Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित लब्धिसार (सिद्धान्तबोधिनी टोका समन्वित) smmmmmeroine सम्पादक: स्व.अ.पं. रसायन मुख्तार सहारनपुर (उ.प्र.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार विषयानुक्रमणिका प ष्ठ विषय १ गुण रिंग निर्जराका कथन गुरण सक्रमण की कथन १ स्थिति काण्डक का स्वरूप ४स्थत काण्ड घास की विशेषताएं विषय मंगलाचरण प्रथमोपशम सम्यवश्थ प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य जीव ● पंपलब्धियों का नाम निर्देश क्षयोपशमलब्धि-विशु खिलब्धि का स्वरूप देशनालब्धि का स्वरूप प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता का विवेचन प्रथमोपशम सम्यक्त्वाभिमुख स्थितिबन्धपरिणाम प्रायोग्य लब्धिकास में प्रकृति बंधापसरण स्थिति अनुभागबन्ध का कथन सम्यक्त्वाभिमुख मिथ्यादृष्टि के प्रदेशविभाग महाकों में कथित अपुनरुक्त प्रकृतियां प्रथमोपशम सम्यक्त्वाभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के उदययोग्य प्रकृति सम्बन्धी स्थिति अनुभाग तथा प्रदेशों की उदम उदीरणा का कथन प्रकृत सत्य के सम्बन्ध में विशेष विचार सत्कर्म प्रकृतियों के स्थित्यादि सत्कर्म कथन पूर्वक प्रायोग्यलब्धि का उपसंहार कराल का विवेचन अधःप्रवृत्तादि तीन करणों का स्वरूप श्रधःकरण का विशेष विवेचन पूर्वकरण का विशेष विचार गुणी का स्वरूप निर्देश निक्षेप व प्रतिस्थापना का विशेष कथन पृष्ठ ५८ ६१ ६२ ६३ ५. अनुभाग काण्डक घात श्रादि का कथन ६४ ६ अनिवृत्तिकरण का स्वरूप और उसमें होने वाले कार्य ६७ ७ अन्तरकरण सम्बन्धी कथन ६८ ७१ चौंतीस प्रकृति बन्षा पसरण का प्रतिपादन चारोंगतियों में पाये जाने वाले बग्धा पसरण गतियोंके प्राचार से बध्यमान प्रकृतियों का प्रतिपादन १७ १९ व्याघातापेक्षा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना उत्कर्षण सम्बन्धी विशेष निर्देश अन्तरकरण के पश्चात् होने वाले विशेष कार्य ९प्रथमोपशम सम्यक्त्व के ग्रहणकाल में होने वाले विशेष कार्य . ६ १० १४ २० २१ २४ २५ ३० ४१ मिध्यात्व को तीन भागों में विभक्त करने की विधि गुरंग संक्रमण की सीमा और विध्यातसंक्रम का २७ २८ २९ दर्शन मोहनीय कर्म के श्रन्तरायाम पूरण का विधान सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का कार्य मिश्र प्रकृति के उदय का कार्य मिध्यात्व प्रकृति के उदय का कार्य प्रथमोपग्राम सम्यक्त्व चूलिका क्षायिक सम्यवत्व प्ररूपणासायिक सम्यक्त्वोत्पत्ति की सामग्री ४५ ४६ ४९ ५.० प्रारम्भ अनुभाग काण्डकोल्कीरण कालादि २५ पदों का अल्बहुत्य प्रथमोपशम ग्रहणकाल में स्थिति सत्त्व का कथन देशसंगम व सकलसंयम के साथ प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने वाले जीव के स्थिति सस्व दर्शन मोहोपशम काल में होने वाली विशेषता सासादन का स्वरूप एवं काल का कथन उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रारम्भिक सामग्री उपशम सम्यक्त्व काल के अनन्तर उदययोग्य कर्म का विशेष कथन ७२ ७३ ७४ ७५ ५० ५० ५१ ८२ ८३ Pos ८७ ८७ ९० ९२ ९६ ९८ १०४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I विषय M दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले स्थापकनिष्ठापक के सम्बन्ध में विशेषा कथन नान्धी को विसंयोजना सम्बन्धी कथन संयोजना के धनन्तर होने वाले कार्य मिश्रद्धि की चरमफालिका शो में नि द्रव्य के क्रमसहित प्रमाणादि का कथन अनुभाग अपवर्तन का निर्देश सम्यक्त्व के पाठ वर्ष प्रमाण स्थिति सत्त्व रहने पर होने वाले कार्य विशेष.. # साम्प्रतिक गुण श्रोणि के स्वरूप निर्देश पूर्वक चरमफालि का पतनकाल कृतकृत्यवेदक सम्यक्स्व के प्रारम्भ समय में अवस्था विशेष की प्ररूपणा प्रधःकरण के प्रथम समय से कृतकृत्य वेदक के चरम समय पर्यन्त लेश्या परिवर्तन होते पथवा न होने सम्बन्धी कथन. कृतकृत्यवेदक काल में पायी जाने वाली क्रिया विशेष र अल्पबहुत्व के कथम की प्रतिज्ञा अल्पबहुत्व के ३३ स्थानों का कथत शायिक सम्यक्त्व के कारण गुरण-भवसीमा. क्षायिक लब्धित्व मादि का कथनचारित्रलब्धि प्रधिकार पृष्ठ देशसंयम और सकलसंयम लब्धि की प्ररूपणा. faranदृष्टि के देशसंयम की प्राप्ति के पूर्व पायी जाने वाली सामग्री का कथन... उपशम सम्यक्त्व के साथ देशसंयम को ग्रहण करने बाले जीव का कार्य T [मिध्यादृष्टि जीव के वेदक सम्यक्त्व के साथ देशचारित्र ग्रहण के समय होने वाली विशेषता देशयम की प्राप्ति के समय से गुण गि रूप कार्य विशेष १०६ १० ... १२२ घाठ वर्ष की स्थिति के बाद होने वाले कार्य विशेष १२२ श्रमि काण्डक का विधान १२६ ११८ १२० " देशसंयम के जघन्य व उत्कृष्ट रूप से प्रतिपासादि तीन भेदों में कौन किसमें है १२९ देशसंयम के उक्त प्रतिपातादि भेदों में स्वामित्व का निर्देश -१३१: सकलचारित्र की प्ररूपणा का प्रारम्भ वेदक सम्यक्त्व के योग्य मिथ्यात्वी मावि जीव के सकलसंगम ग्रहण समय में होने वाली विशेषता १३२ देशसंयम के समान सकलसंयम में होने वाली प्रक्रिया विशेष का निर्देश १३३ १३६ १३६ विषय देशसंयम के कार्य विशेष का कथन प्रथाप्रवृत्तसंयत के काल में होने वाले कार्य विशेष का स्पष्टोकरण अंधाप्रवृत्तसंयत के गुणने रिंग द्रव्य की प्ररूपणां" की प्रतिपूर्वक अल्पबहुत्व का कथन देशसंयम को जघन्य उत्कृष्टलब्धि के साथ उसके अस्पबहुत्व का कथन 'जघन्य देशसंयम के प्रतिभागी प्रतिच्छेदों के प्रम का कथन एवं उक्त संयम के भेदों व उसमें अन्तर का निर्देश १४३ सकलसंयम सम्बन्धी प्रतिपातादि भेदों को बताते हुए प्रतिपाद भेद स्थानों का कथन १४१ प्रतिपद्यमान स्थानों का कथन अनुभम स्थानों का कथन १४३ सूक्ष्म साम्पराय व यथाख्यातसंयम स्थान प्रतिशतादि स्थानों का विशेष कथन १४४ : जघन्यसंयत के विशुद्धि सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या चारित्रमोहनीय उपशमनाधिकार उपशान्त कषाय वीतरागियों को नमन करके उपशमचारित्र का विधान प्ररूपण पृष्ठ ૪૬ १४७ १४८ १४९ १५१ }" १५२ 1 १५३ १५५ १-५७ १५७ १५८ १५९ १६. १६१ १६२ R १६३ १६९ १४४ : दर्शनमोह के उपशमका निर्देश, उपशमर्थ सि पर प्रारोहण की योग्यता का निर्देश तथा दर्शन१४६ मोहोपशम में गुपसंक्रमण के प्रभाव का प्रतिपादन १७० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १९१ . १७४ २०३ २०४ विशेष विषय पष्ठ विषय दर्शनमोहोपणाम के समय पाया जाने वाला स्थिति देश घातिकरण का कथन सत्त्व विशेष, भपूर्वकरण में होने वाले कार्य विशेष, .. प्रन्तरकरण का निरूपण अन्तरकरण प्रादि का कथन १७२ मन्तरकरण की विधि का प्रतिपादन दर्शनमोह के संक्रम सम्बन्धी विशेष सहापोह १७४ अन्तरकरणकी निष्पत्ति के अनन्तर समय में द्वितीयोपमम सम्पग्दृष्टि के बिझुद्धि सम्बन्धी होने वाली क्रिया विशेष एकान्तानुवृद्धि काल का प्रमाण १७५ चारित्रमोहोपशम का क्रम द्वितीमोपशम सम्यग्दृष्टि के विशुद्धि में हानि-वृद्धि उक्त क्रम में सर्वप्रथम नपुसक वेद का उपपाम का कथन विधान अपशमश्रेरिण में होने वाले प्रमुख कार्य उदीरणा और उदयादिरूप न्यसम्बन्धी मल्पबहुत्व २.१ चारित्र मोहोपशम विधान में पाये जाने वाले स्थिति काण्डकादि के प्रभाव का निर्देश माउ कार्य स्थिति बन्धापसरण के प्रमाण का निर्देश प्रपूर्वकरण में स्थिति काण्डक का कथन स्थिति बन्धापसरण सम्बन्धी विशेष कपन अनुभाग काण्डक प्रादि के प्रमाण का निर्देश नपु'सयेयोपशामना के पश्चात् होने वाली स्त्रीअपूर्वकरण के प्रथम समय में गुणवेणि निर्जरा वेदोपश्यामना का कथन स्वीप समन काल में होने वाले कार्य - का प्ररूपण - अपूर्वकरण में बन्ध-उदम व्युच्छित्ति को प्राप्त सात नौकषायोपशामना एवं क्रिपा विशेष का कपन = प्रकृतियाँ पुरुषवेद के उपशमनकाल के मन्तिम समय में - अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में होने वाले कार्यों स्थिति बन्छ प्रमाण प्ररूपणा का निर्देश पुरुषवेद की प्रथम स्थिति में दो प्रावलि शेष मनिवृत्तिकरण गुगा स्थान के प्रथम समय में कर्मों के स्थितिबन्ध-स्थितिसत्त्व के प्रमाण का कयन रहने पर होने वाली क्रियान्तर १६३ छह नो कषाय के द्रव्य का पुरुष व में संक्रमित अनिवृत्तिकरण काल में स्थितिबन्धापसरण के क्रम होने का निषेध २०६ से स्थितिबन्धों के क्रमशः अल्प होने का कपन परुष वेद सम्बन्धी नवकबन्ध के उपशम का विधान २०४ बमापसरण के विषय में विशेष कथन प्रपगत वेद के प्रथम समय में स्थितिबन्धका कथन २१. स्थिसि धन्धों के क्रमकरणकाल में स्थिति बन्धों अपमतवेदी के अन्य कार्य का प्रमाण क्रोच द्रव्य के संक्रम का विशेष २१२ उक्त प्रकरण में प्रल्पमहत्व प्ररूपणा सम्बन्धी उपशमनावली के अन्तिम समय में होने वाली विशेषताएं क्रिया विशेष २१३ द्वितीय क्रम का निर्देश १८६ मानत्रय का उपशाम विधान २१४ अन्य क्रम के निर्देशपूर्वक पुनरपि क्रम भेव प्रत्यावलि में एक समय शेष रहने पर होने निर्देश १८८ वाले कार्य ऋमकरण के उपसंहारपूर्वक उसके अन्त में होने माया की प्रथम स्थिति करने का निर्देश वाली प्रसंस्पात समय प्रबधों की उदोरणा का मायात्रय के उपशम विधान का कथन २१८ सकारण प्रतिपादन १९. | लोमत्रय के उपशम विधान का धन २२. २१६ २१७ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- :--- विषय २६१ २६३ २७ विषय पृष्ठ पृष्ठ संज्वलन सोम के अनुभागसव की कृष्टिकरण प्रवरोहण (पतन) को प्रपेक्षा नवम गुण स्यान को विषि २२१ प्राप्त जीव की किया विशेष का कथन संज्वलन लोभ सम्बन्धी कृष्टियों की निक्षेपण मायावेदक के किया विशेष विधि २२२ मानवेदक जीव के कार्य विशेष द्वितीयादि समयों में निक्षेपणा का कथन २२३ संज्वलन कोष में होने वाली क्रिया विशेष कृष्टिगत द्रव्यों के विभाग का निर्देश २२४ का विचार तनीयादि समयों में कृष्टियों के विशेष कयन पूर्वक निक्षेपद्रव्य के पूर्व-अपूर्यगत संधि विशेष ' पवरोहक नवम गुण स्थानवर्ती के पुरुषोदयकाल का कथन सम्बन्धी किया विशेष कृष्टियों का शक्ति सम्बन्धी प्रल्पबहुत्व २३४ स्त्रीवेद के उपशम के विनाश को प्ररूपया कृष्टिकरण काल में स्थितिबन्ध के प्रमाण नपुसकोद के विनाश व उस समय होने वाली की प्ररूपमा २३५ क्रिया विशेष संक्रमणकाल सम्बन्धी प्रवधि का विचार उतरते हुए लोभसंक्रमण, बंधावलि ब्यतीत होने लोभत्रय की उपशमन विधि २३७ पर उधीररणा की प्ररूपरणा मूक्ष्म साम्पराय में किये जाने वाले कार्य विशेष क्रमकरण के नाम का विधान २७४ सुक्ष्म साम्पराम गूण स्थान के प्रथम समय में प्रवरोहक अनिवृत्तिकरण के चरम समय का उदीयमान कृष्टियों का निर्देश स्थितिबन्ध द्वितीयादि समयों में उदयानुकृष्टि का निर्देश २४. अवरोहणापेक्षा अपूर्वकरण में होने वाले सूक्ष्मष्टि द्रव्य के उपशम की विधि एवं सूक्ष्म कार्य विशेष २८१ साम्पराय के अन्त में कमों के स्थिति बन्ध मवाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्रयस्थित का निर्देश २४१ गुण थैरिण २८२ पूर्वोक्त कथन का उपसंहार प्राचीन गुणश्रेलि के विशेष निर्देश २५४ उपशान्तकषाय कब होता है ? इसका निर्देश २४३ स्व स्थान संयमी के गुणणि मायाम के तीन स्थान २८५ उपशान्तकषाय गुण स्थान के काल का कथन अवरोहक मप्रमत्त के प्रधःप्रवृत्तकरण में संक्रम करते हुए विशेष स्पष्टीकरण .२४४ विपोष का कथन उक्त गुण स्थान में उदय योग्य ५९ प्रकृतियों में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के कालका प्रमाण २८६ अवस्थित अनवस्थित वेदन वालो प्रकृतियों का द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से सासावन को प्राप्त जीव विभाजन के मरण का कपन करते हए सासाधनवर्ती जीव चारित्र मोहोपणामना परिशिष्ट अधिकार उपशान्तकषाय से प्रधःपतन कयनाधिकार का पन्य गतित्रय में मरण नहीं होने का कारण २८५ उपशारतकषाय वीतरागी के भवक्षयरूप पतन कारण उपश्न रिण से उतरते हुए जीव के सासादन की का विवेचन प्राप्ति का अभाव उपशान्तकषाय पीतरागी में कालक्षयरूप पतन उपशमरिण चढ़ने वाले १२ प्रकार के जीवों की कारण का प्ररूपण क्रिया में पाये जाने वाले भेद का कथन उपशान्तकषाय से गिरकर सूक्षरसाम्पराय गुण उपशमशेरणी में अल्पबहुत्व के कथन की प्रतिज्ञा स्थान को प्राप्त जीव के कार्य विशेष पुरस्सर मल्पबहुत्व स्थानों का कथन २५३ -.. २५५ । - ...-.. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार "सिद्धान्तबोधिनी हिन्दोटोका" "मंगलाचरणम्" सिद्धे जिणिंदचंदे मायरिय उवज्झाय साहुगणे । बंदिय सम्म सण-चरित्तलद्धिं परूवेमो ॥१॥ अर्थ-मैं नेमिचन्द्रप्राचार्य सिद्ध अरिहन्त-प्राचार्य-उपाध्याय तथा सर्वसाधुओं ____ को नमस्कार करके सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति (के उपाय) को कहूंगा। विशेषार्थ-चन्द्रमाके समान सम्पूर्णलोकके प्रकाशक अरहन्त भगवान्को, जिनके सभी कार्य सिद्ध होनेसे जो कृतकृत्य हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने सम्पूर्णकर्मोका क्षय कर दिया है ऐसे सिद्ध भगवान्को, तेरहप्रकारके चारित्रमें जो स्वयं प्रवृत्ति करते हैं तथा अन्यको प्रवृत्ति कराते हैं ऐसे प्राचार्यको, जिनवाणीके पठन-पाठनमें रत उपाध्यायों को और रत्नत्रयके साधक साधुगणोंको अर्थात् इन पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार करके श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने लब्धिसारग्रन्थको कह्नकी प्रतिज्ञा को है । इस लब्धिसार ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्र की प्राप्तिके उपायका कथन किया जावेगा । प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्तिके योग्य जीवको बताते हैं'चदुगदिमिच्छो सरणी पुराणो गम्भज विसुद्ध सागारो।/ पढ़मुवसमं स गिगहदि पंचमवरलहिचरिमम्हि ॥२॥ १. दृश्यतां षट्खण्डागम, जीवस्थान चूलिका (अष्टमी) सूत्र ४ एवं किंचित् पाठान्तरेण जीवाडेऽपि प्रागता गाथेयं 1 (गो. जी. गा. ६५२) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] लब्धिसार [ गाथा २ अर्थ – चारोंगतिका मिथ्यादृष्टि संज्ञी - पर्याप्त गर्भज-विशुद्धपरिणामी साकारोपयोगी जीव अंतिम पंचमलब्धिका अंत होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है । १. विशेषार्थ - दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम करनेवाला जीव सामान्यरूपसे चारों ही गतियोंमें होता है । 'सण्णी' पदसे तिर्यञ्चगति सम्बन्धी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषे किया गया है। पर्याप्तावस्था में ही सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता होती है, अपर्याप्तावस्था में नहीं इसलिये 'पुण्णो' विशेषण दिया गया है । लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्तावस्थाको छोड़कर नियमसे संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तिजीव हो प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है' । नरकगतिसम्बन्धी सर्व नारकपृथ्वियोंके सभी इन्द्रकविलोंमें, सर्व श्ररिंगबद्ध व प्रकीर्णकबिलों में विद्यमान नारकीजीव यथोक्तसामग्रीसे परिणत होकर वेदनाअभिभवादि कारणों से प्रथमोपणसम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । भवनवासियों के जितने प्रावास हैं, उन सभी में उत्पन्न हुए जीव जिनबिम्बदर्शन और देवधिदर्शनादि कारणोंसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं । सर्व द्वीप और समुद्रों में रहनेवाले संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चपर्याप्त तथा ढाईद्वीप - समुद्रों में संख्यातवर्ष की आयुवाले गर्भज और असंख्यातवर्षकी प्रायुवाले सभी मनुष्य जातिस्मरण, धर्मश्रवणादि निमित्तों से अपने-अपने लिए सर्वत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, यहां देशविशेषका नियम नहीं है । शंका-सजीवोंसे रहित श्रसंख्यातसमुद्रोंमें तिर्यञ्चों का प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करना कैसे सम्भव है ? समाधान — उन प्रसंख्यातसमुद्रों में भी बैरीदेवोंके द्वारा ले जाये गये तिर्यंचोंके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति पाई जाती है । श्रसंख्यातद्वीप समुद्रोंमें जो व्यन्तरावास हैं उन सभी में वर्तमान वानव्यन्तरदेव जिनमहिमादर्शनादि कारणों से प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं । ज्योतिषीदेव भी जिनविम्वदर्शन और देवद्धिदर्शनादि कारणोंसे सर्वत्र प्रथमो पशमसम्यग्दर्शनको उत्पन्न करने के योग्य होते हैं । सौधर्मकल्पसे उपरिमन्र वेयकपर्यन्त सर्वत्र विद्यमान और अपनी-अपनी जातिसे सम्बन्धित सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणोंसे परिणत हुए देव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । ज. व. पु. १२ पृ. २६७ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २ ] लब्धिसार शंका-उनसे ('उपरिमग्रे बेयकसे) आगे अनुदिश और अनुत्तरविमानवामीदेवोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? समाधान-- अनुदिश व अनुत्तरविमानोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टिजीवोंके ही उत्पन्न होनेका नियम है । आभियोग्य और किल्वि षिकादि अनुत्त मदेवोंमें भी यथोक्त हेतुओंका सन्निधान होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति अविरुद्ध है' । तिर्यञ्च व मनुष्यों में गर्भजको ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है, सम्मूर्छनको नहीं होता। ___ दर्शनमोहके उपशामक जीव विशुद्धपरिणामी ही होते हैं, अविशुद्धपरिणामी नहीं । अधःप्रवृत्त करणके पूर्व ही अन्तर्मुहुर्तसे लेकर अनन्तगुणी विशुद्धि प्रारम्भ हो जाती है। ___शंका-ऐसा किस कारणसे है ? ___ समाधान-जो जीव अतिदुस्तर मिथ्यात्वरूपी गर्तसे उद्धार करनेका मनवाला है, जो अलब्धपूर्व सम्यक्त्वरूपी रत्नको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छाबाला है जो प्रतिसमय क्षयोपशमलब्धि और देशनालब्धि आदि के बलसे वृद्धिंगत सामर्थ्यवाला है और जिसके संवेग व निर्वेदसे उत्तरोत्तर हर्षमें वृद्धि हो रही है उसके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी प्राप्ति होनेका निषेध नहीं है । जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । अर्थ के ग्रहणरूप आत्म परिणामको भी उपयोग कहते हैं । उपयोगके साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकार हैं। इनमें से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है, इनके क्रमसे मतिज्ञानादिक और चक्षुदर्शनादिक भेद हैं । दर्शनमोहका उपशामकजीब साकारोपयोगसे परिणत होता हुआ प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, क्योंकि प्रविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार दर्शनोपयोगके द्वारा विमर्शकस्वरूप तत्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता। इसलिए मति-श्र तप्रज्ञान ( कुमति व कुश्रु तज्ञान ) से या विभंगज्ञानसे परिणत होकर यह जीव प्रथमोपशम १. ज.ध. पु. १२ पृ. २६८ से ३०० । २. ज. प. पु. १२. पृ. २००। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ३ सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके योग्य होता है' । विमर्शकका अर्थ है किसी तथ्यका अनुसंधान, किसी विषयका विवेचन या विचार । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि इन जीवोंके प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूप परिणमन होनेकी शक्तिका प्रभाव है । उपशमश्र पिर चढ़नेवाले वेदकसम्यग्दृष्टिजीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशमसम्यक्त्व' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशमश्रं शिवाले उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्वपूर्वक होती है इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए' । अथानन्तर सम्यक्त्वोत्पत्तिसे पूर्व मिथ्यात्वगुणस्थान में जो पांचलब्धियां होती हैं उनका व्याख्यान करते हैं 'यसमियविलोडी देखाउम्मकरणलद्धि य । चत्तारि वि सामराणा करणं सम्मत्तचारिते ॥ ३ ॥ -क्षयोपन, विशुद्धि, देशना प्रायोग्य व करालब्धि ये पांच लब्धियां हैं इनमें से चार लब्धियां तो सामान्य हैं तथा करणलब्धि के होनेपर ( उपशम ) सम्यक्त्व या चारित्र अवश्य होता है । विशेषार्थ - यहां गाथा में जो 'सामन्या' शब्द है इसका प्रयोग आगे गाथा ७ व १५ में भी हुआ है, किन्तु प्रत्येकगाथा में 'सामण्णा' शब्द विभिन्न विषयोंका द्योतक है । यहांपर 'करण' सम्मत्तचारिते' से यह स्पष्ट हो जाता है कि करणलब्धिसे पूर्वकी १. ज. ध. पु. १२ पू. २०३ २०४ २. सम्यग्दृष्टिरेव द्वितीयोपशमं प्राप्नोति ' ध. पु. १ टीका; स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा गा ४८४ की टीका । २११-१२; मूलाचार अ. १२ मा ५०५ की ३. घ. पु. ६. पू. २०६-७ व ध पु. १ पृ ४१० । ४. ध. पु ६ पृ. २०५, परं तत्र चतुर्थचरणे "करणं पुण होइ सम्मत्त" इति पाठः । इयमेव गाथा धवला जीवस्थानचूलिकायां (षष्ठे पुस्तके) अध्यागता, ध. पु. ६ पृ. १३६ गो जी. गा. ६५१ ।. ५. एदाओ चत्तारिवि लद्धोश्रो भवियाभवियमिच्छाइट्ठीगं साहारणाओ ।. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "J गाथा ४-५ ] लब्धिसार [ ५ ( क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना व प्रायोग्य) चार लब्धियां होनेपर प्रथमोपशम सम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नहीं है, किन्तु करणलब्धि के प्रारम्भ होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्व अवश्य उत्पन्न होगा । जिन जीवोंको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होना है उनको तथा जिनको नहीं होना है उनको भी क्षयोपशमादि चारलब्धियां हो जाती हैं । अतः प्रथमो - पशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति और अनुत्पत्तिकी अपेक्षा श्रादिकी चारों लब्धियां साधारण ( सामान्य ) हैं । अब क्रमप्राप्त क्षयोपशमलब्धिका स्वरूप कहते हैंकम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमांतगुणविहीणकमा | होदुगुदीरदि जदा तदा मोसमनदी दु ||४ अर्थ - प्रतिसमय क्रमसे अनन्तगुणी हीन होकर कर्ममलपटल शक्तिकी जब उदीरणा होती है तब क्षयोपशम लब्धि होती है । १. २. विशेषार्थ- पूर्वसंचित कर्मोंके मलरूप पटलके अर्थात् प्रशस्त (पाप) कर्मोके अनुभागस्पर्धक जिससमय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणेहीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होते हैं उससमय, क्षयोपशमलब्धि होती है' । अब विशुद्धिल विधका स्वरूप कहते हैं श्रादिमद्धिभवो जो भावो जीवस्स सादपदी | सत्थाणं पयडीं बंधणजोगो विसुद्धलाद्धी सो ॥ ५ ॥ अर्थ - आदि ( प्रथम ) लब्धि होनेपर साताग्रादि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों के बन्धयोग्य जो जीवके परिणाम वह विशुद्धिलब्धि है । विशेषार्थ -- प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरित अनुभागस्पर्धकोंसे उत्पन्न हुआ साताआदि शुभकर्मो के बन्धका निमित्तभूत और असाताश्रादि अशुभकर्मोक बन्धका विरोधी जो जीवका परिणाम, वह विशुद्धि है उसकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है । ध. पु. ६ पृ. २०४ । घ. पु ६ पृ. २०४ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ६ अथानन्तर देशनालब्धिका स्वरूप कहते हैंछदवणक्पयत्योवदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो । देसिदपदस्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु ॥६॥ अर्थ-छद्रव्य और नवपदार्थका उपदेश देनेवाले मार्गशादिका लापट गथवा उपदेशित पदार्थोंको धारण करनेका लाभ, यह तृतीयलब्धि है । विशेषार्थ-जीब, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छहद्रव्योंके और जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थों के उपदेशका नाम 'देशना" है । उस देशनासे परिणत प्राचार्यादिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्ति के समागमको देशनालब्धि कहते हैं । गाथाके अन्त में 'दु' शब्द पाया है उसके द्वारा वेदनानुभव, जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, देवऋद्धि दर्शनादि कारणोंका ग्रहण होता है, क्योंकि इन कारणोंसे नैसर्गिक प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । जो प्रथमोपशमसम्यक्त्व धर्मोपदेशके बिना जिनबिम्बदर्शनादि कारणोंसे उत्पन्न होता है बह नैसर्गिकसम्यग्दर्शन है, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना नैसर्गिक प्रथमसम्यग्दर्शनका उत्पन्न होना असम्भव है । जिनबिम्बदर्शनसे निधत्ति और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्बदर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें कारण होता है । जिनपूजा, वंदना और नमस्कारसे भी बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होती है । सामान्यरूपसे भवस्मरण (जातिस्मरण) के द्वारा सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु धर्मबुद्धिसे पूर्वभवमें किये गये मिथ्यानुष्ठानोंकी विफलताका दर्शन प्रथमो• पशमसम्यक्त्वके लिए कारण होता है । १. घ. पु. ६ पृ. २०४ । २. "बाह्मोपदेशादते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्" [सर्वार्थसिद्धि १३ व राजवार्तिक १३१५] ३. जाइस्स जिरणबिंबदसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभावादो ( ध. पु. ६ पृ. ४३१) ४. ध. पु. ६ पृ. ४२७ । ५. घ. पु. १० पृ. २८६ । ६. घ. पु. ६ पृ. ४२२ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७ गाथा ७-८ ] लब्धिसार अब प्रायोग्यल ब्धिका स्वरूप कहते हैं अंतोकोडाकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउगल द्धिणामा भब्बाभब्बेसु सामण्णा ॥७॥ अर्थ-कर्मोकी स्थितिको अन्तःकोडाकोड़ी तथा अनुभागको द्विस्थानिक करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं । यह लब्धि भव्य और अभव्यके समानरूपसे होती है । विशेषार्थ-अंतःकोड़ाकोड़ीसागर कर्मस्थिति रह जानेपर संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तजीबके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता होती है । इस प्रायोग्यलब्धिमे इतनी विशुद्धता हो जाती है कि सर्वकर्मोकी उत्कृष्टस्थितिका काण्डकघातके द्वारा घातकरके अन्तःकोड़ाकोड़ीसारसाग रियसि कर देता है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोंके चतुःस्थानीय अनुभागको घातकरके द्विस्थानीयअनुभागमें स्थापन कर देता है अर्थात् घातियाकर्मोका अनुभागलता-दारुरूप और अप्रशस्त अघातियाकर्मोका अनुभाग निम्ब-कांजीररूप द्विस्थानगत शेष रह जाता है, किन्तु प्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभाग गुड़-खांड-शर्करा और अमृतरूप चतुःस्थानीय ही होता है, क्योंकि विशुद्धिके द्वारा प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका धात नहीं होता है । इन अवस्थाोंके होनेपर करण अर्थात् पंचम करपलब्धि होनेके योग्य भाव पाए जाते हैं । इतनी विशुद्धि भव्य सिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों प्रकारके जीवोंके हो सकती है; इसबातको बतलानेके लिए गाथा में 'भवाभन्वेसु सामण्णा' पद दिया है। इसमें किसी भी प्राचार्यको विवाद नहीं है । अथानन्तर प्रसंगप्राप्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणकी योग्यताका प्रतिपादन करते हैं जेवरदिदिबंधे जेट्टवरदिदितियाण सत्ते य । ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्म मिच्छजीवो हु ॥८॥ गाथार्थ- उत्कृष्ट अथवा जघन्यस्थितिबन्ध करनेवाले तथा स्थिति-अनुभाग व प्रदेश इन तीनोंके उत्कृष्ट या जघन्य सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टिजीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता। १. ध, पु. ६ पृ. २०६ एवं ध. पु. १२ पृ. १८६ ३५ । २ ध, पु. पृ. २०५ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा विशेषार्थ-जो सर्वपर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृष्टस्थितिबन्धके साथ उत्कृष्टस्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणामवाला है अथवा ईषत् मध्यमसंक्लेशपरिणामबाला है ऐसा कोई एक संज्ञीपंचेन्द्रियमिथ्यादृष्टिजीब सातकों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र व अन्तराय) के उत्कृष्टस्थितिबन्धका स्वामी है' । जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिकक्षपक अन्तिमबंधमें अवस्थित है, ऐसा सम्यग्दृष्टिजीव छहकर्मों ( ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र व अन्तराय ) के जघन्यस्थितिबन्धका स्वामी है। जो अनिवृत्तिकरणक्षपक अंतिमविपतिबन्ध में प्रवरिथन है वह मोहनीयकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । उत्कृष्टविशुद्धिके द्वारा जो स्थितिबन्ध होता है वह जघन्य होता है, क्योंकि सर्वस्थितियों के प्रशस्तभावका अभाव है । संक्लेशकी वृद्धिसे सर्वप्रकृतिसम्बन्धी स्थितियोंकी वृद्धि होती है और विशुद्धिकी वृद्धिसे उन्हीं स्थितियोंकी हानि होती है । असातावेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम संक्लेशित और साताके बंधनेयोग्य परिणाम विशुद्ध होते हैं । जो चत स्थानीय यवमध्यके ऊपर अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिको बांधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्टसंक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्टस्थितिका बन्ध किया है ऐसे किसी भी मिथ्यादष्टिजीवके उत्कृष्टस्थितिसत्त्व होता है । किसी भी क्षपकजीवके सकषायावस्थाके अन्तिमसमयमें अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमय में मोहनीयकर्मका जघन्यस्थितिसत्त्व होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मोका जघन्यस्थितिसत्त्व क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिमसमयमें होता है । चार अघातिया कर्मों का जघन्यस्थितिसत्त्व अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है, क्योंकि इन सर्वकर्मोंका वहां-वहां एकसमय मात्र स्थिति सत्त्व पाया जाता है । जो जीव उत्कृष्टअनभागका बन्ध करके जबतक उस अनुभागका घात नहीं करता तबतक वह जीव उत्कृष्ट अनभागसत्त्ववाला होता है । सकषाय क्षपकके अर्थात् दसवेंगुणस्थानके अन्तिमसमयमें मोहनीयकर्मका जघन्यअनुभागसत्त्व होता है। शेष तीन घातिया कर्मोका जघन्यअन्भागसत्त्व क्षीरगमोहगुणस्थानके अन्तिमसमयमें होता है और उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व गणित १. महाबन्ध पु. २ पृ. ३३ । ३. ध. पु. ११ पृ. ३१४ । ५. ज. प. पु. ३ पृ. १६ । ७. ज.ध. पु. ५ पृ ११। २. महाबन्ध पु. २ पृ.४० । ४. घ. पु. ६ पृ. १८० ६. ज. प. पु. ३ पृ. २०1 ८. ज.ध. पु. ५ पृ. १५ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा है-१० ] लब्धिसार [ { कर्माशिक के सातवें नरकमें चरमसमय में होता है । क्षपितकर्माशिकके दसवें गुरास्थानके अन्तिमसमय में मोहनीयकर्म का और. १२वे गुणस्थानके चरमसमय में तीनघातिया कर्मोंका जघन्य प्रदेशत्व है। विशेष जानने के लिए ध. पु. १० देखना चाहिए। स्वामित्वसम्बन्धी उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्कृष्टस्थितिबन्ध व उत्कृष्टस्थिति अनुभाग व प्रदेशसत्त्व उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीवके होता है जिसके उत्कृष्टसंक्लेशके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता तथा जघन्यस्थितिबन्ध व जघन्य स्थिति - अनुभाग- प्रदेशसत्त्व क्षपक रिग में होता है वहांपर तो क्षायिकसम्यक्त्व होता है । अब आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुखजीवके स्थितिबंधपरिणामोंकी कहते हैं सम्मतमुद्दमिच्छविसोहिवड्डीद्दि वडमाणो हु । अंतोकोडा कोडिं सतराई बंधणं कुणदी ॥६॥ अर्थ - विशुद्धिकी वृद्धिद्वारा वर्धमान तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव सातकर्मो का अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध करता है । विशेषार्थ - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख सभी मिथ्यादृष्टिजीव एककोड़ाकोड़ीसागर के भीतरकी स्थिति अर्थात् अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरोपमको बांधता है, इससे बाहर अर्थात् अधिकस्थितिको नहीं बांधता' । कहा भी है- स्थितिबन्ध भी इन्हीं अर्थात् बंधनेवाली प्रकृतियोंका अन्तः कोड़ाकोड़ीसाग रोपमप्रमारण ही होता है, क्योंकि यह अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रभिमुखजीव विशुद्धतरपरिणामोंसे युक्त होता है ' । प्रथानन्तर प्रायोग्यलब्धिकाल में प्रकृतिबंधापस रणको कहते हैंतत्तो उदधिसदस् य पुधत्तमेतं पुणो पुयोदरिय । बंधम्मि पडि बंधुच्छेदपदा होंति चोचीसा ॥ १० ॥ अर्थ — उससे अर्थात् अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर स्थितिसे पृथक्त्व सौ सागरहीन स्थितिको बांधकर पुनः पुनः पृथक्त्व १०० सागर घटाकर स्थितिबन्ध करनेपर प्रकृति बन्ध व्युच्छित्ति के ३४ स्थान होते हैं । १. ध. पु. ६ पृ. १३५ । २. ज. ध. पु. १२ पृ. २१३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] लब्धिसार [ गाथा ११-१५ विशेषार्थ--अन्तःकोडाकोड़ीसागरोपम स्थितिबन्धसे पृथक्त्व १०० सागरप्रमाण स्थितिबन्ध घटनेका क्रम इसप्रकार है-अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाग स्थितिबंधसे पल्यके संख्यात–भागसे होन स्थितिको अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समानता लिये हुए ही बांधता है, फिर उससे पल्यके संख्यातवेंभागहीन स्थितिको अन्तर्मुहूर्ततक बांधता है। इसप्रकार पल्यके संख्यातवेंभागहीन क्रमसे एकपल्यहीन अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरोपम स्थितिको अंतमुहर्ततक बांधता है तथा इसी पल्यके संख्यातवेंभाग हीन क्रमसे स्थितिबन्धापसरण करता हुमा दो पल्यसे हीन, तीनपल्यसे हीन इत्यादि स्थितिको अंतर्मुहर्ततक बांधता है । पूनः इसीक्रमसे आगे-पागे स्थितिबन्धका ह्रास करता हुआ एक सागरसे हीन, दो सागरसे हीन, तीन मायादसे हीन इमादि ऋगस सात-पाठसा सागरोपमोंसे हीन अंतःकोटाकोटीप्रमाण स्थितिको जिससमय बांधने लगता है, उससमय प्रकृतिबंध-व्युच्छित्तिरूप एकबन्धापसरण होता है। उपर्युक्त क्रमसे ही स्थितिबन्धका ह्रास होता है और जब वह ह्रास सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमित हो जाता है तब प्रकृति बन्ध व्युच्छित्तिरूप दूसरा बन्धापसरण होता है । यहीक्रम आगे भी जानना चाहिए' । आगे चौतिस प्रकृतिबंधापसरणोंको पांच गाथाओंके द्वारा कहते हैंभाऊ पडि णिरयदुगे, सुहुमतिये सुहमदोरिण पत्तेयं । बादरजुन दोगिण पदे, अपुरणजुद बितिचसगिणसगणीसु ॥११॥ भट्ट अपुरणपदेसु वि, पुरणेण जुदेसु नेसु तुरियपदे । एई दिय पादावं, थावरणामं च मिलिदव्यं ॥१२॥ तिरिगदुगुज्जोवो वि य, रणीचे अपसत्यगमणदुभगसिए । हुँडासंपत्ते वि य, णउंसए बामखीलीए ॥१३॥ खुज्जद्धं णाराए, इत्थीवेदे य सादिणाराए । णग्गोधवज्जणारा ए मणुओरालदुगवज्जे ॥१४॥ प्रथिरप्रसभ जस परदी, सोयप्रसादे य होति उत्तीमा। बंधोसरणटाणा, भवाभब्वेस सामण्णा ॥१५॥ १. यह विशेषार्थ ल. सा. की संस्कृतटीकाके आधारसे लिखा है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५ ] लब्धिसार अर्थ-आयुबन्धव्युच्छित्ति स्थानोंके पश्चात् क्रमशः नरकद्विक, सूक्ष्मादि तीन, सूक्ष्मादि दो व प्रत्येक, बादर-अपर्यान-साधारण, बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक, अपर्याप्तद्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-त्रीन्द्रिय, अपर्याप्तचतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय, अपर्याप्तसंजीपंचेन्द्रिय ॥११।। पाठ पदोंमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिए, किन्तु चतुर्थपद एकेन्द्रिय-प्रातप-स्थावर भी मिलाना चाहिए । अर्थात् ( पूर्वोक्त छठे पदसे १३३ पदतक ८ पदोंमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिए)। तिर्यञ्चद्विक व उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्तविहायोगति और दुर्भगादि तीन ( दुर्भग-दुःस्वर-अनादेय ), हुण्डसंस्थान-सृपाटिकासंहनन, नपुंसकवेद, वामनसंस्थान व कीलितसंहनन । कुब्जसंस्थानअर्धनाराचसंहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसंस्थान-नाराचसंहनन, न्यग्रोधसंस्थान-बननाराचसंहनन, मनुष्यगतिद्विक ( मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी )-औदारिकद्विक ( श्रौदारिकशरीर-औदारिकाङ्गोपाङ्ग)-ववर्षभनाराचसंहनन । अस्थिर-अशुभ-अयश कीति-अरतिशोक व असातावेदनीयकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । ये ३४ बन्धापसरगस्थान भव्य व अभव्य के समानरूपसे होते हैं । विशेषार्थ-सात-आठसौ सागरोपमसे हीन अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थिति को जिससमय बांधने लगता है उससमय एक नरकायु प्रकृति 'बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, उससे सागरोपमशत पृथक्त्व नीचे अपसरणकरके तिर्यञ्चायुकी बंधव्यच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यायुका बन्धव्युच्छेद' होता है तथा उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर देवायुको 'बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे नरकात और नरकगत्यानुपूर्वी इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ 'बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बावर-सम अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्परसंयुक्त इन तीनों प्रकृतियोंका युगपत् 'बन्धब्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येक परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंका 'बन्धव्युच्छेद होता है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बाबर अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंका 'बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर परस्परसंयुक्त बाबर-अपर्याप्त प्रत्येकशरीर इन तीनों प्रकृतियोंकी एकसाथ 'बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त द्वीन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंका बंध. व्युच्छेद युगपत् होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] लब्धिसार [ गाथा १५ श्रोन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंकी ''बन्धव्युच्छित्ति एकसाथ होती है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त चतुरिन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ ''बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर असंज्ञोपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्त परस्परसंयुक्त इन दोनों प्रकृतियोंका युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त संज्ञोपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंकी एकसाथ "बन्धसे व्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्पर संयुक्त सूक्ष्म-पर्याप्तसाधारण इन तीनों प्रकृतियों की एकसाथ बन्धव्युच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त सूक्ष्म-पर्याप्त-प्रत्येकशरीर ये तीनों प्रकृतियां युगपत् ''बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त बावर-पर्याप्त साधारणशरोर इन तीनों प्रकृतियोंका युगपत् 'बन्धसे व्युच्छेद होता है; उससे सागरोपमशतगृथत्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त बावर-पर्याप्त प्रत्येकशरीर-एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर इन छहों प्रकृतियोंकी 'बन्धव्युच्छित्ति युगपत् होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त द्वोन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ "बन्धब्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त त्रोन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ "बन्धव्युच्छेद होता है; उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त चतुरिन्द्रियजाति और पर्याप्त ये दोनों प्रकृतियां युगपत् 'बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होती हैं । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त असंजोपंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनों प्रकृतियोंकी युगपत् २२बन्धब्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर लियंचगति तियंचगस्यानपूर्थी और उग्रोत इन तीनों प्रकृतियोंका एकसाथ २३बन्धसे व्युच्छेद हो जाता है; उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर नोचगोत्रको बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपम शतपृथक्त्व नीचे उतरकर अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, दुःस्वर और अनादेय ये चारों प्रकृतियां "बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर हुण्डकसंस्थान व असंप्राप्तासुपाटिकासंहनन ये दो प्रकृतियां युगपत् बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर नपुंसकवेवका "बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर वामनसंस्थान और कोलितशरीरसंहनन ये दोनों Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५ ] পতিঘষাৰ [ १३ प्रकृतियां बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होती हैं । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचशरीरसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंका एकसाथ बंधव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्वं नीचे उतरकर स्त्रीवेक्षका "बंधुव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर स्वातिसंस्थान और नारायशरीरसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति युगपत् होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और वज्रनारायसंहनन ये दो प्रकृतियां युगपत् बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्थी, औदारिकशरीर-औदारिकशरीरअंगोपांग और बज्रर्षभनाराचसंहनन इन पांच प्रकृतियोंकी युगपत् बन्धव्युच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर प्रति-शोक, अस्थिर-अशुभ, अयशःकोति-प्रसातावेदनीय इन छहों प्रकृतियोंका युगपत् बन्धव्युच्छेदं होता है'। शंका--प्रकृतियोंके बन्धव्युच्छेदका यह कम किस कारणसे है ? ... समाधान-अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोंका अवस्थान माना गया है उसी पक्षासे यह प्रकृतियों के सन्धयुच्छेदला क्रम है । बन्धव्युच्छेदका यह क्रम विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टिजीवोंमें साधारण अर्थात् समान है, किन्तु जयधव लाकारने कहा है कि "जो प्रभव्योंके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिबन्धकी अवस्था में एक भी कर्मप्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती।" इसप्रकार इससम्बन्ध में दो मत हैं । इसीप्रकार ३४ स्थितिबन्धापसरगोंके सम्बन्धमें भी दो मत हैं-ध. पु. ६ प्र. १३६ से १३६ तक प्रत्येक बन्धापसरगामें सागरोपमशत पृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका क्रम बताया है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ. २२१ से २२४ तक मात्र सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका उल्लेख है। अन्तिम ३४ वें बन्धापसरणमें असातादेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीति इन छह प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके हो जाती है । यद्यपि ये प्रकृतियां प्रमत्त संयत गुणस्थानतक बन्धके १. ज. प. पु. १२ पृ. २२१ से २२५ एवं ध. पु. ६ पृ. १३४ से १३६ । २. ध, पु. ६ पृ. १३६-१३६ । ३. ज.ध. पु. १२ पृ. २२१ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] लब्धिसार [ गाथा १६-१८ योग्य हैं, तथापि यहां इनकी बन्धव्युच्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धयोग्य संक्लेशका उल्लंघनकर उनकी प्रतिपक्षात प्रवृतियों बन्ध की निमित्तभूत विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमें कोई विरोध नहीं'। इन उपर्युक्त प्रकृतियोंके बन्धसे व्युच्छिन्न होनेपर अवशिष्ट प्रकृतियों को सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य तब तक बांधता है जबतक वह मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके चरमसमयको प्राप्त होता है । उपयुक्त ३४ बंधापसरणोंमें से चारोंगतिमें कौन-कौनसे बंधापसरणस्थान होते हैं तो कहते हैं णरतिरियाणं श्रोषो भवणतिसोहम्मजुगलए बिदियं । तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥ ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण वीणया होति । स्पणादिपुढविछक्के सणकुमारादिदसकप्पे ॥१७॥ ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा । माणद कप्पादुरिमगेवेज्जतोत्ति भोसरणा ॥१८॥ अर्थ-मनुष्य और तिर्यचोंमें प्रोघ अर्थात् चौंतीसबन्धापसरण होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलमें दूसरा, तीसरा, अठारहवां और तेईसवां प्रादि दश व अन्तिम ३४वां ये १४ बन्धापसरण होते हैं | रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथ्वियोंमें और सनत्कुमार आदि दशकल्पों (स्वर्गों) में उपर्युक्त १४ बन्धापसरगों में से १८वां बंधाएसरग नहीं होता ( शेष १३ बन्धापसरण होते हैं ) अानतकल्पसे लेकर उपरिम नौवें ग्रंवेयकपर्यन्त उपर्युक्त १३ स्थानोंमें से दूसरा और २३वां बन्धापसरण नहीं होते (शेष ११ बन्धापसरण होते हैं)। विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मनुष्य व तिर्यंचोंके पूर्वोक्त ३४ बंधापसरण होते हैं जिनमें ४६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव तथा सातवें नरकको छोड़कर शेष छह पृथ्वीके नारकी जीवोंके १. २. ज.ध. पु. १२ पृ. २९४-२२५ । ध. पु. ६ पृ. १४० । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८ ] लब्धिसार [ १५ नहीं बंध नेवाली प्रकृतियोंका स्पष्टीकरणं इसप्रकार है-असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चारोंपायु, नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थानको छोड़कर शेष पांचसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, माहारशरीर अगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहननको छोड़ कर शेष - पांच संहनन,नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीति, नीचगोत्र, और तीर्थकर' । इनमेंसे अपनी-अपनी बन्ध-अयोग्य प्रकतियों को घटाकर शेष प्रकृति योंका बन्धापसरणों द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है। भवनत्रिक (भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष) देवों व सौधर्म-ऐशानस्वर्गके देवोंमें तिर्यगायु, मनुष्यायु, एकेन्द्रिय, प्रातप, स्थावर, तिथंचगति, ति यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, हुण्डकसंस्थान, असंप्राप्तासुपाटिकासंहनन, नपुसकवेद. वामनसंस्थान, कीलितसंहनन, कब्जकसंस्थान, अर्धनाराचसंहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसंस्थान, नाराचसंहनन, न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराचसंहनन, अस्थिर, अशुभ, अयश कीति, अरति, शोक, असातावेदनीय इन ३१ प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छिति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके होती है। प्रथमादि छहनरक और तृतीयस्वर्ग से बारहवेस्वर्गत कके जीवोंमें उपर्युक्त ३१ प्रकृतियोंमेंसे बन्धके अयोग्य एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंको कम करनेसे शेष २८ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति सम्यक्त्वके अभिमुखजीवके होती हैं । १३३ स्वर्गसे १६वें स्वर्ग तथा नौग्र बेयकतकके देवोंमें उपर्युक्त २८ प्रकृतियोंमें से बन्धके अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन चार प्रकृतियोंको कम करनेसे शेष २४ प्रकृतियोंको बन्धव्यच्छिन्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुग्त्रजीवके होती है। शंका-जिसप्रकार मनुष्य व तिर्यचोंके औदारिकशरीर और प्रौदारिकगंगोपांग इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उसीप्रकार उसी विशुद्धि में वर्तमान देव और नारकियोंके प्रौदारिकशरीर व अंगोपांगका बन्धव्युच्छेद क्यों नहीं होता ? __समाधान - सहकारीकारणरूप मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके उदयसे वजित अकेली (केवल) विशुद्धि औदारिकशरीर व औदारिकशरीरअङ्गोपाङ्गका बन्धव्युच्छेद १. ध. पु ६ पृ. १४१-४२ 1 एवं जयधवल पु. १२ पृ. २२५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १६ करनेमें समर्थ नहीं है, क्योंकि कारणसामग्नीसे उत्पन्न होनेवाले कार्यको विकलकारणसे उत्पत्तिका विरोध है । देव और नारकियोंमें प्रौदारिकशरीरादि प्रकृतियोंका ध्र वबन्ध होता है अतः उनकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती है । इसीप्रकार वज्रर्षभनाराचसंहननके विषयमें भी जानना चाहिए'। अब सातवीं नरकपृथ्वीमें बंधापसरणपदोंको कहते हैंते चेवेककारपदा तदिऊण। विदियठाणसंपत्ता । चउवीसदिमेण णा सत्तमिपुडविम्हि भोसरणा ॥१६॥ .. अर्थ-गाथा १८ में कहे गये ११ बन्धापसरणोंमें से तीसरा व २४वां बन्धापसरण घटानेपर तथा दूसरा बन्धापसरण मिलानेपर सातवीं नरकपृथ्वीमें १० बन्धापरण होते हैं । - विशेषाथ-सातवें नरकमें मनुष्यायु बन्धयोग्य नहीं है इसलिये तीसरा बंधापसरण कम किया गया है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवें नरकके नारकीजीवके नीचगोत्रकी बन्धव्यच्छित्ति नहीं होती। अतः २४वां बन्धापसरण भी कम किया गया है । मिथ्यादृष्टि सप्तमपृथ्वीस्थ नारकीके तिर्यंचायु बंधयोग्य है, किंतु प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके तिर्यंचायुकी बंधव्युच्छित्ति हो जाती है अतः दूसरा बंधापसरण मिलाया गया है । इसप्रकार सप्तमनरकमें १० बंधापसरण होते हैं, जिनके द्वारा २३ प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति होती है । सप्तमनरकमें बन्धयोग्य ६६ प्रकृतियां है, उसमेंसे २३ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर ७३ प्रकृतियां बन्धयोग्य शेष रह जाती हैं । इन ७३ प्रकृतियों में उद्योतप्रकृतिका बन्ध भजनीय है अर्थात् बन्ध होता भी है और नहीं भी होता है । यदि उद्योतप्रकृति बंधती है तो ७३ प्रकृतियोंका बंध होता है, यदि उद्योतका बन्ध नहीं होता तो ७२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । - शंका-तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंकी सातवें नरकमें बन्ध व्युच्छित्ति क्यों नहीं होती ? २. ज.ध.पु. १२ पृ. २२३; ध. पु. ८ प. ११०; गो. क. गा. १०७ । ३. गो. क. गा. १०५ से १०७ की टीका व मूल एवं ज.ध. पु. १२ पृ. २२५ । क. पा. सुत्त पृ. ६१६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०-२१ ] लब्धिसार [ १७ समाधान- नहीं होती, क्योंकि भवसम्बन्धी संक्लेशके कारण शेषगतियोंके बन्धके प्रति अयोग्य ऐसे सातवीं पृथ्वीके नारकी मिथ्यादृष्टिके तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रको छोड़कर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षस्वरूप प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है तथा विशुद्धिके वशसे ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्धब्युच्छेद नहीं होता, अन्यथा उस विशुद्धिके वशसे ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंक भी बन्धन्युच्छित्तिका प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा माननेपर अनवस्थादोष पाता है । प्रागे मनुष्य ष तियंचतिमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख मिथ्यावृष्टि जीवके द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंको तथा मनुष्यगतिमें अप्रमत्तगुणस्थान में बंधनेवाली २८ प्रकृत्तियों को दो गाथाओं में कहते हैं घादिति सादं मिच्छं कसायहस्सरदि भयस्स दुगं । अपमत्तड़वीसुच्चं बंधति विसुद्धणरतिरिया ॥२०॥ देवतसक्राणभगुरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइयं । सागमा दिदी पिर दिछरिणमिणमडवीसं ॥२१॥ अर्थ-विशुद्ध ( सम्यवत्वके अभिमुख प्रायोग्यलब्धिमें स्थित मिथ्यादृष्टि ) मनुष्य या तिर्यंच तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्म सातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भयद्विक ( भय-जुगुप्सा ), अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी २८ और उच्चगोत्रको बांधता है । देवचतुष्क, त्रसचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, समचतुरस्त्रसंस्थान, तैजसशरीर, कार्मराशरीर, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, स्थिरादि ६ और निर्माग्ग ये २८ प्रकृतियां अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी जानना । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख, प्रायोग्यलब्धिमें जिसने ३४ बन्धापसरणोंसे ४६ प्रकृतियोंकी बन्धन्युच्छित्ति कर दी है ऐसा विशुद्ध मिथ्यादृष्टि गर्भजसंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्ततिर्यच अथवा मनुष्य, पांचों ज्ञानावरणीय (मति-श्रत-अवधि१. रणवरि सत्तमपुढविणेरइयमस्सियूण तिरिक्ख गइ-तिरिक्खगइ पापोग्गाणुपुथ्वीउज्जोब-रणीचा मोदाणं बंधवाच्छेदो रास्थि । (ज.ध. पु. १२ पृ. २२३; गो. क. गा. १०७ ) तिरिक्खगईतिरिक्खगइपानोग्गाणुपुथ्वीणीचागोदारण... एस्थ धुवबंधित्तादो। (ध.पु. ८ पृ. ११०, ज,घ.पु. १३ पृ. २२६) २. घ. पु. ६ पृ. १४३-१४४ 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८ ] लब्धिसार [ गाथा २२ मनःपर्यय-केवलज्ञानावरण ) नौं दर्शनावरण ( चक्षु-चक्षु-अवधि-केवलदर्शनावरगा, स्त्यानगद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला) पांच अंतराय (दान-लाभ-भागउपभोग-वीर्यातराय ) इसप्रकार तीन घातियाकर्मोकी १६ प्रकृतियां, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरग-संज्वलन क्रोध-मान-मायालोभ ये १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भव, जुगुप्सा, देवगति, देवगत्यानुपूर्वां, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरअङ्गोपाङ्ग (देवचतुरक), अस, वादर, पर्याप्त. प्रत्येकशरीर (त्रसचतुष्क), वर्ण-न्धि-रस-स्पर्श (वर्गाचतुष्क), अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास (अगुरुलचुचतुष्क), सम चतुरस्र संस्थान, तेजमशरीर, कामगाशरीर, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यशः कीर्ति (स्थिरादिछह) निर्माण और उच्चगोत्र इन ७१ प्रकृतियोंको बांधता है । आगे देव-नरकतिम प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुख मिथ्यादृष्टि के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों को कहते हैं- . : तं सुरचउक्कहीणं णरच उबज्ज जुद पयडिपरिमाणं । , सुरछप्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधति ॥१२॥ अर्थ-उन (उपर्युक्त ७१ प्रकृतियों) में से देवचतुष्कको कम करके मनुप्य चतुष्क (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानपूर्वी, प्रौदारिकशरीर, औदारिक शरोरगंगोपांग) और वज्रर्षभनाराचसंहननको मिलानेसे इन ७२ प्रकृतियोंको, बन्धापसरण कर चुक नेपर मिथ्यादृष्टिदेव और प्रथमादि छह पृथिवियोंके. नारकी बांधते हैं। . विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव व प्रथम छह पृथ्वीके नारकी प्रायोग्यलब्धिमें बन्धापसरण करनेके पश्चात् इन ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं:पांचज्ञानावरग, नीदर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी प्रादि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मरणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरअंगोपांग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्ग्नानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त बिहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय ये ७२ प्रकृतियां हैं । १. घ. पु. ६ पृ. १३३-३४ । ज. प. पु. पृ. २११ । एवं प. २२५-२२६ । २. प. पु. ६ पृ. १४०-१४१ । ज.ध. पु. १२ पृ. २११-१२ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६ गाथा २३-२४-] लब्धिसोर अथानन्तर सप्तमपृथ्वीमें बन्धप्रकृतियोंको कहते हैं- . . तं परदुगुच्चहीणं तिरियदु णीवजुद पयडिपरिमाणं । उज्जोवेण जुदं वा सत्तम स्त्रिदिगा हु बंधंति ॥२३॥ अर्थ-उन (पूर्वोक्त ७२ प्रकृतियों) में से मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी ) और उच्चगोत्रको कम करनेसे तथा तिर्यंचगति द्विक (तियंगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी) व नीचगोत्रको मिलानेपर ७२ प्रकृतियां होती है। यदि उद्योतप्रकृति मिलाई जाती हैं तो ७३ प्रकृतियां हो जाती हैं। उन ७२ अथवा ७३ प्रकृतियोंको (प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख) सातवींपृथ्वीका मिथ्यादृष्टि नारकी बांधता है । _ विशेषार्थ- सम्यक्त्वके अभिमुख सप्तमपृथ्वीका मिथ्यादृष्टि नारकी बन्धापसरण कर चुकने के पश्चात् जिन ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करता है। वे इसप्रकार हैंपांचज्ञानावरण, नौ दर्शनावरगण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी प्रादि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक शरीरअङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचनत्यानुपूर्वी, प्रगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ. सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकोति, निर्माण, नीचगोत्र और पांचों अन्तराय ये ७२ प्रकृतियां हैं । उद्योत प्रकृतिको कदाचित् बांधता है और कदाचित नहीं बांधता है । यदि बांधता है तो ७३ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इसप्रकार सम्यवत्वके अभिमुखमिथ्या दृष्टिजीवके प्रकृतिबन्ध-प्रबन्धका विभाग समाप्त हुआ। अथानन्तर स्थिति अनुभागबन्धमेवका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडीठिदि असत्थाण सत्थगाणं च । - बिचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥२४॥ अर्थ-(सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि) बंधनेवाली प्रकृतियोंका स्थितिबंध अन्तःकोटाकोटीसागरोपमप्रमाण करता है । अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय अनुभागबंध करता है और प्रशस्तप्रकृतियोंका चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध करता है । १. घ. पु. ६ प. १४२-४३ । ज. प. पु. १२ पृ. २१२ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] लब्धिसार [ गाथा २५-२६ विशेषार्थ-गाथा २१-२२ व २३ में कही गई प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध अंतः कोड़ाकोड़ीसागरोपमप्रमाण ही होता है, क्योंकि सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव विशुद्धतर परिणामोरो युक्त होता है, इसलिए उसके इससे अधिक स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । अनुभागबन्ध भी अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय होता है, प्रशस्तप्रकृतियोंका चतुःस्थानीय होता है। आगे सम्यक्त्वके अभिमुख मिध्यादृष्टिके प्रदेशविभागको कहते हैंमिच्छणवीणति सुरचउ समवउजएसस्थगमणसुभगतियं । णीचुकास्तपदेसमणुक्कस्तं वा पबंधदि हु ॥२५॥ एदेहिं विहीणाणं तिणि महादंडएसु उत्ताणं । एकट्रिपमाणाणमणुकास्तपदेसंबंधणं कुणदि ॥२६॥ अर्थ---- मिथ्या, नानुवगोचतुष्क, स्त्यानगृद्धित्रिक, देवचतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रगस्तविहायोगति, सुभगादि तोन और नीच गोत्रका उत्कृष्ट व अत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता है । इन प्रकृतियोंसे रहित तीन महादण्डक अर्थात् गाथा २१-२२ व २३ में कही गई शेष ६१ प्रकृतियों का अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता है । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव जिन प्रकृतियोंको बांधता है उसका कथन तीन महादण्डक द्वारा किया गया है प्रथम महादण्डकमें मनुष्य व तिर्यचके बंधयोग्य प्रकृतियोंका कथन है, द्वितीय महादण्डकमें देवों व प्रथमछहनारकियोंके बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन है । तृतीय महादण्डकमें सप्तमपृथ्वीके नारकी द्वारा बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन हैं । निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला. स्त्यानग द्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभ, देवगति-देवगत्यानपुर्वी, वैक्रियिकशरीरवैक्रियिकशरीरअंगोपांग, वज्रर्षभनाराच-संहनन, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और नीचगोत्र इन १६ प्रकृनियोंका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । पांच जानावरणीय, छहदर्शनावरगीय, सातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभरूप १२ कषाय, पुरुपवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पचेन्दिप्रजाति, औदारिकशरीर, तंजसशरीर, १. ज.ध. पु. १२ पृ. २१३; प. पु. ६ पृ. २०६-१० । २. ध.पु.६ पृ. १३३-३४; १४०-४१-४२-४३ । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : , गाथा १७ 1 अम्बिसार [ २१ कार्मणशरीर, श्रदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तियंचगत्यानुपुर्वी, मनुष्यगत्यानुपुर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचनन्तराय ( दान-लाभभोग-उपभोग और वीर्य ) इन ६१ प्रकृतियोंका श्रनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध होता है' । - उक्त तीन महादण्डकों में कथित प्रपुनरुक्त प्रकृतियों को कहते हैंपढमे सब्वे विदिये पण तिदिये चड कमा अपुगुरुत्ता । हृदि पयडीएमसीदी तिदंडएसु वि पुणरुत्ता ||२७|| अर्थ - क्रमशः प्रथमदण्डकमें सर्वप्रकृतियां, द्वितीयदण्डकमें पांचप्रकृतियां और तृतीयदण्डकमें चारप्रकृतियां, इसप्रकार तीनों दण्डकों में सर्व ८० प्रकृतियां अपुनरुक्त हैं । विशेषार्थ - प्रथमदण्डक ( गाथा २० ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिमनुष्य व तिर्यंचों के बन्धयोग्य ७१ प्रकृतियोंका नामोल्लेख है; ये ७१ प्रकृतियां प्रपुनरुक्त हैं, क्योंकि ये प्रकृतियां प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं । द्वितीयदण्डक ( गाथा २२ ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख मिथ्यादृष्टिदेव व प्रथमादि छह पृथ्वियों के नारकसम्बन्धी बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियोंका कथन है। इन ७२ प्रकृतियोंमें ६७ प्रकृतियां तो प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रदारिकशरीर, श्रदारिकअङ्गोपाङ्ग, वज्र भनाराचसंहनन ये पांच प्रकृतियां प्रथमदण्डकसम्बन्धी नहीं हैं, अतः पुनरुक्त हैं । तृतीयदण्डक ( गाथा २३ ) में ६६ प्रकृतियां तो द्वितीयदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत ये चार प्रकृतियां प्रथम व द्वितीयदण्डक में नहीं हैं अतः पुनरुक्त हैं । तृतीयदण्डक में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवीपृथ्वीके मिथ्यादृष्टि नारकोसम्बन्धी बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन है और सातवीं पृथ्वीका उक्तनाव निरन्तर तिर्यंचगतिश्रादि प्रकृतियों का बन्ध करता है । इसप्रकार प्रथमदण्डककी सर्व ७१. द्वितीयदण्डककी ५ प्रकृति तथा तृतीयदण्डककी ४ ये सर्बभिलकर (७१+५+४) ८० प्रकृतियां पुनरुक्त कहीं गई हैं । इस प्रकार प्रथनसम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्धमिध्यादृष्टिके प्रकृति-स्थितिअनुभाग और प्रवेशोंके बन्ध-प्रबन्धरूपभेद को कहकर उसीके उदयका कथन करते हैं १. ज. ध. पु. १२ पृ. २१३ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २८ उदबे पउदसघादी णिहापयलाणमेक्कदरगं तु । मोहे दस सिय णामे वचिठाणं सेसगे सजोगेक्कं ॥२८॥ अर्थ-तीन घातियाकर्मोंकी १४ प्रकृतियां, निद्रा या प्रचलामें से कोई एक, मोहनीयकर्मकी स्यात् (कथंचित्) १० प्रकृति, नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमें उदययोग्य प्रकतियां और शेष देदनीय, योग द अयुगकी एक-एक प्रकृति भी मिला लेना चाहिए । ये सर्वप्रकृतियां उदययोग्य हैं। विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चारोंगतिसम्बन्धी मिथ्यादृष्टिजीवके सर्व मूल प्रकृतियोंका उदय होता है तथा उत्तरप्रकृतियोंमें से पांचज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, पांचगंतराय ये (५+४+५) १४ प्रकृतियां, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रिवजाति, तैजस शरीर, कार्मरणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपधात, परघात, उच्छ. बास, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे उदय होता है, क्योंकि यहांपर इन प्रकृतियोंका ध्रुव उदय होता है । साता व असातावेदनीयमें से किसी एकका उदय होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां परावर्तमान उदयस्वरूप हैं' । मोहनीयकर्मकी १०-६ अथवा ८ प्रकृतिका उदय होता है । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभमें से कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक, संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक (क्रोधादिमें से जिसकषायका उदय हो, अनन्तानुबन्धीमादि चारोंमें उसी कषायका उदय होगा) स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद इन तीनों वेदों में से कोई एक, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलोंमें से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा ; मोहनीयकर्मकी ये १० प्रकृतियां उदयस्वरूप होती हैं । इन १० प्रकृतियोंमें से भय या जुगुप्सा (किसी एक) को कम कर देनेसे मोहनीयकर्मकी । प्रकृतियां उदयस्वरूप रह जाती हैं। इन्हीं १० प्रकृतियों में से भय और जुगुप्सा इन दोनों प्रकृतियोंको कम कर देनेपर मोनीयकर्मकी आठ प्रकृति यां उदयस्वरूप रह जाती हैं । चारों आयुअों में से किसी एक आयुकर्मका उदय होता है, १. ज. प. पु. १२ पृ. २१५-१६ । यस्माच्च- वेदरणीयस्स सादासादारणं रत्थि उदएण झीणदा। (ज. ध, पु. १२ पृ. २२७) २. ध पू. ६ पृ. २११ । गो. क, ४७५ से ४७६ एवं प्राकृतपंचसंग्रह सप्तति प्र. पृ. ३२५ गा. ३६ तथा ध. पु. १५ पृ. ८२-८३; ज. प. पु. १२ पृ. २३० । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८ ] लब्धिसार [ २३ क्योंकि ये चारों पृथक्-पृथक् प्रतिनियत गतिविशेषसे प्रतिबद्ध हैं इसलिए तदनुसार ही उस-उस प्रायुकर्मके उदयका नियम देखा जाता है । चारगति, दोशरीर, छहसंस्थान और दो अंगोपांग; इनसे अन्यतर एक-एक नामकर्म प्रकृतिका उदय होता है। छहसंहननों में से कदाचित किसी एक-एकका उदय होता है और कदाचित् उदय नहीं होता। यदि मनुष्य या तियंच प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी एक संहननका नियमसे उदय होता है। यदि देव या नारकी प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी भी संहननका उदय नहीं होता। उद्योतका कदाचित् उदय पाया जाता है; क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यंचोंम किन्हींके उद्योतका उदय होता है। दो विहायोगति, सुभगदुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, श्रादेय-अनादय, यश काति पार अयशःकीर्ति इन पांच युगलोंमें से किसी एक-एक प्रकृतिका उदय होता है अर्थात् इन पांच युगलों में से प्रत्येकयुगलकी किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। यह प्रकृतियोंके उदयसम्बन्धी कथन चारोंगतिकी अपेक्षासे है। आदेशको चारोंगतियों में जो विशेषता है वह इसप्रकार है-चारों आयुओं में से जिसगतिमें जो आयु अनुभव की जाती है उस आयुका उसगतिमें उदय होता है। नरकगति व तिर्यंचगतिमें नीचगोत्रका ही उदय है,' मनुष्यगतिमें नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेंसे एकका उदय है। और देवगतिमें उच्चगोत्रका ही उदय है । नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैऋियिकशरीर, तेजसशरीर, कामगशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, अप्रंशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुभग, अनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण ; नाम-नर कर्मकी इन २६ प्रकृतियों का उदर होता है। यदि तिर्यंच है तो तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर. कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, छह संहननों में से कोई एक. त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतिमें से कोई एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमें से कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमें से कोई एक, आदेय-अनादेयमें से कोई एक. यशःकीति-अयश कीतिमें से कोई एक और निर्माण । नामकर्मकी इन ३० या ३१ प्रकृतियोंका उदय होता है । १. २, ३. ध पु. १५ पृ. ६१ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] लब्धिसार [ गाथा २६-३० यदि मनुष्य है तो उपर्युक्त ३० प्रकृतियों में तिर्यंचगतिके स्थानपर मनुष्यगतियुक्त ३० प्रकृतियोंका उदय होता है । मनुष्योंमें उद्योतका उदय सम्भव नहीं है अतः नामकर्मकी ३१ प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । यदि देव है तो देबगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मरणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परयात. उच्छन स, प्रशासविहायोगति, अस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश:कीति और निर्माण ; नामकर्मकी इन २६ प्रकृतियोंका उदय होता है'। उपर्युक्त गाथामें तथा ध. पु. ६ पृ. २१० पर निद्रा और प्रचला किसी एकके उदय के साथ दर्शनावरणीय कर्मकी पांचप्रकतियोंका उदः बतलाया है, किन्तु ज. प. पू. १२ प. २२७ पर पांचों निद्राकी उदयव्युच्छित्ति कही गई है, क्योंकि साकारोपयोग और जागृत अवस्थाविशिष्ट दर्शनमोह-उपशामकके पांच निद्रादिके उदयरूप परिणामका विरोध है । इसप्रकार निद्रा व प्रचलाके उदय में दोमत है । एकमत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार करता है, दूसरा मत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार नहीं करता । