगन्धाभिव्यञ्जकर तादिदृष्टान्तेन पृथिवीत्वादि माधन मिति भावः ॥ ६३ ॥
समाप्रमिन्द्रियनानात्वप्रकरणम् ॥ ३१ ॥ क्रमप्राप्तार्थ परीक्षणाय सिद्धान्तसूलम् । स्पर्श पर्यन्तेषु मध्ये पूर्व. पूर्व त्यत्वा अप्लेजोवायूनां गुणा ज्ञातव्याः उत्तरः शब्द आकाशस्य गुणः तथा च स्पन्तिाः पृथिव्या रसरूपस्पशा जलस्य रूपसी तेजसः स्पर्शोवामोः शब्द आकाशस्य ॥ ६४ ॥ ___आक्षिपति । उक्तो गुणनियमो न युक्तः पृथिव्यादेषु णत्वाभिमतानां सर्वेषां प्राणादियाह्यत्वाभावान्न पार्थिव त्वादिकं घ्राणेन टथिव्या रसायग्रहणात् वहिरिन्द्रियाणां व प्रकृति वृत्तियोग्याशेषगुणयाहकत्वनियमो भज्ये तेति भावः ॥ ६५ ॥
इत्यञ्च पृथिव्यादाव पलभ्यमानानां रसादीनां कागतिरित्र - मतमाह | उत्तरोत्तराणम् अबादीनाम् एकै कस्यैव एकैक क्रमेण तदु . त्तरोत्तरगुणसद्भावात् रसादिगुणसनावात् तदनुपलब्धिस्तेषां रसादीनां घ्राणादिनानु पलब्धिरित्यर्थः ॥ ६ ॥
तर्हि कथं टथिव्यादौ रसादिग्रहणं तबाह | अपरं पृथिव्यादिपरेण जलादिना हि यस्मात् विष्टं सम्बई तथा च पृथिव्यावच्छिन्न जलादिना रसनासंयोगासादिग्रह इति भावः ॥६७ ॥१८॥
सिद्धान्तसूत्रम् । उक्तो गुणनियमो न युक्तः कृतः पार्थिवस्थाप्यस्य च द्रध्य स्य प्रत्यक्षत्व द्रपस्पर्श सिद्धेस्तस्य रूपस्पर्श शून्यत्वे चक्षुषा त्वचा च ग्रहणं न स्वाद प्रादेश कचिकाक्षात्म म्बन्धेन कचिच्च परम्परया हेतत्वे गौरव मिति भावः ॥६६॥
रसादेः प्रथिव्यादिगुणत्वे घ्राणादिनापि तद्ग्रहणप्रसङ इत्यत्र नियामकमाह। पूर्वपूर्व घ्राणादितत्तत्प्रधानं गन्धादिप्रधानं प्राधान्ये वीजमाह
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३ अध्याय १ आङ्गिकम् ।
२५५
राणोत्कर्षा गुणस्य गन्धादेरुत्कर्षात्तयबस्थापकत्वात् तथा च गन्धादिप मध्ये खव्यवस्थापकगुणस्यैव ग्राहकत्व प्राणादीनामिति ॥ ७० ॥
ननु पृथिव्यन्तरस्यापि गन्धप्राधान्यात्किमिन्द्रियं किमनिन्द्रियमित्यवाह । भयस्त्वात् जलोद्यविशिष्टथिव्याद्यारब्धत्वात्तद्यवस्थानं धाणादीन्द्रियत्व व्यवस्थितिः ॥ ७ ॥
घाणादीनां गवादिगुणवत्वमानमाह | सगुणानां गन्धादिविशिथानां प्राणादीनामिन्द्रियभावात् गन्धादिसाक्षात्कार कार णत्वात् कुङ्कम . गन्धाभिव्य अकघतादौ तथैव दर्शनात् || ७२ ॥
इत्यञ्च गन्धादि सिद्धावप्रत्य चत्वादनु तत्व व ल्प नमित्याशये नाह। तेन इन्द्रियेण तस्य सगुणस्येन्द्रियस्थायहणादनुगतत्व कल्पन मित ॥ ७३ ॥
नन्विन्द्रियगुणानामप्रत्यक्षवनियमो नेत्याशङ्कते । उक्त नियमो न यक्तः शब्दस्य श्रोत्रगुणखोपलधेः ॥ ७४ ॥
सम धत्ते। द्रव्य गुणानां रूपशब्दादीनां परस्परं वैधाच्छब्दस्योप न धिन चतुरूपादीनां शब्दाश्रयस्य लाघवेनैक्य सिद्धेरिप्ति भावः ॥ ७५ ॥
मसातमर्थ परीक्षाप्रकरणम् ॥ ३३ ॥
इति तृतीयाध्यायस्याद्यमाङ्गिकं आत्म दिपमेयचतुकपरीक्षणं नाम ।
अथ क्रमप्राप्ततया बुद्धेम नसश्च परीक्षा सप्तभिः प्रकरणस्तत्परीक्षैव चाह्निकार्थः परेत शरीरावच्छ दव्याप्यभोगानुकूलसम्बन्धव परीक्षा शरीराः न्तर्वर्ति प्रमेय परीक्षेवाङ्गिकार्थ इति तदसत् इन्द्रियपरीक्षायामतिव्याप्लेः तत्व च बट्विपरीक्षा पञ्चभिः प्रकरणः तत्रादौ बुद्धनित्यता प्रकरणं तत्र संशय दर्शनाय सूत्रम् | कर्मण आकाशस्य च साधान्त्रि स्पर्शत्वाद्ब्रद्धिपदार्थ नित्यत्वसंशयः बुद्धिपदं नित्यशनं नवेति संशयपर्यवसन्नः ॥ १ ॥
तत्र व विनित्य त्वं सांख्यः साधयति । बुद्धिम्रित्येति शेषः येऽहं घट. भद्राक्षं सोऽहं घर स्मगाम ति प्रत्यनिज्ञान मेकं वृत्तिमन्तं विषयो करोति
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२५.६
न्यायसूत्रटत्तौ ।
मचात्मा तथा तस्य जन्यधर्मानधिकरणस्य कूटस्यत्वात् तस्मात्तिमती बुद्धि रेव वृत्तिस्तु तस्याः परिणामः बुद्धरष्याविर्भावतिरोभावावेव न तत्पादविनाशाविति ॥ २ ॥
परिहरति । साध्यसमत्वात् व्यसिद्धत्वात् प्रतिसन्धातृत्व न हेतुः हं जानामीत्यादिना श्रात्मनएव प्रतिसन्धात्प्रत्ययात् अनादिनिधनत्वमेव तस्य कौस्थ्य व याहणं त्वसिद्धमिति भावः ॥ ३ ॥
बुद्धरेव स्थायिन्या यथाविषयं ज्ञानात्मिका वृत्तयोष्टत्तिमदभिन्ना वह्नेरिव स्फुलिङ्गा निःसरन्तीति सांख्यमतं निरस्यति । वृत्तिवृत्तिमतोर - भेदे वृत्तिदवस्थित्या वृत्तेरयवस्थितिर्व्वाच्या तथा च सर्व पदार्थग्रहणं युगपत्स्यात् न चैवं तस्मान्नाभेद इति ॥ ४ ॥
काथ वृत्तीनामनवस्थायित्वमुच्यते तत्राह । श्रप्रत्यभिज्ञाने प्रत्यभिज्ञानस्य अभावे विनाशे वृत्तिमतोऽपि विनाशः स्यादतो न द्वयोरेकाम् ॥ ५ ॥
अयुगपद्द्महणम् स्वमते व्युत्पादयति । मनसइत्यादि मनसोऽणुत्वादिन्द्रियैः सह क्रमेण सम्बन्वात् ज्ञानानां क्रमिकत्वं तथा च विभु चैकं मनः पर्यायेण चैरिन्द्रियैः सम्बध्यत इत्यवतारभाष्यं तत्तदिन्द्रियमनः संयोगे सति ज्ञानमुपपद्यते ॥ ६ ॥
तद्यतिरेके ज्ञानाभावमुपपादयति । अप्रत्यभिज्ञानं तत्तदिन्द्रियजज्ञानाभावः विषयान्तरेण इन्द्रियान्तरेण मनसः सम्बन्धादित्यर्थः ॥ ७ ॥
वन्मते चेदोपपद्यतइत्याह । त्वन्मते मनसः क्रमेणेन्द्रियसम्बन्धो न मनसो विभुत्वेन गत्यभावात् परेल नकारोन सत्रान्तर्गतः किन्तु विभुत्वे चान्तः करणस्य पर्यायेणेन्द्रियैः संयोगो नेति भाष्यावतारणिकायां इत्याहुः
॥ ८ ॥
वृत्तित्तिमतोर्वस्तुतोऽभेदेऽपि भेदप्रत्ययप्रतिपादनाय शङ्कते । यथा जवाकुसुमादिसन्निधानादेकस्यापि स्फटिकस्य तत्तद्रूपाभिमान - स्तथावृत्तिमदभिन्नापि वृत्तिस्तत्तद्विषयसन्निकर्षवशान्नानेव प्रतिभासत
इति ॥ ६ ॥
दूषयति । म्नमत्वे साधकाभावानोकं युक्तमित्यर्थः केचित्तु न है
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३ अध्याय २ आङ्गिकम्।
२५७
भावादिति भाध्यमिति टोकादर्श नान्नेदं सूत्र किन्त तुच्छतया सूत्रकृताऽदूषणानन्यूनतापरिहाराय भाष्यकता सदुनमिति मन्यन्ते ॥ १० ॥
समाप्नं बुंयनित्यताप्रकरणम् ॥ ३३ ॥ स्फटिके व नानात्वभ्वम इत्यसहमानः सौगतः शङ्कते। स्कटिका न्यवाभिमानवदित्यहेतुः कुतः स्फटिकेऽयपरापरोत्यत्तेः विलक्षण विलक्षणस्फटिकोत्पत्ते: तंत्र मानमाह व्यक्तीनां भावानां क्षणिकत्वात् तत्साधनाय भाष्यं उपचयापचय प्रबन्धदर्शनाच्छरोरेषु प्रतिक्षणं शरीरेधूपचयापचय. दर्शनानानात्वं नहोकस्मिन्नवयविनि परिमाणहयसमावेश इति भावः इदं सूत्रमेवेति केचित् ॥ ११ ॥
सिद्धान्तसूत्रम् | पदार्थानां विनायसामग्रीवैशियनियमे मानाभावात् अभ्युपेत्याह यथा दर्शन मिति यदि कस्यचिहिनाशमियोवैशिष्य मानं स्यात्तदा क्षणिकत्वं तस्याभ्यनुजःयतए व यथाऽन्त्य शब्द इति ॥ १३ ।।
यस्य नरमाइ । न स्फटकादेः क्षणिकत्वं यतउत्पत्तिविनाशकारणान्युपलब्धा निर्णो तान्यवयवोपचयापचयादीनि न च स्फटिके विनाश. कारणमुपलभ्यते येन पूर्व विनाशोऽपरोत्पत्तिश्च स्यादिति भावः ॥ १२ ॥ ___ प्राक्षिपति । दथुत्पत्तिवद्दध्युत्पत्तिकारणानुपलब्धिवत् तदुपपत्तिः पूर्वस्फटिकविनाशकारणानुपलभे रु सरस्फटिकोत्पत्तिकारणानुपलब्धेचोपपत्तिः स्यादिति भावः ॥ १४ ॥
सिद्वानसूत्रम् । दनः क्षीरविनाशस्य च प्रत्यक्षसिनत्वात्तत्कारणं कल्प्यते नत्वेवं स्फटिकविनाश त्मादावुपलभ्ये ते येन तत्कारणकल्पनं ॥ १५ ॥
· सौगतमते सांख्य दूषणमुपन्यस्यति । न चीरस्य नाशो दभश्चोत्पत्तिः किन्तु क्षीरस्य परिणामः परिणापशब्दार्थो गुणान्तरप्रादुर्भावः विद्यमानस्य शोरस पूर्वरसतिरोभावोऽम्लरसात्मक गुणान्तरस्याविर्भावादित्यर्थः ॥ १६ ॥
एतनिराकरोति सूत्रकारः। व्यूहान्तरादूचनान्तरात् पूर्वावयवसंयोगनाशो द्रव्यान्तरोत्मादश्चानुभविक इति भावः ॥ १७ ॥
दोषान्नराभिधानाय सिद्धान्तिनः सूत्रम् । कचिचोपलब्धेरनै कान्नः शोरदधिदृष्टान्तेन विनायोत्पादावकारणकावेवेति न युक्त' घटादौ सका.
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२५८
न्यायसूवरत्तौ।
रणकत्वोपलचेय॑भिवारात् वस्तु नः क्षीरविनाशेऽम्लद्रव्य संयोगस्य हेतुत्वादम्बरसवत् परमाणु भिश्च दमन रम्भानाकारणको शोरविनाशदध्युत्य दाविति ॥ १८॥ समाप्त क्षणभङ्गप्रकरणम् ॥ ३४ ॥
बुझेरात्मगुणत्वं यद्यस्यात्म परोक्षात एक सिद्ध प्रायं तथापि विशिष्य व्युत्पादनाय बुद्ध्यात्मगुणत्वप्रकरणं तत्र चेन्द्रियार्य सत्रिकर्षाधीनत्वादिन्द्रियादिनिष्ठत्व मेवास्तु भेाकाशसंयोगाधीनशब्दस्या काशनिष्ठत्ववदिति पूर्वपक्षे सिवानसूत्रम् । बुद्धिनेन्द्रियस्य न वार्थ स्य गुणस्तन्न शेऽपि ज्ञानस्य सारणस्थावस्था नात् उत्पते: नानुभवितरमावे स्मरणमुपपद्यते ऽति प्रसङ्गादिति भावः ॥ १६ ॥ . मनोगुणत्वं निरस्वति । युगपज्ज्ञेयानुपलधे हे तो: सिवस्य मनसो न कट त्वं धर्मिया हकमानेन करणत्वेनैव सिछ: वस्तु गोयुगपज्ज्ञेयानु पल . आरित्य नेन मनसोऽगुत्वं सूचितं तथा च तहत सुखाद्य प्रत्यक्षता स्यात् एवं कायव्य हे तत्तद्दे हावछेदेन ज्ञानादिकं न स्वादिति ॥ २० ॥
शङ्को । तस्या बुझेरात्म गुणत्वेऽपि ज्ञानयोग पद्यं तुल्यं अात्मनः सर्वेन्द्रियसंयोगात्तथा च सदोषस्तद वस्थ एवेति कथं तया युक्त्या मनःसिट्विरिति भावः ॥ २१ ॥
उत्तयति । युगपनानेन्द्रियैः सह मनसः मन्त्रिकर्षाभावान युगप - नाना विषयो पल धिरिति भावः ॥ २१ ॥
बाक्षि पनि । बुात्म तौ कारणस्थानम देशात् अकथनात् नात्म गुणो बद्धिः अमननः संयोगस्य कारणत्व ज्ञानस्य सार्वदिकत्व प्रसङ्ग दूति भाः ॥ २३ ॥
बझेरात्म गुणत्वे दोषमध्याह । बुद्धरात्मन्य वस्थाने विनाशकारणस्थात्रय नाशादेरनुपलब्धेस्तस्या बुद्धे नित्यत प्रतङ्गः ॥ २४ ॥
उत्तरयति । बचेरनित्य त्वय ग्रहण त् उत्यं दनाशयोरानुभविकत्वत्त कारणे कल्प न ये आत्म मनोयोगादेहत्य दकत्वमनन्तरोत्म नव वेः संस्क.रादे | नाशकत्व कन्यते चरमब डेस्तु अदृष्ट नाशा कालाहा नाशः बढेबुड्यन्तरवाश्यत्वेऽनुरूपं दृष्टान्न माह शब्दवदिति शब्दस्य यथा शब्दा. तर नाशवरनयन्दस्य निमित्त नाग नाश्यत्व तथा प्रकतेऽसीति भावः ॥२५॥
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३ अध्याये २ आश्रिकम् ।
२५४
ननु बझेरात्म गुणत्वे संस्कारात्म मनोयोगयोः सत्वात् स्मृतीनां योग. पद्यं स्यादौ कदेशिनः परिहारमा शङ्कते। ज्ञानं सस्कारकारण समवेतं यदव छ हेन तद वच्छेदेन मनःसनिकर्षस्य स्मृत्युत्पादकत्वात्तस्य च क्रमि. कत्वाब स्मृतियोगपद्यमित्यर्थः ज्ञायतेऽनेनेति ध्युत्म त्या ज्ञान पदं संस्कार परमित्यन्ये ॥ २६॥ ___ त मतं दूषयति । उक्तं न युक्त मनसः अन्तःशरीर एत्तित्वात् अन्तःश - रीरे वृत्तिर्मानजनकोभतोव्यापारो यस्य तत्त्वात् शरीरातिरिक्तावच्छ देनात्ममन योग य ज्ञानाहे तत्त्वा छरीरावच्छिन्नस्य हेतृत्व तद्दोषता दस्थामित भावः ॥७॥
एकदेशी शङ्कते। शरीरावछिन्नात्म मनोयोगोन हेतुः साध्यत्वात् असितत्वात् मानाभावादिति भावः ॥ ३८ ॥
सिहा नसूत्रम् । उक्त प्रतिषेधोन युक्त स्मरतः शरीरधारणरूपाया - उपपत्तेर्य करन्यथा मनसोवहि वे शरीरावच्छिन्नाम मनोयोगाभावेन प्रयत्नाभावे शरीरधारणं न स्यादिति भावः ॥ २६ ॥
पुनःशङ्कले । शरीराधारणं न मनस: आशुगतित्वाच्छोघ्रमेव शरीरे पराहत्तेः ॥ ३० ॥
दूषयति | मनमः शीघमागमनं न युक्त स्मरणे कालनियमाभावात् कदाचिच्छीघ्र म यते कदाचि प्रणिधानाहि लम्बे नापीति न च प्रणिधानं शरीरानःस्थितमनस एव वहिनिगमस्तु स्मरणाव्यवहितपर्व मेवेति वाच्यं वहिर्निर्गमा नन्तःप्रवेशानुकूल क्रयाविभागादिकाल कलापं यावच्छ रीरधारणं न स्यादिति भावः ॥ ३१ ॥ ___ एकदेशिम तमन्य एकदेशो दूषयति । वहिः प्रदेशविशेषे मनः संयोगविशेषोन सम्भवति स हि न स्मृत्यर्थ म त्म प्रेरणेन तस्य स्मरणीयन नपूर्व कतया मागे व स्मन्यापत्ते: नापि यदृच्छया अकस्मात् आकस्मिकत्वस्य निघवात् नापि मनसोजतयाज्ञाहतया मनमोज्ञातत्व नभ्यु पगमात् प्रेरणयह छाताभिः प्रयत्ने छ । ज्ञानेरिवर्थ इति कश्चित्तन्न प्रयत्नेनैव चरितार्थ त्वायत्त: ॥ ३॥
एतनराकरोति। त्यादिकं पश्यतः कण्टकादिना पाद व्यथ सेन
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२६०
न्यायसूतत्तौ।
तदवच्छे देन मनः संयोगोयथा जायते तथै तदपीति भावः इतरथा तत्र मनः संयोगेऽप्युक्त दोषाः स्यः अष्टविशेषाधीनकर्मवशादसाविति चेत्तल्यं प्रकते ऽपीति भावः ॥ ३३ ॥
स्मरणायोगपद्यं खयमुपपादयति । प्रणिधान चित्त का सम्मपैति यावत् लिङ्गज्ञानं उद्दोधक उद्दोधकानामानन्यादादि पदं ज्ञानात्मरतोयोजनीयं तस्य क्रमात मरणक्रमः यदि च युगपदुद्दोधकानि तदा तावहिषय कम्मरण मिष्यत एव यथा पदज्ञानादाविति मन्तव्यम् ॥ ३४ ॥
नविच्छादीनां मनोधमत्वात्तेषां ज्ञानजन्यत्वात् सामानाधिकरण्येन च तत्र कार्यकारणभावात्कथं ज्ञानस्थात्मगुणत्व मित्याशङ्कायां सिद्धान्तमूवम् | जस्य ज्ञानवतात्मन इच्छादयः हेतुमाइ प्रारम्भनित्योरिच्छावेषनिमित्तत्वादिति प्रतिनित्योरिच्छाषिजन्यत्वात्तव सामानाधि. करण्येन ज्ञानस्य हे तत्त्वमिति भावः यद्दा जस्य ज्ञानवतो या वछावैषौ तविमित्तत्वादित्यर्थः तथा च ज्ञानेच्छाप्रयत्नानां सामानाधिकरण्यं नासिद्धम् ॥ ३६ ॥
नवस्तु तेषां सामानाधिकरण्यं परन्तु तेषामधिकरणं कायाकारः पार्थिवादिपरमाणपुञ्जएवेति चार्वाकः शङ्कते। पार्थिवाद्येषु देहेष जानादेर्न प्रतिषेधः कुतः इच्छाद्देषयोस्त झिङ्गत्वादारम्भनिवृत्तिलिङ्गकवात्तयोः चेष्टाविशेष लिङ्गकत्वाचेष्टायाश्च शरोरे प्रत्यक्ष सिद्धत्वादिति भावः ॥ ३७॥
समाधिमः प्रतिबन्धिमाह। बारम्भनिवृत्त्य नमापकक्रियाविशेषदर्शनात् पर श्वादिषु ज्ञानादिसिविपसङ्गः तस्माक्रियाविशेषाणां प्रयत्नादिजन्य त्वौं सम्बन्धान्तरेण न तु समवायेन व्यभिचारादिति भावः ।। ३८ ॥
स्वमते व्युत्पादयति । तहिशेषको तयोश्चेतनाचेतनयोर्विशेषको दूतरव्यावर्तको नियमानियमो समयायेन नन्य तानियमतदभावौ समवाये न ज्ञाने छादोनां चेतनधर्मत्वादवच्छेदकतया च शरीरे तेषां जन्य जनकभावः परश्वादौ यत्नविषयतया क्रिया वस्तुतस्तु चेष्टैव परश्वादि क्रियाअनिका यत्नादेस्त तत्वे मानाभावः ॥ ४० ॥
इच्छादीनां मनोगुणत्वाभावे युक्त्यन्तरमाह। इच्छादय इति शेषः
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२ अध्याये १ आङ्गिकम्।
यथोक्त हेतुत्वात् ज्ञानेच्छादीनां सामानाधिकरण्येन कार्यकारणभावात् पार तन्त्र्यात् मनमरतन सहकारित्वादिच्छदियो न तहणाः वस्तुतस्तु दूच्छादीनां पारतन्त्र्यात् पराधीनविषय ताशालित्वात् इछादीनां हि समानाधिकरणखजनकज्ञानविषयतैवं विषयता ज्ञानवैयधिकरण्ये च तन्द्र स्वादिति भावः खसतात स्वयंकतात्कम्भणः अभ्यागमो भोगः स मनसोयना. दिसत्वेन स्यान्नह्यन्यकृतात्कर्मणोभोगः नवा भोगोऽपि मनसः भोलबन्धमोक्षादि भागिन एवात्मत्वात्तभिन्नः अात्मनि मानाभावात् आत्मनः सुखादिसाक्षात्कारानुरोधानमहत्त्वं मनसश्च धर्मियाह कम नादणुत्वमतोऽपि नै क्य न च मनसः परमाणत्वालाघवाच्च नित्यत्व तनातं तथाचात्ममनसोर्नित्यत्वात्मदाज्ञानादि प्रसङ्गादनिर्मोक्षः स्यादतोऽन्तः करणस्यानित्यत्वं तन्नाशश्च मोक्ष इति वाच्य अष्टाद्यभावेन नित्ययोरपिबध्ययोरिव फलाजनकत्वात् न च ज्ञानादिकं प्रक्रम्य इत्ये तत्म वं मन एवेति श्रुनेर्मनस एव ज्ञानादिक अभेदमुखे नो पादानोपादेयभावकथनादिति वाच्य अन्न वै प्राणा इत्यादौ निमित्तेऽपि दर्शनात् कारणत्वमाले तात्पर्यादिति न त्वम् ॥ ४ ॥
आत्मगुणत्वमुपसंहरति । इच्छादिकमा त्म गुण इत्यादिः हेतमाह परिशेषात् शरीरादिहेतुनिरासात् यथोक हेतूनां दर्शन स्पशेनाभ्यामे. कार्थग्रहणादित्यादीनां उपपत्तेः उपपन्नत्वात् ॥ ४२ ॥
स्मतेराम गुणत्वमर्थसिद्धमपि शिष्यबट्विवैशद्याय पृथग त्यादयति ।
तुरप्यर्थे जवाभाव्यात् ज्ञान वत्स्वामाव्यात् ज्ञानत्वावछिन्नवत्वं ह्यात्मनः स्वभावः मतेच ज्ञानत्वावच्छिन्नावात्तधर्मत्वमर्थादिद्ध यहा जस्वाभायात् स्मृतिहेतुज्ञानस्यात्म त्तित्वे सिदः स्मृतेराम त्तित्वमपि सिद्ध परे तु जामस्थाराविनायित्वात्कथं स्मृतिहेतु नेत्यलाइ स्मरणमित्यादि ज्ञानवतः स्वभावः संस्कारः तस्मादित्यर्थः इत्याहुः ॥ १३ ॥ ___स्मृतेर्योगपद्यसमाधानाय प्रणिधानादीनामुबोधकानां क्रमो हेतुसकस्त व प्रणिधानादीनि दर्शयति । सरणमित्य नुवर्ततेनिमित्तशब्दस्य इन्छात्परं श्रुतस्य प्रत्ये कमभेदेनान्वयः प्रणिधानं मनसोविषयान्तरसवारवा. रणं निबन्ध एकपन्योपनिबन्धनं यथा प्रमाणेन प्रमेयादिस्मरणं अभ्यासः संस्कारवाहुल्यं एतस्य यद्यपि न बोधकत्व तथापि तादृशे शीघ्रभुइध
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न्यायसूत्ररत्तौ।