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके निद्रादि पांचदर्शनावरण, चारजातिनामकर्म, चारों आनुपूर्वी नामकर्म, जाप, स्थावर, सूक्ष्म, अपयप्ति और साधारणशरीर, ये प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न होती है । अथ प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख विशुद्ध मिथ्याष्टिके उपययोग्य प्रकृतिसम्बन्धी स्थिति व अनुभागका तथा प्रदेशोंको उदय-उदोरणाका कथन करते हैं-- उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्त वेदगो होदि । विच उट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥२६।। अजहरणमणुक्करस्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु । उदयिल्लाणं पय डिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥३०॥ १. ज. ध. पु. १२ पृ. २१६-२२० । गो क. गा. ५६५-५६७ व ३०३-३०४ । अत्र भाषापर्याप्तिस्थाने __उदयागतप्रकृतिकथनं वर्तते । २. ज.ध. पु. १२ पृ. २२६-३० । ३. ज.ध. पु. १२ पृ. २२६-२७ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिर ![* अथवा उदय प्त होनेपर एक स्थितिका वेदकj होता है प्रशस्त प्रकृतियों के द्विस्यानरूप और प्रशस्तप्रकृतियोंके चतुःस्थानरूपं उदयमा मुशलको भोगता है । उक्यप प्रकृतियों के प्रजापत्यं यनुत्कृष्टप्रदेमाको अनुभव करता उदयस्वरूप मत्रियों के प्रति प्रवेशा स्थिति वाग्रनुभागका उदीरक होता है PP [] ST विशेषार्थं प्रथमापशमसम्यक्त्वकै अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव के जिन प्रकृतियों का उदय है, उन प्रकृतियों की स्थितियसे उदयमें ट्रेविष्ट एकस्थितिका वेदक होता. तथा क्षषस्थितियोंकों के वैदक होता है। उक्त जीवके जिन अप्रशस्तप्रकृतियोंका उदय होता है उनके लेता-दारुरूप अथवा निम्ब- काजीररूप द्विस्थानीय अनुभागका वेदक होता है। उदयमें फ्राई हुई प्रतिके तियोके चतुः स्थानीय अनुभाग को वेदक होता उदयागत प्रकृतियोंके अजघन्य- अनुत्कृष्टप्रदेशों को वैदक होता है । जिन प्रकृतियों की विक होता है, उन प्रकृतियों के प्रकृति स्थिति और प्रदेशोंकी उदीरणा करता है । FIF 1 TT 1f", -- " Ta शंका उदय और उदीरणाम क्यों अन्तर है ? 15037 17 207 77 : F L 31 समाधान – जो कर्मस्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षादि प्रयोग के बिना, स्थितिका को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कन्धोंकी 'उदय' संज्ञा है ( जो महान् स्थिति और अनुभागमें अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकृषित करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी उदीरणा' संज्ञा है। क्योंकि, अपक्व कर्मस्कन्धके पाचन करने को उदीरणा कहते हैं' । ध प ६ पू. २१३ पर अन्य अनुत्कृष्टृप्तदेशोंका उदय कहा हैं. किन्तु ज. अ. पु. १२ प २२६ पर अनुत्कृष्ट प्रदेशपिण्डका उदय कहा है । fa उदय उदीरणाका कथन करने के अनन्तर को कहते हैंदुति भाउ तिस्थहारच उक्कणा सम्म गेण हीणा वा । मिस्सेगुणा वा वि य सब्वे पपड़ी हवे सत्तं ॥ ३१ ॥ F → FREE. 7:3 KEVIN T श्रर्थ–दो या तीन श्रयु, तीर्थकर और आहारकचतुष्क, इन प्रकृतियोंसे रहित तथा सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वबिना शेष सर्वप्रकृतियोंका सत्त्व होता है । विशेषार्थ -- प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव यदि अद्वायुष्क है तो उसके भुज्यमान आयुके बिना तीन आयुका सत्त्व नहीं होता । यदि वह जीव ०२. FL TR Re IT १. ध. पु. ६ पृ. २१३-१४ F7 9 FE 17 : = 11 ! י ז: 1 -1751 + ܕ ૪ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ 1 लब्धिसार [ गाथा ३१ बद्घायुष्क है तो उसके भुज्यमान व बद्धयमानायुके बिना शेष दो आयुका सत्त्व नहीं होता । जिसने दूसरे या तीसरे नरककी आयुका बन्ध करनेके पश्चात् तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध किया है वह जीव एक अन्तर्मुहुर्त के लिए मिथ्यात्वमें जाता है' पुनः बेदकसम्ययत्व प्राप्त कर लेता है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवेंभागपर्यन्त वेदकसम्यक्त्वका उत्पत्तिकाल है । वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकालके पश्चात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वका ग्रहण हो सकता है । आहारकचतुष्कके उद्वलनाकालसे वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकाल बड़ा है अतः श्राहारकचतुष्कको उद्वलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख किसी जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका सत्त्व नहीं होता और किसी जोत्रके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति इन दोनों ही का सत्त्व नहीं होता अथवा दोनोंका सत्त्व होता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके आठों ही मूलप्रकृतियोंका सत्त्व होता है । उत्तरप्रकृतियोंमें भी ज्ञानावरणको पांच, दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, १६ कषाय और नव नोकषाय ये छब्बीस प्रकृतियां सत्कर्म रूपसे होती हैं, क्योंकि अनादिमिय्यादृष्टि तथा २६ प्रकृतियोंके सत्कर्मवाले सादि मिथ्यादृष्टिके इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादिमिथ्यादष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिके बिना मोहनीयकर्मकी २७ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलनाकरके उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उनके होने में कोई विरोध नहीं है । अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ २८ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती है, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्यकालको उल्लंघकर जिसने सम्यक्त्वप्रकृतिको पूर्णरूपसे उद्घ लना नहीं की है, ऐसे उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके उक्तप्रकारसे २८ प्रकृतियों का सद्भाव देखा जाता है। आयुकर्मको एक या दो प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती हैं । जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध किया है, उसके प्रायुकर्मक्री को प्रकृतियां होती हैं और जिसने परभवसम्बन्धी प्रायुका बन्ध नहीं किया, उसके भुज्यमानायुकी एकप्रकृति होती है । नामकर्मकी चारगति, पांचजाति, औदारिक-वैक्रियिक-तैजस व कार्मणशरीर, १. भ. पु. ८ पृ. १०४-प्रथमपृथिव्यां तोयंकरप्रकृतियुक्तमिथ्यात्वीनारकीनामभावः । २. गो. क. गा. ६१५। ३. गो. क. गाथा ६१५ तथा घ. पु. ५ पृ. ६-१० और ३३-३४ । ४. गो. क, गा. ६१३ तथा ज.ध. पु. १२५, २०६ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२ ] लब्धिसार [२७ इन्हीं शरीरोंके बन्धन और संघात, छहसंस्थान, आहारकशरीरांगोपांगके बिना दो अङ्गोपाङ्ग, छहसंहनन, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, चारोंमानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, प्रस-स्थावगदि १० युगल और निर्माण ये प्रकृतियां सत्कर्मरूप हैं। गोत्रकर्मकी नीच-उच्चगोत्ररूप दो प्रकृतियां सरकर्मरूप है, सम्मा अन्तरक की जांगों का सत्कर्मरूप हैं । इन प्रकृतियोंका प्रकृतिसत्कर्म है; शेष प्रकृतियोंका नहीं है। शंका-पहल उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरवा बन्धकरके पुनः मिथ्यात्व में जाकर नत्यायोग्य पाल्यक. आमच्यातव भागप्रमाण पालक 11 आशगसम्यक्त्वा प्राप्त हानवान्न जीवके श्राहारक दिकका सत्कर्म यहां क्यों नहीं उपलब्ध होता? समाधान-आहारका द्विवका सत्कर्म उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि याहारकशरीरको उलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नहीं होती । वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीरका उद्घ लनाकाल स्तोक है ऐसा परमागम का उपदेश है । अथानन्तर सत्कर्मप्रकृतियोंके स्थितिआदि सत्कर्मके कथन पूर्वक प्रायोग्यतालयिका उपसंहार करते हैं... अजहरणमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥ अर्थ--उक्त सत्त्वप्रकृतियोंका स्थितित्रिक (स्थिति-अनुभाग-प्रदेश) अजघन्यनयाद होता है । बन्धादि (वन्व-उदय-उदीरत्पा) प्रत्येकमें इसीप्रकार प्रकृतिचतुक ::.. | यति-अनुभाग-प्रदेश) निगा लेना चाहिए । विशेषार्थ-आयुकर्मके अतिरिक्त इन्हीं उक्त प्रकृतियोंका स्थिति-सत्कर्म अंतःकोड़ाबाड़ीसागर जाना है। लायुकर्मका तत्यायोग्य स्थितिसत्कर्म होता है । पाचशानावरण, नौदर्शनावरणा, असानावेदनीय, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नवनोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रियादि चारजाति, पांचसंस्थान, पांचसंहनन, अप्रशस्तवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त १. ज. प. पु. १२ पृ. २०७-२०८-२०६ । गो. क. गाथा ६१४-१५ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] लविपरीत घा ३३ विहायोगति, स्थावर सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर अस्थिर, अणुभ, दुर्भन दुःस्वर अतिदय, अयश कीति, नीचमार और पांचनन्तरसय ना अप्रशस्तनकोका द्विस्थानीय १ वाम या लिम्बकमजोर).. अनुभागसत्कर्म होता है। साताबरनाथ, मनुष्यति दवान, पंचेन्जिाति, भावनिक गर, विराजतगरी कामगार तथा जहा बाय . अर संधान : रापचासससकाना' औदारिकशरीरांगावांग, त्रिपिकशरीरागापांग, अरमनागवनंदनन प्रशम्नवर्णचतुष्क, मनुष्मस्थानुपूर्वी, देवावामी , यालय, परवार, ३वास, प्रातप, उन्धान, प्रशस्वविहायोगति, अस, दर. पात, अन्य शरीर, स्थिर, शुम, सुभम सुस्मा सादा यशाकशि निलग, 411 प्रशस्तप्रकृतियाका चतु:स्थानासयन मागसम होता हैं । .., जिन प्रतानियों का सत्याग . का अजमाय-अनुकृष्ट अशा .1.II ,IE: -:..:. . अब क्रमप्राप्त करणलब्धिको कहते है-Fol. . AFFIPR । तत्तो अभबजोगं परिणाम बोलिऊण भयो । .............. . .. ... .. करण करेदि कमसो अधापवत्तं अपुवमणियि ॥३३॥ : Mira .. अर्थ, उसके पलात्, अर्थात् मायोग्कलानिधो परमात्म भव्यके योग्य परिणामाको उल्लंघकर भव्यजीव क्रमशः अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकारण और अनिवृतिक करणको करता है, . It : विशेषार्थ----गुरुपदेशके बलसे अथवा, इसके बिना भी अभव्यजीवांके योग्यविशुद्धियोंको व्यतीत करके भव्यजीयोवे. योग्य अधःप्रवृत्तकरण संज्ञावाली विद्धि में भव्यजीव परिणत होता है। जिस परिणामविशेषके द्वारी दर्शनमोहका उपशमादिरूप विवक्षितभाव उत्पन्न किया जाता है वह विशेषपरिणाम करण कहा जाता है, . . I पर . ..FHF) शंका–परिणामोंकी 'करण' यह संज्ञा कैसे है ? '। ' समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि असि ( तलवार ) और वासि (बभूला) के समान गाधकतमभावकी विथक्षा परिणामों के करणेपना पाया जाता है । |FT. T ir li, : ..:-. । १. जि. ध पु. १२ पं. २०४-२१०। . .: . ..: .:.::FFIFI ....... ... TARE] ३. ज. प. पु. १२ पृ. २६३ । ४. घ. पु. ६ पृ. २१७ । घ. पु. १ प. १८१ । । । । ..- . . । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४.३ विसाह . ... बह करण यहां तीनप्रकारका होता है । प्रथम अधःप्रवृत्त करण, द्वितीय अपूर्वकरण और तृतीय अनियति पाए । से तीनोंकाना . मश: होते हैं' ।। अर्थात् प्रथमोपशमुसमयक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृसिकरणके भेदसे तीनप्रकारकी विशुद्धियां होती हैं । .... आगे तीनोंकरणोंके कालका अल्पबहुत्वसहित कथन करते हैं. अंतीमुहुत्तकाला तिरिणवि करणा हवंति पत्तेयं । . उवरीदो युणियकमा कमेण संखेजरूषेण ॥३॥ .. अर्थ-तीनों वारणों में से प्रत्येककरणका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण. काल होता है, किन्तु उपरसे नीचके कारणों का काल संख्यातगुणा क्रम लिये हुए है.. F... . . विशेषार्थ- अक्षाप्रयुत कारगा, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों कारागों में से प्रत्येकः काका काल अन्तर्मुहूर्त है। इसमें भी अतिवृत्तिकरणका काल 11. है, गरी मामाच्या या काल है, उससे संख्यातगुणा ससकरणका कारन । बटुन पद हैं । . . . . असामानर अधःप्रवृत्तकरणका निरुक्तिपूर्वक कथन करते हैं 'जम्हा हटिमभावा उरिमभावहिं सरिसगा होतिः। नम्हा पढमं करणं भधापवत्तोत्ति णिदिट्ठ ॥३५।। अर्थ-क्योंकि अबस्तन (नीचके) भाव उपरितनभावोंके साथ साग ।। है. अतः प्रथमकरणको अधःप्रवृत्तकरण कहा गया है। ... ' विशेषार्थ-प्रथमकरणाम विद्यमानजीवके करणपरिणाम अर्थात् उपरितन समयके परिणाम (पूर्व) समयके परिणामोंके समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवन । नकरण में उपशिगसमयके परिणाम नीने" समपाम भी पाय जाने है, क्योंकि 1 . २. ध. प. ६ प ५१४ ; ज. ध पृ. १२ पृ २३३; क. पा. सु. पृ. ६२१ । ३. व पान | २। १. वि बन पा... . ..गचिता गम्भटसारजीवकाण्डे (गाथा ४८) । . ५. ज. प. पु. १२ पृ. २३ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ माथा ३६-३७ उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधः अर्थात् अधस्तनसमयवर्ती परिणामाम समानताको प्राप्त होते हैं मनः प्रयःप्रवृन यह गंज्ञा गार्थक है'। आगे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके स्वरूपका निरूपण करते हैं'समए समए भिरणा भावा तम्हा अपुवकरणो दु । 'मणियट्टीवि तहवि य पडिसमयं एक्कपरिणामो ॥३६॥ अर्थ-प्रतिममय भिन्न भाव होते हैं इसलिये यह भपूर्वकरण है और प्रतिसमय एक समान ही परिणाम होते हैं ग्रह दह मनिवृत्तिकरण है । विशेषार्थ-जिस करण में प्रतिसमय अपूर्व अर्थात् असमान व नियमसे अनन्तगुणरूपसे वृद्धिंगत करग अर्थात् परिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण है । इसकरण में होनेवाले परिणाम प्रत्येक समयमें असंख्यातलोकप्रमाण होकर भी अन्यसमयमें स्थित पंरिणामोंके सदृश नहीं होते यह उक्तकथनका भावार्थ है। जिसकरण में विद्यमान जीवोंके एकसमयमें परिणाम भेद नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है । अनिवृत्तिकरणमें एक-एक समयमें एक-एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहां एक समय में जघन्य व उत्कृष्टशेदका अभाव है । एकसमयमें वर्तमानजीवोंके परिणामाको अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहां नहीं होती के परिणाम अनिवृत्तिकरगण कहलाते हैं। आगे अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशेष कथन ५ गाथाओं में करते हैंगुणसेढी गुणसकम ठिदिरसखंडं च णस्थि पदमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवडीहिं बढदि हु॥३७॥ १. घ. पु. ६ प. २१७ । २. गो. जी. गा. ५१; प्रा. पं. सं. प्र. १ गा.८; घ. पु. १ पृ. ६३।। ३. 'होति अणिय दिरणोते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा' गो. जी. गा. ५७; ध. पृ. १ प. १८६; घ. पु. ६ पृ. २२; प्रा. पं. सं. अ. १ मा. २२ ४. क. पा. सुत्त पृ. ६२१ । ५. ज.ध. पु. १२ पृ. २३४ । ६. ज.ध. पु. १२ पृ. २६४ । ७. प. पु. ६ पृ. २२१ । ८. ध. पु. ६ पृ. २२२ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३८-४१ ] लब्धिसार सस्थाणमसस्थाणं पठविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ।।३८॥ पल्लस्स संखभागं मुहुत्तअंतेण भोसरदि धंधे । संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्मि भोसरणा ॥३६॥ मादिपकरणहार परमदिदिबंधो दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीणो ठिदिवंधो होइ णियमेण ॥४०॥ तरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिबजमाणगस्स वि संखेज्जगुरणेण हीणकमो ॥४१॥ अर्थ-प्रथम ( अधःकरण ) में गुणवे रिंग, गुरगसंक्रमण, स्थितिखण्ड और अनुभागखण्ड नहीं होते, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिमें अनन्तगुणीवृद्धिद्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है । प्रशस्तप्रकृतियोंका चतुःस्थानीय (गुड़, खांड, शर्करा और अमृत) अनुभागबन्ध होता और अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय (लता-दारु या निब-कांजीर) अनुभागबन्ध होता है । प्रतिसमय प्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तगुणे क्रम सहित बन्ध होता है और अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनन्तवेंभागप्रमाण अनुभागबन्ध होता है। तथा एक-एक अंतर्मुहूर्तके अन्तरालसे पल्यका संख्यातवांभाग घटता हुआ स्थितिबन्ध होता रहता है । अधःप्रवृत्तकरणकाल में संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण होते रहते हैं । अधःप्रवृत्तकरणके आदिमें जो प्रथम स्थितिबन्ध होता है तथा अन्तमें नियमसे उससे संख्यातगुणाहीन स्थितिबन्ध होता है । इस चरम स्थितिबन्धसे देशसंयमसहित प्रथमोपणमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । इसस्थितिबन्धसे सकलसंयमसहित प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके संख्यातगुणाहीन स्थितिवन्ध होता है । विशेषार्थ-यद्यपि यह जीव अधःप्रवृत्तकरणकालमें प्रत्येक समय में अनंतगुणी विशुद्धिसे अत्यन्तविशुद्ध होता जाता है तथापि स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघातके पोग्य विशुद्धिको प्राप्त नहीं होता है । इसलिए अधःप्रवृत्तकररणभावमें विद्यमान इसके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता' । अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकधात, अनुभागकाण्डकघात, गुणवेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता, क्योंकि इन अधः १. ज. ध पु. १२ पृ. २३२ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ]] सम्धिसार पथा-४२प्रवृत्तकरणपरिणामोंमें पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करनेकी शक्तिक-(विशुद्धिका) अभाव है; मात्र अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमग्र विशुद्धिको प्लान होता हुआ यह जीव अप्रशस्तकर्मोके द्विस्थानीय (नींब-काजीर) अनुभागको प्रतिसमय अनंतशाहीन बांधता है और प्रशस्तकर्मोका गड़-खांड-शर्करी प्रमतरूप चतुःस्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुरणाअनन्तगुणा बांधती है'! अंधःप्रवृत्तकरणकालमें एक स्थितिबंधका काल अन्तर्मुहर्तमात्र है। एक-एक स्थितिबन्धका काल पूर्ण होनेपर पस्योपमो संख्यातवेंभागसे हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है । इसम्मकार संख्यातसहस्रबार स्थितिधापसरण हो जानेपर अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है,। अधःप्रवृत्तकरणके थमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्धसें. उसीका अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । यहींपर (अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयमै) प्रथमोपशमसम्यवके अभिमुखजीबके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित संयमासयमके अभिमुख जीवका . स्थितिबन्ध' संख्यातगुणाहीन होता है, इससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित सकलंसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणं के चरमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगणाहीन होता है । ! ... :: ....:- - . . :. :. ::. : अब ८ गांथानोंमें अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी अनुकृष्टि और अल्पब हुत्व इन दो अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं. ..... .. . . . . . . . . . . . : . मादिमकरणद्धाए पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । . . .. . ...अहियकमा हु विससे मुहत्तअंतो हु'पडिभागो ॥४२॥ . . ताए अंधापवत्तद्धाए संखेजभागमेत त । अणुकट्टीए अद्धा शिवग्गणकडयं तं तु ॥४३॥ .. : .... पडिसमयगपरिणामा णिव्वग्गणसमयमेतखंडकमा !.. अहियकमा हु विसेमे मुहत्तभंतो हु पडिभागो ॥४४॥ . पडिखंडगपरिणामा पत्तेयमसंखलोगमेत्तो हुँ ।" लोयाणमसंखेजा छट्ठाणाणी विसेसेवि ॥४५॥...-.. १. प. पु. ६ पृ. २२२-२३ । ज. प. पु. १२ पृ. २५८-५६ । । : :. . . . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६-४६] लब्धिसार [ ३३ पढमे परिम समये पढमं चरिमं च खंडमसरिस्थं । सेसा सरिसा सब्वे अठुव्वंकादिअंतगया ॥४६॥ चरिमे सव्वे खंडा पुरिमसमभोक्ति अपहार ।। असरिसखंडाणोली प्रधापवतम्हि करणम्हि ॥४७|| पढमे करणे अवरा णिवग्गणसमय मेत्तगा तत्तो । महिदिणा वरमवरं तो वरपंती अणंतगुणिदकमा ॥४॥ पढमे करणे पढमा उलगसेढीय चरिमसमयस्स । तिरियगखंडाणोली असरिस्थाणंतरिणदकमा ॥४६॥ अर्थ-आदिकरण (अधःप्रवृत्त करण) के कालमें प्रतिसमय अधिकक्रम लिए हुए असंख्यातलोकप्रमाण परिणाम होते हैं। विशेष (चय) को प्राप्त करनेके लिए अन्तमुहूर्तप्रमाण प्रतिभाग है । उस अधःप्रवृत्तकरणकालके (समयोंके) संख्यातवेंभागप्रमाण अनुकृष्टिरचनाका आयाम है और जितना वह आयाम है उतने समयोंका एकनिर्वर्गणाकाण्डक होता है । निर्वर्गगाकाण्डकके समान प्रतिसमयके परिणामोंके क्रमशः खण्ड होते हैं, वे खण्ड अधिकक्रमवाले होते हैं । यहां विशेषको प्राप्त करनेका प्रतिभाग अन्तमुहूर्तप्रमाण है । प्रत्येकखण्डमें असंख्यातलोकप्रमारग परिणाम हैं। प्रत्येकखण्डमें षट्स्थानपतितवृद्धि असंख्यातलोकबार होती है। एक-एक विशेष ( चय ) में भी षट्स्थानपतितवृद्धि असंख्यातलोकबार होती है । प्रथमसमयका. प्रथमखण्ड और चरमसमयका अन्तिमखण्ड ये विसदृश और शेषखण्ड सदृश हैं । सर्वखण्डोंका आदि 'अष्टांक' है और अन्त 'उवाक' है। चरमसमयके सर्वखण्ड और प्रथमसमयसे लेकर द्विचरमसमयपर्यन्तका सर्वप्रथमखण्ड ; यह अधःप्रवृत्तकरणमें असदृशखण्डोंकी पंक्ति है । प्रथम ( अधःप्रवृत्त ) करणमें निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण समयोंमें प्रत्येकसमयके प्रथमखण्डके जघन्यपरिणाम ऊपर-ऊपर अनन्तगुणे क्रमसे हैं । निवर्गणाकाण्डकके चरमसमयसम्बन्धी जघन्यपरिणामसे प्रथमसमयका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है, उससे द्वितीय निर्वर्गगणाकाण्डकके प्रथमसमयके प्रथमखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुग्गा है इसप्रकार जघन्यसे. उत्कृष्ट और उससे जघन्य सर्पकी चालवत' अनन्तगुणेक्रमसे हैं। प्रथम (अधःप्रवृत्त), १. क. पा. सुत्त पृ. ६२६ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लन्धिमार करण में सर्वसमयोंके प्रथमखम्की -उज़रणीरूपसे और चरमसमयके सर्वखण्डोंकी तिर्यगावलिरूपसे रचना करनेपर सई असदृशखण्डोंकी पंक्ति हो जाती है जो सुनतगुणित क्रमसे स्थित है। ....... विशेषार्थ- इन गाथानोंमें अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी अनुकृष्टि और अल्पबहुत्व, इन दो अनुयोगद्वारोंका कथन किया गया है। अनुकृष्टिका कथन करनेके पश्चात् अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। अनुकृष्टिकर कथन इसप्रकार है। अधे प्रवत्तकरणके प्रथमसमवसे लेकर चरमसमयपर्यन्त पृथक पृथक् एक-एकसमयमें छह वृद्धियोंके क्रमसे अवस्थित और स्थितिबन्धासारणादिले काराभूत संख्याबुलोकलमाण परिणामस्थान होते हैं । परिपाटीक्रमसे विरचित इन परिणामों के पुनरुक्त और अपुनरुक्तभावका अनुसंधान करना अनुष्टि है। 'आकर्षण मनुकृष्टि:' अर्थात उनपरिणामोंकी परस्पर समानताका विचार करना यह अमुकृष्टिका अर्थ है । अन्तमुहूर्तप्रमाण अवस्थितकालका जो कि अधःप्रवृत्तकरणके संख्यात–भागप्रमाण है, विछेद होनेपर प्रति निर्वर्गणी काण्डकके व्यतीत होनेपर अनुकृष्टिका विच्छेद होता है। अधःप्रवृत्त करण प्रथमसमय में असंण्याललोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं। पुनः दूसरे संभवमें के ही परिणामस्थान अन्य अपूर्व परिणामस्थानोंके साथ विशेष अधिक होते हैं । प्रर्थमसमयक'' परिणामस्थानों में अन्तर्मुहर्तका भाग देने पर जो एकभागप्रमाण असंख्यातलोकप्रभारम् परिसीम प्राप्त होते हैं वह विशेषका प्रमाण है। इसप्रकार इस प्रतिभाग के अनुसार प्रत्येकसमय में विशेष अधिक परिणामस्थान करके प्रवःप्रवृत्तकरण के अन्तिमसमैयतके लेजानी चाहिए. अधःप्रवृसकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी परिणामस्थानके अन्तमुहर्त अर्थात् (अधःप्रवृत्त करणाकालके संख्यातभागप्रमाण कालके जितने समय है" उत्तने खंण्डे करने चाहिए, वही निर्वर्गणकाण्डक है। विवक्षितसमयके परिणामोंका जिसस्थानसे आगे अनुकृष्टिविच्छेद होता है यह निवारणाकांडक कहा जाता है। ये खंड परस्पर सदृश नहीं होते, विसदृश ही होते हैं, क्योंकि एक दूसरेसे यथाक्रम विशेषअधिकक्रमसे. अवस्थित हैं । अन्तमुहर्तका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना विशेष (चय) का प्रमाण है। पुनः प्रथमखंडको छोड़ कर इन्हीं परिणामस्थानोंको दूसरेसमयमें परिपाटीको उल्लंघकर स्थापित करना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि इस दूसरे समयमें असंख्यातलोक१. अ. घ. पु. १२ पृ. २३४ प्रतिमपंक्ति। २. ज. ध, पु. १२ पृ. २३५-२३६ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:४६ लब्धिसार [ ३६ अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है । स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम सबसे स्तोक है, उससे वहोंपर द्वितीयखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । उससे वहींपर तीसरेखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है। इसप्रकार वहींपर अन्तिमखण्डका जघन्यपरिमाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिये । इसप्रकार मात्र प्रथमसमयके परिणामखण्डोंके जघन्यपरिणामस्थानोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थानअल्पबहुत्व किया:। अब.प्रथमसमयमें प्रथमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम स्तोक है। उससे वहींपर दूसरे खन्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है, उससे वहींपर तृतीयखण्डका इत्कृष्ट्रपरिणाम अनन्तगुणा है । इसीप्रकार आगे भी अन्तिमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयके सर्वखण्डोंके उत्कृष्टपरिणामोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया । इसीप्रकार दूसरे समयसे लेकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयतक प्रत्येकखण्डके प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इसके प्रश्चात् स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ' । . . परस्पान अल्पवाहत्त्व इसप्रकार है-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें जघन्यविशुद्धि सबसे स्तोक है, क्योंकि इससे कम अन्य कोई जघन्यविशुद्धिस्थान अधःप्रवृत्तकरा में नहीं है। उससे दूसरे समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथमसमयके जघन्यविशुद्धिस्थानसे षट्स्थानक्रमसे असंख्यातलोकमात्र विशुद्धिस्थानोंको उल्लघकर स्थित हुए द्वितीयखण्ड (४०) के जघन्यविशुद्धिस्थानका दूसरे समय में जघन्यपना देखा जाता है; इसप्रकार अन्तमुहर्तपर्यन्त जानना चाहिए तथा अन्तर्मुहर्त से ऊपर जाकर स्थित प्रथमनिर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिमसमयके प्राप्त होनेतक इस क्रमसे जघन्यविशुद्धिका ही प्रतिसमय अनन्तगुरिणत क्रमसे कथन करना चाहिए । उससे प्रथमसमयकी (४२की.) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुरपी है, क्योंकि इसके अनन्तर पूर्व जो जघन्यविशुद्धि कही गई है वह अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमखण्ड (४२) की जघन्यविशुद्धि है और यह उस अतिमखंड (४२) की उत्कृष्ट्रविशुद्धि है जो उक्त जघन्यविशुद्धिसे छहस्थान क्रमसे वद्धिरूप असंख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थानोंको उल्लंघकर अवस्थित है। इसलिए अनन्तरपूर्वकी जघन्यविशुद्धिसे यह उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी हो गई है । इस उत्कृष्ट१. ज. प. पु. १२ पृ. २४४-४५ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] अधिसार [ गाथा ४६ विशुद्धिसे द्वितीय निर्वर्गणाकांडकके प्रथमसमयकी (४३) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथमसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि 'उर्वक' रूपसे अवस्थित है और द्वितीयनिर्बर्गणाकांडकके प्रथमसमयकी जघन्यविशुद्धि 'अष्टांक' रूपसे अवस्थित है इसलिये अनन्तगुग्गी हो गई। उससे प्रथमनिर्बर्गरणाकांडकके दूसरेसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि पूर्वकी जघन्यविशुद्धि दूसरे समयके अन्तिमखण्डके जघन्यपरिणामस्वरूप है और यह उत्कृष्टविशुद्धि असंख्यातलोकप्रभाग षट्स्थानवृद्धिको उल्लंघकर स्थित हुए दूसरे समयके अन्तिमखंडकी उत्कृष्टविशुद्धि है, इसलिये यह उत्कृष्टविशुद्धि पूर्वकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी सिद्ध हो जाती है । इस पद्धतिसे अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण एक निर्वर्गणाकाण्डकको अवस्थितकरके उपरिम और अधस्तन जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंसे अल्पबहुत साधना चाहिए। अल्पबहुत्वका यह क्रम सर्व निर्वर्गरगाकाण्डकोंको क्रमसे उल्लंघकर पुनः द्विचरमनिर्वर्गरणाकांडकके अन्तिमसमयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम निर्वर्गणाकांडककी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी होकर जघन्यविशुद्धिका अन्त प्राप्त होनेतक करना चाहिए। इतनी दूर तक जो एक-एक निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तरसे जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा गया है उसमें कोई भेद नहीं है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- प्रथमनिर्वर्गणाकांडकके दूसरे समयकी (४३ को) उत्कृष्टविशुद्धिसे दूसरे निर्वर्गणाकांडकके दूसरे समयको (४४ को) जघन्यविशुद्धि ग्रनन्तगुणी है, इससे प्रथमनिर्वर्गणाकांडकके तीसरेसमयकी (४४ की) उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, इससे द्वितीयनिवर्गणाकांडकके तीसरेसमयकी (४५ की) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुरगी है, इससे प्रथमनिर्वर्गणाकांडकके चौथेसमयकी (४५ को) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार दूसरे निर्वर्गणाकांडकके अंतिमसमयकी जघन्यविशुद्धिपर्यन्त अनन्तगुणत्व ले जामा चाहिए । इसीप्रकार तृतीय निर्वगणाकांडकके समयोंकी जघन्यविशुद्धि और द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके समयोंकी उत्कृष्टविशुद्धिका परस्पर अल्पबहुत्व कहना चाहिये । इसीप्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गरणाकांडकके जघन्यपरिणामोंका अनन्तर अधस्तन निर्वर्गणाकांडकके उत्कृष्टपरिणामोंके साथ क्रमसे अनुसन्धान करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयकी जघन्य विशुद्धि द्विचरमनिवर्गणाकांडकके अन्तिमसमयकी उत्कृष्टविशुद्धिसे अनन्तगुरगी होकर जघन्यविशुद्धियोंके अन्तको प्राप्त होती है; यहां ले जाना चाहिए । पुनः द्विचरमनिर्वर्गणाकांडकके अन्तिमसमयकी (५३ को) उत्कृष्टविशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके अंतिमसमयकी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५० ] लब्धिसार [ ४१ (५४ की) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चरमनिर्वर्गरगाकांडकके प्रथमसमयकी (५४ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगरणी है, उससे चरमनिर्वगणाकांडकके द्वितीय समय (५५ की) उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे तीसरे समयकी (५६ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चतुर्थसमयकी (५७ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार यह क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयतक (अन्तिम निर्बर्गरगाकांडकके अन्तिमसमयतक) ले जाना चाहिए' । उ.. "AER २५ र २०६७ २५१२४ २५ २ are 3. उ. . 3 3. उ उ. ३ उ उ. ३. इ. उ. उ.' उ उपर्युक्तसंदृष्टिमें-- १ से १६ तक की संख्या अधःप्रवृत्तकरणके समयोंको सूचक है । मच पूर्वकरण सम्बन्धी कथन करते हैंपरमं व विदियकरणं पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो छ पडिभागो ॥५०॥ अर्थ-प्रथम अर्थात अधःप्रवृत्तकरण के समान द्वितीय अर्थात् अपूर्वकरण है। इसमें प्रतिसमय अधिक क्रमसहित असंख्यातलोक परिणाम होते हैं । विशेष (चय) के लिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रतिभाव है । विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणमें प्रतिसमय असंख्यातलोक परिणाम होते हैं और वे चय अधिकक्रमसे होते हैं ऐसा कथन पहले गाथा ४२ में किया जा चुका है । यहां द्वितीय अपूर्वकरणसम्बन्धी कथन किया. जावेगा। अपूर्वकरणसम्बन्धी तीन अनुयोगद्वार हैं--(१) प्ररुपणा (२) प्रमाण और (३) अल्पबहुत्व । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें परिणामस्थान हैं, दूसरेसमयमें परिणामस्थान हैं । इसप्रकार अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्त १. ज. प. पु. १२ पृ. २४५ से २५१ तक । १. अपूर्वकरणद्धाए सम्वत्थ समए समए असंखेज्जलोगा परिणामट्ठाणाणि । (क.पा.सुत्त पृ. ६३३) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ کر Ta "छ लब्धिसार [lomlmsrk ? कालके चर्मसगयतक प्रतिसमय में परिणामस्थान साहा, पस्था (मनुयोगद्वार "समाप्त हुआ FRP 0 ,४२, ] १ एक-एक समय में परिणामस्थान असंख्यात लोक पुम्पण हैं । प्रसाराभ्यनुम्रो Cir ri -क अल्पबहुत्व दोषकारका विशुद्धियोंकी तीव्रता- मंद्रतासम्बन्त्री प्रल्पबहुत्त्व 5 परिणामांकी पतियों की दीर्घता (संख्या के सम्बन्धी पूर्ण कर प्रथम समय में परिणामों की पंक्तिका साया (संख्या के सबसे है उससे दूसरे समयमें विशेष अधिक है । प्रथमसमयसम्बन्धी परिणामों के अन्तुर्भुहूर्तकं सम्यप्रार खण्ड करनेपर उनमेंसे एक खंडप्रमाण विशेषमधिकका प्रमाण है। प्रथम प्रथम मय के परिणामोंको ग्रन्तर्मु हूर्तके समयोंसे भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतके, (असंख्यातलोक ) प्रमाण विशेषअधिक हैं । इसप्रकार अन्तरोपनिषाका श्राश्रय करके प्रर्थात् निरन्तर विशेषअधिक क्रमसे अन्तिमसमय के परिस्यामोशी पंक्ति प्रायाम ( परिग्र की संख्या) के प्राप्त होनेतक कथन करते हुए ले जाना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक समय में पूर्व ही परिणामस्थान होते हैं । इस प्रकार पूर्वकेररके प्रन्तमुहूर्त काल सर्वच सरसेकराम फजिकका महापरिरामस्थान हो i । कर कहते हैं दूसरे करणकी अपूर्वकस्म "जर जम्दा विदिषं कस ऐट्रिमाथि सरितं । सिसिद्धि मुल्क अर्थ क्योंकि उपस्मि समय के परिणाम नकीच समयसम्बन्धी परिणामोंके समान नहीं होते इसलिये इस दूसरे करणको पूर्वको कहा गय 1 १. अ. ध. पु. १२ पृ. २१२-५३-५४ । (कि समाप्त हुआ । I विशेषार्थ - जितने स्थान ऊपर जाकर ' विवेक्षित समर्थक परिणामको अनु वाष्टिका विच्छेद होता है उसका नाम निराकार है, किन्तु यहा पूर्वकरणके प्रत्येक समय में निराकोटकों को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विवक्षितसमयक परिणाम ऊपरंके एक भी समय में सम्भव नहीं हैं । प्रत्येक समय स्वरूप अपूर्वकरणका लक्षण जानना चाहिए' । उतनी दी है अनुकृष्टि के विच्छेद : २. दृश्यताम् ध. पु. १ पृ १८३ । प्रा. पं. सं. घ. १ मा १६३: गो. जी. म. १ " ޅ }: 9. 8. 9. 137. 984 dışa bir miras 20 25 306 385 19 P..! #: F F ? ६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अथ--दुसरे अथीत अपवकरणके प्रथमूसमयसे लेकर अतसम 1. गायों ६ मा ] लब्धिसरे - रमीम परिगामी पूजा कारण होते ह उन्हें पूर्वकरण कहते हैं : जिनका अर्थ असमाने परिणाम होता है। इसप्रकार पूर्वकरणका लक्षा निरुपण किया गया है | in ENFER THEpt : FEA अब परिणमिॉम वरस्पर विशेषता कहती है :FjEMETE T ET - "विदियकरणादिसमयादंतिमसममोत्ति अवस्वरमुद्धी १५ * अतिगतिमा चिन्नु पो होति भणणागुणिदकमा मा५ २॥ कागो ... IFFER समयके जघन्यपरिणामसे उसी समयका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगूगी विशुद्धिवाला है. । इस उत्कृष्टपरिणामसे अनन्तर उत्तरसमयका जघन्यपरिणाम अनन्तगगी, विशुद्धिवाला है । इसप्रकार सर्पको चालके समान विशुद्धतासम्बन्धी अल्पबहत्वका कथन है । ...पू :: विशेषार्थ-- अपूर्वकारणाके प्रथमसमय में असंख्यातलोकमारमा विशुद्धिस्थानों मध्य जो जघन्यविशुद्धिः है। वह सबसे तोक अर्थात् मन्दअनुभागवाली हैं। अपूर्वकरणका प्रथम समय में जो उत्कृष्ट विशुक्ति सिंह असण्याललोक षष्ट्रस्थान कृतिको उल्लंघकर अवस्थित हैं और वह पूर्वकी, जघन्यविशुद्धिसे- अनन्तसुगी है। प्रथमसम्रर्यको उत्कृष्टविशुद्धिरे द्वितीयूसमयकी जघन्य विशुद्धि, अनन्तगुणी है, क्योंकि असंख्यातलोकप्रमारण षट्स्थानवृद्धिके अन्तरसे इसकी उत्पत्ति होती है । नपूर्वकरणके दूसरे समयकी उत्कृष्टविशुद्धि उसीसमयकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी है । द्वितीयसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि... से तृतीयसमयकी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है। तृतीयसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि, अनन्त--- गुगी है; कारण पूर्ववतु ही है। इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरणके चरमसमयतक ले 2 7-11:T-T.". । . . . EFITTETTE समयकी अनन्तगणी है। FE पनाम-53 : F TEETA जाना चाहिए। व.पु.६ पा. सूत्त प.६२३। ५-७१। ४. ज. प. पु. १२. पृ. २५३-५४ । ५. ध पु. ६ पृ. २२१ ... ... ...::: .. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ५३-५४ आगे अपूर्वकरणपरिणामका कार्यविशेष बताने के लिए गाथासूत्र कहते हैंगुणसेडीगुणसंकमठिदिरतखंडा अपुरकरणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्ताणं पूरणोत्ति हवे ॥५३॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर : गुगणसंक्रमण से सम्यक्त्व-मिश्रद्वय प्रकृतिके पूरनेके कालके चरमसमयपर्यन्त गुगगरिग, गुणसंक्रमण, स्थितिकांडकघात और अनुभागकांडकघात होते हैं। विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्वके काल में यद्यपि दर्शनमोहको गुणश्रेणि व स्थितिकांडकघातादि नहीं होते, किन्तु आयुकर्म और मिथ्यात्वको छोड़ कर शेषकर्मों के स्थितिघात, अनुभागघात और गुणग्गिरूप कार्य तबतक होते रहते हैं जबतक गुग्गसंक्रमण (मिथ्यात्वका) होता रहता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीबके अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे गुणसंक्रमण प्रारम्भ नहीं होता, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रथमसमयसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमें असंख्यातगुणे क्रमसे प्रदेशज देनेके लिये गुणसंक्रमण प्रारम्भ होता है। इसप्रकार अन्तर्मुहुर्तकालतक गुणसंक्रमण होता है उसके पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके अन्ततक विध्यातसंक्रमगा होता है । स्थितिबन्धापसरण कब तक होता है सो कहते हैं"ठिदिबंधोसरणं पुर अधापबत्तादुपूरणोति हवे । ठिदिबंधट्टिदिखंडक्कीरणकाला समा होनि ॥ ५४॥ अर्थ-स्थितिबंधापसरण भी अधःप्रवृत्तकरणसे लेकर सम्यक्त्व व मिश्रप्रकृतियोंके पूरणकालतक होता है। स्थितिबंधापसरण काल और स्थितिकांडकघातका उत्कीरण काल ; ये दोनों काल समान अर्थात् तुल्य होते हैं । विशेषार्थ-स्थितिबंधापसरण यद्यपि प्रायोग्यल ब्धिमें भी होता है, किन्तु यहां उसकी विवक्षा नहीं है, क्योंकि प्रायोग्यलब्धि भव्य और अभव्य दोनोंके समानरूपसे होनेसे प्रायोग्यलब्धिमें सम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नहीं है। (देखो गा. ७) प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें मिथ्यात्वका बन्ध नहीं होता इसलिये सम्यक्त्वकालमें दर्शनमोहनीयकर्मका बन्धापसरण नहीं होता, किन्तु अन्यकर्मोका बन्धापसरण होता रहता है । १. ज. प. पु. १२ पृ. २८५; प. पु. १६ पृ. ४१५; मो. क. गा. ४१६ । २. ज.ध. पु. १२ पृ २५२ से २८४ । ३. तम्हि द्विदिखंडयद्धा ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला । क. पा. सुत्त पृ. ६२५ सूत्र ८७। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५५ ] लब्धिसार [ ४५ अन्तर्मुहूर्तकालतक समान स्थितिका बन्ध होने के पश्चात् स्थिति घटकर बंधती है वह स्थिति भी अन्तर्मु हर्तकालतक बंधी है । इसप्रकार एकस्थितिबन्धापसरणका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है । स्थितिकांडकघात करनेमें भी अन्तर्मुहुर्तकाल लगता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तके प्रत्येकसमयमें एक-एक फाली (कुछद्रव्य) उत्कीर्ण की जाती है । अन्तिमफाली द्वारा शेषद्रव्य उत्कीरण होने पर स्थितिधात होता है । अतः स्थितिकांडकघातमें जितनाकाल लगता है वह काल और स्थितिबन्धापसरणकाल दोनों तुल्य व अन्तर्मुहर्तप्रमारग हैं । अपूर्वकरणमें प्रथमस्थितिबन्धापसरणकाल व स्थितिकांडकोत्कीरणकाल तुल्य हैं । द्वितीयादि स्थितिकांडक और स्थितिबंधका काल परस्पर समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथमस्थितिकांडकके उत्कीरणकालसे और प्रथमस्थितिबन्धके कालसे द्वितीयादिकोंका काल यथाक्रम विशेषहीन-विशेषहीन जानना चाहिए'। अथानम्तर गुणश्रेणोके स्वरूपका निर्देश करते हैंगुणसेढीदीहत्तमपुवदुगादो दु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिवाहिरदो दुणिक्खेवो ॥५५॥ अर्थ-गुरणश्रेणीकी दीर्घता अर्थात् गुणश्रेणीमायाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकालसे अधिक होता है वह गुणश्रेणीयायाम गलितावशेष है तथा उदयावलीसे बाह्यनिक्षेप होता है । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख यह जीव अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेषकर्मोंका गुण) रिगनिक्षेप प्रारम्भ कर देता है। शंका-आयुकर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप क्यों नहीं करता है ? समाधान-पायुकर्मका गणश्रेणि निक्षेप स्वभावसे ही नहीं करता है, क्योंकि इसमें गुरणश्रेणि निक्षेपकी प्रवृत्ति असंभव है । उस गुण रिण निक्षेपका प्रमाण अपूर्वकरणकालसे और अनिवृत्तिकरणकालसे अर्थात् इन दोनों कालोंसे विशेषअधिक है। यहां अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणके समुदित कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, उससे विशेषअधिक इस गुणश्रेणि निक्षेपका आयाम है। १. ज. प. पु. १२ पृ. २६६ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.४६ - सब्धिसार { "E HAI ५६ ...... - शंका-विशेषका प्रमारण कितना है ? .. समाधान---अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवेंभाग विशेषका प्रमाण है। i. :: .. नोट-जिन निषेकों में गुणाकार क्रमसे अंपकर्षितद्रव्य निक्षेपित किया जाता । है अर्थात् दिया जाता है उन निषेकोंका नाम गुणश्रेणिनिक्षेप है उन निषेकोंकी संख्याका • प्रमाण गुणश्रेणीमायाम है ।। ... अथानन्तर निक्षेप व अतिस्थापनाले स्वरूप-मैद-प्रमाणादिका कथन करते हैं णिक्वेवमदित्थावणमवरं समऊणश्रावलितिभागं । . ..तेणणावलिमेत्तं , विदियावलियादिमणिसेगे ॥५६॥ .: ...: अर्थ-द्वितीयावलिका प्रादिनिषेक अर्थात् उदयाबलिसे अनन्तर उपरि मनिषेक में से द्रव्य अपकर्षितकरके नीचे उदवावलिमें देता है तब एकसमयकम भाव लिका विभाग तो जघन्यनिक्षेप है तथा प्रावलिके शेषनिषेक जघन्यप्रतिस्थापना है । विशेषार्थ-जो स्थिति अभी उदयावलिके अन्तिमसमयमें वर्ष नहीं हुई है, ....किन्तु अनन्तर अगले समय में प्रविष्ट होनेवाली है. उसके निक्षेप और प्रतिस्थापना सर्व जघन्य हैं । स्पष्टीकरण इसप्रकार है-उस स्थितिका अपकर्षणं करके, उदयसमयसे "लेकर आवंलिके तृतीय भागतकं उसका निक्षेप करता है और ३ भागप्रमाण ऊपर के हिस्सेको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करता है । इसलिए प्रावलिका तुतीयभाग उम - अपकषितस्थितिके निक्षेपका विषय है और आबलिका भाग प्रतिस्थापना है। शंका-प्रावलिकी परिगणना कृतयुग्म संख्यामें की गई अतः उसका तृतीयभाग कैसे ग्रहण किया जाता है ? ....... समाधान-प्रावलिका प्रमाण जघन्ययुक्तासंख्यात है, अतः श्रावलिको परि गणना कृतयुग्मसंख्यामें की गई है, (जी संख्या ४ से पूर्णरूपेणं विभाजित हो जावे वह :-'कृतयुग्म' संख्या है इसलिए उसका शुद्ध तीसराभाग नहीं हो सकता अतः प्रावलिसे एककम करके उसका तृतीयभागः ग्रहण करना चाहिए । अब यहां प्रावलिमें से जो T- 11 १. ज. प. पु. ८ पृ. २४३-४४। २. ध. पु. १२ प्रस्तावना पृ. ३; घ. पु. १४ पृ. १४७; ध. पु. १२ पृ. १३४; भगवतीसूत्र लो. प्र. १२१७६; प. पू. ३ प. २४६; घ. पु १० प्रस्तावना पृ. ३; क. पु. १०-मूल पृ: २२-२३ । .. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्बिसारी [bay माथxj एककमाईकया गया है उसको त्रिभागमें मिला देनेपर जघन्यनिक्षेप होता है और एककम आबलि का भागप्रमाण जघन्य प्रतिस्थापना होती है जो जघन्यनिक्षेपके दूनेसे दो समयकम है। .. __- मालदाहरण- पावलिका प्रमाण १६ समय है। (१६-१)=१५; १५:३= .. ५; +१=६ जघन्यमिक्षेप' है । १६-६=१० समय जघन्यप्रतिस्थापना है। . .. एत्तो समऊणावलितिभागमेत्तो तु तं खणिक्खेवो । - उर्ति वलिवज्जिय सगद्विदी होदि णिक्खेवो ॥५७॥ मा अर्थ- इस प्रथम निषैकसे ऊपर एकसमय कमावलिके त्रिभागतकके निषेकोंके अपकृाठव्यका निक्षेप तो पूर्वोक्त ही हैं। इससे ऊपर अतिस्थापनारूप प्रावलिको छोड़कर अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण निक्षेप होता है । ' में विशेषार्थ-उदयावलिसे बाह्य अनन्तर प्रथमस्थितिसे ऊपर अनन्तरसमयवर्ती द्वितीयस्थितिके अपकर्षितव्यका उतना ही निक्षेप होता है, क्योंकि इसमें कोई भेद नहीं है, किन्तु प्रतिस्थापना 'एकसमय अधिक होती है, चूं कि 'उदयावलिके बाहर की स्थिति भी प्रतिस्थापना में मिलगाई हैं । इसप्रकार प्रतिस्थापनामें उदयावलिके बाहरसे जघन्यनिक्षेपप्रमान स्थितियों के प्रविष्ट होनेतक निक्षेपको अवस्थितरूपसे ले जाना चाहिए और प्रतिस्थापनाको उत्तरोत्तर एक-एकसमयअधिक क्रमसे अनवस्थितरूपसे ले जाना चाहिए। यहां जो स्थिति प्राप्त होती है उसकी प्रतिस्थापना. पूर्ण एकावलिप्रमाण है तथा निक्षेप जघन्य ही रहता है. .. .:...::.: शंका-जिसस्थिति विशेषके प्राप्त होनेपर प्रतिस्थापना पूरी एकावलिप्रमाण । होती है, वह स्पितिविशेष किसस्थान में प्राप्त होता है ? समाषाम-उदयावलि के बाहर प्रावलिके तृतीयभागकी. जो यतिस्थिति है,.... वहां वह स्थितिविशेष प्राप्त होता है'। ( यहां अन्तिम स्थितिसे 'तदनन्तर उपरिम स्थिति विशेष ग्राह्य है।..... . . . . । .. ३. ज. प. पु.८ पृ. २४५ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] लन्धिसार [ गाथा ५८ गाथामें जो 'समऊणावलितिभाग' पद आया है उससे एकसमयकम आवलिका विभाग व एकसमयअधिक ऐसा ग्रहण करना चाहिये। उदयावलिके बाहर जघन्यनिक्षेपप्रमाण स्थितिका उलंघनकरके जो स्थिति स्थित है उसके प्राप्त होनेपर पूरी एकावलिप्रमाण अतिस्थापना होती है । उससे आगे निक्षेप बढ़ता है, क्योंकि उत्कृष्टनिक्षेपके प्राप्त होनेतक जघन्यनिक्षेपसे आगे एक-एकसमयाधिक क्रमसे निक्षेपकी वृद्धि होनेमें कोई विरोध नहीं आता, क्योंकि निर्व्याघातप्ररुपणामें सत्त्वप्रकृति पर्याप्त है । (स्थितिकांडकघातका अभाव निर्व्याघात कहलाता है।) उदयस्थितिसे लेकर एकसमयाधिक दोनावलिप्रमाण स्थान आगे जाकर वहां अतिस्थापना व निक्षेप दोनों ही एक-एक प्रावलि प्रमाण हो जाते हैं उदयावलिके बाहर वहांतकको सर्वस्थितियोंके प्रदेशानोंका निक्षेप उदयावलिके भीतर ही होता है । सर्वत्र अपकर्षितस्थितिको छोड़ कर उससे नीचे अनन्तरवर्ती स्थितिसे लेकर एकावलिप्रमाण स्थितियां प्रतिस्थापना होती हैं तथा उदयस्थितिसे लेकर प्रतिस्थापनासे पूर्वतककी सर्वस्थितियों में निक्षेप होता है।। उक्कस्सद्विदिषंधो समयजुदावलिदुगेण परिहोणो । प्रोक्कदिदिम्मि चरिमे ठिदिम्मि उपकस्सणिक्खेत्रो ॥५८।। अर्थ-उत्कृष्टस्थितिका बन्ध होनेपर चरमस्थितिके अपकर्षितद्रव्यका समयाधिक दोप्रावलिहीन उत्कृष्टस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप होता है । विशेषार्थ- उत्कृष्टस्थितिको बांधकर और बन्धावलि ( अचलावलि ) को व्यतीतकर फिर चरम अर्थात् अग्रस्थितिका अपकर्षणकरनेपर अतिस्थापनाकी एक प्रावलिको छोड़कर, उदयपर्यन्त उस अपकर्षितद्रव्यके निक्षिप्त करनेपर निक्षेपका प्रमाण एकसमयाधिक दोश्रावलिसे न्यून' उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप उपलब्ध होता है। १. ज. प. पु. ८ पृ. २४७ । २. बन्धके बाद बद्रव्यावलि तक तो सकलकरणोंके अयोग्य होनेसे बद्रव्यका मालिकाल तक अपकर्षण भी नहीं होगा सो १ प्रावलि तो यह कम पड़ी तथा प्रतिस्थापना (प्रावलीप्रमारण ) में अपकृष्ट द्रव्य का निक्षेप नहीं होता। पावली यह और गई तथा अन्तिम निषेकके द्रव्य का उसी निषेक में तो निक्षेप या प्रतिस्थापना होती नहीं प्रतः एक वह स्वयं कम पड़ा । इसप्रकार बंधायलि+प्रतिस्थापनावलि+अपकृष्यमारण निषेक-कुल एक समय अधिक दो श्रावलिमें निक्षेपण का प्रभाव हुआ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५६-६० ] लब्धिसार [ xe उदाहरण-कर्मस्थिति ४८०० समय । एकसमयाधिक दो प्रावलि (१६४२ +१)=३३ समय । ४८००-३३-४७६७ उत्कृष्ट निक्षेप' । अब घ्याघातापेक्षा उत्कृष्ट प्रतिस्थापनाका कथन करते हैंउक्कस्सविदि बंधिय मुहुत्तमंतेण सुज्झमाणेण । इगिकंडरण पादे सम्हि य चरिमस्स फालिस्म ॥५६।। चरिमणिसेमोक्काई जेठमदित्थावणं इदं होदि । समयजुदंतोकोडाकोडि विणुक्कस्सकम्मठिदी ॥६॥ अर्थ-उत्कृष्टस्थितिको बांधकर अन्तर्मुहूर्तके द्वारा विशुद्ध होता हुआ, अंतःकोड़ाकोड़िसागरप्रमारग स्थितिके अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण उत्कृष्टस्थितिका एककांडकघातके द्वारा घात करनेवालेके कांउककी चरिमफालिके चरमनिषेकके अपकर्षितद्रव्यको उत्कृष्टप्रतिस्थापना समयाधिक ग्रन्तःकोड़ाकोड़िसागरसे होन उत्कृष्टकर्म स्थिति होती है। विशेषार्थ-स्थितिका घात करते हुए जिसने स्थितिघात करने के लिये उत्कृष्टकांडकको ग्रहण किया है, उसके उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है । शंका-उत्कृष्टकांडक कितना है ? समाधान-जितनी उत्कृष्टकर्मस्थिति है उसमेंसे अन्तःकोड़ाकोडिसागर कम कर देनेपर जो स्थिति शेष रहे उतना उत्कृष्टस्थितिकांडकघात होता है। इस स्थितिकांडकको प्रारम्भ करनेपर उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है और प्रतिसमय होनेवाले घातसे सम्बन्ध रखनेवाली स्थितिकांडकसम्बन्धी फालियां भी उतनी ही होती हैं अर्थात् अन्तर्मु हर्तके जितने समय होते हैं उतनी ही कांडककी फालियां होती हैं। उसकांडकमें से प्रथमसमयमें जो प्रदेशाग्न उत्कीरण होते हैं उसकी प्रतिस्थापना एकावलिप्रमाण होती है, क्योंकि कांडकरूपसे ग्रहण की गई इन सर्व स्थितियोंका अभी अभाव नहीं होनेसे इनका व्याघात नहीं होता इसलिए यहांपर भी नियतिविषयक अतिस्थापना होती है। इसप्रकार द्विचरमसमयवर्ती अनुत्कीर्ण स्थितिकांडकके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिए, क्योंकि कांडकरूपसे ग्रहण की गई इन सर्व स्थितियोंका १. ज. प. पु. ८ पृ. २५२ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] लब्धिसार [ गाथा ६१ अभी अभाव नहीं हुअा है । उस उत्कृष्टस्थितिकांडकघातके अन्तिमसमयकी चरमफालि में जो अग्रस्थिति अर्थात् चरम निषेकका द्रव्य होता है उसकी प्रतिस्थापना एकसमयकम कांडकप्रमारण होती है, क्योंकि उस अन्तिमसमयकी फाली में स्थितिकांडकघातके भीतर पाई हुई सभी स्थितियोंका व्याघातके कारण घात होता है । इसलिये चरमस्थितिकी एकसमयकम उत्कृष्टकोडकप्रमाण (उत्कृष्टस्थिति में से अन्तःकोड़ाकोड़ीसांगर कम कर देने पर शेषस्थिति उत्कृष्टकांडक है) उत्कृष्टअतिस्थापना होती है। शंका-इस प्रतिस्थापनाको एकसमयकम क्यों कहा ? समाधान—क्योंकि अपकर्षणको प्राप्त होनेवाली अग्रस्थिति (अन्तिमनिषेक) अतिस्थापनासे वहिर्भूत होती है । यह एकसमयकम उत्कृष्टस्थितिकांडकप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना स्थितिकांडकविषयक व्याघातके होनेपर होती है, अत्यत्र नहीं होती' । अब सातगाथाओंमें उत्कर्षणका कथन करते हैंसत्तग्गढिदिबंधो मादिस्थियुक्कडणे जहरणेण । भावलिमसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ॥६१॥ अर्थ-बन्ध होनेपर सत्त्वकर्मकी अग्रस्थिति ( अन्तिमस्थितिके द्रव्य ) का उत्कर्षण होता है उस उत्कर्षणकी प्रतिस्थापना ( आदिस्थिति ) जघन्यसे प्रावलिके असंख्यातवेंभाग होती है और जघन्यनिक्षेप भी उतना ही होता है। विशेषार्थ-नवीन अधिकस्थितिबन्धके सम्बन्धसे पूर्वकी स्थितिमेंसे कर्मपरमाणुओं (प्रदेशों) की स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षण है। उसके दो भेद हैं—निया घातविषयक और व्याघातविषयक । जहां प्रावलिके असंख्यातवेंभागादि निक्षेपसे संबंध रखनेवाली एकावलिप्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात नहीं होता वहां निव्याधातविषयक प्रतिस्थापना होती है, क्योंकि उसप्रकारके निक्षेपके साथ प्राप्त हुई एकप्रावलि. प्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात यहां व्याघातरूपसे विवक्षित है। १. ज. प. पु. ८ पृ. २४८ से २५० ! २. अयं विशेषो यद् उदयावलिपरमाणुनामुत्कर्षणं कदापि न सम्भवति उदयावलि बहिः स्थितेष्वपि केषांचिदेव उत्कर्षणं सम्भवति न सर्वेषाम् (घ. पु.७ पृ. २४३) ३. ज. प. पु.७ पृ. २४३ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६२-६४ ] लब्धिसार [ ५१ शंका-इसप्रकारका व्याघात कहां नहीं होता ? समाधान-जहां सत्कर्मसे 'ऊपर एकसमयाधिक अादिके क्रमसे स्थितिबन्ध वृद्धिको प्राप्त होता हुअा एकावलिके असंख्यातवेंभागसे युक्त एकावलि बढ़ जाता है वहांसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्राप्त होनेतक सर्वत्र ही नियाघातविषयक उत्कर्षण होता है'। व्याघातकी अपेक्षा उत्करण-यदि सत्कमसे बन्ध एकसमयअधिक हो तो उस स्थिति में अनस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि वहां जघन्यग्रतिस्थापना और निक्षेप इन दोनोंका अभाव है। यदि सत्कर्मसे दो समयाधिक स्थितिका बन्ध होता है तो उस बन्धस्थितिमें भी पूर्व-विवक्षित सत्कर्मकी अग्नस्थितिका स्वभावसे ही उत्कर्षण नहीं होता। इसप्रकार तीनसमयाधिक आदिसे लेकर अावलिके असंख्यातबंभागतक बन्धकी वृद्धि हो जानेपर भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहां जघन्यप्रतिस्थापनाके होते हुए भी उससे सम्बन्ध रखनेवाला जघन्यनिक्षेप अभी भी नहीं पाया जाता और निक्षेप विषयक स्थितिके बिना उत्कर्षरण नहीं हो सकता, जघन्यप्रतिस्थापनाके ऊपर फिर भी श्रावलिके असंख्यातवेंभागप्रमारण बन्धकी वृद्धि होने पर जघन्यनिक्षेपका होना सम्भव है । यदि सत्कर्मसे जघन्यप्रतिस्थापना और जघन्यनिक्षेपप्रमाण स्थितिबन्ध अधिक हो तो सत्कर्मकी उस अग्रस्थितिका उत्कर्षण होता है, क्योंकि यहांपर जघन्यअतिस्थापना और जघन्य निक्षेप अविकलरूपसे पाये जाते हैं। तत्तोदित्यावणगं बढदि जावावली तदुक्कस्सं । उवरीदो सिक्वेश्रो वरं तु बंधिय ढिदि जेट ॥६२॥ बोलिय बंधावलियं मोक्कड्डिय उदयदो दु णिक्विविय । उवरिमसमये विदियावलिपडमुक्कहणे जादे ॥६३॥ तक्कालवज्जमाणे वारदिदीए अदिस्थियावाहं । समयजुदावलियाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ॥६॥ १. ज. प. पु. ८ पृ. २५३ एवं ज.ध. पु. ७ पृ. २४५ । २. ज.ध. पु. ८ प २५७-२५६ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] लब्धिसार [ गाथा ६४ अर्थ--उसके पश्चात् अतिस्थापना एक-एक समय बढ़ते हुए प्रावलिप्रमाग । उत्कृष्ट अतिस्थापना हो जाती है, इसके पश्चात् निक्षेपावलिके असंख्यातवेंभ से उत्कृष्टनिक्षेप प्राप्त होनेतक बढ़ता है। उत्कृष्ट निक्षेप-उत्कृष्टस्थितिको बांधकर । बंधावलि बीत जानेपर उस उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिमनिषकसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षणकरके उदयादि निषेकोंमें निक्षेपण किया अर्थात् दिया। अनन्तर अगले समयमें द्वितीयावलि के प्रथमनिषेकका उत्कर्षरण करनेके लिये उस अनन्तरसमयमें उत्कृष्टस्थितिस हेत बंधनेवाले कर्मकी उत्कृष्ट पाबाधाको अतिस्थापना कर प्रथमादि निषेकोंमें निक्षेपण होता है, किन्तु अन्तके एक समयाविक प्रवलिप्रमाण निषेकोंमें निक्षेपण नहीं होता । अतः एकसमयअधिक प्रावली और आबाधाकाल इन दोनोंसे न्यून उत्कृष्टस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप है'। विशेषार्थ-तदनन्तर एकसमयाधिक स्थितिबन्धके होनेपर निक्षेप उतना ही रहता है, किन्तु प्रतिस्थापना वृद्धिको प्राप्त होती है । ___ शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान--क्योंकि सर्वत्र प्रतिस्थापनाकी वृद्धिपूर्वक ही निक्षेपकी वृद्धि देखी । जाती है। शंका--किन्तु वह प्रतिस्थापनाको उत्कृष्टवृद्धि कितनी होती है ? समाधान--प्रतिस्थापनाके एक प्रावलिप्रमाण होनेतक उसकी वृद्धि होती रहती है। स्थिनिबन्धकी वृद्धिके साथ वह जघन्य प्रतिस्थापना एक-एक समयाधिकके क्रमसे बढ़ती हुई पूरी एक प्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट प्रतिस्थापनाके प्राप्त होनेतक बढ़ती जाती है। शंका- इससे आगे भी अतिस्थापना क्यों नहीं बढ़ाई जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि परमप्रकर्षको प्राप्त हो जानेपर फिर उसकी वृद्धि होने में विरोध आता है। उसके प्रागे उत्कृष्ट निक्षेपके प्राप्त होनेतक निक्षेपकी वृद्धि होती है । यहांपर पूर्वमें विवक्षित मत्कर्मको अग्रस्थितिके उत्कृष्ट निक्षेपकी वृद्धि एक-एक समयअधिकके । १. ज.ध. पु. ८ पृ. २५६-२६१ । २. ज.ध, पु. ८ प. २६० । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६४ ] लब्धिसार [५३ क्रमसे होती हुई प्रतिस्थापनावलिसे अधिक जो अधस्तन अन्तःकोडाकोडी उससे हीन कर्मस्थितिप्रमाण होती है, किन्तु इतनी विशेषता है कि बन्धावलिके साथ अन्तःकोड़ाकोडीको कम करना चाहिए । यह आदेशसे उत्कृष्टवृद्धि है । फिर इससे नीचेकी सत्कर्मसम्बन्धी द्विचरमादि स्थितियोंकी एक-एक समय अधिकके क्रमसे पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा निक्षेप वृद्धि तबतक कहनी चाहिए जबतक वह अोघसे उत्कृष्टनिक्षेपको प्राप्त न हो जावे, किन्तु प्रोघकी अपेक्षा वह उत्कृष्ट निक्षेप होता है ऐसा निर्णय करनेके लिये कहते हैं । शंका--'उत्कृष्टानक्षेप कितना है ! समाधान-जो उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेके बाद एकावलिको बिताकर उस उत्कृष्टस्थितिका अपकर्षणकरके उदयावलिके बाहर दूसरी स्थितिमें निक्षेप करता है फिर तदनन्तर समयमें उदयावलिके बाहर अनन्तरवर्तीस्थितिको प्राप्त होगा कि इसस्थितिके कर्मद्रव्यका उत्कर्षणकरके उसका एकसमयाधिक एकमावलिसे कम अग्रस्थिति में निक्षेप करता है । यह उत्कृष्ट निक्षेप है'। स्पष्टीकरण इसप्रकार है जिस संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्त जीवने साकारोपयोगसे उपयुक्त होकर जागृतावस्था के रहते हुए सर्वोत्कृष्ट संक्लेशके कारण उत्कृष्टदाहको प्राप्त होकर ७० कोडाकोड़ीसागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया । फिर बन्धावलिके व्यतीत हो जानेपर उस उत्कृष्टस्थितिका अपकर्षरण करके उसे उदयावलिके बाहरकी प्रथमस्थितिके निषेकसे विशेषहीन दूसरी स्थितिमें निक्षिप्त किया । फिर तदनन्तर समयमें अनन्तरपूर्व समयवर्ती स्थितिका उदयावलिके भीतर प्रवेश करवाकर और उस दूसरी स्थितिको प्रथमस्थितिरूपसे स्थापित करके तदनन्तर समयमें विवक्षित स्थितिको उदयावलिके भीतर प्राप्त कराता, इसप्रकार स्थित होकर उसी समयमें, इससे पूर्व समय में अपकर्षणको प्राप्त हुए प्रदेशाग्रका उत्कर्षगके वशसे उसी समय हुए नवीनबंधसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्कृष्ट स्थिति में निक्षेप किया 1 यहां इस निक्षेपको आबाधामें नवीनवन्धके परमाणुओंका अभाव होनेसे उत्कृष्टप्राबाधाको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करके आवाधाके बाहर प्रथमनिषेककी स्थितिसे लेकर एकसमयअधिक एकावलिसे न्यून अग्रस्थितिके प्राप्त होनेतक १. क. पा. सुत्त पृ. ३१८ सूत्र ३६ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.४ ] लब्धिसार [ गाथा ६५ करता है, क्योंकि इसके ऊपर शक्ति स्थिति नहीं है। जो जीव इसप्रकार निक्षेप करता है उसके उत्कृष्टनिक्षेप होता है । इस निक्षेपका प्रमाण समयाधिक प्रावलि और आबांधासे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण उत्पन्न होता है'। अहवावलिगदवरठिदिपडमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदियणिसेगप्पहुदिसु णिक्वित्ते जेटुणिक्खे भो ॥६५।। अथ-अथवा, पावलि व्यतीत हो जानेपर उत्कृष्ट स्थिति के प्रथम निषेकका द्रव्य बंधनेवाली उत्कृष्टस्थितिके द्वितीयादि निषेकमे निक्षेपण करनेपर उत्कृष्टनिक्षेप होता है। विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्राबाधा और ए कसमयाधिक एकावलि इनसे न्यून जितनी उत्कृप्टकर्मस्थिति है उतना उत्कृष्ट निक्षेप है । अथवा, (इस "अथवा" शब्द से 'यहां प्राचार्यान्तर के मतानुसार निक्षेप का निरूपण किया गया है'; ऐसा ज्ञातव्य है) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने के पश्चात् बन्धावली को बिताकर उसमें प्रथम निषेक का उत्कर्षा किया । इस उत्कृप्यमागा निषेक के द्रव्य का, इस उत्कर्षण क्रिया के समय बद्ध उत्कृष्टस्थितियुक्त समयप्रबद्ध के द्वितीयादि समस्त निषेकों में निक्षेपण किया; किन्तु चरम पावलीप्रमाण स्थिति में निक्षेपण नहीं किया। ऐसा करने पर उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है और इस उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण एकसमयाधिक मावली और आबाधाकाल ; ( वर्तमान में बद्ध समयप्रबद्धका ) इन दोनोंके योग से हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है । ठिप्पण:।। १. ज. प. पु. ८ पृ. २५६ से २६१ । क. पा. सुत्त पृ. ३१८; ज. पु. ७ पृ. २४६ ; ज. घ. पु. ५ पृ. २५६ . - २: यहां उत्कर्पण के विधान में इतना ज्ञातव्य है कि--१. उत्कर्षण बन्धके समय में ही होता है । अर्थात् जब जिसकर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्म के सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुगों का उत्कर्षण हो सकता है; अन्य का नहीं। उदाहरणार्थ-यदि कोई जीव साता प्रकृति का बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्ता में स्थित साता प्रकृति के कर्मपरमाणुगों का ही उत्कर्षण होगा, असाता के कर्म-परमाणुनों का नहीं। (ज, घ. ७।२५१) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा ६५ ] लब्धिसार [ ५५ २. उदयावली के कर्म-परमाणुनों का उत्कर्षण नहीं होता। ( ज.ध. ७।२४४ एवं २४०, २४१, २४२ प्रादि ।) ३. बन्धे हुए कर्म अपने बन्ध समय से लेकर एक आवली काल तक तदवस्थ रहते हैं । ( अर्थात् बन्धावली सकलकरणों के अयोग्य है । ) ४. बंधने वाले कर्म को अपने आबाधाकाल में निषेकरचना नहीं पाई जाती । (ज.ध.७।२५१) ५. अतिस्थापना-कर्मपरमाणुनों का उत्कर्षण होते समय उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति में निक्षेप नहीं होता, बह "प्रतिस्थापना" स्थिति कहलाती है.। अव्याघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना एकमावलीप्रमाण और उत्कृष्ट प्रतिस्थापना, उत्कृष्ट भाबाधाप्रमाण होती है, किन्तु व्याघातदशा में जघन्य प्रतिस्थापना पावली के पामरसातवें भागप्रमागा प्रौर परत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समयकम मावली प्रमाण होती है । ( ज.ध. ७१२५० ) ६. निक्षेप-उत्कर्षण होकर कर्मपरमाणुगों का जिन स्थितिविकल्पों में पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है iअव्याघात दशा में जघन्य निक्षेप का प्रमाण एकसमय ( क. पा. सु. प. २१५ ) और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाणे उत्कृष्ट पाबाबा और एक समयाधिक पावली; इन दोनों के योग से हीन ७० कोटाकोटीसागर है। व्याघात दशा में जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण पावली के प्रसंख्यातवे भागप्रमाण है । (ल. सा. गा. ६१, ६२ एवं ज, ध. पु ८ पृ. २५३; ज. प. ७१२४५) ७. बन्ध के समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेक की सब की सब व्यक्तस्थिति होती है । इसका मतलब यह है कि अन्तिम निषेक की एकसमयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। उपान्त्य निषेक की एक समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेष स्थिति व्यक्त होती है । तथा विचरम लिषेक की दो समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेषस्थिति व्यक्त होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक नीचे जामे पर शक्तिस्थिति का एक-एक समय बढ़ता जाता है और व्यक्ति स्थिति का एक-एक समय घटता जाता है। इस क्रम से प्रथम निषेक की शक्तिस्थिति पीर व्यक्तिस्थिति का विचार करने पर व्यक्तस्थिति एक समय अधिक उत्कृष्ट आवावाप्रमाण प्राप्त होती है और इस व्यक्तस्थिति को पूरी स्थिति में से घटा देने पर जितनी शेष रहे उत्तनी शक्तिस्थिति प्राप्त होती है । इस प्रकार यह बन्ध के समय जंसी निषेक-रचना होती है उसके अनुसार विचार हुआ, किंतु उत्कर्षण से इसमें कुछ विशेषता आजाती है। यथा- उत्कर्षण द्वारा जिस निषेक की जितनी व्यक्तस्थिति बढ़ जाती है, उतनी उसकी शक्तिस्थिति घट जाती है । अपकर्षण करने पर जिस निषेक की जितनी व्यक्त स्थिति घट जाती है उतनी उसकी शक्ति स्थिति बढ़ जाती है। यह सब उत्कृष्टस्थितिबन्ध की अपेक्षा शाक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति का विचार है । उत्कृष्ट स्थितिवन्ध न होने पर जितना स्थितिबन्ध कम हो उतनी अन्तिमनिषेक की शक्ति-स्थिति होती है और शेष निषकों की भी इसी अनुक्रमसे शक्तिस्थिति बढ़ती जाती है । ( जयधवल ७।२५० ) ८. अपकर्षण के समय उत्कर्षण नहीं होता, उत्कर्षण के समय अपकर्षण नहीं होता । अब इन सभी (पाठों) नियमों को ध्यान में रखते हुए गाथा ६५ को समझने के लिए उदाहरण देते हैं। मानाकि पावली-३ समय तथा विवक्षित कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४८ समय है तथा प्रारम्भ के १२ समय प्राबाधा के हैं; शेष ३६ समयों में निषेकरचना हुई है; तो प्रथमनिषेक की १३ समय Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ } लब्धिसार [ गाथा ६५ स्थिति पड़ी। (क्योंकि प्राबाधामें निषेक रचना नहीं होती नियम ४) बन्धावली (३ समय) के बीतने पर प्रथम निछोक (जिसकी कि बन्ध के समय शक्तिस्थिति तो ३५ समय तथा व्यक्तस्थिति १३ समय थी (ज.ध. ७।२५६) की व्यक्तस्थिति १० समय ही रहेगी । तब उस प्रथम निछोक का उत्कर्मण होने पर (नियम नं० ३ से) उससमय बध्यमान उत्कृष्ट प्रबद्ध को उत्कृष्ट पाबाधा १२ के बाद १३ वें निषेक में भी निक्षेपण सम्भव नहीं होगा, क्योंकि विवक्षित उत्कृष्यमारण १० समयस्थितिक प्रथम निष्क से ३ समय रितिष्प अनिमपती मोड़कर बादमें ही निक्षेप सम्भव होगा; अत: निक्षेप अध्यमान समयप्रबद्ध के १४ वें समय से होगा और यही चौदहवाँ समय उससमय बध्यमानप्रबद्ध का द्वितीयनिषेक का है (क्योंकि पाबाचा के बाद तेरहवां समय प्रथम निष्क का तथा चौदहवां समय द्वितीय निषेक का है। अतः उत्कर्षण के समय बध्यमान प्रबद्ध के द्वितीयभिषेक से उत्कर्षित द्रव्य का निष्परा होगा तथा बध्यमान वर्तमानप्रबल की अन्तिमप्रावली में निक्षेप नहीं करता: क्योंकि उन कर्मपरमाणुनों की उनमें निक्षेपकरने योग्य शक्ति-स्थिति नहीं पाई जाती । (नियम ७ देखो) (ज.ध. ७।२४९) शेष कथन सुगम है। इसप्रकार द्वितीय निणेक से लगाकर सर्वत्र उत्कर्षितद्रव्य का निक्षेप । होता है, मात्र चरमावली में नहीं होता। चित्रउत्कृष्ट रिस्थतिक समयका उत्फर्षित होने वाले दिन के उत्करण केस्पायडसमयप्रबह स्यमा तिमरिक उस्मादितिक यमनिक २४ समय पथलिक निक - मम्पिसिक निक अन्धाधली टीजेके बाद ४४स्मय अचमनिय कात्तिजनिट TTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT ITTITTTTTTTT HTTrrrITTTTTTम नात विनय अप प्रमाज स्थितिकनिदिकानी मितीप्य निकले ४४स.स्थिलिक निक तकमनीयमावली (ar) (ताके३ समलिता मध्म के समस्त निधक। --... मामतीमार हा प्रयनिरिक T Hमप्यास्पतिय टि.नि. १३म्समाधितिक प्रशिक्षिका प्यान्विति प्र.मि. १२ रूमम याधा TTTTTY 14सम्म मायामा Eसम्म भLT 30 (१,२२१ नोट- या अतिस्थानाबली-प्रालि • व१समयकामाला प्रेमालापा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६६ ] लविसार उक्करसट्ठिदिबंधे भावाद्दामा ससमयमावलियं । ओदरिया से सुक्कड्डेसु अवरमावलियं ।। ६६ ।। अर्थ — उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होनेपर उस कर्मबन्धके प्राचाधाकालसम्बन्धी चरमसमयमें एकसंमग्रश्रधिक श्रावलिकाल पूर्वतक जो उदय माने योग्य सत्कर्मनिषेक हैं, उनके द्रव्यका उत्कर्षरण होनेपर प्रावलिप्रमारा जघन्यप्रतिस्थापना होती है । [ ५७ अन्तिम निषेकका विशेषार्थ- - इस गाथासूत्रका यह भाव है कि जो स्थितियां बंधती हैं, उनमें पूर्ववद्ध, स्थितियोंका उत्कर्षण होता है। और उत्कर्षणको प्राप्त हुई स्थितिको एकआवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है जो निर्व्याघात उत्कर्षरणकी जघन्ययतिस्थापना है । वह इसप्रकार है—७० कोड़ाकोड़ीसागरके बन्धयोग्य कर्मकी पूर्व अन्तः कोड़ा कोड़ीसागरप्रमाण स्थितिका बन्ध हुआ । इसस्थितिके ऊपर बन्ध करनेवाले जीवके एकसमयअधिक, दो समवाविक यादिके कमसे जबतक एकप्रावलि और एक प्रावलिके असंख्यात भाग अधिक स्थितिका बन्ध नहीं होता, तबतक उसस्थितिके उत्कर्षण सम्भव नहीं है, क्योंकि निव्यघातउत्कर्षरणका प्रकरण है । इसलिये एकश्रावलि प्रमाण प्रतिस्थापना और आवलिके प्रसंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य निक्षेप के परिपूर्ण हो जानेपर ही निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण प्रारम्भ होता है । इससे आगे आवलिप्रमाण अतिस्थापनाके अवस्थित रहते हुए अपने उत्कृष्टनिक्षेपको प्राप्ति होनेतक निरन्तर क्रमसे निक्षेपकी वृद्धिका कथन करना चाहिए । इसीप्रकार अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमारण स्थितिके द्विचरम निषेकका भी कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वके निक्षेपस्थानोंसे इसके निक्षेपस्थान एकसमयअधिक होते हैं । इसीप्रकार नीचे सर्वस्थितियोंकी प्रत्येकस्थितिको विवक्षित करके प्ररूपणा करनी चाहिए । नवीन कर्मबन्धकी ग्रावाधाके भीतर एकसमयअधिक प्रावलिप्रमाण नीचे जाकर जो पूर्व सत्कर्मको स्थिति स्थित है, उसके प्राप्त होनेतक प्रतिस्थापना एकश्रावलिप्रमाण हो रहती है । इससे नीचे की स्थितियोंका उत्कर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्वके समान रहता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावली के बाहरकी स्थिति प्राप्त होनेतक इन स्थितियोंको प्रतिस्थापना एक-एकसमय बढ़ती जाती है' । १. ज. प्र. पु. ८ पृ. २५४-५५ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] १. लब्धिसार वह बढ़ती हुई कितनी होती है तो हो कहते हैओरियनदो बिदीयावलिपडमुक्कडणे वरं हेट्ठा । अइच्छावणमाबाद्दा समयजुदावलियपरिहीणा ॥ ३७ ॥ गाथा ६७-६६ अर्थ - वहांसे उतरकर सत्कर्मसम्बन्धी द्वितीयावलिके प्रथम निषेक ( जो वर्तमानसमय से प्रावलिकाल के बाद उदयमें आवेगा ) का उत्कर्षण होनेपर अधस्तन समाविका लिसे हीन प्रबाधाकालप्रमाण उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है । विशेषार्थ -- पूर्वके सत्कर्मसम्बन्धी उदयावलिके निषेकोंका उत्कर्षण सम्भव नहीं है । उदयावलिसे बाह्य- अनन्तर प्रथमनिषेकका उत्कर्ष होनेपर वर्तमान स्थितिवाले कर्मबन्धकी उत्कृष्टबाधाके बाहर स्थित निषेकों में उत्कर्षित प्रदेशों का उत्कृष्टनिक्षेपण होता है। श्रावाधाकाल प्रतिस्थापना होती है । वर्तमानसमय में बंध होनेसे श्रीबाधाकाल वर्तमान समयसे प्रारम्भ हो जाता, किन्तु जिसनिषेकका उत्कर्षण हुआ है, वह वर्तमान समयसे एकग्रावलिके ऊपर स्थित है अतः आबाधाकालमें से एक प्रावलि और एकसमय (उत्कर्षरण होनेवाले निषेकसम्बन्धी ) कम करनेपर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है । उदाहरण - उत्कृष्टस्थितिका प्रमाण ४८ समय उत्कृष्ट प्रबाधा १२ समय : आवलिका प्रमाण समय: वर्तमान में ४८ समय उत्कृष्टस्थितिवाले कर्मका बन्ध हुआ है । वर्तमानसमय से १२ समयवाली उत्कृष्ट प्रावाधा प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु जिस निषेकका उत्कर्ष हुआ है वह उदयावलि (४ समय ) से बाहरका प्रथम निषेक अर्थात् वर्तमान से पांचवां निषेक है, अतः आवाधाकाल ( १२ समय ) में से पांचसमय कम करनेपर (१२-५) ७ समय उत्कृष्ट प्रतिस्थापना है । श्रव प्रकरण प्राप्त गुणश्रेणिनिर्जराका कथन करते हैं-उदयामावलिहि य उभयाणं बाइरम्मि विवरण । लोयागमसंखेज्जो कमसो उक्कणो हारो ॥ ६८ ॥ ॥ प्रोक्कडुिदइ गिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तस्थ | बहुभागमिदं दव्वं उब्वरिल्ल ठिदीषु णिक्खिवदि ॥ ६६ ॥ ज.ध.पु पृ. २५६ ॥ ८ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७०-७३ ] लब्धिसार [ ५६ सेसगभागे भजिद भसंस्खलोगेण तत्थ बहुभागं । गुणसेडीए सिंचदि सेसेगं च उदयम्हि "७०॥ उदयावलिस्स दब्वं आवलिभजिदे दु होदि मझधणं । रूऊणशाणघणणेण णिसेयहारेण ॥७१॥ मझिमधणमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुणिदे आदि णिसेयं विसेसहीणे कम तत्तो ॥७२|| मोक्कड्दिम्हि देदि हु असंखसमयप्पबद्धमादिम्हि । संखातीदगुणक्कममसंखहीणं विसेसहीणकमं ॥७३॥ अर्थ- उदयवान प्रकृतियोंका उदयानलिमें क्षेपण करने के लिए तथा उदय व अनुदयरूप दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंका उदयावलिसे बाहर क्षेपण करनेके लिए भागहार क्रमशः असंख्यातलोक व अपकर्षणभागाहारप्रमाग है । एकभागप्रमाण अपापितद्रव्य को पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर बहुभाग उपरितन स्थितियों में दिया जाता है । शेष एकभावको असंख्यातलोकसे भाजित करनेपर बहुभाग गुणधेरिगमें दिया जाता है और शेष एक भाग उदयावलिमें दिया जाता है। उदयावलिमें दिये जाने वाले द्रव्यको आवलिसे भाजित करनेपर मध्यधन होता है। एककम अवानके प्राधे को निषेकभागहारमें से घटानेपर जो शेष रहे उसका मध्यमधनमें भाग देोपर चयका प्रमारण प्राप्त होता है । चयको निषेकभागाहारसे गुणा करनेपर प्रथमनिषेक प्राप्त होता है, उससे ऊपरके निषेक चयहीन-चयहीन क्रमसे हैं। अपकर्षितद्रव्यमें से गुणश्रेणिके प्रथमनिषेकमें असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य देता है आगे गुरगथ रिणशीर्षतक असंख्यातगुरिणत क्रमसे देता है, अनन्तर असंख्यातगुणे हीन और उससे आगे क्रमसे चयहीन द्रव्य देता है। विशेषार्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें डेढगुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको अर्थात् सत्त्वद्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे भाजितकर वह लब्धरूपसे प्राप्त एकखण्डप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकरके उस एकभागप्रमाण अपकर्षितद्रव्यमें पल्यके असंख्यातर्वेभागसे भाग देनेपर एक भागप्रमाण द्रव्यको असंख्यातलोकसे भाजितकर जो एकभागरूप द्रव्य प्राप्त हो उसे उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकार रूपसे निक्षिप्त किया Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. 1 लब्धिसार [ गाथा ७३ जाता है अर्थात चयहान ऋमसे दिया जाता है। उसका विधान इसप्रकार है-उदयावलि प्रमाण द्रव्य (३२००) को प्रावलिरूप गच्छ (८) से भाजित करनेपर मध्यम धन (३२००८-४००) प्राप्त होता है । एकएकाद्ध बान (८-१=७) के प्राधे (4) को निषेक भागाहार (८x२-१६) में से घटानेपर जो शेष (१६-५ ५ ) का भाग मध्यमधनमें देनेगर चयका प्रमागा (४००-१=३२) प्राप्त होता है । इस चय (३२) को निषेकभागाहार (१६) से गुरगा करनेपर प्रथमनिषेक (३२४१५= ५१२) हो जाता है। इस प्रथमनिषक (५१२) से ऊपरके निषक (४८०-४४८४१६-३८४-३५२-३२०-२८८) चय (३३) हीनक्रममे हैं (५१२-३२=४८०, ४८०-३२-४४८ इत्यादि) । पुनः बहुभागप्रमारग (असंख्यातलोक बहुभाग) द्रव्यको ज्दयावलिसे बाहर गुणश्रेरिणमें देता है । इसमें से उदयावलिसे बाह्य अनन्तर स्थितिम असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करता है तथा उससे उपरिस्थिति में असंख्यातगुण द्रव्यको देता है । इसप्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिककालमें गुणागिशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुरिगत | रिणरूपसे निक्षिप्त करता है। इसप्रकार पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजित अपकर्षितद्रव्य एकभाग द्रव्यका विभाजन हया। शेष बहभागको गणश्रेगिशीर्षसे उपरिमनिपकों में देता है। गुणा श्रेणि शीर्षकी उपरिम अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणा हीनद्रव्य देता है, उसके पश्चात् प्रतिस्थापनाबलिको प्राप्त न होता हुआ उससे पूर्वको अन्तिमस्थिनिपर्यन्त क्रमसे विशेष (चय) हीन द्रव्यका निक्षेप होता है । गुणवे गिाके प्रथमसमयको एकशलाका, इससे असंख्यातगुणी द्वितीयसमयवर्ती शलाका, इससे भी असंख्यातगग्गी तृतीयसमयकी शलाका इसप्रकार गुणभे रिणके अन्ततक प्रतिसमय शलाका असंख्यातगुणित क्रम लिये हुए है। सर्वसमयसम्बन्धी शलाकारोंका जोड़ देकर जो प्राप्त हो उसमे गुणाश्री पीके लिये अपकर्षितद्रव्यको भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको अपनी-अपनी शलाकामोंसे गुणा करनेपर अपने-अपने निषेकके निक्षिप्तद्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। पुनः गुणवे रिगसे उपरिमस्थितियोंके लिए अपकषितद्रव्यको कुछ अधिक डेढ़गुणहानिसे भाजित करनेपर गुणश्रेरिगसे उपरिम प्रथमनिषेकमें निक्षिप्तद्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है जो गुणश्रेरिणके अन्तिमनिषेकमें निक्षिप्त द्रव्यका १. ज. ध. पु. १२ पृ. २६५ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७४-७६ ] लब्धिसार असंख्यातवांभाग है। इससे द्वितीयादि निषेकोंमें क्रमसे चयहीन द्रव्य दिया जाता है । प्रत्येक गुणहानिमें दीयमान द्रव्य आधा-प्राधा होता जाता है । पडिसमयमोक्कड्ड दि असंखएरिणदक्कमेण सिंचदि य । इदि गुणसेढीकरणं भाउगवजाण कम्माणं ॥७॥ अर्थ-प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे द्रव्यका अपकर्षण करके सिंचन करता है । आयुके बिना शेष कर्मोकी इसप्रकार गुणश्रेरिण करता है'। विशेषार्थ-उपरितन द्वितीयादि सर्वसमयों में की जानेवाली गणवेगि संबंधी प्रथमसमयके विधानानुसार कथन करना चाहिए, विशेषता केवल यह है कि प्रथमसमयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको अपकर्षित करता है, द्वितीयसमयके प्रदेशाग्रसे तृतीयसमयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र अपकर्षित करता है । इसप्रकार यह क्रम सर्वसमयोंमें जानना चाहिए। प्रथमसमयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रमे द्वितीयसमयमें स्थितिके प्रति दिये जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है । इसप्रकार सर्वसमयोंमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रका यही क्रम कहना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि प्रतिसमय गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके प्रावामके अनुसार अपकर्षितद्रव्य निक्षिप्त करता है । प्रधानन्तर दो गाथाओंमें गुणसंक्रमणका कथन किया जाता है-- पडिसमयमसंखगुणं दवं संकम दि अप्पसस्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधतसजादिपयडीसु ७५॥ एवं विह संक्रमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्लाणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेडिम्मि ७६।। पर्य-प्रतिसमय बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्रव्य असंख्यातगुणित क्रमसे बध्यमान स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है। प्रथमअनन्तानुबन्धीकषायका ऐसा १. किमट्ठमाउगस्स गुणसेढिरिणक्खेसो गस्थि त्ति चे? ण सहायदो चेव । तत्थ गुणसे दिरिणक्खेव पउत्तीए प्रसंभवादो। (ज. प. पु. १२ पृ. २६४; क. पा. सु. पृ. ६२५) २. ध. पु. ६ पृ. २२७ 1 ३. ज.ध. प. १२ पृ. २६५ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] लब्धिसार ( গাঘ गुणसंक्रमण विसंयोजक कालमें होता है । शिवत्व' व सम्यग्मिध्यात्व' का गुण- . संक्रमण दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणामें होता है । शेष अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपकनेणियों में होता है । __विशेषार्थ-गाथा ७५ व क्षपणासार की गाथा (6-४००) शब्दशः एक ही हैं । गाथा ७५ प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रकरण में पाई है और गाथा ४०० का सम्बन्ध चारित्रमोहकी क्षपणासे हैं । बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोंके द्रव्यका प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे संक्रमण होना गुणसंक्रमण है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके गुणसंक्रमण नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया व लोभका गुणसंक्रमण तो अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करनेवाले जीवके होता है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण इनकी ही क्षपणाके समय होता है। अन्य अबद्धयमान अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपक इन दोनों क्षेगियों में होता है । प्रशस्त व अप्रशस्तरूप उद्घ लनप्रकृतियोंका उद्वेलनके अन्तिमकाडकमें गुणसंक्रमण होता है। अब स्थितिकाण्डकका स्वरूप कहते हैंपढमं अवरवरद्विदिखंडं पल्लस्स संखभागं तु । सायरपुधत्तमेतं इदि संखसहस्सखंडाणि ७७॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिखण्ड आयामका प्रमाण जघन्यसे तो पल्यका संख्यातांभाग और उत्कृष्ट से पृथक्त्वसागरप्रमाण है। अपूर्वकरणमें संख्यातहजार स्थितिखण्ड होते हैं। विशेषार्थ-अघःप्रवृत्तकरणके कालको व्यतीतकर अपूर्वकरगामें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथमसमय में ही स्थितिकांडक और अनुभागकांडकघात प्रारम्भ करता है, क्योंकि प्रपूर्वकरणको विशुद्धिसे युक्त परिणामोंमें इन दोनोंके घात करनेको हेतुता है । १. प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक उपशम सम्यक्त्वीके मिथ्यात्वका गरगसंक्रमण होता है। ... ('त्र. पु. १६ पृ. ४१५; ज.ध. पु. १२ पृ..२८४) २: - मिथ्यात्व को प्राप्त सम्यक्त्वीके ..अन्तिम काण्डकमें द्विधरम फाली तक गणसंक्रमण होता है। (ध. पु १६ पृ. ४१६) टिप्पण नं० १-२ में कथित माय {गुणसंक्रम) क्षपणा तो होते ही हैं। (ध. पु. १६ पृ. ४१५-१६) ३. ५ पु १६ पृ. ४०६ एवं गो. क. गा. ४१६ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८ ] लब्धिसार [ ६३. शंका-अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकांडकका प्रमाण एकप्रकारका है या उसमें जघन्य व उत्कृष्ट भेद भी सम्भव हैं ? समाधान-जघन्यरूपसे पल्य के संख्यातवेंभाग आयामवाला होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके योग्य सबसे जघन्य अन्तःकोडाकोडोप्रमाण स्थितिसत्कर्म से पाये हुए जीवके प्रथम स्थितिकाण्डकका पायाम पल्योपमका संख्यातवांभाग पाया जाता है, किन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोयमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाला प्रथमस्थितिकांडक होता है, क्योंकि पूर्वके जघन्यस्थिति सत्कर्मसे संख्यातगुणे स्थिति सत्कर्मके साथ आकर अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके उसको उपलब्धि होती है । शका-दोनों जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मों में इसप्रकारकी विसदृशता क्यों होती है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि संसारावस्थाके योग्य अवःकरण विशुद्धियां सभी जीवों में समान होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है' । आगे स्थितिकाण्डकघातको विशेषताएं कहते हैंभाउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसत्तो। ठिदिबंधो य अपुरो होदि हुसंखेज्जगुणहीणो ॥७८॥ अर्थ-पायुकर्मको छोड़कर शेषकर्मोका स्थितिघात होता है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयके स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्धसे चरमसमय में अपूर्व स्थितिसत्त्व तथा स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । विशेषार्थ-अपूर्वकरणमें संख्यातहजार स्थितिकांडक होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकांडक से दूसरा स्थितिकांडक संख्यातवांभागहीन है । इसप्रकार अन्तिम स्थितिकांडकके प्राप्त होने तक पूर्व-पूर्वके स्थितिकांडकसे आगे-मागे का स्थितिकांडक विशेष-विशेषहीन होता जाता है । अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिसत्कर्म से अन्तिमसमयवर्ती स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा होन है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथमसमय में जो पूर्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थिति है उसके संख्यातबहुभाग १. २. ज. प. पु. १२ पृ. २६० । ज. प. पु. १२ पृ. २६८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६४ ] लब्धिसार [ गाथा ७९ प्रमाण स्थितिका अपूर्वकरण-विशुद्धि-निमित्तक सहस्रों स्थितिकांडकोंके द्वारा घात होने पर उसके अन्तिमसमयमें संख्यातवेंभागमात्र ही स्थितिकर्म शेष रहता है । अब अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयतक जितने सागरोपम स्थितियोंका घात हना है वह सब पैराशिकके द्वारा प्राप्त हो जाता है। तत्प्रायोग्य संख्यात संख्या प्रमाण स्थितिकांडकोंका यदि एक पल्योषम प्राप्त होता है तो इनसे संख्यातहजारकोटिगुणे स्थितिवाण्डकोंमें कितने पल्योपमा प्राप्त होंगे? इसप्रकार राशिकसे स्थितिकाण्डक स्थितिकाण्डकके सदृश है अतः उनका अपनयन करके अधस्तन संख्यात संख्यासे उपरितन संख्यात संख्याको भाजित करनेसे जो लब्ध आवे उससे पल्योपमको गुरगा करनेपर स्थितिकाण्डकसम्बन्धी गुणाकारके माहात्म्यसे संख्यातकोडाकोड़ीप्रमाण पल्योपम प्राप्त होते हैं । पुनः इन संख्यातकोड़ाकोड़ी पल्योपमोंको त्रैराशिकविधिसे सागरोपमप्रमागसे करनेपर संख्यातकोटिप्रमाण सागर होते है । इतने होते हुए भी अपूर्वकरणके प्रथमसमय में विवक्षित अन्त:कोड़ाकोड़ीके संख्यातबहुभागप्रमाण होते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अपूर्वकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्कर्मसे अंतिमसमयका स्थितिसत्कर्म संम्यातगुणाहीन नहीं बन सकता । स्थितिबन्धापसरणके विषय में भी इसीप्रकारकी योजना करनी चाहिए। अब अनुभागकाण्डकघातका कथन करते हैंएक्केक्कट्ठिदिखंडयणिवणठिदिबंधभोसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य णिवडति रसस्त खंडाणि ॥७९॥ अर्थक स्थितिकाण्डकके पतनकालमें अथवा एक स्थितिबन्धापमरगा काल में संख्यातहजार अनुभागकांडकोंका पतन होता है । विशेषार्थ- अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल और प्रथम स्थितिबन्धका काल अर्थात् स्थितिबन्धापसरणकाल अन्तर्मुहुर्त होकर परस्पर तुल्य होते है। इसीप्रकार द्वितीयादि स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धापसरण (स्थितिबन्द काल परस्पर तुल्य हैं। एक स्थितिकांडक में हजारों अनुभागकाण्डकोंका घात होता है, क्योंकि स्थितिकांडकोत्कीरणकाल से अनुभाग काण्डकोत्कीरण काल संख्यात । १. ज ध. पु. १२ पृ. २६९-७० । २. क. पा. सुत्त पृ ६२५ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७६ ] लब्धिसार [ ६५ गुणा हीन होता है । एक अनुभाग काण्डकोत्कोररणकालका स्थितिकाण्डको कीरणकालमें भाग देने पर संख्यातहजार संख्या प्राप्त होती है । पुनः इस संख्याका विरलनकर प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण कालके समान खण्ड करके प्रत्येक विरलन अ के प्रति देयरूप से देने पर वहां एक-एक अंकके प्रति अनुभागकांडकके उत्कीरणकालका प्रमाण प्राप्त होता है, पुनः यहां पर एक के प्रति जो प्राप्त हुआ उसका विरलन कर पृथक् स्थापित करना चाहिये। अब इसप्रकार का जो पृथक् विरलन स्थापित किया उसके प्रथम समय में पत्योपमके संख्यातवेंभाग प्रसारण आयामवाले प्रथम स्थितिकांडककी प्रथमफालिका पतन होता है। अनुभाग कांडक की भी जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक विरचित स्पर्धकों की अनन्त बहुभागप्रमाण प्रथम फालि का वहीं पर पतन होता है | पृथक् स्थापित हुए उसी विरलनके दुसरे समय में उसी विधि से स्थितिकांडक की दूसरी फालिका तथा अनुभाग कांडक की दूसरी फालि का पतन होता है । इसप्रकार पुनः पुनः उन दोनों को ग्रहण करने से पूर्वोक्त विरलनके एक-एक अंक प्रति समयका जितना प्रमाण प्राप्त हुआ था, तत्प्रमारण फालियों का पतन होने पर प्रथम अनुभागकांडक समाप्त हो जाता है, किन्तु प्रथमस्थितिकांडक अभी भी समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि उसके उत्कीरणकालका संख्यातवां भाग ही व्यतीत हुआ है । पुनः इसी विधि से शेष विरलनों के प्रति प्राप्त संख्यातहजार अनुभागकांडकों का घात करने पर उस समय अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्ध ( प्रथम स्थितिबन्धापसारण ) प्रथम स्थितिकांडक और यहां तक के संख्यातहजार अनुभाग कांडक ये तीनों ही एक साथ समाप्त होते हैं । इसप्रकार एकस्थितिकांडक के भीतर हजारों अनुभागकांडकघात होते हैं यह सिद्ध हुआ' । स्थितिकांडक की चरमफालि के पतनकाल में ही सर्वत्र स्थितिबन्ध समाप्त हो जाता है, क्योंकि स्थितिकांडकोत्कीरणकाल के साथ स्थितिबन्धका काल समान होता है उसी समय में तत्सम्बन्धी अन्तिम अनुभागकांडक की अन्तिमफालि भी नष्ट होती है, क्योंकि अनुभागकांडकोत्कीरणकाल से अपवर्तन किये गये स्थितिबन्ध के काल में विकलरूपता नहीं हो सकती । १. २. ज. ध. पु. १२ पृ. २६६-२६८ । ध. पू. ६ पृ. २२९ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] ___ लब्धिसार । गाथा ८०-८१ अब शुभ-अशुभप्रकृतियों में अनुभागकाण्डकघातका निषेध-विधिरूप कयन करते हैं भसुहाणं पयडीणं अतभागा' रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णस्थि त्ति रसस्त खण्डाणि ।।८01 अर्थ-अप्रशस्त प्रकृतियों के अनन्तबहभागका घात होता है। प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग का धात नियम से नहीं होता। विशेषार्थ-अप्रशस्तप्रकृतियों के तत्कालभांची द्विस्थानीय अनुभागसत्त्व को अनन्तका भाग देने पर एक भाग तो अवशेष रहता है और शेष बहुभाग अनुभागकांडक द्वारा घाता जाता है । अवशेष रहे अनुभागको अनन्तका भाग देने पर बहुभाग अनुभागका घात होता है और एक भाग शेष रह जाता है, क्योंकि करण परिणामों के द्वारा अनन्त बहुभाग अनुभाग धाते जानेवाले अनुभागकांडकके शेष विकल्पों का होना असम्भव है। प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभागकांडंकघांत नियम से नहीं होता, क्योंकि विशुद्धिके कारण प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग, वृद्धिको छोड़ कर उसका धात नहीं बन सकता । एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक अनुभागकांडक होता है। एक अनुभागकांडकोत्कीरण काल के प्रत्येक समयमें एक-एक फालिका पतन होता है । अनुभागगतस्पर्धक आदिका अल्पबहुत्व कहते हैंरसगदपदेसगुणहाणिट्ठाणगडयाणि थोवाणि । भइत्थावणणिक्खेवे रसखंडेणंतगुणिदकमा ॥८॥ अर्थ-अनुभागसम्बन्धी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरमें स्पर्धक स्तोक हैं । उनसे प्रतिस्थापना अनन्तगुणी है, उससे निक्षेप अनन्तगुणा और उससे अनन्तगुणा अनुभागकांडक है । विशेषार्थ-अनुभागविषयक एकप्रदेशगण हानिस्थानान्तर के भीतर जो स्पर्द्धक हैं वे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवेंभागप्रमाण होकर आगे कहे जाने वाले पदों की अपेक्षा स्तोक हैं। अनुभागसम्बन्धी स्पर्धकों का अपकर्षण करते हुए १. क. पा. सुत्त पृ. ६२५ । २. ज.ध.पु १२ पृ. २६१ से २६३ ; ध. पु. ६ पृ. २०६; घ. पु. १२ पृ. १८ एवं ३५ प्रादि । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५२--८३ ] लब्धिसार [ ६५ जितने अनुभाग-स्पर्धकों को जघन्यरूपसे अतिस्थापित कर उनसे नीचे के स्पर्धकरूप से अपकर्षित करता है वे जघन्य अतिस्थापना विषयक स्पर्धक एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धकों से अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि जघन्य प्रतिस्थापना के भीतर अनन्त प्रदेशगुरगहानि स्थानान्तरोंका अस्तित्व पाया जाता है । जघन्य प्रतिस्थापना स्पर्धकों को छोड़कर नीचे के शेष सर्व स्पर्धकोंका निक्षेपरूपसे ग्रहण करने पर वे निक्षेप-स्पर्धक जघन्य प्रतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं । अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमें काण्डकरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धकों से अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमें द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्म के अनन्तवें भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको कांडकरूप से ग्रहण किया है। अब प्रशस्त-प्रप्रशस्तप्रकृतिसम्बन्धी अनुभाग विशेषका कयन करते हैं'पढमापुरुघरसादो चरिमे समये पसत्थइदराणं । रससत्तमणंतगुणं अांतगुणहीणयं होदि ॥२॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समय सम्बन्धी प्रशस्त प्रशस्त प्रकृतियों का जो. अनुभाग सत्त्व है उससे अपूर्वकरण के चरम समय में प्रशस्तप्रकृतियों का अनुभाग तो अनन्तगुणा बढ़ता हुआ तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुरणा हीन होता हुआ अनुभाग सत्त्व है। विशेषार्थ-अपूर्वकरण में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा बढ़ता अनुभाग सत्त्व है तथा अनुभागकाण्डकघात के माहात्म्य से अप्रशस्तप्रकृतियों का अनन्तवा भाग अनुभाग सत्व चरमसमय में होता है । प्रब अनिवृत्तिकरण परिणामोंका स्वरूप और उसका कार्य कहते हैं-- विदियं व तदियकरणं पडिसमयं एक्क पक्क परिणामो। अण्णं ठिदिरसखंडे भगणं ठिदिबंधमाणुवई ॥१३॥ १. ज.ध. पु. १२ पृ. २६२-६३ । २. ध. पु. ६ पृ. २२६ । ३. घ. पु. ६ पृ. २२६-३० । ज. व. पु. १२ पृ. २७१ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2--- लोयसार [ गाथा ८४ अर्थ-दूसरे करण (अपूर्वकरण) के समान ही तृतीयकरण ( अनिवृत्तिकरण ) होता है, किन्तु प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है। अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक और अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है ।। विशेषायं-अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिकांडकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणश्रेणी ये सभी क्रिया अपूर्वकरणवत् होती हैं, किन्तु इनका प्रमारण अन्य होता है । अपूर्वकरण में प्रत्येक समयके परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण. होते हैं, किन्तु अनिवृत्तिकरणमें प्रत्येक समयमें नानाजीवों के एक सा ही परिणाम होता है । नानाजीवों के परिणामों में निवृत्ति अर्थात् परस्पर भेद जिसमें नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है। ___ अनिवृत्ति करण में प्रविष्ट होनेके प्रथम समय से ही अपूर्वकरण के अन्तिम स्थितिकांडक से विशेष हीन अन्य स्थितिकांडक को प्रारम्भ करता है । पूर्व के स्थितिबन्ध से पल्योपम के संख्यातवेंभागप्रमाण हीन स्थितिबन्ध भी वहीं पर प्रारम्भ करता है तथा घात करने से शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभागप्रमाग काण्डकको भी वहीं पर ग्रहण करता है, किन्तु गुणश्रेरिणनिक्षेप पूर्वका ही रहता है जो प्रधःस्तनस्थितियों के गलने पर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असंख्यातगुणे प्रदेशों के विन्यास से विशेषता को लिए हुए होता है। शेष बिधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए । अब अनिवृत्तिकरणकालमें विशेष कार्यका कथन करते हैंसंखेज्जदिमे सेसे दंसणमोहस्स अंतरं कुणई । अणणं ठिदिरसखंड अरणं ठिदिषधणं तस्य ॥८४|| अर्थ--(अनिवृत्तिकरणकाल का) संख्यातांभाग शेष रह जाने पर दर्शनमोहनीयकर्मका अन्तर करता है। वहां पर अन्यस्थितिकाण्डक अन्य अनुभागकाण्डक और अन्य ही स्थितिवन्ध होता है । _ विशेषार्थ- इसप्रकार अनन्तर पूर्व कही गई विधि के अनुसार जो प्रत्येक स्थितिकाण्डक हजारों अनुभाग काण्डकों का अविनाभावी है; ऐसे बहुत हजार स्थिति १. प्र. पु. १ पृ. १८३ एवं क. पा. सुत्त पृ. ६२४ ; ज. ध. पु १२ पृ. २५६ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २७१ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८५ ] लब्धिसार काण्डकों के द्वारा अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभाग को बिताकर संख्यात भागप्रमाण काल शेप रहने पर अन्तरकरग का प्रारम्भ करता है । शका–अन्तरकरण किसे कहते हैं. ? समाधान-विवक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्य की अन्तमुहर्तप्रमाण स्थितियों के निषेकों का परिणाम विशेष के कारण प्रभाव करने को अन्तरवारण कहते हैं। उस समय पूर्व स्थितिकांडक से अन्यस्थितिकांडक, पूर्व अनुभागकाण्डक से अन्य अनुभागकाण्डक, पूर्व स्थितिबन्ध से अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है। अथानन्तर अन्तरकरण में लगने वाले कालका परिमाण कहते हैंएयदिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती । अंतोमुत्तमे अंतरकरणस्स अद्धाणं ॥५॥ अर्थ-एक स्थितिकांडकोत्कीरणकाल के द्वारा अन्तरकी निष्पत्ति होती है । . अन्तरकरणका अध्वान अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ___ विशेषार्थ-अन्तर करनेवाला कितने काल के द्वारा अन्तर करता है ? जो उस समय स्थितिबन्ध का काल है अथवा स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल है उतने काल के द्वारा अन्तर करता है । इस वचन के द्वारा यह बतलाया गया है कि एक समय द्वारा अथवा दो या तीन समयों द्वारा इसप्रकार संख्यात और असंख्यात समयों द्वारा अन्तरकरण विधि समाप्त नहीं होती, किन्तु अन्तर्मुहुर्तकालके द्वारा ही यह विधि समाप्त होती है। अन्तरकरण के प्रारम्भ के समकालभावी स्थितिबन्धके कालप्रमारण द्वारा प्रत्येक समयमें अन्तर सम्बन्धी स्थितियोंका फालीरूपसे उत्कीरण करने वाले जीव ने क्रमसे किया जाने वाला अन्तर, अन्तरकरणके काल सम्बन्धी अन्तिम समय में अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालि का पतन करने पर सम्पन्न किया। यह मिथ्यात्वकर्म का ही १. ज घ. पु. १२ पृ. २७२, २७४-७५; क. पा. सुत्त पृ. ६२६-अन्तरायामके समस्त निषेकोंके प्रथम व द्वितीय स्थितिमें देनेको अन्तरकरण कहते हैं । ध. पु. ६ प. २३१; क. प्र. ग्रन्थ पृ. २६० । २. ज.ध. पु. १२ पृ. २७३ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] लब्धिसार [ गाथा ६ अन्तरकरण है, क्योंकि दर्शनमोहनीय के उपशामना में अन्य कर्मोके अन्तरकरणका अभाव है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सत्कर्म वाला जीव यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उन कर्मप्रकृतियोंका भी अंतरकरण इसी विधि से करता है, किन्तु उन प्रकृतियों सम्बन्धी नीचे की एक आवलिप्रमाण (उदयावलिप्रमाण) स्थितियोंके सिवाय उपरितन स्थितिसे लेकर ऊपर मिथ्यात्वके अन्तर सदृश अन्तर करता है। अब अन्तरायामका प्रमाण एवं उसमें निषेक रचनाविधिका कथन करते हैंगुणसेढीए सीसं तत्तो संवगुण उवरिमठिदि च । हेढुवरिम्हि य भाषाहुझिय बंधम्हि संछुहदि ॥८६॥ अर्थ--गुणश्रेणी शीर्ष और उससे संख्यातगुणे उपरितन निषेकों के मिथ्यात्व द्रव्य को ग्रहण कर नीचे प्रथम स्थिति में और ऊपर उस समय वंधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा को उल्लंघ करके बंधने वाले कर्मों के निषकों के साथ द्वितीय स्थिति में देता है। विशेषार्थ-गण श्रेणी शीर्ष अर्थात अनिवत्तिकरण काल से उपरिम विशेष अधिक गुणश्रेणी निक्षेप उस सबको तथा गुणश्रेणी शीर्ष से ऊपर अन्य भी संख्यात मुणी स्थितियों (निषेकों) को अन्तर के लिए ग्रहण करता है । अन्तर के लिए जितनी स्थितियों को ग्रहण करता है उसको अन्तरायाम संज्ञा है, उस अन्तरायाम से नीचे जितना अनिवत्तिकरण का काल शेष है वह प्रथम स्थिति है। उस अन्तरायाम से जितनी उपरितन कर्मस्थिति है वह द्वितीय स्थिति है । अन्तर के लिये जो द्रव्य ग्रहण किया गया है उसको प्रतिसमय फालि रूप से प्रथम स्थिति व द्वितीयस्थिति में देता है, किन्तु उस समय बंधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा में नहीं देता है । अन्तरफालियों में असंख्यातगुणे क्रम से द्रव्य को ग्रहण करता है। कुछ प्राचार्यों का यह मत है कि गणश्रेग्गिशीर्ष से नीचे संख्यातवें भाग स्थितियों का भी खण्डन करता है। एक स्थितिकाण्डक उत्कीरण काल के जितने समय हैं उतनी ही फालियों द्वारा अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के द्रव्य का उत्कीरा किया जाता है । अन्तर करने के काल के चरम समय १. ज.ध.पु. १२ पृ. २७५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा ८७-८८ ] लब्धिसार में अंतरसम्बन्धी अंतिमफाली का पतन होने पर अंतर का कार्य सम्पन्न हो जाता है । इसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण का जो काल शेष रहा वह प्रथमस्थितिप्रमाण है'। प्रयानन्तर अन्तरकरणको समाप्ति के पश्चात् होने वाले कार्य को कहते हैंभतरकदपढमादी पडिसमयमसंखनुदिमुक्समदि । गुणसंकमेण देसणमोहणियं जाव पढमठिदी ॥७॥ अर्य-अन्तर कर चुकने के पश्चात् प्रथम समय से प्रथमस्थिति के अन्त तक प्रतिसमय गुरणसंक्रमण के द्वारा असंख्यातगुणे क्रमसे दर्शनमोह को उपशमाता है ।। विशेषार्थ- इसप्रकार एक स्थितिकांडकोत्कीरण काल के बराबर काल द्वारा अन्तरकरण कर लेने के पश्चात् का समय प्रथमस्थिति का प्रथम समय है उसी प्रथमस्थिति के चरम समय पर्यन्त प्रतिसमय अंसंख्यातगुणे क्रमसे अंतरायाम के ऊपरवर्ती निषेकरूप द्वितीयस्थिति में स्थित दर्शनमोहनीय के द्रव्य का उपशम करता है । । यद्यपि यह जीव पहले ही अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर उपशामक ही है तथापि अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुंभागों के बीत जाने पर तथा संख्यातवां भाग शेष रहने पर अन्तर को करके वहां से लेकर दर्शनमोहनीय की प्रकृति, स्थिति और प्रदेशों का उपशामक होता है । करण परिणामों के द्वारा निशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते हैं । उपशम करने वाले को उपशामकं कहते हैं । अब वशंनमोहनीय को उपशम क्रियामें पायी जाने वाली विशेषताका कयने करते हैं पढमढिदियालिडिपावलिमेसेंसुणस्थि भागाला। पडिभागाला मिच्छत्तस्स य गुणसे ढिकरणं पि ॥८॥ अर्थ-प्रथम स्थिति में प्रावली प्रत्यावली अर्थात उदयाबली और द्वितीयावली अवशेष रहने पर आगाल-प्रत्यागाल तथा मिथ्यात्व की मुगाधेणी नहीं होती है । १. ध. पु. ६ पृ. २३२ । एवं ज. घ. पु. १२ १ २७३.२७५ 1 २. ज. ध पृ. १२ पृ. ६७६ । ३. ज. प. पृ. १२ पृ. २८० । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] लब्धिसार [ गाथा ८६ विशेषार्थ-'पागालनं आगालः' अर्थात् द्वितीयस्थिति के कर्म परमाणुओं का प्रथम स्थिति में अपकर्षण वश पाना आगाल है । 'प्रत्यागालनं प्रत्यागालः' अर्थात् प्रथम स्थिति के कर्मपरमाणुओं का द्वितीयस्थिति में उत्कर्षण वश जाना प्रत्यागाल है। प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्मपरमाणुओं का उत्कर्षरण-अपकर्षण वश परस्पर विषय संक्रमण का नाम भागाल-प्रत्यामाल है । यह आगाल-प्रत्यागाल तब तक व्युच्छिन्न नहीं होता जब तक प्रथमस्थिति में एकसमय अधिक आवलि-प्रत्यावलि शेष रहती है ! अतएव प्रावलि-प्रत्यावलि को उसकी मर्यादा स्वरूप से गाथा सूत्र में निदेश किया है। प्रावलि कहने से उदयावलि का ग्रहण होता है प्रत्यावलि शब्द से उदयावलि से उपरिम दूसरी प्रावलि का रहा होता है। प्रथमस्थिति के प्रावलि-प्रत्यावलि मात्र शेष रहने पर आगाल-प्रत्यागाल के विच्छेद का नियम है । पावलि और प्रत्यावलि के शेष रहने पर मिथ्यात्व को गुणश्रेणी भी नहीं होती, क्योंकि दूसरी स्थिति से प्रथम स्थिति में कर्म परमाणुओं के आने का निषेध है। यदि कहा जाये कि प्रथमस्थिति में प्रत्यावलि के कर्म परमाणुओं का अपकर्षण करके गुणश्रेणी निक्षेप किया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उदयावलि के भीतर गुणश्रेणी निक्षेप का होना असम्भव है । प्रत्यावलि से अपकर्षित प्रदेशपुज का वहीं गणश्रेणी में निक्षेप होता है यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि अपनी प्रतिस्थापना में अपकर्षित द्रव्य के निक्षेप का विरोध है,' किन्तु शेष कर्मों की गुणवेरिण होती है । आगे प्रथमसम्यमत्वके ग्रहणकाल में होने वाले कार्य विशेषका कथन करते हैं अंतरपटमं पत्ते उवलमणामो हु तस्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवट्ठाइदूण कुणदि तिघा ॥८६॥ अर्थ- अन्तर के प्रथम समय को प्राप्त होने पर उपशम सम्यग्दृष्टिजीव वहां पर मिथ्यात्व को अपवर्तन करके स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात के बिना तीन प्रकार करता है । १. २. ज.ध. पु. १२ पृ. २७७-७८ । ज. प. पु. १२ पृ. २७६ ; क. पा. सुत्त पृ ६२८ सूत्र ६९ | . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } नाथा ६० ] Z लब्धिसार विशेषार्थ - अन्तर में प्रवेश [ ७३ करने के प्रथम समय में ही दर्शनमोहनीय का उपशामक उपशम सम्यग्दृष्टि हो गया, किन्तु यहां पर सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशमपने को प्राप्त होने पर भी दर्शनमोहनीय के संक्रमण और अपकर्षण करण पाये जाते हैं । उसी समय वह मिथ्यात्यकर्म के तीन कर्म रूप भेद उत्पन्न करता है । जैसे यन्त्र से कोदों के दलने पर उनके तीन भाग हो जाते हैं, वैसे ही अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीय के तीन भेदों की उत्पत्ति होने में विरोध का प्रभाव है ' । अब स्थिति अनुभागको अपेक्षा मिथ्यात्वद्रव्यका तीनरूप विभाग बताते हैंमिच्छत्तमिस्लसम्म सरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो । सत्तीदोय असंखातेय य हाँति भजियकमा ॥१०॥ अर्थ - मिथ्यात्व, मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ), सम्यक्त्व प्रकृतिरूप दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार होता है वह क्रमसे द्रव्य की अपेक्षा असंख्यातवां भाग मात्र और अनुभाग की अपेक्षा अनन्तवां भाग प्रमाण जानना । विशेषार्थ - मिथ्यात्व के परमाणुरूप द्रव्य को गुणसंक्रम भागहार का अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक अधिक प्रसंख्यातसे गुणा करने पर जो लब्ध प्रावे उतने द्रव्य के बिना बहुभाग प्रभारण समस्त द्रव्य मिथ्यात्वरूप है । गुण संक्रमण भागहार से भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को असंख्यात से गुणा करने पर जो लब्ध आया उतना द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणमित हुआ और गुणसंक्रमभागहार मे भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को एक से गुणा करने पर प्राप्त लब्ध प्रमारण द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप परिरमित हुआ उससे असंख्यातवां भाग रूप क्रम द्रव्यापेक्षा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वप्रकृतिमें प्राप्त हुआ । अनुभागापेक्षा संख्यात अनुभागbishi के घात से मिथ्यात्व का अनुभाग पूर्व अनुभाग का अनन्तवांभाग प्रमाण अवशिष्ट रहा उससे श्रनन्तवां भाग अनुभाग सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग है तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के इस अनुभाग से अनन्तवां भाग सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग है । १. ज. ध. पु. १२ पृ. २६०-६१ । ज. ध. पु. ६ पृ. ८३, क. पा. सुत्त. पू. ६२० सूत्र १०२-१०३ ध. पु. ६ पृ. ३८ व २३२ ध. पु. १३५. ३५८ श्रमितगति श्रावकाचार श्लो. ५३ । २. ध. पु. ६ पृ. २३५ । . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] लब्धिसार [ गाथा इस प्रकार अनुभागापेक्षा अनन्तवें भाग रूप क्रम है । प्रर्थात् मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग से सम्यरिमथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुरगा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग सम्यक्त्वप्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है' । प्रथानन्तर गुणसंक्रमणको सीमा और विध्यातसंक्रमके प्रारम्भका कथन करते हैं पढमादो गुणसंकमचरिमोति य सम्ममिस्ससम्मिस्से | अहि गदियाऽसंखगुणो विकादो संकमो तत्तो ॥ ६१ ॥ अर्थ -- गुणसंक्रम कालके प्रथम समय से अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय सर्प की गति के समान असंख्यातगुणे क्रम सहित मिथ्यात्वरूप द्रव्य है वह सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति रूप परिणमता हैं। इसके ( गुणसंक्रमण के ) पश्चात् विध्यात संक्रमण होता है । विशेषार्थ -- प्रथमसमयवर्ती उपशान्तं दर्शनमोहनीय जीव के द्रव्यमें से सम्यग्मिथ्यात्व में बहुत प्रदेशपुञ्ज को देता है, उससे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्ज को सम्यक्त्व प्रकृति में देता है । प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्व में दिये गये प्रदेशों से द्वितीय समय में सम्यक्त्वप्रकृति में असंख्यातगुणितं प्रदेशों को देता है और उसी दूसरे समयमें सम्यक्त्वप्रकृति में दिये गये प्रदेशों की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुरिणत प्रदेशों को देता है । इसप्रकार इस परस्थान अल्पबहुत्वं विधि से अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यंत गुणसंक्रमण के द्वारा मिथ्यात्व के द्रव्य में से सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व को पूरित करता है । यहां गुणसंक्रम भागहार प्रतिभांग है जो पल्योपम के असंख्यातवें भागं प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशों के आने के निमित्त रूप गुणसंक्रम भागहार से सम्यक्त्व के प्रदेशों के आने का निमित्त गुणसक्रम भागहार असंख्यातगुणा है । स्वस्थान अल्पबहुत्व का कथन करने पर प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्वं में संक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज स्तोक है । दूसरे समय में संक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज असंख्यात गुणा है । यह प्रसंख्यातगुणा क्रमं गुणसंक्रमण के अन्तिम समय तक जानना चाहिए । इसीप्रकार सम्यक्त्व का भी स्वस्थान अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। यहां १. घ. पु. ६ पू. २३५ । २. - ध. पु. ६ पृ. २३५; ज. व. पु. १२ पृ. २८२ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ५ गाथा ९२-९३ ] [ ७५ उपशम सम्पादृष्टि के द्वितीय समय से लेकर जहां तक मिथ्यात्व का गुण संक्रम होता है वहां तक सम्यग्मिथ्यात्व का भी संक्रमण होता है, क्योंकि सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग के प्रतिभागरूप विध्मातगुणसंक्रमण द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्य का सम्यक्त्व में संक्रमण उपलब्ध होता है। इस गुगसंक्रमण के पश्चात् सूच्यंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रभावाला मिथ्यात्व द्रव्य का विध्यातसंक्रमण होता है । जब तक उपशमसम्यग्दृष्टि द्वार वेदक सम्यग्दृष्टि है । विध्यात् अर्थात् मन्द हुई है विशुद्धि जिसकी ऐसे जीव के स्थितिकांडक, अनुभाग कांडक और गुणश्रेणि आदि परिणामों के रुक जाने पर प्रवृत्त होने के कारण यह विध्यात संक्रमण है । जब तक मिथ्यात्व का गुणसंक्रमण होता है तब तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामों के द्वारा दर्शनमोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों के स्थितिकांडक घात और गुणश्रेणी निक्षेप होते रहते हैं, किन्तु उपशान्त अवस्था को प्राप्त मिथ्यात्व का स्थितिकांडक आदि का प्रभाव है । अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के उपरम (समाप्त) हो जाने पर भी पूर्व प्रयोग वश कितने ही काल तक अन्य कर्मों का स्थितिकांडक आदि होने में बाधा नहीं उपलब्ध होती' । ब५ गाथाओं में अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल आदि २५ पढों का अल्पबहुत्व कहते हैं विदियकरणादिमादो गुणलंकमपूरणस्स कालोति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्प बहु ॥ ६२॥ अर्थ - पूर्वकरण के प्रथम समय से गुणसंक्रमणकाल के पूर्ण होने तक किये जाने वाले अनुभागकांङकोत्कीरणकालादि का ग्रल्पबहुत्व कहेंगे । ( इस प्रकार प्रस्तुत गाथा में आचार्यदेव ने आगे किये जाने वाले कथन की प्रतिज्ञा की है । } अंतिम रसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहियो । तत्तो संखेज्जगुणो चरिमट्ठिदिखंडह दिकालो ॥६३॥ अर्थ -- ग्रन्तिम अनुभाग कांडकोत्कीरण काल से प्रथम अनुभाग कांडकोत्कीरणकाल विशेषाधिक है। उससे अन्तिम स्थितिकांडक काल व स्थितिबंधाप सरणकाल संख्यानगुणा है । १. ध. पु. ६ पृ. २३५-३६; जयधवल पु. १२ पृ. २८२ से २८४ आधार से । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ६४ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीय की प्रथम स्थिति के चरम समय में होने वाले तथा अन्य कर्मों के गुणसंक्रमण काल के अन्तिम समय में जो अनुभागकांडक होता है उसका घात करने का जो अन्तर्नु तमनागनाल है ना अन्तिम अनुभागखंडोत्कीरण काल है जो कि आगे कहे जाने वाले अनुभाग कांडकोत्कीरण काल से स्तोक है। इससे इसीके संख्यातवें भागप्रमारण अर्थात् संख्यात पावलि विशेष से अधिक अपूर्वकरण के प्रथम समय में प्रारम्भ होने वाले अनुभागकांडकोत्कीरण का काल है, क्योंकि अन्तिम अनुभागकांडक से विशेष अधिक क्रम से संख्यातहजार अनुभागकांडक नीचे उतरने पर इसकी उपलब्धि होती है । इससे संख्यातगुणा काल अन्तिम स्थितिकांडकोत्कीरगण काल और स्थिति बन्धापसरण काल है ये दोनों परस्पर समान हैं, क्योंकि एक स्थितिकांडककाल के भीतर संख्यात हजार अनुभागकाण्डक होते हैं । मिथ्यात्व को प्रथम स्थिति के अन्त में होने वाला स्थितिकांडक और अन्य कर्मों का गुणसंक्रम काल के अन्त में होने वाला स्थितिकाण्डक, सो अन्तिम स्थितिकाण्डक काल है' ।। तत्तो पढमो महिनो पूरणगुणसेडिसीसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥६४|| अर्थ-चरम स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल से प्रथम स्थितिकाण्डकोत्कीरगा काल अधिक है । इससे सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र प्रकृति) के पूरग का काल संख्यात गुणा है । इससे गुणश्रेणीशीर्ष संख्यातगुणा है, इससे प्रथम स्थिति संख्यातगुणी है और इससे उपशम करने का काल विशेषाधिक है । ___ विशेषार्थ-यद्यपि गाथा में अन्तर करने का काल नहीं कहा गया है, किन्तु कषायपाहुड़ चूणिसूत्रकार ने 'अन्तर करने का काल' इस अल्पबहुत्व में ग्रहण किया है। उसके अनुसार गाथा ६३ में पूर्वोक्त चरम स्थितिकाण्डकघात काल से अन्तर करने का काल और वहीं पर होने वाले स्थितिबन्ध का काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं, क्योंकि पूर्वोक्त काल से नीचे अन्तमुहर्तकाल पीछे जाकर इन दोनों कालों को प्रवृत्ति होती है। उससे प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल और स्थिति बंध का १. ज. घ. पु. १२ पृ. २८६-८७ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २८७ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६५ ] लब्धिसार [ ७७ काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक है, क्योंकि पूर्वोक्त दोनों कालों से नीचे अन्तर्मुहूर्त काल पीछे जाकर अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिकाण्डक के समय इनकी प्रवृत्ति होती है। इन दोनों से उपशामक जीव जब तक गुणसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्रप्रकृति को पूर्ण करता है वह काल संख्यातगुणा है, क्योंकि उस काल के भीतर संख्यात स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्ध सम्भव है। प्रथम समयवर्ती उपशामक (अन्तर करने वाला ) का गुणश्रेणीशीर्ष अर्थात् अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालिका पतन होते समय गुणश्रेणी निक्षेप' के अनाग्रसे संख्यातवें भाग का खंडन कर जो फालि के साथ निर्जीर्ण होने वाला गुणश्रेणि शीर्ष है वह पूर्वके मुरण संक्रम सम्बन्धीकाल से संख्यातगुणा है, क्योंकि गुणवेणि शीर्ष के संख्यातवें भाग में ही गुणसंक्रमकाल का अंत हो जाता है । अथवा गाथा सूत्र में प्रथम समयवर्ती उपशामक सम्बन्धी मिथ्यात्व का गुणश्रेणीशीर्ष ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहा है कि सम्मान्यरूप से गुणश्रेणी शीर्ष कहा गया है, इसलिये प्रथम समयवर्ती उपशामक के शेष कर्मोके गुणश्रेरिणशीर्षका नहरण करना चाहिए क्योंकि उन कर्मोका अन्तरकरण न होने से प्रथमसमयवर्ती उपशामकके उसके सम्भव होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता । उससे प्रथमस्थिति संख्यातगुणी है, क्योंकि प्रथम स्थिति के संख्यातवें भाग मात्र ही गुणश्रेणीशीर्ष को अन्तर के लिये ग्रहण किया गया है। उससे उपशामक का काल विशेष अधिक अर्थात् एक समय कम दो प्रावलिमात्र विशेष अधिक है, क्योंकि अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के द्वारा बांधे गये मिथ्यात्व सम्बन्धी नवक बन्ध का एक समय प्रथम स्थिति में ही गल जाता है, पुनः इस प्रथम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम समय को छोड़ कर उपशम सम्यक्त्व काल के भीतर एक समय कम दो अाबलि प्रमाण ( बन्धावलि व संक्रमावलि ) काल ऊपर जाकर उस नवक बन्ध की उपशामना समाप्त होती है इसलिये प्रथमस्थिति में एक समय कम दो प्रावलिकाल प्रवेश कराकर यह विशेष अधिक हो जाता है। अणियट्टीसंवगुणो णिय द्विगुणसेढियायदं सिद्धं । उबसंतद्धा अंतर अवरवरावाह संखगुणियकमा ।।५।। १. मुणश्रेणीनिक्षेप = गुणश्रेणी-आयाम । २. ज. प. पु. १२ पृ. २८५-२२० । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. लब्धिसार [ गाथा ६५ अर्थ -- अनिवृत्तिकरण का काल संख्यातगुणा है इससे अपूर्वकरण का काल, गुरपरि का आयाम, उपशम सम्यक्त्वका काल, अन्तरायाम, जघन्य आबाधा और उत्कृष्ट प्रबाधा ये संख्यातगुरिगत क्रम से हैं । ७८ ] विशेषार्थ - प्रथम स्थिति से एक समय कम दो आवलि अविक उपशमावने ( उपशामक) के काल से अनिवृत्तिकरण का काल संख्यातगुरणा है, क्योंकि सर्वदा अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यातवें भाग में प्रथमस्थिति की उपलब्धि होती है । इससे पूर्वकरण का काल संख्यातगुरणा है, क्योंकि सर्वदा अनिवृत्तिकरणकाल से अपूर्वकरणकाल संख्यातगुणा होता है। इससे गुणश्रेणि आयाम ( गुण णिनिक्षेप ) विशेष अधिक है, क्योंकि पूर्वकरण के प्रथमसमय से गुरराश्र रियायाम की उपलब्धि होती है। जो वृत्तिरकाल व अनिवृत्तिकररपकाल के संख्यातवें भाग सहित पूर्वकरणकालप्रमाण है । इसलिये गुण आयाम, अपूर्वकरणकालसे प्रनिवृत्तिकरणकाल व अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवें भाग काल प्रमाण अधिक है। गुरुगन रिण आयाम से उपशान्ताद्धा अर्थात् उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। इससे संख्यातगुणा अंतरायांग है, क्योंकि अन्तर का आयाम प्रर्थात् जितने निषेकों के मिध्यात्वद्रव्य का अभाव किया गया है उन निषेकों का काल संख्यातगुणा है, क्योंकि अन्तरायाम के संख्यातवें भाग में ही उपशमसम्यक्त्व के काल को गलाकर उससे आगे दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियों में से किसी एक का प्रपकर्षण कर उसका वेदन करता हुआ अन्तर को समाप्त करता है । अन्तरायाम से संख्यातगुणी जघन्य आबाधा है । अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के जो नवकबन्ध होता है, उसकी आबाधा जघन्य होती है, क्योंकि अन्यत्र मिथ्यात्व की जघन्य ग्राबाधा उपलब्ध नहीं होती, परन्तु शेष कर्मों का गुणसंक्रमण के अन्तिम समय में जो नवक बन्ध होता है; उसकी श्राबाधा जघन्य होती है, क्योंकि गुणसंक्रमण काल को उल्लंघकर विध्यातसंक्रम को प्राप्त हुए जीव के मन्दविशुद्धि वश स्थितिबन्ध वृद्धि - गत होता है इसलिये वहां की आबाधा सबसे जघन्य नहीं हो सकती । जधन्य बाधा से उत्कृष्ट प्रावाचा संख्यातगुणी है । सर्व कर्मों की प्रपूर्वकरण के प्रथम समय में स्थितिबन्ध सम्बन्धी आबाधा यहां पर उत्कृष्ट प्रबाधारूपसे विवक्षित है । जघन्य स्थितिबन्ध से यह स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है इसलिए इसकी आबाधा भी संख्यातगुणी है' । ज.ध. पु. १२ पृ. २६० २६३ । 2 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा ६६ } । पढमापुवजहगणढिदिखंडम स्विसंगुणं तस्स । अवस्वरदिदिबंधा तद्विदिसत्ता य संखगुणियकमा ॥६६॥ अर्थ-अपूर्वकरण के प्रथम समय में जघन्य स्थितिखण्डं असंख्यातगुरणा है, इससे संख्यातगुणा जघन्य स्थितिबन्ध है। इससे संख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, इससे संख्यातगुणा जघन्य स्थितिसत्त्व तथा उससे संख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है। इसप्रकार संख्यात गुरिणत क्रम से स्थान जानना । _ विशेषार्थ-गाथा में “पढेमापुब्वजहरंगठिदिखंडमसंखसंगुण" पाठ है । घ. पु. ६ पृ. २३७ पर "अपुष्वकरणस्स पढमसमए जपणो छिदिखंडप्रो असंखज्जगुरंगी" यह पाठ है । इन दोनों का अर्थ है कि "अपूर्वकरण के प्रथम समयमें जघन्य स्थितिखंड असंख्यातगुरगा है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ. २६३ पर चूणिसूत्र "जहएणय टिदिखंडयमसंखेज्जगुण" पाठ हैं। इसमें "पढमापुन्च" अर्थात् 'अपूर्वकरणके प्रथम समय में यह पाठ नहीं है। इस पाठ के अभाव में प्रथम स्थिति के अन्त में होने वाले 'स्थितिखण्ड' का ग्रहण होता है, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिखण्ड की अपेक्षा प्रथमस्थिति के अन्त का स्थितिखण्ड जघन्य है। यह जघन्य स्थिति खण्डं भी पूर्वोक्त उत्कृष्ट आबाधा से असंख्यातगुणा है । जयधवला टीका में कहा भो है--मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति अल्प शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिमस्थितिकाण्डक का और शेषकर्मों के गुणसंक्रमण काल के शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकांडक का जघन्य स्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करना चाहिए । यह पल्योपमके संख्यातवभाग प्रमाण होनेसे पूर्वमें कही गई उत्कृष्ट पाबाधा से असंख्यातगुणा है । यद्यपि गाथामें 'उत्कृष्ट स्थिति खण्ड' का कथन नहीं है, किन्तु ध. पु. ६ पृ. २३७ व जयधवल पु. १२ पृ. २६४ के आधारसे यहां उसका कथन किया जाता है--- अपूर्वकरण का 'उत्कृष्ट स्थितिखण्ड' जघन्य स्थितिखण्ड से संख्यातगुणा है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिखण्ड का प्रमाण सागरोपम पृथक्त्व है। उससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, क्योंकि अन्तिमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिबंध और शेष कर्मों का गुणसंक्रम के अन्तिम समय का जघन्य स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण हैं । उससे उत्कृष्टस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, क्योंकि सभी कर्मों का अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्व में कहे गये जघन्य Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] लब्धिसार [ गाथा ६७-६८ स्थितिबन्ध से संख्यातगणा है। उससे जघन्य स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में मिथ्यात्व का जो जघन्य स्थिति सत्कर्म होता है और शेष कमों का भी गुरासंक्रमण काल के अन्तिम समय में जो जघन्य सत्कर्म होता है, बन्ध की अपेक्षा उस सत्कर्म के संख्यातगुणा होने में कोई विरोध नहीं है। उससे उत्कृष्ट सत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि सभी कर्मों के अपूर्वकरण सम्बन्धी प्रथम समय से सम्बन्ध रखने वाले उत्कृष्ट सत्कर्म का प्रकृत में अवलम्बन लिया गया है । इसप्रकार पच्चीस पदवाला दण्डक समाप्त हुआ' । . अब प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहणकालमें पाये जाने वाले स्थितिसत्त्वका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडी जाहे संखेज्जसायरसहस्से । गुणा कम्माण ठिदी ताहे उबसमगुणं गहइ ॥१७॥ अर्थ-जब संख्यात हजार सागर से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति सत्त्व होता है उस समय में उपशमसम्यक्त्व गुण को ग्रहण करता है । __ आगे देशसंयम व सकलसयमके साथ प्रथमोपशमसभ्यक्त्व प्रहण करनेवाले जोबके स्थितिसत्त्व को कहते हैं सटाणे ठिदिसत्तो भादिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण होणकमो ॥६॥ अर्थ-उसी स्थान में यदि देशसंयम सहित प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करे तो उसके पूर्वोक्त स्थितिसत्त्व से संख्यातगुरणा हीन स्थिति सत्त्व होता है और यदि सकलसंयम सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करे तो उसके उससे भी संख्यातगुरणा हीन स्थिति सत्त्व होता है। विशेषार्थ--अनन्तगगगी विशुद्धि की विशेषता के कारण स्थितिखण्डायाम संख्यातगुणा होता है उससे घटाई हुई अवशिष्ट स्थिति संख्यातवें भाग होती है। १. २. ज. प. पु. १२ पृ. २६३-२६६ । क. पा. मुत्त पृ. ६२६-३० । ध. पु. ६ पृ. २६८ 1 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [८१ गाथा ६६ ] प्रधानन्तर वर्शनमोहोपशमके काल में पायी जाने वाली विशेषता को 'उवसामगो य सव्वो णिवाघादो तहा णिरासाणो । उपसंते भजियव्यो णिरासणो चेव रवीणम्हि ॥६॥ अर्थ-दर्शनमोह का उपशम करने वाले सर्व जीव व्याघात से रहित होते हैं और उस काल के भीतर सासादनगुणस्थान को प्राप्त नहीं होते हैं। दर्शनमोह का उपशम होने पर सासादनगुणस्थान भजितव्य है, किन्तु क्षीण होने पर सासादनगुरणस्थान की प्राप्ति नहीं होती। विशेषार्थ-कषायपाहड़ के सम्यक्त्व अनियोगद्वार नामा १० वें अध्याय की प्रथम चार गाथाएं प्रश्नात्मक हैं। उसके पश्चात् दर्शनमोह की उपशामना सम्बन्धी १५ गाथाएं हैं । उन १५ गाथाओं में से (लब्धिसार की यह ६६ वीं गाथा) तीसरीगाथा है । कषायपाहुड़ (जयधवल) पु. १२ में इस गाथा सम्बन्धी टीका को आधार रखते हुए उक्त गाथा का विशेषार्थ लिखा गया है यह गाथा दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव के तीन करणों द्वारा व्यापृत अवस्थारूप होने पर नियाघात और निरासानपनेका कथन करती है। जैसे- सभी उपशामक जीव व्याघात से रहित होते हैं, क्योंकि दर्शनमोह के उपशम को प्रारम्भ करके उसका उपशम करने वाले जीव के ऊपर यद्यपि चारों प्रकार के उपसर्ग एक साथ उपस्थित होवें तो भी वह निश्चय से प्रारम्भ से लेकर दर्शनमोह की उपशमनविधि को प्रतिबन्ध के बिना समाप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस कथन द्वारा दर्शनमोह के उपशामकका उस अवस्था में मरण भी नहीं होता यह कहा हुआ जानना चाहिये, क्योंकि मरण भी व्याघात का एक भेद है ] "तहा रिणरासागो" ऐसा कहने पर दर्शनमोह का उपशम करने वाला जीव उस अवस्था में सासादन गुणस्थान को भी नहीं प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । "उवसंते भजियव्वों" अर्थात् दर्शनमोहके उपशान्त होने पर भाज्य है-विकल्प्य है अर्थात् वह जीव कदाचित् सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है और कदाचित् प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व १. कषायपाहुड़ सुत्त पृ. ६३१; घ. पु. ६ पृ. २३६ ; जय धवल पु. १२ पृ. ३०२ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ । लब्धिसार [ गाथा १०० के कालमें छह प्रावलि शेष रहने पर वहां से सासादन गुणस्थानको प्राप्ति किन्हीं भी जीवों में सम्भव देखी जाती है । "गोरासाणो य खीरा म्मि" अर्थात् उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण होने पर यह जीव सासादन गुणस्थानको नियम से नहीं प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-ऐसा किस कारण से है ? समाधान-क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके काल में जघन्यरूप से एक समय शेष रहने पर और उत्कृष्ट रूप से छह प्रावलि. काल शेष रहने पर सासादनगुणस्थान परिणाम होता है, इसके बाद नहीं ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा “णीरासागो य खीणम्मि" ऐसा कहने पर दर्शनमोहनोयका क्षय होने पर यह जीव निरासान ही है, क्योंकि उसके सासादनगुणस्थानरूप परिणाम सम्भव नहीं है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । कारण कि क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपातस्वरूप होता है और सासादन परिणाम के उपशम सम्यक्त्व पूर्वक होनेका नियम देखा जाता है'। आगे सासावनके स्वरूप एवं कासकर कथन करते है'उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्ता दु समयमेत्तोत्ति । भवसि? भासाणो अणभरणदरुदयदो होदि ॥१०॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके काल में उत्कृष्टकाल छह आवलि और जघन्यकाल एक समय मात्र अवशेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों में से किसी एक के उदय होने से सम्यक्त्व की प्रासादना { विराधना ) होकर सासादन गुणस्थान होता है । विशेषार्थ--सम्यग्दर्शन की घातक मिथ्यात्वप्रकृति व अनन्तानुबन्धोकषाय चतुष्क है । "मिथ्यात्वं नाम विपरोताभिनिवेशः । स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" (ध. पु. १ सूत्र ११६ को टीका ) विपरीत अभिनिवेश का नाम मिथ्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों कर्मों १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३०२-३०३ । एवं ध. पु. ६ पृ. २३६ । २. पाठान्तरेणाऽत्रोक्तभावो अन्यत्रापि दृश्यते, प्रा. पं. सं. पृ. ६३३ श्लो. ११; गो. जी. गा. १६ । ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४; ज. व. पु. १० प. १२३-२४; ज, ध. पु. १२ पृ. ३०३ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०१ ] लब्धिसार [८३ के उदय से होता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व तीनकरण (अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण) होते हैं । अनिवृत्तिकरण काल का बहुभाग व्यतोत हो जाने पर दर्शनमोहनीय कर्म का अन्तर होकर उपशम होता है, किन्तु अनन्तानुवन्धी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और कम होता है। हां ! परिणामों की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धीकषाय का अप्रत्याख्यानादि कषायरूप परिणमन होकर परमुख उदय होता रहता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक छह आवलि काल शेष रह जाने पर और कम से कम एक समय काल शेष रह जाने पर यदि परिणामों की विशुद्धता में हानि हो जावे तो अनन्तानुबन्धीकषाय का स्तिवुकसंक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धीका परमुख उदय की बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्रासादना (विराधना) हो जाती है और प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर दूसरा सासादन गुणस्थान हो जाता है। मिथ्यात्वप्रकृति का अभी उदय नहीं हुआ, क्योंकि उसका अन्तर व उपशम है। अतः उसको मिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया । अनन्तानुबन्धीकषाय जनित विपरीताभिनिवेश हो जाने के कारण सम्यक्त्व की विराधना हो. जाने से उसकी सासादनसम्यग्दृष्टि (सम्यक्त्व की विराधना सहित) संज्ञा हो जाती है । अब उपशमसम्यक्रम सम्बन्धी प्रारम्भिक सामग्रीका कथन करते हैं'सायारे पट्ठयगो.णि?षगो मझिमो य भजणिज्जो। जोगे भरणदरम्हि दु जहरणए तेउलेस्साए ॥१०१।। अर्थ-दर्शनमोहके उपशमन का प्रस्थापक जीव साकार उपयोग में विद्यमान होता है, किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योग में विद्यमान तथा तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त वह जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है । विशेषार्थ-उक्त गाथा कषायपाहुड़ गाथा १८ से शब्दशः मिलती है । दर्शनमोहोपशामना सम्बन्धी १५ गाथानों में से यह चतुर्थ गाथा है । इस गाथा सूत्र में १. किंचित् पाठान्तरेण गाथेयं (ज. प. पु. १२ पृ. ३०४ मा, १८ पर) अस्ति । "सायारे पट्ठवप्रो रिगडवो मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दु जहगए तेउलेस्साए । (म. पु. ६ पृ. २३६ गा. ५) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] लब्धिसार [ गाथा १०१ दर्शनमोहोपशामक के उपयोग, योग और लेण्या परिणामगत विशेष कथन किया गया है । 'सायारे बटुवगों' ऐसा कहने पर दर्शनमोह की उपशमविधिको प्रारम्भ करने वाला जीन अधःप्रवृत्तकरण के प्रयमसमयसे अन्तमु हूर्त काल पर्यन्त प्रस्थापक कहलाता है' । जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । प्रात्मा के अर्थग्रहरणरूप परिणाम का गम उपयोग है । वह उप प्रोग साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार का है। साकार तो ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग । इनके क्रमण: मतिज्ञानादि और चक्षुदर्शनादि भेद भी हैं । दर्शनमोहोपशामना विधि का प्रस्थापक जीव नियम से जानोपयोग में उपयुक्त होता है, क्योंकि अविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार उपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता' । अर्थात् प्रस्थापक के अविचार स्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति का विरोध है । इसलिये कुमति, कुश्रत और विभङ्गज्ञान में से कोई एक साकारोपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता । इस वचन द्वारा जागत अवस्था से परिणत जोत्र ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नहीं, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य विशुद्ध परिणामों से विरुद्धस्वभावी है ! इसप्रकार प्रस्थापक के साकारोपयोग का नियम करके, निष्ठापकरूप और मध्यम अवस्था में साकारोपयोग और अनाकारोपयोग में से अन्यतर उपयोग के साथ भजनीयपने का कथन करने के लिये गाया में 'णिटुवगो मज्झिमो य भजणिज्जो' यह वचन कहा है । दर्शनमोह के उपशामनाकरण को समाप्त करने वाला जीव निष्ठापक होता है अर्थात् समस्त प्रथमस्थितिको क्रम से गलाकर अन्तर प्रवेश के अभिमुख जीव निष्टापक होता है । वह साकारोपयोग से उपयुक्त होता है या अनाकारोपयोग में, क्योंकि इन दोनों उपयोगों में से किसी एक उपयोग के साथ निष्ठापक होने में विरोध का अभाव है इसलिये भजनीय है । इसी प्रकार मध्यम अवस्थावाले के भी कथन करना चाहिए । प्रस्थापक और निष्ठापक पर्यायों के अन्तराल काल में प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है। दोनों ही उपयोगों का क्रम से परिणाम होने में बिरोध का अभाव होने से भजनीय है । १. क. पा. सुत्त पृ. ६३२; ज. प. पु. १२ पृ. ३०४ । २. ज.ध. पु. १२ पृ. २०३; गो. जो. गाथा ६७२-७३, प्रा. पं. सं. प्र. १ गा. १७६ पृ. ३७ । ३. ज. प. पु. १२ पृ. २०४; क. पा. सुत्त पृ. ६६२ । ४. ज.ध. पु. १२ पृ. ३०५ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथ। १०१ ] लब्धिसार [ ८५ गाथा के 'जोगे अण्णवरम्हि का अर्थ है मनोयोग, वचनयोग और काययोग, इनमें से किसी एक योग में वर्तमान जीव दर्शनमोह की उपशमविधि का प्रस्थापक होता है । जीवप्रदेशों की कर्मों के ग्रहण में कारगभूत परिस्पन्दरूप पर्याय का नाम योग है । वह योग मनोयोग, वचनयोग और काययोग के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें से सत्यमनोयोग मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषामनोयोग के भेद से मनोयोग चार प्रकार का है। इसीप्रकार वचनयोग भी चार प्रकार, का है। काययोग सातप्रकार का है । मनोयोग के इन भेदों में से दर्शनमोहोपशामक के (प्रस्थापक के) अन्यतर मनोयोग होता है, क्योंकि उन चारों मनोयोग के ही यहां प्राप्त होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं पाया जाता। इसी प्रकार वचनयोग का भी अन्यतर भेद होता है, किन्तु काययोग, औदारिक काययोग या वैक्रियिक काययोग होता है, क्योंकि अन्य काययोग का प्राप्त होना असम्भव है । इन दस पर्याप्त योगों में से अन्यतर योग से परिणत हुना जीव प्रथमसम्यक्त्व को प्राप्त करने के योग्य (प्रस्थापक) होता है । शेष योगों से परिणत हुया जीव ( प्रस्थापक ) नहीं होता । इसीप्रकार निष्ठापक और मध्यमावस्था वाले जीव के भी कहना चाहिए, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में प्रस्थापक से भिन्न नियम की उपलब्धि नहीं होती । गाथा में "जहण्णगो ते उलेस्साए" के द्वारा लेश्या का कथन किया गया है। पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यागों में से नियम से कोई एक वर्धमान लेश्या उसके (प्रस्थापक) के होती है। इनमें से कोई भी लेश्या हीयमान नहीं होती । यदि अत्यन्त मन्द विशुद्धि से परिणमन कर दर्शनमोहोपशमनविधि प्रारम्भ करता है तो भी उसके तेजोलेश्या का परिणाम ही उसके योग्य होता है । इससे नीचे की लेश्याका परिणाम अर्थात कृष्ण, नील और कापोत लेश्यारूप परिणाम नहीं होते, क्योंकि तीन अशुभ लेश्या सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणरूप करण परिणाम से विरुद्ध स्वरूप हैं। शंका--वर्धमान शुभ तीन लेश्याओं का नियम यहां पर किया है वह नहीं बनता, क्योंकि नारकियों के सम्यक्त्वोत्पत्ति करने में व्याप्त होने पर तीन अशुभ लेश्याएं भी सम्भव हैं ? १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३०६ । २. ज.