कसमवधानं स्यादित्याशये न तदुपन्यासः अभ्य सो दृढं तरसंस्कार उद्दोधकत्व नोक्त इति केचित् लिङ्ग व्याप्य व्यापकस्य स्मारक लक्षणं यथा कपिध्वजादि अर्ज नादेः सादृश्यं देहादेः परियहः स्वीकारस्तस्य वखामिभा. वोऽर्थः तदेकतरेण न्यतरस्मरणं आश्रयाश्रितो राजादितत्परिजनौ परस्परस्मारको सम्बन्धोगुरुशिष्यभावादिः गोपन्य यात् पृथगुनः अानन्तयं प्रोक्षण वघातादेः वियोगो यथा दारादेः ए ककार्था अन्तेवासिप्रभृतयः परस्परस्मारकाः विरोधादहिनकुलादेरन्यतरेणापरस्मरणं अतिशयः संसारउपनयनादिराचार्यादिकारकः प्राप्तिर्धनादेर्दातार स्मारयति व्यवधानमावरणं यथा खगादेः कोषादि सुखदुःखयोरन्यतरे। णापरस्य ताम्यां त प्रयोजकस्य वा स्मरणं इच्छाद्देषो यहिषयकतया ग्टहीतौ तस्य स्मारकौ भयं मरणादेर्भयहे तोर्वा स्मारकं अर्थित्व दातुः शाख देः क्रिया वायादेरागात्मीतेः पुत्रादेःस्मरणं धर्माधममभ्यिां जना. नरानुभूतसुखदुःखसाधनयोः प्रागनुभूतसुखादेश्च स्मरणमिति उक्नेषु च किञ्चित्स्वरू पसत्किञ्चिच्च ज्ञात बोधकं शिष्यव्युत्पादनाय चायं प्रपञ्चः ॥४४॥ समाप्तं बुद्ध्यात्म गुणत्व प्रकरणम् ॥ ३५ ॥
बडेबुड्यन्त राहि नाश उक्तः स च हतीयक्ष गवर्तिध्वंस प्रतियोगित्व. सिद्धौ स्य दतोबड़े रुत्पना पर्गित्वं व्युत्पादनीयं तत्रसिङ्गान्तसूलम् । शरीरादिकर्मधाराया अनवस्थायिन्याः प्रत्यक्षधारापि बाच्या न चाद्यबुझेरुनरोत्तरग्राहकत्व विरस्य व्यापाराभावात् पूर्वपर्वस्य च परपरतो.. ऽननुभवाहिनाश सङ्घ वायनाशादेरभावाविरोधिगुणस्यैव नाशकत्वमिति कर्मवबुद्दे रनवस्थायित्वग्रहणादिति वार्थ ः ॥ ४५ ॥ ___ शङ्कते। बुद्धिर्यद्या शुविनाशिनी साद्योग्य. शेषविशेष धर्मविशिष्ट धर्मिग्राहिणी न स्थाविद्यहम्मातकालीनवस्तुग्रहणवत न चैवं तस्मान्न तथे त्यर्थः ॥ ४७ ॥
उत्तरयति । प्रतिघेवव्य स्य बुद्धराशुविनाशित्वस्थाभ्यनुज्ञा त्वया कता विद्यसम्पातहटान्तरूपस्य हेतोः साधकस्योपादानात तथा चांशतोबाध इति भावः ॥ ४८ ॥
अस्तु तर्हि तट्टटान्नेन न्यासा बुद्धीनामनवस्थायित्वमित्याह । यथा
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३ अध्याये २ आश्रिकम् ।
प्रदीपार्चिषां सन्नन्यमानानामनवस्थायित्वेऽप्यभिव्यक्तमहणं तथान्यत्रापि स्थात् विद्युत्मम्मातस्थले या बुद्धिरुत्पन्ना सा खविषये व्यन वेति भावः ॥ ॥ ४६ || समाप्त बुड्के रुत्पन्नापर्वागत्व प्रकरणम् ॥ २६ ॥
अथ बुद्ध शरीरगुणात्य भावप्रकरणं न च प्रागेव तत्मिङ्घ रनारम्भगोयमेतत् गौरोऽहं जानामी त्याद्यनुभवेन तत्साधकानामाभासीकरणादतोविशिष्य तात्मादनाय संशयवीजमाह। द्रव्ये चन्दनादौ खगुणस्य रूपादेः परगुणस्य शैत्यादेश महादेवं शरीरे रूपादेरोष्णस्य च यहाद्बुद्यादिः शरीरगुणो न वेति संशयः ॥ ५० ॥
तत्र सिद्धान्तसूत्रम् । न शरीरगुपश्चेत नेति आदौ भाष्यकृतः पूरणं न शरीरविशेषगुणइत्यर्थः ययं तर्काकारः बुधादिकं शरीरविशेषगुणः स्याद्यावच्छरीरभावि स्यात् रूपादिवत् तत्परिष्कार्थ चानुमानं बुद्यादिक न शरीरविशेषगुणः अयावद्दव्यभावित्वात् शब्दवत् व्यतिरेके रूपवद्दा अयावद्दव्यभावित्वञ्च आश्रयत्वाभिमतकालीननाशप्रतियोगित्वम् ॥ १.१ ॥
पिठरपाकमते व्यभिचारमाशङ्कते । शरीरे पाकाधीनरूपादिना व्यभिचारानोन साधनं युक्त मित्यर्थः परे तु सिद्धान्तसूत्र मेवेदं नथा हि पाकजरूपेण व्यभिचारः शङ्कनीयः पाकज गुणान्तरस्य रूपान्तरस्योत्पत्तेः तथा च स्वसमानाधिकरणखममानजातीयासमानकालोनत्व पूर्वोक्लहेतौ नाशप्रतियोगित्व विशेषणीयमित्यर्थ इत्याहुः ॥ ५३॥
सिद्धान्तसूत्रम् पाकजानां प्रतिहन्दिनि पूर्वशरीरप्रतिरूपके शरी.. रानरे सिद्धेः घटादौ पाक जरूपसम्भवेऽपि शरीरे न तत्सम्भवः शरोरा वयवानाञ्च दीनामग्निसंयोगविशेषेण नाशावश्यकत्वात् परेत पाकजानां प्रतिबन्दिनोऽग्निसंयोगात्सिद्धेः तथा च ताशाग्निसंयोगासमानाधिकरणत्वमर्थस्त नाग्निसंयोग नाश्येऽग्निसंयोगजन्ये च न व्यभिचारइत्याहुः अन्ये तु शरीरगुणत्वाभावे हेत्वन्नरमा प्रतिद्वन्दीति पाकजानां पूर्वरूपादिकं प्रतिद्वन्धि विरोधि एकस्मिन् रूपे विद्यमाने रूपान्तराभावात् प्रकृते त्वेकस्मिन् ज्ञाने सत्यपि दितीय क्षणे ज्ञानान्तरोत्पत्ते नादिकं न शरीरविशेषगुण इत्यर्थ इत्याहुः ॥ ५३ ॥
हेत्वन्तरमाह। शरीरविशेषगुणानामिति शेषः ज्ञानसुखादिकन्तु
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२६४
न्यायसूरती ।
न शरीरव्यापकं हृदयाद्यवच्छदेन तदानुभविकत्वादिति भावः ॥ ५४ ॥ देशयति । शरीररूपादेराश्रयव्यापकत्वं न शारीरस्य गौररूपस्पर्शादेः केशनखादावनुपलब्धेरित्यर्थः ॥ ५५ ॥
दूषयति । स्पष्टं अन्ये तु चेतना न शरीरगुणः शरीरव्यापित्वात् शरीरे तदवयवेषु सर्वेष्वेकेन सम्बन्धेन रूपत्वात् शरीरगुणस्तु न स्वावयवत्तिः शङ्कते न केशेति चैतन्यस्यानुपलब्ध ेः समाधत्ते त्वगितीत्याञ्जः ॥ ५६ ॥
:
हेत्वन्तरमाह । बुद्धिर्न शरीरगुणः शरीरगुणवैधर्म्यात् वहिरिन्द्रियावेद्यत्वे सति वेद्यत्वात् ॥ ५७ ॥
याचिपति । नोक्तं युक्तं रूपादीनां परस्परवैधर्म्यात् तथाच तीत्या स्पर्धादीनां शरीरगुणत्वं न स्यादवाच्क्षुषत्वात्तथाचोक्तमप्रयोजकमिति भ. वः ॥ ५८ ॥
समाधत्ते । रूपादीनां न शरीरगुणत्वप्रतिषेधः कुतः ऐन्द्रियकत्वात् तत्तदिन्द्रिया पाह्यत्वलचणतत्तगुण वैधर्म्येऽपि शरीरगुणत्वावच्छिन्नवैधय॑स्य वहिरिन्द्रियाप्राह्यत्वे सति याह्यत्वस्याभावत् बुज्जौ च तत्सत्वादिति भावः ॥ ५८ ॥ समाप्त' बुद्ध शरीर- गणभेद प्रकरणम् ॥ ३७ ॥
अथ क्रमप्राप्ता मनःपरीक्षा तत्र प्रतिशरीरमेकं मनश्चक्षुरादिसहकारि तथा मनःपञ्चकं वेति संशये मनः पञ्चकमेवोचितं तेन च प्रत्येकं सकलमनःसम्बन्बाह्यासङ्गयौगपद्ये उपपद्येते इति पूर्व्वपत्ते सिद्धान्तत्रम् | प्रतिशरीरं मनो नानात्वे व्यासङ्गस्यलेsपि यौगपद्यं स्यादतो न मनो नानात्वमिति भावः ॥ ६० ॥
दीर्घशष्कुलीभचणादौ ज्ञानयोगपद्यान्नानात्वं खादित्याशङ्कते । म एकं मनः अनेक क्रियाणां अनेकज्ञानान मुपलब्धेरित्यर्थः ॥ ६१ ॥ समाधत्ते । क्रमिकेऽपि तदुपलब्धियोगपद्येोपलब्धिराशुसञ्चारात् शोषसञ्चारात्मकदोषात् यथा अलातचक्रे वेगातिशयेन स्वाम्यम. ये क्रिय:सन्तानस्य भेदेनानुपलब्धिरिति ॥ ६२ ॥
ननु यौगपद्येोपपादकतया मनसो वैभवं स्यादत्वाह । मन इति
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३ श्रध्याय २ श्राह्निकम् ।
२६५.
शेषः यथोक्तस्य ज्ञानायौगपद्यस्य हेतुत्वान्मनोऽणुत्वसाधकत्वादित्यर्थः ॥ ॥ ६३ ॥ समाप्तं मनः परीक्ष प्रकरणम् ॥ ३८ ॥
अथ प्रसङ्गाच्छरीरख तत्तत्पुरुषादृष्टनिष्पाद्यताप्रकरणम् अथवा एकत्रैव शरोरे मनसः सर्वैरात्मभिः सह संयोगात् सर्वत्रैव मनसा ज्ञानं जन्यतामतस्तद्दृष्टजन्यताप्रतिपादनप्रकरणं तत्र शरीरं तत्तत्पुरुषसम वेतादृष्टनिमित्तकं नवेति विप्रतिपत्तौ निषेधकोटिस्वेधा श्रष्टाभावात् तस्य शरीर हेतुत्वाभावात् अदृष्टस्य पुरुषसमवायाभावाद्वा तत्वाद्यं पच्चं निरस्यति । एर्वकृतस्य यागदानहिंसादेः फलस्य धर्माधर्मरूपस्य अनुबन्वात् सहकारिभावान्तस्य शरीरस्योत्पत्तिः ॥ ६४ ॥
व्याचिपति । भूतेभ्य इति सावधारणं तथाचादृष्टनिरपेचेभ्यो भूतेभ्यः परमाणुभ्यो मूर्त्ते दादेरुपादानमारम्भो यथा तथैव तस्य शरीरस्य उपादानमारम्भः परमाणुभ्यो ऽदृष्टनिरपेचेभ्य इत्यर्थः ॥ ६५ ॥
समाधत्ते । नोक्तं युक्तं दृष्टान्तस्य साध्यसमत्वात् पञ्चचमत्वात् म्हृदादेरभ्यदृष्टसापेचपरमाणुभ्य एव ेत्य से रूपगमात्तदजन्यत्वस्य तत्त्रा सिद्धेरिति भावः ॥ ६६ ॥
न मृदादिसाम्यमित्याह स्वाभ्याम् | शरीरे न मृदादिसाम्यं मातापित्वोः कर्मणः शरोरोत्पत्तिनिमित्तत्वात् पुत्रदर्शनादिजन्यसुखाaभावकाष्टस्य देवाराधनादिजन्यस्य पुत्रादिनिमित्तत्वात् एवं मातापित्रोराहारस्य शरीरोत्पत्तिनिमित्तत्वादङष्टसहकारेणाहारस्य शुक्रशोणितादिद्दारा कललादिजनकत्वात् ब्राहारस्य पितामहपिण्ड भोजनादेरदृष्टद्वारा पुत्रजनकत्व दित्यर्य इत्यन्ये ॥ ६० ॥ ६८ ॥
च्याहारस्यादृष्टसहकारित्वे विपक्षे बाधकमाह । प्राप्तौ दम्पत्योः सम्प्रयोगे तु गर्भधारणस्य यतो न नियमस्ततोऽदृष्टस्य सहकारित्वमाबयकमिति भावः ॥ ६६ ॥
नन्वदृष्टनिरपेचैरेव भूतैः कैश्चित् स्वभावविशेषाच्छरीरं जन्यतां स्वभावानभ्युपगमे च शरीरस्य सव्र्वात्मसंयुक्तत्वात् साधारण्यापत्तिरत ग्राह । प्रयमर्थः शरीरस्य सव्र्वात्मसंयुक्तत्वेऽपि संयोगविशेषोऽव को दकतालक्षणो येनात्मना सह तदीयं त छरीरं संयोगविशेष एव कुत इत्यत श्राह
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२६६
न्यायत्तौ ।
संयोगेति संयोगविशेष े त्पत्तौ कर्म दृष्टविशेषो निमित्त यथा शरीरोपतावट विशेषो निमित्तमिति संयोगे विशेषस्तदात्मज्ञानजनननियामको जातिविशेष एव संयोगः शरीरावयवसंस्थानविशेष इति कश्चित् ॥ ७० ॥ अथ शरीरं नादृष्टजन्यं प्रकृतेरारम्भस्वभावत्वादेव तदुपपत्तेः प्रतिबन्धकपूर्वशरीरापगम स्वदृष्टाधीनः जलस्य निम्नानुसरण स्वभावस्थेव बन्वापगमाधीनत्वम् इति द्वितीयपच्चं सांख्यसम्मतं निरस्यति । एतेन चादृष्टहेतुकत्वव्यवस्थापनेन का नियमस्तु श्रात्मनः कदाचिन्मानुषशरीरसम्बन्धः कदाचिदन्यादृशः किञ्चिञ्च शरीरं सकलावयवं किञ्चिञ्च विकलावयवमित्यादि ग्रदृष्टहेतुत्वानभ्युपगमे त्वयमनियमो न त्वमन्मते किञ्चवादृष्टनिरपेचप्रकृतिमात्रारब्धत्वे सर्व्वात्मसाधारण्यं शरीरस्य स्यात् इति भावः कन्ये तु दृष्टमप्यनियतं स्यादित्यवाह एतेनेति तत्राप्यदृष्टान्तरमि त्यनादित्वमेवेति भाव इत्याङः ॥ ७१ ॥
यातास्तु मन:परमाणुगुणमदृष्टं मन्यन्ते तथाहि पार्थिवाः परमाणवः सहिताः स्वादृष्टवशाच्छरीरमारभन्ते मनश्च स्वादृष्टप्रयुक्त शरीरमाविशति तचादृष्ट स्वभावादेव पुगलस्य सुखदुःखे साधयतीति तत्रोतरमाह । तत्तदात्मा दृष्टोपग्रहं विनैव तत्तदात्मोपभोगाय परमाणवखेच्छरीरमारभन्ते मुक्त ेऽपि तदात्मनि तद्भोगाय शरीरमारभेरन् अपवर्ग इत्य पलत्तणां संसारिणामपि नरकरितुरगादिशरीरोपय हे विनिगमकं न स्यादिति भावः ॥ ७३ ॥
अदृष्टस्य मनोगुणत्वमपि दूषयति । संयोगस्य शरीरारम्भकस्य ज्ञानादिजनकस्य च उच्छेदो न स्यात् कुतः मनसो यत्कर्म दृष्टं तनिमित्तत्वात् तस्य नित्यत्वात्तादृशसंयोगधारा नोच्छिद्येत तस्यानित्यन्येऽपि व्यधिकरणभोगस्य तम्नाशकत्वेऽति प्रसङ्ग इति भावः || ७५ ॥
د
५
मंयोगानुच्छेदे का चतिरतश्राह । तथा सति प्रापणस्य मरणस्यानु पपत्तेः शरीरादेर्नित्यत्वस्याविनाशित्वस्य प्रसङ्गः ॥ ७६ ॥
चिपति । यथा परमाणोः श्यामता नित्यापि निवर्त्तते तथा शरीरादिकमपि निवर्त्तते यद्दा तथेव परमाणनिष्ठ' नित्यमन्यदृष्टं निवते तदभावाञ्च नापवर्गे शरीरमिति ॥ ७७ ॥
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३ अध्याये २ बाह्निकम् ।
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सिद्धान्तसूत्रम् | यकृतस्य प्रमाणाविषयस्य अभ्यागमः स्वीकारस्तत्प्र सङ्गादित्यर्थः न हि परमाणु निष्ठादृष्टस्य कारणस्य सत्वे शरीरोच्छेदः स्यादेवमणुश्यामता नित्यत्वस्यापि प्रमाणागोचरस्थ स्वीकारः स्यात्तथा च दृष्टान्तासिद्धिः न वांइनादेर्भावस्य नाशः सम्भवति जन्यभावत्वेन तद्धेतुत्वात् यद्दा नित्वादृष्टा छरीरसम्बन्धोपगमे काकृतात् स्वयमजनितात्कर्म`णोऽभ्यागमः फलसम्बन्धः स्यात्तथा च स्वाशतत्वाविशेषात् किं शरीरं कस्य भविष्यतीत्यत्र नियामकाभाव इति भावः ॥ ७८ ॥
समाप्त शरीरस्यादृष्टनिष्पाद्यताप्रकरणम् ॥ ३६ ॥ समाप्तञ्च तृतीयाध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् ॥ २ ॥
इति श्रीविश्वनाथभट्टाचार्यकृतायां न्यायसूत्रवृत्तौ तृतीयाध्यायछन्तिः समाप्ता ॥ ३ ॥
सूरकोटिविजयिप्रभाभरं योगिमानसचरं परं महः । श्यामलं किमपि धाम कामदं कामकोटिकमनीयमाश्रये ॥
तृतीये तावद.म. दिप्रमेयष्टकं कारणरूपं परीचितमथ कार्यरूप प्रवृत्त्यादिप्रमेयषट्कमवसरतो हेतुमद्भावेन च परोक्षणीयं यद्यपि प्रथमाह्निके षट्कं परीचणीयं द्वितीयाह्निके तु तत्वज्ञानं तथापि तस्यापवर्गहेतत्वापोहातेन च परीचणीयत्वादपवर्गपरीक्षान्तः पातितया षट्कपरीचैवाध्याय र्षः तत्र चोद्दिष्टधर्मवत्तया षट्कपरीक्षा प्रथमाज्ञिकार्थः तत्र मधमाके चतुर्दशमकरणानि तत्र चोक्तरूपवन्तयामटत्तिदोषय ेः परीक्षा प्रथमप्रकरणार्थः न चार्थभेदात् प्रकरणभेदः यथा तथेति परम्रचाकाङ्गाभ्यामवयवाभ्यामुक्त रूपवच लख का ये वक्त्वकथनात् प्रवृत्तिपरीक्षायामाकाङ्गितायां सूत्रम् । श्रन्न तथैवेति शेषं पूरयन्ति तदयुक्त तथा सत्यत्वेव यथा शब्दस्याकाङ्काशान्तावग्रिमसूत्र स्वतथाशब्देऽपि यथाथदान्नरख पूरणीयतया प्रकरणभेदापत्ते जना दधिमसूत्रस्य तथा शब्दे
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न्यायसूत्रहत्तौ।
नान्वयो युक्तः प्रत्तिर्य था उक्तलक्षणवती तथा दोषा अप्युक्त लक्षण वन्न - इत्ययिमसूत्रसम्वलित ऽर्थः प्रष्टत्तिर्वागबुद्धिशरीरारम्भ इत्य कलक्षणसक्वात्मिा लक्षण मिति भावः प्रतिस्तु यी कारणरूपा कार्यरूपा च । अध्यात्म समवेते तत्राद्या जन्यत्वे नाविशिष्टा विशिष्टा वा यत्नत्वजातिमतो प्रत्यक्षसिद्धा हितीया तु धर्माधर्मरूपा यागादेरगम्यागमनादेव चिरध्वस्तस्य व्यापारतथा कर्मनाशाजलस्पर्शादेः प्रायश्चित्तादेश्च नाश्यतया सिध्यतीति ॥१॥
दोषपरीक्षायां प्राप्तायामाह। तथा दोषा अपि प्रवत ना लक्षणा इत्य का लक्षण वन्त एवेति नासिद्धिरिति भावः ॥ २ ॥
समाप्त प्रत्तिदोषसामान्य परीक्षा प्रकरणम् ॥ ४० ॥ अथ त्रैराश्येन विशेषेण दोषपरीक्षणाय तत्त्रैराश्यप करणं तत्र सिद्धान्तसूत्रम्। तेषां दोषाणां बयो राशयः त्रयः पज्ञा न तु रागद्देषमोहानामेकैकत्वं तेषामर्थान्तरभावात् अवान्नरभेदवच्चात् तथा च भयशोकमानादीना मेष्वेवान्नर्भावान विभागन्यू नत्वं इच्छात्वद्वेषत्व मिथ्याज्ञानत्वरूपविरुद्धधर्मवत्त्वान्न विभागाधिक्यम् इच्छा त्यादिवन्त रागादावतुभवसिड्वं तत्र राग पक्षः कामो मत्सरः पहा सृष्णा लोभो माया दम्भ इति कामो रिरंसा रतिश्च विजातीयः संयोगः नारी गताभिलाष इति तु न युक्त स्त्रियाः कामेऽव्याप्तेः मत्सरः खप्रयोजनप्रतिसन्धानं विना पराभिमतनिवारणेच्छा यथा राजर्क यादुदपानानोदकं पेयं इत्यादि एवं परगुण निवारणेच्छाऽपि स्यहा धर्माविरोधेन प्राप्तीच्छा तृष्णा इदं मे न क्षीयतामितीच्छा उचितव्ययाकरणेनापि धनरक्षणे छापं कार्पण्यमपि तृष्णाभेद एव धर्मविरोधेन घरट्रव्ये का लोभः परवञ्चनेच्छा माया कपटेन धार्मिकत्वादिना खोत्कर्ष ख्यापनेच्छा दम्भः । इषपक्षः क्रोध ईर्ष्याऽसूया दोहोऽमर्षोऽभिमान इति क्रोधो नेवनौहित्य दिहेतर्दोषविशेषः रा साधारणे वस्तुनि परस्वत्वात्तग्रहीतरि द्वेषः यथा दुरन्नदायादानाम् असूया परगुणादौ देषः द्रोहो नाशाय द्दषः हिंसा तु द्रोहजन्या परे त तान्द्रोहं मन्यते अमर्षः कतापराधे असमर्थ स्य हे षः अनिमानोऽपकारिण्यकिञ्चित्कर स्यात्मनि हेषः । मोह पक्ष. विर्य य संशयतर्कमान प्रमादभय
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४ अध्याये १ आह्निकम् ।
शोकाः विपर्ययो मिथ्याज्ञानापरपायोऽयथार्थ निश्चयः एकधर्मिकविरुद्धभावाभावज्ञानं संशयः स एव विचिकित्से त्यच्यते व्याप्यारोपायापकप्रसअनं तर्कः आत्मन्यविद्यमानगुणारोपेणोत्कर्षधीर्मानः गुणवति निर्गुणत्वधीरूपमयोऽपि मानेऽन्तर्भवति प्रमादः पूर्व कर्तव्यतया निश्चितेऽप्यकर्तव्यताध एवं वैपरीत्येऽपि भयमनिष्ट हेतूपनिपाते तत्मरित्यागानहता ज्ञानं शोक इष्टवियोगे तमामानहताज्ञानम् ॥ ३ ॥
शङ्कते। रागादीनां भेदो न एकप्रत्यनीकभावात् एकस्मिन् प्रत्य. नीकभावो विरोधित्वं यस्य तत्तथा तेनैकनाश्यत्वादित्यर्थः एक हि तत्वज्ञानमेषां विरोधि ॥ ४ ॥
समाधते । एकविरोधित्व दनिषेधेन हेतुळभिचारात् एकाग्नि संयोगनाश्यत्वेऽपि रूपादीनां भेदात् ॥ ५ ॥
किञ्च नेतेषामेकनिवयं त्वं तत्त्वज्ञानस्य मोहनिवर्त कत्वात्तन्नित्त्या रागादिनिहत्तेरित्याशयेनाह। यद्यपि बहूनां निर्धारणे इष्टनः तमयोवाँ विधानात् पापतमः पापिष्ठ इति वा युक्त नथापि छौ हावधिकृत्य निर्धारणं योनिर्धारणे ईयसुनो विधानात न रागमोहयोधमोहयोर्वा मोहः पापीयाननर्थमूलं बलवद्देष्य इति यावत् हेतुमाह नामढस्य मोह शून्यस्य रागद्वेषयोरभावादित्यर्थः न च तत्वज्ञानिनोऽपि हिताहितगोचरप्रवृत्तिनिवृत्ती रागद्देषाधीने इति तत्र व्यभिचार इति वाच्य धर्माधर्म प्रयोजकरागद्दषयोर्दोषत्वेन विवक्षितत्वात् एतदभिप्रायकमेवासको दिपंच मुक्त इत्यादिकमपीति भावः ॥ ६॥
शङ्कते। दोषनिमित्तत्वान्मोहस्य दोषभिन्नत्वं स्वादभेदेन कार्यकारणभावाभावात् दोषेश्य इत्यान्तर्गणिकभेद इडवचनं प्राप्तस्तही त्य प्रस्तु न सूत्र किन्तु भाष्यवतः पूरणमित्यपि वदन्ति ॥ ७ ॥
निराकरोति । मोहस्य दोषलक्षण सत्वाद्दोषत्वं व्यक्ति भेदाच्च हेतुहेतुमद्भावो न विरुध्यत इति भावः ॥ ८ ॥
अप्रयोजकमक्काऽनै कान्निकत्वमयाह । एकजातीययोरपि ट्रव्ययोंगुणयोश्च निमित्तनैमित्तिकोपपत्तेईल हेतमनावस्खोकारात्तुल्यजातीयप्रतिषेधो न युक्त इति ॥ ६ ॥ समाप्त दोषपरीक्षाप्रकरणम् ॥ ४१ ॥
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न्यायसूत्ररत्तौ।