ध. पु. १२ पृ. २०२ । ३. ज. प. पु. १२ पृ. ३०६ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार { गाथा १०१ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मनुष्य और तिर्यंचों की अपेक्षा यह गाथा सूत्र प्रवृत्त हुआ है । तियंच और मनुष्यों के सम्यक्त्व प्राप्त करते समय तीन शुभ लेश्याओं को छोड़कर अन्य लेश्याएं सम्भव नहीं हैं, क्योंकि अत्यन्त मन्द विशुद्धि द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीवके भी वहां जघन्य पीतलेश्या का नियम है । शंका--यहां देव और नारकियों की विवक्षा क्यों नहीं है ? समाधान-देव और नारकियों को विवक्षा नहीं की, क्योंकि उनके अवस्थित लेश्याभावका कथन करने के लिये यहां परिवर्तमान सर्व लेश्यावाले तिर्यंच और मनुष्यों की ही प्रधान रूप से विवक्षा है । अथवा देवों में तो यथायोग्य तीन शुभलेश्यारूप परिणाम ही होता है । इसलिये उक्त कथन का वहां कोई व्यभिचार नहीं आता । नारकियों में भी अवस्थित स्वरूप कृष्ण, नील और कापोतलेश्यारूप परिणाम होते हैं, वहां तीन शुभलेश्यारूप परिणाम असम्भव ही है इसलिए उनमें यह गाथा सूत्र प्रवृत्त नहीं होता अतः तिर्यंचों और मनुष्यों को विषय करनेवाली ही यह गाथा है। ___ यद्यपि गाथा सूत्र में कषाय और वेद का कथन नहीं किया तथापि उनका कथन किया जाता है, क्योंकि इस गाथा सूत्र में एकदेश कथन किया गया है अर्थात् यह देशामर्शक गाथा सूत्र है। ___दर्शनमोह का उपशम करनेवाले जीवके क्रोधादि चारों कषायों में से अन्यतर कषायपरिणाम होता है, किन्तु वह नियमसे हीयमान कषायवाला होता है, क्योंकि विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त होनेवाले के वर्धमान कषाय के साथ रहने का विरोध है । इसलिए क्रोधादि कषायों के द्विस्थानीय अनुभागोदय से उत्पन्न हुए तत्प्रायोग्य मन्दतर कषाय परिणाम का अनुभवन करता हुआ सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के लिये प्रारम्भ करता है। सम्यक्त्वोत्पत्ति में व्याप्त हुए जीवके तीन बेदों में से कोई एक वेद परिणाम होता है, क्योंकि द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीन वेदों में से अन्यतर वेदपर्याय से युक्त जीवके सम्यक्त्वोत्पत्ति में व्याप्त होनेके विरोध का अभाव है। १. ज.ध. पु. १२ पृ. २०५ व ३०६ । २. ज.ध. पु. १२ पृ. २०२-२०३ एवं क. पा. सुत्त पृ. ६१६ । ३. ज. प. पु. १२ पृ. २०६; क. पा सुत्त पृ. ६१६ सूत्र १६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०२-१०३ ] लब्धिसार [८७ अथानन्तर उपशमसम्यक्त्वकालके अनन्तर उदययोग्य कर्मविशेषका कथन करते हैं 'अंतोमुत्तमद्धं सम्बोवणले होरि उवांतो ! तेण परं उदमो खलु तिषणेक्कदरस्स कम्मरस ॥१०२॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशमसे उपशान्त रहता है इसके पश्चात् नियम से तीन कर्म प्रकृतियों में से किसी एक का उदय होता है ।। विशेषार्थ उक्त गाथा कषायपाहुड़ में दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वोपशम से अवस्थानकाल के प्रमाणका अवधारण करने के लिये आई है। गाथा सूत्रमें "अंतोमुहत्तमद्ध" ऐसा कहने पर अन्त रायाम का संख्यातवां भाग प्रमाण काल लेना चाहिए । यह पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्व से जाना जाता है। गाथा सूत्र में "सध्योव समेण" ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मों के उपशम से ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश से विभक्त मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कर्मप्रकृतियों का यहां पर उपशान्तरूपसे अवस्थान होता है । "तेण परं उपओ खलु" उसके पश्चात् दर्शनमोह के भेदरूप तीनों प्रकृतियों में से किसी एक का नियम से उदय होता है । प्रब दर्शनमोहनीयकर्मके अन्तरायाम पूरणका विधान कहते हैंउघसमसम्मत्तुवरि दसणमोहं तुरंत रेदि । उदयिल्लस्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ॥१०३॥ अर्थ-उपशम सम्यक्त्वकाल के ऊपर जो दर्शनमोह के अन्तरायाम का शेष भाग, उसको शीघ्र ही पुरता है । उदय वान प्रकृतिके द्रव्य को तो उदय स्थिति से देना प्रारम्भ करता है और शेष दो अनुदय प्रकृति के द्रव्य को उदयावलि से बाहर देता है। १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१४ गाथा १०३. किन्तु वहां 'तेरस परं उदो' के स्थान पर 'तत्तो परमुदयो' ऐसा पाठ है । ध. पु. ६ पृ. २४१ । क. पा. गा. १०३ । २. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१४-३१५ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [ माथा १०४ विशेषार्थ--अन्तरायामका संख्यातवां भाग उपशम सम्यक्त्व का काल है । उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर भी अन्तरायाम का संख्यात बहभाग शेष रहता है जहां पर दर्शनमोहनीय कर्म के सत्त्व का भी अभाव है। अन्तरायाम के ऊपर द्वितीय स्थिति में दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य है जिसका अपकर्षरग करके अन्तरायाम को पूरता है । अर्थात् शेष अन्तरायाम काल में अपकरित द्रव्य का क्षेपण करके दर्शनमोहनीय कर्म का सत्त्व स्थापन करता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उदय प्रारम्भ हो जाता है उस प्रकृति के द्रव्य को उदय स्थिति से लेकर सर्व स्थितियों में देता है और जिन दो प्रकृतियों का उदय नहीं है उनके द्रव्य को उदयावलि से बाह्य सर्व स्थितियों में देता है, किन्तु उदयावलि में नहीं देता । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापना में तीनों प्रकृतियोंका द्रव्य नहीं दिया जाता । यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। ओक्कट्टिदइ गिभागं समपट्टीए विसेसहोणकमं । सेसासंखाभागे विसेसहीणेण विवादि सम्वत्थ ॥१०४॥ अर्थ-अपकृष्ट द्रव्य का एक भाग तो चय (विशेष) हीन क्रम से उदयावलि में देना शेष असंख्यात बहुभाग सर्वत्र विशेष (चय) हीन क्रम से दिया जाता है । विशेषार्थ-यदि उदयरूप सम्यक्त्वप्रकृति होवे तो उसके द्रव्य में अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमें से बहुभागप्रमाण द्रव्य यथावस्थित ही रहे । एक भाग को असंख्यातलोकका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य 'उबयावलिस्स बन्'२ इत्यादि सूत्र द्वारा जैसा पूर्वमें विधान कहा था वैसे ही उदयावलिके निषेकोंमें चय हीन क्रमसे निक्षिप्त करना। अपकर्षित द्रव्यमें से अवशिष्ट बहुभागमात्र जो द्रव्य है उसे १. २. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१५ के आधार से ! क. पा. सुत्त पृ. ६३५; घ. पु. ६ पृ. २४१ । ल. सा. गा.७१। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०४ ] लन्धिसार [ ८६ अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य कहते हैं, उस द्रव्यमें से, अन्तरायामके निषकोंका अभाव था उन निषेकोंका सद्भाव करने के लिये कितना एक (कुछ) द्रव्य दिया जाता है । उस देव द्रव्य का कितना प्रमाण है यह जाननेका विधान कहते हैं ___ नानागुणहानिमें स्थित सम्यकबाकृतिकी दिलीप मिनिके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भाग पृथक् करके अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यमें "द्विषगुणहाणिभाजिदे पढमा"' इस सूत्र द्वारा साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाग का भाग देने पर उस द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है, सो इसके बराबर अंतरायामके सर्व निषेकोंको चय रहित स्थापित करके जोड़नेसे आदिधनका प्रमाण प्राप्त होता है । 'पबहतमुखमाविधन इस करण सुत्रसे अन्तरायामप्रमाण गच्छसे उस प्रथम निषेकको गुणा करने पर अन्तरायामके निषेकोंका आदिधन प्राप्त हुआ। तथा द्वितीय स्थितिके नीचे अन्तरायामके निषेक हैं इसलिये द्वितीयस्थितिके आदि निषेकसे चय वृद्धि (चढ़ते) क्रमसे अन्तरायामके निषेक हैं। चयका प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते हैं द्वितीय स्थितिकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेक से अधस्तनवर्ती अन्तरायाम सम्बन्धी गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य दोगुणा प्रमाण युक्त चय है। इसको दो गुणहानिका भाम देनेपर अन्तरायाममें चयका प्रमाण प्राप्त होता है । "सैकपवाहतपक्षवलचरहतमुत्तरधन" इस सूत्रसे यहां अन्तरायामप्रमाण गच्छ है, सो एक अधिक गच्छसे गच्छके आधेको गुणा करके पुनः चयसे गुणा करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। इसप्रकार प्राप्त प्रादिधन और उत्तरधन (चयधन) को जोड़नेपर जो प्रमारण प्राप्त हुआ उतना द्रव्य उक्त अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य से ग्रहणकर अन्तरायाममें देना । द्वितीय १. इसका अर्थः-प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणाका द्रव्य-सर्वद्रव्य : साधिक डेढ़ गुणहानि । ( गो. जी. गा. ५६ को टीका व ध. पु. १० पृ. १२२) मादिद्रव्यको पदसे गुणा करने पर प्रादिधनका प्रमाण निकलता है। ( गो. जी. मा. ५१ की टीका; गणितसारसंग्रह अ. २०६३ ) ३. इसका अर्थ- एक अधिक पदसे गुणित ‘पदका आधा' गुरिणत घय = उत्तरधन ( पद+१)x (पद) ४ चय= {पद+ १) पद X चय =उत्तरधन । यहां "व्यकपदार्धन चयगुसो गच्छ उत्तर धनं" सूत्र नहीं लगता, क्योंकि अन्तरायामके निषेकों को द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकवत माननेपर कोई भी निषेक अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी नहीं बनता । अन्तरांयामका सर्वहोन निषेक भी एक चयसे अधिक करने पर बनेगा अतः "सैकपदाहत..." इत्यादि कहा। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] लब्धिसार [ गायर १०५--१०६ स्थितिके प्रथम निषकसे गच्छप्रमारण चयोंसे अधिक द्रव्य तो अन्तरायामके प्रथम निषेकमें देना चाहिए । यहां गच्छका प्रमाण अन्तरायाम और चयका प्रमाण पूर्वोक्त जानना । तथा द्वितीयादि निषेकोंमें एक-एक चयहीन क्रमसे देना। अन्तिम निषेकमें एक चय अधिक (द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेककी अपेक्षा) देना । इसप्रकार देने पर जैसे क्रम लिये हुए चाहिए वैसे अन्तरायामके निषेकोंका अभाव हुआ था उनका पुनः सद्भाव हो गया। अब अपकृष्टावशिष्ट द्रव्यमें से इतना द्रव्य देने पर किंचित् ऊन हुआ सो उस अवशेष द्रव्यको अन्तरायाम अथवा द्वितीय स्थिति में देना । वहां अन्तरायाममें तो पूर्व में जिसप्रकार प्रादिधन और उत्तरधनको मिलाकर द्रब्यका प्रमाण निकालने का विधान कहा था उसी प्रकार द्रव्यका प्रमाण प्राप्तकर उतने द्रव्यको अन्तरायामके निषेकोम' देना । इतना द्रव्य अन्तरायामके निषेकोंमें देनेके पश्चात् जो द्रव्य अवशिष्ट रहा उसको 'दिवड्ढगुणहारिणभाजिदे पढमा' इत्यादि सूत्र विधान द्वारा द्वितीय स्थितिके नानागुगाहानि सम्बन्धी निषेकोंमें से अन्तिम प्रतिस्थापनावलीप्रमाण निषेक छोड़कर सर्वत्र देना चाहिए । इसप्रकार उदय योग्य सम्यक्त्वप्रकृतिका विधान कहा । तथा उदयके अयोग्य सम्याग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व प्रकृतियोंके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमें से एक भाग उदयावलीसे. बाहर ज़ो अन्तरायाम है उसमें और द्वितीय स्थितिमें पूर्ववत निक्षिप्त करना चाहिये उदयाचलिमें निक्षिप्त नहीं करना चाहिए । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व अथवा मिथ्यात्वप्रकृति में से अन्यतर उदय योग्य होके अवशेष दो प्रकृति उदययोग्य नहीं होवे तो वहां यथासम्भव विधान जानना । जैसे गाय की पूछ क्रमसे मोटाईसे हीन होती है वैसे सर्वत्र चय हीन क्रम पाया जाता है, अतः उसे गोपुच्छाकार कहते हैं । अथानन्तर सम्यक्त्वप्रकृतिके उबयका कार्य हो गापामों में कहते हैं:, सम्मुदये चलमक्षिणमगार्ड सदहदि तम्चयं प्रत्यं । 'सदहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुरिणयोगा ॥१०॥ 'सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जतं जदा म सदादि । सो चेव हयदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥१०॥ २. ज.प. पु. १२ पृ. ३२१ गाथा १०७ का उत्तरार्ध: प. पु. १ पृ. १७३; ध. पु. ६ पृ. २४२; प्रा. पं. सं.अ.१ गा. १२ । २. ज. घ. पु. १२ पृ. ३२२, प. पु. १ पृ. २६२ । ३. 'त्ति तदो पहुडि जीवो' इत्यपिपाठः Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०६ ] लब्धिसार [ ६१ अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में तत्त्वों का और पदार्थों का अथवा तत्त्वार्थ का चल-मलिन-अगाढ़ सहित श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है । सूत्र के द्वारा समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थका जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता उस समय से लेकर वही जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है । विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति के द्वारा सम्यग्दर्शनकी स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । स्थिरता का घात होने से चल और अंगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं । निष्कांक्षता का घात होने से मल दोष उत्सान होता है, जैसे पुरुष लाठी को पपाडे रहता है, किन्तु कांपती रहती है, स्थिर नहीं रहती । इसीप्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि का तत्त्वार्थश्रद्धान स्थिर नहीं रहता-चलायमान रहता है। स्थिरता के घात के कारम श्रद्धा भी दृढ़ नहीं होती। निष्कांक्षता का घात होने से शंका, कांक्षा, आदि दोष सम्यक्त्व को मलीन करते रहते हैं। इसीलिये गाथा में कहा गया है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय में चल-मलिन व प्रगाढ़ सहित तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है । "सहहह असब्भावं" ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थ का भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को प्रमाण करके स्वयं नहीं जानता हुआ श्रद्धान करता है । इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा आनासम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है । शंका-प्रज्ञानवश असद्भूत अर्थ का ग्रहण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? समाधान-यह परमागम का ही उपदेश हैं ऐसा निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करने वाला वह जीव परमार्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी सम्यग्दष्टियने से च्युत नहीं होता। यदि पूनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा इस अर्थ को यथार्थ रूप से बतलाये फिर भी बह जीव असत् प्राग्नहवश उसे स्वीकार नहीं. करता है तो उस समय से वह जीय मिथ्यादृष्टि पद का भागी हो जाती है, क्योंकि वह प्रवचन विरुद्ध बुद्धिवाला है ऐसा परमागम का निश्चय है। इसलिये यह ठीक 7... + 5 १. को भागो सम्मत्तस्स तेरण घाइज्जदि ? पिरत रिणक्कक्खत्त । (ज. ध. पु. ५ पृ १३०) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] लब्धिसार । गाथा १०७ कहा गया है कि प्रवचनमें उपदिष्ट अर्थ का प्राज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है' | अब मिषप्रकृतिके उवयका कार्य कहते हैंमिस्सुदये सम्मिस्तं दहिगुड मिस्सं व तच्चमियरेण । सद्दहदि एक्कसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥१०७॥ अर्थ-मिश्रप्रकृति के उदय में दधि और गुड़ के मिश्रित स्वादके समान एक समयमें सम्यक्त्व व मिथ्यात्व मिश्रित तत्त्व का इतर जाति (जात्यन्तर ) रूप श्रद्धान होता है । मरणकाल में मिथ्यात्व या असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । विशेषार्थ-जिसप्रकार दही और गुड़ परस्पर इसप्रकार मिल जाते हैं कि उनका पृथक्-पृथक् अनुभव नहीं हो सकता, किन्तु खट्टा और मीठा मिश्रित रसास्वाद का अनुभव होता है उसी प्रकार एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणाम मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) प्रकृति के उदय से होते हैं । प्रभेद विवक्षा में उसके जात्यन्तर भाव कहा है ( अभेदविवखाए जच्चंतरत) किन्तु भेद की विवक्षा करने पर उसमें सम्यग्दर्शन का एक अंश है ही। यदि ऐसा न माना जावे तो उसके जात्यन्तर मानने में विरोध आता है । शंका-एक जीव में एक साथ सम्यक् और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नहीं है, क्योंकि इन दोनों दृष्टियों का एक जीव में एक साथ रहने में विरोध आता है। यदि कहा जावे कि ये दोनों दृष्टियां क्रम से एक जीव में रहती हैं तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुणस्थानों में हो अन्तर्भाव मानना चाहिए । इसलिये सम्यग्दृष्टि भाव सम्भव नहीं है । समाधान-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धाबाला जीव सम्यग्मिध्यादष्टि है । इसमें विरोध भी नहीं आता, क्योंकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, इसलिये उसमें अनेक धर्मों का सहानवस्थान लक्षण का विरोध प्रसिद्ध है । आत्मा के अनेकांत । १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३२१-२२ । २. घ. पु. १ पृ. १६८, प्रा. पं. सं. १११०; गो. जी. का. गा. २२ । ३. घ. पु. ५ पृ. २०८। ४. घ. पु. ५ पृ. २०८ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०७ ] लब्धिसार [ ६३ पना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अनेकान्त बिना उसके अर्थक्रियाकारीपना नहीं बन सकता जबकि समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रमसे एक आत्मा में पाया जाना सम्भव है तो कदाचित् किसो अात्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है । यह सर्वकथन काल्पनिक नहीं है, क्योंकि पूर्व स्वीकृत देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहन्त भी देव हैं ऐसा अभिप्रायवाला पुरुष पाया जाता है' * शंका-श्रीपशमिकादि पांच भावों में से सम्यग्मिथ्यात्व कौन सा भाव है ? समाधान-क्षायोपशर्मिक भाव है, क्योंकि प्रतिबन्धी कर्म का उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव पाया जाता है वह गुरणांश क्षायोपशमिक कहलाता है । गुणों के सम्पूर्णरूप से घातने की शक्ति का अभाव क्षय कहलाता है । क्षयरूप ही जो उपशम होता है वह क्षयोपशम कहलाता है, उस क्षयोपशम में उत्पन्न होने वाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म' के उदय में रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघातीपना बन नहीं सकता। इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है यह कहना घटित नहीं होता । समाधान- सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करचित् अर्थात् शवलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है, उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्व का अवयव है उस श्रद्धानांश को सम्यग्मिथ्यात्व कर्मोदय नष्ट नहीं करता, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है। शंका-अश्रद्धानभाग के बिना केवल श्रद्धानभाग के ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह संज्ञा नहीं है, इसकारण सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपमिक नहीं है। समाधान-उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्य ग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवी के निराकरण और अवयवके अनिराकरण की १. प. पु. १ सूत्र ११ की टीका प. १६७-१६८ । सूर्य को अर्घ देना... " इस प्रकार की अनेक मूढ़ता जाननी चाहिये । कोई यदि इन मूड़तानों का सर्वथा त्याग नहीं करता (और सम्यक्त्व के साथ-२ किसी मूड़ता का भी पालन करता है) से सम्यग्मिध्यादृष्टि मानों । उपासकाध्ययन । कल्प ४ । श्लोक १४४ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] लब्धिसार [ गाथा १०७ अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है। सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाति होवे, क्योंकि जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के संम्यक्त्वंता का अभाव है किन्तु श्रद्धानभाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है । श्रद्धानभाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि इसमें विपरीतता का अभाव है और न उनमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा का ही प्रभाव है, क्योंकि समुदाय में प्रवृत्त हुए शब्दों की उनके एक देश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है । अतः यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिकभाव है'। सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि क्षायोपशमिक है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे उत्पन्न होती है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं इसलिये इसके उदयसे उत्पन्न हुआ सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक कैसे हो सकता है ? समाधान-शका ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्घकों का उदय सर्वघाति नहीं होता। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वरूप अंश की उत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती। इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके स्पर्धकों का उदय सर्वघाति नहीं होता। सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाति स्पर्धकों के उदयसे और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों की उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है इसलिये वह तदुभय प्रत्ययिक (क्षायोपशमिक) कहा गया है । सम्यग्मिथ्यात्व की अनुभागउदीरणा सर्वघाति और द्विस्थानीय है । शंका-इसका सर्वघातिपना कैसे है ? "समाधान--मिथ्यात्व की उदीरणा से जिसप्रकार सम्यक्त्वगुण का निर्मल बिनाश होता है उसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उदीरणा से भी सम्यक्त्व संज्ञावाले जीव का निर्मूल विनाश देखा जाता है । १. ध. पु. ५ पृ. १६८-६६ | २. प. पु. १४ पृ. २१ ।। ३. ज.ध. पु ११ पृ. ३८ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याथा १०७ ] लब्धिसार [६५ नोट-- ऐसा प्रतीत होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यात्व अवयक की दृष्टि से उपर्युक्त कथन जयधवला में किया गया है । शंका-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व भाव होता है इसलिये उसको औदायिकभाव कहना चाहिये था। समाधान-सम्यग्मिथ्यात्व को औदयिकभाव नहीं कहा गया, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जिसप्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है, उसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं होता इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व को प्रौदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है। शंका-यदि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश नहीं करता तो उसको सर्वघाति क्यों कहा गया ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करता है इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाति कहा हैं'। । शङ्का-जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के उदयसे मिथ्यात्वका बंधक होता है उसीप्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को बांधता है या नहीं ? समाधान-सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को नहीं बांधता, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में दर्शनमोहनोयके बन्धके अभावका मुक्त कण्ठ होकर इस "सम्मामिच्छाइट्ठी दसणमोहस्सऽबंधगो होइ"२ इत्यादि गाथा सूत्र में उपदेश दिया गया है । (ज. ध. पु. १२ पृ. ३१३) दूसरे सम्यग्मिथ्यात्व बन्ध योग्य प्रकृति नहीं है सलिये भी उसका बन्ध सम्भव नहीं है। ___ जो सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव है बह या तो साकारोपयोगवाला होता है या अनाकार उपयोगवाला होता है, क्योंकि दोनों ही उपयोगों के साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुण की प्राप्ति होने में विरोध का अभाव है । दर्शनमोह की उपशामना में प्रवृत्त हुए जीब के प्रथम अवस्था में जिसप्रकार उपयोग का नियम है उसप्रकार सम्यग्मिथ्याल्व १. प. पु. १ सूत्र ११ की टीका पृ. १६६ । २. क. पा. गा. १०२। ३. गो. क. गाथा ३७ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] लब्धिसार [ गाया १०८-१०६ में नियम नहीं है, किन्तु दोनों ही उपयोगों के साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुण को प्राप्त होता है'। जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आगामी आयु को बांधकर सम्यग्मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होता है वह सम्यक्त्व के साथ ही मरण को प्राप्त होकर उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आगामी आयु का बंध करके सम्यग्मिथ्यात्वभाव को प्राप्त होता है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरण को प्राप्त हो उस गतिसे निकलता है । सम्यग्मिथ्यात्व में मरण नहीं है और आयु बन्ध भी नहीं है । अब मिथ्यात्वप्रकृति के उदयका कार्य को गाथाओंमें कहते हैं"मिच्छत्तं वेदंतो जीवो बिवरीयदंसणं होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥१०॥ "मिच्छाइट्ठी जीवो' उवइट्ठ पवयणं ण सद्दादि । सदहदि असभा उइट्ट या अणुवइ ॥१०॥ अर्थ-मिथ्यात्व का वेदन करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है। जैसे ज्वर से पीड़ित मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि को धर्म नहीं रुचता। मिथ्यादृष्टिजीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता, उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव का श्रद्धान करता है। विशेषार्थ- उपर्युक्त गाथा संख्या १०८ जयधवल पु. १२ पृ. ३२३ पर उद्धत गाथा नं. २ के समान है तथा गाथा १०६ कषायपाहुड़ के गाथा १०८ के सदश होने से कषायपाहुड़ गाथा १०८ के अनुसार यहां विशेषार्थ दिया जा रहा है। १. ज. प. पु. १२ पृ. ३२४ । . २. प. पु. ५ पृ ३१ ध. पु. ४ पृ. ३४३ । ३. प. पु.७ पृ ४५८; ध. पु. ४ पृ. ३४३; गो. जी. गाथा २४३ मिश्रगणस्थानमें मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है। ४. ज. ध पु १२ पृ ३२३ । ५. ज ध पु. १२ पृ. ३२२ मा १०८ । ६. 'रिणयमा' इति पाठान्तरम् । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' गाथा १०६ ] लब्धिसार [ ६७ जो नियम से मिध्यादृष्टि जीव है वह नियम अर्थात् निश्चय से जिनेंद्र द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है । शङ्का - इसका दया कारण है ? समाधान - क्योंकि वह दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) के उदय के कारण विपरीत अभिनिवेशवाला है । इसलिये वह 'सद्दहइ असम्भाव' अपरमार्थ स्वरूप प्रसद्भूत अर्थ का ही मिध्यात्वोदयवश श्रद्धान करता है । वह 'उबद्दट्ठ' वा अणुबडट्ट" अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्भार्गका ही दर्शनमोह ( मिध्यात्व ) के उदयसे श्रद्धान करता है । इसके द्वारा व्युद्माहित और इतर इन दो भेदों से मिथ्यादृष्टि का कथन किया गया है । कहा भी है तं मिच्छत्त' जमसद्दणं तच्चाणं होइ प्रत्थानं । संसइयमभिग्यं श्ररभिग्गहियं ति तं तिविहं ॥ अर्थ - तत्वों का और अर्थों का जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । संशयिक, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से वह मिथ्यात्व तीन प्रकार का है । जिसप्रकार पित्तज्वर वाले मनुष्य को दूध आदि मधुर पदार्थ रुचिकर नहीं होते, क्योंकि पित्त के कारण मिष्ट पदार्थ भी कटुक प्रतीत होता है । इसीप्रकार मिथ्यादृष्टिजीव को तत्त्वार्थ का यथार्थ उपदेश रुचिकर नहीं होता, क्योंकि उसके हृदय में मिथ्या श्रद्धान बैठा हुआ है । इसलिये उसको मिथ्यामार्ग ही रुचता है । [ "जीवादि नौ पदार्थ का स्वरूप जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यथार्थ है या नहीं" इत्यादिरूप से जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिध्यादृष्टि है । जो कुमागियों के द्वारा उपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान करता है वह अभिगृहीत मिध्यादृष्टि है । जो उपदेश के बिना शरीर आदि में अपनेपन की कल्पना करता है वह अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है' 17 १. ज. व. पु. १२ पृ. ३२२-२३ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] लब्धिसार [ प्र. स. चूलिक "प्रथमोपशमसम्यक्त्व चूलिका" लब्बिसार ग्रन्थ में १०६ गाथानों द्वारा प्रथमोपशम सम्यक्त्व नामक प्रथम अधिकार समाप्त हो चुका है, किन्तु कषायपाहुड़ ग्रन्थ में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के. सम्बन्ध में निम्न गाथाओं में कुछ विशेष वर्णन किया गया है अतः उसे उपयोगी जानकर टोका सहित यहां पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व चूलिका के रूप में उद्ध त किया गया है सवेहि द्विविविसेसेहि उवसंता होंति तिपिस कम्मंसा । एक्कम्हि य अणुभागे रिणयमा सम्बे दिदि विसेता ॥१॥ प्रर्थ-दर्शनमोहनीय कर्म की तीनों प्रकृतियां सभी स्थिति विशेषों के साथ उपशान्त रहती हैं तथा सभी स्थिति विशेष नियमसे एक अनुभागमें अवस्थित रहते हैं। विशेषार्थ--यह कषायपाहुड़ को १०० वी गाथा है। इस गाथासूत्र में 'तिपिण कम्मंसा' ऐसा कहने पर मिथ्यात्न, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शनमोह की उपशामना का प्रकरण है। ये तीनों ही कर्मप्रकृतियां सभी स्थिति विशेषों के साथ उपशान्त रहती हैं, उनकी एक भी स्थिति अनुपशान्त नहीं होती। अतः मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इन सब स्थिति विशेषों में स्थित सब परमाण उपशान्त होते हैं यह सिद्ध हुआ । इसप्रकार उपशान्त हुए उन सब स्थिति विशेषों का अनुभाग एक प्रकार का ही है । 'एककम्हि य अणुभागे' एक ही अनुभाग विशेष में इन तीनों कर्म प्रकृतियों के सब स्थिति विशेष होते हैं। अन्तरायाम के बाहर अनन्तरवर्ती जघन्य स्थिति विशेष में जो अनुभाग है वही उससे उपरिम उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समस्त स्थिति विशेषों में होता है, अन्य नहीं होता । मिथ्यात्त्र का तो घात करने से शेष रहा सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग सब स्थिति विशेषों में अवस्थित रूप से स्थित रहता है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व का भी जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व के अनुभाग से यह अनन्तगुणा हीन होता है । सम्यक्त्व का अनुभाग तो उससे भी अनन्तगुणा हीन होता है, जो देशघाति द्विस्थानीयरूप होकर दारु समान अनुभाग के अनन्तवेंभागरूप से अवस्थित उत्कृष्ट स्वरूप एक प्रकार का सर्वत्र होता है । १. ज.ध.पु १२ पृ. ३०६-१०। । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. सः चूलिका ] लब्धिसार [६६ सम्मत्तपढमलंभी सस्दोवसमेण तह विय?ण । भजियो य अभिववं सम्बोधसमेश देसेण ।।२।। अर्थ- सम्यवत्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम से ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है, किन्तु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है । विशेषार्थ-यह कषायपाहुड़ की १०४ वी गाथा है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को जो सम्यक्त्व का प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशम से ही होता है, क्योंकि उसके अन्यप्रकार से सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है 1 तह थियण' मिथ्यात्व को प्राप्त हो जो वहत काल के पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है । इसका भावार्थ इस प्रकार है--सम्यक्त्व को ग्रहण कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना कर पल्योपम के असंख्यातवेंभाग प्रमाण काल द्वारा या अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल द्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है। भजियम्यो य अभिक्ख' जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ पुनः पुनः सम्यक्त्वग्रहण के अभिमुख होता है, वह सर्वोपशम से अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, क्योंकि यदि वह वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो देशोपशम से, अन्यथा सर्वोपशमसे प्राप्त करता है । इसप्रकार वहां भजनीयपना देखा जाता है। तीनों (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व) कर्म प्रकृतियों के उदयाभावका नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्वप्रकृति के देशघातिस्पर्धकों का उदय देशोपशम कहलाता है। मिच्छत्तवेदरणीय कम्मं उक्सामगस्स बोहब्ध । उपसंते प्रासाणे तेरण परं होवि भजिदयो ॥३॥ अर्थ---दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के मिथ्यात्वकर्म का उदय जानना चाहिए। दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था में मिथ्यात्वकर्म का उदय नहीं होता । उपशमसम्यक्त्व की प्रासादना के अनन्तर उसका ( मिथ्यात्वका) उदय भजनीय है। १. गो. क. गा. ६१४-१५ । . २. ज. प. पु. १२ पृ. ३१६-१७ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] लब्धिसार [प्र. स. चूलिका विशेषार्थ--यह गाथा कषायपाहुड़ की ६६ वीं गाथा है। इस गाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि दर्शनमोहनीय के उपशामक जीव का जब तक अन्तर में प्रवेश नहीं होता, तब तक उसके मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है उसके पश्चात् उपशम सम्यक्स्वकाल के भीतर मिथ्यात्व का उदय नहीं होता, परन्तु उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनाय है। इसप्रकार इस गाथा द्वारा तीन विशेष अर्थ कहे गये हैं । तद्यथा-'मिच्छत वेदणोयं कम्' ऐसा कहने पर जिस कर्म के द्वारा मिथ्यात्व वेदा जाता है वह मिथ्यात्ववेदनोयकर्म उदय अवस्था से युक्त उपशामक के नियम से होता है ऐसा जानना चाहिये । इसप्रकार गाथा के पूर्वार्ध का पद सम्बन्ध है। इसलिये मिथ्यात्यकर्म का उदय दर्शनमोह के उपशामक के नियम से होता है। शंका-मूत्र द्वारा अनुपदिष्ट उदय विशेषग कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान-ऐसी आशङ्का नहीं करना चाहिये, क्योंकि अर्थ के सम्बन्ध से ही उसप्रकार के विशेषरग की यहां उपलब्धि होती है । अथवा जो वेदा जावे वह वेदनीय है । मिथ्यात्व ही वेदनीय मिथ्यात्ववेदनीय है। उदय अवस्था से परिणत मिथ्यात्वकर्म, यह इसका तात्पर्य है। वह उपशम करनेवाले जीव के होता है । इसप्रकार उक्त विशेषण सूत्रोक्त हो जानना चाहिए । ___ 'उवसंते आसाणे' ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीय की उपशान्त अवस्थामें उपशमसम्यग्दृष्टिपने को प्राप्त हुए जीव के मिथ्यात्व वेदनीयकर्म के उदयका आसान अर्थात् विनाश ही रहता है, क्योंकि अन्तर प्रवेशरूप अवस्थामें उसके उदयका अत्यन्ताभाव होने से उसका उदय निषिद्ध ही है तथा उसका अनुदय ही उपशान्तरूपसे यहां पर विवक्षित है । अथवा 'उवसते' अर्थात् उपशमसम्यक्त्व काल के भीतर तथा 'आसाणे' अर्थात् सासादनकाल के भीतर मिथ्यात्वका उदय नहीं है । इसप्रकार वाक्य शेष के वश से सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । तेण परं होदि भजिदवों' ऐसा कहने पर उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर तदनन्तर मिथ्यात्वकर्म के उदयसे वह भजनीय है, क्योंकि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में से अन्यतर के उदय का वहां विरोध नहीं पाया जाता है अर्थात् इन तीनों में से किसी एक का उदय अवश्य होता है । १. ज.ध. पु. १२ पृ. ३०७-८ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .प्र स. चूलिका ] लब्धिसार [ १०१ मिच्छत्तपञ्चयो खलु बंधो उक्सामगस्स बोद्धग्यो। उपसते प्रसाणे तेरण पर होवि भजियष्यो ॥४॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयका उपशम करने वाले जीवके नियम से मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध जानना चाहिए, किन्तु उसके उपशान्त रहते हुए मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता तथा उपशांत अवस्था के समाप्त होने के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है। विशेषार्थ--यह कषायपाहुड़ की १०१ वीं गाथा है। मिथ्यात्व है प्रत्यय अर्थात् कारण जिसका वह खलु अर्थात स्पष्ट रूप से मिथ्यात्व प्रत्यय बन्ध है, जो दर्शनमोह उपशामक के प्रथमस्थिति के अन्तिम समय तक होता है । शंका-मिथ्यात्व प्रत्ययबन्ध किन कर्मों का होता है ? समाधान--मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि शेष कर्मों का मिथ्यात्वप्रत्यय बंध होता है । यद्यपि यहां पर (मिथ्यात्वगुणस्थानमें) शेष असंयम, कषाय और योग का भी प्रत्ययपना है तथापि मिथ्यात्व की ही प्रधानता की विवक्षामें इसप्रकार कहा गया है, क्योंकि ऊपरके गुणस्थानों में मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध के अभाव का कथन करनेवाला यह वचन है। ___'उपसंते आसाणे दर्शनमोहनीय के उपशांत होने पर अन्तरायाम में प्रवेश करनेके प्रथम समय से लेकर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध का प्रासान अर्थात् विनाश ही है। वहां मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अथवा 'उपसंते' दर्शनमोहनीय का उपशम होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के और 'आसाणे' अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीब के मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं होता इतना बाक्यशेष का योग करके सूत्रार्थ का समर्थन करना चाहिए । 'तेण परं होदि भजिवन्यो' अर्थात् उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व कालके क्षीण होने पर दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों में से किसी के होने पर कदाचित् ( मिथ्यात्वोदय होने पर ) मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होता है, कदाचित् (सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय होने पर) अन्य ( असंयम, कषाय, योग ) निमित्तक बन्ध होता है । अतः Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] लब्धिसार [प्र. स. चूलिका उपशम सम्यक्त्व काल के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय होने में विरोध उपलब्ध नहीं होता' सम्मत्तपढमलभस्साणंतरं पच्छ्दो य मिच्छन । लंभस्स अपढमस्स दु भजिवय्यो पच्छयो होदि ॥५॥ अर्थ-सम्यक्त्व के प्रथम लाभ (उपशमसम्यक्त्व) के अनन्तर ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व ही होता है । अप्रथमलाभ (क्षयोपशम सम्यक्त्व) के ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है। विशेषार्थ- यह कषायपाहुड़ की १०५ वी गाथा है । 'पच्छदो' यद्यपि 'पश्चात्' का वाचक है, किन्तु यहां पर 'पीछे का वाचक शब्द ग्रहण करके 'पूर्व' अर्थ किया गया है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का नियम नहीं है, सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी उदय हो सकता है जैसा कि उपरोक्त गाथा ३ व ४ में कहा गया है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व से अनन्तरपूर्व मिथ्यात्व का उदय नियमसे होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख हो सकता है, अन्य नहीं । अतः यहां पर 'परछदो' का 'पीछे' अर्थात् सम्यक्त्व से पूर्व क्या अवस्था थी इस बात का ज्ञान कराने के लिये 'पूर्व अर्थ किया गया है। इसका समर्थन कषायपाहुड़ की जयधवल टीका से भी होता है जो इसप्रकार है ___ अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अणंतर पच्छदो' अनन्तरपूर्व पिच्छली अवस्थामें मिथ्यात्व ही होता है, क्योंकि उसके प्रथमस्थिति के अन्तिम समयतक मिथ्यात्व के अतिरिक्त प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। 'लभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियमसे अप्रथम सम्यक्त्व का लाभ है उसके अनंतर पूर्व अवस्था में मिथ्यात्व का उदय- भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) या प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त करता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने का कथन-- यहां उपशम सम्यक्त्व के रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे जो अन्तरकाल शेष बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्व के काल से संख्यातगुरणा होता है ।। १. ज व.प. ध 6404 प. ३११-१२ । १२ पृ. ३१७, घ. पु. २५. २६८; घ.पू. ६५.२४२; क.पा. मृत्त प. ६३५ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. स. चूलिका ] लब्धिसार [ १०३ शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-दर्शनमोहत्तीय की उपशामता के सम्बन्धमें जो पंचविशति (२५) स्थानीय अल्पबहुत्वदण्डक कहा गया है उससे यह जाना जाता है । जो मिथ्यादष्टि हो गया है वह मिथ्यात्वको प्राप्त होने के प्रथमसमय में अन्तरकाल के ऊपर दूसरी स्थिति में स्थित प्रथम निषेक से लेकर मिथ्यात्व की अन्त - कोडाकोड़ी प्रमाण स्थिति के अन्तिम निषेक तक जितनी स्थितियां हैं उन सबके कर्मपरमाणुओं में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार का भाग देकर वहां जो एक भाग प्राप्त होता है उसे अन्तर को पूरा करने के लिये अपकर्षित करता है, फिर इसप्रकार अपकर्षित हुए द्रव्यमें असंख्यातलोकप्रमाण भागहार का भाग देकर जो एकभाग प्राप्त हो उसमें से बहुभाग उदय में देता है। दूसरे समयमें विशेष हीन देता है । यह विशेष का प्रमाण निषेक भागहार से ले आना चाहिए । इसप्रकार उदयावलि के अन्तिम समय तक विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देना चाहिये । यहां उदय समय से लेकर उदयावलि के अन्तिम समय तक असंख्यातलोक प्रतिभाग से प्राप्त हुआ एकभाग प्रमाण द्रव्य समाप्त हो जाता है । फिर शेष असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य में से उपरिम अनन्तरवर्ती स्थिति में' असंख्यातगुरणे द्रव्य का निक्षेप करता है । शङ्का-यहां गुणकार का प्रमाण क्या है ? समाधान--- असंख्यातलोक । फिर इससे आगे की स्थिति में दोगुणहानिप्रमाण निषेकभागहार की अपेक्षा विशेषहीन द्रव्यका निक्षेप करता है । इसप्रकार यह क्रम अनन्तरकाल के अन्तिम समय तक प्रारम्भ रहता है। इससे आगे की उपरिम स्थितिमें दृश्यमान कर्मपरमाणुगों के ऊपर असंख्यातगुणे हीन द्रब्यका निक्षेप करता है फिर इससे आगे अतिस्थापनावलि के प्राप्त होने के पहले तक पूर्वविधि से विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य का निक्षेप करता हैं । इसप्रकार दर्शनमोहोपशामना अधिकार पूर्ण हुआ । १. शन्तर अधस्तनापेक्षा । २. ज. प. पु. ७ पृ. ३१५-१६ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] लघिसार [ गाथा ११० “अथ क्षायिकसम्यक्त्व प्ररुपणा अधिकार" अब क्षायिक सम्यक्त्वोत्पत्तिको सामग्रीका कथन करते हैं-- दंसणमोहपखवणापट्टवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तिस्थपरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥११०॥ अर्थ-कर्मभूमि में उत्पन्न हुन्ना मनुष्य तीर्थङ्कर के या अन्यकेवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोहकी क्षपणा का प्रस्थापक-प्रारम्भ करनेवाला होता है । विशेषार्थ-- इस गाथा द्वारा दर्शनमोहकी क्षपरणाका प्रस्थापक कर्मभुमिज मनुष्य ही होता है । यह निश्चय किया गया है, क्योंकि अकर्मभूमिज ( भोगभूमिज ) मनुष्य के दर्शनमोह की क्षपणा करने की शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होने के कारण वहां उसका निषेध किया गया है। इसलिये शेष गतियों में दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रतिषेध होनेसे मनुष्यगतिमें ही विद्यमान जीव दर्शनमोहकी क्षपरणा प्रारम्भ करता है। मनुष्य भी कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ ही होना चाहिए अकर्मभूमिमें नहीं ऐसा यहां अर्थग्रहण करना चाहिए । कर्मभूमि में उत्पन्न हुया मनुष्य भी तीर्थङ्कर, केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में अवस्थित होकर दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि जिसने तीर्थङ्करादि के माहात्म्यका अनुभव नहीं किया है उसके दर्शनमोहनीय की क्षपरणाके कारण भूत करण-परिणामोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती' । अधःकरण के प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के द्रव्य का सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होकर संक्रमण करने तक अन्तमुंहूतकाल पर्यंत दर्शनमोहको क्षपणाका प्रारम्भक कहा जाता है । जिस कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व परिणाम का वेदन करता है उस कर्मको मिथ्यात्वकर्म कहते हैं। उसके अपवर्तित होने पर अर्थात् सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित होनेपर वहां से लेकर यह जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक इस संज्ञाको प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परन्तु उसका अप १. ज. प. पु. १३ पृ. २ देखो गाथा ११० कषायपाहुड़। २. लब्धिसार गाथा ११० की टीका । ३. क. पा. सुत्त प ६४० । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १११ ] लब्धिसार [ १०५ वर्तनकर किसमें संक्रमित करता है ऐसा पूछने पर 'सम्मत्ते' अर्थात् सम्यक्त्व कर्मप्रकृति में संक्रमित करता है यह निर्देश किया है । मिथ्यात्वका पूरा द्रव्य संक्रमण करने के बाद स्थित हुई सभ्यरिमथ्यात्व प्रकृति की ही मिथ्यात्व संज्ञा है। ऐसे जीवके जघन्यसे तेजोलेश्या होनी चाहिए। दर्शनमोहकी क्षपणा करते समय सर्वत्र हो वर्तमान शुभ तीन लेश्यायों में से अन्यतर लेश्या वाला ही होता है, अन्य रेश्या वाला नहीं होता, क्योंकि विशुद्धि के विरुद्ध स्वभाववाली कृष्ण, नील, कापोत लेश्यानोंका वहां अत्यन्त प्रभाव होने से निषेध है । अतः विशुद्धरूप परिणामों में से जघन्यरूप मन्दपरिणामों में विद्यमान दर्शनमोहनीयका क्षपकजीव भी तेजोलेश्या का उल्लंघन नहीं करता है । ___ अब दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाले प्रस्थापक-निष्ठापकके सम्बन्ध में विशेष कथन करते हैं णिढवगो तहाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकरणिज्जो चदुसु वि गदी उत्पज्जदे जम्हा ॥१११॥ --- अर्थ-प्रारम्भक काल के अनन्तर समय से लगाकर क्षायिकसम्यक्त्व ग्रहण के समय से पहले तक निष्ठापक होता है। यह निष्ठापक जहां दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ हुआ वहां ही या सौधर्मादिस्वर्गों में या कल्पातीत विमानों में या भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों में अथवा प्रथम घर्मानरक में होता है। अर्थात् निष्ठापक इतनी जगह हो सकता है, क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है । विशेषार्थ-दर्शनमोहकी क्षपणाको उद्यत हुए जीयके 'प्रस्थापक' संज्ञा कब प्राप्त होती है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । यथा--जब मिथ्यात्व प्रकृति के सर्व १. ज. प. पु. १३ पृ. ५। २. क. पा. सुत्त. पृ. ४६० । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. ६ । ४. "ण्डिवगो चावि सव्वत्थ" । अर्थात् दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक चारों गतियों में होता, (क. पा. गा. ११०; जीवस्थान चूलिका ८ सूत्र १२; ध. पु. ६ पृ. २४७) .. लेकिन भवन अकों और देवियों को छोड़कर (ज. प. पु. १३ पृ. ४) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ 1 लब्धिसार [ गाथा ११२ द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमण कर देता है और उसके पश्चात् जब सभ्यग्मिथ्यात्व के सर्वद्रब्य को सम्यक्त्वप्रकृति में संक्रमण करता है, तब उसे 'प्रस्थापक' यह संज्ञा प्राप्त होती है । तथा मिथ्यात्व-सम्य रिमथ्यात्व का क्षय करके कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्ट होने के बाद यह जीव दर्शनमोहनीयको क्षपणका निष्ठापक कहलाता है । इसप्रकार प्रस्थापक-निष्ठापक भेद कहा गया । प्रस्थापक कौन होता है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । निष्ठापक कहांकहां पर स्थित जीव हो सकता है, यह बात इस गाथा में मूल में ही बताई जा चुकी है । जो कुछ विशेष है उसे यहां पर कहा जाता है यह कृतकृत्य जीव यदि प्रथमसमय में मरता है तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है अर्थात् कृतकृत्य होने के प्रथमसमय में ही यदि मरण करता है तो नियम से देवगति में ही उत्पन्न होता है, अन्य गतियों में नहीं। इसका भी कारण यह है कि अन्यगतियों में उत्पत्ति को कारणभूत लेश्या का परिवर्तन उस समय असम्भव है। इसी प्रकार कृतकृत्य जीव के तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल के अन्तिमसमयतक द्वितीयादि समयों में भी देवों में ही उत्पत्ति कर नियम जानना चाहिये । उसके बाद मरण करने वाला कृतकृत्य जीव शेष गतियों में भी, पहले बांधी आयु के कारण उत्पत्ति के योग्य होता है। कहा भी है "यदि नारकियों में, तिर्यंचयोनियों में और मनुष्य में उत्पन्न होता है तो नियम से कृतकृत्य होने के अन्तर्मुहूर्त काल बाद ही उत्पन्न होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के बिना उक्त गतियों में उत्पत्ति के योग्य लेश्याका परिवर्तन उस समय सम्भव नहीं है। इसका भी कारण यह है कि कृतकृत्य होने पर यदि लेश्या का परिवर्तन होगा, तो भी पूर्व में चली आई हुई लेश्या में वह अन्तमुहर्न तक रहेगा, तत्पश्चात् ही लेश्या परिवर्तन सम्भव है । शेष कथन सुगम है । आगे ५ गाथाओं में अनन्तानबन्धोको विसंयोजनासम्बन्धी कथन करते हैंपुब्छ तिरयणविहिणा अरणं खु भरिणय टिकरणचरिमम्हि । उदयावलिवाहिरगं ठिदि विसंजोजदे णियमा ॥११२।। १. क. पा. सुत्त पृ. ६४० । २. क. पा. सुत्त पु, ६५४ सूत्र ८७ । ३. ज. घ. पु. १३ पृ८७। ४. क. पा. सुत्त पृ. ६५४; ज.ध. पु. १३ प. ८७ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा ११३-११६ } माघसार [ १०७ अणियट्टीश्रद्धाए प्रणम्स चत्तारि होति पवाणि । • सायरलवस्त्रपुधत्तं पल्लं दूरावकि ट्ठि उच्छि8 ॥११३॥ पल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा । ठिदिखंडा होति को प्रणस्स पवादु पयोति ॥११४॥ अणियट्टीसंखेज्जा भागेसु गदेसु अरणगठिदिसत्तो। उदधिसहस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ॥११५।। उबहिसहस्सं तु सयं परणं पणवीसमेक्कयं चेव । वियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सटिदो होदि ॥११६॥ अर्थ-दर्शनमोह की क्षपणा के पहले तीनकरण विधान द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की उदयाव लिसे बाह्य की स्थितिका अनिवृत्तिकरणके अन्त समय में नियमसे विसंयोजन करता है । अनिवृत्तिकरणकाल में अनन्तानुबन्धीकषायके पृथक्त्वलक्षसागर, पल्यप्रमाण, दूरापकृष्टिप्रमाण और उच्छिष्टावलि प्रमाणरूप चार स्थितिसत्त्व होते हैं । अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्त्वके प्रथम पर्वसे दूसरे पर्व पर्यन्त, दूसरे से तीसरे पर्व पर्यन्त और तीसरे से चौथे पर्व पर्यन्त जो स्थितिकांडक होते हैं उनका आयाम क्रम से पल्यका संख्यातवांभाग, पल्यका संख्यात बहुभाग और पल्यका असंख्यात बहुभागमात्र है। __ अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर एक भाग अवशिष्ट रहनेपर अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व एक हजारसागर प्रमाण, पश्चात् विकलेन्द्रियके बन्ध समान, पश्चात् पल्य और आदि शब्दसे दूरापंकृष्टि और प्रावलि मात्र होता है। विकल चतुष्क अंति असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के मिथ्यात्वं का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे एकहजारसागर, सौ सागर, पचास सागर, पच्चीससागर और एक सागरप्रमाण होता है। इन्हीं के समान अनन्तानुबन्धी का स्थितिसत्त्व होता है । इसका कथन पूर्व में किया ही है । विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों ही करणोंको; असंयत, देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव करके अनन्तानुबन्धी की Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] लब्धिसार. [. गाथा ११६: विसंयोजना करता है। इन करणोंका लक्षण दर्शनमोहकी उपशामनामें जिसप्रकार कहा गया है उसीप्रकार यहां जानना चाहिये, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । अधःप्रवृत्त करणरूप बिशुद्धि द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक विशुद्ध होने वाले जीवके प्रतिसमय केवल अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता जाता है । अधःप्रवृत्तकरण में स्थितिघता, अनुभागघात, गुणश्रेरिण और गुणसंक्रमण नहीं होता, क्योंकि अधःप्रवृत्त करणरूप विशुद्धि स्थितिघात आदि का कारण नहीं है । हजारों स्थितिबन्धापसरण, अशुभकर्मों का प्रतिसमय अनन्तगुणीरूप से अनुभागबन्धापसरण और शुभ कर्मोंका अनन्तगुणी वृद्धिरूप से चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध यह अधःप्रवृत्तकरण विशुद्धियोंका फल जानना चाहिये। ___अपूर्वकरण में स्थितिघात, अनुभागधात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण है । यहां की गुणश्र रिण सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, संयतासंयत और संयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोंमे प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणी है तथा उनके आयामसे संख्यातगुणी हीन है। परन्तु . गुणसंक्रम अनन्तानुबन्धियोंका ही होता है, अन्य कर्मोका नहीं होता ऐसा कहना चाहिए। इसप्रकार प्रत्येक हजारों अनुभागकांडकोंके अविनाभावी ऐसे स्थितिबन्धापसरणोंके साथ होनेवाले हजारों स्थितिकाण्डकों के द्वारा अपूर्वकरणके कालको समाप्त करता है। अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जो स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म होता है उससे उसके अन्तिम समय में स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन होता है । तत्पश्चात् प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणवाला हो जाता है । तब अनन्तानुबन्धियोंका स्थितसत्कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है । शेष कर्मोका अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर होता है। फिर भी अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके भी इसीप्रकार स्थितिकांडक, अनुभागकांडक, स्थितिबन्धापसरण, गुणवेरिणनिर्जरा और गुणसंक्रम परिणाम व्यामोहके बिना जानना चाहिए। अनिवृत्तिकरण में भी पूर्वोक्त स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेरिण, गुणसंक्रमरण आदि कार्य होते है । दर्शनमोहकी उपशामना में जिसप्रकार अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण होता है, उसप्रकार यहां पर नहीं होता है, क्योंकि दर्शनमोह- . १. ज. प. पु. १३ पृ. १६८ । २ त. सू.अ.हसू ४५ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. १६६ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११७-११६ ] लब्धिसार १६. चारित्रमोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणा में अन्तरकरण सम्भव है, । अन्यत्र नहीं ऐसा नियम है । निवृत्तिकरणम हजारों स्थितकाग्डक और हजारों अनुभागकांडकों के हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग बीत जाता है। पश्चात् विशेष घात वश अनन्तानुबन्धी सत्कर्म असंज्ञियोंके स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। उसके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिकाण्डको के होने पर स्थिति सत्कर्म चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान होता है । इसप्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय के स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जानेपर पुनः पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म हो जाता है। तत्पश्चात् शेष स्थितिके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकांडक को ग्रहण करता हुआ अनन्तानुबन्धीका दुरापकृष्टिप्रमाण सत्कर्म करके पश्चात् शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागका घात करता हुअा संख्यातहजार स्थितिकांडको के जाने पर अनन्तानुबन्धी के उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मको अनिवृत्तिकरण के अन्तिमसमय में, पल्योपमके असंख्यातवैभागप्रमाण आयामबाले अन्तिम स्थिति कांडक सम्बन्धी अन्तिमफालिरूप से बध्यमान शेष कषायों और नो कषायोंमें संक्रमित कर प्रकृत क्रियाओं को समाप्त करता है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक विश्राम करता है। अब अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना वाले जीवके विसंयोजनाके अनन्तर होने बाले कार्यको ११ गाथाओं द्वारा कहते हैं अंतोमुत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ।।११७॥ 'मणिपट्टिकरणपडमे दंसणमोहस्स लेसगाण ठिदी। सायरलवपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥११८।। "अमणंठिदिसत्तादो पुत्तमेचे पुधत्तमेत्ते य । ठिदिखंडेय हवंति ह च उ ति वि एयक्ख पल्लटिदी ॥११॥ 대 १. ज. प. पु. १३ प्रस्तावना पृ. २० ; ज. ध. पु. १३ पृ. २०० । २. ज. प. पु १३ पृ. २००-२०१; ध. पु. ६ पृ २५१ । ३. ज ध. पु. १३ पृ. ४१ ; ध. पु. ६ पृ. २५४ । ४. ज ध. पु. १३ प. ४१-४२-४३ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १२०-१२७ 'पल्लदिदिदो उरि संखेज्जसहस्समेत्तठिदिखंडे । दुरावकिट्ठिसगिणद ठिदिसत्तं होदि णियमेण ॥१२॥ 'पल्लस्स संखभागं तस्स पमाणं तदो असंखेज्जं । भागपमाणे खंडे संखेज्जसहस्सगेसु तीदेसु ॥१२१॥ सम्मस्स असंखागां समयपबशादीरणा होदि । सत्तो उवरिं तु पुणो बहुखंडे मिच्छउच्छि8 ||१२२॥ 'जत्थ असंखेज्जाणे समयपबद्धाणुदीरणा तत्तो । पल्लासंखेज्जदिमो हारो णासंखजोगमिदो ॥१२३॥ 'मिच्छुच्छिादुरिं पल्लासंखेज्जभागिगे खंडे । संखेज्जे समतीदे मिस्सुच्छि8 हवे णियमा ॥१२४॥ 'मिस्सुच्छिढे समये पल्लासंखेज्जभागिगे खंडे । चरिमे पडिदे चेदि सम्मस्सडवस्सठिदिसत्तो ॥१२५।। "मिच्छस्स चरमफालिं मिस्से मिस्सस्स चरिमफालिं तु । संछुह दि हु सम्मत्ते ताहे तेति च वरदवं ॥१२६॥ "जदि होदि गुणिदकम्मो दवमणुक्कस्समराणहातेसि । अवरठिदी मिच्छदुगे उच्छिठे समयदुगसेसे ॥१२७॥ घ, पु. १३ पृ. ४४, ५७ । घ. पृ १३ पृ. ४६-४६-५७; व. पु. ६ पृ. २५६ । घ. पु. १३ पृ. ४६ । घ. पु. १३ पृ. ५३: ध, पु. ६ पृ. २५८ | . पृ. १३ पृ. ५४, ५७ । १३ पृ. ५१, ५५ । पृ. ५१-५२, प. पु. ६ पृ. २५६-५७-५: । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा १२७ ] लब्धिसार [ १११ अर्थ-अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके फिर तीन करणोंको करता है । अनिवृत्तिकरण कालमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति को नष्ट करता है ॥११७।। अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें दर्शनमोहकी स्थिति पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण है और शेष कोंकी स्थिति पृथक्त्व लक्षकोटिसागर प्रमाण है ।।११८।। दर्शनमोहको पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण स्थिति प्रथम समयमें सम्भव होती है उससे पागे संख्यातहजार काण्डक होने पर असंज्ञीके बन्धके समान एक हजारसागर स्थितिसत्त्व रहता है। उसके पश्चात् बहुत-बहुत स्थितिकांडक हो जाने पर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान सौ सागर, पचासलागर, पच्चीससागर और एकसागर स्थितिसत्त्व होता है। पश्चात् बहुत स्थितिखण्ड होने पर पल्यप्रमाण स्थितिसत्त्व होता है ।।११।। पल्यकी स्थितिसत्त्वके बाद संख्यात बहभाग आयामवाले संख्यातहजार स्थितिबात होजाने पर नियमसे दूरापकृष्टि संज्ञावाला स्थितिसत्त्व होता है ।।१२०॥ दूरापकृष्टि नामक स्थितिसत्त्वका प्रमाण पल्यके संख्यातवें भागमात्र है । उससे आगे पल्यमें असंख्यातका भाग देनेपर उसमेंसे बहुभागप्रमाण आयामवाले संख्यातहजार स्थितिकाण्डक होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके द्रव्यका अपकर्षण किया उसमें असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण उदीरणारूप द्रव्यको उदयावलीमें देता है। इसके पश्चात् बहुत स्थितिखण्डों के द्वारा मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि अर्थात् उदयावलि मात्र स्थिति रह जाती है ।।१२१-१२२।। जिस अवसरमें असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होती है उस समयसे उत्तरकालमें उदयावलीमें द्रव्य देने के लिए भागहार पल्यका असंख्यातवां भागमात्र है। पूर्ववत् असंख्यातलोक मात्र नहीं है ।।१२३॥ मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि स्थितिके बाद पल्यके असंख्यात बहुभागवाले संख्यात स्थितिखण्ड व्यतीत हो जानेपर सम्यरिमथ्यात्वप्रकृतिका नियमसे उच्छिष्टावलिमात्र स्थितिसत्त्व रहता है ।।१२४॥ __ जब मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) की उच्छिष्टावलि प्रमाण स्थिति रहती है उसी समयमें रहने के समयसे सम्यक्त्वप्रकृतिके पल्यके असंख्यात बहुभाग आयामवाले संख्यात Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] लब्धिसार [ गाथा'१२७ स्थितिधात व्यतीत होकर यहां प्रकृत समयमें होते हैं । अन्तिमकांडकके पतन होनेपर सम्यक्त्वकी पाठवर्षमात्र स्थिति शेष रहती है' ।।१२५।। मिथ्यात्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डकी चरमफालि जिस समय सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें संक्रमित होती है उस समयमें सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिको अन्तिमकांडकको चरमफालिका द्रव्य जिससमय सम्यक्त्वप्रकृतिमें संक्रमित होता है उस समयमें सम्यक्त्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है ।।१२६।। ___दशनमोहनीयका क्षय करनेवाला जीव यदि गुणितकर्माश अर्थात उत्कृष्ट कर्मसंचय युक्त होता है तो उसके उन दोनों प्रकृतियों का द्रव्य उस समय उत्कृष्ट होता है और यदि वह जीव उत्कृष्ट कर्मके संचयं से युक्त नहीं होता है तो उसको उन्हीं दोनों प्रकृतियोंका द्रव्य वहां अनुत्कृष्ट होता है । तथा मिथ्यात्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति उच्छिष्टावलिमात्र रही सो क्रमसे एक-एक समय में एक-एक निषेक गलकर दो समय अवशेष रहनेपर जघन्यस्थिति होती है ।।१२७।। विशेषार्थ- अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा दर्शनमोह बी क्षपणा होती है । जिसप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म की उपशामना में इन तीनोंका लक्षण कहा गया है उसीप्रकार क्षपणामें भी जानना' । अधःप्रवृतकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं है । इतनी विशेषता है कि वह प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिको प्राप्त होता रहता है । शुभकर्मोका अनुभाग अनन्तगुरणी वृद्धिको लिये हुए बंधता है और अशुभकर्मोका अनुभाग अनन्तगुणी हानि को लिये हुए बंधता है। तथा अन्तर्मुहर्तकालतक होनेवाले एक स्थितिबन्ध के समाप्त होने पर पत्योपमके संख्यातवें भाग हीन-हीन स्थितिबन्ध होता है। __ अपूर्वकरणके प्रथमसमय में दो जीवों में से किसी एक स्थितिसत्कर्म से दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म तुल्य भी होता है और संख्यातवां या असंख्यातवांभाग विशेष १. सम्यग्मिथ्यात्व के जच्छिष्ठावली प्रमित स्थिति रहने का तथा सम्यक्त्व प्रकृति की ८ वर्ष स्थिति रहने का एक ही काल है । यह प्रवाह्यमान उपदेश है । ज.ध. १३५४ क. पा. चरिण। २. ज. प. पु. १६ 'पृ. १५ । ३. ज.ध. पु. १६ पृ. २२ एवं ज ध. १ ३ पृ २०३ । aan. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२७ ] 'लब्धिसार [ ११३ अधिक भी तथा संख्यातगुणा भी होता है । इसीके अनुसार किसी एकके स्थितिकांडक से दूसरे जीवका स्थितिकांडक्र तुल्य भी होता है, विशेष अधिक भी होता है, संख्यातगुणा भी होता है' । एक साथ ही प्रथम (उपशम) सम्यक्त्वको ग्रहगाकर पुनः एक समय ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुए दो जीवोंका अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सत्कर्म सदृश होता है तथा स्थितिकांडक भी सदश होता है । एक जीव दो छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वसहित परिभ्रमण करके दर्शनमोहको क्षपणाके लिये उद्यत हुआ, दूसरा दो छ्यासठसागर कालतक सम्यक्त्वसहित परिभ्रमण किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ । दूसरे जीवका प्रथमजीवकी अपेक्षा दो छ्यासठ सागरोपमकाल के समयप्रमाग निषेकों की अपेक्षा स्थितिसत्कर्म संख्यातवें भाग विशेष अधिक है। दो जीवों में से एक जीव उपशमश्रेणी पर चढ़कर, स्थितिका संख्यात बहुभागका घातकर; उपशांतमोह से नीचे उतरकर अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा विशुद्धिको पूरकर तथा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला है। दूसरा जीव कषायका उपशम किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाका आरम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला हो गया । इन दोनों जीवों में से दूसरे जीवका स्थिति सत्कर्म प्रथम जीवकी अपेक्षा संख्यातगुणा है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण है । उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवालेका स्थितिकांडक पृथक्त्वसागर प्रमाण है । स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पल्योपमका संख्यातवांभाग है। अप्रशस्तकोंके अनुभागकाण्डकका प्रमाण अनुभाग स्पर्द्ध कोंका अनन्तबहुभाग है, किन्तु प्रशस्तकर्मोंका और आयुकमका अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें ही गुणश्रेगिकी रचना की, किन्तु वह यहां पर उदयावलिसे बाहर हैं, क्योंकि यहां पर उदयादि गुग्गश्रेरिणका १. ज.ध. पु. १३ पृ. २३-२४ । २ ज. प. पु. १३ पृ. २४ । ३. ज. प. पु. १३ पृ. २५ । ४. ज. प. पु. १३ पृ. २७ । ५. ज. प. पु. १३ पृ. ३१ । ६. ज.ध. पु. १३ पृ. ३२। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] लब्धिसार [ गाया १२७ निक्षेप सम्भव नहीं है । परन्तु उसका आयाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कालसे विशेषाधिक है। यहीं पर मिथ्यात्व और सम्बग्मिथ्यात्वका गुण संक्रम भी प्रारम्भ होता है। अपूर्वकरगाके दसरे समयमें वही स्थितिकांडक है, वही अनुभागकांडक है, वहीं स्थितिबन्ध है, किन्तु गुणश्रेणि अन्य होती है, क्योंकि प्रथमसमय में जितने द्रव्यका अपकर्षण हुआ है उससे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उदयावलिके बाहर गलि. तावशेष आयामरूपसे उसका निक्षेप करता है । इसप्रकार एक अनुभागकांडकके व्यतात होने के अन्तर्मुहुर्तकालतक जानना चाहिये। ऐसे हजारों अनुभागकाण्डकों के समाप्त होने पर प्रथमस्थितिकांडक व स्थितिबन्ध काल समाप्त होता है । अनन्तर समय में अन्य स्थितिकांडक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकांडकको प्रारम्भ करता है'। प्रथम स्थितिकाण्डक बहुत है उससे दूसरा स्थितिकांडक विशेष हीन है, उससे तृतीय स्थितिकाण्डक विशेषहीन है। इसप्रकार विशेषहीन-विशेषहीन होते-होते अपूर्वकरणकालके भीतर अर्थात् अन्तसे पूर्व ( पहले ) प्रथमस्थितिकांडक से संख्यातगुणाहीन स्थितिकाण्डक उपलब्ध होता है । इस क्रमसे हजारों स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होने पर अपूर्वकरण कालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । उसी समय अनुभागकांडकका उत्कीरण काल, स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्ध युगपत् समाप्त होते हैं। अपूर्वकरण के अन्तिमसमयमें स्थितिसत्कर्म थोड़ा है, क्योंकि संख्यातहजार स्थितिकांडकों के द्वारा घात होकर वहां का स्थितिसत्त्व शेष रहा है । उससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि अपूर्वकरण परिणामों द्वारा उसका घात नहीं हुआ है । अपूर्वकरण के प्रथमसमयमें स्थितिबन्ध भी बहुत होता है तथा अपूर्वकरणके अन्तिमसमय में स्थिति बन्ध संख्यातगुणा हीन होता है । अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमयमें, अपूर्वकरणके अन्तिम स्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्यस्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्य स्थितिकाण्डक होता है, किन्तु वह स्थितिकाण्डक जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के जघन्य होता है और उत्कृष्टंस्थिति वाले के उत्कृष्ट होता है । परन्तु द्वितीयादि स्थितिकाण्डक सभी जीवोंके सदृश होते हैं वहीं अनिवृत्ति १. ज. प. पु. १३ पृ. ३५ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ३६-३७ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ.३८ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . マ गाथा १२७ ] लब्धिसार [ ११५ करण के प्रथमसमय में अन्य अनुभागकाण्डक होता है, क्योंकि पूर्वकरण के अंतिम समय के अनुभाग सत्कर्मका अनन्तबहुभाग अनुभागकाण्डकरूप से ग्रहण किया गया है, किन्तु गुणश्रेणि पहले के समान ही गलितावशेष प्रायामवाली उदयावलिसे बाहर होती है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्कर्म भी उसीप्रकार प्रवृत्त रहता है' । अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमय में दर्शनमोहनीय कर्म की अप्रशस्तउपशामनाका विनाश हो जाता है, शेषकर्म उपशान्त और अनुपशान्त दोनों प्रकार से रहते हैं। कितने ही कर्मपरमाणुओं का बहिरङ्ग अन्तरङ्ग कारणवश उदीरणा द्वारा उदयमें अनागमनरूप प्रतिज्ञा अप्रशस्तोपशामना है । केवल प्रशस्तउपशामना ही विच्छिन्न नहीं हुई, किन्तु दर्शनमोहनीयत्रिक के निधत्तिकररण व निकाचितकरण भी नष्ट होगये, क्योंकि सभी रिथतियोंके सभी परमाणु श्रपकर्षण द्वारा उदीरणा करनेके लिये समर्थ हो गये हैं । गाथा ११८ द्वारा प्रनिवृत्ति युके अतिरिक्त शेष सात कर्मोकी स्थितिसत्कर्मका निश्चय किया गया है | दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म विशेषघात के वश से पृथक्त्व लक्षसागर हो जाता है । तत्पश्चात् प्रथमस्थितिकांडक से लेकर सहस्रों स्थितिकांडकों द्वारा श्रनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर और संख्यातवांभाग शेष रहने पर दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म लक्षपृथक्त्वसागर से क्रमशः घटकर पूरा एकसहस्रसागर प्रसंज्ञीपञ्चेन्द्रिय के स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। उसके बाद स्थितिकांडक पृथक्त्व के सम्पन्न होने पर चतुरिन्द्रिय जीवोंके बन्धके समान दर्शनमोहनीयका स्थितिकर्म १०० सागर प्रमाण हो जाता है । उसके पश्चात् स्थितिकांडक पृथक्त्वके सम्पन्न होने पर त्रीन्द्रियजीवों के स्थितिबन्धके समान ५० सागर, उसके बाद स्थितिकांडकपृथक्त्व हो जाने पर द्वीन्द्रियजीवों के स्थितिबंधवत् २५ सागर, तत्पश्चात् पृथक्त्व स्थितिकांडकोंके द्वारा एकेन्द्रियजीवोंके स्थितिबन्ध सदृश एकसागर इसके बाद स्थितिकांडक पृथक्त्वद्वारा पल्योपमप्रमारण स्थितिसत्कर्म शेष रह जाता है । यहां 'पृथक्त्व' विपुलवाची है । पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म रहने से पूर्व सर्वत्र ही अपूर्वकररण के प्रथमसमय से लेकर स्थितिकांडकायाम पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाण होता १. ज.ध. पु. १३ पृ. ३९ । २. ज. ध. पु. १३ पृ. ४० । ३. ज. ध. पु. १३ पृ. ४१ । ४. ज.ध. पु. १३ पृ. ४२-४३ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. :. .. "धिमा . . . . . . . . । गाथा २. है, किन्तु दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म पल्यापमप्रमाण अवशिष्ट रहने पर स्थितिकाण्डकायाम पल्यापनक. सरूवातबहुमागप्रमारण होता है। उसके पश्चात जो-जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस-उसका सख्यातबहुभाग स्थितिकाण्डकायाम होता है । । इसप्रकार सहस्रो स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर पल्योपमके सबसे अन्तिम संख्यात । भागप्रमाण दुरापकृष्टि संज्ञा बाला स्थितिसत्कर्म होता है। जिस प्रवशिष्ट सत्कर्म मेंसे संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकांडकका घात करनेपर घात करने से शेष बचा स्थितिसत्कर्म नियमसे पल्पोपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है, उस सबसे अन्तिम स्थिति सत्कर्मकी दूरापकृष्टि संज्ञा है, क्योंकि पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म से अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पल्योपमके संख्यातवेंभागरूप से इस स्थितिसत्कर्म का अवस्थान है पल्योगमप्रमाला स्थितिसत्कर्म से नीचे अत्यन्त दूरतक अपकर्पित की गई होनेसे और अत्यन्त कृय-अल्प होने मे यह स्थिति दुरापकृष्टि है। यहां से लेकर असंख्यात बहुभाग को ग्रहण कर स्थितिकाण्डक घात किया जाता है अतः वह स्थिति दुरापकृष्टि कहलाती है। यह दरापकाष्टांस्थातक मद स्वरू: क्या .. वृत्तिकरारूप परिणामरकन्द्वानःसास करन-स अधाशा स्थिांतवामगर, नमक : : का विरोध है । पर स्वभागप्रमावालाम धन्ध अम. बहुभागवाले संख्यातहार स्थातकांजक व्यत्तात हानपर वही सभ्यकावा अस -- समवप्रबद्रों की उदीरगा होता है। यहां से पूर्व सवत्र हा असख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्व को उदोरणा प्रवृत्त होती थी, परन्तु यहां पर पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाग प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्वकी उदोरणा प्रवृत्त हुई । अपकर्षित समस्त द्रव्य में पल्योपमके असंख्यातवेंभाग का भागदेकर जो लब्ध पावे उतने द्रव्यको उदयावालिसे बाहर गुणगीमें निक्षिप्त करता है । गुणश्रेणीके असंख्यातवेंभाग मात्र द्रव्यको जो असंख्यात समयप्रबद्ध मात्र है, इस समय उदीरित करता है । तदनन्तर बहुत स्थितिकाण्डको के व्यतीत होने पर मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डक में मिथ्यात्वकी उदयावलिसे बाहरके सर्वद्रव्यको ग्रहण किया। इसप्रकार मिथ्यात्वका उदयावलि अर्थात् उच्छिष्टावलिमात्र द्रव्य शेष रह जाता है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व । १. २. ३. ज..पु १३ १ ४४ । ज. प. पु. १३ पृ. ४४-४५. ! ज. ध, पु. १३ पृ. ४३। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया १२७ ॥ लब्धिसार [ ११७ इन तीनों प्रकृतियोंका सदृशं स्थितिकाण्डक होता था, किन्तु सबसे पहले विनाशको प्राप्त होनेवाली मिथ्यात्वप्रकृतिका इस स्थानपर विशेष घात होता है इसमें कोई विरोध नहीं है। मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डक की अन्तिमफालीका द्रव्य सर्वसंक्रमण द्वारा संक्रान्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यन्मिथ्यात्वका शेष स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभागको घात करनेवाले स्थितिकाण्डक होते हैं । इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिकांडकों के व्यतीत होनेपर सम्यग्मिथ्यात्वके उदयावलीके बाहर स्थित समस्त द्रव्यका कांडकघात द्वारा ग्रहण होता है तथा मिश्र (सम्य ग्मिथ्यात्व) प्रकृतिको मात्र उच्छिष्टावलिप्रमारा स्थिति सत्कर्म शेष रह जाता है । उस समय सम्यक्त्वकी आठवर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है, शेष सर्वस्थितियां स्थितिकाण्डकरूप से घातको प्राप्त हो चुकी हैं । मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिका पतन होने पर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य अन्य स्थिति संक्रम नहीं पामा पला। तर यी वा स्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि मिथ्यात्व के समस्तद्रव्यका सर्वसंक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट प्रदेश संक्रनकी व्यवस्था बन जाती है । इतनी विशेषता है कि गुगित कर्माशिक नारक भवसे आकर अतिशीत्र पदुम पर्यायको ग्रहणकर दर्शनमोहक़ी क्षपणा करनेवाला होना चाहिये, अन्यथा अजधन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा उसी समय सम्यन्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उत्पन्न होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका कुछ कम डेढगुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण समस्त द्रव्य उसरूपसे परिणम जाता है। इसलिये मिथ्यात्व के जघन्यस्थितिसंक्रमके साथ होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके प्रतिग्रहवश उसी समय सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, यह सिद्ध हो जाता है । तदनन्तर मिथ्यात्व दो समयकम एक प्रावलि प्रमाण स्थितियोंको क्रमसे गलाकर जिससमय दो समयमात्र कालवाली स्थिति शेष रहती है, उससमय मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य स्थितिसत्कर्म उपलब्ध नहीं होता । जिस समय १. ज. प. पु. पृ. ४८-५०। २. ज. ध. पु. १३ पृ. ५३। ३. ज. ध. पु. १३ पृ. ५४ ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] सब्धिसार [ गाथा १२८-१३० मिथ्यात्वकी दो समय स्थिति शेष रहती है उस समय वह स्तिबुक संक्रम द्वारा सजातीय प्रकृति में संक्रमित हो जाती है। इसलिये तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वसम्बन्धी प्रकृति सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म निःसत्त्व हो जाते हैं । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिमकांडकको अन्तिमफालिके कुछ कम डेढ़ गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमें संक्रमित करनेपर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, क्योंकि अनिवृत्तिरूप परिणामोंके द्वारा दुरापकृष्टिरूप से घातित करनेके बाद शेष बची स्थितिके जघन्य होने में विरोधका अभाव है, परन्तु उससमय सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम उत्कृष्ट होता है, क्योंकि गुणितकर्माशिक जीवकी विवक्षामें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होने में विरोधका अभाव है तथा उसीसमय सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका उसमें संक्रम हुआ है । इसके पश्चात् दो समयकम उदयाबलि गलिन होने पर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म, दो समय कालप्रमाण, एक स्थितिरूप होता है । ___ अब मिद्विक को अन्तिमफालिका गणश्रेणिमें निक्षिप्तद्रव्य के कमसहित प्रमाणप्राविका कथन करते हैं 'मिस्सदुगचरिमफाली किंचणदिवड्ड्समयपबद्धपमा । गुगासढि करिय तदो असंखभागेण पुवं व ॥१२॥ सेसं विसेसहीणं भडवस्सुवरिमठिदीए संखुद्धे । चरमाउलि व सरिसी रयणा संजायदे एत्तो ५१२६॥ 'अडवस्तादो उवरि उदयादिप्रवद्विदं च गुणसेढो । अंतोमुहुत्तियं ठिदिखंडं च य होदि सम्मस्त ॥१३०॥ १. ज. ध पु. १३ पृ. ५१-५२-५३ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. ५५-५६ । 3. ज.ध. पु. १३ पृ. ६४ । ४. ज.ध. पृ. १३ प. ५६-६० व ६५-६६ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६० ] लब्धिसार [ ११६ ____ अर्थ-मिश्रद्विक अर्थात् मिश्रमोहनीय (सम्य ग्मिथ्यात्व) और सम्यक्त्वमोहनीय इन दोनों प्रकृतियोंकी अपनी अपनी अन्तिमफालियोंका द्रब्य कुछकम डेढ़गुणहानि गुरिणत समयप्रबद्धप्रमाण है । पूर्वोक्त प्रकार उन दोनों अन्तिमफालियोंके द्रव्य में पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर एक भाग गुणश्रणा निक्षेपमें दिया जाता है । गुणश्रेणि पायामरूप अन्तर्मुहर्तकाल कम आठवर्ष प्रमाग ऊपरकी स्थितियों में चरमावलिपर्यन्त ? सदृश चय से हीन इस रचनारूप शेष बहुभाग द्रव्य दिया जाता है। सम्यक्त्वमोहनीय की आठ वर्ष स्थिति करने के समयसे लेकर ऊपर सर्वत्र उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है तथा सम्यक्त्वमोहनीयकी स्थितिमें स्थितिखंड का आयाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इसके प्रागे एक-एक स्थितिकांडक द्वारा अन्तर्मुहूर्तअन्तर्मुहूर्त स्थिति घटाता है। विशेषार्थ- जिस समय सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्कर्म आठवर्षप्रमाण होता है, उस समय में (पतित) होनेवाली अपनी अन्तिमफालिके द्रव्य के साथ सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिम फालिको ग्रहरणकर सम्यक्त्वके उपरिम आठवर्षप्रमाण निषेकोंमें सिंचन करता हुमा' उदयमें स्तोक प्रदेशजको देता है। उससे ऊपरवर्ती समयसम्बन्धी स्थितिमें असंख्यातगुरणे प्रदेशजको देता है । इसप्रकार पहलेके गुणश्रेरिगशीर्षके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थिति में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे प्रदेशजको देता है । सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी अन्तिमफालिके कुछकम डेढ़गुणहानि गुरिणत समयप्रबद्धप्रमारण द्रव्यको (अपकर्षणभागहारसे असंख्यातगुणे) पल्योपमके असंख्यातवें भाग से खण्डित कर एक भागमात्र द्रव्य को गुणश्रेरिगमें निक्षिप्तकर पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको गोपुच्छाकार से गुणश्रेणिशीर्ष से ऊपर अन्तर्मुहर्तकम आठ वर्षको स्थितियों में निक्षिप्त करता है । इसप्रकार गुणश्रेरिणशीर्ष से अनन्तर उपरिम प्रथम स्थिति में असंख्यातगुरणे प्रदेशज का निक्षेप होता है, क्योंकि द्रव्य बहुभागप्रमाण है और स्थितियायाम स्तोक है । उससे ऊपर सर्वत्र (अनन्तर उपनिधाके अनुसार) पाठ वर्षप्रमाण स्थितिके अन्तिम निषेकके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य दिया जाता है। आठवर्षप्रमाण सर्व गोपुच्छोंके १. जब सम्यग्मिथ्यात्व की चरमफालीका संक्रमण सम्यक्त्वमें होता है, तब सम्यक्त्वका ८ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म होता है । (ज. ध. पु. ३ पृ. २०५) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] अब्धिसार [ गाथा १३१ ऊपर इस समय दिया जानेवाला द्रव्य प्रत्येक स्थिति के प्रति पूर्वके अवस्थितद्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि अन्तिमफालि का द्रव्य कुछ कम डेढ़गुणहानिगुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण है' । सम्यक्त्व की आठवर्ष स्थितिसत्कर्म से पूर्व उदयावलिसे बाह्य गुणश्रेरिण पायाम था, किन्तु अब यहां से उदयरूप वर्तमान समयसे ही गुणश्रेणि आयाम प्रारम्भ हो जाता है इसलिये यह गुणश्रेणी पायाम 'उदयादि' कहा जाता है । पूर्व में प्रतिसमय गुणश्रेरिग आयाम घटता जाता था इसलिये वह गलितावशेष गुणनोणि थी, किन्तु अब नीचे का एकसमय व्यतीत होनेपर उपरिम स्थितिका एकसमय गुरगश्रेरिणमें मिल जानेसे गुणोंरिग पायाम जितना था उतना ही रहता है, घटता नहीं है। अतः यह गुणश्रेणि पायाम अवस्थित स्वरूप है। इसलिये यह उदयादिअवस्थित गुणश्रेरिणआयाम है । पूर्वमें एकस्थिति काण्डक द्वारा पल्यका असंख्यातवांभाग स्थितिका घात होता था, किन्तु अब एक स्थितिकांडक द्वारा अन्तर्मुहर्तमान स्थितिका घात होता है, क्योंकि इस स्थलपर पल्योपमके असंख्यातभाग आदि विकल्प संभव नहीं हैं। अनुभाग. अपवर्तन का निर्देश करते हैं--- 'विदियावलिस्स पढमे पढमस्संते य आदिमणिसेये । तिट्ठाणेणंतगुणेणणकमोबट्टणं चरमे ॥१३१॥ अर्थ-द्वितीयावलिके प्रथम निषेक, प्रथमावलि (उदयावलि) के अन्तिम निषेक और उदयरूप प्रथम निषेक, इन तीनस्थानों में सम्यक्त्वकी आठवर्षकी स्थितिसे उच्छिष्टावलि पर्यन्त सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुरणे घटते क्रमसे अपवर्तनघात होता है। विशेषार्थ- सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डककी (मिश्र व सम्यक्त्वप्रकृतिकी) द्विचरम दो फालिके पतन समयमें-आठवर्ष स्थिति करनेके समयसे पूर्वसमय तक तो लता-दारुरूप द्विस्थानगत अनुभाग है सो अनुभागकांडकघातसे अनन्तागुणा हीन हुआ । १. ज. प. पु १३ पृ. ६४-६६ । ध पु. ६ पृ. २५६-६० । २. ' ज.ध. पु. १३ पृ. ५६-६० । ३. ज. प. पु. १३ पृ. ६३ । ध, पु. ६ पृ. २५६ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३१ ]. लब्बिसार [ १२१ पुनः इन्हीं अन्तिम दो कालिके पतन समय में प्राठवर्षकी स्थिति करने के समय में अनन्तगुणा हीन होकर लता के समान एक स्थानीय अनुभाग हुआ। यहांसे लेकर पूर्व में जो अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनुभागकांडकघात होता था उसका अभाव हुआ और प्रति समय श्चनन्तगुणे हीन क्रमसे श्रनुभागका अपवर्तन होने लगा। वहां अनन्तरवर्ती श्रावर्ष स्थिति करने के समय से पूर्व समय में निषेकका जो अनुभाग सत्त्व था उससे अनन्तगुरणाहीन आठवर्ष स्थिति करने के समय में उदयावलिके उपरवर्ती उपरितनावली के प्रथम निषेकका अनुभागसत्त्वं श्रवशिष्टं रहता है । अवशिष्ट अनन्त बहुभागरूप अनुभागका विशुद्धि-विशेष से अपवर्तन हुआ नाश हुआ। तथा उसी समय में उदयावलिके अन्तिम निषेकका अनुभागसत्त्व अपने से उपरवर्ती उस उपरितनावलिके ( द्वितीयावलि के ) प्रथम निषेक सम्बन्धी प्रभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन रहता है तथा अवशिष्टका नाश होता है । पुनः उससे अनन्तगुणा हीन उदयावलिके प्रथम निषेका अनुभागसत्त्व रहता है, शेषका नाश होता है । उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थितिकरने के समय से लेकर अनन्तरवर्ती आगामी समय में अनन्तगुणाहीन अनुभागसत्त्व होता है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन अनुक्रमसे उच्छिष्टावलिके अन्तिम समय पर्यन्त अनुभागका अपवर्तन जानना । भावार्थ - जिससमय सम्यक्त्व प्रकृतिका आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म होता है। उससे पहले सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुभाग लता दारुरूप द्विस्थानीय था । उसकी अब एक लता स्थानीयरूप से प्रतिसमय अपवर्तना प्रारम्भ होती है, पहले अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अनुभागकाusrat रचना करता था अब पूर्वके काण्डकघातका उपसंहारकर प्रत्येक समय में सम्यक्त्व प्रकृतिके अनुभागकी अनन्तगुरणी हानिरूपसे अपवर्तना होती है । अनन्तरपूर्वं समय के अनुभाग सत्कर्मसे वर्तमान समय में अनुभाग सत्कर्म उदयावलिसे बाहर ( द्वितीयावलिके प्रथम निषेकमें) अनन्तगुरणा हीन है । इस अनुभागसत्कर्म से उदयावलि के भीतर अनुप्रविशमान ( उदयावलिके अन्तिम निषेक में ) अनुभागसत्कर्म ग्रनन्तगुणा हीन है । इससे भी उदय समय में प्रवेश करनेवाला ( प्रथम निषेकमें) अनुभाग सत्कर्म अनन्तगुणा हीन है । इसप्रकार दर्शनमोहनीय के क्षय होनेके एकसमय अधिक एक प्रवलि पूर्वतक प्रत्येक समयमें इसीप्रकार जानना चाहिये । इसके पश्चात् एक प्रावलि कालतक उदय में प्रविशमान अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना पाई जाती है' | १. ज. ध. पु. १३ पृ. ६३ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ } लब्धिसार [ गाथा १३२-१३३ 'आठवर्ष की स्थिति के पश्चात् कहांतक और किस विधिसे द्रव्यनिक्षेप होता है इसका कथन करते हैं अडवस्से उवरिस्मि वि दुचरिमखंडस्स चरिमफालित्ति। संखातीदगुणक्कम विशेषहीणक्कम देदि ॥१३२।। अर्थ-पाठवर्ष की स्थिति करनेके अनन्तर समयसे लेकर द्विचरमकाण्डककी अन्तिमफालिके पतन समयतक उदयादि अवस्थित गुरणश्रेरिणायाममें असंख्यातगुणा क्रम लिये हुए तथा ऊपर अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्षप्रमाण स्थितियोंमें विशेषहीन अर्थात् चय घटता क्रम लिये निक्षेपण होता है अर्थात् दिया जाता है। विवार्म..... मालवर्षकी कितिसत्कर्मके अनन्तरसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिकाण्डकघात के द्वारा अपवर्तित होनेवाली सम्यक्त्वकी स्थितियों में जो प्रदेश पूज होता है, अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा उसे ग्रहणकर उदयादि अवस्थित-गुणश्रेरिणमें निक्षिप्त करता हुआ उदयमें स्तोक प्रदेशपुजको देता है। उससे अनन्तरसमय में असंख्यातगुणा देता है । इसप्रकार क्रमसे गुणश्रेणिशीर्षके अधस्तनसमयके प्राप्त होने तक असंख्यातगुणित क्रमसे सिंचन करता है । पुनः इससे उपरिम अनन्तर एक स्थितिमें भी असंख्यातगुरणे प्रदेशपुज का. सिंचन करता है, क्योंकि यहां अवस्थित गुणश्रेरिण निक्षेपकी प्रतिज्ञा की गई है । इससमय अपकषित हुए द्रव्य के बहुभागको अन्तमुहर्तकम आठवर्षों के द्वारा भाजितकर वहां जो एकभाग प्रमाण द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्रेरिणशीर्ष में निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिमात्रसे अन्तिमस्थितिको नहीं प्राप्त होने तक विशेषहीन-विशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता है । इसप्रकार यह क्रम द्विचरम स्थितिकाण्डकतक होता है । पाठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्त्व प्रवशिष्ट करनेके प्रथम (पूर्व) समयमें, आठवर्षप्रमाण स्थितिसस्व करने के समय में, आगामो समयमें पाये जानेवाले विधान आरिका कथन भडवस्से संपाहियं पुठिवल्लादो असंखसंगुणियं । उवरिं पुण संपाहियं असंखसंख च भागं तु ॥१३३॥ १. ज. ध. पु. १३ पृ. ६४-७० । क. पा. सुत्त. पृ. ६५२ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : लब्धिसार ठिदिखंडामुक्कीरण दुचरिमसमप्रति चरिमसमये च । प्रोक्कदिकालीगढ़व्वाणि गिसिंचदे जम्दा ॥ १३४ ॥ अवस्से संपहियं गुणसेडीसीसयं असंखगुणं । पुठिवल्लादो शियमा उवरि विसेसाहियं दिस्लं ।। १३५ ॥ अवस् य ठिदीदो चरिमेदर फास्लिपडिददव्वं ख I संखासंखगुणं सेगुवरिमदित्समाणमहियं सीसे ॥ १३६ ॥ जदि गोउच्छविसेसं रिगां दवे तोवि धपमाणादो । जम्हा असंखगुणणं ण गणिज्जदि तं तदो एत्थ ॥१३७॥ तत्तक्काले दिस्सं वज्जिय गुणा सेटिसीसयं एक्कं । उवरिमठिदी वट्टदि विसेसहीणक्कमेणेव ॥ १३८ ॥ गाथा १३४- १३८ ] [ १२३ प्रर्थसम्यक्त्वप्रकृति की आठ वर्ष स्थिति शेष रहने के समय में मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) और सम्यक्त्व प्रकृति सम्बन्धी काण्डक की चमफालियों का द्रव्य, पूर्व समय के सम्यक्त्वमोहनीय के सत्त्व द्रव्य से प्रसंख्यातगुणा है । सम्यक्त्व मोहनीय के सत्त्व द्रव्यसे, स्थितिकाण्डको त्कीर्णकाल के द्विचरम समय पर्यन्त अपकर्षित फालिद्रव्य संख्यातवें भाग है और अन्तिम समय में अपकर्षित फालिद्रव्य संख्यातवें भाग है । यह द्रव्य निक्षेप किया जाता है ।। १३३ ३४ ॥ सम्यक्त्व प्रकृति की आठ वर्ष स्थिति शेष रहने के समय गुणश्रेणीशीर्ष का द्रव्य अधस्तन गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे नियमतः प्रसंख्यातगुणा है । उपरिम गुणश्र ेणि शीर्षों का दृश्यमान द्रव्य अपने अपने से पूर्व गुण शिशीर्ष के द्रव्यसे विशेषाधिक हैं ।। १३५ ।। सम्यक्त्व प्रकृति की आठ वर्ष प्रमाण स्थिति शेष रहने पर समस्त स्थित द्रव्य से चरम फालि का द्रव्य संख्यातगुणा हीन है और अन्य फालियों का द्रव्य असंख्यातगुणा हीन है इसलिये उपरितन गुराश्र शिशीर्षका द्रव्य विशेष अधिक है || १३६।। यद्यपि अथस्तन गुणे रिंगशीर्ष से उपरितन गुणा गिशीर्ष में गोपुच्छ चय ऋण है अर्थात् घटता है तो भी धन ( मिलाया जाने वाला द्रव्य ) के प्रमाणसे Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] लब्धिसार ... { गाथा १३८ असंख्यातगुणा हीन है। इसलिये इस चयरूप ऋण को नहीं गिमा अर्थात् द्रव्यप्रमाण लाने में इसको दृष्टिसे प्रोझल कर घटाया नहीं गया ।।१३७।। ....... ___ उस समय गुणश्रेणिशीर्ष को छोड़ कर उपरिम स्थितियों में दृश्यमान द्रव्य प्रत्येक निषेकमें विशेषहीन क्रमसे वर्तन करता है ।।१३८।। विशेषार्थ- इस मग पागकर्षित डा नव्य के बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम पाट वर्षों द्वारा भाजितकर वहां जो एकभागप्रमारणं द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्रेणिशीर्ष में निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिमात्रसे अन्तिम स्थिति को नहीं प्राप्त होने तक विशेषहीनविशेषहीन द्रच्यका सिंचन करता है । इसप्रकार पाठवर्ष के स्थितिसत्कर्मवाले जीवके प्रथमसमयमें दीयमान द्रव्यकी प्ररूपणा की। अब वहीं दृश्यमान द्रब्य किंसप्रकार अवस्थित रहता है इसका निर्णय करेंगे । यथा-पलेके गुणश्रेरिणशीर्षसे इस समयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं होता है । इस समय अपकर्षित कर ग्रहण किया गया समस्त द्रव्य भी मिलकर पाठवर्ष सम्बन्धी एक स्थिति के द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध आबे उतना होता है, क्योंकि माठवर्ष प्रमाण निषेकों में अपकर्षण भागहार का भाग देने पर जो लब्ध आबे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य को ही नीचे गुणश्रेणिमें सिंचित करता है । शेष असंख्यात बहुभागको इस समय के गुरणश्रेरिगशीर्ष से उपरिम गोपुच्छायों में आगममें प्ररूपित विधि के अनुसार सिंचित करता है। इस कारण से पहले के गुणश्रेणिशीर्ष से इस समय का गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं हुअा, किन्तु दृश्यमान द्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । विशेपाधिक होता हुआ भी असंख्यातवां भाग ही अधिक है, अन्य विकल्प नहीं है। अब इसी असंख्यातवें भाग अधिक को स्पष्ट करनेके लिये यह प्ररूपणा करते हैं । यथा अधस्तन समयके गुणश्रेणि शीर्ष का द्रव्य लाना चाहते हैं इसलिये डेढ़ गणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध को स्थापितकर उसका अन्तर्मुहूर्त कम आठवर्ष प्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये । इसप्रकार स्थापित करने पर पिछले समयके गुण १. ज. प. पु १३ पृ. ६८ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३८ ] [ १२५ श्रेणीका द्रव्य प्राप्त होता है । इस समय के गुणश्रेणिशीर्ष द्रव्यको लाने की इच्छा होनेपर एक गोपुच्छविशेषसे हीन इसी द्रव्यको स्थापित कर इस समय अपकर्षित द्रव्यके बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम ग्राउवर्षो के द्वारा भाजितकर वहां प्राप्त एकभाग मात्र द्रव्य से इसे अधिक करना चाहिये और यह अधिक द्रव्य, पिछले गुराश्रेणिशीर्ष में जो गोपुच्छ विशेष अधिक है उससे तथा उसीमें अर्थात् पिछले गुणश्रेणिशीर्षमें इस समय प्राप्त हुआ जो प्रसंख्यात समयप्रबद्धप्रमारण गुरणश्रेणिसम्बन्धी द्रव्य है उससे असंख्यात - गुरणा है, क्योंकि पल्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागप्रमाण अंक यहां पर गुणकाररूपसे पाये जाते हैं परन्तु वहां के समस्त द्रव्य को देखते हुए वह प्रसंख्यातगुणा हीन है, क्योंकि साधिक अपकर्षरण - उत्कर्षण भागहार के द्वारा उसके खण्डित करने पर वहां जो एक भाग प्राप्त हो वह नारा है । इसलिये इसने मात्र ग्रांधक द्रव्य को निकाल - कर और पृथक् रखकर वहां अधस्तन गुणश्रेगिशीर्ष के एक गोपुच्छ विशेष से अधिक तत्काल प्राप्त असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण समधिक द्रव्यके निकाल देने पर अपनीत शेष जो रहे उतना पहले के गुणश्रेणिशीर्षसे वर्तमान गुणश्रेणिशीर्ष सम्बन्धी द्रव्य अधिक होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इसप्रकार आगे भी प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षएकर उदयादि श्रवस्थित गुण रिंग में निक्षेप करनेवाले की दीयमान और दृश्यमान द्रव्यकी पूरी प्ररूपणा इसीप्रकार करनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि आठवर्ष प्रसारण स्थिति सत्कर्मवाले जीवके प्रथम स्थितिकांडकसे लेकर द्विचरम स्थितिrussar पतित होनेवाली इन संख्यातहजार स्थितिकाण्डकों की अन्तिम फालियों में भेद है, क्योंकि उनके पतन समय गुण गिशीर्ष में पतित होनेवाला द्रव्य वहां सम्बन्धी पूर्वके संचयरूप गोपुच्छको देखते हुए संख्यातवां भाग अधिक देखा जाता है । अब उसका अपवर्तन द्वारा निर्णय करके बतलाते 1 यथा - वहां सम्बन्धी पूर्वके संचयको लाना चाहते हैं इसलिये डेढ़ गुणहानिमुरिणत एक समयप्रबद्धको स्थापितकर पुनः अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण इसका भागहार स्थापित करना चाहिए । अब प्रथम स्थिfaaisant अन्तिम फालिका पतन होते समय काण्डक द्रव्यको लाना चाहते हैं इसलिये डेढ़ गुहानिगुरित समयप्रबद्ध के अन्तर्मुहूर्तसे भाजित आठ वर्ष प्रमाण आयाम को भागहाररूप से स्थापित करना चाहिए । इसप्रकार स्थापित करने पर प्रथम स्थितिarusha अन्तिमफालिका द्रव्य श्राता है' । पुनः इसके प्रसंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्यको १. देशोन काण्डकद्रव्य प्रमाण प्राता है । अर्थात् चरमफालि द्रव्यकाण्डक द्रव्यके बहुभागप्रमारा है। सार Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] लब्धिसार । गाथा १३६ ही नीचे गुणश्रेरिण में निक्षिप्तकर शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको अवस्थित गुणरिणशीर्ष से लेकर अन्तमुहूर्त कम आठ वर्षों में गोपुच्छाकाररूपसे सींचता है। इसलिये अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्षों के द्वारा इस काण्डकद्रव्य के भाजित करने पर विवक्षित समयके अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षमें पतित होनेवाला द्रव्य वहां सम्बन्धी पूर्वके संचयके समनन्तर अधस्तन गुण रिणशीर्ष के संख्यातवां भाग पाता है । इसलिये सिद्ध हुआ कि उस अवस्था में द्विचरम गुणश्रेणिशीर्ष से अन्तिम गुणश्रेणि शीर्षका द्रव्य संख्यातवां भाग अधिक होकर दिखाई देता है। इसीप्रकार ऊपर भी सर्वत्र द्विचरमस्थितिकांडक की अन्तिमफालि के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये, क्योंकि एक कम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालप्रमाण कालतक असंख्यातवां भाग अधिक और काण्डकके अन्तिम समय में संख्यातवांभाग अधिक गुण णिशीर्ष में दृश्यमान द्रव्य होता है । इस प्रकार इस कथनके साथ पूर्वोक्त कथनका कोई भेद नहीं पाया जाता है । इसप्रकार द्विचरम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालि पर्यन्त ही यह प्ररूपणाप्रबन्ध है' । आगो अन्तिमा विकाग गहते हैं.... गुणसे दिसंखभाग तत्तो संखगुण उवरिमठिदीश्रो। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणो ॥१३६॥ अर्थ- गुणश्रेणि के संख्यात बहुभाग को और उससे संख्यातगुणी उपरितन स्थितियोंको घात के लिये ग्रहण करने वाला चरम स्थितिकाण्डक, द्विचरम स्थितिकाण्डक धात से संख्यातगुणा है ।। विशेषार्थ-पहले आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर विशेषहीनके कमसे अन्तर्मुहुर्त अायामवाले स्थितिकांडकों का घात कर यहां द्विचरम स्थितिकाण्डकमे संख्यातगुणे आयामरूपसे अन्तिम स्थितिकाण्डकों को ग्रहण करता है यह तात्पर्य है । इसप्रकार इस अल्पबहुत्वके द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण-विषयक निर्णय करके अब सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुमा इस विधि से ग्रहण करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिये कहते हैं "चरम स्थितिकाण्डकको घात के लिये ग्रहण करता हुआ गुणश्रेरिंगके (उपरिम) संख्यात बहुभाग को ग्रहण करता है और उपरिम अन्य संख्यातगणी स्थितियों को ग्रहण करता है।" १. ज. ध. पु. १३ पृ. ६७-७० । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३६ ] लांघसार [ १२७ अक्त कथनका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको घातके लिये ग्रहण करता हुआ इस समय उपलब्ध होनेवाले अवस्थित गणश्रेणि आयामके संख्यातवें भाग को अर्थात् अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकाल सहित कृतकरणीय कालको छोड़कर पुनः शेष संख्यात बहुभाग को ग्रहण करता है । "केवल इतनी ही स्थितियों को नहीं ग्रहण करता है, किन्तु इनसे संख्यातगुणी उपरिम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रतन स्थिति के निधेक . विशिष्टस्यष्टीकरणार्य जाधवला (पु. १३) द्रष्टव्याऽस्ति । .. चश्मास्थिति काक के लिये गृहीतं मयाम ... .. N अवप्रियतगुरुनायीका सैरात बैंभाग ज्यावल्लभारसमस्त अबरयेत शिवा PAN cussARI मरध्यास भाग LAUNE (मरास्थितमुहाकाका for कृतकृत्यकाल अर्थात् गणितावीज का संन्यात बाग करम मकाण्डकपरवार) शिर अनिधिलागत Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ 1 लब्धिसार [ गाथा १४०-१४२ अन्य स्थितियों को भी ग्रहण करता है ।" इस कथन द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण पृथक् दिखलाया गया जानना चाहिये। इसलिए अवस्थित गणश्रेरिणशीर्षसे उपरिम सर्व गोपुच्छायें और अवस्थितरूपसे किया गया समस्त गुण श्रेणिशीर्षस्थान इन सबको ग्रहण कर तथा अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिकरूपसे रचित पुराने म.गणिशीर्षके उपरिम भागमें अन्तर्मुहर्तप्रमाण स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको घात के लिए ग्रहण करता है'। ___ सम्यक्त्या प्रकृति के अन्तिमकाण्डकको प्रथमफालोके प्रथम समयसे लेकर उसके द्विचरमफालोके पतनसमय पर्यन्त उस काण्डकोत्कोरणकालमें फालिद्रव्य व अपकृष्ट द्रव्य के निक्षेप विशेषका विधाम कहते है सम्मत्तरिमखंडे दुचरिमफालिति सिरिण पवाभो। संपहियपुत्वगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥१४०॥ तत्थ असंखेज्जगुणं असंखगुणहीणयं विसेसूर्ण । संखातीदगुणणं विसेसहीणं च दत्तिकमो ॥१४१॥ मोक्कट्टिद बहुभागे पढमे सेसेक्कभागबहुभागे । विदिए पव्वेवि सेसिगभागं तदिये जहा देदि ॥१४२॥ अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरमफालि तक दीयमान द्रव्यके तीन पर्व (श्रेणियां) हैं । वर्तमान इस समयकी गणश्रेरिणशीर्ष तक, प्राचीन गणश्रेणिशीर्ष तक, अन्तिम स्थिति काण्डक के अन्त तक । प्रथम पर्व में अपकर्षित द्रव्यका असंख्यात बहुभाग असंख्यातग गणे क्रमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थिति में प्रसंख्यातगुणा हीन द्रव्य दिया जाता है । दूसरे पर्वमें शेष असंख्यातवें भागका असंख्यातबहुभाग द्रव्य विशेष हीन कमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगणा हीन द्रव्य दिया जाता है। तृतीय पर्व में शेष एकभाग प्रमाण द्रव्य विशेष हीन क्रमसे दिया जाता है । १. ज.ध. पु. १३ पृ.७१-७२-७३ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा"५४३'] 'लब्धिसार [ १२६ ...विशेषाथ-सभ्यक्त्व मोहनीयको उदयावलि से बाह्य सभी स्थितियों में से प्रदेशों को अपकषित कर वर्तमान गुणवेरिण में निक्षिप्त करता हुआ उदय स्थितिमें अल्प प्रदेश पुज को दिया जाता है, क्योंकि आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर उदधामि गुरात्रिी प्रिमर्तमान होने में कोई रुकावट नहीं पाई जाती । पुनः तदनन्तर उपरिम स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुज. को देता है । यहां पर गुणकार तत्प्रायोग्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसप्रकार तब तक असंख्यातगुरणे प्रदेशपूजको देता है जबतक चरमसमय स्वरूप स्थितिकाण्डक की प्रथम स्थिति प्राप्त नहीं होती । यही स्थिति गुणश्रेरिणशीर्ष बन गई है, यह प्रथम पर्व है। अब तक अपकर्षित द्रव्यके असंख्यातवें भाग को ही गुरणश्रेरिण में देता था, किन्तु यहां से असंख्यात बहुभाग को गुणश्रेरिणमें निक्षिप्त करने लगा और शेष असंख्यातवें भागको उपरिम स्थितियोंके समयमें अविरोधपूर्वक निक्षिप्त करता है । इस शेष बचे असंख्यातवें भाग में से असंख्यातवें भागको पृथक् रखकर वहां प्राप्त बहुभाग को स्थितिकाण्डकके भीतर प्राप्त हुए अन्तर्मुहर्त प्रमाण गुराश्रीणि अध्वानसे भाजित कर वहां प्राप्त एक खण्डको विशेष अधिक कर इस समयके गुणश्रेगिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमें अर्थात् स्थितिकाण्डककी आदि स्थिति में दिया जाता है । उसके पश्चात् प्राचीन गुरगोंरिगशीर्ष तक यहां के बहुभाग द्रव्यको उत्तरोत्तर विशेष हीन दिया जाता है, यह दूसरा पर्व हैं । पृथक रखे हुए असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्यको अधस्तन आयामसे संख्यातगुणे उपरिम समस्त प्रआयामसे भाजितकर जो एक भाग प्राप्त हो उसे विशेष अधिक करके वहां की गोपुच्छा में सिंचितकर उससे ऊपर अतिस्थापनावलि से पूर्वतक विशेषहीन क्रमसे एक गोपुच्छ श्रेरिणरूप से दिया जाता है, यह तीसरा पर्व है। इसप्रकार यहां पर दीयमान द्रव्यकी तीन श्रेणियां हो गई । इसप्रकार स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालके द्विचरम समय तक अर्थात् द्विचरम फालि तक जानना चाहिए । ____साम्प्रतिकगुणश्रेणिके स्वरूप निर्देशपूर्वक चरमफालिके पतकालका निर्देश उदयादिगलिदसेसा चरिमे खंडे हवेज्ज गुणसेढी। फाडेदि चरिमफालि अणियट्टीकरणचरिमम्हि ॥१४३॥ १. ज.ध. पु. १३ पृ. ७४-७७ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] लग्धिसार [ गाथा १४४ प्रर्थ-सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिम काण्डककी प्रथम फालिके पतन समयसे लेकर द्विचरमफालिके पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम जानना । अवशिष्ट अनिवृत्तिकरणकालके अन्तिम समयमें अन्तिम काण्डककी चरमफालिका पतन होता है। विशेषार्थ-उदयादि वर्तमान समयसे लेकर यहां गुणवेरिण पायाम पाया जाता है इसलिये उदयादि कहते हैं और एक-एक व्यतीत होते हुए एक एक समय गुणश्रेणि पायाममें घटता जाता है इसलिए गलितावशेष कहा है । इसप्रकार उदयादै गलिताबशेष गुणश्रेणि आयाम जानना । पूर्वोक्त विधानसे अन्तिमकाण्डककी द्विचरमफालि का पतन होने पर काण्डकोत्कीरण कालका अनिवृत्तिकरणकालमें एक समय अवशिष्ट रहता है। चरिम फालिं देदि दु पढमे पव्वे असंखगुणिदकमा । अंतिमसमय म्हि पुणो पल्लासंखेजमूलाणि ॥१४४॥ प्रर्थ-अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिका द्रव्य प्रथम पर्व { गलितावशेष ग गश्रेणि ) में असंख्यात गणित क्रमसे दिया जाता है । अन्तिम समयमें पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण द्रव्य दिया जाता है। ___विशेषार्थ-यहां अपकर्षित होनेवाले द्रव्य का प्रमाण अन्तिमफालिके माहात्म्यवश कुछकम डेढ़गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि गुणश्रेरिणका समस्त द्रव्य अन्तिमफालिको देखते हुए असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है। इसको ग्रहणकर कृतकृत्यसम्यक्त्वके कालप्रमाण अधस्तन निषेकोंमें प्रदेशबिन्यास करता हुआ उदयमें अल्पप्रदेशपुजको देता है, क्योंकि यद्यपि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है तथापि उसके उपरिम निषेकोंमें सिंचित होने काले द्रव्यकी अपेक्षा अल्प होने में विरोध का अभाव है। तदनन्तर समयकी उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणा देता है। गुरपकार क्या है ? तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण अङ्क गुणकार हैं। इसप्रकार द्विचरम निषेकके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अधस्तन अनन्तर निषेकके गुणकारसे उपरिम अनन्तर निषेकका गुणकार सर्वत्र असंख्यातगुणी वृद्धिरूपसे ले जाना चाहिये । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४५-१४६ ] . लब्धिसार [ १३१ द्विचरम स्थितिमें जो प्रदेशपुञ्ज निक्षिप्त होता है उसे देखते हुए गुणश्रेरिण की अन्तिम अग्र स्थितिमें निक्षिप्त होने वाले द्रव्यका जो गुणकार है वह न तो पल्योपम के प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग है और न अन्य ही है, किन्तु पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है, क्योंकि नीचे निक्षिप्त किया गया द्रव्य अन्तिम फालिके द्रव्य को पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध प्रावे तत्प्रमाण स्वीकार किया गया है । इस कथन द्वारा अधस्तन समस्त गुणाकारों को पोपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवेभागप्रमाण सूचित किया गया जानना चाहिए, क्योंकि उन गुणकारों को पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होनेपर कर्मस्थितिके भीतर संचित हुए द्रव्यके अंगुलके असंख्यातवें भाग समय प्रबद्ध प्रमाण होनेका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होता है । इसलिये अन्तिम गुणकार ही पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है, किन्तु अधस्तन समस्त गुणकार पल्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ'। ___ अब दो गाथाओंमें कृतकृत्यवेवफसम्यक्त्व के प्रारम्भसमयके निवेशपूर्वक उसको अवस्था विशेषको प्ररुपणा करते हैं चरिमे कालिं दिगणे कदकरणिज्जेत्ति वेदगो होदि। सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तहाणे ॥१४५॥ देवेसु देवमणुए सुरणरतिरिए चउम्गईसुपि । कद करणिज्जुप्पत्ती कमेण अंतोमुहुत्तेण ॥१४६।।।। अर्थ- अन्तिमफालि द्रव्य के दिये जाने पर कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। वहां मरण होवे तो चारों गतियों में जा सकता है । यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम भाग में मरे तो देवगतिमें ही उत्पन्न होता है। तत्प्रमाण दूसरे भागमें मरण हो तो देव या मनुष्यों में उत्पन्न होता है। तत्प्रमाण तृतीय भागमें मरण हो तो देव, मनुष्य या तिर्यंच (इन तीनों में से किसी भी गति) में उत्पन्न होता है । तत्प्रमाण चतुर्थभागमें मरण हो तो चारों गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है । १ क. पा. सुत्त. पृ. ६५६ चूणिसूत्र ७६-८०; ज. ध. पु. १३ पृ. ७८ प्रादि । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] लब्धिसार. . [ गाधार१४७। विशेषार्थ-इसप्रकार अनिवत्तिकरणके चरमसमयमें सम्यक्त्व मोहनीयके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिके द्रव्यका अधस्तनवर्ती निषेकों में निक्षेपरम करने के पश्चात् अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त पुरातन गलितावशेष गुणश्रेरिण पायामके शीर्ष को संख्यातका भाग देने पर बहुभागप्रमाण अन्तमुहर्त काल पर्यन्त कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा मोम स्थिति का इनादि कार्य सो अमितिकरणकेर चरम समयमें ही समाप्त हो गया इस लिये किया है करने योग्य कार्य जिसने ऐसे कृलकृत्य नामको प्राप्त जीव भुज्यमान प्रायुके नाशसे मरण को प्राप्त होवे तो सम्यक्त्व ग्रहणसे पहले जो आयु बांधी थी उसके वशसे चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । वहां कृतकृत्यवेदकके कालके एक-एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण चार भाग करता है, उनमें से प्रथम-- भागमें मरे तो देवों में ही, द्वितीय भाग में मरे तो देव या मनुष्यों में, तृतीयभाग में मरे तो देव-मनुप्य या तिर्यंचों में तथा चतुर्थभागमें मरे तो चारों गतियों में उत्पन्न होता है, क्योंकि वहां उन ही में उत्पन्न होने योग्य परिणाम होते हैं । इस क्रम द्वारा कृतकृत्य बेदककी उत्पत्ति जानना चाहिए। आगे अधःकरणके प्रथमसमयसे लेकर कृतकृत्यवेदककालके चरम समयपर्यन्त लेश्या परिवर्तन होने अथवा न होने सम्बन्धों कथन करते हैं करणपढमादु जावय किदुकिच्चुरि मुहत्तअंतोत्ति। ण सुहाण परावती सा धि कोदावरं तु वरि ।।१४७।। अर्थ-अधःकरण से लेकर कृतकृत्यवेदक के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक शुभ लेश्या को बदलता नहीं अर्थात् शुभ लेश्यामें अवस्थित रहता है । अन्तमुहर्त पश्चात् यदि अन्य लेश्या रूप परिणमता है तो जघन्य कापोतलेश्याका अतिक्रम नहीं करता है । विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणमें विशुद्धिको पूर कर तेज (पीत), पद्म और शुक्ल इनमें से किसी एक शुभ लेश्या में दर्शनमोहको क्षपणा का प्रारम्भकर पुनः जब जाकर यह जीव कृतकृत्य होता है तब तक उसके पूर्वमें प्रारम्भ की गई वहीं लेश्या पाई जाती है तथा पुनः उसके आगे भी जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं गया तब तक प्रारब्ध उक्त लेश्याको छोड़ कर अन्य लेश्यारूप परिवर्तन नहीं करता है, क्योंकि कृतकृत्य भावको प्राप्त होनेवाले जीवके पूर्व में प्रारब्ध हुई लेश्या का उत्कृष्ट अंश होता है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा-१४८ ] लब्धिसार [ १३३ पुनः उसके मध्यम अंशको प्राप्त कर और अन्तर्मुहूर्त कालतक उस रूप रहकर जघन्य अंशमें भी जब अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं रह लेता तब तक अन्य लेश्यारूप परिवर्तन का होना सम्भव नहीं है । . . . कुछ प्राचार्य इसप्रकार भी अर्थ करते हैं कि जिसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भमें पूर्वोक्त विधिसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामें से अन्यतर लेश्या के साथ क्षपणक्रियाका प्रारम्भ करने वाला जो जीव पुनः दर्शनमोहकी क्षपणारूप क्रियाकी समाप्ति होने पर कृतकृत्यरूप से परिणमन करता है उसके नियमसे शुक्ललेश्याके होनेमें विरोध नहीं है । पुनः उसका. विनाश होनेसे आगममें बतलाई गई विधिके अनुसार यदि तेज और पद्मलेश्यारूपसे परिणत होता है तो कृतकृत्य होने के बाद जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं जाता तब तक वह उक्त लेश्यारूपसे परिवर्तन नहीं करता । अन्तर्मुहुर्तकाल के पश्चात् कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि जीव पहलेकी अवस्थित लेश्याका परित्यागकर जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इनमें से अन्यतर लेश्यारूप से परिणमता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस वचन द्वारा कृष्ण और नीललेश्याका यहां अत्यन्त प्रभाव कहा गया जानना चाहिये, क्योंकि अत्यन्त संक्लिष्ट हुआ भी कृतकृत्य जीव अपने कालके भीतर जघन्य कापोत लेश्याका अतिक्रम नहीं करता है । अब कृतकृत्यवेदक काल में पायी जाने वाली क्रिया विशेष को कहते हैंभणुसमओ बद्दणयं कदकिज्जतोत्ति पुवकिरियादो। वददि उदीरणं वा असंखसमयप्पबद्धाणं ॥१४॥ मर्थ-पूर्व प्रयोग वश कृतकृत्यवेदक कालके अन्त तक प्रतिसमय सम्यक्त्वके अनुभागका अनन्तगुरपी हानिरूप से अपवर्तन होता है तथा कृतकृत्य वेदककालमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा भी होती है। _ विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग अवशिष्ट रहने पर जिस प्रकार दर्शनमोहनीयके अनुभागकाण्डकघात को नष्टकर प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते क्रम सहित अनुभागका अपवर्तन कहा था उसीप्रकार इस कृतकृत्यवेदककालके अन्तिम समयपर्यन्त पाया जाता है, क्योंकि करण परिणामों की विशुद्धता के संस्कार का यहां अवशेष रहना सम्भव है । उस कृतकृत्यवेदककालमें जबतक एक समय अधिक Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १३४ ] [ गाथा १४६-१५१ उच्छिष्टावलि अवशेष रहती है तबतक प्रतिसमय असंख्यातगुरणे क्रम सहित असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा पाई जाती है । उदयवहिं मोक्कट्टिय असंखगुणसमुदयमावलिम्हि खिवे । उरि विसेसहीणं कदकिज्जो जाव अइत्थवणं ॥१४६ । जदि किसजुगो विधिसहिदो अहो वि पडिसमयं ।। दव्यमसंखेज्जगुणं प्रोक्कट्टदि णत्थि गुणसेडी ॥१५०॥ जदि वि असंखेज्जाणं समयपबद्धाणुदीरणासोवि । उदयगुणसे दिठिदिए असंखभागो हु पडिसमयं ॥१५१॥ अर्थ-उदयावलिसे बाहरके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिमें असंख्यातगणे क्रमसे दिया जाता है उससे ऊपर कृतकृत्यवेदककाल में अतिस्थापना शेष रहने तक विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है ।।१४६।। __ कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि चाहे संक्लेशको प्राप्त हो चाहे विशुद्धिको तो भी उसके एक समय अधिक यापलिकाल शेष रहने तक प्रतिसमय असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण होता है, किन्तु गुणश्रेरिण नहीं होती ।।१५।। यद्यपि असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है तथापि प्रतिसमय उदय द्रव्यसे उत्कृष्ट उदीरणा द्रव्य असंख्यातवेंभाग मात्र है ।।१५१॥ विशेषार्थ- कृतकृत्यवेदककालप्रमाण सम्यक्त्वमोहनीयके निषेकों का द्रव्य किचित ऊन द्वयर्धगुरणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है उसको अपकर्षणभागहार का भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिसे बाहर उपरितनवर्ती निषेकों से नहाणकरके उसको पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देकर उसमें से एक भाग तो उदयावलिमें "प्रक्षेपयोगोद्धत" इत्यादि विधानके द्वारा प्रथम समय से लेकर अन्तिम निषेकपर्यन्त असंख्यातगुरणे क्रमसे दिया जाता है । तथा अवशिष्ट बहुभाग प्रमाण द्रव्य उस उदयावलिसे उपरितनवर्ती अवशिष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपरितन स्थिति के अन्तमें एकसमय अधिक प्रतिस्थापनावलि छोड़ कर सर्वनिषेकोंमें “प्रद्धाणेण सव्वधणे" इत्यादि विधान द्वारा विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार उपरितन स्थितिका जो द्रव्य उदयाबलिमें दिया जाता है उसको उदीरणा कहते हैं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५१ ] लग्धिसार [ १३५ कृतकृत्य जीवके कालके, भीतर जिसप्रकार गुरणश्रेणि निक्षेप प्रादि विशेष असम्भव हैं उसीप्रकार वहां असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीररणा भी असम्भव है ऐसी प्राशंका नहीं करना चाहिए, किन्तु यह कृतकृत्यजीव अपने कालके भीतर संक्लेशको प्राप्त हो या विशुद्धिको प्राप्त हो तो भी संक्लेश-विशुद्धिनिरपेक्ष असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण उदीरणा प्रतिसमय असंख्यातगुरिणत श्रेणिरूपसे कृतकृत्यके कालमें एकसमय अधिक एक पावलिकाल शेष रहने तक प्रवृत्त होती ही है, प्रतिघातको नहीं प्राप्त होती । यद्यपि असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा पूर्व-पूर्व समय सम्बन्धी उदीरणाद्रव्यसे असंख्यातगुणे क्रमयुक्त है तथापि अन्तिमकाण्डककी अन्तिमफालिके द्रव्यको गुणश्रेणिमायाममें दिया था उस गुणश्रेणिरूप उदयनिषकके द्रव्यसे यह उदीरणाद्रव्य असंख्यातवां भागमात्र ही है, क्योंकि सर्वद्रव्यमें अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमें से एकभागको पल्यके प्रसंख्यातवेंभागका भाग देने पर उसमें से एक भागप्रमाण यह उदीरणाद्रव्य है और जो गुणश्रेणि का निषेक उदयरूप है, उसका द्रव्य, सर्वद्रव्य में असंख्यात पल्य के प्रथम वर्गमूलका भाग देने पर एक भागमात्र इसलिये कृतकृत्यवेदकके प्रथमादि समयों में उदीरणाद्रव्य जो कि उस-उस समयमें उदयावलिके निषेकों में दिया जा रहा है वह उस-उस उदयावलिके निषेकों के सत्त्वद्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन है । पुनः कृतकृत्यवेदक काल में एकसमय अधिक प्रावलिप्रमाण काल अबशेष रहनेपर पूर्व में अपकर्षित किये गए द्रव्यसे असंख्यातगुरणे द्रव्यको स्थिति के अन्तिम निषेक अर्थात् उदयावलिसे उपरितनवर्ती एक निषेक से अपकर्षित करके उसके नीचे एक समयकम श्रावलिके / भागप्रमाण निषेकोंको प्रतिस्थापनारूप रखकर उसके नीचे एक समयअधिक प्रावलीके त्रिभागमात्र निषेकोंमें द्रव्य देता है। वहां उस अपकर्षण किये हुए द्रव्य को पल्य के असंख्यातवें भाग से भाजितकर उसमें से एक भागप्रमाण द्रव्य तो उदय समयसे लेकर यथायोग्य असंख्यातसमय सम्बन्धी निषेकोंमें असंख्यातगुरणे क्रमसे देता है और अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यको प्रतिस्थापनाके अधस्तन समयको छोड़कर उसके नीचे शेष बचे यावलोके त्रिभागप्रमाण निषेकोंमें विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । यही उत्कृष्ट उदीरणा है, इससे अधिक उदीरणाका द्रव्य नहीं है। इसप्रकार अनुभागका प्रतिसमय अपवर्तन करके और कर्म परमाणुनोंकी उदीरणा करके यह कृतकृत्यवेदक : सम्यग्दृष्टि सम्यमत्वमोहनीयकी शेष रही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिमें उच्छिष्टावलिको छोड़कर सर्व प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशों के सर्वथा विनाश पूर्वक (एक-एक निषेक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] सब्बिसार [ गाथा १५२१-१५५. का एक-एक समयमें उदयरूप होकर ) नष्ट होता है । तदनन्तर समय में उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थिति अवशिष्ट रहनेपर उदीरणाका भी प्रभाव हुआ, केवलं अनुभागका अपवर्तन ( पूर्वमें कहे गए अपवर्तनसे यहां अपवर्तनका भिन्न लक्षण है ) अनुभागका अपवर्तन उदयरूप प्रथम समय से लेकर प्रतिसमय अनन्तगुणे क्रमसे प्रवर्तता है उससे ( अपवर्तन से ) प्रकृति- स्थिति श्रनुभाग- प्रदेशोंके सर्वथा नाशपूर्वक प्रतिसमय उच्छिष्टाबलि के एक-एक निषेकको गलाकर निर्जीण करता है और ग्रनन्तरसमय में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । आगे कहे जाने वाली अल्पबहुत्वके कथनकी प्रतिज्ञारूप गाथा कहते हैं बिदियकरणादिमादो कदकर णिज्जस्स पढमसममोति । रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्पबहु ।। १५२ ।। बोच्छं अर्थ — द्वितीय करण ( पूर्वकरण ) के प्रथमसमय से लेकर कृतकृत्यवेदक के प्रथम समयपर्यन्त अनुभागकाण्डकोत्कीररण कालादिक के अल्पबहुत्वसम्बन्धी ३३ स्थानों का कथन आगे करेंगे । विशेषार्थ - दर्शन मोहनीयको क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथमसमय से लेकर कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम समयतक इस ग्रन्तराल में जघन्य श्रीर उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कीरणकाल तथा स्थितिकाण्डकोत्कीरण कालों के जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक, स्थितिबन्ध, स्थिति सत्कर्मके जघन्य व उत्कृष्ट ग्राबाधाओं का तथा अन्य पदों के अल्पबहुत्वका कथन किया जावेगा । अब ११ गाथाओं के द्वारा अल्पबहुत्वके ३३ स्थानोंका कथन करते हैं— रस ठिदिखं डुक्कर श्रद्धा श्रवरं वरं च भवश्वरं । सम्वत्थोवं महियं संखेज्जगुणं विसेसदियं ॥ १५३ ॥ कदकरणसम्म स्त्रवणालियट अपुग्वद्ध संखगुणिदकमं । तत्तो गुणसे दिस्स य क्खेिश्रो साहियो होदि ॥ १५४ ॥ सम्म दुरिमे चरिमे वस्सस्सादिमे य ठिदिखंडा | mardinia य अडवस्लं संखगुणिदकमा ।। १५५ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५६-१६३ ] लब्धिसार [ १३७ सम्मे शसंखवस्सिय चरिमविदि खंड ओ असंखगुणो। मिस्से चरिमे खंडियमहियं अडवस्समेत्तेण ॥१५६॥ मिच्छे खबदे सम्मदुगाणं ताणं च मिच्छसत्तं हि । पढमंतिमठिदिखंडा असंखगुणिदा हु दुवाणे ॥१५७।। मिच्छंतिम ठिदिखंडो पल्लासंखेज्जभागमेत्तेण । हेट्रिम ठिदिप्पमाणेणभिहियो होदि णियमेण ॥१५८।। दूरावकिठ्ठिपढमं ठिदिखंडं संखसंगुणं तिगणं । दूरावकिट्ठिहेदूठिदिखंडं संखसंगुणियं ॥१५६॥ पलिदोवमसंतादो विदियो पल्लस्स हेदुगो जादु । अवरो अपुव्वपढमे ठिदिखंडो संखगुरिणदकमा ॥१६॥ पलिदोवमसंतादो पढमो ठिदिखंडओ दु संखगुणो।। पलिदोवमठिदिसंतं होदि विसेसाहियं तत्तो ॥१६१॥ बिदियकरणस्स पढमे ठिदिखंड विसेसयं तु तदियस्स। करणस्स पढमसमये दंसणमोहस्स ठिदिसंतं ॥१६२।। दसणमोहगाणं बंधो संतो य अवर वरगो य । संखेये गुणिदकमा तेत्तीसा एत्थ पदसंखा ॥१६३।। गाथार्थ व विशेषार्थ-सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयका आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म रहने पर जो पहले का अनुभागकाण्डक है उसका उत्कीरण काल सबसे स्तोक है। ऊपर कहे जाने वाले सभी पदों से स्तोकतर है, किन्तु कृतकृत्यबेदक होनेके प्रथम में ज्ञानावरणादि शेष कोंका जो पहले का अनुभागकाण्डक, अनिवृत्तिकरणको अन्तिम अवस्था में उसका उत्कीरणकाल सबसे जघन्य (स्तोक) है, क्योंकि उससे आगे कृतकृत्यवेदककालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात ग्रादि क्रियाओंकी प्रवृत्ति नहीं होती। अतः सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि निमित्तक यह सबसे जघन्य है, यह सिद्ध हुआ' । (१) १. ज. ध. पु. १३ पृ. ६१ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] लब्धिसार [ गाथा १६३ उससे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है, क्योंकि सभी कर्मोके अपूर्वकरणके प्रथमसमय में प्राप्त अनुभागकाण्डक सम्बन्धी उत्कीरणकाल यहां ग्रहण किया गया है । (२) उससे स्थितिकाण्डकका जघन्य उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिबन्धकाल ये दोनों तुल्य होकर भी संख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक स्थितिकाण्डक रक्को रमाका स्पितिवन्धकाल के भीतर आगमोक्त संख्यातहजार अनुभागकाण्डक उत्कीरण काल होते हैं । यहाँ सम्यक्त्वप्रकृतिका अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीराकाल तथा वहीं पर शेष कर्मों के भी स्थितिकाण्डक-उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धकाल ग्रहण करने चाहिये । (३) । उनसे, उत्कृष्ट ये दोनों परस्पर तुल्य होकर भी, विशेष अधिक हैं, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समय सम्बन्धी स्थितिकाण्डक उत्कीरण ब स्थितिबन्धकाल ये दोनों उत्कृष्ट रूप से ग्रहण किये गये हैं ।।४।। (गाथा १५३) ___उनसे कृतकृत्यसम्यग्दष्टिका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि के काल में संख्यातहजार स्थितिबन्ध होते हैं ॥५॥ उससे सम्यक्त्वप्रकृतिका अपणकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंका क्षयकर पुनः आठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्म का क्षय करनेवाले जीवका काल ग्रहण किया गया है ।।६।। उ पसे अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि करणके संख्यात बहुभाग जाकर संख्यातवें भाग शेष रहने पर सम्यक्त्वप्रकृतिको क्षपणाके कालका प्रारम्भ होता है ।।७।। उससे अपूर्वकरणकाल संख्यातगुरणा है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणके कालसे अपूर्वकरणके कालका सर्वत्र संख्यातमुरणे रूपसे अवस्थान होनेका नियम है ।।८।। उससे गुणश्रेणि निक्षेप विशेष अधिक है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के कालसे विशेष अधिक प्रमाण गुणश्रेणियायामका निक्षेप विवक्षित है ।।६।। (गाथा १५४) उससे सम्यक्त्वप्रकृतिका द्विचरम स्थितिकांडक संख्यातगुणा है । यह भी मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर पिछले पदसे संख्यातगुणा है ।।१०।। उससे उसका अन्तिम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है ।।११।। उससे आठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहने पर जो प्रथमस्थितिकाण्डक होता है वह संख्यातगुणा है। यहां संख्यात समय गुणकार है ।।१२।। उससे जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। यहां पर कृतकृत्य सम्यग्दृष्टिके प्रथमसमयमें ज्ञानावरणादि कर्मसम्बन्धी जघन्य आबाधाका ग्रहण है ।।१३।। उससे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६३ ] लब्धिसार [ १३६ उत्कृष्ट अनबाधा संख्यातगुणी है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समय में होनेवाले संख्यातगुणे स्थितिबन्यकी पात्राधाका ग्रहण है । ये सब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं ।।१४।। उससे सम्यक्त्वप्रकृतिकी आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि अन्तमु हर्तकालसे पाठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा सिद्ध है ।।१५।। (गाथा १५५) । उससे सम्यक्त्वप्रकृतिका असंख्यातवर्षप्रमाण अन्तिम स्थिति काण्डक असंख्यातगुणा है, क्योंकि वह पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमारग है ।।१६।। उससे सम्यरिपथ्यात्वप्रकृतिका असख्यांतवर्षप्रमाण अन्तिम स्थितिकाँडक विशेष अधिक है । एक प्रावलिकम आठवर्ष विशेषका प्रमाण है, इसका कारण सुगम है ।।११७।। (गाथा १५६) उससे मिथ्यात्वका क्षय होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रथम स्थितिकाण्डक असंख्यातगरगा है, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकसे द्विचरम स्थितिकांडक असंख्यातगुणा है । इसप्रकार त्रिचरम और चतुश्चरम ग्रादि क्रमसे संख्यातहजार स्थितिकाण्डक नीचे जाकर मिथ्यात्व का क्षय होने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका तत्सम्बन्धी यह प्रथम स्थिति कांडक है । इसलिये यह स्थितिकाण्डक असंख्यातगुरणा है ।।१८।। उससे मिथ्यात्व सत्कर्मवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा है, क्योंकि मिथ्यात्व सत्कर्मबालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जो अन्तिम स्थितिकाण्डक है, वह पूर्वके स्थितिकांडकसे अनन्तर अधस्तनवर्ती होनेसे पूर्वके स्थितिकाण्डकसे असंख्यातगुणा है ।। १६ ।। ( गाथा १५७ ) उससे मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक विशेष अधिक है, क्योंकि मिथ्यात्वके उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मका ग्रहण होता है, परन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उस समय अधस्तन पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर उपरिम बहुभागप्रमाण स्थितियोंका ग्रहण होता है । इस कारण अबस्तन असंख्यातवेंभाग मात्रका प्रवेश होकर मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक विशेष अधिक हो गया है ।।२०।। (गाथा १५८) उससे मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातगुण हानिकाले स्थितिकाण्डकोंमें से प्रथम स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्व के स्थितिकांडकसे संख्यातहजार स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणे क्रमसे नीचे उतरकर दुरापकृष्टि संज्ञक स्थितिके असंख्यात बहुमागके द्वारा इस स्थितिकाण्डककी प्रवृत्ति होतो है ।।२१।। उससे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० । लब्धिसार [ गाथा १६३ संख्यातगुणहानिवाले स्थितिकाण्डकों में से जो अन्तिम स्थितिकाण्डक है वह संख्यातगुणा है, क्योंकि दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्कर्मों को छोड़ कर पुनः उपरिम संख्यात बहुभागके द्वारा इस स्थितिकाण्डककी प्रवृत्ति होती है ।।२२॥ (गाथा १५६) उससे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके रहते हुए दूसरा स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वके स्थितिकाण्डकसे पश्चादनुपूर्वीके अनुसार संख्यातगुणवृद्धि रूप संख्यातहजार स्थितिकांडक पीछे उतरकर यह काण्डक होता है ।।२३।। उससे जिस स्थितिकाण्डकके नष्ट होने पर दर्शनमोहनीयका पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है वह स्थितिकाण्डक संख्यातगुरणा है । यद्यपि यह भी पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण है, किन्तु पूर्वके स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणा है । गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्क है ॥२४॥ उससे अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम समय में ग्रहण किये गये स्थितिकाण्डकसे विशेष हीन क्रमसे तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्कप्रमारग स्थितिकाण्डक-गुरगहानिगर्भ संख्यातहजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर पूर्वका स्थितिकाण्डक उत्पन्न हुया है और वहां पर स्थितिकांडक गुणहानियों का अस्तित्व असिद्ध भी नहीं है, योनि सपूर्वकारणाने भार धन भितिकाण्डकसे संख्यातगुणा हीन भी स्थितिकाण्डक होता है इसलिए यह संख्यातगुणा है ऐसा सिद्ध हुआ ।।२५॥ . (गाथा १६०) उससे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके होनेपर उसके बाद होनेवाला प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है, क्योंकि जब तक पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त नहीं होता तब तक अपूर्वक रणके काल में और अनिवृत्तिकरणके काल में प्राप्त होनेवाले सभी स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवेंभाग प्रमाण वाले होते हैं, परन्तु इस स्थितिकांडक में पल्योपमके संख्यात बहु भागका घात होता है अतः पूर्वके स्थितिकांडकसे यह संख्यातगुरगा है ।।२६।। उससे पल्योपम स्थितिसत्कर्म विशेषाधिक है । अधस्तन शेष संख्यातवांभाग अधिक है ॥२७॥ (गाथा १६१) उससे अपूर्वकरणमें प्राप्त प्रथम उत्कृष्ट स्थितिकांडक विशेष संख्यातगुणा है । जघन्य स्थितिकाण्डक और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकके बीच विशेषका प्रमाण पत्योपमका संख्यातवांभाग हीन पृथक्त्वसागर है जो पल्यसे संख्यातगुणा है ।।२८। उससे अनिवृतिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट जीवके दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि वह सागरोपम शतसहस्रपृथक्त्व प्रमाण है ॥२६॥ (गाथा १६२) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६४ - १६६ ] [ १४१ उससे संख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकका प्रथम समय में दर्शनमोहनीयके विना शेष कर्मो का जघन्य स्थितिबन्ध है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक के प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबच अन्तःकीड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है ||३०| उससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्याता है, पूर्व के प्रथम समय में होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहां विवक्षित है ||३१|| उससे दर्शनमोहनीयके बिना शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुण है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के अतिरिक्त अन्यत्र सम्वग्दृष्टियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे भी जघन्य स्थितिसत्कर्म नियमसे संख्यातगुणा होता है ||३२|| उससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम समय में सभी कर्मोंका अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है । उसका अभी घात नहीं हुआ है अतः घात होकर शेष बचे हुए पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मसे इसके उक्तप्रकार से सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं आती है ||३३|| ( गाथा १६३) ' अब तीन गाथानों में क्षायिक सम्यक्त्यके कारण गुण-भवसोमा क्षायिक लब्धित्व आदिका कथन करते हैं 1 लब्धिसार सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरु व शिष्पकंपं सुम्मिलं श्रक्खयमतं ॥ १६४ ॥ दंसणमोहे खविदे सिझदि तत्थेव तदियतुस्यिभवे । दिक्कत तुरियभवेा विस्तति सेससम्मे व ।। १६५ ।। सत्तग्रहं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयली दु । उक्करसखइयलडी घाइचउक्कखएणु ६वे ॥ १६६॥ अर्थ -- ग्रनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व होता है सो मेरुके समान निष्कम्प अर्थात् निश्चल है, सुनिर्मल अर्थात् शंकादि मलसे रहित है, अक्षय अर्थात् नाश से रहित है तथा अनन्त अर्थात् ग्रन्तसे रहित है । १. क. पा. सुत. पू. ६५५ से ६५७; धबलं पु. ६ पृ. २६३ से २६६; ज. ध. पु. १३ पू. ९१ से १०० १ २. गो. जी. ६४७; ध. पु. १ पृ. १७२ प्रा. पं. सं. पू. ३५ । > Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] लब्धिसार [ गाथा १६७ दर्शनमोहका क्षय होनेपर उसी भवमें अथवा तृतीय भव में अथवा मनुष्य या तिर्यंचायु का पूर्वमें (दर्शनमोहका क्षय होने से पहले ) बन्ध हो जाने के कारण भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भवमें सिद्ध पदभाप्त करता है । पतुर्थभवका उल्लंघन नहीं करता । औपशमिक–क्षायोपरामिक सम्यक्त्वके समान यह नाशको प्राप्त नहीं होता है। उक्त सात प्रकृतियोंके क्षयसे असंवतसम्यग्दृष्टिके क्षायिकसम्यक्त्वरूप जघन्य क्षाविकलब्धि होती है तथा चार धातिया कर्मों के क्षयसे परमात्माके केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिकलब्धि होती है । :. उवणेउ मंगलं वो भवियजणा जिणवरस्त कमकमलजुयं । जसकुलिसकलससस्थियससंकसंखंकुसादिलक्खणभरियं ॥१६७।। अर्थ- मत्स्य, वन, कलश, शक्थिक चन्द्रमा, अंकुश' शंख आदि नाना शुभलक्षणोंसे सुशोभित जिनेन्द्र भगवानके चरण कमल भव्य लोगोंको मंगल प्रदान करें। ।। इति क्षायिकसम्यक्त्वप्ररूपरणा समाप्त ।। १. भगवानके शरीर में शंख प्रादि १०८ एवं मसूरिका आदि ६०० व्यंजन: इसप्रकार कुल १००८ लक्षण विद्यमान थे ( महापुराण अ. १५॥३७ ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “अथ चारित्रलब्धि अधिकार" वर्शनमोहको क्षपणाविधान को प्ररूपणाके अनन्तर देशसंयम और सकलसंयम. लब्धि प्ररूपणाके लिये आगे का गाथा सूत्र कहते हैं दुविहा चरित्तलछी देसे सयले य देसचारितं । मिच्छो अयदो सयलं तेवि व देसो य लब्भेई ॥१६८।। अर्थ-चारित्र की लब्धि अर्थात् प्राप्ति, सो चारित्र देश और सकल के भेदसे दो प्रकार है । इसमें से देशचारित्रको मिथ्यादष्टि या असंयतसम्यग्दष्टि प्राप्त करता है और सकलचारित्रको मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा देशचारित्री प्राप्त होता है। विशेषार्थ-देशचारित्रका घात करनेवाली अप्रत्याख्यानावरणकषायों के उदयाभावसे हिंसादिक दोषोंके एकदेश विरतिलक्षण अणुव्रतको प्राप्त होनेवाले जीवके विशुद्ध परिणाम होता है उसे देश चारित्र या संयमासंयमलब्धि कहते हैं। सकल सावद्यकी विरतिलक्षण पांच महायत, पांचसमिति और तोनगुप्तियों को प्राप्त होने वाले जीवका जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे संयमलब्धि जानना चाहिए, क्योंकि क्षायोपशमिकचारित्रलब्धिको संवमलब्धि कहा गया है । __ अब मिध्यादृष्टि के देशसंयमको प्राप्लिके पूर्व पाई जानेवालो सामग्रीका कथन करते हैं अंतोमुत्तकाले देसवदी होहिदित्ति मिच्छो हु । सोसरणो सुज्झतो करणंपि करेदि सगजोगं ॥१६६।। अर्थ-अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् जो देशभ्रती होगा ऐसे मिथ्यादृष्टिजीव प्रतिसमय अनन्तगुणीविशुद्धिसे वर्धमान होता हुआ आयु बिना सात कर्मोका बन्ध या सत्त्व अन्तकोडाकोड़ी मात्र अवशेष करनेके द्वारा स्थितिबंधापसरण को तथा अशुभकर्मोके अनुभागको अनन्तवांभाग मात्र करने के द्वारा अनुभागबंधापसरणको करता हुआ अपने करणयोग्य परिणामको करता है। १. ज. प. पु. १३ पृ. १०७ । इतना विशेष है कि यह संयमलन्धि १२ कषायों के अनुदय रूप उपशम से तथा चारसंज्वलन और ६ नोकषायों के देशोपशम से उत्पन्न होती है । ज.ध. १३॥१०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १७०-१७ विशेषार्थ --- मिथ्यादृष्टिजीव पहले ही अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर स्वस्थानके योग्य प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्धिको प्राप्त हुआ आयुकर्मको छोड़कर सभी कर्मोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मको अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर करता है, क्योंकि उस काल में होनेवाले विशुद्धिरूप परिणाम उससे उपरिम स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके विरुद्ध स्वभाववाले होते हैं और उनके उसप्रकारके हुए बिना संयमासंयम की प्राप्ति नहीं बन सकती । प्रकृत विशुद्ध के निमित्तसे होनेवाला यह एक फल है । दूसरा फल यह है कि साता आदि शुभ कर्मो के अनुभागबन्ध और अनुभाग सत्कर्म को चतुःस्थानीय करता है, क्योंकि उनका अनुभाग शुभपरिणामनिमित्तक होता है; परन्तु पांच ज्ञानावरणादि प्रशुभकर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभाग सत्कर्मको नियमसे द्विस्थानीय करता है, क्योंकि विशुद्धिरूप परिणामोंके निमित्तसे उन कर्मकि उससे ऊपरके अनुभाग का घात हो जाता है । १४४ ] अब उपशमसम्यक्त्व के साथ देशसंयमको ग्रहण करनेवाले जीवका कार्य बतलाते हैं- मिलो देवचरितं उस मेहसाणो हु । सम्मत्पत्तिं वा तिकरण चरिमम्हि गेरहृदि हु ॥ १७० ॥ - अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्र ग्रहण करता है । सो वह दर्शनमोहके उपशम में जो विधान कहा है उसी विधान द्वारा तीन करणोंके अन्तिम समय में देशचारित्रको ग्रहण करता है | दर्शनमोहके उपशमकाल में जो प्रकृति- स्थितिबन्धापसरण स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य कहे गये हैं वे सभी कार्य यहां भी करता है कुछ भी विशेषता नहीं है । अथानन्तर वो गाथाओं से मिथ्यादृष्टि जीवके वेवकसम्यक्त्वके साथ देश चारित्र के ग्रहण के समय होनेवाली विशेषता बतलाते हैं मिच्छो देसचरितं वेदगसम्मेण गेराइमाणो हु । दुकरणचरिमे गेरादि गुणलेडी पत्थि तक्करणे ॥ १७१ ॥ सम्मतष्पत्ति वा थोत्रबहूरां व होदि करणाणं । ठिदिखंड सहरसगदे अपुव्वकरणं समप्पदि हु ॥ १७२ ॥ ★ F Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७२ ] लब्धिसार [ १४५ अर्थ--सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व सहित देशचारित्र को ग्रहण करता है उसके अधःकरण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते हैं, उनमें गुरगश्रेरिण निर्जरा नहीं होती है, अन्य स्थितिखंडादि सभी कार्य होते हैं । वह अपूर्वकरणके अंतिम समयमें वेदकसम्यक्त्व और देशचारित्रको युगपत् ग्रहण करता है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण विना ही इनकी प्राप्ति सम्भव है । वहां प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्तिवत् ही करणों का अल्पबहुत्व है, इसलिए यहां अधःकरणकालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातवेंभागप्रमाण है तथा अपूर्वकरणके कालमें सख्यातहजार-स्थितिखण्ड होने पर अयुर्वकरणका काल समाप्त होता है । विशेषार्थ-इसीप्रकार असंयतबेदकसम्यग्दृष्टि भी दो करणों के अन्तसमय में देशचारित्रको प्राप्त होता है । मिथ्यादृष्टिके कथन से ही सिद्धान्तके अनुसार असंयतसम्यग्दष्टिका भी ग्रहण करना । यहां उपशम सम्यक्त्वका अभाव होने से उस सम्बन्धी गणश्रेरिण नहीं है और देशचारित्रको अभी तक प्राप्त नहीं किया इसकारण उस सम्बन्धी गुणश्रेणि भी नहीं है तथा वेदकसम्भवत्व गुणवेशिका कारण नहीं है इसलिये यहां अपूर्वकरणमें गुणश्रेणिका अभाव कहा है । अनिवृत्तिकरण, कर्मों के सर्व उपशम या निर्मल क्षय होने के समय होता है, क्षयोपशममें नहीं होता अतः यहां अनिवृत्तिकरणका कथन नहीं किया। अधः प्रवृत्तकरणका कथन जिसप्रकार दर्शनमोहको उपशामनामें किया गया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। अधःकरणके समाप्त होने पर अपूर्वकरणका प्रारम्भ होता है। दर्शनमोहकी उपशामना प्रकरणमें इसका कथन हो चुका है। यहां इतनी विशेषता है कि देशचारित्रलब्धिकी प्रधानतासे वहांके परिणामोंसे यहां के परिणाम अनन्तगुणे होते हैं। पूर्ववत जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण प्रथम समयमें होता है । मध्यमें वह अनेकप्रकारका होता है । अशुभकर्मों के अनन्त बहुभागरूप अनुभागकाण्डकघात होता है, किन्तु शुभकर्मोका अनुभागधात नहीं १. जब यह जीव दर्शनमोहनीय की उपशामना, चारित्रमोहनीय की सर्वोपशामना दर्शनमोह की क्षपणा, चारित्रमोहकीक्षपणा, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना (ज. प. पु. १३ । पृ. १६७-६८) करता है तब अनिवृत्तिकरण होता है । (ज. प. पु. १३ पृ. ११४ व ज. प. पु. १३ प. २१४) २. घ. पु ६ , ज.ध. पु. १३ प. १२० । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथ! १७३-१७४ होता । पिछले समयको अपेक्षा स्थितिबन्ध पल्योपमका संख्यातवांभाग हीन होता है । सहस्रों अनुभागकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल स्थितिबन्धकाल व अनुभागकाण्डक-उत्कीरणकाल ये तीनों एक साथ समाप्त होते हैं । इसप्रकार हजारों स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होने पर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है । : प्रागे घेशसंयमको प्राप्तिके प्रथमसमयसे गुणश्रेणिरूप कार्यविशेषका निर्देश करते हैं से काले देसवदी असंखसमयप्पबद्धमाहरियं । उदयावलिस्त वाहिं गुणसेडीमवद्विदं कुणदि ।।१७३॥ अर्थ--देशवती होनेके कालमें अर्थात् प्रथमसमयमें असंख्यात समयप्रबद्धोंको • अपकर्षणकर उदयावलिबाह्य अवस्थित गुणश्रेरिणकी रचना होती है । . विशेषार्थ-संयमासंयमगुरणको प्राप्त होनेके प्रथमसमय में ही उपरिम स्थितियों के द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिणनिक्षेप करता हुआ उदयावलिके भीतर { निक्षेपार्थ अपकृष्टद्रव्यको ) असंख्यातलोकका भाग देने पर जो भाग लब्ध प्रावे उतने द्रव्यको गोपुच्छाकारसे निक्षिप्तकर उसके बाद उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थितिमें असंख्यातसमयप्रबद्धोंका सिंचन करता है । पुनः उससे उपरिम अनन्त र स्थितिमें असंख्यातगुरणे 'द्रव्यका सिंचन करता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे सिंचन करता हुआ जाता है ! तदनन्तर उपरिमस्थितिमें असंख्यातगुरणे हीन द्रव्यका सिंचन करता है। इसके पश्चात् अतिस्थापनावलिसे पूर्व अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर विशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता है, इसप्रकारका गुणश्रेणिनिक्षेप यहांपर प्रारम्भ किया । प्रब देशसंयतके कार्य विशेषका ( एकान्तानुवृद्धि संयत व अथाप्रवृत्त देशसंयतका ) कथन करते हैं... दव्वं असंखगुणिदक्कमेण एयंतवढिकालोत्ति । बहुठिदिखंडे तीदे अवापवत्तो हवे देसो ॥१७४।। १. क. पा. सु. पृ. ६६२ सूत्र २४, प. पु. ६ पृ. २७२ का दूसरा पेरा । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७५ ] लब्धिसार [ १४७ अर्थ--एकान्तवृद्धिकालमें असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यका अपकर्षरण होता है । बहुत स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर स्वस्थान संयतासंयत अर्थात् अधःप्रवृत्त देशसंयत हो जाता है। विशेषार्थ- देशसंयतके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धियुक्त बढ़ता है सो इसे एकान्तवृद्धि कहते हैं। इसके काल में प्रतिसमय असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यको अपकर्षित करके अवस्थित गुणश्रेरिणायाममें निक्षिप्त करता है । वहां एकान्तवृद्धिकाल में स्थितिकाण्डकादि कार्य होता है तथा बहुत स्थितिखण्ड होने पर एकान्तवृद्धि का काल समाप्त होने के अनन्तर विशुद्धताकी वृद्धिसे रहित होकर स्वस्थान देशसंयत होता है इसको प्रधाप्रवृत्त देशसंयत भी कहते हैं। इसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्वप्रमाण है। अब अथाप्रससंयतके कालमें होने वाले कार्य विशेषका स्पष्टीकरण करते हैंठिदिरसघादो पत्थि हु अधापवत्ताभिधाणदेसस्स । पडिउट्ठदे मुहुत्तं संते ण हि तस्स करणदुगा ॥१७५॥ अर्थ-अधःप्रवृत्त देशसंयतके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । यदि देशसंयतसे गिर गया और फिर भी अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा वापस देशसंयत हो गया उसके भी स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होते तथा दो करण भी नहीं होते। विशेषार्थ-करण परिणामोंका अभाव होने पर भी एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए संयमासंयमके परिणामोंकी प्रधानतावश स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकांडकघात होते हैं, परन्तु एकान्तानुवृद्धिकालकी समाप्ति होनेपर अधःप्रवृत्त देशसंयतके स्थितिकांडकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होते, क्योंकि करणसम्बन्धी विशुद्धिके निमित्तसे हा प्रयत्न-विशेष एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समय में नष्ट हो जाता है। यदि परिणाम-निमित्तके वश संयतासंयतसे च्युत होकर, किन्तु स्थिति और अनुभागमें वृद्धि न कर फिर भी अतिशीघ्र अन्तर्मुहूर्तकालके भीतर ही परिणाम प्रयत्नवश संयमासंयम को प्राप्त होता है, उसके भी अधःप्रवृत्त संयतासंयतके समान स्थितिघात और अनुभाग- . धात नहीं होता, क्योंकि स्थितिवृद्धि और अनुभागवृद्धि के बिना देशसंयमको प्राप्त होने १. क. पा. सु. प. ६६३ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] लब्धिसार 7 [ गाथा १७६ वाले के तत्प्रायोग्य विशुद्धि के सम्बन्धविना करण परिणामोंका होना असम्भव है | तीव्र विराधना के कारणभूत बाह्यपदार्थोंका सम्पर्क हुए बिना तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे युक्त अन्तरङ्ग कारण के द्वारा जीवादि पदार्थों को दूषित न कर अधस्तन गुणस्थान में जाकर फिर भी बाह्यकारण निरपेक्ष तत्प्रायोग्य विशुद्धि के साथ मन्द संवेगरूप परिणामोंके द्वारा देशसंयम को ग्रहण करनेवाले के अनुभागकाण्डक घात, स्थितिकाण्डकघात व कररण नहीं होते । यदि कोई जीव क्लेशकी बहुलता से संयतासंयत से मिथ्यात्वरूपी पातालमें गिरकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त काल से या 'वेदक प्रायोग्यभाव नष्ट नहीं हुआ है' ऐसे विप्रकृष्टकालसे विशुद्धिको पूरकर संयमासंयम को प्राप्त होता है तो उसके दो करण होते हैं, अन्यथा बढ़ाई गई स्थिति और अनुभागका घात नहीं बन सकता' । आगेको गाथामें अथाप्रवृत्तसंयत के गुरणश्रेणि द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैंदेसो समये समये सुज्झतो संकिलिस्समाणो य । safeाणिदव्वादवट्ठिदं कुदि गुणसेडिं ॥ १७६ ॥ प्रर्थ - अधःप्रवृत्त देश संयत के सर्वकाल में विशुद्धि या संक्लेशको प्राप्त होने पर भी प्रति समय यथा सम्भव चतुःस्थानपतित वृद्धि-हानि को लिये गुणश्रेणि विधान होता है । विशेषार्थ - जबतक देशसंयत रहता है तबतक प्रतिसमय असंख्यात समयप्रबद्धों का अपकर्षणकर गुणश्रेणि निर्जरा करता क्योंकि जबतक संयमासंयम गुण नष्ट नहीं होता तबतक संयमासंयम निमित्तक गुरुश्रेणि निर्जराकी प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं है । इसलिये संयतासंयत गुणश्रेणि निर्जराका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, किन्तु विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ उक्त जीव प्रतिसमय असंख्यातगुणे संख्यातगुणे, संख्यातभागअधिक या असंख्यातभाग अधिक प्रदेशपुञ्जका गुणश्रेणिमें निक्षेप करता है तथा संक्लेशको प्राप्त हुआ उक्त जीव इसीप्रकार श्रसंख्यातगुणे हीन, संख्यातगुणे हीन, संख्यात भाग होन या असंख्यात भागहीन प्रदेशपुंज १. ज. ध. पु. १३ पृ. १२४, १२५, १२२, १३१ व १३२ । २. व. पु. ८ पृ. ८३, ज. ध. पु. १३ पृ. १२६, गो. जी. गा. ४७६, ध. पु. १ पू. ३७३, प्रा. पं. सं. प्र. १ गा. १३. । r Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७७ - १८३ लखितार I १४e का गुणश्रेणि में निक्षेप करता है । परिणामोंके अनुसार ही गुणश्रेरण निक्षेपको आरम्भ करता है । गुणश्रेणि आयाम सर्वत्र अवस्थित ही होता है । प्रथानन्तर सात गाथाओं में आचार्यदेव अल्पबहुत्वकथनको प्रतिज्ञा पूर्वक अल्पबहुत्वका कथन करते हैं विदियकरणादु जात्रय देव रिमेति । अप्पाबहुगं वोच्छं रसखंडद्धारा पहुदीणं ॥ १७७॥ श्रं तिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ भहिमो । चरिम ट्ठिदिखंडक कीरणकालो खगुणिदो हु ॥ १७८ ॥ पढमट्ठिदिखंडुक्की र कालो साहियो हवे तत्तो । एयंत वडकालो कालो य संखगुणिदकमा ॥ १७६ ॥ अवरा मिच्छतिया श्रविरद तह देससंजमद्धा य । छप्पि समा खगुणा तत्तों देतस्स गुणसेडी ॥१८०॥ चरिमाबाद्दा तत्तो पदमावाहा य संखगुणिदकमा । तत्तो गुणदो चरिमट्ठिदिखंडओ यिमा ॥ १ ८१ ॥ पल्लम्स संवभागं चरिमट्ठिदिखंडयं हवे जम्हा | तम् । असंखगुणिदं चरिमट्टिदिखंडयं होई || १८२ ॥ पढमे अवरो पल्लो पढमुक्कस्तं य चरिमठिदिबंधो । पढमो चरिमं पडमट्ठिदिसंतं संखगुणिदकमा ॥ १८३॥ अर्थ व विशेषार्थ - अपूर्वकरण से लगाकर एकान्तवृद्धि के अन्तसमय पर्यन्त सम्भव अनुभाग काण्डकोत्कीररणकाल आदिका अल्पबहुत्व कहूंगा । एकान्तानुवृद्धिकालके भीतर जो अन्तिम अनुभागका उत्कीरणकाल है वह सबसे स्तोक है ||१|| उससे अपूर्व १. क. पा सुत्त पु. ६६३ सूत्र ३१ । २. ध. पु. १२ पृ. ७६ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. १२६-३० । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] लब्धिसार [ गाथा १८३ करण में प्रथम अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है || २ || उससे एकान्तानुवृद्धिकालका अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीरणकाल व जघन्य स्थितिबन्धकाल दोनों तुल्य होकर संख्यातगु है, क्योंकि एक स्थितिकाण्डकमें हजारों श्रनुभाग काण्डक होते हैं ।। ३ ।। (गा. १७८ ) उससे पूर्व करके प्रथम स्थितिकांडक व स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है ||४|| उससे संख्यातगुणा एकान्तानुवृद्धिकाल है । यद्यपि यह काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, तथापि इस एकान्तानुवृद्धिकाल में संख्यातहजार स्थितिकांडक उत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल होते हैं इसलिये यह संख्यातगुरणा हो जाता है ||५|| उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है । यहां तत्प्रायोग्य संख्यात अंक गुणाकार है । यहां पर प्रनिवृत्तिकरण नहीं है इसलिये तद्विषयक अल्पबहुत्वका विचार भी नहीं किया गया है ।। ६ ।। (गा. १७६ ) उस अपूर्वकरणकालसे जघन्य सम्यक्त्वकाल, मिथ्यात्वकाल, सम्यग्मिथ्यात्वकाल तथा जघन्य असंयत- देशसंयतकाल व सकल संयमकाल ये छहों काल परस्पर सदृश होकर भी संख्यातगुणे हैं ||७|| उससे संयमासंयम ( देशसंयम ) गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ।। ८ । (गा. १८० ) उससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम बन्धकी जघन्य ग्रावाधा संख्यातगुणी है ||६|| उससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में होने वाले बन्धकी प्रबाधा संख्यातगुणी है । यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर भी पूर्व की प्रबाधासे संख्यातगुणी है || १० | उससे एकान्तानुवृद्धि के अन्तिम समय में होनेवाला पत्योपम के संख्यातवेंभाग प्रमाण जघन्य स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है, क्योंकि चरम स्थितिकांडक पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाण है इसलिये पूर्व के अन्तर्मुहूर्तकालसे यह चरम स्थितिकांडक असंख्यातगुणा है ।। ११ ।। ( गा. १८१-८२ ) उससे पूर्व कररणका प्रथम जघन्य स्थितिकांडक, पल्योपमके संख्यातवें भाग होते हुए भी संख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वोक्त चरम स्थितिकांड कसे संख्यात हजार स्थितिकाण्डक गुणहानियां नीचे उतरकर यह अपूर्वकरण के प्रथम समय में प्राप्त हुआ है || १२ || उससे संख्यातगुणा पल्य है || १३ | उससे अपूर्वकरण के प्रथम समयमें होनेवाला सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट स्थितिकांडक है || १४ || उससे संख्यातगुणा जघन्य स्थितिबन्ध है, क्योंकि यहां एकान्तानुवृद्धि के अन्तिम समयमें होनेवाले श्रन्तः 1 " Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८४ ] लब्धिसार कोडाकोड़ीप्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका ग्रहण है ।।१५।। उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबन्ध संख्यातगुणा ।।१६॥ उससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम समय में होनेवाला जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुरणा है ।।१७।। उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें धातके विना प्राप्त अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण उत्कृष्ट सत्कर्म संख्यातगुणा है' ।। १८ ।। ( गा. १८३ ) देशसंयमको जघन्य व उत्कृष्ट लब्धिके साथ उसके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं अवरवरदेसलद्धी लेकाले मिच्छसंजमुववरणे । अवरादु अणंतगुणा उक्कस्सा देसलद्धी दु ॥१४॥ अर्थ-मिथ्यात्वके सम्मुख जीवके देशसंयमकी जघन्य लब्धि होती है और संयमके अभिमुख जीवके देशसंयमकी उत्कृष्टलब्धि होती है, जघन्यसे उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि अनन्तगुणी है। विशेषार्थ-संयतासंयतजीव कषायोंके तीन अनुभागके उदयसे संक्लिष्ट होकर अनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होगा, उस अन्तिम समयवर्ती देशसंयतके जघन्य देशसंयमलब्धि होती है, क्योंकि कषायोंके तीव्र अनुभागोदयसे उत्पन्न हुए संक्लेशसे अोतप्रोत देशसंयम लब्धिके सबसे जघन्यपनेके प्रति विरोध नहीं पाया जाता । जो देशसंयत सर्वविशुद्ध होकर संयमके अभिमुख हुया है, अन्तिम समयवर्ती उस देशसंयतके उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि होती है, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होनेवाले संयमके अभिमुख हुए जीवके द्विचरम समयमें उदीर्ण हुए कषायों सम्बन्धी अनुभागस्पर्द्ध कों से अनन्तगुणे होन अन्तिम समयसम्बन्धी उदीर्ण हुए स्पर्धकों के द्वारा उत्पन्न हुई अन्तिम विशुद्धि अर्थात् चरमसमयकी देशसंयमलब्धिके सर्वोत्कृष्टपनेके प्रति विरोध का अभाव है । जघन्य देशसंयमलब्धि से उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि अनन्तगुणो है, क्योंकि पूर्व के जघन्य लब्धिस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थानों को उल्लंघकर उत्कृष्ट देशसंयम लब्धिस्थानको उत्पत्ति होती है । १. ज. प. पु. १३ पृ. १३३ से १३७ तक, ध. पु. ६ पृ. २७४-२७५, क. पा. सु. ६३४-३५ । २. क. पा. सु पृ. ६६६ सूत्र ५५-५६ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. १४०-१४१ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा बं द ₹ f रं 5 : : लब्धिसार [ गाथा १०५-१८६ जघन्य देशसंयम के अविभागी प्रतिच्छेदों के प्रमाणका कथन करते हुए देशसंयमके मेवों व उसमें अन्तरका कथन करते हैं १. १५२] भवरे लट्ठाणे होंति अाणि फट्टयाणि तदो । बाणगदा सत्रे लोयाणमसंखट्ठाणा ॥ १८५ ॥ तत्थ य पडिवाय गदा पविचगदाति श्रणुभयगदाति । उरुवरिद्विठाणा लोयाणमसंखडाणा || १८६ ॥ अर्थ- सर्व जघन्य देशसंयम लब्धिस्थान में अनन्त स्पर्धक होते हैं । षट्स्थानपतित वृद्धियोंके द्वारा असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थानपतित सर्व लब्धिस्थान होते हैं ।। १८५ ।। ' देश संयम लब्धिस्थान तीन प्रकारके हैं - १. प्रतिपातगत २ प्रतिपाद्यमानगत ३. अनुभयगत । सधिस्थान उपर्युपरि होते हुए असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित हैं ।। १५६ ।। विशेषार्थ - - यह जघन्य देशसंयम लब्धिस्थान सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त प्रविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है। ये ही अनन्त प्रविभागीप्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते हैं, क्योंकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदों का वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्व में गिरने के सम्मुख हुए संयतासंयतके अन्तिम समय में कषायोंके अनन्त अनुभाग स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुआ है, इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे "अनन्तस्पर्धक" कहे गये हैं । जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशिप्रमाण भागहारसे भाजितकर वहां प्राप्त एक भागको मिलाने पर जघन्य देशसंयमलब्धिस्थानसे अनन्तवभाग अधिक होकर दूसरा लब्धिस्थान उत्पन्न होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अंगुल के संख्यातवेंभाग प्रमाण अनंतभागवृद्धि-कांडक जाकर प्रसंख्यात भागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यात भागवृद्धrush जाकर संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् संख्यात भागवृद्धिकांडक जाकर संख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् संख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर प्रसंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुणवृद्धि जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है तब कषायोदयस्थान अनन्तगुणा हीन होता है, क्योंकि अनन्तगुणेहीन ध. पु. ६ पृ. २७६ दूसरा पेरा | Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ १५३ गाथा १८७ ] कषायोदय स्थानोंके बिना अनन्त गुरणस्वरूप देशसंयमलब्धिस्थानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह एक षट्स्थान है । इस प्रकार असंख्यातलोद.प्रमाण षट्स्थान प्रतिपातस्थान हैं। इन प्रतिपात लब्धिस्थानोंका उल्लंघनकर असंख्यातलोकप्रमाण घटस्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान हैं। ये पिछले स्थानोंसे असंख्यातगुणे स्थानस्वरूप हैं। उससे भी असंख्यातगुणे अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थानोंके योग्य असंख्यातलोकप्रमारग षट्स्थानपतितस्थान होते हैं जो तदनन्तर समय में संयमको ग्रहण करनेवाले जीवके लब्धिस्थानोंके समाप्त होने तक पाये जाते हैं। प्रतिपात आदि तीनप्रकारके ये सब षट्स्थानपतित देशसंयमलब्धिस्थान असंख्यातलोकप्रमाण हैं' । जिस स्थानके होने पर यह जीव मिथ्यात्वको या असंयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान कहा जाता है । जिस स्थानके होनेपर यह जीव संयमासंयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपद्यमान स्थान कहलाता है। स्वस्थानमें प्रवस्थानके योग्य और उपरिम गुणस्थानके मभिमुख हुए जीवके स्थान ये सब शेष लब्धिस्थान अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्वरूप अनुभय स्थान हैं । अथानन्तर देशसंघमके जघन्य व उत्कृष्ट रूप से उक्त मेव कौन किसमें हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं णरतिरिये तिरियणरे अधरं प्रवरं वरं वरं तिसुवि । लोयाणमसंखेज्जा छट्ठाणा होति सम्मझे ॥१८७॥ अर्थ-उन प्रतिपात, प्रतिपद्यमान व अनुभय इन तीनों देशसंयम लब्धिस्थानों में प्रथम मनुष्य योग्य जघन्यस्थान होता है । पुनः तिथंच योग्य जघन्य स्थान होता है। तत्पश्चात् तिर्यंचयोग्य उत्कृष्टस्थान होता है उसके पश्चात् मनुष्ययोग्य उत्कृष्ट स्थान होता है । उनके मध्यमें असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित स्थान होते हैं। १. ज.ध. पु. १३ पृ. १४३-१४६ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. १४२ । संयमासंयम से गिरने के अन्तिम समयमें होने वाले स्थानोंको प्रतिपात स्थान कहते हैं । संयमासंयमको धारण करनेके प्रथम समयमें होने वाले स्थानों को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं। इन दोनों स्थानों को छोड़कर मध्यवर्ती समयोंमें सम्भव समस्त स्थानोंको अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते हैं। यह उक्त कथन का सरल शब्दोंमें तात्पर्य है । (ध. पु. ६ पृ. २७७, ज. प. पु. १३ प. १४८ प्रादि) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] लब्धिसार [ गाथा १८७ विशेषार्थ- सबसे जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपात स्थान मनुष्योंके योग्य ही होकर तबतक जाते हैं जबकि तत्प्रायोग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लघन कर तिर्यचोंके योग्य जघन्य प्रतिपातस्थान उत्पन्न होता है । वहांसे लेकर तिर्यंच और मनुष्य दोनोंके साधारणरूपसे पाये जानेवाले असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपातस्थानोंके जाने पर उस स्थान पर तिर्यचसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है । तत्पश्चात् पुनः असंख्यातलोकप्रमाण स्थान प्रागे जाकर इस स्थान पर मनुष्यसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान विच्छिन्न होता है। इसके बाद असंख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुनः मनुष्य संयतासंयत का जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। तत्पश्चात् असंख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर तिर्यंच संयता. संयतका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। वहां से लेकर दोनोंके ही समानरूपसे असंख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर वहां तिर्यंच संयतासंयत के उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उससे भी असंगतिलोकगार स्थानकाकर मनुष्योंका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान विच्छिन्न हो जाता है। तत्पश्चात् असंख्यातलोकप्रमारण अन्तर होकर पुनः मनुष्य संयतासंयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है । उसके बाद असंख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच संयतासंयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। तत्पश्चात् दोनों के ही साधारण असंख्यातलोकप्रमाए स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच संयतासंग्रतके उत्कृष्ट अनुभयस्थान विच्छिन्न हो जाता है। तत्पश्चात् फिर भी असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अनुभयस्थान उत्पन्न होता है। यहां पर प्रतिपातस्थान अधस्तन गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमय वाले देशसंयतके होते हैं। प्रतिपद्यमानस्थान देशसंयमको ग्रहण करनेके प्रथमसमयमें होता है । उपर्युक्त अन्तिम और प्रथम समयको छोड़कर शेष समस्त मध्यम अवस्थाके योग्य स्वस्थान सम्बन्धी और उपरिम गुणस्थानके अभिमुख हुए स्थान प्रनुभयस्थान हैं । इन तीनों स्थानोंकी संदृष्टि इसप्रकार है ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० प्रतिपात लब्धि स्थान | अन्तर । ००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००० प्रतिपद्यमान लब्धि स्थान । अन्तर । ०००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००० अनुभय लब्धि स्थान । १. प. पु. ६ पृ. २७७; ज. प. पु. १३ पृ. १४८ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८८ ] लब्धिसार [ १५५ प्रतिपातस्थानोंका अध्वान (प्रायाम) स्तोक है, उससे प्रतिपद्यमानस्थानोंका अध्वान असंख्यातगुणा है 1 उससे अनुभयस्थानोंका अध्वान असंख्यातगुणा है । गुणकार सर्वत्र असंख्यातलोकप्रमाण है। अब देशसंयमके उक्त भेवों में से किसका कौन स्वामी है इसका निर्देश करते हैं पडिवाददुगंवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहरणं । मिच्छचरविदियसमये तत्तिरियवरं तु सट्ठाणे ।।१८८।। अर्थ-देशसंयतसे मिथ्यात्वको जानेवाले के जघन्य प्रतिपातस्थान और असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानको जाने वाले के उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान होते हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्वसे देशसंयम प्राप्त करनेवालेके जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान होता है और असंयत चतुर्थगुणस्थानसे देशसंयमको प्राप्त करनेवालेके उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है । "पडिवाद दुग" से प्रतिपासता व प्रतिपदमारपाः ३२ दोनों कानोंका ग्रहण होता है । मिथ्यात्वसे देशसंयमको प्राप्त करनेके दूसरे समयमें जघन्य अनुभयस्थान होता है । तिर्यंचोंका उत्कृष्ट अनुभयस्थान स्वस्थानमें ही होता है । विशेषार्य-मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सबसे अधिक संक्लेश परिणामसे युक्त देशसंयतमनुष्यके सबसे जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होता है। उससे, मिथ्यात्व में गिरनेवाले तिर्यंचका जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके लब्धिस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है । उससे तत्प्रायोग्य संक्लेश द्वारा असंयमको गिरनेवाले देशसंयत तियं के अन्त समयमें होनेवाला तिर्यंच योग्य उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुरणा है। यह वेदकसम्यक्त्वसे युक्तं असंयमको प्राप्त होनेवाले तिर्यंचके होता है । इसका अनन्तगुणा होना प्रसिद्ध नहीं है, असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर यह स्थान प्राप्त होता है । उससे तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे सम्यक्त्व के साथ असंयमको प्राप्त होनेवाले देशसंवत मनुष्यके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुरणा है, क्योंकि असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है। तत्प्रायोग्य विशुद्धि से मनुष्य मिथ्यात्वीके संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान जघन्य लब्धिस्थान अनन्त गुणा है । तत्प्रायोग्य विशुद्धिके द्वारा मिथ्यात्वसे देशसंवमको ग्रहण करनेवाले तिर्यंचके प्रथम समयमें यह तिर्यंच योग्य जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान पूर्वके स्थानसे अनंत. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] लब्धिसार [ गाथा १८८ गुरणा है, क्योंकि जाति विशेष कारण है । असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंचके सर्वविशुद्धिसे देशसंयमको ग्रहण करने के प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है जो पूर्वस्थान से अनन्तगुणा है । सर्वविशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यके देशसंयमको ग्रहण करने के प्रथम समयमें पूर्वस्थानसे अनन्तगुणा उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान लब्धिस्थान होता है । जघन्य प्रतिपद्यमान स्थानवाले मनुष्यके दूसरे समय में जघन्य अनुभस्थान होता | कार तियंचके जधन्य अनुभस्थान होता है। ये दोनों स्थान अपने से पूर्व - पूर्व स्थानकी अपेक्षा अनन्तगुरो हैं । सर्वविशुद्धि तिर्यचके पूर्वस्थान अनन्तगुणा उत्कृष्ट अनुभवस्थान स्वस्थान में ही होता है । संवम अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध देशसंयत मनुष्य के अन्तिम समय में उत्कृष्ट अनुभयस्थान अनन्तगुरगा होता है' । देश संतजीव अप्रत्याख्यानावरणकषायको नहीं वेदता, क्योंकि वहां उसकी उदयशक्तिका अत्यन्तक्षय पाया जाता है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी देशसंयमका श्रावरण नहीं करती, क्योंकि सकलसंयमका प्रतिबन्ध करनेवाले कषायका देशसंयम में व्यापार नहीं होता शेष चार संज्वलनकषाय और नौ नोकषाय उदीर्ण होकर देशसंयमको देशघाति करते हैं । अनन्तानुवन्त्रीकवायके उदयका विनाश पहले ही हो गया है । ये तेरह कषायें देशघातिरूपसे उदीर्ण होकर देशसंयमको क्षायोपशमिक करती हैं । यदि चार संज्वलनकषाय और नौ नोकषायका देशवाति उदय न हो तो देशसंयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि प्रत्याख्यानका बेदन करता हुआ शेष चारित्रमोहनीयका वेदन नहीं करे तो देशसंयमलब्धि क्षायिक हो जाये । चार संज्वलन और नौ नोकषायका.. देशघातिरूपसे उदय अवश्यंभावी हैं । ॥ इति देशचारित्र विधानं ॥ १. ज.ध. पु. १३ पृ. १४-१५३, ६ पु. ६ पृ. २७८-२०, क. पा. सु. पृ. ६६६-६७ । ध. पु. ५ पृ. २०२, ज. ध. पु. १३ पृ. १५४ २. ३. तात्पर्य यह है कि ४ संज्वलन और नोकषायों के सर्वघातिस्पर्धकों के उदयक्षय से; और उन्हीं के देशघाति स्पर्धकों के उदय से संयमासंयम लब्धि अपने स्वरूप को प्राप्त करती है । इसलिये यह क्षायोपशमिक है । ( जयधवलाभूल ताम्रपत्र बाली प्रति पू. १७९४; ज. घ. १३/१५५ ) अथवा क्षायोपशम नामक चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर संयतासंयतपना उत्पन्न होता है इसलिये यह ( देशसंयम ) भाव क्षायोपशमिक है। प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क और नवनकषायों के उदय के सर्वात्मना चारित्र विनाशशक्ति का प्रभाव होने से उदय को ही क्षय संज्ञा है | उन्हीं प्रकृतियों की उत्पन्न हुए चारित्र का आवरण नहीं करने के कारण उपशम संज्ञा है | क्षय और उपशम इन दोनों से उत्पन्न देशसंयम भाव क्षायोपशमिक है । (ध. ५२०२; घ. ७।............} ४. ज. प. पु. १३ पृ. १४९-१५६. क. पा. सु. पू. ६६७-६८ । 7 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा १८६-१९० ] लब्धिसार । १५७ अथानन्तर सकलचारित्रको प्ररूपमा करने हेतु प्रगला सूत्र कहते हैंसयलचरितं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च । सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं ॥१६॥ अर्थ-क्षयोपशम, उपशम और क्षायिकके भेदसे सकलचारित्र तीनप्रकारका है। उपशमसम्यक्त्व सहित जो क्षयोपशमचारित्रका ग्रहण होता है, उसका विधान प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समान है। विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्यात्व पूर्वक होती है । अतः मिथ्यादृष्टिजीब प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित सकलचारित्रको महल करता है तो वह क्षयोपशमचारित्रको ही अप्रमत्तगुणस्थानस हित ग्रहण करता है। क्षायोपशमिकचारित्र प्रमत्त व अप्रमत्तसंवत इन दो गुणस्थानों में ही होता है, क्योंकि ऊपरके गुणस्थान उपशम या क्षपकश्रेणिमें ही होते हैं और उनमें उपशम या क्षायिकचारित्र होता है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम या क्षपकओरिग पर प्रारोहण नहीं कर सकता अतः उसके अप्रमत्तगुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थान सम्भव नहीं है । सकलचारित्र सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले मनुष्य के करणलब्धिमें इतने अधिक विशुद्ध परिणाम हो जाते हैं कि वह अप्रमत्तगुणस्थानमें ही जाता है, पुनः गिरकर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है । भागे वेबकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्दो प्रावि जीवके सकलसंयम ग्रहण करते समय होने वाली प्रक्रिया विशेष को बताते हैं वेदगजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोषिण करणेण । देसवदं वा गिरहदि गुणसेढी रणस्थि तक्करणे ॥१६॥ अर्थ-वेदकसम्यक्त्वसहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादष्टि या असंयत अथवा देशसंयतजीव देशचारित्र ग्रहण करनेके सदृश ही अधःप्रवृत्तकरण व अपूर्वकरण, इन दो करणोंके द्वारा ग्रहण करता है। उन करणोंमें गुणधेरिण नहीं होती है, किन्तु सकलसंयमके ग्रहण समयसे गुणश्रेरिंग होती है। १. ध. पु. १ पृ. ४१०, ध. पु. ६ पृ. २०६-७ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] . लब्धिसार [ गाथा १९१ इससे आगे देशसंयमके समान सकलसंयम में होने वाली प्रक्रिया विशेष का निर्देश करते हैं एत्तो उवरि विरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति । देसोति य तटाणे विरदो ति य होदि वत्तव्वं ॥१६॥ अर्थ-यहां से ऊपर (आगे) अल्पबेहत्व पर्यन्तं, पहले देशचारित्रमें जैसा कथन किया है वैसा ही सर्वकथन यहां { सकल चारित्रके सम्बन्ध में ) भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि उस कथनमें जहां देशचारित्र कहा है उसके स्थान पर सकलचारित्र कहना चाहिए । विशेषार्थ-संयम ग्रहणकें प्रथम समयसे अन्तमुहतकालतक चारित्रलब्धिसे एकान्तानुवृद्धिको प्राप्त होता है, क्योंकि अलब्धपूर्व संयमको प्राप्त होनेसे संवेगसम्पन्न मनुष्यके एकान्तानुवृद्धि पाई जाती है । प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुगी विशुद्धिसे प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मस्कन्धोंकी निर्जरा होती है । जबतक एकांतानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तबतक आयुकर्मको छोड़कर शेष सर्व कर्मोके सहस्रों स्थितिकांडकों और सहस्रों अनुभागकांडकोंका घात होता है। एकान्तानुवृद्धि कालतक इस जीवकी संज्ञा 'अपूर्वकरण' होती है, क्योंकि अपूर्व-अपूर्व परिणामोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होने वाले जीवके 'अपूर्वकरण' संज्ञाकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं है अथवा अपूर्वकरणकालके समाप्त हो जानेपर भी अपूर्वकरणके समान प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामों के द्वारा स्थितिघात आदि कार्य होते हैं । एकान्तानुवृद्धि काल समाप्त होनेपर तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तसंयत होता है । यहां स्थितिघात और अनुभागधात नहीं है, परन्तु जबतक संयत है तबतक अवस्थित पायामवाली गुणश्रेणि होती है । इतनी विशेषता है कि विशुद्धिको प्राप्त हुआ असंख्यातगणी, संख्यातगुणी, संख्यातभाग अधिक या असंख्यातवेंभाग अधिक द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणि करता है । संक्लशको प्राप्त हुआ इसीप्रकार गुणहीन या विशेषहीन द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है तथा अवस्थित परिणामवाला अवस्थित द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है। परिणामोंके अनुसार होनेवाली गुणश्रेरिणनिर्जराके परिणामोंकी वृद्धि व हानि वश ही प्रवृत्ति होती है । १. ज घ. पु. १३ पु १६६ । २. ज. प. पु. १३ पृ. १३०, ज. ध. पु. १३ पृ. १६७, घ. पु १२ पृ. ७६ | Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६२ ] लब्धिसार [ १५६ अब जघन्य संयतके विशुद्धि सम्बन्धो अविभाग प्रतिच्छेदों को संख्या बताते हैंअवरे विरदवाणे होति अणंताणि फड्ढयाणि तदो । छट्ठाणगया सब्वे लोयाणमसंख छट्ठाणा ॥१६२॥ अर्थ-सर्व जघन्य संयमलब्धिस्थानमें अनन्तस्पर्धक होते हैं । इसके पश्चात् सर्वोत्कृष्ट स्थान पर्यन्त षट्स्थान पतित वृद्धियोंके द्वारा असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ-यह जघन्य सकलसंयमल ब्धि सर्व जीबोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागोप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते हैं, क्योंकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोंका वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमें गिरनेके सम्मुख हुए संयतके अन्तिम समयमें कषायोंके अनन्त अनुभागस्पर्धकों के उदयसे उत्पन्न हुआ है। इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे अनन्त स्पर्द्धक कहे गये हैं । ___जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशि प्रमाण भागहारसे भाजितकर एक भागको मिलानेपर जघन्य सकलसंयम लब्धिस्थानसे अनन्तवां भाग अधिक होकर द्वितीय लब्धिस्थान होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अंगुलके असंख्यातवेंभागप्रमाण अंगन्तभागवृद्धि कांडक जाकर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर संख्यातभाग वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् संख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर संख्यातगुण वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। उसके बाद संख्यातगुणवृद्धि काण्डक जाकर असंख्यातगुण वृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुण वृद्धि कांडक जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है, तब उस स्थान की कषाय उदयस्थान अनन्तगुणाहीन होता है, क्योंकि अनन्तगुणहीन कषायउदयस्थानोंके बिना अनन्तगुरणस्वरूप सकलसंयम लब्धिस्थान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यह एक षट्स्थान है। इसप्रकार असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान प्रतिपातस्थान हैं । प्रतिपात लब्धिस्थानोंका उल्लंघनकर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान हैं। ये पिछले स्थानोंसे असंख्यातगुणे हैं, उससे भी असंख्यातगुणे अप्रतिपात व अप्रतिपद्यमानस्थानोंके योग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्धानपतित स्थान होते हैं । प्रतिपात प्रादि तीन प्रकार के ये १. ज.ध. पु. १३ पृ. १४३-१४४ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] १ गाथा १६३-१६४ सस्थान षट्स्थानपतित सकलसंयमलब्धिस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं? । सकलसंयमसम्बन्धी प्रतिपातादि मेवोंको बताते हुए प्रतिपाद भेवस्थानों का कथन करते हैं तत्थ य पडिवाद्गया परिवज्जगयात्ति अणुभयगयाति । उवरुवरि लखिठाणा लोयाणमसंखचट्ठाणा ।।१९३।। परिवादगया मिच्छे अयदे देसे य होंति उवरुवरिं । पत्तेयमसंखमिदा लोयाम संखवठाणा ॥ १६४॥ अर्थ - ( १ ) प्रतिपातगत ( २ ) प्रतिपद्यमानगत ( ३ ) अनुभयगत । ये तीनों * लब्धिस्थान उपर्युपरि हैं तथा असंख्यातलोक षट्स्थानपतित प्रमाण हैं । संयमसे मिथ्यात्व, प्रसंयम व देशसंयमको गिरने वाले संयत के ये तीनों प्रतिपातस्थान उपर्युपरि प्रत्येक असंख्यातप्रमाण हैं तथा प्रत्येक में असंख्यातलोक षट्स्थानपतित वृद्धि होती है । विशेषार्थ – जिस स्थान से नीचे के गुणस्थानों में गिरता है, इसप्रकार प्रतिपात शब्दकी व्युत्पत्ति के कारण प्रतिपातस्थान कहा गया है। वे मिध्यात्व प्रतिपात, असंयम सम्यक्त्वप्रतिपात और संयमासंयम ( देशसंयम ) प्रतिपातको विषय करनेवाले होने से प्रतिपातगत स्थान तीनप्रकारके होकर प्रत्येक जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर उत्कृष्ट लब्धिस्थानतक षट्स्थानपतित वृद्धि क्रमसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण हैं । उनमें से मिथ्यात्वादिमें गिरनेवाले सर्वोत्कृष्ट संक्लेशयुक्त संयतके जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होते हैं तथा तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश परिणामवालेके उत्कृष्ट प्रतिपात लब्धिस्थान होते हैं । संयमको उत्पन्न करता है इसलिए उत्पादक अर्थात् प्रतिपद्यमान यह संज्ञा है । मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि व देशसंयत (मनुष्य) तत्प्रायोग्य विशुद्धि के साथ संयमको ग्रहण करनेके प्रथम समय में जघन्यस्थान होता है । तथा सर्वविशुद्ध संयतके उत्कृष्ट होता है । मध्यम भेदरूप प्रतिपद्यमान स्थान तो षट्स्थानपतित वृद्धिरूपसे अवस्थित असंख्य लोकप्रमाण हैं । प्रतिपात और प्रतिपद्यमान स्थानोंके अतिरिक्त शेष चारित्रलब्धिस्थान अनुभयस्थान हैं । ज. ब. पु. १३ पृ. १७६ । ध. पु. ६ पृ. २८३ । ३. ज.ध. पु. १३. १७६-७७ । लविघसार १. २. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६५ ] लब्धिसार [ १६१ प्रतिपातस्थान सबसे अल्प हैं उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे अनुभवस्थान असंख्यात गुणे हैं। उनसे सभी चारित्रलब्धिस्थान विशेषाधिक हैं । विशेषाधिक होते हुए भी वे प्रतिपातस्थान और प्रतिपद्यमानस्थानोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं । जहाँ असंख्यातगुला कहा नहीं गुणाकार स्यातलोकप्रमाण है' । तीन प्रकारके प्रतिपातस्थानोंके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंका तीव्रता-मन्दताकी अपेक्षा संदृष्टि द्वारा अल्पबहुत्व गाथा २०४ के अन्तमें बतलाया जावेगा । अथानन्तर प्रतिपद्यमान स्थानों का कथन करते हैंतत्तो पडिवज्जगया अज्जमिलिच्छे मिलेच्छज्जे य । कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा ॥१५॥ अर्थ-प्रतिपातस्थानोंके ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपद्यमान स्थान हैं । वे आर्य मनष्यका जघन्य, म्लेच्छ मनुष्य का जघन्य, म्लेच्छ मनुष्यका उत्कृष्ट, आर्य मनुष्यका उत्कृष्ट इस क्रमसे हैं । विशेषार्थ-भरत, ऐरावत और विदेहमें मध्यम खण्ड आर्यखण्ड है; वहांके निवासी मनुष्य प्रार्य हैं। मध्यम खण्डके अतिरिक्त शेष पांचखण्ड मलेच्छखंड हैं और बहांके निवासी मनुष्य मलेच्छ कहलाते हैं। उनमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति असम्भव होनेसे म्लेच्छपनेकी उत्पत्ति बन जाती है । दिग्विजयमें प्रवृत्त हुए चक्रवर्तीको सेनाके साथ जो म्लेच्छ मध्यम अर्थात् आर्यखण्डमें आये हैं तथा चक्रवर्ती प्रादिके साथ जिन्होंने वैवाहिक सम्बन्ध किया है ऐसे म्लेच्छ राजाओंके संयमकी प्राप्ति में विरोधका प्रभाव हैं। अथवा उनको जो कन्याए चक्रवर्ती प्रादिके साथ विवाही गई उनके गर्भसे उत्पन्न हुई सन्तान मातृपक्षकी अपेक्षा स्वयं मलेच्छ है । इनके दीक्षाग्रह सम्भव है । इसलिये कुछ निषिद्ध नहीं है, क्योंकि इसप्रकारकी जातिवालोंके दीक्षाके योग्य होने में प्रतिषेध नहीं है । तीवमन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गाथा २०४ के अन्तमें किया जावेगा। १. ज.ध. पु. १३ पृ. १७६ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] लब्धिसार [ गाथा १६६-१६७ अथानन्तर अनुभयस्थानोंका कथन करने के लिये अगला गाथासूत्र कहते हैंतत्तोणुभयहाणे सामाइयछेदजुगलपरिहारे । पशिबन्द गरिमा पसंखलोगप्पमा होति ॥१६॥ अर्थ-प्रतिपद्यमान स्थानों के ऊपर सामायिक-छेदोपस्थापना सम्बन्धी तथा परिहारविशुद्धिसंयमसम्बन्धी असंख्यातलोक प्रमाण अनुभयस्थान हैं। विशेषार्थ-त:प्रायोग्य संक्लेशवा सामायिक-छेदोपस्थापनावे अभिमुम्ब हुए परिहारवि शुद्धिसंयतके अन्तिमसमयमें परिहारविशुद्धसंयतका जघन्य अनुभयस्थान है । परिहारविगुद्धिसे छूट कर सकलसंयमी रहा इसलिये सकलसंयमकी अपेक्षा अनुभवस्थान कहा गया है, प्रतिपातस्थान नहीं कहा गया । तीव्र-मन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गा. २०४ के अन्त में किया गया है। आगे सूक्ष्म साम्पराय व यथाख्यातसंयम स्थानोंका कथन करते हैंतत्तो य सुहुमसंजम पडिवज्जय संखसमयमेत्ता हु। तत्तो दु जहाखादं एयविहं संजमे होदि ॥१६७।। अर्थ- उस सामायिक-छेदोपस्थापनाके उत्कृष्टस्थान से ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण स्थानोंका अन्तराल करके उपशमधेरिणसे उतरते हुए अनिवृत्ति करणके सम्मुख जीवके अपने अन्तिम समयमें होनेवाले सूक्ष्म साम्पराम का जघन्यस्थान होता है । उसके ऊपर असंख्यातसमयप्रमाण स्थान जाकर क्षपक्रसूक्ष्म साम्परायके अन्त समय में होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायका उत्कृष्टस्थान होता है । उससे आगे असंख्यातलोकप्रमाग स्थानोंका अन्तराल करके यथाख्यातचारित्रका एक स्थान होता है । यथाख्यातचारित्ररूप यह स्थान सभी संयमोंसे अनन्तगुणी विशुद्धता युक्त उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली व अयोगकेवलीके होता है । इसमें सभी कषायोंका सर्वथा उपशम अथवा क्षय है अतः जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट रूप भेद नहीं है । १. क्रम संक्षिप्तत: इसप्रकार है-सर्वप्रथम सामायिक-छेदोपस्थापना का जघन्यस्थान फिर असंख्यात लोक प्रमित स्थानों के पश्चात् परिहारविशुद्धि का जघन्यस्थान । तत्पश्चात् प्रागे उतने ही स्थान जाकर परिहारविशुद्धिसंयमका उत्कृष्टस्थान, फिर इतने ही स्थान ऊपर जाकर सामायिक-छेदोप स्थापना का उत्कृष्ट स्थान है । २. ध. पु. १ पृ. ५६७; ध. पु. ६ पृ २८६ । ज. प. पु. १३ पृ. १८७, क. पा. सुत्त प. ६७५, ल सा. गा. २०४ प्रादि । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार | १६३ अब सात गाथाओं में उन प्रतिपातादि स्थानोंका विशेष कथन करते हैंपरिमे गद्दादीसमये पडित्राददुगमणुभयं तु । तम् उवरिमगुणगादिमुहे य देतं वा ॥१६८॥ पडिवादादोतिदयं उवरुवरिम संख लोग गुदि कमा । अंतरकरुपमाणं असंखलोगा हु दे वा ॥ १६६॥ मिच्ददेस भिगणे पडिवादद्वारा वरं अवरं । तप्पा उग्गकि लिट्ले सिध्य किलिट्ठे कमे चरिमे ॥२०० || पडिवज्जजहरुदुगं मिच्छे उक्करसजुगलमविदेसे । उवरि सामाड़गं तम्मज्मे होति परिहारा ॥ २०१ ॥ परिहारस्ल जगणं सामायियदुगे पडंत चरिम म्हि | सज्जेठ सठाणे सव्वत्रिसुद्धस्त तस्सेव ॥ २०२ ॥ सामयियदुगजद्दरां श्रघं श्रयिहिखवगचरिमहि | रिमणिय हिस्सुवरिं पडत सुहुमस्स सहुमवरं ।। २०३॥ खत्रगसुमस्त चरिमे वरं जङ्गाखादमोघजेठं तं । परिवाददुगा सच्चे सामाइयछेदपविद्धा ॥२०४॥ गाय १६८ - २०४ ] अर्थ - संयमसे गिरते हुए चरम समय में और संयम को ग्रहण करते समय प्रथम समय में क्रम से प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान होते हैं तथा इनके मध्य में अथवा ऊपरके गुणस्थानके सम्मुख होनेवाले जीव के जो अनुभव स्थान होता है वह देशसंयत के समान ही यहां भी जानना चाहिये ।। १६८ ।। प्रतिपात आदि तीन प्रकार के स्थान अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त ऊपरऊपर प्रसंख्यात लोकगुरो क्रम से युक्त हैं । उन ग्रहों में प्रत्येकके असंख्यात लोक प्रमाण बार षट्स्थानवृद्धि देशसंयत के समान जानना । १६६॥ प्रतिपातस्थान तो मिथ्यात्व असंयम और देशसंयमके सम्मुख होनेकी अपेक्षा तोन भेद वाला है । उसमें भी जघन्यस्थान संयमके चरम समय में तीव्रसंक्लेशवाले के Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] लब्धिसार [ गाथा २०४ एवं उत्कृष्टस्थान यथायोग्य मन्दकषायबालेके होता है ।।२००।। प्रतिपद्यमानस्थान आर्य व म्लेच्छकी अपेक्षा दो प्रकारका है सो उनका जघन्य स्थान तो मिथ्यादृष्टिसे संयमी होनेवाले जोबके और उत्कृष्टस्थानयुगल देशसंयतसे संयमी हुए जीवके होता है। प्रतिपद्यमानस्थानोंके ऊपर जो अनुभयस्थान हैं वे सामायिकछेदोपस्थापना-संयम सम्बन्धी होते हैं। उन दोनों संयमोंके जघन्य व उत्कृष्टस्थानों के मध्य परिहारविशुद्धिसंयमके स्थान हैं ।।२०१॥ परिहार विशृद्धिसंयमका जघन्यस्थान संक्लेशवश सामायिक-छेदोपस्थापना संयममें गिरते हुए जीवके चरम समय में और परिहारविशुद्धिसंयमका उत्कृष्टस्थान उसमें ही सर्वविशुद्ध अप्रमत्तजीवके एकान्तवृद्धिके चरमसमयमें होता है ॥२०२॥ सामायिक-छेदोपस्थापनासंयमका जघन्यस्थान मिथ्यात्वके सम्मुख हुए जीवके संयमसम्बन्धी चरमसमय में होता है जो जघन्य संयमका स्थान ही है। सामायिकछेदोपस्थापनासंयपका उत्कृष्टस्थान क्षपकअनिवृत्ति करगाके चरमसमय में होता है । सूक्ष्मसाम्परायसंयमका जघन्यस्थान सूक्ष्मसाम्परायोपशमकजीव जो उपशमश्रेणिसे गिरते हुए मूक्ष्मसाम्परायके चरम समयमें अनिवृत्तिकरण के सम्मुख है, उसके होता है ।।२०३।। क्षीणकषायके सम्मुख हुए सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समय में सूक्ष्मसाम्परायसंयमका उत्कृष्टस्थान होता है | यथाख्यातचारित्र सर्व संयमसामान्य में उत्कृष्टस्थान है, क्योंकि उसके जघन्य आदि विकल्पों का अभाव है। प्रतिपात और प्रतिपद्यमान सम्बन्धी जितने भी स्थान कहे हैं वे सभी सामायिक-छेदोपस्थापनासंयम सम्बन्धी ही कहे गये हैं, क्योंकि सकलसंयमसे भ्रष्ट होते हुए चरम समय में और सकलसंयमको ग्रहण करनेके प्रथमसमयमें सामायिक-छेदोपस्थापना संयम ही होता है, अन्य परिहारविशद्धि प्रादि संयम नहीं होते हैं । विशेषार्थ-००००००००००००००००००००० अन्तर । ये असंख्यातलोकप्रमाण संयमके प्रतिपातस्थान मिथ्यात्वको जानेवाले संयतके अन्तिमसमयमें होते हैं । यहाँपर सर्वजघन्य प्रतिपातस्थान उत्कृष्ट संक्लेशसे मिथ्यात्वको जानेवाले संयतके अंतिम समयमें होता है। जघन्यसे अनन्तगुणीभूत इन्हीं का उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य संक्लेशसे मिथ्यात्वको जानेवाले संयतके अन्तिम समयमें होता है । ००००००००००० ००००००००००० । अन्तर । असंयतसम्यक्त्वको जानेवाले संयतके ये प्रतिपातस्थान Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०४ ] लब्धिसार [ १६५ असंख्यातलोकमात्र होते हैं। इनमें सर्वजघन्य प्रतिपातस्थान उत्कृष्ट संक्लेशसे असंयतसम्यक्त्वको जानेवाले संयतके अन्तिम समयमें होता है । उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य संक्लेशसे असंयतसम्यक्त्वको जानेवाले संयतके अन्तिम समय में होता है । ००००००० ०००००००००००० । अन्तर । ये संयमासंयम को जाने वाले संयतके प्रतिपातस्थान हैं । इनमें जघन्य प्रतिपातस्थान सर्व संक्लेशसे संयमासंयमको जानेवाले संयतके अन्तिम समयमें होता है और उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य संक्लेशसे संयमासंयमको जाने वाले संवतके अन्तिम समय में होता है। ००००००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० । अन्तर । ये संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रतिपद्यमान या उत्पादस्थान हैं। इनमें से जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान भरतक्षेत्रनिवासी मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए संयत (मार्य मनुष्य) के होता है । (अकर्मभूमिज अर्थात् भरतक्षेत्र निवासी म्लेच्छ मनुष्यके मिथ्यात्वसे पीछे आकर संयम ग्रहणके प्रथमसमयमें होनेवाला ) जघन्य प्रतिपद्यमान संयमस्थान पूर्व जघन्यसे अनन्तगुणा है । उक्त (म्लेच्छ) मनुष्य के हो देशविरतिसे पीछे अाकर सर्वविशुद्ध संयम ग्रहण के प्रथम समयमें होनेवाला उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान पूर्वोक्त जघन्यसे अनन्तगुणा है । इससे अनन्तगुणा कर्मभूमिमें संयमको प्राप्त करनेवाले देशविरतिसे पीछे आये हुए सर्वविशुद्धसंयत (आर्य मनुष्य) के प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान लब्धिस्थान होता है । यह स्थान पूर्वसे अनन्तगुणा है' । ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००। अन्तर । यहां पर उपरिम अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थान सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धि संयतजीवके हैं । अधस्तन स्थान परिहारशुद्धिसंयत जीवके होते हैं। उनमेंसे परिहारशुद्धिसंयत जीवका जघन्य प्रतिपातस्थान पूर्वके स्थानसे अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमों के अभिमुख हुए तत्कायोग्य संक्लिष्ट परिहार विशुद्धि संयतके अन्तिम समयमें होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। वह किसके होता है ? सर्वविशुद्ध परिहारसंयतके होता है। उससे सामायिक-छेदोपस्थापना यमियों का उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है । यह किसके होता है ? तदनन्तर समयमें सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि संयमको ग्रहण करनेवाले सर्वविशुद्ध उक्त संयतके होता है। १. ध पु ६ पृ. २८४-८५-८६ ! Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २०४ ००००००००००००००००० । अन्तर । सूक्ष्मसाम्परायसंयमीके ये संयमस्थान । हैं । उससे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतका जघन्य प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? अनिवृत्तिकरण के अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसयतके होता है । उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुरगा है । वह किसके होता है ? सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत क्षपकके अन्तिम समय में होता है। उससे वीतरागका अजघन्यअनुत्कृष्टस्थान अनन्तगुणा है। वह कषायके प्रभावके कारण एक ही प्रकारका है । परन्तु वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी जिन और अयोगी जिनका ग्रहण करना चाहिए । इसप्रकार इस संदृष्टि द्वारा जिनको प्रतिबोध हुआ है ऐसे शिष्योंका इस समय तीव्र मन्दताविषयक अल्पबहुत्व को सूत्रके अनुसार बतावेंगे । यथा तीव-मन्दताको अपेक्षा मिथ्यान्वको प्राप्त करनेवाले संयतके जघन्य संयमस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला होता है, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट संक्लेशके साथ मिथ्यात्व को प्राप्त होनेवाले संयतके अन्तिमसमयमें इसका ग्रहण किया है। उसमे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुग्गा है, क्योंकि तत्प्रायोग्य संक्लेशसे मिथ्यात्व में गिरने के सम्मुख हुए संयतके अन्तिम समय में पूर्वके संयमस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानों को उल्लंघकर इसकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे असंयत सम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले संयतके जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके संयमस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंका उल्लंघकर यह स्थान उत्पन्न हुआ है। इसका भी कारण यह है कि मिथ्यात्व में प्रतिपातविषयक जघन्य संक्लेश से भी सम्यक्त्वमें प्रतिभातविषयक उत्कृष्ट संक्लेशके अनन्तगणे हीनपनेको देखते हुए उसके उसप्रकार सिद्ध होने में विरोध का अभाव है। उससे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले संयतके जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके उत्कृष्ट स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थान की उत्पत्ति देखी जाती है। उससे उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उससे संयमको प्राप्त करनेवाले कर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुल्गा है, क्योंकि संक्लेशनिमित्तक पूर्वके प्रतिपातस्थानसे उससे विपरीत स्वरूपवाले इसके जघन्य होनेपर भी अनन्तगुरणेपन की सिद्धि न्याययुक्त है। यहांपर 'कर्मभूमिजके ऐला Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०४ } लब्धिसार कहनेपर पन्द्रह कर्मभूमियों में से मध्यम खण्डमें उत्पन्न हुए मनुष्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुअा कर्मभूमिज है इसप्रकार वह इस संज्ञाके योग्य है । उससे संयमको प्राप्त करनेवाले अकर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्व के संयमस्थानसे असंख्यातलोकमाण षट्स्थान आगे जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति हुई है । उससे संयमको प्राप्त होनेवाले उसी के उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तमुणा है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उससे संचमको प्राप्त होने वाले कर्मभूमिज (आर्य) मनुष्यका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि क्षेत्रके माहात्म्यवश पूर्वके संयमस्थानसे इसके अनन्तगुरणे सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं उपलब्ध होती। उससे परिहारविशुद्धिसंयतका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुग्गा है। यह स्थान तत्प्रायोग्य संक्लेशवश सामायिक-छेदोपस्थापनासंयमों के अभिमुख हुए परिहार विशुद्धि सयतके अन्तिम समय में होता है, परन्तु यह अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान सामायिक-छेदोपस्थापनासम्बन्धी जघन्य संयमलब्धिसे लेकर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर वहां प्राप्त संयमलब्धि स्थानके सदृश होकर उत्पन्न हुआ है। इसलिये इसके प्रतिपातके अभिमुख होकर स्वस्थानमें सबसे जघन्य होनेपर परिहारविशुद्धिसंयमके माहात्म्यवश पूर्वके स्थानसे अनन्तगुरणापना सिद्ध होता है । उससे उसीका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुसा होता है, क्योंकि पहले जघन्य स्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर सामायिक छेदोपस्थापनासम्बन्धी अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान स्थानों के भीतर यथागम इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उसमे सामायिक-छेदोपस्थापना संयतोंका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुगा है, क्योंकि सामायिक-छेदोपस्थापनाके अजघन्य-अनुत्कृष्ट अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थानके समान पूर्वके उत्कृष्टस्थानका निर्देश करनेपर तत्पश्चात् निरन्तर क्रमसे फिर भी उससे ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति अनिवृनिकरण क्षपक के अन्तिम समयमें देखी जाती है। उससे सुक्षमसाम्परायिक संयनका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है । बादर कषायके रहते हुए होनेवाली उत्कृष्ट संयमल ब्धिसे सूक्ष्मकषाय में होने वाली जघन्य संयमलब्धि भी अनन्तगुगी होती है, इसके सिवाय वहां अन्यप्रकार सम्भव नहीं है, परन्तु यह जो उपशामक गिरकर सूक्ष्मसाम्परायमें आया है उसके अन्तिम समयकी लेनी चाहिये । उससे उसी का उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुगणा है । सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमें सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिका इसके पहले के जघन्य Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] लब्धिसार परिणाम से अनन्तगुणे सिद्ध होनेमें विरोधका अभाव है । उससे वीतरागका अजघन्य श्रनुत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और केवलियों में जघन्य एवं उत्कृष्ट विशेषणसे रहित यथाख्यात- विहारशुद्धि संयमलब्धिकी यहां पर विवक्षा है' । ॥ इति क्षायोपशमिक सकल चारित्र प्ररूपणं ॥ [ गाथा २०४ यथाख्यातचारित्र में जघन्यादि भेद नहीं होते हैं। ध पु. ६ पृ. २८५, पु. ७ पृ. ५६७, ज.ध. पु. १३ पू. १८७. व. पु. ६.२८६ क. पा. सुत्त पू. ६७५ । ल. सा. गाथा १६७ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अध चारित्रमोहनीय उपशमनाधिकार" सम्पूर्ण दोषों को उपशान्त किया है जिन्होंने ऐसे उपशान्तकषाय बोतरागियों को नमन करके उमशमलातहका विराट हाते है... उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो भणं विजोयित्ता । अंतोमुत्तकालं अधापवत्तोऽपमत्तो य ॥२०५॥ अर्थ-उपशमचारित्रके सम्मुख हुआ वेदकसम्यग्दृष्टिजीव सर्वप्रथम पूर्वोक्त विधानसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त-अप्रमत्त अर्थात् स्वस्थान-अप्रमत्त होता है। विशेषार्थ-वेदकसम्यग्दष्टिजीव अनन्तानुबन्धी चतुष्कको बिसंयोजना किये बिना कषायोंकी उपशामनाके लिये प्रवृत्त नहीं होता इसीलिये गाथामें "उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता" यह पूधि कहा है । मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्कर्मवाला वेदकसम्यग्दृष्टिसंयत जबतक अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना नहीं करता तबतक कषायोंकी उपशामनाके लिए प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना न होनेपर उसके उपशम श्रेणि पर चढ़ने के योग्य परिणाम नहीं हो सकते । इसलिये अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनामें यह सर्वप्रथम प्रवृत्त होता है। तीन करणों से अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त संयत ( अप्रमत्तसंयत ) होता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोंका बन्ध करता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनारूप क्रिया शक्ति समाप्त होनेके बाद ही दूसरी क्रिया प्रारम्भ नहीं होती, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तमुहर्तकालतक स्वस्थान अप्रमत्तसंयत होकर वहां संक्लेश और विशुद्धिवश प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानों में परिवर्तन करता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयश कीति आदि जिन प्रकृतियोंका पूर्वमें करणरूप विशुद्धिके १ ज. प. पु. १३ पृ. २०१। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. ] लब्धिसार [ गाथ। २०६-२०७ माहात्म्यवश नहीं बांधता था, उनका अब कितने ही कालतक बन्ध करता हुआ विश्राम करता है। तत्पश्चात् कोई जीव दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका उपशम प्रारम्भ करता है तथा कोई जीव द्वितोयोपशम सम्यक्त्व सहित उपशमणि चढ़ता है उसके दर्शनमोहका उपशम विधान कहेंगे । अब दो गाथाओंमें दर्शनमोहके उपशमका निर्देश तथा उपशमणिपर चढ़ने की योग्यताके निर्देश पूर्वक वहां (वर्शनमोहोपशममें) गुणसंक्रमणके अभाव का प्रतिपादन करते हैं तत्तो नियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उसमदि । सम्मत्तप्पत्तिं वा अण्णं च गुणसेढिकरणविही ॥२०६॥ दंसणमोहुबसमणं तक्खवणं वा हु होदि चरिं तु । गुणसंकमो विज्जादे विज्झद वाधापवत्तं च ॥२०७।। अर्थ-अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनकरण विधिके द्वारा तीनों दर्शनमोहनीय कर्म प्रकृतियोंको एकसाथ उपशमाता है । गुणश्रेणि, करण व अन्य अर्थात् स्थितिकांडक, अनुभागकाण्डक आदि विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिके सदृश करता है । इस विधिके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम या क्षय होता है, किंतु उपशम होने में गुरणसंक्रमण नहीं होता। विध्यातसंक्रमण अथवा अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है। ____विशेषार्थ-विश्राम करने पश्चात् दर्शनमोहनीयका उपशम अर्थात् द्वितीयोपशम करने बालेके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो पहले प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के विधानमें कहे गये हैं, यहां भी जानना चाहिए, क्योंकि उनसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। उसीप्रकार स्थितिघात, अनुभागघात व गुणश्रेणी होती है । अधःप्रवृत्तकरणकालमें स्थितिघांत, अनुभागघात और गुणसंक्रमण नहीं है, केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ संख्यातहजार स्थितिबंधापसरण होते हैं, अप्रशस्त १. ज.ध. पु. १३ पृ. २०१ ।। २. गवरि एत्थ गुणसंकमो त्यि विज्झदो चेव, अप्पसत्यकम्मारवं अधापवत्तो वा (धवला पु. ६ पृ. २५६) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०७ ] लब्धिसार [ १७१ कर्मीका प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन विस्थानिक अनुभागका बन्ध होता है तथा प्रशस्तकर्मोंका अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे चतुःस्थानीय अनुभागका बन्ध होता है । अधःप्रवृत्तकरण काल समाप्त होनेके पश्चात् अनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण होता है और तभी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात व गुणश्रेणिका एकसाथ प्रारम्भ हो जाता है । वहां गुणसंक्रमण नहीं है । स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण है । अनुभागकाण्डकका प्रमाण अप्रशस्तकर्मोके अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभाग प्रमाण है। गणश्रेणिनिक्षेप, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनोंके कालसे विशेष अधिक गलितशेष आयामवाला है । स्थिति भी पल्योपमके संख्यातवेंभाग हीन बंधती है। एक स्थितिकांडककालके भीतर संख्यात हजार अनुभागकांडक होते हैं। अपूर्वकरणके पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। इन करणोंके द्वारा दर्शनमोहनीयकी उपशामना या क्षय होता है । ऐसा नियम है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहनीयकी उपशामनाप्रवृत्ति होती है, अन्यप्रकारसे नहीं । अनादि मिथ्यादृष्टिसे प्रतिबद्ध दर्शनमोहनीयको प्रथमोपशामनाका पूर्वमें कथन हो चुका है, किन्तु वह यहां उपयोगी नहीं है, क्योकि वह उपशमणिके योग्य नहीं है । वदकसम्यग्दृष्टि भी उपशमश्रेणिके योग्य नहीं है। मिथ्यात्वसे उत्पन्न होने वाला उपशमसम्यक्त्व प्रथमोपशमसम्यक्त्व है यह चतुर्थगुणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक होता है । क्षयोपशमसम्यक्त्व अर्थात् वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाला द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। इन दोनोंमें द्वितीयोपशमसम्यक्त्व वाला उपशमणि चढ़कर चारित्रमोहनीयकी उपशामना करता है। यद्यपि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक किसी भी गुणस्थानमें क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यके हो सकता है, किन्तु विवक्षावश यहांपर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्तिका अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थानकी अपेक्षासे कथन किया है। १. ज. ध पु. १३ पृ. २०३-४ । २. ज.ध. मूल पृ. १९१५, दोव्हं पि उबसमसेडिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो। ३. ज. प. पु. १३ पृ. २०२, प. पु. १.... ! ४. घ. पु. १ पृ. ११, स्वाभि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२. गा. २०५ को टीका एवं धवल पु. १ पू. २१४-१५ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. लब्धिभार [ गाथा २०८ - २१५ विशेष यह है कि वे हो तीनकरण (अनन्त वियोजना सम्बन्धी ) पृथक्-पृथक् कार्यों के उत्पादक कैसे हो सकते हैं, ( यहां उपशामना में भी कार्यकारी ) ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न-भिन्न कर्मोके विरोधी होनेसे भेटको भी प्राप्त हुए जीरिया पृथक्-पृथक् कार्यके उत्पादनमें कोई विरोध नहीं है' । १७२ । उस समय का स्थितिलत्व विशेष, अपूर्वकरणादिमें होने वाले कार्य विशेष, अन्तरकरणविधि आदि का कथन आठगाथाओंमें करते हैं ठिदिसत्तम पुगे संखगुणणं तु पढमदो चरिमं । उवसामण श्रणिट्टीसंखाभागासु तीदासु ॥२०८॥ सम्मस्स असंखेज्जा समयपत्रद्धारगुदीरणा होदि । तत्तो मुहुसते दंसणमोहंतरं कुणई ॥ २०६॥ अंतमुत्तमेतं भावलिमेत्तं य सम्मतियठाणं । मोत्तू य पढमट्ठिदि दसरा मोहंतरं कुदि ॥ २१० ॥ सम्मत्तपय डिपड मट्ठिदिम्मि संछुहदि दंसगतियाणं । उक्कीरयं तु दव्वं बंधाभावादु मिच्छस्स ॥