क्रमप्राप्ततया पत्यभावे परीक्षणीये प्रेत्यभावः शरीरस्य बढेरात्मनो वेति संशये पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभाव इति लक्षणसूताविनष्टस्योत्पादः प्रतीयते न चासौ नित्यस्थात्मनः सम्भवतोति शरीरादेः स्यात् न च मृतस्य शरीरादेरुत्पत्ति विरोधानेदं युक्तमिति वाच्य प्रत्यभाव इत्यस्य मुखं व्यादाय स्वपितीतिवत् व्य त्ययेन भत्वा प्रापणमित्यर्थादल मिद्धान्तसूत्रम् | आत्मनः पूर्वोक्तयुक्त्या निस्थाचे प्रत्यभावस्तस्य सिध्यति एक जाती यशरीरद्यसम्बन्धचरमसम्बन्धनाशयोरुत्पादप्रापणयोरात्मनः सम्भवात् सम्बन्धस्वच्छ द्यावच्छेद कभावलक्षणः स चे स्वरूपसम्बन्धविशेषोऽतिरिक्तो वेत्यन्यदेतत् लक्षणसूत्रे पुनरुत्पत्तिरित्यत्र पुनः पदञ्च मेल्यभावप्रवाहस्थानादित्वज्ञापनाय तजतानञ्च वैराग्य उपयुज्यत इति ॥ १० ॥ ___ननु प्रत्यभाव उत्पत्तिनिरूप्यः सा च न सजातीयाविजातीयादा सम्भवति आद्यष्टथिव्यादौ व्यभिचारात्तन्नित्यत्वे मानाभावाद तः प्रत्यभावोऽसिद्ध इत्यु पोहातात् प्रसङ्गाहात्पत्तिप्रकारं दर्शयति । व्यकानामुत्पत्तरिति शेषः व्यकायक जातीयात् थिव्यादितः व्यकानां व्यकजातीयानां जन्यष्टथिव्यादीनासुत्पत्तिः इत्यञ्च प्रथिव्यादेः पृथिव्यादितो रूप वदादितच रूपवदादीनासुत्यत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वात्मरमा रपि कल्पाते लासरेणोर पकृष्टमहत्त्वेन सावयवावयवत्व सिद्धेस्तस्य लाघवानित्यत्वमिति भावः ॥११॥
अबद्धा शकते । विशेषका कारणभावाभावे सामान्यतोऽपि न तथेति भावः ॥ १२ ॥
विशेषतो बभिचारो न विरोधी सामान्यतस्त नास्ये वेत्याशयवान् समाधत्त । सजातीयात्मजातीयोत्पत्तेर्न प्रतिषेधः पृथिवीजातीयात् कपालादितो घटादिनिष्पतेः उकापादनं चाप्रयोज कमि त भावः ॥ १३ ॥
साप्त मेयभाव परीक्षाप्रकरणम् ॥ ४२ ॥ अथात्राटौ प्रकरणानि प्रसङ्गाधनानामित्येतत्विाद्यर्थमुपोहाताहा तत्रादौ शून्यतोपादानाकर पंजाल पूर्व रक्षसूत्रम् । कार्याणां भावानामुत्पत्तिर्थतोऽङ्करादेवी जादिकामहद्य प्रादुर्भावाभावात् तथा च वीजादि विन शोऽङ्करा पा ६:लि.:. १४
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४ अध्याय १ आङ्गिकम् ।
अब त्तरम्। उपमृद्य प्रादुर्भवतीति न युक्तः प्रयोगव्याघातात् उपमर्दकस्य पूर्वमसत्त्वे उपमर्दकत्वायोगात् पूर्व रुत्वे च परतः प्रादुर्भावायोगात् ॥ १५ ॥
पूर्वपक्षी दूषयति । नायुक्तः प्रयोगः अतीतेऽनागते च कारकशब्दप्रयोगात् कर्ट कर्मादिबोधक शब्दप्रयोगात् यथा ननिष्यते पुत्रः जनिष्यमाणं पुत्रम भिनन्दति अभूकम्भाभिन्नं कुम्भमनुशोचति ॥ १६ ॥
नवास्तामौपचारिकः प्रयोगस्तथापि किं वोजादेविनष्ट स्योपादानत्वं मन्यसे वीजा दिविनाशस्य वा अन्त्येऽपि तस्योपादानत्व निमित्तत्वं वा तत्रादौ उत्तरम् । विनष्टानां वीजादीनामुपादानत्वायोगादत एव न द्वितीयस्त व विनष्टं विनाशस्ततो नोत्पत्तव्य त्वस्थ भाव कार्य समवायिकारणताव छ दकत्वात् ॥ १७ ॥
हती येत्वाह । अभावस्य कारणत्वं न प्रतिषिध्यते प्रतिबन्धकामावस्य हेतुत्वोपगमादित्याह कमेति वीजे विनष्टेऽङ्करो जायत इति प्रत्ययाद्वीजस्य प्रतिबन्ध कस्थाभावः कारणं वीजे विनष्टे हि तदवयवैर्जलाभिपिनभूम्यवय वहितैरङ्कर प्रारभ्यते अभावमात्रस्य कारणत्वे चौंकृतादपि वीजाद रोत्पत्तिः स्यादभावस्ख निविशेषत्वादिति भावः ॥६॥
समाप्त शून्यतोपादाननिराकरण प्रकरणम् ॥ १३ ॥
मतान्तरमाह । अनेन ब्रह्मपरिणामबादो ब्रह्मविवर्तवादो वा दर्शित इदि वदन्ति तथ हि ब्रह्मैव नामरूप प्रपञ्चभेदेन विपरिणमते स्मृत्तिकेवोदञ्चनादिभावेन अत एव प्राकृतरूपस्य सत्त्वस्यापरित्यागः प्रप. ञ्चेष उदञ्चनादाविव मृत्तिकात्वस्येति परिणामवादः बहूत्र चा नाद्यनिर्वचनीयाऽविद्या वशान्नानारूपेण विवते मुखमिव तत्तज्जल घालम्बनभेदादिति विवर्त्तवादः ननु पुरुषकमेव कारणमस्त किमीश्वरस्य कारणत्वे नेत्यत आह पुरुषेति पुरुषकर्मयो हि वैफल्यमपि दृश्यले सहकार्यान्तर मवश्यं वाच्य तथाचेश्वर एव यथा यथे छति तथा जगहिपरिवर्त्तत इत्ये. वास्तु किं पुरुषकर्मणेति भावः वस्तुतस्तु केवलेश्वरकारणता पर प्रकरणं तदुपादानतापरत्वे तु न किमपि मानमाकलयाम इति ॥ १६ ॥
समाधत्ते । केवलब्रह्मण एव हेतुत्व दिया अतिरिकायास्त
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न्यायसूत्रत्तौ।
विषयतायाश्चानभ्यु पगमादभ्युपगमे इंत पत्तिरतः सर्व सर्वदा स्थान याच कार्यवैचित्रामिति पुरुषकर्मणोऽपि सहकारितावश्यकी ब्रह्मण उपा. दानत्वन्तु न सम्भवति असमवायिकारणासम्भवात्तस्य कारणतामा विध्यत एवेति भावः ॥ २० ॥
नन्वेवं पुरुषव्यापारस्य फले व्यभिचारो न स्यादिति चेदलाह | फलाभावस्य पुरुषकर्माभावकारितत्वात् पुरुषस्य कर्म अदृष्टन्तदभावाधीनत्वात्पुरुषकारः अहेतः फलानुपधायकः नन्वीवर एव क इत्यत्र भाष्यं गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः गुणैर्नित्यज्ञानेच्छाप्रयत्नैः सामान्य गुणैश्च संयोगादिभिर्विशिष्टमात्मान्तरं जीवेभ्यो भिन्न आत्मा न गदाराध्यः सृश्यादिकर्ता वेदहारा हिताहितोपदेशको जगत: पितेति परेतु प्रसङ्गादीश्वर प्रतिपादन यतात्रिसूत्री तथाहि ईश्वर: कारणम् अर्थाज्जन्यजातस्य अनुमानन्तु क्षित्यादिकं सकर्ट के कार्थत्वाइटवदित्यू ह्य नहु जीवानामेव कटत्वं स्वादलाइ पुरुषेति पुरुषकर्मणां वैफल्य दृश्यते तथा च विफले कर्मणि प्रवत्तमानत्वादनत्वं जीवानां यतः उपादानगोचरापरोक्षज्ञानादिमतो हि कर्ट वन च चित्याधुपादानगोचरज्ञानं जौवानामिति भावः मन्वदृष्ट हारा जीवानां कर्ट त्वमस्वित्यः शङ्कते न पुरुषेति फलस्य कार्य स्य कर्माभावे निष्यत्तेः तत्तत्पुरुषोपभोगसाधनत्वात्तत्कर्मजन्य त्वमिति स्फोरणाय पुरुषेति समाधत्ते तदिति कर्मणोऽपि तत्कारितत्वादी वरकारितत्त्वादचेतनस्य चेतनाधिष्ठितस्यैव जनकत्वादिति भावः ॥ २१ ॥
समाप्तमीश्वरोपादानताप्रकरणम् ॥ ४४ ॥ यदि च कार्याणामाकस्मिकत्व तदा न परमाखादीनायप.दानत्व नवेश्वरस्य निमिश्चत्वमत आकस्मिकत्वनिराकरण प्रकरणमारभते तत्र पूर्वपक्षसूत्रम् । अनिमित्तत इति प्रथमान्तात्तसिल अनिमित्त भावोत्मत्तिरित्यर्थः भावेति स्पष्टार्थ पाद्यत्यत्तिर्न कारण नियम्या उत्पत्तित्वात् कण्टकतैक्षणवाद्युत्पत्तिवत् यहा घटादिकं न सकारणकं भावत्वात्कण्ट कतैक्षणयादिवत् तेक्षण संस्थान विशेषः यादिपदान यूरचितादिपरिग्रहः तदकारणकमेवेत्याशयः ॥ २३ ॥
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४ अध्याये १ आङ्गिकम।
एकदेशी भ्रान्तो दूषयति । अनिमित्तत इति हेतुपञ्चमीनिर्देशादनिमित्तस्यैव निमित्तत्वात् कथमनिमित्तत दूनि ।। ३३ ।।
दूषयति ! अनिमित्तस्य निमित्तस्य च अर्थान्तरभावात् भेदात् उक्तः प्रतिषेधो न युक्तः अनिमित्तस्य निमित्तासम्भवात् शरीरस्थाकमनिमितत्वदूषो नैव च तदूषितप्राय मिन्याशयेन नात्र दूषितमिति नव्यास्तु सूत्वद्दयीमेवं व्याचक्षते समाधत्ते अनिमित्तेति अनिमित्तस्य अनिमित्तत्व - साधकस्य निमित्तत्वादनिमित्तत्वानुमितिजनकत्वाद निमित्तत इति व्याहतम् अनिमित्तत्व नुमिति जन कानभ्य पग मेऽनिमित्तत्त्वं न सिध्ये दिति कण्ट कतैक्षा प्रादिकमपि नानिमित्त अदृष्ट विशेषसहकरण भिस्तदुत्पादनादिति हृदयं दोषान्नरमाह निमित्तेप्ति इदमत्र निमित्तमिदमनिमित्त मिति प्रतीत्या तयो में द मद्धेनिमित्त प्रतिषेधेा न युक्तः इतर था च सार्वलौकिकी प्रतीतिर्नोपपद्यतेति भावः ॥ २४ ॥
समाप्तमा कमिकत्व प्रकरणम् ॥ ४५ ॥ सर्वस्येवानित्यत्वे नात्मादेरपि नित्यत्वं स्यादत: सर्बानित्यत्वनिराक. रण प्रकरणं तत्त्र प्रमेयत्वं अनित्यत्व व्याप्य नवेति मंशये पूर्व पक्षसूलम् । अनित्यं विनाशि उत्पत्तिमतो विनाशधर्मकत्वात् उत्पत्तिमत्वचाकाशादेरपि मेयत्वात् सिद्धमिति भावः तेन परमते तत्र नासिद्धिः यहा उत्पत्तिवि. नाशधर्मकत्व त् उत्पत्तिविनाशधर्मकाणां मानसिंवत्वात्तभिन्नमप्रमाणकमिति हृदयं परे तु अनित्यत्वं कादाचित्कत्वं उत्पत्तिधर्म कत्यादिनागधर्मकत्वादिति हेतुद्दये तात्पर्य मित्याहुः ॥ २५ ॥
दूषयति । उत्पत्तिमाव न विनाशित्वसाधकं अनित्यताया ध्वंसस्य नित्यत्वादविनाशित्वात्तत्व व्यभिचारात् ॥ २६ ॥
आक्षिपनि । तस्या अनिन्यताया अप्यनित्यत्वं यथाग्निर्दा हस्येन्धना. देविनाशानन्तरं स्वयमपि नश्यति न तु दाह्योन ज्जनं तथा घटादेरपि. नाशो नश्यति न घटायुन ज्जनं ध्वसध्वसस्यापि प्रतियोगिध्वसत्वात् ध्वस मागभावानाधारकालस्य प्रतियोग्यधिकरण त्वमिति व्याप्तेरप्रयोजकत्वाब्रोन्मज्जनमित्यन्ये ॥ १७ ॥
समाधत्ते । नित्यस्य नित्यत्त्वविशिष्टस्य नित्यत्वस्य न प्रत्याख्यानमिति
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३७४
न्यायसूत्रहत्तौ।
फलितं यथोपलब्धि उपलब्धानतिक्रमेण तथा च धर्मियाहकमानेन लाघवसहकतेनाको शादेनित्यत्व व्यवस्थापनादिति ॥ ३८॥
समाप्त सर्बानित्यत्वनिराकरण प्रकरणम् ॥ ४६॥ . सर्वनित्यत्वे न प्रेत्य भावादिसिडिरतस्त निराकरण प्रकरणं तत्राक्षेपसूत्रम् । सर्व नित्यं भतत्वान् यत्वाहा तत्र दृष्टान्त प्रदर्शनाय पञ्चभूतनित्यत्वादित्य तं तेन परमावाकाश दृष्टान्तता लम्यते ॥ २६ ॥
समाधत्ते । सर्व्व नित्यत्वं न युक्त घटादीनां उत्पत्तिविनाशकारणानां कपालसंयोगमुद्रपातादीनां उपलस्तथाच वादविनाशावावश्यकाविति
पुन: सोय आह । उक्त प्रतिषेधो न नित्यस्य परम खादेर्यलक्षणं भूतं. त्वादि घटादौ तदवरोधात् तत् वित्तथाचोत्पादादिप्रत्ययो भन्त इति भावः ॥ ३१ ॥
दूषयति | अनित्यत्वनिषेधो न युनः उत्पत्तेतत्कारणातत्यमापकाटुपलब्धेः तथाचोत्य दविनाशप्रतीतेः प्रामाणिकत्वान्न तनिषेध इतरथा कादाचित्कत्वप्रतीत्य नुपपत्तेः नचाविर्भावात्त दुपपत्तिस्तस्यैवानियत्व सर्वनित्यत्वव्याघातात् । विवेचयिष्यते चेदं स्पष्टतरमुपरिष्टात् ॥ ३२ ॥
उत्पादविनाश प्रत्ययस्य भवान्तत्वं स्थादित्याशङ्याह। सार्वलौकिक प्रमात्वेन सिवस्यापि चमत्वशङ्कायां प्रमानमव्यवहारविलोप. स्थादित्यर्थः ॥ ३३॥ समाप्त सर्च नित्यत्वनिराकरणप्रकरणम् ॥ १७ ॥
छथ प्रसङ्गात्मवष्टथक्व प्रकरणं तत्र पर्वपक्षसूत्रम् । सर्व वस्तु टथक् माना लच्यतेऽनेनेति लक्षणं समाख्या तस्याः पृथक्त्व पृथगर्थकत्व तथा च प्रयोगः घटादिः समूहरूपः वाच्यत्वात् सेनावनादिवत् अतीन्द्रिये गगनादौ मानाभावादात्मनः शरीरानतिरेकार णकर्मणोराश्रयाभेदाहिशेषसमबाययोर्मा नाभावादभावस्य तुच्छ वान व्यभिचारः यहा घटादिक स्वस्मादपि पृथग्भावलक्षणानां गन्धरसादीनां तत्तदवयवादीनाञ्च पृथवात् घटादेश्च तदभेदादिति भावः ॥ ३४ ॥ __ समाधत्ते। अनेकलक्षणैरनेकखरूपैरूपरसादिभिस्तत्तदवयवैश्च विशिटस कस्यैव भावस्य निष्पत्ते रुत्पत्ते रित्यर्थः तथाचै कस्ख धर्मिणः प्रत्य
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४ अध्याये १ आशिकम् ।
शादिप्रमाणसिद्धत्वात् तस्य च चक्ष षत्वरासनत्वादिविरुधर्माध्यस्तरूपरसाद्यात्मकत्वामावादवयवानाञ्च कारणत्वात् कार्यकारणयोरभेदासभवाञ्च न तत्तदात्मकत्व घटादेः सम्भवतीति भावः ॥ ३५ ॥
हेतमाह । लक्षणस्य अर्थाद्भावानां घटपटादीनां व्यवस्थानाधवस्थितत्वादेवाप्रतिषेधः पृथक्त्वा व्यवस्थापनं नेत्यर्थः कपालप्तमवेतद्र व्यत्वादिकं. हि घटादे लक्षणं कपाले घट इत्यादि प्रतीतिसिद्ध न चेदं समूहात्मकत्वे सम्भवति एवं लणक्षस्य घटादिवरूपस्य यमहमद्राक्षं स्पृशामीति प्रत्यक्षेण व्यवस्थितन्वात् परमायोश्चाप्रत्यक्ष त्वान्न तत्सम्भवः किञ्च समूहलक्षणव्य वस्थितेरेव नोक युक्त' समूहो हि नानाव्यक्ति समुदायः स च नैकव्य के रन, भ्यु पगमे सिध्यतीति भावः ॥ ३६ ॥
समाप्त' सर्व प्रयत्व निराकरण प्रकरणम् ॥ ४८ ॥ सर्वभून्यत्वे न कार्यकारणभावासम्भव इति तन्निराकरण प्रकरणमारभते तत्र ज्ञान विषयत्वमभावत्वव्याप्यन वेति संशये पूर्व पक्षसूत्रम् । सर्वे विवाद पदमभावस्तुच्छ तत्र प्रत्यचं मानमाह भावेष्विति भावत्वाभिमतेषु घटादिष अभावत्व सिद्धेः घटः पटो नेत्यादि प्रतीत्या सर्व षामभावत्यसिजे
सिद्धान्तसूत्रम् । भावानां पृथिव्यादीनो खभावस्य गवादेः सत्त्वादेच सिद्धे न हि तुच्छस्य गन्धरूपादिकं सत्त्वेन प्रतीतिर्वा सम्भवति ॥ ३८॥
__ पुनः शङ्कते । न हि सर्वेषां भावानामेकः स्वभावः सम्भवति यापेनिकत्वात् भिन्नत्वात् भिन्नस्य स्वभावत्वे खस्मादपि भेदापत्तेः यहा इतरसापेक्षत्वात् एतदपेक्षयाऽयं नीलनर एतदपेक्षया हस्ख इति प्रतीतेः यच्च सापेक्षन्तदवस्तु यथा जवासापेक्षं स्फटिकारुण्यम् ॥ ३८ ॥
समाधत्ते । सापेक्षत्वस्य तुच्छत्वव्याप्लेाहृतत्वादसिद्धत्वात् न वा घटादेः सापेक्षत्वं सम्भवति किञ्च सापेक्षुत्वं सापेक्षं न वा आये तस्य तुच्छत्वाब साधकत्वं अन्य तस्यैव सत्यत्वात् कुतः सर्वभून्यत्वमिति भावः ॥ ४० ॥
__समाप्त सर्वशून्यतानिराकरण प्रकरणम् ॥ ४६ ॥
अथ संख्यै कान्तवादनिराकरण प्रकरण तत्र भाष्यं अथे मे संख्यैकान्तवादाः सर्वमेकं सदविशेषात् सर्व वेधानित्यानित्य भेदात् सर्व धा
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न्यायसूत्ररत्तौ।
जाता जेयं ज्ञानमिति सर्व चतुर्धा प्रमाता प्रमाण प्रमेयं प्रमितिरिति एवं यथासम्भवमन्येऽपि तत्र यथा नित्यत्वानित्यत्वलक्षणधर्माभ्यां इंधं तथा रुत्वेनै कमिति स्पष्टोऽर्थः परत्वेवं व्याचक्षते एकमित्य इतवादस्तथा च बौ वैकं निर्विशेषं सत्यं सर्वमन्यन्मिथ्या यहा सर्व प्रपञ्चजातं एकं है त. शून्य सदविशेषान् घटः सन् पटः सनिति प्रतीतेः घटाभित्रसद भिन्नपटस्य घटाभेदसिवः श्रुतिरपि एकमेवाइयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चनेत्यादि अन्येऽपीत्यनेन रूपसंज्ञामस्कारवेदनानुभवाः पञ्च स्कन्धा दति मौत्रान्तिका इत्यादिसमुच्चयः एतेष्वाक्षेपेष सिद्धान्तसूत्रम् । सबैकाम्ना न सिध्यन्ति कारणस्य प्रमाणस्थानुपपत्तेः उपपत्तौ वा न सबैकान्नः साधनस्य माध्यातिरिकखापेक्षितत्वात् ॥ ४ ॥ __अाक्षिपति | न सयैकान्तस्यासिद्धिः कारणस्य प्रमाणवावयवभावात् उक्तस्यैकदेशत्वादवयवावयविनोच भेदाभावः ॥ ४२ ॥
दूषयति । उक्नो केतुन युक्तः सर्वस्येव पक्षत्वे नावशिष्टस्याभावामजैकदेशस्य हेतुत्वास भवादिति भावः श्रुतिस्तु ब्रीक्य परेति एतच्च नामभ्यं रोचते सत्त्व नै क्यस्य नित्यानित्यभेदावविध्यादेश्वाभ्य पग तत्वाद नि. त्यस्याप्यनुमानस्य नित्यानित्यसाधकत्वे विरोधाभावात् कथमितरथा षट्पदार्थों सप्तपदार्थों च मिश्चेदिति तस्माददैतवादनिराकरणपरत्व एव प्रकरणं सङ्गच्छत इति संक्षेपः ॥ ४३ ॥
__ समाप्त सख्यक वादप्रकरणम् ॥ ५० ॥ अथावसरत: फले परीक्षणीये संशयमाह ! पाकादिक्रियायाः सद्यः फलकत्व स्य कृष्यादेः काल न्नरफलकत्वस्य दर्शनादग्निहोत्रहवनादेहिमादेर्वा फलं सायकं कालान्तरीणं वेति संशयः ॥ ४ ॥
तहिककीर्त्य कोादीनामेव फलत्व सम्भवे नाष्टादिकल्पनमिति पूर्व पक्षे सिद्धान्तसूत्रम् । कालान्तरोपभोग्यत्वेन प्रतिपादनादित्यर्थः रूगौ हि फलं श्रूयते स च दुःखामम्भिन्नसुखं न चहिक रुख तथा एवं हिंसादेस्तत्तबरकोपभोग: फलं श्रूयते न चेह तत्मम्भव इति भावः ॥ ४५ ॥
शङ्कते। कालान्तरेण तत्तत्कर्मणः फलं न सम्भवति हेतोसत्कर्मणो विनाशात् ॥ ४६॥
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২৩७
४ अध्याये १ श्रह्निकम् ।
समाधत्ते । स्वर्गादिनिष्पत्तेः प्राक् तद्द्वारं स्यात् दृष्टान्तमाह वृक्षफलवत् यथा मूलसेकादिनाशेऽपि तदधीनावयवोपचयादिद्दारबलेन फलोत्पत्तिस्तथा प्रकृतेऽपि यागादिनाशेऽपि तज्जन्यादृष्टरूपद्वारसवान्न खर्गादुत्पत्तिविरोधः ॥ ४७ ॥
a
ननु कार्यकारणभाव एव न विचारसह इत्याशङ्कते । प्रानिपत्तेरित्यनुवर्त्तते फलमित्यध्याहर्त्तव्यं तथा चोत्पत्तेः प्राक् फलं नासत् असत उत्पत्ती शशश्टङ्गादेरम्युत्पत्तिः स्यात् स्याच्च सिकतादावपि तैलं नवासत् सत उत्पत्तिविरोधात् वातएव न सदसत्कदसतोः सत्त्वात्वलक्षणवैधर्म्यात् ॥ ४८ ॥
◄
प्रागुत्पत्तेरुत्पत्तिधर्मकमसदित्यडा उत्पादव्यय
दर्शनान् ॥ ४८ ॥
समाधत्ते । उत्पत्तिधर्मकं उत्पत्तिधर्मकत्वेनोपलभ्यमानं पटादिकमुत्पत्तेः प्रागमदिति श्रद्धा तत्त्वम् उत्पादनाशयोः प्रमितत्वात् इदानीं घट उत्पन्न इदानीं घटोविनष्ट दूति प्रत्ययात् सतस्तु नोत्पत्तिसम्भव उत्पचपुनरुत्पादप्रचङ्गात् यद्यपि नाशस्य तत्व हेतुत्वं तथाप्यनुत्पन्नभावस्य नाथायोगादुत्पादसाधकत्वेन नाथ उक्तः ॥ ४८ ॥
व्यस्त उत्पत्तौ नियमो न स्यादित्यत्राह । तत्कार्यम् असत् प्रागभावप्रतियोगिबुद्धिसिद्धं बुद्धा विषयोलतं तथा हि इह तन्नुष पटो भविष्यतीति ज्ञात्वा कुविन्दः प्रवर्त्तते नतु पटोऽस्तीति ज्ञात्वा तथा सति सिद्धत्वेन ज्ञात इच्छाऽभावात् प्रवृत्त्यनुपपत्तेः सिकतादौ पटो भविष्यतीति न ज्ञायते किन्तु न भविष्यतीति ज्ञायत एव कुत इति चेदनुभवमष्टच्छः किञ्च त्वन्मतेऽपि कुतो न ज्ञायते तत्र पटाभावादिति चेत् कथमिदं निरणाय पटात्पूर्वं तन्तु सिकतयोस्तुल्यत्वात् तन्तुत्वेनाश्रयतेति चेत्तन्तुत्वेन कारणतेत्येवं स्यात् प्रवृत्त्यनुरोधात् ||५०||
नन्वस्तु हेतुफलभावस्तथापि वृचफलवदिति दृष्टान्तवैषम्यानाडष्टसिद्धिरित्याशयेन शङ्कते । प्रानिष्पत्ते वृचफलवदित्य हेतुः कुतः श्राश्रय
२४
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न्यायसूत्रत्तौ। .