२११॥ विदियद्वदिस्स दव्यं उक्क हिय देदि सम्मपदमहि । विदियट्ठिदिम्दि तस्स अक्कीरिज्जतमा म्हि ॥ २१२ ॥ सम्मत्तपयडिपड महिदी सरिसाण मिच्छमिस्साणं । ठिदिव्यं सम्मस्स य सरिसखि सेयहि संकमदि ॥ २१३ ॥ जावतरस्स दुचरिमफालि पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदंसणदव्वं कुहेदि सम्मस्स पढमहि ॥ २१४॥ विदियट्ठिदिस्स दव्वं पडमट्ठिदिमेदि जाव श्रावलिया । पडि मावलिया चिट्ठदि सम्मत्तादिमठिदी ता ||२१५ ॥ ध. पु. ६ पृ. २८३ । T ! 4 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१५ ] लब्धिसार [ १७३ अर्थ-अपूर्वकरण और अनिवत्ति करके प्रथम समयोंके स्थितिसत्कर्मसे उन्हींके अपने-अपने अन्तिम समयमें स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणाहीन होता है । अनिवृत्तिकरणके बहुकाल बीत जाने पर दर्शनमोहनीयका उपशम-कार्य प्रारम्भ होता है ।।२०८।। __उस समय' सम्यक्त्व के असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर होता है ।।२०६।। सम्यक्त्वमोहनीयको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व उदयावलिमात्र प्रथमस्थितिको छोड़ कर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है ।।२१०॥ दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंके उत्कीरण द्रव्यको सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथम स्थिति में ही निक्षिप्त करता है, क्योंकि मिथ्यात्वके बन्धका अभाव है ।।२११।। द्वितीय स्थितिके द्रव्यमें से अपकर्षणकर अपकर्षितद्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिमें देता है तथा अन्तरसम्बन्धी निषेकोंको छोड़कर शेष अनुकीर्यमारण द्वितीयस्थितिमें भी देता है ॥२१२॥ उदयावलिके बाहर सम्यक्त्वकी प्रथमस्थितिके समान होकर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशपुजको सम्यक्त्यमोहनीयकी समान स्थितियोंमें संक्रमित करता है। अन्तर को द्विचरमफालितक यही क्रम चलता रहता है। तीनों दर्शनमोहनीयके चरमफालिसम्बन्धी द्रव्यको सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथमस्थितिमें देता है ।।२१३-२१४।। द्वितीयस्थितिका द्रव्य भी प्रथमस्थितिमें तभीतक आता है जबतक सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें प्रावलि-प्रत्यावलि शेष रह जाती हैं उसके बाद द्वितीय स्थिति का द्रव्य प्रथमस्थिति में नहीं आता है ।।२१५।। विशेषार्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिसत्त्वसे उसका हो अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व संख्यातगुणाहीन है। प्रथमसमयसम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके स्थितिसत्त्वसे अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व संख्यातग्णाहीन है । दर्शनमोहनीयके उपशमानेमें अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात भागोंके व्यतीत होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके असंख्यात समयप्रबद्धोंको उदीरणा होती है। १. अर्थात् दर्णनमोहकी उपशामना सम्बन्धी अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग जाने पर । ज.ध. २. ध. पु. ६ पृ. २६० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २१६ इसके पश्चात् अन्तर्मु तर्तकाल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है । वह इस प्रकार है- सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियोंकी उदयावलिमात्र प्रथम स्थितिको छोड़कर अन्तर करता है । इस अन्तरकरण में उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको द्वितीयस्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है । सम्यक्त्व प्रकृतिके प्रदेशाग्रको अपनी प्रथमस्थितिमें ही स्थापित करता है । मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिके द्वितीयस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें देता है और अनुत्कीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) स्थितियों में भी देता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथमस्थिति के समान स्थितियों में स्थित होकर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके जो प्रदेशाग्र हैं उन प्रदेशाग्रोंको सम्यक्त्व प्रकृति की प्रथम स्थितियों में संक्रमण कराता है । जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरमफालि प्राप्त होती है तबतक यही क्रम रहता है । पुनः अन्तिमफालिके प्राप्त होनेपर' मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सब अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको सम्यक्त्व प्रकृतिको प्रथमस्थितिमें ही स्थापित करता है । इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तर स्थितिसम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थिति में ही देता है । द्वितीय स्थिति के प्रदेशाग्र भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है जबतक कि प्रथम स्थिति में आवली और प्रत्यावलि शेष रहती हैं । अब प्रकररण प्राप्त दर्शनमोहके संक्रमसम्बन्धो ऊहापोह विशेष का कथन करते हैं- १७४ ] सम्मादिठिदिज्मी मिच्छद्दन्वादु सम्मसम्मिस्से । कमो सयमा विज्झादो संकमो होदि ॥ २१६ ॥ १. तात्पर्य यह है कि "चरमफालीका पतन होते समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तर स्थिति सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षरण - संक्रमण के द्वारा प्रतिस्थापनावलो को छोड़कर जिसप्रकार पहले स्वस्थानमें भी देता रहा उसप्रकार इससमय नहीं देता है, किन्तु उनके अन्तर सम्बन्धी अंतिमफालि के द्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथमस्थिति में ही गुण गीरूप से निक्षिप्त करता है ।" इसीप्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके चरमफालि सम्बन्धी द्रव्यको श्रन्यत्र निक्षिप्त नहीं करता, परन्तु अपनी प्रथम · स्थिति में हो निक्षिप्त करता है। (ज. व मूल पू. १८१३-१४ ) २. घ. पु. ६ पृ २८६ - २६१ । 7 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१७ ] लब्धिसार [ १७५ अर्थ - - सम्यक्त्वमोहनीयकी श्रादि ( प्रथम ) स्थितिक्षय होने पर मिथ्यात्व के द्रव्यमेंसे सम्यक्त्व प्रकृति व मिश्रप्रकृति में गुणसंक्रमण द्वारा नहीं, किन्तु विध्यातसंक्रमण द्वारा दिया जाता है । विशेषार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व में गुणसंक्रमण द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रप्रकृतिमें दिया जाता है, किन्तु द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में विध्यातसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति में दिया जाता है, ' क्योंकि गुणसंक्रमके कारणभूत जीवपरिणामोंकी विचित्रतावश यहां गुणसंक्रम नहीं होता, प्रतिसमय विशेषहीन क्रमसे विध्यातसंक्रम ही प्रवृत्त होता है तथा यहांसे लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात नहीं होता, परन्तु संयमरूप परिणामों के निमित्तसे ग्रवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि प्रवृत्त रहती है, क्योंकि करण - परिणाम-निमित्तक गलितशेष गुणश्रेणिका यहां पर अन्त हो जाता है । अब द्वितीयोपशमसम्यग्वृष्टि के विशुद्धिका एकान्तानुबुद्धिकालका प्रमाण कहते हैं- सम्मत्तप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्स कालादो | संखेज्जगुणं कालं विसोहिबडीहिं वदि हु ॥२१७॥ अर्थ -- प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जो पूरणकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव विशुद्धि के द्वारा बढ़ता रहता है | विशेषार्थ - - प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसंक्रमकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह जीव गुणसंक्रमके बिना भी प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे बढ़ता रहता है । १. तात्पर्य यह है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथमसमय से लेकर गुणसंक्रम न होकर विध्यातसंक्रम होता है । इसलिये उत्तरोत्तर विशेष होन क्रमसे मिध्यात्व के द्रव्यका सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति में संक्रम होता रहता है, ऐसा ज्ञातव्य है । ( ज. ध. पु १३ पृ. २०८ ) २. ३ ४. ज. पु १३ पृ. २०७ २०६१ और इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है । क. पा सु. पू. ६००, ज. ध. पु १३ पृ. २०८ | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिलार [ गाथा २१८-२१६ तदनन्तर द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके विशुद्धि में हानिवृद्धिका कथन करते हैंतेण परं हायदि वा वड्ढदि तब्बड्डिदो विसुद्धीहि । उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमत्तेसु ॥२१॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका उपशम करनेवाला द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उसके बाद (अन्तर्मुहूर्त तक विशृद्धि से बढ़ने के बाद) विशुद्धिके द्वारा कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी अवस्थित रहता है । विशुद्धिको हानि-वृद्धि के प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थान होते रहते हैं ! विशेषार्थ-स्वस्थानको (अप्रमत्तगुणस्थानके ) प्राप्त हुए जीवके संक्लेश और विशुद्धिवश परिणामोंके वृद्धि हानि और अवस्था में संचरणके प्रति विरोधका अभाव है। अथानन्तर उपसमणिमें होने वाले प्रमुखकार्यों का कथन करते हैंएवंपमत्तमियर परावत्तिसहस्सयं तु कादृण । इगवीसमोहणीयं उपसमदि ण भरणपयडीसु ॥२१॥ अर्थ-इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त में सहस्रोंबार परावर्तन करके मोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंको उपशमाता है, अन्य कर्मोको नहीं उपशमाता । __विशेषार्थ-जिसप्रकार अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके स्वस्थानको प्राप्त हुआ उक्त जीव असाताबेदनीय आदिके बन्धके योग्य होता है उसीप्रकार यह भी उपशान्तदर्शनमोहनीय हो त्रिशुद्धिकालको बिताकर प्रमत्त और अप्रमत्तगणस्थानोंमें परावर्तन करता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयश कीर्ति आदि अशुभ प्रकृतियोंका बन्धक होकर उनके सहस्रों वन्धपरावर्तन करता हुआ अन्तमुहर्त काल तक विश्राम करके पश्चात् उपशभश्रेणिके योग्य विशुद्धि के अभिमुख होता है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पहले हो चुकी और दर्शनमोहका उपशम करके द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि हुआ अतः चारित्रमोहको २१ प्रकृतियां शेष रहीं; जिनके उपशम करनेको उद्यमी हुआ है । मोहनीयकर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मोंका उपशम नहीं होता; अतः उनके उपशमका निषेध किया गया है । ५. ज. ध पु. १३ पृ. २०६ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा २२१-२२२ ] [ १७७ चारित्रमोहोपशम विधान में पाये जाने वाले आठ कार्योका निर्देश करते हैंतिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवासमकरणं उवसामणे होति ॥२२०॥ प्रथं-चारित्रमोहनीयका उपशम करनेमें आठ करण होते हैं । 'तिकरण' अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीनकरण तथा बंधापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण और उपशमकरण । इसप्रकार पाठकरण होते हैं । विशेषार्थ-अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, अन्तरकरण और उपशमकरणका स्वरूप प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्तिमें कहा जा चुका है । अनिवृत्तिकरणकालमें मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनका स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीयके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध तुल्य, परन्तु पूर्वसे असंख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रमसे स्थितिबन्ध होता है इसको पांचवां क्रमकरण कहते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका बन्ध जब देशधातिरूपसे होने लगता है, सर्वधातिरूपसे बन्ध नहीं होता उसको छठा देशघातिकरण कहते हैं। आगे अपूर्वकरणमें स्थितिकांडकका कथन करते हैंविदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जहरणेण । पल्लस्त संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥२२१॥ ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु। ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ॥२२२।। अर्थ-द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके द्वितीय ( अपूर्व ) करण के प्रादि ( प्रथम ) समय में स्थितिकांडक जघन्यसे पल्यका संख्यातबांभाग आयामबाला और उत्कृष्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाणवाला होता है, किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जवन्य व उत्कृष्ट स्थितिकांडकायाम पल्य के असंख्यातवेंभाग मात्र है । जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबंधापसरण उतना ही अर्थात् पल्यके संख्यातवेंभागप्रमाण है । विशेषार्थ--अधःप्रवृत्तकरण नामका गुणस्थान न होने के कारण गाथामें अधःकरणके कार्योंका उल्लेख नहीं किया, किन्तु गाथा २२० के अनुसार अधःप्रवृत्तकरण Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] लब्धिसार [ गाथा २२२ अवश्य होता है और वह सातिशय श्रप्रमत्तगुणस्थान में होता है । सहस्रोंबार प्रमत्तअप्रमत्तगुणस्थान में परावर्तन के पश्चात् उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ कषायोंको उपशमानेके लिये अधःप्रवृत्त कररण परिणामरूप परिणमता है' । कषायोंका उपशम करनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण होता है उसमें प्रवृत्ति करने वाले जीवके स्थितिघात अनुभागघात आदि सम्भव नहीं है । केवल उसके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालके भीतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ सहस्रों स्थितिबन्धापसरण करके अपने प्रथम समय के स्थितिबन्धसे उसके अंतिम समय में संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्धको स्थापित करता है । अप्रशस्तकर्मोका प्रतिसमय अनन्त - गुणी हानिको लिये हुए अनुभागबन्यापसररण भी करता है । यद्यपि इन कारणों के लक्षणोंके कथनमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है तथापि पूर्वके करणों में विशुद्धि अनन्तगुणीहीन होती है और आगे के करणों में विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है । इसप्रकार इन करणों में जो भेद उपलब्ध होता है उसका आश्रयकर पृथक्-पृथक् कार्यों की सिद्धि हो जाती है इसमें कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता है । कषायों का उपशामक यह जीव क्षीणदर्शनमोहनीय होवे अथवा उपशान्तदर्शन मोहनीय होवे, दोनोंके उपशम श्रेणिपर श्रारोहण करनेमें निषेधका प्रभाव है । १ ज. ध. पु. १३ पृ. २१० । ध. पु. ६ पृ. २६२ । क. पा सु. पृ. ६८० । २. संयम गुरश्र णी को छोड़कर अधःप्रवृत्त परिणाम निबन्धन गुण रिण भी नहीं हैं । ( ध. पु. ६ पृ २६२ ) ३. ज. ध. पु. १३ पृ. २१३, ध. पु. ६ पृ. २६२, क. पा. सु. पृ. ६८० । ४. प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, द्वितीयोपशम की उत्पत्ति, क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, चारित्रमोहको उपशामना, चारित्रमोहकी क्षपणा इन कार्यों में तीन करण होते हैं, उनमें लक्षण भी सर्वत्र समान है, परन्तु विशेष यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय इन तीन करणों में सबसे कम विशुद्धि होती है तथा चारित्रमोहकी क्षपणा के समय इन तीन करों में सबसे अधिक विशुद्धि होती है। मध्यस्थानों में अधिकारी भेद से यथायोग्य विशुद्धि जान लेना चाहिये [ज. व. पु. १३ प. २१४, व. पु. ६. पृ. २६६ ] ५. ज. ध. पु. १३ पृ. २१३-१४, ध. पु. ६ पृ. २८६ । ६. दोपहपि उनसे डिसमारोह विप्पडिसेहाभावादी [ज. ध. मूल पृ. १९१५] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२३ ] लब्धिसार [ १७६ उनमें से जो क्षीणदर्शनमोहनीय कषायोंका उपशामक होता है, कषायों का उपशम करने के लिए उद्यत हो अपूर्वकरण में विद्यमान हुए उसके प्रथम स्थितिकांडकका क्या प्रमाण है ? ऐसा पूछने पर 'नियमसे पत्योपमका संख्यातवां भाग होता है' इस वचनके द्वारा उसके प्रमाणका निर्देश किया गया है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले परिणामों के द्वारा पहले ही अच्छी तरह से घातको प्राप्त हुई स्थिति में अधिक स्थितिकाण्डककी योग्यता सम्भव नहीं है,' परन्तु जो दर्शनमोहनीय के उपशम द्वारा द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर कषायोंका उपशम करता है उसके लिए ऐसा कोई नियम नहीं है । उसके जघन्य स्थितिकांडक तो पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थितिकांडक सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए । उपशान्तदर्शनमोहनीय या क्षीरणदर्शनमोहनीय कषायोंका उपशामक जो जीव पूर्व करके प्रथम समय में स्थितिबन्धरूपसे जिस स्थिति समूहका अपसरण करता है जघन्य और उत्कृष्ट वह समूह भी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमारण होता है, वहां अन्य विकल्प नहीं है । प्रागे अनुभागकाण्डक आदिके प्रमाणका निर्देश करते हैं असुदाणं रसखंड मांत भागा ण खंडमियराणं । तोकोडाकोडी सत्तं बंधं च तट्ठा ॥२२३॥ अर्थ - अपूर्वकरणके प्रथम समय में अशुभकर्मों के अनन्तबहुभाग अनुभागका धात करने के लिए अनुभागकांडक होता है तथा इतर अर्थात् शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकांडक नहीं होता और उसी प्रथम समय में सर्वकर्मोंका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अंत:कोड़ाकोड़ीसागर होता है । विशेषार्थ - अपूर्वकरण के प्रथम समय में स्थितिबन्ध व स्थिति सत्कर्म अन्तः:कोड़ाकोड़ीसागर से अधिक सम्भव नहीं है । तथा शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग कांडकघात १. ज. ध पु. १३ पृ. २२२-२३ । २. ज. ध. पु. १३ पू. २२३-२४ । इस विशेषार्थ में स्थितिबन्यापसरणका प्रभारण बताया गया है ऐसा जानना चाहिये । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. ] लब्धिसार [ गाथा २२४-२.५ नहीं होता, क्योंकि विशद्धि के द्वारा शुभ प्रकृतियों के अनुभागका खण्डन नहीं होता। अब अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणणि निर्जराका प्ररूपण करते हैंउदयावलिस्स वाहि गलिदवसेसा अपुरवप्रणियट्टी । सहुमदादो अड़िया गुणमेडी होदि सट्ठाणे ।।२२४।। अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष गणश्रेरिण होती है । गुणश्रेणिनिक्षेप अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकररग-सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अधिक है । विशेषार्थ-अधिकका प्रमाण उपशान्तकषायके कालका संख्यातवांभाग है। तथा यहीं पर नपुसकवेद आदि अबंध अप्रशस्त प्रकृतियों सम्बन्धी गुणसंक्रमणका भी प्रारम्भ होता है। अपूर्वकरणमें बन्ध-उदय व्युच्छित्ति को प्राप्त प्रकृतियों को बताने के लिए आगे गाथा सूत्र कहते हैं पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तोस चदुर वोच्छिण्णा। छराणोकसाय उदयो अपुवचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥२२५।। अर्थ-प्रपूर्वकरणकालसम्बन्धी सातभागों में से प्रथमभागमें निद्रा व प्रचला ये दो, छठे भागमें तीर्थंकर आदि तीस और सातवें भागमें हास्यादि चार; इसप्रकार ३६ प्रकृतियां बन्धसे न्युच्छिन्न हुई तथा अपूर्वकरणके चरमसमय में हास्यादि छह नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न हुई हैं । १. ज. प. पु. १२ पृ. २६१ । ज. प. पु. १३ पृ. २२४ व २५१ । ज. ध. मूल पृ. १६४० । ध. पु. ६ पृ. २०६, ध. पु. १२ पृ. १८ । २. परन्तु जयधवलामें गुरपथरिणका प्रमाण अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणसे साधिक बताया है। ज. प. पु. १३ पृ. २२४ । परन्तु अल्पबहुत्व के प्रकरण के प्रथम समय में गुणवेणी निक्षेप अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अन्तर्मुहूर्त से अधिक है । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. २२४ । ४. बन्धसे व्युच्छिन्न ३० प्रकृतियां-देवति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-प्राहारक-तैजस-कामरण शारीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-पाहारक शरीरांगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, मादेय, निर्माण और तीर्थकर । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा २२६ ] विशेषार्थ- अपूर्वकरणगुणस्थानमें प्रविष्ट हुए संयतजीवके जिस कालमें निद्रा और प्रचलाका बन्धविच्छेद होता है वह काल सबसे थोड़ा है, क्योंकि वह अपूर्वकरणके कालका सांतयां भाग प्रमाण है । उससे परभव सम्बन्धो नामकर्म की प्रकृतियों का सन्ध विच्छेदकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि वह अपूर्वकरणकालके छह बटे सात भागप्रमाण है । इससे अपूर्वकरणका सम्पूर्णकाल विशेषाधिक है। इस विशेषाधिकताका प्रमाण अपूर्वकरणके कालके सातवें भागरूप है । यह अपूर्वकरण प्रविष्ट जीव पहलेके समान स्थितिघात व अनुभागघात को करता हुआ अपूर्वकरणके अन्तिम समय के प्राप्त होने तक जाता है । तत्पश्चात् इस कालके चरम समयमें स्थितिकांडक, अनुभागकांडक और स्थितिबन्ध एक साथ समाप्त होते हैं । इसी समय ही हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बन्धविच्छेद होता है; क्योंकि इससे उपरिम विशुद्धियां उनके बन्धके विरुद्ध स्वभाववाली हैं। इसी समय हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कर्मोका उदय विच्छेद होता है, क्योंकि इससे ऊपर इनको उदयरूप शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होनेसे इनका उदयरूपसे प्रवेश रुक जाता है । यहां पर स्थितिसत्कर्मका प्रमाण अपूर्वकरणके प्रथम समय में प्राप्त स्थितिसत्कर्मसे संख्यातगुणा हीन अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर है । इसीप्रकार स्थितिबन्धका प्रमाण भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अंतःकोडाकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्वप्रमाण है ऐसा कहना चाहिये । इसप्रकार अपूर्वकरणके कालका पालनकर उसके अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट होता है । अब आगे अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें होने वाले कार्योका निर्देश करते हैंअणियहिस्स य पढमे अण्णविदिखंडपहुदिमारवई । उवसामणा गिधत्ती णिकाचणा तत्थ बोच्छिण्णा ॥२२६॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें अपूर्वकरणके चरमसमय सम्बन्धी स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धापसरण, अनुभागखण्डसे अन्य हो (विलक्षण ही) स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धापसरण, अनुभागखण्ड प्रारम्भ करता है। वहीं (अनितिकरणके प्रथमसमयमें) सभी कर्मों के उपशम, निधत्ति और निकाचना इन तीन करणोंकी व्युच्छित्ति होती है। १. ज.ध. पृ. १३ पृ. २२७ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. २२८-२६ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] लब्धिसार [ गाथा २२६ विशेषार्थ-जिसप्रकार अपूर्वकरणमें स्थित संयत पल्योपमके संख्यात भागप्रमाण आयामवाले स्थितिकांडकको ग्रहणकर आया है उसीप्रकार यह भी अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें स्थितिकांडकको ग्रहण करता है, वहां नानापन नहीं है । इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकांडकसे लेकर विशेषहीन क्रमसे स्थितिकांडकोंके अपवर्तित होनेपर संख्यातहजार स्थितिकांडक गुणहानियोंका उल्लंघनकर उससे (प्रथम समयके स्थितिकांडकसे) अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें संख्यातगुणा हीन स्थितिकांडक होता है। तथा अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए संयत जीवका प्रथम स्थितिकांडक उससे विशेष हीन होता है, ऐसा नर्थ ग्रहण करना चाहिए। अपूर्व स्थितिबन्ध पल्योपमका संख्यातवांभाग हीन होता है । अनुभागकाण्डक शेषका अनन्त बहुभागप्रमाण होता है, क्योंकि संयतजीव अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में अनुभागकाको संजामको इससे पूर्व धाते गये अनुभागसत्कर्म के अनन्त बहुभागप्रमाण ग्रहण करता है उसमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । ___ गुणश्रेणि प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे होती है जिसका उत्तरोत्तर गलितशेष प्रायाममें निक्षेप होता है। जिसप्रकार अपूर्वकरणमें प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उदयावलिके बाहर गलित-शेष-आयाममें गुणश्रेणिका विन्यास होता है उसीप्रकार यहां भी जानना चाहिए । वहां कोई प्ररूपणा भेद नहीं है । गुरगसंक्रम भी पूर्वोक्त अप्रशस्त प्रकृतियोंका यहां पर बिना रुकावटके प्रवृत्त होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, भय और जुगप्साका गुणसंक्रम भी यहांसे प्रारम्भ होता है, क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उनका बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिए उनका उसप्रकार परिणमन होने में विरोधका अभाव है । इसप्रकार इन क्रियाकलापों में नानापनका कथन किया गया है। उसी अनिवृत्तिकरणकालके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण व्युच्छिन्न होते हैं। सभी कर्मोके अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें ही ये तीनों ही करण युगपत् व्युच्छिन्न हो जाते हैं । उसमें जो कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण और पर प्रकृतिसंक्रमके योग्य होकर पुनः उदीरणाके विरुद्ध स्वभावरूपसे परिणत होनेके कारण उदय स्थितिमें अपकर्षित होने के अयोग्य है वह उसप्रकारसे स्वीकार की गई अप्रशस्तउपशामनाकी अपेक्षा उपशान्त ऐसा कहलाता है । उसकी उस पर्यायका नाम अप्रशस्तउपशामनाकरण है । इसीप्रकार Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२७-२२८ ] लब्धिसार [ १८३ जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षणके अविरुद्ध पर्यायके योग्य होकर पुनः उदय और परप्रकृतिसंक्रमरूप न हो सकनेकी प्रतिज्ञारूपसे स्वीकृत है उस अवस्था विशेषको निधत्तीकरण कहते हैं, परन्तु जो कर्म उदयादि इन चारोंके अयोग्य होकर अवस्थानकी प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध है उसकी उस अवस्थानलक्षण पर्यायविशेषको निकाचनाकरण कहते हैं । इसप्रकार ये तीनों ही करण इससे पूर्व सर्वत्र प्रवर्तमान थे, यहां अनिवृत्ति करण के प्रथम समय में उनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। इनके व्युच्छिन्न होने पर भी सभी कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण, उदीरणा और परप्रकृतिसंक्रम इन चारोंके योग्य हो जाते हैं । मागे प्रशिक्षणमा गुणमा प्रथम समयमें कर्मोके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्यके प्रमाणका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य सत्त बंधं च ।। सत्तगह पयडीणं अरिणयट्टीकरणपडमम्हि ॥२२७॥ अर्ध-अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रायु विना सात प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोटाकोटीसागर मात्र है और स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी मात्र है। विशेषार्थ-पायुकर्मको छोड़ कर शेष कर्मोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपमके भोतर होता है, क्योंकि अत्यन्तरूपसे भी घातको प्राप्त हुए शेष कर्मोका उपशमश्रेणिमें सूत्रोक्त प्रमाण का त्याग किये बिना अवस्थानका नियम देखा जाता है । स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है, क्योंकि उसका स्थितिबन्धापसरणके माहात्म्यवश पहले बहुत ह्रास हो गया है, इसलिये उसके सूत्रोक्त सिद्ध होने में विरोधका अभाव हो गया है । अब तीन गाथाओं में उसी अनिवत्तिकरणकालमें स्थितिबाधापसरणके क्रमसे स्थितिबन्धोंके क्रमशः अल्प होनेका कथन करते हैं ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा । तस्थ अलगिणस्स ठिदीसरिस द्विदिषधणं होदि ॥२२॥ . १. ज. प. पु. १३ पृ. २३१ । ध. पु. ६ पृ. २६६; घ. पु. ६ ५ २३६, प. पू. १५ पृ. २७६, गो. के. गा.४४०.४४४ एवं ४५० । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] लब्धिसार [ गाथा २२६ अर्थ – सहस्रों स्थितकांडक व्यतीत हो जाने पर तथा अनिवृत्तिकरणकालका बहुभाग बीत जानेपर असंज्ञीके स्थितिबंधके समान स्थितिबन्ध होता है' । विशेषार्थ -- तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक हजारों अनुभागकांडकोंके अविनाभावी ऐसे बहुत हजार स्थितिकांडकोंके स्थितिबन्धा पसरणों के साथ व्यतीत होने पर सातों ही कर्मोका स्थितिबन्ध लक्षपृथक्त्व सागरोपमसे बहुत अधिक घटक हजारपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण हो जाता है । तत्पश्चात् श्रनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग के व्यतीत होनेपर असंज्ञीके समान स्थितिबन्ध होता है । इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्मका हजार सागरोपमके चार वटे सात भागप्रमाण असंज्ञीके योग्य स्थितिबन्धके हो जानेपर शेष कर्मोंका अपने-अपने प्रतिभाग के अनुसार हजार सागरोपमका तीन बटे सात भागप्रमाण' और दो बटे सात भागप्रमाण यहां पर स्थितिबन्धका प्रमाण होता है । ठिदिबंधपुधत्तगदे पत्तेयं बदुर तिय वि एएदि । ठिदिबंधसमं होदि हु ठिदिबंध मरणुक कमेणेव ॥२२६॥ श्रथं - उसके पश्चात् प्रत्येक स्थानके लिये पृथक्त्व स्थितिबंघापसरण बीत जानेपर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रोन्द्रिय द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध के समान स्थितिबन्ध होता है | विशेषार्थ – इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रतिभाग के अनुसार चतुरिन्द्रिय आदि जीवोंमें क्रमसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और पूरे एक सागरोपमके चार बढ़े सात भाग, तीन बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता है उसके समान स्थितिबन्ध होता है । यहां पर पृथक्त्वका निर्देश विपुलतावाची है अतः हजार पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए । 8 १. ध. पु. ६ पृ. २६५ । २. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका ३. नाम गोत्रका ५. चारित्रमोहका स्थितिबन्ध | ६. ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीय व भन्तरायका । ७. नरम व गोत्रका | ८. E. ज. ध. पु. १३ पृ. २२५ । ४. ज.ध. पु. १३ पृ. २३३ । ज. ध. पु. १३ पृ. २३३ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३०-२३१ ] लब्धिसार एइंदियट्ठिदीदो संखसहस्से गदे दु ठिदिबंध | पल्लेक दिवदुगे ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥ २३०॥ अर्थ – एकेन्द्रियसदृश स्थितिबन्धसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध बोत जानेपर क्रमसेवीसिया ( नाम - गोत्र ) का एक-एक पल्य, तीसीया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों ) का डेढपल्य, चालीसिया ( चारित्रमोहनीय ) का दो पल्य प्रमाण स्थितिबन्ध होता है । [ १६५ विशेषार्थ - नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । उससे चार कमका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीयभागप्रमाण है । उससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? तृतीय भागप्रमाण है' | अब बन्धासरण के विषय में विशेष स्पष्टीकरण करते हैंपल्लस्स संभागं संखगुणगणं असंखगुणही बंधोसरणं पल्लं पल्ला संखंति संखत्रस्संति ॥२३१॥ अर्थ – पत्यप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिबंधापसरण होता है। उसके पश्चात् पत्यके असंख्यातर्वेभाग स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यके संख्यात बहुभाग प्रमाणवाला स्थितिबंधापसरण होता है । उसके पश्चात् संख्यातहजारवर्ष स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पत्यका असंख्यात बहुभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धा पसरण होता है । विशेषार्थ --- पल्योपमका संख्यातवें भागप्रमारा स्थितिबन्धापसर तबतक होता है जबतक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धको नहीं प्राप्त होता । पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धके हो जानेपर बहांसे लेकर संख्यात बहुभागका स्थितिबन्धा पसरण होता है यह नियम है । पल्योपमका संख्यातवां भाग दूरापकृष्ट संज्ञावाला स्थितिबन्धसे लेकर पल्योपमके असंख्यात बहुभागोंका स्थितिबन्धापसर का नियम है । इस गाथामें इन नियमोंका उपसंहार किया गया है । १. ज. ध. पु. १३ पृ. २३४ पं. ३३ से पृ. २३५ पं. १६ । २. ज. ध. पु. १३ पू. २३५ व २४० ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ । लब्धिसार [ गाथा २३२ आगे स्थितिबन्धके कमकरणकाल में स्थितिबन्धोंका प्रमाण बताने के लिए कहते हैं__ एवं पल्ले जादे बीसीया तीसिया य मोहो य । पल्लासंखं च कमे धंधेण य वीसियतियाभो ॥२३२॥ अर्थ---वीसिया ( नाम व गोत्र कर्म ), तीसिया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय ) और मोहनीय कर्मके स्थितिबन्धका जो क्रम पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धके समय है वही क्रम पल्यके असंख्यातवेंभाग स्थितिबन्धमें भी रहता है । विशेषार्थ-नाम व गोत्रकर्मके पल्योपमप्रमाण स्थितिवाले बन्धसे आगे अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है, क्योंकि पल्योपमप्रमाण स्थिति वालेबन्धके हो जानेपर वहांसे लेकर संख्यात बहुभागोंका स्थितिबन्धापसरण होता है, यह नियम है । यहां से लेकर नाम और गोत्रकर्मके स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर संख्यातगुणाहीन अन्य स्थितिबन्ध होता है तथा शेष कर्मोका जबतक पल्योपम स्थितिवाला बन्ध नहीं प्राप्त होता, तब तक प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर पल्योपमका संख्यातवांभाग हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार हजारों स्थितिबन्धोंके बीत जाने पर ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मोंका पल्योपमवाला बन्ध होता है, क्योंकि डेढ़ पल्योपमप्रमाण विवक्षितपूर्व स्थितिबन्ध में से पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध के घटाने पर शेष बचे अर्धपल्योपममें एक स्थितिबन्धापसरणके आयामका भाग देनेपर संख्यातहजार संख्या ( स्थितिबन्धापसरणोंकी ) प्राप्त होती है। उस समय मोहनीयकर्मका तीसरा भाग अधिक पल्योपम स्थितिवाला बन्ध होता है, क्योंकि जहां तीसिय प्रकृतियोंका पल्योगमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहां चालीसिय प्रकृतिका कितना स्थितिबन्ध होगा इसप्रकार त्रैराशिक करके मोहनीयका तीसरा भाग अधिक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ज्ञानाबरणादि चार कर्मोंका भी जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह संख्यातगुणा हीन होता है और मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष हीन होता है, क्योंकि चार कर्मों के पल्योपम स्थितिवाले बन्धके बाद तब पल्योपमके संख्यात बहुभागवाला स्थितिबन्धापसरण प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु मोहनीयकर्म पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध नहीं प्राप्त हुआ है। इसलिये उस समय मोहनीयका स्थितिबन्धापसरण पल्योपमके Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३२ ] सम्धिसार [ १८७ संख्यातवेंभागप्रमाण होता है। तब स्थितिवन्ध सम्बन्धी अल्पबहत्व इसप्रकार हैनाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है, उससे चार कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । तथा उससे मोहका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मका भी स्थितिबंध पल्योपमप्रमाण होता है। उसके पश्चात् जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह स्थितिबन्ध प्रायुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंका पल्पोपमके संख्यातवेंभागप्रमाण होता है, क्योंकि मोहनीयकर्मका भी संख्यात बहुभागोंसे हीन तत्काल होनेवाला स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र होता है । उस समय स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार हैनाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर संख्या तगुणा है, उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबंध संख्यातगुणा है । जब तक नाम और गोत्रकर्मका दूरापकृष्टि संज्ञावाला अन्तिम पल्यो१मका संख्यातबांभागप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होता है, तबतक अल्पबहुत्वका यह क्रम विच्छिन्न नहीं होता । खलाश्चात् नानक गो कर्मका अन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि दुरापकृष्टि स्थितिबन्धसे लेकर असंख्यात बहभागोंका स्थितिबन्धापसरणका नियम है । इससे ज्ञानावरणादिकर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगणा है, क्योंकि अभी दूरापकृष्टिसंज्ञक बन्ध प्राप्त नहीं हुआ है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यातगुरगा है । इस अल्पबहुत्वविधिसे बहुत हजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर ज्ञानावरण आदि चार कर्मोंका दुरापकृष्टिविषयक स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। उसके बाद इन कर्मोंका असंख्यात बहुभागवाला स्थितिबन्धापसरण होता है । उस समय नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगणा है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध' असंख्यातगुणा है, क्योंकि अभी भी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध है, दूरापकृष्टिको नहीं प्राप्त हुआ है। इसी क्रमसे बहुत हजार स्थितिबन्ध बीत जाने पर मोहनीयकर्मका दुरापकृष्टिसंज्ञक स्थितिबन्ध होता है। आगे भी संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण इसी अल्पबहत्त्व क्रमसे व्यतीत होते हैं, किन्तु इन बन्धापसरणोंमें सभी कर्मोके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्धों में असंख्यातगुणा हानिरूपसे अपसरण करता है। १. ज.ध.पु. १३ पृ. २३५-२४२ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १८८ ] [ गाथा २३३-२३४ इस स्थल पर अल्पबहुत्वको रूपणामें पाई जाने वाली विशेषता का कथन अगली गाथामें करते हैं मोहगपल्लासंखटिदिबंधसहस्सगेसु नीदेसु । मोहो तीलिय हेट्ठा, असंखगुणहीणयं होदि ॥२३३॥ अर्थ-मोहनीयकर्म सम्बन्धी पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाणवाले हजारों स्थितिबन्धों के व्यतीत हो जानेपर मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन होता है । विशेषार्थ-विशुद्धिरूप परिणामोंमें वृद्धि होने पर अतिशय अप्रशस्त मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धका एकबार में ही विशेष घात होकर ज्ञानावरणादि चार कर्मोके स्थितिबन्धकी अपेक्षा कम स्थितिवाला होता हुआ नियमसे असंख्यातगुणा हीन हो जाता है इसलिये यहां पर संख्यातगुणा हीन आदि अन्य विकल्प सम्भव नहीं है । जबतक मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादि चार कर्मोंके स्थितिबन्धसे अधिक था तबतक वह असंख्यातगुणा था। अब नसंख्यातगुणे स्थानमें असंख्यातगुणा हीन हो गया। इसकी अपेक्षा नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है, उससे मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यात गुणा तथा उससे ज्ञानावरादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुग्गा है। तदनन्तर दूसरे क्रमका निर्देश करते हैंतेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठावि । 'एक्कसराहो मोहो असंखगुणहीणयं होदि ॥२३४॥ अर्थ- उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्धों के व्यतीत हो जाने पर बीसिया अर्थात् नाम व गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा हीन हो जाता है । यह एक सदृश है अर्थात् असंख्यातगुणा होन ही है, अन्य प्रकार नहीं है। १. ज. प. पु. १३ पृ. २४२-२४४ । २. एकसदृश एकशराघात इत्यर्थः । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३५-२३६ ] लब्धिसार 1 १८६ विशेषार्थ-अनन्तर पूर्व प्ररूपित अल्पबहुत्व बिधिसे बहुत हजार स्थितिबन्धापसरण व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिका विशेष घात होने के कारण बहुत अधिक घटनेवाले मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध एक बार में सबसे अल्प हो जाता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध प्रसंख्यातगुणा होता है, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है'। अब अन्य क्रमका निर्देश करते हैंतेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयरगीयहेट्ठादु । तीसिय घादितियाो असंखगुणहीणया होति ॥२३५॥ अर्थ-उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानाबरणादि तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन हो जाता है। विशेषार्थ-पहले वेदनीयकर्मके स्थितिबन्ध सदश ज्ञानावरणोय, दर्शनावरणीय, अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध था जो विशेष घात होनेके कारण एक बारमें उससे असंख्यातगुणा हीन होकर नीचे निपतित हो जाता है । यहां पर अल्पबहुत्व इसप्रकार है-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अल्प है । उससे नाम और गोत्रकर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा है उससे ज्ञानावरणोय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों ही कर्मोंका स्थितिबन्य परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, क्योंकि जिसप्रकार घातिकर्मो का विशुद्धिके वश विशेषघात होता है उस प्रकार इस अधातिकर्मका विशुद्धिके वश बहुत स्थितिबन्धापसरण सम्भव नहीं है, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे तीनों ही कर्मोका घटता हुआ स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है या विशेष हीन होता है ऐसा कोई विकल्प नहीं है, किन्तु एकबार में वह असंख्यातगुणा हीन हो जाता है । पुनरपि क्रमभेन को दिखाते हैंतत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठादु । तीसिय घादितियामो भसंखगुणहीणया होति ॥२३६॥ १. ज. ध. पु. १३ पृ. २४४; क. पा. सुत्त पृ. ६८७ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ] लब्धिसार [ गाथा २३७-२३० अब क्रमकरणका उपसंहार करते हैंतककाले वेयणियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेय णियाणं कमो जादो ॥२३७।। अर्थ- उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जाने पर तीन घातिया तीसिय नर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्य वीसिय अर्थात नाम ब गोत्र कर्मोके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन होता है। उसी समय नाम व गोत्रसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है। इसप्रकार मोहनीय, तीसिय, वीसिय और वेदनोयकर्मोका क्रम होता है । विशेषार्थ-इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानावरणीय, दगारणी और अन्ना राप इन गानों ही कर्मोका स्थितिबन्ध एकबार में ही विशेष घातको प्राप्तकर नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन हो गया, क्योंकि नाम व गोत्र इन दोनों अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष घातको प्राप्त नहीं होता। यद्यपि पहले इन तीनों घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुरणा होता था ! उस समय स्थितिबन्धका क्रम इसप्रकार । हो जाता है-- मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा, उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, उससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध द्वितीयभागमात्र विशेष अधिक है, क्योंकि नाम व गोत्रकर्म वीसिया हैं और वेदनीयकर्म तीसिया है। आगे नम करणके अन्तमें असंख्यात समयप्रबद्धोंको उदोरणा और उसका कारण बताते हैं तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधो । तस्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥२३॥ १. ज. प. पु. १३ पृ. २४६-२४८ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३६-२४० ] लब्धिसार [ १६१ अर्थ-पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाणबाले संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जानेपर असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । विशेषार्थ- अनन्तर पूर्व कहो गई इस अल्पबहुत्व विधिसे हजारों स्थितिबन्धापसरण क्रियाको करते हुए जीवका जब कितना ही काल निकल जाता है तब पुनः जो कर्म बंधते हैं उन सभी कमोंका स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण ही होता है, अभी तक किसी भी कर्मका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है, क्योंकि इससे बहुत दूर ऊपर जाकर अन्तरकरणके पश्चात् संख्यातवर्षकी स्थितिवाले बन्धका प्रारम्भ देखा जाता है, किन्तु इस स्थल पर सभी कर्मोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोडाकोड़ीके भीतर जानना चाहिए, क्योंकि उपशमश्रेणिमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। यहां ये जितने स्थितिबन्धापसरण हुए हैं वहां सर्वत्र ही पूर्वोक्त विधिसे स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुरणश्रेणि आदिका अनुगम करना चाहिए, क्योंकि इस विषयमें नानात्व नहीं पाया जाता। पूर्व में सर्वत्र ही जो उदीरणा असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार प्रवृत्त होती आ रही थी इससमय वह उदीरणा परिणामोंके माहात्म्यवश पूर्वोक्त क्रियाकलापके ऊपर असंख्यात समयप्रबद्धोंकी प्रवृत्त होती है, क्योंकि अपकर्षण भागहारसे असंख्यातगुणे भागहारके द्वारा डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको भाजितकर जो असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण एक भाग लब्धरूपसे प्राप्त होता है उसका यहां उदोरणारूपसे उदयमें प्रवेश देखा जाता है, परन्तु यहां सर्वत्र उदीरणाको उदयके असंख्यातवें भागप्रमारग ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट उदीरणाद्रव्यका भी ऐसा नियम है कि वह उदयगत गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको देखते हुए असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है । प्रधानन्तर दो गाथाओं में देशघातिकरणका कथन करते हैंठिदिबंधसहस्सगदे मणदाणा तत्तियेवि भोहिदुगं । लाई व पुणो वि सुदं प्रचक्खु भोगं पुणोचक्खु ॥२३६ ।। पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विस्यं कमेण अणुभागो । बंधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधे ॥२४०।। - १. क. पा. सु. प. ६८८ सूत्र ११५ । २. ज. प. पु. १३ पृ. २४८-४६ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] लब्धिसार [ गाथा २४० अर्थ-संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर मन.पर्ययज्ञानावरणीय और । दानान्तरायका अनुभागबन्ध देशघाति होता है। पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय कर्मोंका । अनुभागबन्ध देशघाति हो जाता है । पुनः इसीप्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्मोका अनुभागबन्य देशघाति हो जाता है । पुनः चक्षुदर्शनावरणीयकर्मका अनुभागबन्ध देशवाति हो जाता है . पुनरपि मतिज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायकर्मोंका अनुभाग देशघाति हो जाता है पुनरपि वीर्यान्तराय कर्मोका अनुभागबन्ध देशघाति हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण होता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त सन्धिके बाद जिस प्रत्येक स्थितिकाण्डकमें हजारों अनुभागकाण्डक गभित हैं ऐसे संख्यात स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाति हो जाता है, क्योंकि उन कर्मोके सबसे मन्द परिणामरूप अनुभागबन्धका उसप्रकारसे परिगमन होने में विरोधका अभाव है। इन कर्मोंका पहले जो अनुभागबन्ध सर्वघाति द्विस्थानरूपसे होता रहा है यहां वह एक बार में सहकारी कारणरूप परिणाम विशेषको प्राप्तकर देशघाति द्विस्थानरूपसे परिणत हो गया है, परन्तु वहां सत्कर्मका अनुभाग तो सर्वघाति द्विस्थानरूप ही होता है, क्योंकि उसका देशघातिकरण नहीं होता ।। तत्पश्चात संग्यात स्थितिबन्धोंके व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । उसके बाद संख्यात स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशधाति करता है । पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धों के व्यतीत होनेपर चक्षुदर्शनावरणीयको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । तत्पश्चात संख्यात स्थितिबन्धोंके व्यतीत होने पर प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है। उसके बाद संख्यात स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर वीर्यान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है। शङ्की–इनके इस प्रकार देशघातिकरणका क्रमनियम किस कारणसे है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो कर्म अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले हैं और जो कर्म अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले हैं उनका युगपत् देश Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लन्धिसार गाथा २४१-२४२ ] [ १६३ घातिकरण नहीं बन सकता। शङ्का-चार संज्वलन और पुरुषवेदके अनुभागबन्धका यहां पर देशघातिकरण क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि उनका अनुभागबन्ध पहले ही संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर देशघाति द्विस्थानरूपसे प्रवर्तमान है अतः इस स्थलपर उनके देशघातिपनेके प्रति विसंवाद उपलब्ध नहीं होता । संसार अवस्था में सर्वत्र अपकणि और उपशमश्रेरिंगमें देशघातीकरणके पूर्व सर्व जीब विवक्षित कर्मोके सर्वघाति अनुभागको ही बांधते हैं । इन कर्मोके देशघाति हो जाने पर भी मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प होता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। अब चार गाथाओं में अन्तरकरण का निरुपण करते हैंतो देसघादि करणादुर तु गदेसु तत्तियपदेसु । इगिवीसमोहणीयाणंतरकरणं करेदीदि ।।२४१।। अर्थ-उपर्युक्त देशघातिकरणसे ऊपर उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है । विशेषार्थ- इस देशघातिकरणके पश्चात् इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर अन्तरकरण करने के लिये प्रारम्भ करता है। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ इन बारह कषायोंका तथा हास्यरति, अरति-शोक, भय-जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद इन नव नोकषायोंका अन्तरकरण करता है, अन्य कर्मोंका अन्तरकरण नहीं करता । संजलणाणं एक्कं वेदाणेकं उदेदि तं दोगहं । सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्त भावलियं ॥२४२॥ अर्थ-संज्वलन कषायों में से जिस एक संज्वलनकषायके उदयसे तथा तीनों बेदों में से जिस वेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उनकी प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है; शेष प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति होती है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ लब्धिसार [ गाथा २४३-२४४ विशेषार्थ-उदयरूप दोनों प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़ कर ऊपरकी कितनी ही स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तर करता है। अनुदयरूप दो वेदका उपशामनकाल तथा सात नोकषायोंका उपशामनकाल, इन कालोंका जितना योग होता है उतनी उदयरूप पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिका काल है, किन्तु उदयरूप कषायकी प्रथम स्थितिका काल इससे अधिक है | जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है उन प्रकृतियों की उदयावलिप्रमाण स्थितियों को छोड़कर आवलि बाह्य स्थितियोंको अन्तरके लिए ग्रहण करता है। उरि सम उक्कीरइ हेट्ठा विसमं तु मज्झिमपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेज्जगणं हवे णियमा ॥२४३।। अर्य-अन्तरसे ऊपरकी सर्व प्रकृतियोंके निषेक सदृश हैं, किन्तु अन्तरके नीचे उदय व अनुदयरूप प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति के निषेक विषम हैं। प्रथम स्थिति और उपरिम स्थिति के मध्यका प्रमाण अर्थात् अन्तरायाम प्रथम स्थितिसे संख्यातगुणा है ऐसा नियम है। विशेषार्थ--उदयरूप और अनुदयरूप सभी कषायों तथा नोकषायोंके अंतरकी अन्तिम स्थिति सदश ही होती है, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका सर्वत्र सदशरूपसे अवस्थान देखा जाता है, इसलिए ऊपर अन्तर समस्थितिवाला है, किन्तु नीचे अन्तर विसदृश होता है, क्योंकि अनुदयस्वरूप सभी प्रकृतियों के अन्तरके सदृश होने पर भी उदयस्वरूप अन्यतरवेद और अन्यतर संज्वलनकषायकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थितिसे परे अन्तर और प्रथमस्थितिका अवस्थान देखा जाता है। इसलिये प्रथम स्थितिके विसदृशपनेका प्राश्रयकर नीचे विषमस्थिति अन्तर होता है यह कहा है। अंतरपढमे अराणो ठिदिबंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरसमत्ती ॥२४४॥ १. ज. प. पु. १३ पृ. २५३-५४; क. पा सु. पृ. ६८६ । २. अभिप्राय यह है कि उदीयमान की प्रथमस्थिति अन्समुहूर्त होती है, परन्तु अनुदयस्वरूप दो वेद व ग्यारहकषायों की एक प्रावली प्रमाण प्रथम स्थिति होती है इसलिये इस प्रथम स्थिति के विषम होनेसे अधोभाग में अन्तरमें विषमता आ जाती है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४५ लब्धिसार ! १६५ अर्थ-अन्तरकरण करने के प्रथम समय में अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकाण्डक होता है । एक काण्डकोत्कीरणकालमें अन्तर कार्यकी समाप्ति हो जाती है। विशेषार्थ-जिस समय अन्त रकरण करनेका प्रारम्भ किया उसी समय पूर्वके स्थितिबन्ध, स्थितिकांडक और अनुभागकांडक समाप्त हो जानेके कारण अन्य स्थितिबंधको असंख्यातगुणा हीनरूपसे बांधने के लिए आरम्भ किया, अन्य स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाणवाला ग्रहण किया और शेष अनुभागके अनन्त बहुभाग को ग्रहण किया । हजारों अनुभागकाण्डकोंको भीतरकर होनेवाले स्थितिकाण्डककालके समान अंतरकरणका काल होता है। अतः एक स्थिति कांडकोत्कीरणकालके द्वारा अंतरको सम्पन्न करता है। अब तीन गाथाओं के द्वारा अन्तरकरण करने को विधि बतलाते हैंअंसरहेदुक्कीरिददव्वं तं अंतरम्हिण य देदि । बंधं साणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥२४५।। उदयिल्लातरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदव्वं पढमे विदिये च संछुहदि ॥२४६।। अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि। एवं अंतरकरणं सिज्झदि अंतोमुहुत्तेण ॥२४७॥ अर्थ-अन्तरकरण करने के लिए उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है, किन्तु जो कर्मप्रकृति मात्र बंधती ही हैं उनके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है । जो कर्मप्रकृतियां उदय प्राप्त हैं उनको प्रथमस्थिति में देता है और द्वितीय स्थितिमें भी देता है। जिन कर्मप्रकृतियोंका बंध भौर उदय दोनों हैं उनके उत्कीरित द्रव्यको प्रथम और द्वितीय दोनों स्थितियोंमें देता है। जिन कर्मप्रकृतियोंका न तो बंध होता है और न उदय है उन प्रकृतियोंके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अन्तरकरणकी सिद्धि (समाप्ति) होती है। १. ज.ध. पु. १३ पृ. २५५-५६ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ १. लब्धिसार [गाथा २४७ विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करने के लिए अन्तरायामसे उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है, किन्तु जो प्रकृतियां बन्धउदय की अपेक्षा उभयरूप हैं ऐसी पुरुषवेद व अन्यतर संज्वलनकषायकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीरण होने वाले प्रदेशपुञ्जको श्रागमके अनुसार अपनी प्रथम स्थिति में निक्षिप्त करता है और प्रबाधाको छोड़कर द्वितीयस्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नहीं करता, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे वे स्थितियां रिक्त होनेवाली हैं। जबतक अन्तर सम्बन्धी द्विचरमफाली है तबतक स्वस्थान में भी अपकर्षण सम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं । यह अर्थ सर्व विकल्पों में जानकर बतलाना चाहिए। जो कर्म न बंधते हैं और न वेदे जाते हैं ऐसी प्रप्रत्याख्यानावरणादिकषाय और हास्यादि छह नोकषायके उत्कीररण होनेवाले प्रदेश पुञ्जको अपनी स्थितियों में नहीं देता है, किन्तु बंधनेवालो प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सींचता है । बंधनेवाली और नहीं बंधनेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उनमें यथासम्भव आपण प्रकृति द्वारा सींचता है, परन्तु स्वस्थान ( अन्तरायाम ) निक्षिप्त नहीं करता । जो कर्मप्रकृतियां बंधती नहीं, किन्तु वेदी जाती हैं ऐसो स्त्रीवेद व नपुंसक वेदरूप प्रकृतिको अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के प्रदेश पुजको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथम स्थिति में अपकर्षण संक्रमद्वारा देता है । उदयको प्राप्त संज्वलनकषायोंकी प्रथमस्थिति में अपकर्षण-परप्रकृति संक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा बन्ध की द्वितोयस्थिति में उत्कर्षणकर सिंचित करता है । जो कर्म केवल बंधते ही हैं, वेदे नहीं जाते, ऐसे परोदयविवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतरसंज्वलनकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपु जक । उत्कर्षरणवश अपनी द्वितीयस्थिति में सञ्चार विरुद्ध नहीं है । उदय सहित बंधनेवाली प्रकृतियोंकी प्रथम और द्वितीय स्थितियों में तथा अनुदयरूप बंधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थिति में संचार विरुद्ध नहीं है' | इस क्रम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण फालिरूप से प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिद्वारा उत्कीर्ण होने वाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर अन्तरकरण करनेका कार्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि अन्तर सम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर अंतर ज. घ. पु १३ पृ. २६० । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४८-२४६] लब्धिसार [ १६७ स्थितिसम्बन्धी सर्व द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थितियों में संक्रमित हो जाता है। इस विधिसे किये जाने वाले अन्तरको अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा निर्लेप कर दिया जाता है, यह सिद्ध हुआ। अन्तरकरण की निष्पत्ति के अनन्तर समयमें होने वाली क्रिया विशेष को बताते हैं सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होति मोहणीयस्स । इगिठाणिय बंधुदमो ठिदिबंधो संखवस्सं च ॥२४॥ भणुपुत्वीसंकमणं लोहस्स असंकमं च संढस्स । पडमोक्सामकरणं छावलितोदेसुदीरणदा ॥२४६॥ अर्थ – अंतर कर चुकने के प्रथम समयमें मोहनीयकर्म सम्बन्धी सातप्रकारके करण प्रारम्भ होते हैं-मोहनीयकर्मका एक स्थानीय बंध, एक स्थानीय उदय, मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षका स्थितिबंध, मोहनीयकर्मका प्रानुपूर्वीसंक्रम, संज्वलनलोभका असंक्रम, नपुसकवेदकी उपशमक्रियाका प्रारम्भ, छह प्रावलियोंके बीत जाने पर मोहनीयकर्मकी उदीरणा । विशेषार्थ --अन्तर समाप्तिका जो काल है उसी समयसे ही ये सात करण प्रारम्भ हुए हैं। । उनमेंसे मोहनीयकर्म का आनपूर्वीसंक्रम यह प्रथम करण है । यथास्त्रीवेद और नपुसकवेदके प्रदेशपुजको यहांसे लेकर पुरुषवेदमें नियमसे संक्रान्त करता है । पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यानके प्रदेशपुजको क्रोधसंज्वलनमें संक्रमित करता है अन्य किसी में नहीं । क्रोध संज्वलन और दोनों प्रकारके मान सम्बन्धी प्रदेशज को भी मान संज्वलन में नियमसे संक्रमित करता है, अन्य किसी में नहीं । मानसंज्वलन और दोनों प्रकारकी मायाके प्रदेशपुजको नियमसे मायासंज्वलनमें निक्षिप्त करता है तथा मायासंज्वलन और दोनों प्रकारके लोभ सम्बन्धी प्रदेशपुजको नियमसे लोभसंज्वलनमें निक्षिप्त करता है, यह आनुपूर्वीसंक्रम है । पहले चारित्रमोहनीय प्रकृतियोंका प्रानुपूर्वीके बिना प्रवृत्त होता हुआ संक्रम इस समय इस प्रतिनियत प्रानुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है । १. २. ज.ध.पु १३ पृ. २५६-२६३ । ज. प. पु. १३ पृ. २६३ । क. पा.सु पृ. ६६०, घ, पु ६ प. ३०२ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] लब्धिसार [ गाथा २४९ लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है। यहां गाथामें 'लोहस्स' ऐसा सामान्य निर्देश करने पर भी लोभसंज्वलनका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ब्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है। इसलिये पहले आनुपूर्वीके बिना लोभसंज्वलनका भी शेष संज्वलन और पुरुषवेदमें प्रवृत्त होनेवाला संक्रम यहां अानपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होने पर प्रतिलोमसंक्रमका अभाव होनेसे रुक गया। यहां से लेकर लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं ही होता, ऐसा ग्रहण करना नाहिये । यद्यपि प्रानुपूर्वीसंक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तथापि मन्दबुद्धिजनोंका अनुग्रह करनेके लिए पृथक् निर्देश किया, इसलिए पुनरुक्त दोष प्राप्त नहीं होता। मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध यह तीसरा करण है। इसका तात्पर्य-इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूपसे मोहनीयका अनुभागबंध होता रहा, अब परिणामोंके माहात्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय हो गया ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । नपुसकबेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण यहांपर आरम्भ हुआ है, क्योंकि प्रथम आयुक्तकरण (उद्यतकरण) के द्वारा नपुसकवेदकी ही उपशामनक्रियामें यहांसे प्रवृत्ति देखी जाती है । छह प्रावलियोंके जाने पर उदीरणा इस पांचवें करण को यहां आरम्भ करता है । मोहनीयका एक स्थानीय उदय यह छठा करण है । इसका अर्थ-- पहले द्विस्थानीय देशघातिरूपसे प्रवृत्त हुआ मोहनीयकर्मका अनुभागउदय अन्तरकरणके अनन्तर ही एकस्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध' यह सातवां करण है। इसका अर्थ-पहले मोहनीयकर्मका जो स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षप्रमाण होता रहा उसका इस समय काफी घटकर संख्यातहजार वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थान होता है, परन्तु शेष कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है, क्योंकि उनका अभी भी संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नहीं हुआ है । इसप्रकार इन सातों करणोंका अन्तरकर चुकनेके प्रथम समयसे ही युगपत् प्रारम्भ होता है । छह श्रावलियोंके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इस करणका विशेष कथन इसप्रकार है-जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही नियमसे उदीररणाके लिए शक्य रहता आया है उसप्रकार यहां शक्य नहीं है, किन्तु अन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर जो कर्मबंधते हैं मोहनीय या मोहनीयके प्रतिरिक्त अन्य ज्ञानावरणादिक वे कर्म छह आवलियोंके व्यतीत होनेके बाद उदीरणाके Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५० - २५१ ] लब्धिसार [ १६६ लिए शक्य होते हैं । बन्ध समयसे लेकर जबतक पूरी छह प्रावलियां व्यतीत नहीं होती हैं तबतक उनकी उदीरणा होना शक्य नहीं है । जिस प्रकार अन्तरकरण के पूर्व सर्वत्र बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद बद्धकर्म उदीरणाके योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है उसीप्रकार इस स्थल पर भी बन्धसमय से लेकर छह आवलि व्यतीत होनेके बाद बद्धकर्म उदीरणा के योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है । अन्तर किये जानेके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर नपुंसकवेदका आयुक्त ( प्रारम्भ ) करणद्वारा उपशामक होता है । इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है—यहां से लेकर अन्तर्मुहूर्तकालतक नपुंसक वेदका आयुक्त ( उद्यत अथवा प्रारम्भ ) क्रियाके द्वारा उपशामक होता है, शेष कर्मों को तो किंचिन्मात्र भी नहीं उपशमाता है, क्योंकि उनकी उपशामनक्रियाका अभी भी प्रारम्भ नहीं हुआ है । इसप्रकार प्रयुक्त ( उद्यत ) क्रियाके द्वारा नपुंसक वेदके उपशमानेका आरम्भकर उपशमाता है । 160 अब चारित्रमोहोपशमन का क्रम कहते हैंअंतरपडमा कमे एक्केकं सत्त चसु तिथ पर्याडं । सममुच सामदि गधकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २५० ॥ ए एउंसयवेदं इत्थीवेदं तदेव एयं च । सचैव लोकसाया कोहादितियं तु पयडीओो || २५१|| अर्थ --- अन्तर हो जानेके पश्चात् प्रथम समय से एक अन्तर्मुहूर्त में नपुंसकवेदको उपशमाते हैं | तत्पश्चात् पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेदको उपशमाता है । पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में सात नोकषाय को पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में तीन क्रोध को, पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में तीन मान को पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में तीन माया को तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तद्वारा तीन लोभका उपशम करता है। वहां एक समय कम दो आवली प्रमाण नवक प्रबद्धों को नहीं उपशमाता है । १. ज. घ पु. १३ पृ. २६५-२६७ । २. प्रायुक्त करण किसे कहते हैं ? इसका उत्तर- प्रयुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनों एकार्थक हैं। तात्पर्यरूप से यहां से लेकर नपुंसकवेदको उपशमाता है, यह इसका अर्थ है । (ज. घ. पु. १३ पृ. २७२ ) ३. ज ध. पु. १३ पृ. २७२ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.] सब्धिसार [ गाथा २५२ विशेषार्थ-अन्तरकरण कर चकने के पश्चात् अनन्तर प्रथम समयमें नपुंसकवेदको उपशमानेकी क्रिया प्रारम्भ कर एक अन्तर्मुहूर्तकालमें नपुसकवेदको उपशमा देता है । तत्पश्चात् दूसरे अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेद को उपशमाता है । पुनः तीसरे अन्तमुहूर्तमें हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेद इन सात नोकषायका उपशम करता है । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानक्रोध, प्रत्याख्यानक्रोध और संज्वलनक्रोधको अन्तमुहर्तकालद्वारा उपशान्त करता है । उसके बाद एक अन्तर्मुहूर्तकाल में अप्रत्याख्यानमान, प्रत्याख्यानमान व संज्वलनमानका उपशम करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालद्वारा अप्रत्याख्यानमाया, प्रत्याख्यानमाया व संज्वलनमायाका उपशम करता है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्तकालमें अप्रत्याख्यानलोभ, प्रत्याख्यानलोभ और संज्वलनलोभको उपशान्त करता है । इसप्रकार क्रमशः सात अन्तर्मुहुर्तकालमें चारित्र मोहनीयकर्मको २१ प्रकृतियोंका प्रशस्त उपशम करता है । आगे सवप्रथम नपुंसकवेदके उपशमका विघाम करते हैंअंतरकदपढमादो पडिसमयमसंखगुणविहाणकमे । णुवसामेदि हु संडं उवसंतं जाण ण च भएणं ॥२५२॥ अर्थ-अन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे क्रम विधानसे नपुसकवेदके प्रदेशपुजको उपशमाता है, अन्य कर्मोको नहीं उपशमाता । .. विशेषार्थ-- अन्तरकरण करनेके पश्चात् अनन्तर समयसे लेकर अन्तमुहर्तकालतक आयुक्त (उद्यत्त) करमद्वारा नपुसकवेदका उपशामक होता है, शेष कर्मोको तो किचिन्मात्र भी नहीं उपशमाता, क्योंकि उनकी उपशामनक्रियाका अभी भी प्रारम्भ नहीं हरा है। इस प्रकार प्रायुक्तझ्यिाके द्वारा नपुसकवेदके उपशमको प्रारम्भकर उपशमित करता हुआ प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे नपुसकवेदके प्रदेशपुञ्जको उपशान्त करता है। प्रथमसमयमें जिस प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है वह स्तोक है । दूसरे समयमें उससे असंख्यातगुरणे प्रदेशपुजको उपशमाता है । इसप्रकार नपुसकवेदके उपशान्त होनेके अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाता है, क्योंकि प्रतिसमय कारणभूत परिणामोंकी वृद्धिके माहात्म्यवश प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे नपुंसकवेदके प्रदेशपुजको उपशमाता है' । १. ज. प. पु. १३ पृ. २७२-७३ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५३ ] लब्धिसार [ २०१ उदीरणा और उदयाविरूप द्रव्यके अल्पबहुत्वका निदश करने के लिए अगली गाथा कहते हैं - संतास उदीरणा य उद्यो य । दाद संकमिदं उसमियमसंखगुणियकमा ॥