व्यतिरेकात् येन कायेन कर्मकतं तस्य नाशात् वृक्षस्यले तु तस्य वृक्षस्य सत्त्वात् सलिलमेकादिकं परिकर्मोपयुज्यत इत्यभिमानः ॥ ५१ ॥ ___ समाधत्ते । अाश्रयव्यतिरेकादिति हेतुर्न युक्तः प्रोतेः सुखस्य खर्गिशरीरावच्छ देन जायमानस्यात्मवृत्तित्वाद्यागादिसामानाधिकरण्यादित्यर्थः ॥ ५ ॥
कचिहामानाधिकरण्यसम्भवेऽपि सर्वत्र न तथेति शङ्कते। पुत्रादीनां फलनिर्हे शात् सामानाधिकरण्यन सम्भवतीति भावः ॥ ५३ ॥
__ यद्यपि पुलादीनामहिकफलत्वात्तत्रायव्यतिरेकाभावात् शङ्कव न तथापि यत्र जन्मान्तरोयधनादिकमपि फलं सात्तत्रापि नानु पपत्तिरित्याशये नाह। तत्सम्बन्धात्युलादि सम्बन्धात् फलनिष्पत्त: प्रीत्यु त्यत्त: तेष पुत्रादिषु फलवदुपचार: फलत्वेन व्यपदेशः यथाऽन्न वै प्राणिनां प्राणा इति ॥ ५९॥ समाप्त फल परीक्षा प्रकरणम् ॥ ५० ॥ ___अथ क्रमप्राप्त दुःखं परोक्षणीयं तत्र च बाधनालक्षणं दुःखमित्वन तदर्थ स्तु दुःखत्व जातिमत्त्वमित्यात तच्च शरीरादौ दुःखेऽव्याप्तमित्याशझ्याह । जननयोगाज्जन शरीरादिकं तदुत्पत्तिस्तत्सम्बन्धः विविधनाधना.. योगात् दुःखमिति व्यपदिश्यते न तु वास्तवमेव तत् दुःख तथा च विविधदुःखातुषकतया हेयत्वार्थं दुःखमिति भावनीयम पदिश्यते ॥ ५५ ॥
ननु दुःखभावनेन किं सुख प्रत्याख्यायते न चैतच्छ क्यमत काह | दुःखानां मध्ये सुखस्थाम्य त्यत्तेस्तत्प्रत्याख्यानस्थाशक्य त्वात् ॥ ५६॥
ननु सुखदुःखसम्बन्धाविशेषात् सुखभावन मेव किं नेष्यत इत्यलाह । दुःखभावनस्य न प्रतिषेधः वेदयतः सुखसाधनत्व जानत: पर्ये पण दोषात पर्थेषणे सुखार्थ प्रवर्तने दोषात् सुखार्थ प्रवर्त मानो हि अर्जनपालनादौ विविधाभिर्वाधनाभिरुपतप्यतेऽतोदुःखभावनं वैराग्यहेतुतयोपदिश्यते ॥५७॥
ननु दुःखमनुभवतः स्वत एव निवृत्तिसम्भवात् दुःखभावनोपदेशो व्यर्थ इत्यत आह। दुःखस्य विविधः कल्पो यत्र ताशे प्रतिषिद्धहिंसाभोजनमैथुनादौ प्रवृत्तिर्माभूदित्ययमुपदेश इति भावः ॥ ५.८ ॥
समाप्तं दुःखपरीक्षाप्रकरणम् ॥ ५.१ ॥ अथ क्रमप्राप्ततयाऽपवर्गः परीक्षणीयः तत्र च तदर्थक प्रवृत्तिकाला
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अध्याय १ आह्निकम् ।
भावात्तदभाव इति पूर्वपचयति । ऋणाद्यनुबन्धादपवर्गानुष्ठानकालाभावादपवर्गीभावः स्यात् तथा च यते जायमानो ह वैब्राह्म यस्त्रिभिः ऋणवान् जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यः यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य इति इति ऋऋषिभ्यः ऋष्णेभ्यो ब्रह्मचर्येण मुच्यते देवेभ्यः देवर्णेभ्यः यज्ञेन मुच्यते प्रजया अपत्येन पितृभ्योमुच्यते पापाकरणेनैव च जीवनापगमः तथा च श्रूयते तत्मलं यदग्निहोत्र' दर्शपौर्णमासो च जरयाहवा एष तमाहिमुच्यते म्हत्युना चेति ऋणापाकरणमन्तरेण च न तत्त्र प्रवृत्तिः तथा च मर्यते ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनोमोत्ते निवेशयेत् । चनपाकृत्य मोच्चन्तु सेवमानो बजत्यथः एवं क्लेशानुबन्धादपि पुरुषो हि रागादिभिस्तत्तत्कर्माण्यारभमाणः क्लेशानुविङ्ग एव दृश्यने तत्कथनपवर्गः एवं प्रवृत्त्यनुबभ्वादपि पुरुषो हि वाग्बुद्धिशरीरैस्तत्तत्कर्माण्यारभमाणो धर्मायावज्जीवमुपार्जयन् कथमपसृज्यतामिति ॥ ५६ ॥
a
:
समाधत्ते । जायमान इत्याद्यनुवादो हि प्रधानशब्दः न हि जायमानः कर्मण्यधिक्रियते तथा च भाष्यं यदा तु मातृजो जायते कुमारको न तदा कर्मभिरधिक्रियते अर्थिनः शक्तस्य चाधिकारादिति जायमान दूत्यनेन कोवा व्यावर्त्तनीयः नह्य जातस्य प्रसक्तिरस्ति येनासौ व्यावर्त्तनोयः तत्र भाष्यं जायमान इति गुणशब्दो विपर्ययेऽनधिकारादिति तथा च जायमान इत्यनेनोपनीत उच्यते तस्य ब्रह्मचर्य्यादावधिकारात् ग्निहोत्रादौ ग्टहस्थस्याधिकारः चौमे बसानो वाधीयतामिति श्रुतेः एवमृणशब्दोऽपि न मुख्य ः नह्यत्र प्रत्यादेयं कखन ददाति परन्तु ऋणापाकरणवदावश्यकत्वख्यापनाय तथोक्त लाचणिकशब्दप्रयोगे वीजमाह निन्दाप्रशंसोपपत्तेः ऋणानपाकरणतदपाकरणाभ्यामिवाग्निहोत्राद्यकरणतत्करणाभ्यां निन्दाप्रशंसे उपपद्येते नचानुष्ठानकालाभावः जरया - विमुच्यत इत्युक्तेः न च जरयाऽशक्तिरुपलक्ष्यते बन्ते वासी वा जुहुयात् ब्रह्मणा हि स परिक्षीण इत्यादिनाऽभक्तस्थापि विधानात् तस्मादायुषचतुर्थभागो जरेत्युच्यते कि जरामवादः कामनाभिप्रायेण तथा च भाष्यम् श्रर्थित्वस्य चापरिणामे नरामर्थवादेोपपत्तेरिति अर्थित्वं का
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२८०
न्यायसूबत्तौ।
भना तदपरिणामे तदनाशे कमकरणाभिप्रायेण जरामर्थवाद उपपद्यते ॥६॥
ननु काम्यानां कामनाविरहेण त्यागसम्मवेऽपि नित्यानां कथं त्यागः श्रूयते हि यावज्जोवमग्निहोत्र जुहुयादिति सलाह। अपवर्गप्रतिषेधेो न यतः अग्नीनामात्मनि समारोपविधानात् अ यते प्राजापत्या मिष्टिं निरूप्य तस्यां सर्ववेदख दत्वात्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रब जेदिति अतएव चत्वारः पथयोदेवयाना इति चातराश्रभ्यश्रुतिरपि सङ्गच्छते ॥ ६१
पाव चमान्तानुपपत्तेश्च फलाभावः ॥ क॥
नन्वग्निहोत्रस्या प्रतिबन्धकत्वेऽपि तत् फलस्वर्ग एवापवर्गप्रतिबन्धकः स्थादलाह | ज्ञानिन: फलस्य स्वर्गस्थाभावः अग्निहोत्र हि पाव चयान्तं पालाण्य ग्निहोत्रपात्राणि तेषाञ्चयः प्रमोतस्य यजमानस्याङ्गेष विन्यासः मुखे शतपूर्णी श्रुचमिति क्रमेण भिक्षोस्तदनुपपत्ते: तेन तत्परित्यागात् अग्निहोत्रफलाभावेऽपि ज्योतिष्टोमगङ्गास्नानादिहिंसादिफलानां प्रतिबन्धकत्वं स्यादतो हेत्वन्नरसमुच्चयाय चकार उपन्यस्तस्तथा च प्रारब्धातिरिककर्मणां ज्ञानादेव क्षय इत्याशयः अ यते हि तथा विद्दान् पुण्यपापे विध्य निरञ्जनः परमं मास्यमुपैति एवं क्षीयते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे। स्मर्य ने ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथेति इत्यञ्च कामनापून्यस्य प्रजानुत्यादोऽपि नापवर्गविरोधी तथा च श्रूयते एतदुहन वै पूर्वे ब्राह्मणा अनचानाविद्वांसः प्रजां न कामयन्ने किं मजया करिष्यामो येषां नायमात्मालोक इति ते हम्म पुषणायाश्च वित्तषणायाच लोकेषणायाश्च व्य याय भिक्षाचव्यं चरनीति अन्ये तु फलाभावः फलस्य मुमुक्षुन् प्रति अग्निहोत्रादौ प्रयोजकत्वामावस्तथा सति भिक्षणामपि पात्र चयान्त स्थादित्यर्थ इत्याहुः ॥ का
लशानुबन्धं दूषयति । स्वप्रादर्शनकाले सुषप्रय यथा हेत्वभावेन दुःखाभाव स्तथाऽपवर्गेऽपि रागाद्यभावेन दुःखाभावः स्यात् । ६३ ॥
महत्व ब ध दप वर्गाभा दूषयति । क्तिश्यन्तेऽनेनेति ले.शोरागादिः
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४ अध्याये ? आह्निकम् । १
२८९
defen या प्रवृत्तिः सा प्रतिसन्धानाय प्रतिबन्धाय न भवति धर्माधर्मे न जनयतीत्यर्थः ॥ ६४ ॥
I
क्लेशाभावमसहमानः शङ्कते । क्लेशसन्ततेरु के दो न युक्तः स्वामाविकत्वात् ॥ ६५ ॥
एकदेशी समाधत्ते । प्रागुत्पत्तेरभावानित्यत्ववत्प्रागभावानित्यत्व'वत् व्यनादेः परमाणुश्यामतायाविनाथवद्या विनाथः ॥ ६६ ॥ ६० ॥
व्यनित्यत्वं विनाशिभावत्वं न च तत्प्रागभावे नवाऽणुश्यामतादिरनादिस्तथा च भाष्यम् अनादिरणुश्यामतेति हेत्वभावादयुक्तमित्यतो मतइयमुपेच्य सिद्धान्तमाह | नोक्तं युक्त कुतो रागादीनां सङ्कल्पनिमित्तत्वात् सङ्कल्पो मिथ्याज्ञानं निर्मित' येषां तथा च तत्त्वज्ञानेन मिथ्याज्ञान निवृत्तौ रागादिनिष्टत्तिर्युज्यत एवेति भावः ॥ ६८ ॥
समाप्तमपवर्गपरीक्षाप्रकरणम् ॥ ५२ ॥
समाप्त' चतुर्थाध्यायस्य प्रथममाह्निकम् ॥१॥
अथ शास्त्रस्य परमं प्रयोजनमपवर्गः स चोद्दिष्टो लचितः परीक्षितऽप्यकिञ्चित्करः कारणानिरूपणात् नन्वभिहितमेव दुःखादित्वे कारणनाशक्र मेय्य दुःखाभावोऽपवर्गः इतीति चेत त्यं मिथ्याज्ञानापगमहेतुनभिहितः तत्त्वज्ञानं तत्र हेतुरिति चेत् कस्य स ज्ञातव्यमित्यभिधानीयमित्याशयेन तत्त्वज्ञानपरीचा सेव चाह्निकार्थः तत्र च षट्प्रकरणानि यादौ तवज्ञानोत्पत्तिप्रकरणम् अन्यानि च यथायथं वच्यन्ते तत्र सिद्धान्तसूत्रम् । श्रहङ्कारोऽहमित्यभिमानः स च शरीरादिविषयको मिथ्याज्ञानमुच्यते तच्च दोषनिमित्तानां शरीरादीनां तत्त्वस्य अनात्मत्वस्म ज्ञानान्निवर्त्तते ब्रात्मत्वेन हि शरीरादौ मुह्यन् रञ्जनीयत्वात् रज्यति कोपनीयेषु कुप्यति केचित्त दोषनिमित्तानां रागादीनां तवज्ञानादुबलबदनिष्टानुबन्धित्वज्ञानादहङ्कारस्याभिलाषस्य निवृत्तिरित्यर्थः इत्याजः ॥ १ ॥
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ननु के तावदनुरञ्जनीया विषयाः येषु रज्यन् संसरतीत्यतो विवे
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न्यायसूत्रौ ।
२८२
काय तानुपदिशति । सङ्कल्पः समीचीनत्वेन भावनं तद्विषयोलतारूपादयः दोषस्य र. ग.देर्निमित्तं सुन्दरीयमिति जानन् रज्यति शत्रुरयमिति हेष्टि ते रूपादयो हेयत्वेन भावनीयाः प्रयमं ततः शरीरात्मविवेकः ॥२॥
ननु सौन्दर्य्यादिकं पश्यतो रागादिर्ब्रह्मणेोऽपि दुष्परिहरः तदुक्तं चञ्चलं हि ननः कृष्णप्रमाथि बलवद्ढढमित्यतो रागादिनिवृत्त्युपायं दर्शयिष्यन्नाह | अवयविनि तरुण्यादिशरीरे अभिमानः सपरिष्कारबुद्धिस्तन्निमित्त ं रागादिनिमित्तं तथा च सा बुद्धिर्हेया अतएव भाष्यादौ परिष्कारबुद्धिरनुरञ्जनसंज्ञा सा हेया दोषदर्शनमशुभसंज्ञा सा भावनीयेति अनुरञ्जनसंज्ञाय यथा खेलत्खञ्जननयना परिणतबिम्बाधरा पृथुश्रोणी । कमलमुकुलस्तनीयं पूर्णेन्दुमुखी सुखाय मे भवितेति शुभसंज्ञा यथा चर्मनिर्मितपात्रीयं मांसास्टक् पयपूरिता अस्यां रज्यति यो मूढः पिशाचः कस्ततोऽधिकः । स्वशरीरादौ श्रभ्यशुभसं जैव भावनीया एवं कोपनीयेऽपि शुभसंज्ञा । कां द्वेष्ट्यमौ दुराचार द्रष्टादिषु यथेष्टतः कण्ठपीठं कुठारे छित्वास्य स्यां सुखी कदा | अशुभसंज्ञा तु मांसाthreat देशः किं मेऽपराध्यति एतस्मादपरः कर्त्ता कर्त्तनीयः कथं मयेति ॥ ७० ॥ समाप्त तत्त्वज्ञानोत्पत्तिप्रकरणम् ॥ ३ ॥
ः।
अथ प्रसङ्गावयवप्रकरणं वस्तुतस्तु शरीरं धर्मद्वयस्य सम्बन्वेऽपि एकं ध्येयमपरं हेयमिति नियुक्तिकम् अतोऽवयवी नास्ति किन्तु परमा- इति तत्त्वं तदेव तन्मुमुच् भिभवनीयं परमाणुपुल इत्यष्यापाततः परमाणोरप्यये निराकरिष्यमाणत्वादिति सौगतशङ्कामपाकर्त्तृमयमारम्भः यद्यपि द्वितीयाध्याये व्यवस्थापित एवावयत्री तथापि स्वयुक्तिदार्थेन सौत्रान्तिकस्य वैभाषिकस्य चात्र प्रत्यवस्थानमिति तत्र संशयप्रदर्शनाय सूत्रम् | संशय इत्यस्य व्यवयविनीत्यादिः अवयविन: प्रत्यच्तसिद्धत्वात् तदवलापो दुःशक्य इत्यत उक्त विद्येति प्रमाश्रमभेदेन ज्ञान विध्यात् ज्ञानत्वलचणसाधारणधमदर्शनात् ज्ञाने प्रामाण्य संशयादवयविनि संशय इत्यर्थः : ॥ ४ ॥
समाधत्त े । तत्त्रावयविनि न संशयः पूर्व हेतुप्रसिद्धत्वात् द्वितीयाव्यायोक्त क्तिभिरवयविन: प्रकर्षेण सिद्धत्वात् ॥ ५ ॥
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४ श्रध्याय २ आह्निकम् ।
व्यवयविनि बाधकं शङ्कते । त्रपिरवधारणे तर्हि संशयानुपपत्तिवृत्त्यनुपपत्तितोऽवयव्यभावादेव स्यादित्यर्थः वृत्त्यनुपपतिं विवृणोति भाष्यकार: लत्स्नैकदेशत्रुन्तित्वादवयवानामवयव्यभावः अवयत्रीहि एकैकावयवे कात्न एकदेनेन वा नाद्यः विषमपरिमाणत्वात् कान्त्ये ऽपि तेनैवावयवेनान्येन वा नाद्यः स्वस्मिन्वृत्तिविरोधात् नान्त्यः व्यवयवान्तरस्यावयवान्तरावृत्तेः तथापि कथनवयव्यभाव इत्यल भाष्यं तेषु चाउत्तेरवयव्यभावः तेषु का त्रयवेषु पूर्ण पूर्वोक्तयुक्त्या अभावादवयवी नास्ति नासाजवृत्ति स्वयाऽभ्युपेयत इति भावः मेवेदमित्यपि वदन्ति ॥ ६ ॥
नन्वा ताम उत्तिरेवावयवीति शङ्कायां पूर्व्वपचित्रम् श्रवयवेभ्यः पृथक् अवयवो नास्तीति शेषः तेषु चाटत्तेरित्यस्य सूत्रत्वे श्रवयव्यभावइत्यनुवर्त्तते कुतः वृत्तेः छत्त्यभावेऽवयविनो नित्यत्वप्रसङ्गः न च नित्योऽवयव्युपलभ्यते ततो नास्येवयवीति भावः यहा कृत्स्नैकदेशाभ्यामवयवी न वत्र्त्तते किन्तु स्वरूपेणैवेति शङ्कायां पूर्वपचिणः सूत्र पृथगिति वयवेभ्यः पृथगवयत्र नास्ति कुतः प्रवृत्तेः वृत्तित्वप्रसङ्गात् तथा सतिनित्यं स्यादिति भावः कश्चित् अवयवातिरिक्तोऽवयवो वर्त्ततामित्यत्व पूर्वपक्षिणः सूत्रं पृथगिति पूर्वोक्तयुक्त्याऽवयवेभ्यः पृथगम्यत्तः ॥ १ ॥
नन्ववयवावयविनोस्तादात्म्यमेव सम्वन्धः स्यादव ह । नहि तन्तुः पटस्तम्भग्टहमिति कञ्चित्येति नवाऽभेदेनाधार धेयभाव उपपद्यते ॥ १० सिद्धान्तसूत्रम् । अत्रयवी कात्स्नेान एकदेशेन वा वर्त्तत इति प्रश्नोन युक्तः एकस्मिन्नवयविनि भेदाभावाद्भेदनियतशब्द प्रयोगस्यायुक्तत्वात् अनेकस्याशेषता हि का समुदायिनां किवि नेक देशत्व' नचैकस्य तत्सम्भव इति भावः ॥ ११ ॥
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२८३
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इतश्च वृत्तिविकल्पोन युक्त इत्याह । अवयत्री स्वावयवेषु नैकदेशेन बर्त्तते व्यवयवान्तरा भावादिति यः परेषां हेतुः स न युक्तः कुतः स्वयवान्तरभावेऽप्यरत्त अवयवान्तरसश्वेऽति तस्यैव परं वृत्तिरायाति न त्वयविनोऽपीति यद्दा वाटतेर्वर्त्तनाभावस्य कृत्स्नैकदेशविकल्पो न हेतुः कुतः श्रवयवान्तरस्य कार्याविभिन्नस्य कावयस्य भावेऽपि सत्त्वेऽपि सम्भवात्
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१८४
न्यायस्वरत्तौ।
घटत्वादिवत् स्वरूपेणैवावयविनो हत्ने सम्भवात् हप्त: कत्म्क देशान्यतरनियमोघटत्वादो, व्यभिचार्थ प्रयोजकति भावः ॥ १२ ॥
तदसंशयः पूर्वहेतुप्रसिद्धत्वादित्य नेन सर्वाग्रहणमवयव्यसिद्धेरिति पूर्बोनयुक्तिः स्मारिता पूर्व पक्षी तो दूषयितुमुपक्रमते । यथा तैमिरिकस्य तिमिरग्रस्त चक्षुषो नैकः केशः प्रत्यक्षः किन्तु तत्ममूहः एवमेकः परमाणुरप्रत्यक्षः तत्समूहरूपो ध ठादिः प्रत्यक्षः स्यात् ॥१३॥ ___ उत्तरयति । इन्द्रियाणां पाटवे विषयग्रहणस्य पाटवं प्रकर्षः इन्द्रियाणां मान्छे तह,हणस्य मान्द्यमपकर्षः न त पटुतरं चक्षुः शब्द ग्टह्णाति तदिदमुन स्वविषयानतिक्रमेणेति फलितार्थमाह नाविषये वृत्तिरिति तथा च खाविषयं परमाणु समहत्वापन्न मपि कथं चक्षुर्ट लीयादिति भावः ॥ १४॥
दोषान्त राभिधानाय सूत्रम् एक्सप्रकारेण पृत्तिविकल्प दोषोऽवयविन्य वयवे च प्रसनः आमलयात् प्रलयोऽभावस्तथा च साभाव एवं स्यान्न कस्यापि ग्रहणमिति साधूनं सर्वाग्रहणमवयव्यसिद्धे रिति ॥१५ ॥
अस्तु सर्वाभावइत्यवाह | आत्रयनाशाद्यभावेन परमाणो शाभावेन तत्सम्भवात् यहा नन्ववयवावयविप्रवाहवया मलयपर्यन्तं स्वीकार्य : मलये च निखिल टथिव्यादिनाशात्मनः सर्गोन स्थादित्याशयेन शङ्कते अवयवेति समाधत्ते नेति न सकलष्टथिव्यादिमाशः परमाणुसद्भावादित्यर्थः ॥ १६ ॥
परमाण रेव क इत्यवाह। बुटः परं यदतिसूक्ष्म तत्परमाणुः वाशब्दोऽवधारणे अथ वा बुटेरवयवस्तदवयवोवा परमाणु रिति विकल्पा
र्थो वाशब्द: यहा बुटेः परं सूक्ष्म परमाणः लुटावेव वा विश्राम इति विकल्पोऽभिमत : ॥१७॥ समाप्तनवयवावयविप्रकरणम् ॥ ५४॥ ___ अथ विश्वस्य शून्यत्वात् क. परमाणुसम्भावनेति मनिरा करणाय निरक्यवप्रकरणं तत्त्र पूर्वपक्षसूत्रम् । तस्य निरवयवस्याणोरनुपपत्तिः कुतः अाकाशव्यतिभेदात् अन्तर्वहिचाकायसमावेशात् तथा च सावयवस्त तश्चानित्य इति ॥१८॥
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४ अध्याय २ श्रातिकम्। २८५ अथ नाकाशव्यतिभेदलाई आकाशमतगतं स्थादित्याह । स्वादितिशेषः ॥ १६॥
समाधत्ते । अन्तःशब्दोवहिःशब्दश्च कार्थ द्रव्य स्यावयव विशेषवाची न चाकार्ये ऽवयवसम्भवइत्यर्थः वहिरिति दृष्टान्नार्थम् ॥ २० ॥
आकाशस्यासर्व गतत्वं स्थादित्यवाह | शब्दस्य संयोगस्य च यो विभवः अथ वा शब्दजनकसंयोगस्य यो विभवः सार्वत्रिकत्वं तस्मात्म नः सर्वगतं आकाश मिति शेषः सर्वदेशे शब्दोत्म त्या तज्जन कसंयोगानुमानात् सर्व मूत्त संयोगित्वरूप सर्वगतत्व तस्य सिद्धम् ॥ २१ ॥
___ आकाशस्य सर्वसंयोगित्वे व्यहनविष्टम्भौ स्यातामतबाह । व्यू हः प्रतिहतस्य परावर्तनं विष्टम्भउत्तरदेशगतिप्रतिबन्धः आकाशे तयोरभावः निस्पर्शत्वात् विभत्व' मर्वगतत्व यद्येते सूत्रे शून्यतावादिमते न संगच्छेते आकाशादेस्तैरनभ्य पगमात्तथापि त्वात इति पूरयित्वा व्याख्ये ये ॥ १३ ॥
पूर्वपक्षो युक्त्यन्त रमाशङ्कने । परमाणोरिति शेषः हेतुमाह संस्थानोपपत्तः संस्थानवत्त्वात् परमाणहि परिमण्डल कारः संस्था नवत्त्व मानं भड्या वदति मति मतामिति मूतत्वात्संस्थानवश्वमित्यर्थः चः पूर्वोक्न हेतु समुच्चिनोति पूर्वक हेतु समुच्चिनोतिमत त्वस्य हेतुत्वसमुच्चयार्थो वा चकारः ॥ २३ ॥
युज्यन्नरमाह | अवयवसद्भावइत्यनुवर्त ते संयोगवत्वादिति हेत्वर्थः संयोगव त्वात् कथं सावयवत्वमिति चेत् इत्य संयोगस्याव्याप्यत्तित्वादव्याप्यत्तित्व चाव छ दकभेदं विना नोपपद्यते अवच्छ दकचावयव इति ननु परमाण्ववयवेऽध्ययं दोषः स्यात्तथाचा नवस्थित परम्परा प्रसङ्ग इति चेत् त्य ज तहि परमाणु व्यसनं खो करु शून्यतावादं निरवयबमाकाशादिकमपि नास्तीति भावः ॥ २४ ॥
समाधत्ते। पूक्तियुन्या परमाणोनि रबयवत्वप्रतिषेधोन युक्तः कुत अनवस्थाकारित्वात् प्रामाणि कोयमनवस्था व दम्बाह अनवस्थानुपपत्तेचेति सर्वेषामन वस्थितावयवत्वे मेरुमर्ष पयोस्तुल्य परिमाणत्वापत्तिरित्यञ्च नमयोगावच्छ कादिग्विभागा न वा शून्यताय का निष्पमाणत्वात्म
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२८६
न्यायसूत्र वृत्तौ ।
भागणमत्व म्यून्यत्वविरोधात् निष्यमाणकम्पून्यताऽभ्युपगमे किमपरा राई पूर्णतयेति दिक् ॥ ३५ ॥ समाप्तं निरवयवप्रकरणम् ॥ ५५ ॥
॥
ननु वाह्यार्थाभावात् कुतोऽवयवावयविव्यवस्थेति मतमपाकर्त्त वाह्यार्थभङ्गनिराकरणमारभते प्रमेयत्वं ज्ञानत्वव्याप्यं नवेति संशयः तत्र 'पूर्वपक्षत्रम् | तुः प्रकरणविदार्थः भावानां बुद्ध्या विवेचनादभेदो| ल्ल खात् याथात्मास्य ज्ञानभेदलक्षणखानुपलब्धिरनुपपत्तिः घट इति ज्ञानं मम जातमिति ह्यनुभूयते तत्र पट इति ज्ञान मित्यनेन ज्ञानघटयोरभेदउल्लिख्यते ततोन ज्ञानातिरिक्तो विषयः यथा पढे विविच्यमाने तन्तूनामेवापकषे पादावतिरिक्त न वस्तु एवं तन्तुरधि नांशुव्यतिरिक्त इति घटत्वादिस्तु ज्ञानस्य वाकार विशेष इति भावः ॥ २६ ॥
समाधत्ते । उक्तो हेतुनं युक्तः व्याहतत्वात् न हि बुध विवेचने पटस्य तन्तु रूपता सिध्यति तन्तुतः पत्र इति हि प्रतीयते न तु तन्तः पढ दूति एवं पटेन प्रावरणं न तु तन्तुभिः किञ्च तन्तुपट विवेचनादेववाह्यार्थसिद्धिः ज्ञानेन तु स्वस्मिन् पटाभेदो नोल्लिख्यते स्वाविषयकत्वादनुव्यवसायेन तु पटविषयकत्वं व्यवसाये समुल्लिख्यते ॥ ३७ ॥
ननु तन्तु परयोर्भेदे पार्थक्येन ग्रहणं स्यादित्यत्राह । पृथग्ग्रहणं यदि तत्व विषयकप्रत्ययविषयत्वं पटस्यापद्यते तत्त्रोत्तरं तदाश्रयत्वादिति पटो हि तन्त्वाश्रितः तेन सामयोरुत्वात्पटप्रत्यच्तस्य तन्तु विषयकत्व यदि च भेदप्रत्यय व्यापाद्यते तदा भवत्येवेति भावः ॥ २८ ॥
ननु ज्ञानस्योभयवादिसिद्धत्वात्तवाल पदार्थकल्पने लाघवात्तदतिरिक्तपदार्थाभावसिद्धिः स्यादित्यत श्राह । पूर्वोक्तहेतुं समुचिनोति चकारः अर्थस्य घटादेः प्रतिपत्त ेः प्रमाणाधीनत्वात् तथा च प्रामाणिकेऽर्थे गौरवं न बाधकमिति भावः अन्यया ज्ञानमपि न सिध्ये हौरवादि यून्यतापत्तिः ॥ २६ ॥
न वा बाह्यार्थाभावसाधनं सम्भवतीत्याह । व्याघातान वाह्याभाव इति शेषः बाह्य नास्तीत्यत्र यदि प्रमाणमस्ति तदा प्रमाणस्य वाह्यस्य सत्त्वान्न वाह्याभावः अथ नास्ति तदा निष्प्रमाणकत्वान्न तत्सिद्धिरित्यर्थः किञ्च घटादौ यदि प्रमाणमस्ति तदा तत एव बाह्यार्थसिद्धिः यथा प्रमाणं
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४ अध्याय २ वाह्निकम् ।
२८७
तदा कथं घटइति ज्ञानस्य घटाकारत्वं मन्यसे ज्ञानस्यैवानुत्पत्ते रिति ॥३॥ ननु प्रमाणप्रमेयव्यवहारो न पारमार्थिकः परन्तु विज्ञानानि तत् तदाकारणानि वासनापरिपाकवशादेव स्वामम त्यय वदेन्द्रजालिक प्रतीतिचाविर्भवन्तीत्याययेन शङ्कते त्वाभ्यां स्पष्टम् ॥ ३१ ॥ २२ ॥
समाधत्ते । वाह्याभावस्यासिद्धिः हेत्वभावात् प्रमाणाभावात् काथवा तोचचुरादेरनभ्युपगमे घटोऽयमित्यादिज्ञानानामसिद्धिरित्यर्थः न च वासनावशात्स्यादिति वाच्यं वासनाया अतिरिक्तत्वेवाह्योपगमप्रसङ्गात् वाचनायाः सन्तन्यमानतया चाचुषादेरपि सन्तानापत्तिरिति दिक् ॥ ३३ ॥
नवसद्दिषया हेतुका स्यपि स्यानप्रत्ययाद्रव भावना प्रत्यया इव परेऽपि प्रत्ययाभवेयुरित्यत श्राह । पूर्वौपलब्धविषय इति शेषः सङ्कल्पउपनीतभानं यथा स्मृत्यादिः पर्यो पलश्वविषयकः तथा स्वानप्रत्ययोऽपीति न निर्व्विषयकः न च स्वप्र स्वमपि खादति निजशिरः खण्डनमपि पश्यति नत्विदं पूबौपलब्धमिति वाच्य' स्वस्य खादनस्य च निजशिरसः खण्डनस्य च पव्र्वोपलब्धत्वात्संसर्गभानस्य च वान्तत्वात् नवाऽ TS हेतुकत्वं स्मृत्यादिदृष्टान्तेन संस्कारस्य स्मृतेश्च मृतौ विशिष्ट बुद्धौ च हेतुत्वया - भिमतत्वात् तत्व भ्रमे दोषः कालविशेषोऽदृष्टविशेषो दोधोवेत्यन्यदेतत् ॥ ३४ ॥
ननु भ्रमस्यापि सद्विषयकत्वे तत्प्रतिरोधः कथं स्यादित्याशङ्क्याह | मिथ्योपलब्धे माया गन्धर्व नगरादिज्ञानस्य तत्त्वज्ञानादनारोपितवस्तुप्रत्ययाद्विनाशः प्रतिरोधः भ्रमत्वज्ञानं वा एवं स्वप्रप्रत्ययस्यापि दर्पणमुखविभ्व मस्य तत्त्वज्ञानेनाप्रतिरोधेऽपि भ्भ्रमत्वज्ञानं भवत्येवेति भावः ॥ ३५ ॥
माध्यमिकस्तु वाह्यासत्वं प्रसाध्यते तदृष्टान्तेन बुद्धेरप्य सत्त्व' साधयति तं प्रत्याह । एवं वाह्यवद्द द्वेरपि न प्रतिषेधः निमित्तसद्भावो - पलम्भात् सहेतुकत्वस्य प्रमितत्वात् नह्यलीकं सहेतुकं सम्भवति हेतुकत्वे च कादाचित्कत्वव्याकोपः केचित्तु भ्रमस्य सद्विषयत्वे प्रमात्वं खादित्यत्राह बुद्ध रिति एवं प्रमात्व' निमित्तस्य प्रकारस्य सद्भावः सत्त्वं यत्र तथा च शुक्तिरजतयोः सत्यत्वऽपि शुक्तौ रजतत्ववैशिष्याभावाच तद्दु प्रभा - त्वमिति भाव इत्याङः ब्रत्र चोपलम्भ पदमनतिप्रयोजनकम् ॥ ३६ ॥
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२८८
न्यायसूत्रहत्तौ।
न वा मिथ्याबुद्धिदृष्टान्ने न ज्ञानमात्रस्यासन्मानविषयकत्व सहिष. यकत्वाभावोवा सम्भवतीत्याह । तव धार्मखरूप प्रधानं आरोग्य तथाच भ्रमै धर्मयशे प्रमात्वमारोप्यरजतत्वाद्यं च चमत्वमिति दृष्टान्तासिद्धि रिति भावः केचित्त प्रमात्वाप्रमा वयोर्विरोधानकल समावेश इत्यत आह तत्त्वेति तथा च विषयभेदान्त्र विरोध इति भावः इत्याहुः ॥ ३७ ॥
समाप्त वाह्यार्थभङ्ग निराकरण प्रकरणम् ॥ ५६ ॥ ननु शास्वाधीनं तत्वज्ञानं क्षणिकमतस्तन्नाथे मिथ्यान.नं स्यादेव नहि ताशं किञ्चिदेव ज्ञानं दृढभूमिसवासनमिथ्याज्ञानसमुन्मूलनक्षममतस्तत्त्वज्ञानविष्टद्धिप्रकरणमारभते तत्वज्ञानविट्विस्तत्त्वज्ञान वासना ततश्चात्यन्तिकोमिथ्या ज्ञान नाशः तत्र तत्त्वज्ञान विवृद्धौ हेतुमाह । समाधिः चित्तस्याभिमतविषयनिष्ठत्वं तस्य प्रकर्षाविषयान्तरान भिष्वङ्गलक्षणस्तस्था भ्यासात् पौनःपुन्यात् तत्त्वज्ञान विधिः तदेव च निदिध्यासनमामनन्ति तत्वज्ञान विद्या च मिथ्याज्ञानवासनातिरोभावस्तथा च योगसूत्र तज्वः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी प्रतिवन्धः कार्याक्षमतासम्पादन विना. शोवा ॥ ३८॥ __ ननु रागादिभिः प्रतिबन्धात् समाधिरेव नोदेतीत्या शिपति सूत्राभ्याम्। अर्थविशेषम्य तनयनितादिरागस्य पावल्याच्चिरकालानुब - न्यात्तदनुसन्धानमवजनीयमिति तदभावः स्थाच्च घनगर्जितादिज्ञानेन प्रतिबन्धः एवं चत्त ष्णाभयादिभिः प्रतिरुव स्तदुपशमाय प्रयतेत ॥३६॥ ४० ॥
परिहरति । जन्मान्तरकृतसमाधिजन्यसंखारवशात् समाधिसिद्धिरियर्थः अतएव चानेक जन्मसंसिवइत्यादि सङ्गच्छते वयन्त पूर्व कृतस्य प्रथमतः कृतस्येश्वराराधनस्य फलं धर्मविशेष स्तमम्बन्धादित्यर्थः तथा च योगसूत्र समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात सूत्रान्तरञ्च तवैव ततः प्रत्यक चेतनाधिगमोऽप्यन्त रायाभावश्च तत ईश्वरप्रणिधानात् विषयप्रातिकूल्येन चित्ता. व स्थानं प्रत्यहाभावश्चेत्यर्थः ॥ ४ ॥
योगाभ्यासस्थानमुपदिशति । तत्र स्थिरचित्तता स्यादिति भावः इदं न सूवं भाथमिति केचित् ॥४२ ॥
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४ अध्याये २ प्राज्ञिकम्।
तटस्थः शकते । एवं प्रसङ्गः अर्थविशेष प्राबल्या विषयावभासप्रसङ्गः॥४३॥ .
समाधत्ते । निष्ण वस्य शरीरादेः अवश्यम्भावित्वात् कारणत्वात् ज्ञानादिध्विति शेषः ॥ ४४॥
ननु किमेतावतेत्यत आह । तस्य शरीरादेरभावः तदारम्भकधर्माधर्मविरहादिति भावः ॥ ४५ ॥
ननु समाधिमात्रादेव निष्प्रय होऽपवर्गः स्थात् साधनान्तर वा पेक्षणीयमत बाह यहा समाधिसाधनान्याह | तदर्यमपवर्गार्थ मिति भाष्यादौ तदर्थ समाध्यर्थ मिति वा यमानाह योगसूत्रं अहिंसामन्यास्ते यब्रह्मचर्यापरियाहा यमाः नियमानाह शौचसन्तोषतपःखाध्याये श्वरप्रणिधानानि नियमाः स्वाध्यायः स्वाभिमतम मच जपः निषिड्वानाचरणतत्तदाश्रमविहिताच. रणे यमनियमा इत्यन्ये अात्मसंस्कारः आत्मनोऽपवर्गाधिगमक्षमता ननु यमनियम वेव साधने उताहो अन्यदस्तीत्यत आह योगादिति आत्मविधिः अात्मसाक्षात्कारविधायकवाक्यं आत्मा वा अरै ट्रष्टव्य प्रात्मान' चेहिजानीयादित्यादि योगादिति प्रतिपाद्यत्वं पञ्चम्यर्थः तथाच योगशास्त्रोकात्म तत्वाधिगमसाधनैश्चात्मसंस्कारः कर्तव्य इत्यर्थः तथाच योगसूत्रं थोगसूल योगाङ्गानुपानादशक्षिये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः तदर्थश्च यो. गाङ्गानां यमनियमादीनां अनुहानाचित्तस्याशु रविद्यादिरूपस्य क्षये सति ज्ञानस्य दीप्तिः प्रकर्षः स च विवेकख्यातिपर्यन्तो जायते सा च सत्त्वपुरुषान्यतासाक्षात्कारः अस्मन्मते तु देहादिभिवात्मसाक्ष त्कारः स च नेदानीमविद्याप्रतिबन्धाइहात्मनोर्मनश्चक्षुराद्ययोग्यत्वाच्च भवति चासो योगजधर्यात योगाङ्गानि तत्रोक्तानि यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमायोऽटावङ्गानि आसनं पद्मासनादि कुशासनादि च चैलाजिनकुशोत्तरमिति भगवचनात् प्राणायाममाह योगसूत्र तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः तस्मिन् आसनस्थैर्ये प्रारणवायोरेव निर्गमप्रवेशरूपक्रियाविशेषात् श्वासप्रश्वासव्य पदेशः वहिरिन्द्रियाणां स्वस्वविषयव मुख्येनावस्थान प्रत्याहारः धारणामाह योगसूत्न देशबन्धचित्तस्य धारणा देशे नाभिचक्रादौ चित्तस्य बन्धविषयान्तरवैमुख्ये नावस्थानं ध्यानमाह तत्र प्रत्ययकतानताध्यानं धारणैव धारावा
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२८०
न्यायसूत्रत्तौ।
हिनी ध्यानमित्यर्थः समाधिमाइ तदेवार्थम'निर्भासं स्वरूपम्शून्यमिव समाधिः अर्थस्य धर्मो ज्ञानस्वरूपञ्च यदि पाने न भासते तदा समाधिरित्यर्थः सूत्रान्तर वयमन्तरङ्ग पूर्वेभ्यः चरमत्त्रयं माक्षादुपकारकमित्यर्थः ॥४६
नन्वेवं किमान्वीक्षिक्ये त्यत आह । तदर्थ मित्यनुवर्तते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं शास्त्र प्रकृतं तस्य ग्रहण मध्ययनधारणे नत्राभ्यासो दृढ़तरसंस्कारः तविद्यैस्त दभियुक्त संवादः स्वानुभवदार्थाय न हि योगाङ्गज्ञानाय तत्मापेक्ष त्वेन न प्रकतशास्त्र वैफल्यं ध्ये यस्वरूपवै लक्षण्यात् ॥ ४७ ॥ ___ संवाद प्रकारं वा दर्शयितमाह। तं तडिद्य सब्रह्मचारी सहाध्यायो विशिष्टः प्रकृष्टज्ञानवान् श्रेयोऽर्थों मुमुक्षुः विशिष्टः पूर्वोक्त भिन्न इत्यर्थः इति कश्चित् विजिगीषुव्यावृत्त्यर्थ अनसूयिभिरिति ॥४८॥ .
संवादप्रकारमाह। वाशब्दो निद्ययार्थः अर्थित्वे तत्त्व व भत्मायां सत्या प्रयोजनार्थं तत्व निर्णयार्थ प्रतिपक्षहीनं प्रतिकूल पक्षहीनं यथा स्यात्तथाऽभ्यु पेयात् तथा च भाष्य' स्वपक्षमनवस्थाप्य स्वदर्शनं परिशोधयेदिति तत्व निर्णोष तया न पक्षपात इति भावः ॥ ४ ॥
समाप्तं तत्त्वज्ञान विवृद्धिप्रकरणम् ॥ ५७ ॥ __तद्विद्यः सह संवाद इत्यत्र बयोवाह्य सह संवादः कर्तव्य इति भ्रमो माभूदिति तत्त्वज्ञान परिपालन प्रकरणमारभते । तत्वाध्यवसायस्य तत्व निर्णयस्य संरक्षणं परोक्तदूषणास्कन्दनेनाप्रामाण्यशङ्काविघटन तदर्थं जल्पवितण्डे पर्व सुक्त इति शेषः ॥ ५० ॥
ताभ्यां विगृह्य कथनं ॥ क ॥ ननु ताभ्यां किङ्कार्य मि त्यत आह । अयमर्थः वयोवाद्य तदर्श. नाल्यासाहितकुज्ञानरपरैर्वा यदि खपक्ष आक्षिप्यते तदा ताभ्यां जल्पवितण्डाभ्यां सावधारणं चैतत् वयऽन्तःपातिनामाक्षेपे तु वादजल्पवित. ण्डाभिर्य येच्छङ्कथयेदिति भावः वस्तुतस्तु मुमुक्षोन तादृशैः सह संवादो वीतरागत्वान्न हि शास्त्रपरिपालनमपि तदुद्देश्यं नवा तदुपेक्ष्यैव शास्त्र गछति किन्तु शास्वमभ्यस्येतेति तत्त्वमिति ॥ क ॥
समाप्तं तत्त्वज्ञान परिपालन प्रकरणम् ॥ ५८॥ समाप्त चतुर्थाध्यायस्य कितीयमाह्निकम् ॥ २॥
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४ अध्याये २ आह्निकम्। २६१ इति महामहोपाध्याय श्रीमविद्यानिवानभट्टाचार्यात्म ज श्रीविश्वनाथ सिड्वान्न पञ्चान नभट्टाचार्यकतायां न्यायसूत्रत्तौ चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
नत्वा शङ्करचरणं शरणं दोनय दुर्गमे तरणम् । सम्प्रति निरूपयामः पञ्चममध्यायमतिगहनम् । अथ जातिनिग्रहस्था नयोरुद्दिष्ट योर्लक्षितयोबहुत्व तद्दिकल्पाज्जातिनिग्रह स्थानबहुत्वमित्य नेन सूचितं बलवच्छिष्यजिज्ञासानुसारिप्रमाशादिपरीक्षयाऽन्तरितं सम्प्रत्यवसरत: प्रपञ्चनीयं तव जातिपरीक्षामहितजातिनिग्रहस्थानविशेषलक्षणमध्यावार्थः जातिपरीक्षासहितजातिविशेषलक्षणं प्रथमाङ्गिकार्थः सप्तदश चात्र प्रकरणानि तत्रादौ सत्प्रतिपक्षदेशनाभासाप्रकरणम् अन्यानि च यथास्थानं वच्यन्ते तत्र च विशेषलक्षणा जाति विभजते ।
अत्र च साधर्म्यादीनां कार्यन्नानां इन्हे तैः समा इत्यर्थात् साधम्यसमादयश्चतुर्विशतिजातय इत्यर्थ: अव च जातेर्विशेष्यत्वात् समाशब्दमन्य ने भाध्यवासिकादौ समारब्दः अपिमसूतेषु तु समशब्दो निर्विवाद एव तत्त्र जातिशब्दस्य र लिङ्ग तया यद्यपि नान्वयस्तथापि प्रतिषेधो विशेष्य इति मायादयः वयन्तु तबिकल्लादिति सूत्वस्थ विकल्पस्यैव विशेष्य त्वं विविधः, कल्पः मकारो विकल्पः तथा चैते साधर्म्य समादयोजातिबिकल्या एवमयिमसूत्रे ष्वपि इत्यञ्च जातेर्विशेष्यत्वे साधर्म्यसमेत्यपीति ब्रमः समी व रणार्थ प्रयोगः समइति वार्ति कं यद्यप नैतावतासमीकरणं तथापि समीकरणोद्देश्य कत्वमस्त्येव अथवा साधर्म्यमेव समं यत्र स साधWसमः एकलव्याप्त राधिक्येऽपि साधय सममेवेति भावः ॥ १ ॥
साधर्म्य वैधय॑समौ लक्षयति | उपसंहारे माध्यस्योपसंहरणे वादिना कृते तद्धर्मस्य माध्यरूपधर्मस्य यो विपर्ययो व्यतिरेकस्तस्य साधर्म्य वैधाभ्यां केवलाभ्यां व्याप्य नपेक्षाभ्यां यदुपपादनं ततो हेतोः साधर्म्य वैधम्यसमावच्यते तदयमर्थः वादिना अन्वयेन व्यतिरेकेण वा साध्ये साधिते प्रतिवादिनः माधर्म्यमालमत्त हेतुना तदभावापादनं साधर्म्यसमावैध र्मयमात्र
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२६२
न्यायसूत्रवृत्तौ ।
प्रवृत्तहेतुना तदभावापादनं वैधर्म्यसमा तत्व साधर्म्यसमा यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वाङ्घटवत् ब्यतिरेकेण वा व्योमवदित्युपसंहृते नैतदेवं यद्य नित्यघटसाधर्म्यान्नित्याकाशवेधयद्दाऽनित्यः स्यानित्याकाशसाधर्म्यादमूर्त्तत्वान्नित्यः स्याद्दिशेषो वा वक्तव्यः वैधवसमा यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वाइटवत् आकाशव ेति स्थापनायाम् नित्यघट वैधर्म्यादमूर्त्तत्वान्नित्यः स्याद्विशेषो वा वक्तव्य दूति का सामयत्वमात्रं वैधर्म्यत्वमात्र वा गमकतौपयिकमित्यभिमानात् सत्प्रतिपचदेशनाभासे चेमे अनेकान्तिकदेशनाभासेति वार्त्तिके स्वनैकान्तिकपदं योगात्मप्रतिपचपरं एकान्ततः
वात् ॥ २ ॥
साध्यसाधकत्वाभा
अनयोरसदुत्तरत्वे वीजमाह । गोत्वात् गोसिद्धिव्यवहार इति सम्प्रदायः वयन्तु गोत्वाह्नवेतरासमवेतत्वे सति गोसमवेतात्मास्नादितः एतेन व्याप्तिपचधर्मत्वे दर्शिते गोर्गोत्वस्य तादात्म्येन गोरेव वा सिजिया तथैव कृतकत्वादपि व्याप्तिपचधतासहितादनित्यत्वसिद्धिर्नतु व्याप्तिपचधवारहितात् साधर्म्यमावात् तथा सति यदूषकसाधयनेयत्वादितस्ववचनमप्यदूषकं स्यादित्ययं विशेषः ॥ ३ ॥
इति सत्प्रतिपक्षदेशनाभासामकरणम् ॥ ५८ ॥
|
वर्ण्यमादिः
•
क्रमप्राप्त जातिषटकं निरूपयति । उत्कर्षेण सम उत्कर्षसम एवमनकर्षसमोऽपि वर्ण्य साध्येति भावप्रधानो निर्देशः वर्ण्यत्यादिना समो विद्यमानधर्म्मारोप उत्कर्षः विद्यमानमपिचयोऽपकर्षः वर्ण्यत्व ं वर्णनीयत्वं तच सन्दिग्धसाध्यकत्वादि तदभावोऽवर्ण्यत्वं विवल्पोद्वैविध्य साध्यत्वं पञ्चावयवसाधनीयत्व' साध्यष्टान्तयोधर्म विकल्पादिति पञ्चानामुत्थानवोजं उभयमाध्यत्वादिति षष्ठस्य तदयमर्थः साध्यतेऽले ति साध्यं पक्षः तथा च साध्यदृष्टान्तयोरित्यस्य पचदृष्टानयोरन्यतरस्मिनित्यर्थः धर्मवित्रल्पो धर्मस्य वैचित्य तञ्च कचित्सत्त्वं कचिदमत्त्व' प्रकृते माध्यसाधनान्यतररूपस्य धर्मस्य विकल्पात वाद्योऽविद्यमानधर्मारोपः स उत्कर्षसमः व्याप्तिमपुरस्कृत्य पचदृष्टान्तान्यतरस्मिन् साध्यसाधनान्यतरेणाविद्यमानधर्मप्रसञ्जनं उत्कर्षसम इति फलितार्थ: यथाशब्द ेऽनित्यः aतकत्वादिति स्थापनायां नित्यत्वं कृतकत्व घटे रूपसहचरितमकः
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५ अध्याये १ पाङ्गिकम्। २८३ शब्दोऽपि रूपवान् स्यात् तथा च विवक्षितविपरीतसाधनाविशेषविरुजो हे ततद्देश नाभासाचेयम् एवं श्रावणशब्दसाधर्म्यातहतकत्वाइटोऽपि श्रावणः सादविशेषात् वस्तुतस्तु घटे श्रावणत्वापादनेऽर्थान्नरमत उकलक्षणे दृष्टान्न पदं माध्यपदच न देयम् अपकर्षसमायान्तु धर्म विकल्पः धर्मस्य सहचरितधर्मस्य विकल्पोऽसत्व ततः अपकर्षः साध्य साधन न्य तरयाभावमसञ्जनं तथा च पक्षदृष्टान्नान्यतरमिन् व्याप्तिमपुर खत्व सहचरितधर्माभावेन हेतमाध्यान्यतराभाव प्रसञ्जनमपकर्षममा यथाशब्दोऽनित्यः कृतकवादित्यत्र यद्यनित्य सहचरितघटधर्मात् कृतकत्वादनित्यः शब्दस्तदा कतकत्वानित्यत्वसहचरितघटधर्मरूपवत्त्वव्याहत्त्या शब्दे कतकत्वस्थानित्यत्वस्य च व्यात्तिः स्यात् वाद्येऽसिविदेशमा हितीये बाधदेशना एवं शब्दे कतकत्वसहचरिनश्रावणत्वस्य संयोगादावनित्यत्वकतकत्वसहचरितगुणत्वस्य च व्या वृत्त्या घोऽनित्यत्वं शतकत्वञ्चव्यावर्ते तेति दृष्टान्ने साध्यसाधनवैकल्पदेशनाभासाऽपोयं यत्त वार्तिके शब्दोनीरूप इति घटोऽपि नीरूमः स्थादित्यपकर्ष इति तदरुत् घटे नीरूपत्वापादनस्यार्थान्तरत्वात् याचार्यखरसोऽप्येवं यस वधर्म्य समाया अवैवान्तर्भावः स्यादिति तन्न उपधेयसङ्करेऽप्युणधेरसकरात् वयं समायान्तु साध्यः सियभाववान् मन्दिग्धमाध्य कादिर्वा तस्य धर्मः सन्दिग्धसाध्यकादित्तितस्तस्य विव ल्यात. वात् दृष्टान्ने वर्ण्यत्वस्य सन्दिग्धसाध्यव. त्वस्थापादनं वर्ण्यसमा तदयमर्थ: पचत्तिहेहि गमकः पक्षश्च सन्दिग्धसाध्यकस्तथा च सन्दिग्धसाध्यकत्तिई तस्त्वया दृष्टान्नेऽपि खो कार्यः तथा च दृष्टान्नसापि सन्दिग्धसायकत्वासप क्षत्तित्वानिश्यादसाधारणो हेतुस्तद्देशनाभासा चेयं हेतुः सन्दिग्धसाध्यकत्तिर्यदि न दृष्टान्त तदा गमक हेत्वभावात् साधनविल्योदृष्टान्तः स्यादिति भावः अवर्थसमाय न्त दृष्टान्ने सिद्धसाध्य के यो धर्मों हेतस्तस्य रत्व त् पक्षे शब्दादावसन्दिग्धसाध्य कत्वापादनमवर्यसमा दृष्टान्ने हेतोर्यादृशत्वं तादृशो हेवरेव गमक इत्यभिमानेन एवमायादनं दृष्टाने यो हेतुः सिद्धसाध्यकत्तिः स चेन्न पक्षे तदागमाहेत्वभावात् स्वरूपासिद्धिः स्यादतसादृशो हेतरवश्यं पक्षत्वाभिमते ख काथैः तथा च मन्दिग्ध साध्य क त्वलक्षण पक्ष त्वाभावादात्रयासिद्धिः असिद्धिदेशना
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न्यायसूत्रहत्तौ।
भासा चेयं विकल्पसमायान्त पने दृष्टान्ने च योधर्मस्तस्य विकलोविरुवः कल्पो व्यभिचारित्वम् उपलक्षणं चैतत् अन्यत्तिधर्मस्यापि बोध्य व्यभि. चारोऽपि हे तोर्धमान्तरं प्रति धर्मान्तरस्य साध्य प्रति धर्मान्तरस्य धर्मानरं प्रति वा तथा च कस्यचिद्धर्मस्य कचिद्य भिचारदर्थ नेन धर्मत्वाविशेषात् प्रवत हेतोः प्रातसाध्य प्रति व्य भिचारापादनं विकल्पसमा यथा शब्दोऽनित्यः कृतकवादित्यत्र कतकत्वस्य गुरुत्वव्यभिचारदर्शनाइ रुत्वस्थानित्य त्यव्यभिचारदर्शनादनित्यत्वस्य भूतत्व व्यभिचारदर्शनाड्वर्मत्वाविशेधात् कृतकत्वमम्यनित्यत्व व्यभिचरेदित्यनै कान्निकदेशनाभासा चेयं पक्षदृष्टान्नादेः प्रकृतसाध्यतुल्यतापादनं साध्यसमा तलायमाशयः एतत्प्रयोमसाध्यदैवान मितिविषयत्व तथा च पक्षादेरन मितिविषयत्वात् साध्यवदेतत्प्रयोगसाध्यत्वम् अत: साध्यसमा तथा हि पक्षादेः पूर्व सिद्ध त्वे एतत् प्रयोगसाध्यत्वाभावानानुमितिविषयत्व पूर्वमसिङ्गत्वे पक्षादेरज्ञानादाश्रया सियादयस्त देशनाभासा चेय मूत्वार्थस्तु उभयसाध्यत्वात् उभयं पक्ष. दृष्टान्नौ त हो हे त्वादिः तत्साध्यत्व तदधीना नुमितिविषय त्वं साध्य स्ये व पक्षादेरपीति तुल्यतापादन मिति लिङ्गोपहितभानमते लिङ्गस्याभ्यनु मितिविषयत्वात् साध्यसमत्वं हेतोच साध्यत्वे हेलमान्दष्टान्तोऽपि साध्य इन्याशयः ॥ ४ ॥
एतासामस दुत्तरत्वे वीजमाह | किञ्चित् माधात् साधर्म्यविशेषात् व्याप्तिसहितात् उपसंहारसिद्धेः साध्यसिई: वैधादेतविपरीता व्याप्तिमिर मे क्षात् साधर्म्यमातीत् भवता कृतः पतिधे धो न सम्भवत त्यर्थः अन्यथा प्रमेयत्व रूपःसाधक साधर्म्यात् तद्दूषणमयसम्यक् स्यादिति भावः तथा चायं क्रमः अनित्यत्वव्याप्यात् कृतकत्वात शन्देऽनित्य त्वमुपसंहरामो नत कृतकत्वं रूपस्यापि व्याश्य येन ततो रूपमा थापादनीयं शब्दे एवं अनिव्यत्वं न रूपव्य प्य येन रूपाभावाद नित्यत्व भावः शब्दे स्थात् एवं वर्ण्यसऽपि किञ्चितसाधात् व्याप्यता व छ दकापछि बातोः साध्य सिद्धिः तादृश हे तुमत्त्वञ्च दृष्टान्नताप्रयोजकं न तु पक्षे याव हिशेषणावच्छिद्रो हेदस्ताबदवच्छिन्न के तमत्त्व अन्यथा त्वयाऽपि दूषणोयो दृष्टाती कर्तव्यः सोऽपि न स्यात् एवमवराट समेऽपि व्याप्यतावच्छेदकावच्छूि •
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५ अध्याये १ आह्निकम् ।
अस्य दृष्टान्तस्य पचे सात्साध्यसिद्धिर्न त हटान्नदृत्तियावद्धविच्छि अस्य पच्ते सत्वम् एवं निकल्पसमेऽपि प्रकृतसाध्यव्याप्यात् प्रजतहेतोः 'साध्यसिद्विस्तद्द धर्म्यात् यत् किङ्किद्यभिचारात् कृतः प्रतिषेधो न सम्भवति नहि यत्किचिह्यभिचारादेव महतहेतोः प्रकृतसाध्यासाधकत्वमतिप्रसङ्गात् एवं साध्यसमेऽपि व्याध्याद्ध तो सिद्ध पचे साध्यसिद्धिर्न तु पचदृष्टान्तादयोऽप्यनेन साध्यन्ते तथा सति कचिदपि साध्यसिद्धिर्न स्यात् त्वदीयदूषणमपि विलीयेत ॥ ५ ॥
२८५
वयव साध्यसमा समाध्यन्तरमप्याह । दृष्टान्तोपपतिष्टान्नतोपपत्तिः साध्यातिदेशात् दृष्टान्ते हि साध्यमतिदिश्यने तावतैव दृष्टातत्वमुपपद्यते नत्वशेषो धर्मः पचदृष्टान्तयोरभेदापत्त ेः पचादेरपि माध्यसमत्व पेतेन प्रत्युक्त ं दृष्टोऽन्तो दृष्टान्तः पचः तमाह किमा नित्यतः पोकीत नात्तथा चाभ्यस्यातिदेशात् साधनात् पक्ष इत्युच्यते न ल चोपायतेऽतिप्रसङ्गादिति भावः ॥ ६ ॥
3
समाप्त (जातिषट्कप्रकरणम् || ६ ||
क्रमात पापातसमौ लचयति । हेतोरिति साधकत्वमिति शेष प्राप्तिपचे दोषमाह प्रायाऽविशिष्टत्वादिति द्वयोरपि प्राप्तत्वावि शेषात् किङ्कत्य साधकं पाप्राक्षे दोषमाह प्रति प्राप्तस्य साधकत्वेऽतिप्रसङ्गात् साधकत्वञ्चाल कारकज्ञापक साधारणम् एवञ्च कारकज्ञापकलचं साधनं कार्यज्ञाप्यलचणेन साध्येन सम्बधं सत्साधकं चेत्तदा सत्त्व विशेषःन्न कार्य्यकारणभावः तत्सम्बभ्वस्य प्रागेव ज्ञातत्वान ज्ञाप्यज्ञापकभावः प्राप्तयोर्न जन्यजनकभावः प्राप्तत्वेन लक्णोदकयोरिवाभेदादित्याशय इत्यन्ये तथा च प्राप्याऽविशेषादनिष्टापादनेन प्रत्यवस्थानं प्राप्तिसमा यदि चात्राप्त' लिङ्गं साध्यबुद्धिं जनयति साध्यभावबुद्धिमेत्र किन्त ेन न जनयेत् श्रप्राप्तत्वाविशेषात् तथा चाप्राप्तया बाधकत्वादनिष्टापादनममाप्तिसमा प्रतिकूलतर्कदेशनाभासे चे मे ॥ ७ ॥
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अनयोरसदुत्तरत्वे बीजमाह । दण्डादितो घटादिनिष्पत्ते दर्शनात् सर्व लोकप्रत्यचसिद्धत्वादभिचारात् श्येनादितः शत्र पोड़ने च व्यभिचारान्न त्वदुक्तः प्रतिषेधः सम्भवति न हि कारणं दण्डादि प्रागेव घटा
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२६६
न्यायसूत्वत्तौ।
दिना सम्बदमपि तु मृदादिना श्यनादिरम्युद्देश्य तया पीडां जनयति अन्यथा लोकवेदसिजकार्यकारणभावोच्छ दे त्वतो हेतरप्यसाधक खादिति ॥ ८॥ प्राप्ताप्राप्तिसमजातिहयप्रकरणम् ॥ ६॥
क्रमप्राप्त प्रसङ्गप्रतिदृष्टान्नसमे जाती लक्षयति । दृष्टान्तस्य कारणं प्रमाणं तदनपदेशोऽनभिधानम् अभिधानं चानतिप्रयोजनकं तथा च दृष्टान्तस्य साध्यवत्व प्रमाणाभावात् प्रत्यवस्थानमर्थः यद्यपीदं सदुत्तरमेव तथापि दृष्टान्ने प्रमाणं वाच्य तवापि प्रमाणान्तरमित्य न वस्ए या प्रत्यवस्थाने तात्पर्य तदुतमाचार्यरन वस्थाभासप्रसङ्गः प्रसङ्गमम इति एतन्मते हेतोहे त्वन्त रमित्य नवस्थाऽपि प्रसङ्गमम एवं पूर्वमते ल हेत्वनवस्थ.दिकं वच्यमाणाक्षतिगणेष्वन्नभूतमिति विशेषः अनवस्थादेशनाभासा चेयं प्रतिदृष्टान्तसमः प्रत्ये तव्यः पति दृष्टान्त न मत्यवस्थान त प्रति दृष्टान्नसमः एतच्च सावधारणं तेन प्रति दृष्टान्नमात्र बलेन प्रत्यवस्थानामर्थः तेन साधर्म्यसमाव्य दासः यदि घटान्त बलेनानित्यः शब्दः तदाकाशदृष्टान्तबलेनानित्यः शब्दः तदाकागदृष्टान्तबलेन नित्य एव स्यात् नित्यः किं न स्यादिति वाधः प्रतिरोधो वाप.दनीयः हेतरनङ्ग दृष्ट:नमावबल देव माध्यसिद्धिरित्यभिमा नः बधप्रतिरोधान्य तरदेश नाभासा चेयम् ॥ ६॥ ____ प्रसङ्गसमे प्रत्यत्तरमाह | दृष्टान्नो हि निदर्शन स्थान त्वे न साध्यनिश्चयार्थमयेच्यते न तु दृष्टान्नादृष्टान्नाद्यनस्थित परम्परा लोकसिवा युनिसिद्धा वा अन्यथा घटादि प्रत्यक्षाय प्रदीप व प्रदीप प्रत्य यार्थ मनवस्थित प्रदीपपरम्परा प्राज्ये त त्वदीयसाधनमपि व्याहन्येत ॥ १० ॥
प्रतिदृष्टान्तसमे प्रत्युत्तरमाह । अत्रायमुत्तरक्रमः प्रतिदृष्टान्नस्व या किमर्थमुपादीयते मदीयहे तोर्वाधार्थ सत्प्रतिपक्षितत्वार्थ वा नाद्यः यतः प्रतिदृष्टान्नस्य हेतुत्वे खार्थसाधकत्वे मद यो दृष्टान्नो नाहेतुः मासाधकस्तथा च तुल्यबलत्वान्न बाधः न वा द्वितीयोऽपि यतः प्रति.. दृशन्नस्य स्वार्थसाधकत्व उच्यमाने नाहेतईष्टान्नः मर्द यो दृष्टान्तस्तु सहेनुकत्वादधिकबलः वस्तुतो हेतु विना दृष्टान्तमात्रेण न सत्प्रतिपक्षसम्भा
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५ अध्याय १ प्राज्ञिकम् ।
२४७
बना तदभावव्याप्यवत्ताज्ञामाभावात हेतू पादाने व सदुत्तरत्वमेवेति भावः इति ॥ ११ ॥ इनि प्रसङ्गसमप्रतिष्टान्तसमप्रकरणम् ॥६॥
क्रनम तमनुत्पत्तिसमं लक्षयति । प्रागुत्यत्तेरिति साधनाङ्गखेति शेषः कारणाभावात् हेत्वभावात् तथा च साधनाङ्गपक्षहेतदृष्टान्त ानामुत्पत्त: प्राक हेत्वभाव इत्यनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थानमनुत्पत्तिसमः यथा घटो रूपवान् गन्धात् पटवदित्य को घटोत्पत्तेगन्धोत्पत्तेच पूर्व हेत्वभावादसिद्धिः पटे च गन्धोत्पत्तेः पूर्व हे त्वभावेन दृष्टान्नासिद्धिः एवं आद्यक्षणे रूपाभावाहा धञ्च अनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थानस्य तत्रापि रचात उत्पत्तः प्रचं हेत्वाद्यभावेन प्रत्यवस्था नस्यैव लक्षणत्वात् जानित्वे सतीति च विशेषणीयं तेनोत्यत्तिकालावच्छिन्नो घटो गन्धयानित्यत्र बाधेन प्रत्यवस्थाने नातिव्याप्ति : असियादिदेशनाभासा चेयम् ॥ १५ ॥
अवोत्तरमाह | उत्पन्नस्य तथा भावात् घटाद्यात्मकस्वात् तत्र कारबस्य हेतोरुपपत्तेः सत्त्वात् कथं कारण प्रतिषेधः अयमाशयः पक्षे हेत्वभावोऽसिद्धि : नत्वनुत्पन्ने हेत्वभावः सम्भवति अधिकरणाभावात् न हि हेत्वभावमात्रासिद्धिः त्वदीयहे तोरपि कचिदभावसत्त्वादतेन दृष्टान्नासिनिर्व्याख्याता यदा कदाचिझे तर त्यो नैव दृष्टान्त त्वोपपत्ते: एवं हेत्वादीनां यदा कदाचित्यो सत्य देव हेत्वादिभावो म त सार्वत्रिकी तदपेक्षेति ॥१३
इत्यनुत्पत्तिसमप्रकरणम् ॥ ६३ ॥ क्रमप्राप्त मंशयसमं लनयति । नित्यानित्य साधादिति मंशयकारणोपलक्षणं तेम समानधर्मदर्शनादियत्किञ्चित्मयकारण, बलात् संशयेन प्रत्य व स्थानं मंशयसमा अधिकन्नदाहरणपरं तथा हि शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाइटवदित्य के सामान्ये गोत्वादी दृष्टान्ले घट ऐन्द्रियकत्वं तुल्यं रथा कार्य त्वानिर्णायकादनित्यत्व निर्णीयते तथः ऐन्द्रिय कत्वात संशय. कारणादनित्यत्वं मन्दिह्यतां एवं शब्द त्वाद्यसाधर्मदर्शनादपि संशयो बोध्यः तथा च हेत ज्ञाऽप्रामाण्य शङ्काधान द्वारा साध्यसंशयात् सत्पतिपच्च देश नाभासेयम् ॥ १४ ॥
___ अवोत्तरम् । साधर्म्यात्माधर्म्य दर्शनात् संशय ग्रापाद्य मानेऽपि न संशयो वैधाधर्म्यदर्शनात् यदि च कार्यत्वरूपविशेषदीपि संशयस्त
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२६८
न्यायसूत्रत्तौ।
दाऽत्यन्नसंशय प्रसङ्गः संशयानुच्छ दप्रसङ्गः न च तथाऽभ्य पगन्तु शक्यमि. त्याह नित्यत्वे ति सामान्यस्य समानधर्मदर्शनस्य नित्यत्वानभ्य पगमात् नित्यसंशयजनकत्वानभ्यु पगमात्तथा सति त्वदीयहेतरपि न परपक्ष प्रतिषेधकः स्थादिति भावः सामान्यस्य गोत्वादेनित्यत्वानभ्यु पगमात् नित्यत्वानभ्य पगमप्रसङ्गात् तत्रापि साधारणधर्म प्रमेयत्वादिना संशय एव स्वादिति केचित् ॥ १५ ॥ इति संशयसमप्रकरणम् ॥ ६५ ॥
क्रमप्राप्त प्रकरणसमं लक्षति | उभयसाधात् अन्व. सहचारा. यतिरेक सहचार हा प्रक्रिया प्रकर्षेण क्रियामाधनं विपरोतसाधन मिति फलितायः तत् सवेस्तस्य पूर्व मेव सिद्धेः तथाचाधिक व नत्वेनारोपितप्रमाणान्तरेण बाधेन प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमः यथा शब्दोऽनित्य. सतकवादित्यक: नैतदेवं श्रावण त्वेन नित्यत्वसाधकेन बाधात् वाघदेशनाभासा चेयम् ॥१६॥
अत्रोत्तरमाह । प्रतिपक्षादिपरोतसाध्यसाधकत्वेनाभिमताच्छावण - वादितः प्रकरणसिद्धिद्वारा मदीयसाध्यस्य यः प्रतिषेधः त्वया क्रियते त. स्थानु प पत्तिः कुतः प्रनिपञोपपत्तेः त्वत्प चापेच्या प्रतिपक्षस्य मदीय पक्षस्योपपत्त: साधनात् अयमाश यः श्रावण त्वेन पूर्व नित्यत्वस्य साधनाद्यो बाध उच्यते स नोपपद्यते पूर्व साधितस्य बलवत्त्वा घात कदाचित्कतकत्वेनानित्यत्व स्थापि पूर्व साधनादिति त्वत्पक्षप्रतिषेधोऽपि स्यात् ॥१७॥
इति प्रकरणसमप्रकरणम् ॥ ६५ ॥ क्रमप्राप्तम हेतुसम लन्नयति । लेकाल्यं कार्य कालतत्य वापर काला तेन हे तोरसिद्धः हेतुत्वासिद्धेः ययमर्थः दण्ड दिकं घटादेन पूर्ववर्ति - तया कारणं तदानीं घटादेरभावात् कस्य कारणं व त् अत एव न घटाद्युत्तरकालवर्तितयाऽपि नवा समानकाल वर्तितया तुल्य कालवर्ति नोः स - व्येतरविषाणयोरिवाविनिगमनापत्त: तथा च कालसम्बन्धखण्ड नेनाहे. तुतया प्रत्यवस्थानम हेतुसमः कारणमात्रखण्डनेन जप्तिहेतोरपि खण्डनान्न तदसंग्रहः प्रतिकूलतर्क देशनाभासा चेयम् ॥ १८॥
अवोत्तरमाह। काल्यासिद्धिस्वैकाल्येन याऽसिद्धिका सा न कुतः हेतुतः सध्यसि । त्वयाऽध्यभ्यु पगमात् ॥१६॥
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५ अध्याये १ किम् |
पूर्ववर्त्तितामात्रेणैव हेतुतासम्भवात् अन्यथा त्वदीयहेतोरपि साध्यं न सिध्येदित्याह । हेतुफलभावखण्डने प्रतिषेधस्याप्यनुपपत्त ेः प्रतिषेद्धव्यस्य परकीय हेतोर्न प्रतिषेध इत्यर्थः ॥ २० ॥
२८८
दूति हेतुसमप्रकरणम् ॥ ६६ ॥
क्रमप्राप्तमर्थापत्तिसमं लचयति । कार्थापत्तिरर्थापत्त्याभासः तथा चार्थापत्त्याभासेन प्रतिपच्तसाधनाय प्रत्यवस्थानमर्थापत्तिसमः श्रयमाशयः - र्थापत्तिर्हि उक्त ेनानुक्तमाचिपति यथा शब्दोऽनित्य इत्युक्तेऽर्थादापद्यतेऽन्यत् नित्य ं तथा च दृष्टान्तासिद्धिः विरोधश्च कृतकत्वादनित्य इत्युक्त ेऽर्थादापन्नम् अन्यस्माद्धेतोर्बाधः सत्प्रतिपचो वा अनुमानादनित्य इत्युक्त प्रत्यचान्नित्य इति च बाधः विशेषविधेः शेष निषेधफलकत्वमित्यभिमानः सर्वदोषदेशनाभासा चेयम् ॥ २१ ॥
1
त्रोत्तरम् । किमुक्तेन मुक्त यत्किञ्चि देवार्थी दापद्यते उक्तोपपादकं वा वाद्ये त्वत्पचहानिरव्यापाद्यतां त्वयानुक्तत्वात् अन्त्ये अस्या अर्थापत्तेरनैकान्तिकत्वम् एकान्तिकत्वम् एकपक्षसाधकत्वं बलं तन्नास्ति नहि अनित्य इत्यस्योपपादकं नित्यत्वमिति न हि विशेष विधिमात्र शेषनिषेधफलकमपि त्व सति तात्पर्य्ये कचित् न हि नीलोघट इत्युक्त समन्यदनीलमिति कचित्प्रतिपद्यते ॥२२॥
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·
इति अर्थापत्तिसमप्रकरणम् ॥ ६७ ॥
व्यविशेषसमं लच्तयति । एकस्य धर्मस्य कृतकत्वादेः शब्दे घटे चोषपत्तेः सत्त्वात् यदि शब्दद्घटयोरनित्यत्वेनाविशेषः उच्यते तदा सर्वेषामविशेषप्रसङ्गः कुतः सद्भावोपपत्तेः सतः सन्नात्वस्य ये भावाधर्माः सत्त्वप्रमेयत्वादयस्तेषामुपपत्तेः सत्त्वात् तथा च सर्वेषामभेदे पञ्चाद्यविभागः सर्व्वेपामेकजातीयत्वेऽवान्तरजात्युच्छ ेदः सर्वेषामनित्यत्वे जात्यादि बिलय इत्यादि तथा च सन्मावत्तिधर्मेणाविशे षापादनमविशेषस मेति फलि - तम् अत्र चाविशेषसम इति लच्यनिर्देशः सद्भावोपपत्तेः सब्बविशेष प्रसङ्गादिति लचणं शेषं व्यत्पादकं प्रतिकूलतर्कदेशनाभासा चेयम् ॥ २२॥
बत्त्रोत्तरमाह । तद्धस्तस्य हेतोर्धम्मौव्यात्यादिस्तस्य कचित् क
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३००
न्यायसूवरत्तौ।
तकत्वादौ उपपत्तेः सत्वात् कचित्र व दो अनुपपत्तेः अभावात् त्वदनस्य प्रतिषेधस्याभावोऽसम्भव इत्यर्थः ॥ २४ ॥
इति अविशेषसमप्रकरणम् ॥ ६॥ उपपत्तिसमं लक्षयति | उभयं पक्ष प्रतिपक्षी तयोः कारणस्य प्रमाणस्य उपपत्तेः सत्त्व त तथा च व्याप्तिमपुरखा त्य यत्किञ्चिद्धर्मेण परपक्षदृष्टान्ने न स्वपक्षसाधनेन प्रत्यवस्थानम् उपपत्तिसमः यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्यु के यथा त्वत्पक्षेऽनित्यत्वे प्रमाणमस्ति तथा मत्यक्षोऽपि सप्रमाणकः त्वत्मज्ञमत्मचान्यतरत्वात् त्वत्पक्षवत् तथा च बाधः प्रतिरोधो वा तहेशनाभासा चेयम् ॥ १५ ॥
अत्बोत्तरमाह। अयं त्वटुक्त प्रतिषेधो न सम्भवति कुतः मत्पने उपपत्तिकारणस्य मत्म नसाधक प्रमाणस्य त्वयाऽभ्यनुज्ञानात् त्वयाहि मत्पक्षस्य दृष्टान्तीकरणेन सप्रमाणकत्वमनुज तमतः कथं तत्प्रतिषेधः शक्यते काम अनुज्ञातस्थापि प्रतिषेधे व पक्ष एव किं न प्रतिषिध्यते ॥ २६ ॥
इति उपपत्तिसमप्रकरणम् ॥ ६ ॥ उपलब्धि समं लक्षयति | वादिना निर्दिष्टस्य कारणस्य साधनस्थाभावेऽपि साध्यस्योपलम्मात् प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमइत्यर्थः तथाहि पर्व तो वनिमान् धमादित्यादिकं वहावधारणार्थ मुच्यते न च तत्सम्भवति धर्म विना आलोकादितोऽपि वङ्गिसिद्धेः तथा च न तस्य माधकत्वमिति प्रतिकूलतर्कः भ वा धूमाइङ्गिमानेवेत्य वधारणं द्र व्यत्वादेरपि धमेन साधनात् न वा पर्वत एव वनिमानेवेत्यादिकम् छायधारयितुं शक्यते महानसादेरपि वनिम वादन्यथादृष्टान्नासिद्धिः स्यात् एवं वनिमून्यपर्वतस्यापि सत्या. हाध इत्य दि तद्देशनाभासा चेयम् ॥ २७ ॥ __ अबोत्तरमाह। कारणानरात् माधनान्तरादालोकादितोऽपि तस्य धर्मस्य साध्यस्योपलब्धे स्वतः प्रतिषेधो न सम्भवति अयमाशयः नहिवयमवधारणार्थं वह्निमान् धमादित्यादिकं प्रयुञ्जमहे अपितु सन्दिग्धस्य बङ्गे: सिद्ध्यर्थं अन्यथा त्वदुक्रमसाधकतासाधनमपि न स्यादसाधकतासाधकान्तरस्यापि रुत्व त् ॥ २८॥ इति उपलब्धिप्रकरणम् ॥ ७० ॥
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५ अध्याये १ निकम् ।
३०१
अनुपलब्धिसमं लक्षयति । यद्यपि चेयं द्वितीयाध्याये दर्शिता दूपिता च तथाप्यनुपलब्धिसमजातिरेवमिति तत्वानुने रत्व क्रमप्राप्तऽभिधीयते तत्रायं क्रमः नैयायिकस्तावच्छब्दानित्यत्वमेव साध्यते यदि शब्दो नित्यः स्यादुचारणात् प्राक्कतोनोपलभ्यते न हि घटाद्यावरण कुद्यादिवच्छब्दस्थावरणमस्ति तदनुपलब्धेरिति तवैवं जातिवादी प्रत्यवतिछते यद्यावरणानुपलब्धेरावरण भावः सिध्यति तदा बावरणानुपलब्धेरप्यनु पलम्भादावरणानुपलब्धे रम्यभावः सिध्धेत तधाचावरणानुपलचिप्रमाणक आवरणाभावो न स्यादपित्वावरणोपपत्तिरेव स्थादिति शब्दनित्यत्वे नोक्न बोधकं यक नन्वनुपलब्धेरनुपलब्ध्यन्न रानमेक्षणात् कथमेवमिति चेत इत्य अनुपलब्धेरनुपलब्धवन्तरानपेक्षणे खबमेव खस्सिबनुपलब्धिरूपेति वाच्य तथा च तयैवानुपलब्धधानुपलब्धत्वसम्भवात्तदभा-- सिद्धेः स्वात्मन्यनुपलब्धिरूपत्वाभावेऽनुपलब्धित्वमेव न स्यात् अनुपलभेरनुपलब्धान्तरापेक्षणेऽनवस्था स्पष्टै व इत्यञ्चैवंरूपेण प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसम इत्यर्थः प्रतिकूलतकदेशनाभासा चेयम् ॥ ३९ ॥
अत्रोत्तरमाह। अनुपश्चिः आत्मन्यनुपलचिरिति कोऽर्थः स्वयमनुपलब्धिरूपेति चेद्भवत्येव खविषयिण्यं नुपलब्धिरिति चेनेदं प्रसन अनुपलभेरनुपलम्मात्मकत्वात् उपलम्भाभावात्मकत्वात् अभावस्य च निर्विघयकत्वात् खात्मन्यनुपलब्धि त्वाभावेऽनुपलब्धि त्वमेव कथमस्या इति चेत् कतमोविरोधः नहि घटः स्वविषयो न भवतीति नायं घटः यावरणाभावः कथमनुपलब्धिविषय इति चेत् क एबमाइ किन्त्वनुपलब्धिसहवतेन्द्रियग्राह्य त्वादनुपलब्धिग्राह्य इत्युपचयंते अतस्तदमुपलधेरनुपलम्भादित्यादिकमहेतः अन्यथा त्वत्साधनमपि दोषानुपलब्धेरनुपलम्भात् सदोष मेव स्यादिति ॥ ३० ॥
नन्व नुपलब्धेः खस्मिन्ननुपलब्धित्वाभावेऽनुपलब्धिरपि केन सिध्ये द: तन्याह । अध्यात्म आत्मन्यधि ज्ञानबिकल्पानां ज्ञानविशेषाणां भावाभाव. योर्म मसा सम्बेदनात् घटं साक्षात्करोमि वनिमनु मिनोमि नानुमिनोमीत्येवं ज्ञानविशेषतदभावानां मनसैव सुग्रहत्वादिति भावः ॥ ३१ ॥
इति अनुपलब्धिसम प्रकरणम् ॥ ७१ ॥
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न्यायसूत्रहत्तौ।
___अनित्यममं लक्षयति । यदि दृष्टान्त घटसाधर्म्यात् कतकत्वात्तेन मह तुल्यधर्मातोपपद्यत इत्यत: शब्देऽनित्यत्वं माध्यते तदा सर्वस्य बानित्यत्वं स्यात् सत्वादिरू पसाधर्म्यसम्भवात् नचेदमर्थान्तरयस्तमिति वाच्यं सर्वस्यानित्यत्वे व्य तिरेकाग्रहादनुमानदूषणे तात्पर्य्यात् परस्यान्वयव्यतिरेकिणएवानुमानत्वादिल्याशयः तथा च व्यप्तिमपुरस्कृत्य यत्किञ्चिदृष्टान्नसाधर्म्य ण सर्वस्य साध्यवत्त्वापादनमनित्यसमा साध्यपदादविशेषसमाऽतोव्यवच्छेदस्तत्र सर्बाविशेष एवापाद्यते नतु सर्वस्य साध्यवत्त्वं यत्त अनित्यत्वेन समानित्यसबेति भाव प्रधानो निर्देशस्तथा च अन्वर्थ लब्धमेव लक्षसमिति तन्न वञ्जिमान् धमादित्यादौ महानसमाधर्मात् सत्त्वात्मवस्य वङ्गिमत्त्व स्थादित्यस्य जात्यन्तरत्वायत्तेः श्राचUस्तु साधम्यं वैधर्म्यस्थाप्यु पलक्षकं यथाकाशवैधात् कृतकत्वा छब्दोऽनित्यस्तथाकाशवैधादाकाशभिन्नत्वादितः सर्व मेवा नित्य स्थादिस्थञ्च लक्षणे यत्किञ्चिद्धर्मणेत्येव वाच्यमित्याहुः अत्र च वैधय॑स्य विपक्षावृत्तित्वान्न सर्वस्य माध्य वक्वा. पादनं किन्त्वात्मादीनामप्यनित्यत्वस्यादिति तत्र चार्थान्तरमित्यवधेयं प्र. तिकूलतर्क देशनाभामा चेयम् ॥ ३२ ॥ ____अत्रोत्तरमाह । यदि यत्किञ्चित्माधर्म्यात्सर्वस्य साध्यवत्वमापादयतस्तव साधर्म्य स्थासाधकत्वमभिमतं तदा त्वतकृतप्रतिषेधस्याप्यसिद्धिः तस्थापि प्रतिषेध्यसाधर्मेद्रण प्रस्त्तत्वात् त्वया ह्य वं माध्यते कतकत्व न साधकं दृष्टान्तसाधर्म्यरूपत्वात्सत्त्वादिवत् अत्र च त्वदीयहेतुस्त्वत्प्रतिषे ध्येन मदीयहेतुना कृतकत्वेन सत्वेन च सह साधर्म्य रूपस्तथाचायमपि न साधकः स्यात् ॥ ३३ ॥
यदि च साधर्म्य मात्र न साधकमपि तु व्याप्तिसहितमित्यभिमतं तदा कृतकत्वे तदस्ति नत सत्त्वति विशेष इत्याह | साध्यसाधनभावेन व्याप्यव्यापकभावेन दृष्टान्ते प्रज्ञातस्य. प्रमितस्य तस्य हेतुत्वात्सायकत्वात् तस्य हेतृत्वस्य उभयथा अन्वयेन व्य तिरेकेण च भावात् मदीयहे सौ सत्वात् सत्त्वादिना विशेष इति यदुक्त तन्न भवति ॥ ३४ ॥
इत्यनित्यसमप्रकरणम् ॥ ७ ॥ नित्यसमं लक्ष यति । अनित्यस्य भानः अनित्यत्वं तस्य नित्य सर्व
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५ अध्याये १ आङ्गिकम् ।
०३
कालं खीकारे अनित्ये शब्दे नित्यत्व स्थादित्यापादनं नित्यसमा अयमाशयः अनित्यस्य नित्यमस्वीकारेऽनित्यत्वाभावदशायां तस्यानित्यत्व न तस्थापि नित्यत्वापत्तिः नहि दण्डाभावदशायां दण्डीत्युच्यते अतोऽनिस्यत्वं नित्य मेवस्वीकार इत्यभ्य पगन्नव्यं तथा च शब्दस्यापि नित्य त्वापत्तिः तेन वाधः सत्प्रतिपक्षो वा तद्देशनाभासा चेयं ए वम नित्य त्यं यदि नित्यं कथं शब्दस्यानित्यतां कुर्थात् नहि रक महारजनं परस्य नीलता सम्पादयति श्रथाऽनित्यं तदा तदभावदशायां अनित्यत्वं न स्यादित्यादिक मूह्यं एतदसुसारेण लक्षणमपि कार्यमित्याचार्थाः वयन्तु अनित्यस्य भावो धर्म स्तस्य नित्यमभ्युपगमेऽनित्यत्वेनाभ्य पगतस्य नित्यत्व' स्यात् यथा चितिः सकर्ट केय व अनित्यक्षितेधर्मः सकर्ट कत्त्व त्वया क्षितौ नित्यमुपेयते नवा नचेत् सदा साध्याभावादंशतोबाधः अथ क्षितौ नित्यमेव सकर्ट - कत्व विरुद्धं दद्देशनाभासा चेय मिति ब्रमः ॥ ३५ ॥
अवोत्तरमाह । प्रतिषेध्ये मत्पचे शब्द सर्चदा अनित्यभावात् अनिन्य त्वात् अनित्ये शब्द अनित्य त्वमुपपद्यते नहि सम्भवति अनित्यत्वं नित्यमस्ति अथ च तत्रित्य मिति व्याघातात नच नित्य मिति सर्वकालमित्यर्थः तथा च शब्दस्यानित्यत्वे कथं सर्व कालमनित्य त्व सम्बन्ध इति पाच्य सर्व कालमित्यस्य यावत्स त्वमित्यर्थात् अतः त्वत्क, तः प्रतिषेधो न , सम्भवति मतान्तरे तु अनित्ये ऽनित्यत्वोपपने हेतोस्त्व पायः प्रतिषेधः कृतः स न सम्भवतीत्यर्थः ॥३६॥
. रति नित्यसमप्रकरणम् ॥ ७३ ॥ . कार्यसमं लक्षयति । प्रयत्नकार्यस्य प्रयत्नसम्पादनीयस्थानेकत्वात् अनेकविषयत्वात् अयमर्थः शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्य के प्रयत्नानन्तरीयकत्वं प्रयत्नकार्ये घटादौ प्रयत्नानन्तरोपलभ्यमाने कोलका- . दावपि दृष्टन्नव द्वितीयं न तज्जन्य त्वसाधकं आये तु असिद्ध तथा च सामान्यत उक्ने हेतोरनभिमत विशेष निराकरणेन प्रत्यवस्थानं कार्य. सग असिचदेशनाभासा चेयं अथवा प्रयत्न कार्याणां प्रयत्न कर्तव्यानां कर्तव्यमयत्नानामिति यावत सादृशानां अनेकविध त्वादुनान्यस्य व्याघा. तकमुत्तरं कार्यसमा तथा चाया याकतिगणत्वात् पसूत्वानुदर्शिताना
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न्यायमूवतो।
मपि परिमहः यथा त्वत्पक्षे किञ्चिद्दषणं भविष्यतीति शङ्काऽपि शाठीसमा कार्यकारणभावस्योपकारनियतत्वेऽनवस्थेत्यनु पकारसमा इत्यादि ॥ ३७॥
अवोत्तरम् । शब्दस्य कार्यान्यत्वेऽकार्य त्वे प्रयत्नस्य वक्र प्रयत्नस्य अहेतुत्व अकारणत्वं इदञ्च तदा स्यात् यद्यनुपलधिकारणमावरणादि कमुपपद्यते न च तच्छन्दोऽस्तोत्यर्थः प्रारूतिगणपक्षे तु कार्याणां जातीनामन्यत्वे नानाविधत्वे इदमुत्तरं प्रयत्नस्य त्वदीयदूषण प्रयत्नस्य अहेतुन्वं असाध कतासाध कवाभावः उपलब्धेः कारणस्य प्रमाणस्य निर्दोषवाक्यख या उपपत्तिः निर्दोषवाक्याधीनोपपादनं तदभावात् तदाक्यस्य खव्याघात कत्यादित्यर्थः ॥२८॥
. इति कार्यसमप्रकरणम् ॥ १४ ॥ कार्यसमप्रकरणस्य एवं तावजातिवादिनं प्रति सर्वत्र मदुत्नरेणैवाटार: कार्य इत्यभिहितं तदैवाभिमतं तन्ननिर्णयविजयफलकत्व कथायां सम्पद्यते असदुत्तरोभाव ने तु बध्ययोः संप्रयोगवनाभिमतकलासिविरिति व्युत्पादयितु कथाभासरूपा षट्पञ्च शिष्यशिक्षायै प्रद.
यति। प्रयत्नानन्तरोयकत्व न शब्दोनित्यत्वं साधयति अनैकान्तिककत्वादिति योदीषः स त्वत्मक्षेऽपि तुल्यः प्रयत्नाभिव्यङ्ग्यात्वस्थाप्यसाधकत्वात अथवा अन कान्तिकत्वादसाधक इति त्वया प्रतिषेधः कृतः तवाययं दोषः समानः नानकान्निकत्वं सर्वस्यैवा साधकत्व माधयति स्वयैवासाध कत्वासाधनत्वात् ॥ ३८ ॥
मेयं मतानुज्ञा कि कार्य समायामेव नेत्याह । एवंविधमसदुत्तर सर्व त्रैव जातौ सम्भवतीत्यर्थः यथा शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यत्व नित्या. काशसाधादमर्त्तव नित्यः सारिति साधय समायां प्राकाशधानिक व्यत्वे आकाशवच्छ ब्दे परमहत्त्व स्थादित्युत्कर्षसमा एव मन्यवायूचं यद्यप्ययमतिदेशः षट पच्यनन्तरमेव कत्र्तमुचितस्तथापि त्रिपच्यादिकमपि सूचयितुमवैवोक्तः उभया सुज्ञत्वबोधफला हि षट्पक्षी त्रिपच्ययादावपि तत्फलकत्व तुल्यमिति भावः तर्हि त्रिपच्यामेव मध्यस्थेन पर्यनुयोज्योपेक्षणस्योद्भावने कथासमानौ कुतः षट् पच्चीति चेत् पुसा करणवैचित्रेषण तत्सम्भवात् ॥ १९ ॥
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५ अध्याय २ श्राज्ञिकम् ।
३०५
तुल्यबलविरोधोविप्रतिषेधः तथा च प्रतिषेधस्य यो विप्रतिषेधस्तत्व प्रतिषेध दोषवद्दोष इत्यर्थः तथाहि शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीचकत्वादिति स्थापनावादिनः प्रथमः पञ्चः प्रयत्नकार्खानेकत्वात् काय्यं समइति प्रतिवादिनो द्वियोयः पच्चः प्रतिषेधातिषेधेऽप्यनैकान्तिकत्व तुल्यमिति वादिनस्तृतीयः पञ्चः विप्रतिषेधस्तत्रापि तथैवानैकान्तिकत्वं तत्समानदोषोद्भावनं वा चतुर्थः पच्चः ॥ ४१ ॥
पञ्चमं पचमाह प्रतिषेधं द्वितीयं पचं सदोषमभ्युपेत्य दत्व मदुक्त दोष मनुद्धृत्य प्रतिषेधविप्रतिषेधे मदीयपचे तृतीये समानं दोषं प्रसज्ञ्लयतस्तव मतानुज्ञानामकं निग्रहस्थानमित्यर्थः ।। 8२ ॥
·
षष्ठ' पक्षमाह | स्वपचः स्थापनारूपः प्रथमः पक्षः तं लचोकत्य महत्तोद्वितीयपञ्चः खपचलचणस्तयापेक्षा समादरः तत्र दोषानुद्भावममिति फलितार्थः तथा च मदीयपचे दोषमनुद्भाव्यंव स्वपचोपपादनं कर्त्त ु यस्वया हेतुर्निर्दिष्टः प्रतिषेधेऽपि समानोदोष इति तावता तवापि मतानुज्ञा दृक्षैवेत्यर्थः तदेवं षट्पच्या सुभयोरप्ययुक्तवादित्वादर्थासिद्धिः यदि तुं स्थामनावादी जातिवादिनं सदुत्तरेणैव दूषयति तदा षट्पची न प्रवर्त्तत इति ॥ ४३ ॥ इति कथाभासप्रकरणम् ॥ ७५ ॥
इति श्रीविश्वनाथभट्टाचार्खकृतायां न्यायसूलउत्तौ पञ्चमाध्यायस्वाद्यमाकिम् ॥ १ ॥
दोनों निग्रहस्थानविशेषलक्षणाभिधान' तदेव चाह्निकार्थः सप्त चेह प्रकरणानि तत्व चाद्यं प्रतिज्ञाहेत्वन्यतराश्रित निग्रहस्थान पञ्चकविशेषलचणप्रकरणम् यन्यानि च यथास्थानं वच्यन्ते तत्र विशेषलक्षणार्थमादौ विभजते । यत्र चस्वर्थे तेन एतानि तु निग्रहस्थानानि न पुनरपस्मारादिनाऽननुभाषणादिकं न वा झटिति सम्बरणेन तिरोहिता बाणीत्यर्थोलभ्यत इति प्राञ्चः नव्यास्तु चकारोऽनुक्तसमुच्चये तेन हष्टाने साधनवैकल्यादीनां परियहः ॥ १ ॥
तत्व क्रमेण प्रतिज्ञाहान्यादीनां लक्षयेषु वक्तव्येषु प्रथमोद्दिष्टां प्रतिज्ञाहानिं लचयति । प्रतिकूलो दृष्टान्तो यत्र स प्रतिदृष्टान्तः परपक्षः
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न्यायसूबरती।
खः खोयः दृष्टान्तो यत्र स स्वदृष्टान्तः स्वपक्षः तथा च स्वपचे परपक्षधाभ्यनुज्ञा प्रतिज्ञाहा नि: स्वयं विशिष्यामिहितपरित्याग इति फलितार्थः सिद्धान्तस्तु स्वयं विशिष्य नाभिधीयत इति नापसिद्धान्तसायं सेयं पक्षहेतदृष्टान्तसाध्यतदन्य हानिभेदात् पञ्चधा भवति यथाशब्दोऽनित्यः कतकत्वा दित्यक्त प्रत्यभिज्ञया बाधितविषयोऽयमित्यत्तरिते अस्तु तर्हि घटएव पक्ष इति एवं तब व ऐन्द्रियकत्वादिति हेतोरन कान्निकत्वमिति प्रत्य के अस्तु कतकत्वादिति हेतुरिति एवं पर्वतो वनिमान्धमादयोगोल. कबदित्युत दृष्टान्तः साधनविकल इति प्रत्युक्ते अस्तु तर्हि महानमवदिति एवं अत्र व सिद्धसाधने च प्रत्यक अस्तु तर्हि इन्धनवानिति अन्यहानिस्तु विशेषणहान्यादिः यथा तब व नीलधमादित्य ने ऽसमर्थ विशेषणत्वेन प्रन्युक्त अस्तु तर्हि ध मादिति हेतुरित्यादि ॥ ३ ॥
प्रतिज्ञान्तरं लक्षयति । प्रतिज्ञातस्यार्थस्य प्रतिषेधे कृते त दूषणोद्दि. धीर्षया धर्मस्य धम्मान्तरस्य विशिष्ट: कल्पोविकल्पः तस्मा विशेषणान्तर बिशिष्ट त्या प्रतिज्ञातार्थ स्य कथनमिति फलितार्थः प्रतिषेध इत्यनेन भटिति सम्बरणे विलम्बे नापि स्वयं दूषणं विभाव्य विशेषणे न दोषदू त्यक्त पतिज्ञातार्थ स्वेत्येपलक्षणं हे त्वतिरिक्तार्थ स्पेति तत्व' तेन उदाहरणान्तरमपनयान्तरञ्च प्रतिज्ञान्तरत्वेन मंग्टहीतं भवति इदञ्च पक्षसाध्यविशेषणभेदात् प्रत्ये क विविधं यथा शब्दोऽनित्य इत्यु के ध्वनौ बाधेन परेण प्रत्यु के वर्णात्मकः शब्दः पक्ष इति प्रतितान्तरं न चेदमर्थान्तरं प्रकृतोपयोगात् नचेयं प्रतिज्ञाहानिः पूर्बोकस्यापरित्यागात् एवं पर्वतोवनिमान् सुरभिमलिन धूमवत्वादि न्युन असमर्थविशेषणत्वेन च परेण प्रत्युक्त कृष्णागुरुप्रभववणिमानित्यत्र एवं ताशवनौ साध्ये यः सुरभिमलिनधमवान स बनिमानित्य दाहरणे न्यू नत्ये न प्रत्यक्त स ताशवलिमानित्यत्र एवमन्यदप्यू ह्यम् ॥ ३ ॥
प्रतिज्ञाविरोधं लक्षयति । अत्र च प्रतिज्ञा हेतुपदे कथाकालीनवाक्यपरे तथा च कथायां स्ववचनाविरोधः प्रतिज्ञा विरोधः यद्यपि काञ्चनमयः पर्वतोवह्निमान् पर्वतः काञ्चनमयवह्निमान् हृदोवहिमान, इदत्वात् पर्वतोवङ्गिम न् काञ्चनमयधमादित्यादौ हेत्वाभासान्नरसाङ्क यं
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५ अध्याये २ प्रातिकम्।
३०७
तथाप्य पधेयसङ्करेऽप्यपाधेरसाङ्कान्न दोषः न चासङ्कीर्णस्थलाभावः पर्वतोवङ्गिमान् धमात् योयो धमवान: स निरग्निरित्यु दाहरणे निरग्निचायमित्युपनये च तत्त्वात् एवं निगसनेऽपि बोध्यम् ॥ ४७ ॥
प्रतिज्ञासन्यासं लशयति । पक्षस्य स्वाभिहितस्य परेण प्रतिषेधे कृते सति तत्परिजिहीर्षया प्रतिज्ञातार्थ स्थापनयनमपलापइत्यर्थः यथा शब्दोऽनित्य ऐन्द्रियकत्वादित्यु को सामान्य व्यभिचारेण परेण प्रत्यु को क एवमाह शब्दोऽनित्य इति ॥ ५ ॥ __ हेत्वन्तरं लक्षयति । अव च हतावित्यनेन हेत्ववयवांशो न विक्षितोऽपि तु साधकांशः सच हेत्ववयस्थ उदाहरणादिस्थोवा अविशेषोन इति पूर्वोक्त इत्यर्थ विशेषमिच्छत इति साभिमायं तेन परोक्त दूषणोद्दिधोर्षया तब व हेतौ विशेषणान्तर प्रक्षेपोऽन्य हेतु करणं वा इयमपि हेत्वन्तरं तथा च परोक्तदूषणोद्दिधीर्षया तत्त्रं व हेतौ पूर्वोक्त हेतुतावच्छेदकातिरिक्ततताव छ दकविशिष्ट वचनं हेत्वन्तर हेतौ विशेषणदानएक हेत्वन्तरमिति प्राञ्चः पूर्वोक्तत्व हे त्ववयवे उदाहरणादौ वा यथा शब्दोनित्यः वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्व दिल को सामान्ये ऽनै कान्तिकत्वेन च प्रत्यको सामान्यवत्त्वे सतोति विशेषणं एवं विशिष्ट हेतुमक्का यहाह्येन्द्रिय प्रत्यक्ष तदनित्यमित्युदारणे न्यू नत्व म प्रत्युत विशिटोलौ एवमुपनविशेषणेऽपि || ६ | समाप्तं प्रतिचाहे त्वन्यत राश्रितनिग्रहपञ्चक विश्वेषक्षक्षणप्रकरणम् ॥ ७६ ॥
__ अर्थान्तरं लक्षयति । प्रकृता प्रकतोपयुकात् ल्यवलोपे पञ्चमी तेन प्रकृतोपयुक्त मर्थ सुपे च्यासम्बड्वार्याभिधानं अर्थान्नरं प्रकृतानाका पिताभिधानमिति फलितार्थः यया शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्य वा शब्दोगुणः सच काशयेत्यादि ॥ ७॥
निरथ कं लक्षति । वर्णानां क्रमेण निर्देशोजवगते त्यादिप्रयोगस्तत्तु ल्योनिर्देशोनिरर्थक निग्रहस्थानं अवाचक पद प्रयोग इति फलितार्थः वाचक त्वं शत्या निरूढलक्षणया शास्त्र परिभाषया वा बोध्य समयबभवव्यतिरेकेणेति विशेषणीयं तेन यलापदंशेन विचारः कर्तव्य इकि
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न्यायसूत्र तौ ।
३०८
समय सबन्धस्तत्रापवंशे न दोषः झटिति सम्बरणे तु न दोषइत्युक्तमाये स्त्रस्य सम्भवः प्रमादादित्यवधेयम् ॥ ८ ॥
व्यविज्ञातार्थं लचयति । त्रिरभिहितं वादिनेति शेषः त्रिरभिधानं चानवधानादिनाऽबोधनिरासाय परिषत्प्रतिवाद्यन्यतरेण विज्ञांते तु नाविज्ञातार्थमिति भावः तथा च वहिवाषिकलव्य त्यच परिषत्प्रतिवादिबोधानुकूलोपस्थित्यजनकवाचक वाक्य प्रयोगोऽविज्ञातार्थमिति वाचकेत्यनेन निरर्थकापार्थक व्युदासः अत्र च पराज्ञानापादनेन मम जयो भ विष्यतीति भ्भ्रमादुक्तिसम्भवः न च यथाकथङ्कित्परो जेतव्यइत्यज्ञानापादनं न्याय्यमेवेति वाच्य ं तथासति भङ्गकाले परमदुर्बोधयत्किञ्चिदभिधानेनैव सर्वत्र जयसम्भवात् एतस्य त्रे धासम्भवः श्रसाधारणतन्त्रमात्र प्रसिद्धं यथा . पञ्चकन्यादयोबौद्धानान्तत्र रूपादयः पञ्चेन्द्रियाणि च रूपस्कन्धः सविकल्पकं संज्ञास्कन्धः रागद्दे षाभिनिवेशाः संस्कार स्कन्धः सुखदुःखे वेदनास्कन्धः निर्विकल्पकं ज्ञानस्कन्धः द्वितीयमति प्रसक्तयोगमनपेचितरूढिकं यथा कश्यपतनयष्टतिहेतुरयं विनयनसमानमामधेयवान् तत्केोतुमवादित्यादि तृतीयं लिष्टं यथा श्वेतो धावतीत्यादि एवं प्रतिद्र तोचरितादिकमपीति भाष्यं श्रव नाद्यस्य सम्भव उभय तन्त्राभिज्ञमध्यस्थे सति उभयमन्त्राभिज्ञयोरेव विचारसम्भवादिति चेत् सत्यं तथापि यत्र नैयायिकमीमांसकयोर्विचारेऽन्यतरो बौद्धतन्त्रादिपरिभाषया वदति तत्र निग्रह इत्याशयः तत्त्रापि चेत् यया कयाचित् परिभाषयोच्यतामिति परः प्रौद्या वदतिन तत्रायस्योपादानमिति उत्तरयोस्तु न सर्व वेति ॥ ६ ॥
"
याः
अपार्थकं लचयति । पौयपर्थं कार्यकारणभावस्तस्थायोगादसम्भवात् शाब्दबोधजनकाकाङ्क्षाज्ञानाद्यभावादिति फलितार्थः प्रतिसम्बवोऽसम्बद्ध े ऽर्थः प्रयोजनं शाब्दबोधरूपं यत्र यद्यपि दशदाडिमानि षड कुएडम जाजिनमित्यादाववान्तरवाक्यादर्श दोधकत्वादव्याप्तिरतिव्याप्ति व निरर्थके बथाप्यभिमतवः क्यार्थ बोधानुकूलाकाङ्गादिम्यून्यबोधजनकपदत्व ं तत् चा विज्ञातार्थे तु स्वस्य बोधोभवस्य बेति नातिव्याप्तिः उदाहरणन्तु अयोग्यानासनानाकाङ्क्षवाक्यम् ॥ १० ॥ समाप्तमभिमतवा - क्यार्थाप्रतिपादकभिग्रहस्थानचतुष्य प्रकरणम् ॥ ७५ ॥
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५ अध्याये २ श्राह्निकम् । ३०६ अप्राप्तकालं लक्षयति.। अबयवस्य कथैकदेशस्य विपर्यासो वैपरोत्यं तथा च समयबन्धविषयीभूतकथाक्रमविपरीतक्रमेणामिधानं पर्यवसन नवायं क्रमः वादिना साधनमुक्ता सामान्यतो हेत्वाभसाउड्वरणो यारत्येकः पादः प्रतिवादिनच तत्रोपालम्भोहितीयः पादः प्रतिवादिनः खपक्षसाधनं तत्र हेत्वाभासोद्धरसीञ्चति हतीयः पादः जयपराजयव्यवस्था चतुर्थः पादः एवं प्रतिज्ञा हेत्वादीनां क्रमः तत्र सभाक्षोभव्यामोहादिना व्यन्यनाभिधानमप्राप्तकालमिति ॥ ११ ॥
__ न्यूनं लक्षयति ॥ अवयवेन स्वशा त्वसिधेन तेन सौगतस्य द्यवयवाभिधानेऽपि न न्यूनत्व नन्वक्वहीनत्व अवयवत्वावच्छिन्द्राभावः तथा चा कथन मेब स्यादताहान्यत मेनापीति, तथा च यत्किञ्चिदवयवशून्यावयवाभिधानं फलितं नचायमपसिद्धान्तः सिद्धान्तविरुवानभ्यपगमात् अपि तु सभाक्षोभादिनाऽनभिधानात् ॥ १३ ॥ ___अधिकं लक्षयति । हेवदाहरणे त्य पलक्षणं दूषणाद्यधिकमपि बोध्य तथा च कृतकर्त्तव्यापुनरुताभिधानमिति फलितम् अनुवादस्त न कृतकर्तव्यः साभिप्रायत्वात् प्रतिज्ञाधिक्यञ्च पुनरुक्त धूमादालोकात् महानसबच्चत्वरवदित्यादिकन्त विना समयबन्ध दार्थादिनमाहुकमधिकं यथा म. हानसं महानमवदिति तु नाधिकं किन्त पुनरु कम् ॥१३॥ समान खसिबान्तानुरूप प्रयोगाभासनिग्रहस्थानत्रिक प्रकरणम् || ७६ ॥ पुनरुक्तं लक्षयति। पुनर्वचन पुनरुक्त तस्य विभागाथै शब्दार्थयोरिवि तेन शब्द पुनरुतमर्थपुनरुक्कञ्च सम्यते अनुवादेऽतिव्याप्तिवारणायान्यतानुवादादिति अनुवादान्य त्वे सतीत्यर्थः नियोजनं पुनरभिधानं हि पुनरुक्त अनुवादस्तु व्याख्यारूपः सप्रयोजनक एवेति भावः तथा च समानार्थक पूर्वानुपूर्वोक शब्दप्रयोगः शब्द पुनरुक्त समानार्थकभिन्नानुधूर्वी क शब्दस्य निष्पयोजनं पुनरभिधानमर्थ पुनरुक्तं श्राद्य यथा घटोघट इति द्वितीयं तथा घटः कलमइति एतस्य प्रमादादिना सम्भवः ॥ १४॥
पुनरुक्त प्रभेदानन्तरमाह। पुनरुक्तमित्यनुवर्तते यस्मिनुके यथाथस्यौत्मर्गिको प्रतिपत्तिर्भवति तस्य तेन रूपेण पुनरभिधानं पु नरुक्त. दूद मेव च अर्थ पुनरुक्त मिति गीयते यथा वङ्गिरुष्ण इति पूर्वपदाक्षिप्तो
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न्यायसूत्रहत्तौ।
किरियं उयहोवनिरिति उत्तरपदाक्षिप्नोनिः एवं बहिरस्ति गेहे ना. स्तीति विध्याक्षिप्लोक्तिः जीवन् गेहे नास्ति बहिरस्तीति निषेधाक्षिनोक्तिः पुनरुक्कल बिध्यञ्चदम्भाष्यादिसम्मतं अन्वे तु शब्द पुनरुक्तं विविधं तस्यैव शब्दस्य पुनरभिधानं पाये णाभिधानं अन्यत्पनरर्थपुमरुकमित्याहुः ॥ १६ ॥
अननुभाषणं लक्षयति । परिषदा विज्ञातस्य विशिष्य बुद्धार्थस्य वा-. दिना त्रिभिरभिहितम्य तथा च प्रथमवचनेऽननुभाषणे वादिना वारवयं वाक्य मिति दर्शितं तथा च विभिरभिधानेऽपि यत्रानुभाषणविरोधी व्यापारः तवाननुभाषणं निग्रहस्थानमित्यर्थः अज्ञान साङ्कर्यनिरामायाज्ञानमनाविक तेति विक्षेपसार्यनिरासाय कथामविच्छिन्दतेति क विशेषणीयमित्याचार्याः न चाप्रतिभासाङ्कथं उत्तरप्रतिपत्ताबपि मभाक्षोभादिनाऽननुभाषणसम्भवात् तदिदं चतुधा एकदेशानुवादाहिपरीतानुवादात् केबलदूषणोक्या स्तम्भन वेति सर्व नामपदेनानुवादात् पञ्चममिन्याचार्याः कचिदज्ञानाप्रतिभाऽननुभाषणासाङ्कार्ये यन्निवेश. क्यते तदेवोद्भाव्यम् ॥ १७ ॥
अज्ञानं लक्षयति। भावे कः चकारश्च परिषदा विज्ञातस्ये त्याद्यनुकर्षणार्थस्तथाच परिषदा विज्ञातस्य वादिना विरभिहितस्थाप्यविज्ञानमित्यर्थः इदञ्च किंवदसि बुध्यतएव नेत्याध्याविष्कारणेन ज्ञात शक्यतइति ॥ १८॥
__ अंपतिमा लक्षयति | उत्तराहे परोक्त बहऽपि यत्रोत्तरसमये उत्तरं न प्रतिपद्यते तत्रामतिभा निग्रहस्थानं नचालाननुभाषणस्यावस्यकत्वात् तदेव दूषणमस्विति वाच्य परोक्नाऽननुवादे हि तत् यत्र परोक्कमनद्यापि नोत्तरं प्रतिपद्यते तलामाङ्कात् वसूचन लोकपाठाद्युन्ने या चेयम् ॥ १८ ॥
विक्षेपं लायति । कार्य व्यासङ्गात्कार्य व्यासङ्गमुद्भाव्ये त्यर्थः ल्यवोपे पञ्चमौ कार्य व्यासङ्गश्चासम्भवाकालान्तरकत्वे नारोपितः तेन तादृशकथाविच्छे दोविक्षेपः तेन राजपुरुषादिभिराकारणे ग्टहजनादिभिर्बावश्यककार्यार्थमाकारणे स्वग्टहदाहादिकं पश्यतो गमने वा शिरोरोगादिना
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५ अध्याये २ आङ्गिकम् । ३११ प्रतिबन्ध वा न विधेयः ननु कार्यव्यासङ्गोद्भावनं कुतः सभाक्षोभादिना चेदननुभाषणमेव उत्तराप्रतिपत्त्या चेदप्रतिभवेति चेन्नः उत्तरावसराभा. वात् वस्तुतस्तू सरस्क विपि तद्दषणसम्भावनया विक्षेपसम्भवात् यथा शितिः सकर्ट का कार्यवादिन्युनम् अवाकुरे व्यभिचारस्तावन्मया उद्भाव्य स्तन चेदयं पक्षसमत्वं भूयात् तदा मे किमुत्तरमतोऽत्र महार्णवलिखितं मया च विचारितं किञ्चित्कार्यमुगाव्य रहे गत्वा दृश्यत इत्येवं विक्षेपसम्भवात् ॥ ६॥ . मतानुज्ञा लञ्जयति । दोषाभ्यु पगमात् दोषमनुडु त्ये त्यर्थः यथःशब्दोनित्यः श्रावणत्वादित्य के ध्वनावनै कान्तिकत्वेन हेत्वाभासोऽयमित्य नौ शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादिति साधिते ध्वनेरपि पक्षत्वान्न दोष इत्य तौ असिद्धत्वात्तवापि हेत्वाभासोऽयमित्य तौ सोऽयं मतानु चया निग्टहीतः सादप्रतिषिद्धमनुमतं भवतीति खपक्षे दोषाम्य पगमात् ॥ १३ ॥
पर्य योज्योपेक्षणं लक्षयति । निग्रहस्थान प्राप्तवतोऽनियहः - नियहस्थानानुद्भावनमित्यर्थः यव त्वनेकनियहस्थानपाते एकतरोद्. भावनं तत्र न पर्यनुयोज्योमेक्षणं अवसरे नियहस्थानोद्भावनत्वावछिद्रामावस्यैव तत्वात् ननु वादिना कथमिदमुद्भाव्यं खकोपीनविवरणस्थायुक्रत्वादिति चेत् सत्य मध्यस्थेनैवेदमुगाव्यं वादे च स्वयमुद्भावनेऽप्यदोषः ॥ ६४ ॥
निरनयोज्यानुयोगं लक्षयति । अवमरे यथार्थ निग्रहस्थानोगावनातिरिक्त यन्नियहस्थानोद्भावनं तदित्यर्थः एतेनावसरे नियहस्थानो. गावने एकनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानान्नरोद्भावने च नातिव्याप्तिः सोऽयं चतुर्धा छुलं जातिराभासोऽअवसरग्रहणञ्च याभासो व्यभिचारादावसिद्याधुगावनम् अनवसरग्रहणञ्चाकाले एवोद्भावनं यथा त्यक्षसि चेत् प्रतिज्ञाहानिः विशेषयति चेत् हेत्वन्नर एवमवसरमतीत्य कथनमपि यथा उच्यमानगाह्यखापशब्दादेः परिसमाप्तौ एवमतनयाह्याज्ञानाद्यनन· भाषणावसरेऽनुद्भाव्यबोधाविष्करणानुभाषणप्रवृत्ते वादिनि तदुद्भावनमित्यादिकमू ह्यम् ॥ ६५ ॥
असिद्धान्त लक्षयति । सिद्धान्त स्वशास्त्र काराभ्यपगतमथं खीचत्य ।
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३१२
न्याraarit |
नियमान्तम्रियमप्रच्यवात् कथाप्रसङ्ग इति तथा च कथायां स्वीकृत सिद्धान्तप्रच्यवोऽपसिङ्घान्तः- तथा च माझ्यामतेनाहं वदिष्यामीत्यभ्युपेत्यारब्वाय कथायाम् व्याविर्भावस्थाविर्भावाभ्युपगमेऽनवस्थेति दूषणोद्वारायाविर्भा बस्यासतः उत्पत्तिं यद्यभ्युपैति तदाऽपसिद्धान्तः यस्व कदेशिमतेन कथा - मारभते तस्य शास्त्रकाराभ्युपगमविरोधे नापसिद्धान्त इति विबोधयितुमभ्युपेत्येत्य ुक्तं सौगतास्त्वपसिद्धान्तं दूषणं न मन्यत इत्यन्यदेतत् ॥ ६६ ॥
क्रमप्राप्त हेत्वाभासलक्षणे वक्तव्ये तदकथनवीजमाह । च पुनरर्थे हेत्वाभासाः पुनर्यथा येन रूपेण पूर्वमुक्ताः तेनैव रूपेण तेषां निग्रहस्थानत्वमिति न लचणान्तरमपेक्षितमिति चात्र चकारस्य दृष्टान्ते साधनवैकल्यादिसमुच्चायकत्वमिति केचित् तन्न यथोक्ता इत्यस्यानन्वयापत्ते
रिति ॥ ६७ ॥
समाप्त' निग्रहस्थानविशेषलच्तणम् । समाप्तं पञ्चमस्य द्वितीयाह्निकम् ।
एषा मुनिप्रवरगोतम सूत्रवृत्तिः श्रीविश्वनाथकृतिना सुगमा ल्पवर्षा | श्रीकृष्णचन्द्रचरणाम्बुज पञ्चरीकश्री मच्छिरोमणिवचः प्रचयैरकारि ||
इति श्रीमहामहोपाध्याय श्रीविद्यानिवासभट्टाचार्यात्मज श्रीविवनाथभट्टाचार्यकृतायां न्यायसूत्रवृत्तौ पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥
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[२]
३ भाषापरिच्छेद मुक्तावलीसहित । ४ बहुविवाहवाद ५ द पाकुमारचरित-सटीक र परिभाचेन्ट पोखर ७ कविकलपद्म (वोपदे वकृत) ८ चक्रदत्त (वैद्यक)
उणादिसूचस-टीक मेदिनी कौघ
पञ्चतन्तम [श्रीविष्णु-पार्म-सङ्कलितम्] २ विद्धन्मोदतरङ्गिणी (चम्प काव्य) ३ माधवचम्म ४ तर्कसंग्रह (गाजी अनुवाद सहित) ५ प्रसन्नराघव नाटक (श्रीजयदेव कवि रचित) ६ विवेक चडामणि श्रीमत प्राङ्कराचार्य विरचित ७ काव्यसंग्रह[सम्प गणे] ८ लिङ्गानशासन-सटीक 18 ऋतुसंहार-सटोक
विक्रमोर्वशी-सटीक 2 वसन्ततिल कभाण
गायत्री a सांख्यदान ( भाष्य सहित ) सांख्य प्रवचन भाष्य - भोजप्रबन्ध
10 नलोदय-सटीक
ईमा केन कठ, प्रश्न मुण्ड, माण्ड क्य, सटीक स भाष्य ५ १ छान्दोग्य (उपनिषद् ) सभाष्य-सटीक]
तैत्तिरीय ऐतरेय श्वेताश्वतर (उपनिषद) सभाष्य सटीक रहदारण्यक (उपनिषद्) [भाष्य सहित]
सगुत १ शाङ्गधर वैद्यक २ वेताल पञ्चविंाति ३ पातञ्जल द पनि सभाध्य-सटीक
आत्मतत्तुविवेक बौद्धा Private And Personal
CITYMIRRERNA
MALEM
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の
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६६ उपमान चिन्तामणि
६७ नागानन्द नाटक
६८ पूर्णप्रज्ञ दर्शनम् मध्वखामिकृत भाष्य सहितम्
६८. चन्द्रशेखर चम्प काव्यम् सम्प ग
[३]
23
a
सामवेदस्य मन्त्र ब्राह्मणम् भाष्य सहितम
७१ आरण्य संहिता भाष्य सहिता ७२ विशाल भञ्जिका नाटिका ७३ कारण्डव्य च [बौद्धशास्त्रम् ] ७४ कुवलयानन्द-सटोक
७५ प्रियदर्शिका नाटिका सटीक [श्रीहर्ष विरचित] ७६ सारखत व्याकरण-सटोक पूर्वार्द्ध
७७
८८
८ मीमांसा परिभाषा
घड विंश ब्राह्मण सभाष्य
446
अर्थ संग्रह (लौगाक्षी कृत) [मीमांसा]
VI
वासवदत्ता-सटीक
पटवाण विलास काव्य [कालिदास कृत] रुटोक ७८ महिष शतकम्, पदारविन्द शतकम्, स्तुति शतकम्, मन्दस्मित शतकम्, कटाक्षि शतकम्
१
५.
८० मनुसंहिता कुल कभट्ट कृत टीका सहित ८१ नैषध चरितम् (मल्लिनाथ कृत टीका सहित)... ८२ चन्द्रालोक (प्राचीन अलङ्कार ग्रन्थ) ८३ वीरमित्रोदय [स्मृति शास्त्र ] ८४ भावप्रकाश [वैद्यक ] ८५ प्रबोधचन्द्रोदय नाटक - सटीक ८ अनर्घराघव नाटक [मुरारि कृत] दैवतब्राह्मण सभाष्य
-
640
***
...
...
244
800
620
८०
८१ रघुवंश - सटीक
६२ मेघदूत - सटीक
28
८३ ईश्वर निरूपणम् [तर्कवाचस्पति कृतम्] ८४ ईश्वरानुचिन्तामणि [गङ्गे शोपाध्याय कृत] ८५ न्यायदर्शन [ सभाष्य-सवृत्ति ] व. लिकाता संस्कृत fapilvaidhna Personal, ए, उपाधिधारिणः
For Private
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540
₹
800
1
१।
२
Lo
11
१॥०
||jo
२०
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