२५३॥ अर्थ - नपुंसकवेदके उपशम सम्बन्धी प्रथम समय में उदय प्राप्त अन्य प्रकृतियों का उदीरणा द्रव्य, उन्हीं का उदयरूप द्रव्य, नपुंसकवेदका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य और नपुंसकवेदका उपशमित होनेवाला द्रव्य क्रमशः असंख्यातगुर हैं । विशेषार्थ- गाथा में 'इस' शब्द के द्वारा नपुंसकवेदके अतिरिक्त अन्य सब उदयरूप प्रकृतियोंका ग्रहण होता है । प्रथम समय में नपुंसकवेदके उपशामक जीवके द्वारा वेदी जाने वाली प्रकृतियोंका उदीरणा द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होनेपर भी आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोक है । वेदी जानेवाली सभी प्रकृतियों के उदीरणा सम्बन्धी द्रव्यसे उदय सम्बन्धी द्रव्य असंख्यातगुणा है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तकाल - प्रमाण सञ्चित गुणश्रेणिके गोपुच्छा के माहात्म्यसे इसका निर्णय होता है कि प्रकृतमें उदीरणा द्रव्यसे उदयका द्रव्य असंख्यातगुणा है । उदय द्रव्यसे नपुंसक वेदका अन्य प्रकृतियों में संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुरंज ( द्रव्य ) प्रसंख्यातगुणा है, क्योंकि अपकर्षण सम्बन्धी द्रव्यके असंख्यातवेंभाग से प्रतिबद्ध उदय सम्बन्धी द्रव्य है, किन्तु यह पर प्रकृतियों में संक्रमित होनेवाला द्रत्र्य गुणसंक्रमणरूप है । इसलिए प्रसंख्यातगुणा है । इसका भी कारण यह है कि गुणसंक्रम सम्बन्धी भागहारसे अपकर्षण सम्वन्धी भागहार असंख्यातगुणा होता है । संक्रमित होनेवाले प्रदेशपु जसे नपुंसकवेदका उपशमित होने वाला प्रदेशपुंज ( द्रव्य) असंख्यातगुणा है, क्योंकि उस समय शेष प्रकृतियोंके उपशमित होने वाले प्रदेश का प्रभाव है । गुणसंक्रमण सम्बन्धी भागहारसे प्रसंख्यातगुणे हीन भागहार के द्वारा भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध प्राप्त हो उतना उपशमित होने वाला प्रदेशपुंज है इसलिए संक्रमित होने वाले द्रव्यसे श्रसंख्यातगुणा सिद्ध होगा । जिसप्रकार नपुंसकवेद के उपशामकके प्रथम समय में यह अल्पबहुत्व है, उसीप्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी जानना चाहिए' । १. ज. ध. पु. १३ पू. २७३-७४ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] लब्धिसार यहाँ स्थितिकाका प्रभावका निर्देश करते हैंअंतरकरणादुवरिं ठिदिरसखंडा ण मोहणीयस्त । ठिदिबंघोसरणं पुण संखेज्जगुणेष होणकमं ॥ २५४॥ जतोपाये होदि ह ठिदिबंधो संखवरसमेतं तु । तत्तो संखगुणं बंधोसरणं तु पयडीणं ॥ २५५ ॥ [ गाया २५४ - २५५ अर्थ- - अन्तरकरण करनेके पश्चात् मोहनीय कर्मका स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात नहीं होते, किन्तु स्थितिबन्धा पसरण क्रमशः संख्यातगुणे हीन होते हैं । जब से मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष मात्र होता है तबसे सब प्रकृतियों का स्थितिबन्धासरण संख्यातगुणा हीन होता है । विशेषार्थ - अन्तरकरण करके नपुंसकवेदकी उपशामना प्रारम्भ होनेपर मोहनीय कर्म स्थितिघात व अनुभागघात नहीं होते । नपुंसकवेदको उपशमानेवाला प्रथम समय में सर्व स्थितियों में स्थित प्रदेश के प्रसंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको उपशमाता है । इसप्रकार उपशमाकर यदि स्थिति और अनुभागका घात करता है तो उपशमित किये गए प्रदेश का भी स्थितिघात और अनुभागघात प्राप्त होता है, क्योंकि उपशमित किये गये प्रदेश को छोड़कर शेषके भी घातका कोई उपाय नहीं पाया जाता । उपशमाए गये प्रदेशषु जका घात सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशमित किये गये प्रदेश का अपनी स्थिति और अनुभाग में परिवर्तन नहीं होता । इसप्रकार प्रथम स्थितिकांडक के काल के भीतर प्रतिसमय उपशमित किये गये प्रदेशपुं ज के स्थितिघात और अनुभागघातका अतिप्रसंग प्राप्त होता है । इसीप्रकार दूसरे स्थितिकांडककाल में उपशमित किये गये द्रव्यके घातका प्रसंग प्राप्त होता है । नपुंसकवेदको उपशमाकर स्त्रीवेदको उपशमानेवाला यदि नपुंसक वेदका स्थितिकांडकघात और अनुभागकाण्डकघात करता है तो उपशामना निरर्थक प्रसक्त होती है । यदि उपशमाई जाने वाली या उपशान्त हुई प्रकृतियोंका काण्डकघात नहीं होता, शेष नहीं उपशमित की गई मोहनीयकर्मप्रकृतियोंका काण्डकघात होता है ऐसा माना जावे तो नपुंसक वेदकी स्थितिसे स्त्रीवेदकी स्थिति संख्यातगुणी होन प्राप्त होती है, क्योंकि नपुंसक वेद के उपशमाने सम्बन्धी कालके भीतर उपशमित किये जानेवाले नपुंसकवेदका तो स्थितिघात होता नहीं, किन्तु स्त्रीवेद बादमें उपशमाया जाता है, 7 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] लब्धिसार [ २०३ इसलिए तब उसका स्थितिघात प्राप्त होता है । इसी मान्यतामें नपुंसकवेद की स्थितिसे स्त्रीवेदको स्थितिका अधिक घात होनेके कारण स्त्रोवेदकी स्थिति से नपुंसकवेदकी स्थिति संख्यातगुणी होन होनेका प्रसंग आता है । इसी प्रकार स्त्रीवेदके ( उपशमनके समय उससे ) पश्चात् क्रमशः उपशमाई जानेवाली सात नोकषाय व बारह कायोंकी स्थिति भी स्त्रीवेदक स्थितिसे संख्यातगुणी- संख्यातगुणी हीन होने का प्रसंग प्राप्त होगा, किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि उपशान्त अवस्था में बारहकषाय और नौ नोकषायकी स्थिति सदृश ही होती है, ऐसा परमगुरुके उपदेश से सिद्ध है । इसलिए अन्तरकरण सम्पन्न होने पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता' । पहले जो स्थितिबन्धका प्रमाण असंख्यात गुणा हीनरूपसे प्रारम्भ था, अन्तरकरणकी समाप्ति के कालमें ही उस स्थितिबन्धके संख्यातवर्षप्रमाण हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा एक स्थितिबन्धको निवृत्तकर अन्य स्थितिबन्धको संख्यातगुणा हीन करके आरम्भ करता है । यह मोहनीय कर्म सम्बन्धी बन्धापसरणों की विधि है । मोहनीय कर्म के अतिरिक्त शेषकर्मों के प्रत्येक स्थितिबन्ध के पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है । अब स्थितिबन्धा पसरण के प्रमाणका निर्देश करते हैं -- वाणं बत्तीसादुवरिं अंतोमुहुत्तपरिमाणं । ठिदिबंधाणोसरणं भवरट्ठिदिबंध जाव || २५६ ॥ अर्थ --- संज्वलनकषायका स्थितिबन्ध बत्तीस वर्षप्रमाण हो जानेपर प्रत्येक स्थितिबन्धा पसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होने लगता है । जबतक जघन्य स्थितिबन्ध हो तबतक स्थितिबन्धा पसरण अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाला होता है । विशेषार्थ - सवेदी जीवके अन्तिम समय में संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण बत्तीस वर्षप्रमाण होता है । उस स्थितिबन्धका वहीं पर्यवसान होता है । इसलिए उस स्थितिबन्ध के समाप्त होनेपर अपगतवेदी जीव अवेदभाग के प्रथम समय में अन्तर्मुहूर्तकम बत्तीसवर्षका स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, क्योंकि यहांसे लेकर संज्वलन कषायोंके स्थितिबन्धका उत्तरोत्तर पसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमारण होता है, परन्तु शेष १. २. ज. प. पु. १३ पृ. २७५-२७७ । ज. ध. पु. १३ पृ. २७५ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ लब्धिसार [ गाथा २५७-२५८ कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुण हीन क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ संख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए । अब स्थितिवन्धापसरण सम्बन्धी विशेष कथन करते हैंठिदिबंधाणोसरणं एवं समयप्पबद्धमाहिकिच्चा । उत्तं गाणादो पुण या च उत्तं अणुश्वत्तीदो ॥२५७।। अर्थ-एक समयमें जितना स्थितिबन्ध कम होता है उतना स्थितिबंधापसरण का प्रमाण कहा गया है । एक स्थितिबन्धापसरण कालतक वही प्रमाण रहता है, क्योंकि प्रत्येक समयमें नाना स्थितिबंधापसरगकी अप्राप्ति कही गई है। हिशेषार्थ - एक रिमनिकोको रणकाल व एक स्थितिबन्धापसरणकाल ये दोनों तुल्य होते हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं । स्थितिअन्धापसरणके प्रथम समयमें जितनी स्थिति कम होकर स्थितबन्ध होता है, अन्तमुहर्तकालतक प्रत्येक समयमें उतना ही स्थितिबन्ध होता रहता है । इसीलिए एक स्थितिबन्धापसरण कालमें नानापनेकी अनुपपत्ति कही गई है। नपुंसकवेदकी उपशामना के पश्चात् स्त्रीवेदको उपशम क्रिया का कथन आगे को गाथामें करते हैं--- एवं संखेज्जेसु दिदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु । संदुव समदेतत्तो इस्थिं प तहेव उवसमदि ॥२५॥ अर्थ-इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा नपुसकवेदका उपशम होता है । तत्पश्चात् उसीप्रकार नपुंसकवेदके उपशम सदृश अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा स्त्री वेदका उपशम करता है। विशेषार्थ- नपुसकवेद प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाया जाता हुआ क्रमसे उपशान्त होता है । इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर नपुंसकवेदको उपशमितकर तदनन्तर समयसे लेकर स्त्रीवेदका उपशम प्रारम्भ करता है । उसीसमय मोहनीयकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोके पहले प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंकी समाप्ति हो जाने के कारण अपूर्व स्थितिकाण्डक और १. ज. प. पु. १३ पृ. २८६-२६० । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ k गाथा २५६ ] लब्धिसार [ २०५ अपूर्व अनुभागकांड का प्रारम्भ करता है, परन्तु मोहनीयक का यहां स्थितिधात और अनुभागघात नहीं है । ज्ञानावरणादिकर्मोके असंख्यातगुण हानिरूपसे और बंधनेवाली मोहनीयकर्मको प्रकृतियोंका संख्यातगुण हानिरूपसे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । जिसप्रकार असंख्यातगणी श्रेणिरूपसे नपुसकवेदको उपशमाया है उसीप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे स्त्रीवेदको उपशमित करता है । अथानन्तर स्त्रीत्रेदके उपशमम कालमें होने वाले कार्य विशेष को बताते हैं थीयद्धा संखेज्जदिभागेपगदे तिघादिठिदियंधो। संखतुवं रसबंधो केवलणाणेगठाणं तु ॥२५॥ अर्थ-स्त्रीवेदके उपशानेके कालके संख्यातवें भाग व्यतीत हो जाने पर तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष प्रमाण होता है और केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणके अतिरिक्त तीन घातिया कर्मोकी शेष प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध एक स्थानीय (लता रूप) होता है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उपशमानेके अन्तमहतंप्रमाण कालका संख्यातवांभाग व्यतीत हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षसे घटकर संख्यात हजार वर्षप्रमाण हो जाता है, परन्तु तीन अघातिया कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण नहीं होता, क्योंकि धातिया कोके बहुत अधिक स्थितिबन्धापसरणले समान अघातिया कर्मों का बहुत अधिक स्थितिबंधापसरण सम्भव नहीं है। जिस समय इन तीन धातियाकर्मोंका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हुआ उसी समय केदलज्ञानावरणको छोड़ कर ज्ञानावरणकी शेष चार प्रकृतियोंका, केवलदर्शनावरणके बिना दर्शनावरण को चक्षु-प्रचक्षु और अवधिदर्शनावरण तथा अन्तरायकर्मकी सभी पांचों प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध देशघातिरूप द्विस्थानीयसे घटकर लतारूप एक स्थानीय होने लगता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ होने पर असंख्यातगुणी हानि होना असम्भव है । अतः जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह अपने से पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा हीन १. ज.ध. पु. १३ पृ. २७८-७६ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लान्धसार | गाथा २६०-२६२ होता है, परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोका अभी भी संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नहीं हुआ, इसलिए उनका असंख्यातगुणा हीन ही स्थितिबन्ध प्रवृत्त रहता है। इन स्थितिबन्धोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध' संख्यातगुणा है । उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, उससे वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेषाधिक है। इसक्रम से संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर स्त्रीवेट उपशामित हो जाता है : ___ अब सात नो कषायोंको उपशामना एवं क्रियाविशेष सम्बन्धो कथन तीन गाथाओं के द्वारा करते हैं-- धीउपसमिदाणंतरसमयादो सत्त गोकसायाणं । उवसमगो सस्सद्धा संखेज्जदिमे गदे तत्तो ॥२६॥ णामदुग वेयणियविदिबंधो संखवस्सयं होदि । एवं सत्तकसाया उवसंता सेसभागते ॥२६१॥ णवरि य पुवेदस्स य णवकं समऊणदोरिणमावलियं । मुच्चा सेसं सव्वं उवसंतं होदि तच्चरिमे ॥२६२॥ अर्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर सात नोकषाय का उपशामक होता है। सात नोकषायसम्बन्धी उपशामना कालके संख्यातवें भाग बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोका संख्यातवर्षप्रमार्ग स्थितिबन्ध होता है। इसप्रकार शेषभागके अन्त समय में सात नोकषाय उपशान्त हो जाती हैं, किन्तु पुरुषवेदके एक समयकम दो प्रावलिमात्र नवकसमयप्रबद्धको छोड़ अवशेष सबको उपशमाता है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर अन्य स्थितिकांडक और अन्य अनुभागकाण्डक तथा अन्य स्थितिबन्ध होता है । विशेष यह है कि स्थितिकाण्डक ब अनुभागकाण्डक तो मोहनीयकर्मको छोड़कर शेष कर्मोका होता है, क्योंकि इस स्थल पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात व अनुभागधात युक्ति व सूत्र दोनोंसे निषिद्ध है, किन्तु १. ज. प. पु. १३ पृ. २८०.६२ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६२ ] लब्धिसार [ २०७ स्थितिबन्ध तो सातों ही कर्मोंका होता है । संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके होने पर सात नोकषायोंके उपशामना कालका संख्यातवांभाग व्यतीत होता है । तत्पश्चात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातवर्षसे घटकर एकबारमें संख्यातवर्ष प्रमाण हो जाता है। अब सभी कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यातवर्ष प्रमाण होता है । इस स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबंध संख्यातगुणा है, उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रागे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर संख्यात गुणा हीन अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है । इस क्रमसे हजारों स्थितिबन्धों के व्यतीत होने पर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें सात नोकषाय सर्वात्मना उपशान्त हो जाते हैं। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके एकसमय कम दो आवलिप्रमारण समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं, क्योंकि जो अन्तिम श्रावलिमें बंधे हैं उनका बन्धावलिकाल अभी व्यतीत नहीं हुआ और जो एक समयकम द्विचरमावलिमें बंधे हैं उनका उपशमनाबलिकाल अभी पूर्ण नहीं हुआ। द्विचरमावलिके प्रथमसमयमें जो समयप्रबद्ध बंधा था सो बंधावलि बीत जाने पर चरमाबलिके प्रथम समयसे लगाकर प्रत्येक समयमें एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्तिमसमय तक सर्वद्रव्य उपशमन हो जाता है । द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें जो कर्मबन्ध हुअा था उसको बन्धावलि, चरमावलिके प्रथम समयतक रहती है | अतः चरमाव लिके द्वितीय समयसे लगाकर प्रतिसमय एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्त समय पर्यन्त अन्य फालि तो उपशान्त हो जाती है, किन्तु एक फालि शेष रह जाती है । इसीप्रकार द्विचरमावलिके तृतीयादि समयोंमें बंधे कर्मोंकी बंधावलि बीत जाने पर चरमावलिके तृतीय प्रादि समयोंसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त अन्य फालियां तो उपशमित होती हैं, किन्तु क्रमशः दो-तीन-चार आदि फालियां नहीं उपशमित होती हैं। द्वि चरमावलिके अन्तिम समयमें बंधे समयप्रबद्धकी एक फालि उपशमित होती है, शेष फालियां नहीं उपशमतीं। इसप्रकार द्विचरमावलि का एक समयकम आवलिप्रमाण और चरमावलिका सम्पूर्ण प्रावलिप्रमाण द्रव्य पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अनुपशान्त रहता है । १. ज.ध. पु. १३ पृ. २८२-२८५ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] लब्धिसार [ गाथा २६३ - २६४ आगे पुरुषवेदके उपशमनकालके प्रतिम समय में स्थितिबन्धके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं तच्चरिमे पुबंधो सोलसवस्साणि संजलणगाण । तदुगाणं सेसाणं संखेज्जसदस्सवस्लाणि ॥ २६३॥ अर्थ- सवेद भाग के अन्तिम समय में पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण होता है और उससे दुगुणा अर्थात् ( १६x२ ) ३२ वर्षप्रमाण संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध होता है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थ — पहले इन कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता था । उससे संख्यातगुणी हानिरूपसे घटकर सवेदभाग के चरम समय में पुरुषवेद और चार संजय कषायोकास्थिति: १९ व ३२ वर्ष हो गया, शेष कर्मोंका तो अभी भी संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है' । ब पुरुषवेदको प्रथम स्थिति में दो प्रावलि शेष रहनेपर होनेवाली क्रियान्तर का प्रतिपादन करते हैं पुरिसस य पढमठिदी आवलिदो सुवरिदासु भागाला | पडियागाला छिण्णा पडियावलियादुदीरणदा ॥ २६४ ॥ अर्थ -- पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहने पर आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । प्रत्यावलि में से ही उदीरणा होती है । विशेषार्थ -- प्रथम और द्वितीय स्थितिके प्रदेशपु जोंके उत्कर्षण - श्रपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमणको आगाल- प्रत्यागाल कहते हैं । द्वित्तीय स्थिति प्रदेशषु जका प्रथम स्थिति में थाना आगाल है तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपुंजका प्रतिलोम रूपसे द्वितीय • स्थितिमें जाना प्रत्यागाल है । पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिमें एकसमय अधिक दो आवलि शेष रहने तक आगाल - प्रत्यागाल होता है । आवलि और प्रत्यावलि शेष रहने पर आगाल- प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं अथवा परिपूर्ण आवलि और प्रत्यावलि शेष 'रहने पर श्रागाल- प्रत्यागाल होकर पुनः तदनन्तर समय में एक समयकम दो ग्रावलि शेष रहनेपर मागाल और प्रत्यागात व्युच्छिन्न हो जाते हैं, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका श्राश्रय १. ज. ध. पृ. १३ पु. २६५ । · Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधा २६५-२६६ ] लब्धिसार [ २०६ लेकर सद्भावके अन्तिम समय में उसके अभावका विधान गाथामें किया गया है । उत्पादानुच्छेदके अनुसार विवक्षित वस्तुके सद्भावका जो अन्तिम समय है उस समयमें ही उसके अभावका प्रतिपादन किया जाता है । वहांसे लेकर पुरुषवेदको मुगथेणी भी नहीं होती । प्रत्यावलिमें से ही असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है। हास्यादि छह नो कषायोंका द्रव्य पुरुषवेद में संक्रान्त महीं होता इसका कथन आगे की गाथामें करते हैं अंतरकदादु छण्णोकसायदव्वं ण पुरिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुस्विसंकमदो ॥२६५॥ अर्थ--अन्तर करनेके पश्चात् हास्यादि छह नोकषायोंका द्रव्य पुरुषवेदमें संक्रमित नहीं होता, संज्वलनक्रोधमें टी संक्रमित होता है, क्योंकि यहां अ.तुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है । पुरुषयेवके नधक बन्ध सम्बन्धो उपशमका विधान कहते हैंपुरिसस्त उत्तणवकं असंखगुणियक्कमेण उवसमदि । संकमदि हु होणकमेणधापवत्तेण हारेण ॥२६६॥ अर्थ-पुरुषवेदके उक्त ( गाथा २६२ ) नवक समयप्रबद्ध द्रव्यको असंख्यातगणी श्रेणिके क्रमसे उपशमाता है, परन्तु पर प्रकृति में अधःप्रवृत्त संक्रम द्वारा हीन क्रमसे संक्रमाता है। विशंषार्थ- अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है (गा. २६२)। अवेदभागके प्रथम समयमें दो समयकम दो प्रावलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, क्योंकि अन्तिम प्रावलिका संपूर्ण नवकबन्ध तथा द्विचरमावलिका दो समयकम प्रावलिप्रमाण नवकबन्ध अनुपशान्त रहता है कारणकि नवक समयप्रबद्धका बन्धावलिके पश्चात् उपशमनकाल एक प्रावलिप्रमाण होता है। यहां पर प्रत्येक समयमें उनके प्रदेशपुञ्जको असंख्यातगुणी श्रेणिसे क्रमसे उपशमाता है। उनके प्रदेशपुञ्जको केवल स्वस्थानमें नहीं उपशमाता, किन्तु पर प्रकृतिमें अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा हीन क्रमसे संक्रमाता है । बन्ध रुक जाने पर गुण १. ज. प. पु. १३ पृ. २८५-८६ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० } लब्धिसार [ गाथा २६७ संक्रमको छोड़कर अधःप्रवृत्तसंक्रम कैसे सम्भव है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि बन्धके उपरत हो जाने पर भी तीन संज्वलनकषाय और पुरुषवेदके नवकबंधका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। अवेद भागके प्रथम समयमें बहत प्रदेशपुजको संक्रमाता है, तदनन्तर समयमें विशेष हीन प्रदेशपुजको संक्रमाता है, क्योंकि बन्धावलि व्यतीत होने के बाद विवक्षित समयप्रबद्धको अधप्रवृत्त भागहारसे भाजितकर जो एकभाग प्राप्त हो उसे प्रथम समयमें संक्रमित करता है । पुनः दूसरे समय में जो कि प्रथम समय में अपने द्रव्यका असंख्यातवांभाग उपशान्त सौर संक्रमित हो गया है, उससे हीन शेष उसी समयप्रबद्धको अधःप्रवृत्त भागहारके द्वारा भाजित कर जो एक भाग प्राप्त हो उसे संक्रमित करता है। इसकारण से प्रत्येक समय में विशेषहीन हो प्रदेशज संक्रमित होता हुया जानना चाहिए । यह क्रम एक समयप्रबद्धका ही है। चार प्रकारको वृद्धि और हानिरूपसे परिणत हुए योगोंके द्वारा बन्धको प्राप्त हुए नाना समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर संक्रमभावके योग्य होकर पूर्वके योगके अनुसार ही संक्रमित होते हैं इसलिए वहां विशेष हानिरूपसे संक्रमका नियम नहीं है, किन्तु संख्यातवें और असंख्यातवें भागरूपसे कदाचित् विशेषहीन और कदाचित विशेष अधिक तथा कदाचित् संख्यातगुणा हीन एवं कदाचित संख्यातगुणा, कदाचित् असंख्यातगुणा हीन, कदाचित् असंख्यातगुणा नाना समय प्रबद्ध सम्बन्धी संक्रमद्रव्य होता है। अतः एक समयप्रबद्धसे सम्बन्धित प्रदेशज ही विशेषहीन होकर संक्रमित किया जाता है । आगे अपगतबेदके प्रथम समयमें स्थिति बन्ध सम्बन्धो कथन करते हैंपढमावेदे संजलणाणं अंतोमुहत्तपरिहीणं । वस्साणं बत्तीसं संखसहस्सियरगाणटिदिपंधो ॥२६७॥ अर्थ-अपगतवेदके प्रथम समयमें चार संज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम बत्तीस वर्षप्रमारण और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजारवर्ष है । विशेषार्थ-सवेदी जीवके अन्तिम समयमें संज्वलनोंका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण ३२ वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि उस स्थितिबन्धका वहीं पर्यवसान हो जाता है । इस. १. ज. व. पु. १३ पृ. २८७-२८६ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६८-२६६ ] लब्धिसार लिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होने पर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमें अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता हुआ संज्वलनोंके पूर्व के स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्तकम स्थितिबन्धको आरम्भ करता है, क्योंकि यहांसे लेकर संज्वलनोंके स्थितिवन्धका उत्तरोत्तर अपसरण अन्तर्मुहर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणी हानिके क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ संख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए । अपगतवेदोके अन्य भी कार्य दो गाथाओंमें कहते हैंपढमावेदो तिविहं कोहे उबसमदि पुवपडमठिदी। समयाहिय आवलियं जाव य तत्काल टिदिबंधो ॥२६८॥ संजलणचउक्काणं मासचउक्कं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि हवंति णिय मेण ॥२६॥ अर्थ-प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी जीव तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है। इनकी वही पुरानी प्रथम स्थिति होती है । (पूर्वस्थिति में) जब समय अधिक प्रावलीकाल शेष रह जाता है, उस समय स्थितिबन्ध नियमसे संज्वलन चतुष्कका चार मास और शेष कर्मोंका संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थ-पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्म उपशान्त होने पर उसके नवकबन्धको यथोक्त क्रमसे उपशमाता हुअा उस अवस्था में ही तीनप्रकारके क्रोधको यहांसे उपशमाना आरम्भ करता है । पूर्व में अन्तर करते समय पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिसे विशेष अधिक संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति स्थापित की थी, गलित होने से जितनी शेष बची वही यहां पर प्रवृत्त रहती है ! जिस प्रकार आगे मानादिककी उपशामना करते समय सवेदकके कालसे एक प्रावलि अधिक अपूर्व प्रथम स्थिति की जाती है उसप्रकार यहां पर तीन प्रकारके क्रोधको उपशमानेके लिए अपूर्व प्रथम स्थिति नहीं की जाती, किन्तु रची गई वही पुरातन प्रथमस्थिति तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाने तक बिना प्रतिबन्धके प्रवत्त रहती है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त हीन होता है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है । २. क. पा. सुत्त पृ. ६६७-६८; ज. घ. पु. १३ पृ. २८६-२६० । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ) लब्धियार [ गाथा २७० इस क्रमसे जब क्रोध संज्वलनको प्रावलि-प्रत्यावलि शेष रहती है तब द्वितीय स्थितिमें से प्रागाण और प्रथम स्थिति से प्रालि न्युछिन्न हो जाते हैं। यहां पर प्रावलि ऐसा कहनेपर उदयावलिका ग्रहण होता है तथा प्रत्यावलिसे उदयाबलिके बाहरको आवलिका ग्रहण होता है । "संज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थितिमें प्रावलि-प्रत्यावलि शेष रहनेपर आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है," यह उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर कहा गया है, क्योंकि प्रथम स्थितिमें दो आवलियोंके शेष रहने तक आगालप्रत्यागाल होकर एक समयकम दो प्रावलियोंके शेष रहने पर आगाल-प्रत्यागाल की व्युच्छित्ति विवक्षित है । आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाने पर संज्वलनक्रोधका गुणश्रेणि निक्षेप नहीं होता, क्योंकि सबसे जघन्य भी गुणश्रेणि मायाम एक आवलिप्रमाण है, उससे कम सम्भव नहीं है। इसलिए प्रत्याब लिमें से ही प्रदेशपुजका अपकर्षण करके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा करता है । प्रत्याव लिमें एक समय शेष रहनेपर क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थिति उदीरगणा होतो है, क्योंकि उदयाबलि के बाहर जो एक स्थिति शेष है उसमेंसे अपकर्षणकर उदयावलि में प्रवेश कराने पर जघन्य स्थिति उदीरणा होती है । उसी समय अर्थात् संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक प्रावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर चार संज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध क्रमसे ३२ वर्षसे घटकर चार मास प्रमाण हो जाता है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कमोंके संख्यातवर्षप्रमाण पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा हीन-संख्यातगुणा हीन ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत हो जानेपर भी यहां पर उनका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमारण होता है। यहां पर स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व पूर्ववत् है'। प्रधानन्तर क्रोधद्रव्य के संक्रम विशेषका कथन करते हैं-- कोहदुगं संजलणगकोहे संछुछ दि जाव पढमठिदी। भावलितियं तु उरि संछुहदि हु माणसंजलणे ॥२७॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधमें दो प्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण ) क्रोधका तब तक संक्रमण करता है जब तक क्रोधसंज्वलनको प्रथमस्थिति में तीन प्रावलियां ( संक्रमावलि, उपशामनावलि, उच्छिष्टावलि ) मेष रहती हैं। उसके बाद मान १. ज. प. पु. १३ पृ २६०-२६३ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७१ ] लब्धिसार [ २१३ संज्वलन में संक्रमण करता है। विशेषार्थ-गाथामें जो दो प्रकारका क्रोध कहा है उससे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणक्रोधका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्यप्रकार सम्भव नहीं है । ये दोनों क्रोध संज्वलनशोधमें गुणसंक्रमणके द्वारा तबतक संक्रमित होते हैं, जब तक संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति तीन प्रावलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि इस अवस्थाके भीतर उसमें उन दोनोंके संक्रमित होने में बिरोधका अभाव है। संक्रमणावलिरूपसे प्रथमावलिको व्यतीतकर पुनः दूसरी पावलिके प्रथम समयसे उपशमनावलि कालके द्वारा उस द्रव्यको उपशमाता है। अतः तीसरी आवलिको उच्छिष्ट वलिरूप से छोड़ देता है इस कारणमे तीन पावलियां शेष रहने तक संज्वलनक्रोधमें दो प्रकारके क्रोधका संक्रम विरोधको नहीं प्राप्त होता । क्रोधसंज्वलनको प्रथम स्थिति में परिपूर्ण तीन आवलियोंका अभाव होनेपर अर्थात् एक समस्या तीन प्रावलियों के शेष पद्धतेपद दो कारके कोना गंजदलामोष में संक्रम नहीं होता, किन्तु मानसंज्वलनमें संक्रम होता है, क्योंकि दूसराप्रकार सम्भव नहीं है। उपशमनापलीके अन्तिम समयमें होने वाले क्रिया विशेषका कथन करते हैंकोहस्स पढमठिदी श्रावलिसेसे तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति कोहस्स ॥२७१॥ अर्थ --संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें एक प्रावलि शेष रहनेपर तीनों प्रकार का क्रोध उपशान्त हो जाता है, किन्तु नवक समयप्रबद्ध उपशान्त नहीं हुआ उस समय संज्वलनक्रोधका अन्तिम बन्ध व उदय होता है । विशेषार्थ-- प्रत्यावलिके उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाने पर संज्वलनशोधकी प्रथम स्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है। इसका नाम उच्छिष्टावलि है। उपशामनावलि बीत जाने पर उच्छिष्टावलिके प्रथम समयमें दो समयकम दो प्रावलि नवक समयप्रबद्धोंको छोड़कर संज्वलनक्रोधके शेष सभी प्रदेशपुज प्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त हो जाते हैं । प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे उपशमित किये जाते १. ज. प. पु. १३ पृ. २६३-६४ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] लब्धिसार [ गाथा २७२ - २७३ हुए कमसे उपशान्त होते हैं । क्रोधसंज्वलन के दो समयकम दो आवलिप्रमाण नक्क समयप्रबद्धों को उपशमाने की विधि पुरुषवेदके समान है । जब क्रोध संज्वलनकी प्रथमस्थिति में एक समयकम एक आवलि शेष रहती है तभी क्रोध संज्वलनके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न हो जाते हैं, क्योंकि इस पूर्व के समय में जब पूर्ण एक ग्रावलि प्रथम स्थितिमें शेष रह जाती है तब संज्वलनकोधका अन्तिम बन्ध व उदय होकर बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है । अतः अगले समय में संज्वलन क्रोधका प्रथम निषेक संज्वलनमान में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रामित हुए रहने से उसमें से एक-एक निषेकके कम हो जानेके कारण उच्छिष्टावलिमें से एक समयकम किया है । श्रथानन्तर पांच गाथाओं में मान त्रयका उपशम विधान निरुपित करते हैंसे काले प्रायस्ल य पमद्विदिकारदगो होदि । पढमद्विदिम्मि दव्वं असंखमुक्किमे देदि ॥ २७२ ॥ पडर्माट्ठदिसीसादो विदियादि म्हि य असंखगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अइच्छावरणमपत्तं ॥ २७३॥ अर्थ -- उसी काल में संज्वलमानकी प्रथमस्थितिका कर्त्ता व भोक्ता होता है । प्रथमस्थितिमें द्रव्य असंख्यातगुणं क्रमसे दिया जाता है । द्वितीय स्थिति के श्रादिमें अर्थात् प्रथम निषेकमें द्रव्य प्रथमस्थितिके शीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन दिया जाता है । उसके पश्चात् प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होने तक विशेषहीन क्रमसे दिया जाता है। विशेषार्थ – एक समग्रकम उच्छिष्टावलिके अतिरिक्त संज्वलनकोधकी प्रथम स्थितिको गलाकर तथा उसके बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति करके उसी समय संज्वलन - मानका वेदक व प्रथमस्थितिका कारक ( करनेवाला ) होता है । द्वितीयस्थिति में स्थित संज्बलनमानके प्रदेशपुञ्जको पकर्षित कर उदयादि गुणश्रेणिरूप से निक्षिप्त करता हुआ उसी समय प्रथम स्थितिका करने वाला होकर मानका वेदक होता है । द्वितीय स्थिति के प्रदेशपु ंजको प्रपकर्षणभागहारका भागदेकर एक भागको पकर्षितकर मानसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको करता हुआ उदय में अल्प प्रदेशपु जको देता है । तदनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेश को देता है । इसप्रकार श्रसंख्यातगुणे श्रेणिक्रमसे प्रथम स्थितिके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक देता है । यहां पर प्रथम स्थितिकी लम्बाई श्रन्तर्मुहूर्त Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७४ ] लब्धिसार [ २१५ प्रमाण होकर मानसंज्वलनके वेदककालसे एकावलिप्रमाण अधिक होती है । अपकर्षित द्रव्यका असंख्यातवाभाग प्रथम स्थितिमें दिया जाता है, शेष बहुभागको द्वितीय स्थिति में देता हुआ द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें असंख्यातगुरणे हीन प्रदेशपुजका सिंचन करता है, क्योंकि प्रथमस्थिति के गुणश्रेरिणशीर्षरूपसे अवस्थित अन्तिम निषेक में असंख्यात समयप्रवद्ध निक्षिप्त करता है। परन्तु द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकमें निक्षिप्त किये जाने वाले द्रव्यका प्रमाण एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, क्योंकि वह अपकषितद्रव्यको डेढगुणहानिसे भाजित करने पर प्राप्त हुआ है। इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिप्रमाण स्थितिको छोड़कर अन्तिम स्थितितक विशेष (चय ) हीन द्रव्यको निक्षिप्त करता है। इसीप्रकार मानवेदकके द्वितीयादि समयों में प्रथम और द्वितीय स्थितिमें प्रदेशोंका विन्यास क्रम होता है। इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेशपुजका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेरिणका जितना प्रआयाम गलित हो जावे उससे शेष रहनेवाले प्रायाममें निक्षेप होता है । जिस समय क्रोधसंज्वलनके बन्ध-उदय व्युच्छिन्न होते हैं उस समय तीनप्रकार (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) मानका आयुक्त (उद्यत) क्रिया द्वारा उपशामक होता है । उस समय तीन संज्वलन (संज्वलन मान-माया-लोभ) का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम चार मास होता है और शेष कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्ष होता है, क्योंकि अनन्तर पूर्व संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूर्ण चार माह कहा गया है और बंधापसरणका प्रमाण अन्तमुहर्त मात्र है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध यद्यपि संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है तथापि अनन्तरपूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगुरणा हीन है । इसप्रकार तीन मानके उपशमको प्रारम्भ करके प्रतिसमय असंख्यातगुरणी श्रेणिरूप से उपशमाने वालेके संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके द्वारा संज्वलनमानकी प्रथमस्थिति क्षीण होती जाती है । माणदुगं संजलग्णगमाणे संछुइदि जाव पढमठिदी। श्रावलितियं तु उवरि माया संजलणगे य संछुहदि ॥२७४। १. क. पा. सु. पृ. ६६६ सूत्र २१६-२०; ज. प. पु. १३ पृ. २६७-६८; ज.ध. मूल पृ. १८५४ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. २६५-२६८ । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २७५-२७६ अर्थ-मानसंज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक प्रावलि शेष रहने पर तीन (मान, माया, लोभ) संज्वलनका स्थितिबन्ध दो मास प्रमाण होता है। शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध क्रोधके आलाप सदृश (संख्यातहजार वर्षप्रमाण) है। विशेषार्थ-प्रत्यावलिमें एकसमय शेष रहनेपर संज्वलनमान-माया-लोभका स्थितिबन्ध दो माहप्रमाण होता है । शेन कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है जो पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणाहीन है'। माणस्स य पढमठिदी सेसे समयाहिया तु मावलियं। तियसंजलणगबंधो दुमास सेसाण कोह मालावो ॥२७५।। अर्थ - जब तक प्रथमस्थितिमें तीन श्रावलि शेष रहती हैं तब तक दो (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानाबरण) प्रकार मानको संज्वलनमान में संक्रमित करता है, उसके बाद संज्वलन माया में । विशेषार्थ-मान संज्वलनकी प्रथमस्थितिके तीन प्रावलि शेष रहने तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानाबरणरूप दो प्रकारके मानको संज्वलनमानमें संक्रमित करता है । मान संज्वलनकी प्रथमस्थितिके एक समयकम तीन आवलिप्रमाण शेष रहनेपर इन दो प्रकारके मानको संज्वलनमानमें संक्रांत नहीं करता है, किन्तु मायासंज्वलनमें संक्रान्त करता है । संज्वलनमानको भी संज्वलनमायामें संक्रान्त करता है। विस्तार पूर्वक कथन संज्वलनक्रोधके समान है। इससे अागे फिरभी एक समयकम एक प्रायलिप्रमाण प्रथमस्थितिको गलाकर दो प्रावलि ( प्रत्यावलि और उदयावलि ) के शेष रहनेपर प्रागाल और प्रत्यागाल व्यच्छिन्न हो जाते हैं । उदयावलिके ऊपरकी जो दूसरी पावलि है वह प्रत्यावलि कही जाती है। तदनन्तर पुनः एक समयकम एक प्रावलि अर्थात् प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहने पर जो कार्य होता है उसको बतलाते हैं माणस्स य पढमठिदी श्रावलिसेसे तिमाणमुवसंतं । ण य णय तत्थंतिमबंधुदया होति माणस्त ॥२७६।। १. ज. प. पु. १३ पृ. २६६ । २. ज. प. पु. १३ पृ. २६८-२६६ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७७ ] लब्धिसार [ २१७ - अर्थ – संज्वलनमानकी प्रथम स्थितिमें प्रावलिकाल शेष रहनेपर नवीन समयप्रबद्ध के बिना अन्य तीन मानका सर्व द्रव्य उपशान्त हो चुकता है । उसी समय संज्वलन - मानक बन्ध व उदयव्युच्छित्ति हो चुकती है । विशेषार्थ -- मानसंज्वलनकी प्रथमस्थितिकी प्रत्यावलिके अन्तिम समय में एक समयकम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्धों को छोड़कर तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण-संज्वलन ) मानका सभी स्थिति अनुभाग और प्रदेश सत्कर्म सर्वोपशमनारूपसे उपशान्त हो जाता है, क्योंकि यथाक्रम उपशमाए जाने वाले मानका उस समय निरवशेष उपशान्तरूपसे परिणमन देखा जाता है । उच्छिष्टावलिको गौण करके मानसंज्वलनके एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धको छोड़कर ऐसा कहा गया है तथा इसी समय मानसंज्वलनकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है । इसी समय संज्वलनमानके बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका आलम्बनकर ऐसा बन जाता है' । माया की प्रथम स्थिति करनेका निर्देश करते हैं से काले मायाए पडमट्ठिदिकारवेदगो होदि । माणस्स य आलाशे दब्वस्स विभंजणं तत्थ ॥ २७७॥ श्रर्थ - उसी समय ( संज्वलनमानकी प्रथम स्थिति एक ग्रावलिमात्र शेष रह जाने पर) संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिका कारक व वेदक होता है । संज्वलनमायाके द्रव्यका विभाजन आदि मानके आलापके समान है । विशेषार्थ - मानवेदकके अन्तिम समयके बाद तदनन्तर समय में अथवा प्रत्यावलिके अन्तिम समयके अनन्तर पश्चात् संज्वलनमानकी प्रथम स्थिति एक अवलि ( उच्छिष्टावलि ) मात्र शेष रह जानेपर माया संज्वलनके प्रदेशपुंजका प्रपकर्षणकर तथा उदयादि गुणश्रेणिरूपसे उसका निक्षेप करता हुआ मायासंज्वलनकी अन्तर्मुहूर्तवाली प्रथम स्थितिको उत्पन्न करके माया संज्वलनका वेदक होता है । मायासंज्वलनकी प्रथम स्थिति सम्बन्धी लम्बाई एक आवलि अधिक अपने वेदककाल प्रमाण होती है । माया वेदकसे लेकर यह तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन ) मायाका १. अ. ध. पु. १३ पृ. २६६-३०० । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ ] लब्धिसार [ गाथा २७८ उपशामक होता है | माया और लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध' श्रन्तर्मुहूर्तकम दो माह प्रमाण होता है । अनन्तरपूर्व व्यतीत हुए दो माह प्रमाण स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त घट कर इससमय दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध होता है । शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण है जो पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुरणा हीन है । इन्हीं कर्मोंका स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवभागप्रमाण है और अनुभाग काण्डक अनन्तगुणो हानिरूप हैं । उससमय मान संज्वलनका जो एक समयकम उदयावलिप्रमारण सत्कर्म शेष रहा वह स्तिकसंक्रमण द्वारा मायाके उदय में विपाकको प्राप्त होता है । उदयरूपसे समान स्थिति में जो संक्रम होता है वह स्तिबुकसंक्रमण है । मायावेदकके प्रथम समय में पूर्व में कहे गये मानसंज्वलनके एक समयक्रम दो श्रावलिप्रमारण नवकबन्ध के समयबद्धों के प्राद्य ( प्रथम ) समयप्रबद्ध का निर्लेप होता है, इसलिये उसे छोड़कर दो समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध प्रत्येक समयमें श्रसंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाए जाते हुए मायावेदक कालके भीतर एक समयकम दो श्रावलि कालके द्वारा पूर्णरूप से उपशमाए जाते हैं, क्योंकि प्रत्येक समय में एक-एक समयप्रबद्ध के उपशामन क्रियाकी समाप्ति हो जाती है। मानसंज्वलन के द्रव्यको विशेष हीन श्रेणिक्रमसे संज्वलन मायामें संक्रमण करता है । ये सर्व क्रिया मायावेदकके प्रथम समय में होती हैं । अब मायाश्रयके उपशमविधान के लिए ३ गायाएं कहते हैं Pash ३. मायाए पढमटिदी सेसे समयादियं तु आवलियं । मायालोद्दगबंधो मासं सेसाण कोइ भालावो ॥ २७८ ॥ १. माया वेदक के प्रथम समय का स्थितिबन्ध है । २. ज.ध.पु ०३ पृ. ३०१ । उदयरूप से अर्थात् उदीयमान प्रकृतिके रूप में प्रनुदय प्रकृतिका स्तुविक संक्रमण होता है । समान स्थिति में अर्थात् जिस उदीयमान निषेकसे ऊपर वाले अनुदय निषेकका भविष्य में उदय भाने वाले निषेकमें संक्रमण होता है वह उस उदयसे ऊपर वाले भिषेक में ही होगा । अर्थात् समान निषेक स्थिति में संक्रमण नहीं होगा यह तात्पर्य है । ज.ध. पु. १३ पृ. ३०० से ३०२ क. पा. सु. पृ. ७०० । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७६-२८० ] लब्धिसार [ २१६ अर्थ-मायाको प्रथम स्थितिमें एकसमय अधिक प्रावलिकाल शेष रहनेपर संज्वलनमाया और लोभका तो मासप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तथा शेष कोका क्रोधवत् कथन जानना। मायदुर्ग संजलणगमायाए छुइदि जाव पडमठिदी। प्रावलितियं तु उवरि संछुहदि हु लोहसंजलणे ॥२७६॥ अर्थ--संज्वलनमायाका प्रथमस्थिति में जबतक तीन पावलियां शेष रहतो हैं तबतक मायाद्विक (अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानरूप माया) के द्रव्यको संज्वलन मायामें ही संक्रमित करता है तथा उससे आगे संक्रमणावली में उनके द्रव्यका संज्यलनलोभमें संक्रमण करता है। विशेषार्थ- सायासंजनान्द नाही जामाथिति में एक रुपयकम तीन आवलियों के शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण रूप दो प्रकारकी मायाके द्रव्यको माया संज्वलनमें संक्रान्त नहीं करता, किन्तु संज्वलन लोभमें संकान्त करता है । मायाए पढमठिदी आवलिलेसेत्ति मायमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति मायाए ॥२८॥ अर्थ-मायाकी प्रथमस्थिति में आवलिप्रमाण काल अवशिष्ट रहनेपर उपशमनावलिके अन्तिम समयमें नवक समय प्रबद्ध बिना अन्य सर्व मायाका द्रव्य उपशमित होता है । उसी समय में संज्वलनमायाका बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होता है । विशेषार्थ-द्वितीय उपशमनावलिके अन्तिम समय में एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धको छोड़कर तीनप्रकार (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और संज्वलन) मायाका अन्तिम उपशामक होता है । उस समय संज्वलनमायाके बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि उत्पादानुच्छेद में यह कथन बन जाता है। माया संज्वलन की प्रथम स्थितिका एक समयकम एक प्रावलिप्रमाण द्रव्य शेष है, वह स्तिक संक्रम के द्वारा लोभसंज्वलनमें विपाकको प्राप्त होता है। १. ज. प. पु १३ पृ. ३०३ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ३०३-३०४ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० । लब्धिसार ।२८१-२८२ अब लोभना उपशमविधामका कश्म दो गायाओं में करते हैं-- से काले लोहस्स य पढमट्ठिदि कारवेदगो होदि । ते पुण बादरलोहो माणं वा होदि णिक्खेमो ॥२८१॥ अर्थ---उसो समय संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिका वेदक व कारक होता है । मानकी विधि के अनुसार बादरलोभका निक्षेप होता है । _ विशेषार्थ- उसी समय अर्थात् माया संज्वलनकी प्रथम स्थिति उच्छिष्टावलि शेष रह जाने पर द्वितीय स्थितिसे लोभसंज्वलनके प्रदेशजका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ लोभसंज्वलनको प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापितकर बेदन करता है। यहां से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय पर्यन्त जो लोभवेदक काल है, उस कालके तीन भाग करके उनमेंसे साधिक दो त्रिभागप्रमाण वादर लोभसंज्वलनको प्रथम स्थिति इस समय की है, क्योंकि यहां से उपरिम समस्त लोभवेदककालके कुछकम तीसरे भागप्रमाग सूक्ष्मलोभ वेदक काल होता है । सूक्ष्मलोभ वेदककालसे साधिक दूने बादरलोभवेदककालको एक प्रावलिप्रमाण अधिक करके बादरसाम्परायिक जीव प्रथमस्थिति करता है । इसप्रकार इतनी प्रथम स्थितिको करके तीनप्रकारके लोभको उपशमाने बाले जोवके लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तकम एकमास होता है, क्योंकि अन्तिम समयवर्ती माया वेदकके स्थितिबन्ध पूरा एक मास होता है उससे एक अन्तर्मुहूर्त घटाकर इस समय लोभसंज्वलनके स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता है । शेषकर्मों का स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगणा हीनरूपसे प्रवृत्त होता हुआ अभी भी संख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है क्योंकि संख्यात हजारवर्षोंके अनेक भेद होते हैं । ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंका प्रमाण पूर्वोक्त पल्योपमका असंख्यातवांभाग व अतन्तगुणी हानिरूप होता है। पढमट्ठिदि अलुते लोहस्स य होदि दिणुपुधत्तं तु । यस्ससहस्सपुधत्तं सेसाणं होदि ठिदिबंधो ॥२२॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथम स्थिति-अर्थ के अन्तमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिवस और शेष कर्मोका पृथक्त्व हजार वर्षप्रमाण होता है । १. ज. ध पु. १३ पृ ३०४-३०६ व क. पा सु. पृ. ७०१-७०२ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८३ ] लविसार [ २२१ विशेषार्थ - तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके हो जानेपर बादरलोभकी प्रथम स्थितिका अर्धभाग व्यतीत हो जाता है । अर्धभागसे कुछ अधिक प्रभागका होता है उनके अति समय में लोभसंज्वलनका स्थितिवन्ध घटकर दिवस पृथक्त्व प्रमाण हो जाता है । शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्ष प्रमाणसे घटकर हजारवर्ष पृथक्त्वप्रमाण होता है, परन्तु उस समय अनुभाग सत्कर्म स्पर्धकगत ही होता है ' । -37 अब संज्वलनलोभके अनुभागसस्त्रको कृष्टिकरण विधि कहते हैंविदिय लोभावरफड यट्ठा करेदि रसकिहिं । इगिफगद संखाणमांत भागमिदं ॥ २८३ ॥ अर्थ - (बादरलोभसंज्वलनकी प्रथम स्थितिके) दूसरे अर्धभाग में लोभके जघन्यस्पर्धक के नीचे अनुभाग कृष्टियोंको करता है। उनका प्रमाण एक स्पर्धककी वर्गगाओंके अनन्त भागप्रमाण है । विशेषार्थ - बादरलोभसंज्वलन की प्रथम स्थिति के प्रथम अर्धभाग के व्यतीत हो जाने पर द्वितीय अर्धभाग में लोभसंज्वलन के अनुभाग सत्कर्म सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके नीचे श्रनन्तगुरणी हा निरूपसे अपवर्तितकर अनुभागकृष्टियोंको करता है । सबसे जघन्य लतासमान स्पर्धककी प्रथमवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदोंसे अनन्तगुणे हीन अनुभाग युक्त सूक्ष्मकृष्टियोंको करता है । एक स्पर्धककी वर्गणात्रोंके आयाममें तत्प्रायोग्य अनन्तसे भाजितकर वहां एक खण्ड में जितनी वर्गणाएं प्राप्त हों तत्प्रमाण कृष्टियां बनती हैं । इतना विशेष है कि उपशमश्रेणि में स्पर्द्ध कगत लोभका बादरकृष्टिकरण न होकर सीधा सूक्ष्मकृष्टिकरण होता है । यह ज्ञातव्य है कि बादरलोभ स्पर्द्धकगत होता है तथा उसके सूक्ष्मकरणकी प्रक्रिया ही सूक्ष्मकृष्टिकरण कहलाती है । १. क. पा. सु. पृ. ७०१-७०२; ज. ध. पु. १३ पृ. ३०६ । २. से काले विदियतिभागस्स पढमसमये लोभसंजलखाणुभागसंत कम्मस्स जं जहणफय तस्स हेट्ठादों अणुभट्टी करेदि । तासि पमाणमेवफद्दय वग्गरपाणमांत भागो (ज. घ. मू. पू. १८५६ ) ज.ध. पु. १३ पृ. ३०७-८ ॥ क. पा. सुक्त पृ. ७०२ । ३. ४. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] लब्धिसार { गाथ २८४ आगे संज्वलनलोभ सम्बन्धी कृष्टियोंको निक्षेपणविधि बताते हैंश्रोक्कड्डिदइगिभागं पल्लासंखेज्जखंड दिगिभागं । देदि सुहमा किट्टिनु फलमो रेल मार्ग ॥२८४॥ अर्थ-(संज्वलनलोमके द्रव्यको अपकर्षण भागहार द्वारा भाजितकर उसमें से) एक भाग अपकषित द्रव्य है । इसको पल्य के असंख्यातवेंभागसे खण्डितकर उसमें से एक भागको सूक्ष्मकृष्टियों में देता है, शेष बहुभागको स्पर्धकोंमें देता है । विशेषार्थ-संज्वलनलोभके सर्व सत्त्वरूप द्रव्यको अपकर्षण भागहार का भाग देकर उसमें से एक भागप्रमाण द्रव्यको पुनः पल्पके असंख्यातवेंभागका भाग दिया । उसमें से बहुभागप्रमाण द्रव्यको पृयक् रखकर एक भागप्रमाण द्रव्यको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाता है । “अद्धाणेण सत्यधणे खंडिदे"' इत्यादि करणसूत्र विधान द्वारा उस एक भागप्रमाण द्रव्य में कृष्टियोंके प्रमाणरूप कृष्टयायामका भाग देने से मध्यधनका प्रमाण प्राता है । इस मध्यधनको एक कम कृष्टिआयामके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देने पर चयका प्रमाण प्राप्त होता है । उस चयप्रमाणको दोगुणहा निसे गुणा करने पर आदिवर्गणाके द्रव्यका प्रमाण आता है । इतने द्रव्यको तो प्रथमकृष्टिमें निक्षिप्त करता है जिससे प्रथमकृष्टि उत्पन्न होती है । यह प्रथमकृष्टि प्रथमसमयमें की गई कृष्टियों में जघन्यकृष्टि है। तथा इससे द्वितीयादि कृष्टियों में एक-एक चयप्रमाण हीन द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार एककम कृष्टिनायामप्रमाण चयोंसे हीन प्रथमकृष्टिप्रमाण द्रव्यको अन्तिम कृष्टि में निक्षिप्त करता है । अब इन कृष्टियों में शक्तिका प्रमाण कहते हैं पूर्व स्पर्धकोंके जघन्यवर्गमें अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाण को कृष्टिायामका जो प्रमाण है उतनीबार अनन्तका भाग देने पर प्राप्त लब्धके बराबर प्रथमकृप्टिमें अनुभागके अयिभानप्रतिच्छेद हैं तथा द्वितीयादि कृष्टि में क्रमसे अनन्तगणे १. प्रद्धापण सम्बधणे खंडिदे मज्झिमधरणमागच्छदि" यह पूरा करणसूत्र है इसका अभिप्राय यह है कि सर्वधनको अध्वानसे खण्डित करने पर मध्य मधन पाता है। अत: विवक्षित गुरगहानिका सर्व द्रव्य - गुरगहानि आयाम = मध्यमधन (गो. क. गा. १५६ की टीका) या (मध्वान) या (अध्वान) २. "तं रुऊराद्धाण गणेगा रिगसेयभागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचयं" (ल. सा. गा.७१-७२) -अर्थात् मध्यधनमें एक कम गच्छका प्राधा दो गुरमहानि (निषेक भागहार) में से घटाने पर जो प्राबे उसका भाग देने पर चय प्राता है। अर्थात् चय==मध्यधन- [दो गुणहानि-(गच्छ-१)।२] . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८५ ] लब्धिसार { २२३ अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद हैं। इसलिये एककम कृष्टिायाममात्र बार अनंतसे गुणा करने पर अन्तिमकृष्टि में पाये जाने वाले ये अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी जघन्यवर्गके अनन्तवेंभागप्रमाण है । इसप्रकार प्रथम समय में की गई सूक्ष्मकृष्टि होती है। अपकर्षित किये गये द्रव्य में बहभागरूप जो द्रव्य पृथक स्थापित किया था उनके द्रव्यको पूर्वमें सत्तारूप पाये जाने वाले पूर्वस्पर्धक सम्बन्धी नानागुणहानिमें निक्षिप्त करता है। "दिबड्ढगुणहारिणभाजिदे पढमा" इत्यादि करणसूत्र विधानसे उस बहुभागप्रमाण द्रव्यको अनुभाग सम्बन्धी साधिक डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर जो लब्धरूप द्रव्य प्राप्त हो उसको प्रथममुगाहानिकी प्रथमवर्गणामें निक्षिप्त करता है । तथा द्वितीयादि वर्गणाओंमें एक चयहीन क्रम सहित द्रव्य निक्षिप्त करता है । द्वितीयादि गुणहानियोंकी बर्गणाओंके क्रमसे पूर्वगुणहानिसे आधा-आधा द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार सूक्ष्मकृष्टिकरण कालके प्रथमसमय में अपकर्षितद्रव्यको निक्षिप्त करता है। यहां अन्तिमकृष्टिमें निक्षिप्त द्रव्यसे पूर्वस्पर्धकको जघन्य वर्गणामें निक्षिप्तद्रव्य अनन्तगुणा हीन जानना। "कृश' तनुकरणे धातुके आश्रयसे 'कर्षणं कृष्टिः' अर्थात् कर्मपरमाणुओंकी अनुभागशक्तिका कृश करना-घटाना कृष्टि है । अथवा 'कृश्यत इति कृष्टिः' के अनुसार प्रतिसमय पूर्व स्पर्धककी जघन्य वर्गणासे भी अनन्तगुणी हीन अनुभागरूप वर्गणाको कृष्टि कहते हैं। अब द्वितीयादि समयोंमें निक्षेपणका कथन करते हैंपडिसमयमसंखगुणा दव्वादु असंखगुणविहीणकमे । पुवगहेट्ठा हेट्ठा करेदि किट्टि स चरिमोत्ति ॥२८५॥ अर्थ-असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे अपकर्षित द्रव्यमें से प्रतिसमय की गई कृष्टिका प्रमाण पूर्व-पूर्व कृष्टियोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणा घटता होता है । यह क्रम अन्तिम समय तक जाता है। विशेषार्थ- कृष्टिकरण कालके प्रथम समय में जो कष्टियां की गई चे अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होकर एक स्पर्धककी वर्गणानोंके अनन्तवें भागप्रमाण है तथा वे बहुत हैं। पुनः तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] सब्धिसार { गाथा २८६ कृष्टियोंके नीचे जो अपूर्वऋष्टियां उत्पन्न की जाती हैं वे उनसे असंख्यातगुणी हीन जानना चाहिए । इसप्रकार कृष्टिकरण कालका अन्तिमसमय प्राप्त होने तक प्रतिसमय जो अपूर्वष्टियां रची जाती हैं वे अनन्तरपूर्ववर्ती कृष्टियोंसे असंख्यातगुणो हीन होती हैं, क्योंकि अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको ही अपूर्वकृष्टियोंमें आगमानसार सिंचित कर शेष बहभागप्रमाण द्रव्यको उपरिम पूर्वको ऋप्टियों में और स्पर्धकोंमें अपने-अपने विभागानुसार विभाजितकर निषेकोंकी रचना करता है । प्रथम समयमें कृष्टियों में सबके जोड़ रूपसे निक्षिप्त हुआ द्रव्य अपकर्षित किये गए समस्त द्रव्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण होकर सबसे अल्प हो जाता है। तदनन्तर दूसरे समयमें विशुद्धिके माहात्म्यवश असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उसमें से असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्यको ग्रहणकर पूर्वानुपूर्वीरूपसे स्थित कृष्टियोंमें सिंचित किया जाने वाला द्रव्य पूर्वके द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि तत्काल अपकर्षित किये जाने वाले द्रव्य में से कृष्टियोंमें दिये जाने वाले द्रव्यको उसीके प्रतिभाके अनुसार प्रवत्ति देखी जाती है । इसीप्रकार अन्तिमसमयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयोंमें भी प्ररूपणा करना चाहिए । अथानन्तर कृष्टिगत द्रध्यों के विभागका निर्देश करते हैंहेटासीसे उभयगव्वविसेसे य हेटुकिट्टिम्मि । मझिमखंडे दबं विभज्ज विदियादि समयेसु ॥२८६॥ अर्थ--कृष्टिकरणकालके द्वितीय समयमें अपकर्षित द्रव्यको १. अधस्तन शीर्ष विशेषोंमें २. उभय द्रव्य विशेषोंमें ३. अधस्तनकृष्टियोंमें ४. मध्यम खण्डोंमें । इसप्रकार चारप्रकारके विभागसे निक्षिप्त करता है । विशेषार्थ-पूर्वसमयमें की गई कृष्टियोंमें से प्रथमकृष्टिमें बहुत परमाणु हैं । द्वितीयादि कृष्टियोंमें एक-एक चयसे हीन क्रम लिये परमाणु हैं । यहां पूर्वकृष्टियों में सम्भावित चयका प्रमाण लाकर द्वितीयकृष्टिमें एक चय, तृतीयकृष्टिमें दो चय, चतुर्थकृष्टिमें तीन चय ऐसे क्रमसे एक-एक बढ़ते हुए चयप्रमाण परमाणु उन द्वितीयादि कृष्टियों में मिलाने पर सर्वकृष्टियां प्रथमकृष्टिके समान हो जाती है इसप्रकार जितना १. ज.ध.पु. १३ पृ. २०८-२०६ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२५ द्रव्य (पूर्वकृत कृष्टियोंको समद्रव्यवाली बनानेके लिए) दिया गया उसका नाम अधस्तन शीर्ष विशेष द्रव्य है । जिस देय द्रव्य के देने से समस्त पूर्वष्टियां प्रथमकृष्टिके समान हो जाती हैं, उस देय द्रव्य को प्राप्त करनेका विधान बताते हैं- पूर्व समय में जो कृष्टिमें द्रव्य दिया उनको पूर्वसमयमें कृतकृष्टिके प्रमाणमात्र गच्छका का, भाग देने पर मध्यमधन आता है । उसे एक कम गच्छके आधे से हीन दोगुणहानिसे भाजित करने पर एक चय (विशेष) का प्रमाण प्राता है। वहां एक १. विशेषार्थ गत उक्त कथनका स्पष्टीकरण अंकगणितीय दृष्टिसे संदृष्टि बनाकर निम्न प्रकार किया जा सकता हैमानाकि प्रथमसमयकी पूर्वकृष्टियां ८ हैं। तथा प्रसंख्यात-२ मानने पर द्वितीय समयमें की गई कृष्टियां ८२-४ हुई। मानाकि प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंके लिए अपकृष्टद्रव्य १६०० परमाण हैं तथा द्वितीय समयमें कृष्टियों के लिए अपकृष्टद्रव्य ३९२० परमाणु हैं । ऐसी स्थिति में प्रथमसमयकृत कृष्टियां इसप्रकार बनेंगी १४४ । चरमकृष्टि १६२ --- प्रथमसमयमें की गई कृष्टियां -- कृष्टियां ------ २०८ यहां चयका प्रमाण १६ है अत: यहां द्वितीयकृष्टिमें ३२ अर्थात् दो चय, तृतीयकृष्टिमें ४८ पर्थात् तीन चय इत्यादि । इसप्रकार मिलाने पर प्रथम समयकी पाठों कृष्टियों में द्रव्य क्रमश: २५५-२५६ अर्थात् प्रत्येक कृष्टिमें समान हो जाता है । इसी को निम्न संदृष्टिमें दिखाया है २४० | द्वितीयकृष्टि २५६ । प्रथमकृष्टि पूर्वकृष्टि । वि. द्रश्य यहां चय का प्रमाण-१६ - । अधस्तन शीर्ष परिणामत: सर्वत्र समद्रव्य १४४ + ] सातचय - १६० + छ: चय = २५६ १७६ पांच चय १६२+ चार चय = २५६ २०८ तीन चय २५६ दो चय = २५६ २४०+ एक चय = २५६ + पूर्वकृष्टिद्रव्य+अघस्तन विशेषद्रव्य (चयधन) =१६००+ २८, चयधन अर्थात् ४४८ -२०४८ [२५६४५=२०४८ सर्वत्र समद्रव्य] ++ + + + Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ } [ गाथा २६६ चयको आदिरूप स्थापित करना, क्योंकि द्वितीयकृष्टिमें एक चय देना है । एक चय उत्तर ( प्रागे) स्थापित करना; क्योंकि, तृतीयादि कृष्टियों में क्रमशः एक-एक चय अधिक देना है । तथा एककम पूर्वकृष्टि प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए, क्योंकि प्रथम कृष्टि में चय नहीं मिलाना है । ऐसे स्थापित करके “पदमेगेग विहीण" इत्यादि श्रेणिव्यवहाररूप गणितसूत्र से एक कम गच्छको दो का भाग देकर, उसको ( लब्धको) उत्तरसे ( जो कि एक चयरूप है, उससे ) गुणा करके उसमें प्रभव अर्थात् आदिके एक चयको मिलानेपर तथा फिर गच्छसे गुणा करने पर चयधन प्राप्त होता है । अंकसंदृष्टि की अपेक्षा -- जैसे एक कम कृष्टिप्रमाण गच्छ ७, इसमें से एक घटाने पर छः आये । ६ में २ का भाग देनेपर ३ आये । इसे चय ( १६ ) से गुणा करनेपर ४८ प्राये । इसमें प्रभव (एक चय यानी १६ ) को मिलाने पर ६४, पुनः इसको गच्छ ( ७ ) से गुणा करने पर ४४८ वयधन होता है । इस विधानसे जो प्रमाण द्यावे उतना अधस्तन शीर्ष विशेषद्रव्य जानना' । अब जो पूर्वकृष्टि में से प्रथमकृष्टिका प्रमाण था उसीके समान १. इसके ( पूर्व ॠष्टिके) नीचे अपूर्वकृष्टिकी रचना करता है वे ४ हैं तथा * तुल्य-तुल्य ही हैं अर्थात् २५६ - २५६ परमाणु प्रमाण हैं अतः द्वितीय समय में श्रधस्तन कृष्टिद्रव्य २५६४४८१०२४ हुआ; तब संदृष्टि इसप्रकार होगी चरमपूर्वकृष्टि युक्त हैं । अधस्तनशीषं विशेष द्रव्य से प्रथमसमयकृत पूर्व कृष्टियां जो कृष्टियां समयकृत अपूर्व द्वितीय - २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ लब्धिसार — -प्रथमपूर्वकृष्टि चरम अपूर्वकृष्टि प्रथम प्रपूर्वकष्टि । अपूर्व समपट्टिका द्रव्य Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२७ प्रमाण लिये जो विवक्षित समयमें अपूर्व कृष्टिकी उनमें समान प्रमाण लिये समपट्टिकारूप द्रव्य देना चाहिए, इसका ही नाम अधस्तनकृष्टिद्रव्य है । इस द्रव्यको देनेपर अपूर्वकृष्टियां प्रथमपूर्वकृष्टिके समान हो जाती हैं। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पूर्वोक्त पूर्वकृष्टि सम्बन्धी चयको दो गुणहानि से गुणा करने पर पूर्वकृष्टियों में से प्रथमकृष्टिके द्रव्यका प्रमाण प्राता है सो एक कृष्टिका द्रव्य इतना है तो समस्त अपूर्वकृष्टियोंका कितना होगा? ऐसे त्रैराशिकसे उस प्रथमपूर्वकृष्टिके द्रव्यको समस्त अपूर्वकृष्टिके प्रमाण से गुणा करनेपर अघस्तनकृष्टिका द्रव्यप्रमाण होता है । यहां, प्रथम समयमें की गईं कृष्टियों के प्रमाणको असंख्यातगुणे अपकर्षणभागहारका भाग देने पर द्वितीय समयमें की गई कृष्टियोंका प्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार पूर्वोक्त अधस्तनशोर्षविशेषद्रव्य और अधस्तनकृष्टि द्रव्य देने पर समस्त पूर्वअपूर्वकृष्टि समान प्रमाण लिये हो गईं। वहां अपूर्वकृष्टिकी प्रथमकृष्टिसे लगाकर ऊपर-ऊपर अपूर्वकृष्टि स्थापित करके फिर उनके ऊपर प्रथमादि पूर्वकृष्टि स्थापित करनी चाहिए । इसप्रकार स्थापित करके चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ करने के लिये' सर्वकृष्टि सम्बन्धी सम्भवचयका प्रमाण लाकर अन्तकी पूर्वकृष्टिमें एक चय, उसके नीचे उपान्त्यपूर्वकृष्टि में दो चय; ऐसे क्रमसे एक एक चय अधिकाधिक करते हुए प्रथम अपर्वकष्टि पर्यन्त देना । इसीका नाम उभयद्रव्य विशेषद्रव्य है । इसे देने पर समस्त पूर्व अपर्वकष्टि के चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ होता है। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पूर्व समयमें कुष्टिमें जो द्रव्य दिया था और इस विवक्षित समयमें जो कष्टिमें देने योग्य द्रव्य है, इन दोनोंको मिलानेपर जो द्रव्यप्रमाण हुआ उसको पूर्वापूर्व (पर्वअपूर्व) कृष्टियोंके योगरूप गच्छसे विभक्त करनेपर मध्यमधन प्राप्त होता है। इसको एककम गच्छके आधेसे हीन दोगुण हानिसे विभक्त करनेपर यहांके चयका (विशेषका) १. अब इनको समान द्रव्यरूप स्थितिको मिटाकर चय घटता क्रमरूप गोपुच्छ को करने के लिए निम्नानुसार द्रव्य मिलाते हैं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] लब्धिसार [ गाथा २८६ प्रमाण प्राता है । अब एकचय को स्थापितकर और एक चय उत्तर (आगे) स्थापित कर तथा पूर्व अपूर्वकृष्टिप्रमाण गच्छ स्थापितकर "पदमेगेणविहीणं" इत्यादि सूत्रके अनुसार एककम गच्छके आधेको चयसे गुणित करके उसमें चय मिलाकर उसको चयसे गुणित करने पर सर्व उभय द्रव्य विशेष द्रव्य होता है तथा जो विवक्षित समयमें कृष्टिरूप परिणमावने योग्य द्रव्य अपकृष्ट किया उसमें से अधस्तनशीर्ष विशेषद्रव्य, अधस्तनकृष्टिद्रव्य और उभयद्रव्यविशेषद्रव्य घटाने पर; अवशिष्ट रहे द्रव्यको समस्त पूर्व-अपूर्व कृष्टियों में समान भाग करके देना? इसीका नाम मध्यमखण्डद्रव्य है। इसको देने पर उस अपकृष्टद्रव्यकी समाप्ति होती है तथा समस्त पूर्वापूर्वकृष्टियोंमें चय घटते क्रमरूप द्रव्य T] विशेषतय = गोपुच्छाकारता चरमपूर्वकृष्टि - २५६ + एक चय २७२ द्विचरम पूर्वकृष्टि- २५६ + दो चय तीन चय ३०४ २५६ - चार चय ३२० २५६ + पांच चय पूर्वव्य---मिलाया जानेवाला द्रव्य-गोपुच्छाकारता | उभय द्रव्यविशेषद्रव्य =१ चय--२ सर्वत्रसम । समय चय-३चच+४चय+५चय -६ वय + १ चय +८चय +8 +१०चय--११चय-१२ चय= ७८चय--७६४१६-१२४८मतः उभयद्रव्यविशेषद्रव्य =१२४८ इले २८८ मिलाने पर सर्वत्र प्रथम अपूर्वकृष्टि से लगाकर चरम पूर्वकृष्टि पर्यन्त गोपुच्छाकार द्रव्य हो जाता है वह नीचे लगी संदृष्टिके अनुसार है - - - + ૨૭૨ चरमपूर्वकृष्टि छह चय २५६ । २५६ + ३५२ सात चय ३६८ ३२० प्रथमपूर्वकृष्टि - २५६ + | प्राउ चय ३८४ rx २५६ - नौ चय ४०० -- -- -- सर्वगोपुच्छाकारता - - -- ३८४ - प्रथमपूर्वकृष्टि ४०० २५६ + दस चय २५६ +J ग्यारह चय प्रथम अपूर्वकृष्टि-२५६ + बारह चय चरमअपूर्वकृष्टि । ४४८ ४४८ -प्रथमअपूर्वकृष्टि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२६ ज्यों का त्यों द्रव्य रहता है । इसका प्रमाण बतलाते हैं -विवक्षित समयमें अपकष्टद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर एक भागमात्र द्रव्य कृष्टिमे देने योग्य है । इसमें से पूर्वोक्त तीन प्रकारका द्रव्य घटाने पर किंचिदून हुआ। (यही किंचिदून द्रध्य मध्यमखंड द्रव्य है ।) इतना द्रव्य सकलकष्टियों में देना है तो एककृष्टि में कितना देना होगा ? ऐसी श्रराशिकविधि करके उस द्रव्यमें पूर्व-अपूर्वकृष्टियों के प्रमारणका भाग देने पर एककृष्टिमें १ अब द्वितीय समयमें अपकृष्ट द्रव्य ३९२० में से अधस्तनशीर्ष विशेषद्रव्य ४४८, अघस्तनकृष्टिद्रव्य १०२४, उभयद्रव्यविशेषद्रव्य १२४८, इन तीनोंको घटानेपर ३६२०-(४४८ - १०२४+१२४८) =१२०० शेष रहे । ये शेष बचे १२०० परमाणुप्रमाण द्रव्य ही मध्यमखण्डद्रव्य है : इसे समस्त पूर्व-अपूर्व कृष्टियों में (८+४=१२ कृष्टियोंमें) समान खण्ड करके देने पर सभी को अर्थात् प्रत्येककृष्टिको १००-१०० द्रव्य प्राप्त होता है । उसे मिलाने पर रचना ऐसी है नोट..यहां इतना स्मरण रखना चाहिये २७२-+ १०० = ३७२ | - चरमपूर्वकृष्टि कि उभयद्रव्यविशेषद्रव्य निकाल के लिए यहां २८८-१०० = ३८८ निम्नविधि है सकल अपकृष्टद्रव्य - १६०० + ३६२०३०४+१०० = ५५२० । सकल अपकृष्टद्रव्य : सकलकृष्टियां ५५२०:१२=४६० मध्यमघन ३२०+१०० यहां एक गुणहानि-१७१ ( गुरगहानि वस्तुस्थित्या खण्डरूप नहीं होती पर संदृष्टि या दृष्टान्त तो संदष्टि या रष्टान्त ही ठहरा; ३५२१०० वह दान्तिसे सर्वदेश साम्य नहीं रखता, ऐसा ३६८.१०० = ४६८ जानना चाहिये )क्योंकि ५४८ रूप प्रथमकृष्टि १७३ स्थानों को पार करने के बाद उसके प्रागे ३८४+१०० = ४८४ | --- प्रथमपूर्वकृष्टि एकस्थान जाने पर प्राधी रह जाती है। प्रतः १७१ स्थान, गुणहानिका प्रमाण होगा। यथा ४००-१०० = |-- चरमअपूर्वकृष्टि ५१२ कर्मपरमाणुरूप प्रथम निषंकसे ८ स्थान के बाद नबमस्थानमें जाकर २५६ रह जाते हैं ४१६१०० = ५१६ तो वहां गुरपहानिका प्रमाण ८ होता है । वैसे ४३२+१०० ही यहां पर ५४८ रूप प्रथमकृष्टि चयहीन होती हुई ऐसे जाती है...५४८, ५३२, ५१६ ४४८+१०० = ५४८ | - प्रथमपूर्वकष्टि ५००, ४८४, ४६८, ४५२, ४३६, ४२०, ४०४, ३८८, ३७२, ३५६, ३४०, ३२४, ३०६, २६२, २७६........................। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] सब्धिसार [ गाथा २८६ देने योग्य एकखण्डका प्रमाण प्राप्त होता है। इसको सर्वकृष्टिके प्रमाणसे गुणित कर देनेपर सर्व मध्यमखण्ड द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। इसप्रकार यहां विवक्षित द्वितीय समय में कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमें बुद्धिकल्पनासे अधस्तनशीर्षविशेष प्रादि चार प्रकार के द्रव्य भिन्न-भिन्न स्थापित किये । ऐसे ही यहां पर तृतीयादि समयोंमें कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमें विधान जानना । अथवा आगे क्षपकणिके वर्णनमें अपूर्वस्पर्धकका, बादरकृष्टिका या मूक्ष्मकृष्टिका वर्णन करते हुए ऐसे विधान कहेंगे ; वहां ऐसा ही अर्थ . प्रब यहां द्रव्य चयहीन होकर जाता हुआ अठारहवें स्थानमें २७६ होता है। हमें ५४८ का प्राधा २०१४ अभीष्ट है कि एकमशान पारे पीछे जाने पर (अर्थात् १८ वें से १७ वें या १७ वें से १८ वें को जाने पर) १६ (एक चय) की कमी या वृद्धि होती है, तो २ मात्र परमाणुको हीनता के लिए कितना स्थान आगे जाना पड़ेगा ? उत्तर होगा x स्थान । अर्थात् २७६ से: स्थान मागे जाने पर वहीं कृष्टिका परमाणु परिमारण २७४ हो जाता है जो कि ५४८ से ठीक प्राधा है तो २७४ परमाणुवाला स्थान १८६ वां हुअा, इसलिये इससे एक स्थान पूर्व अर्थात् १७३ वें स्थान में ही एक गुरणहानि पूरी हो गई ऐसा जानना चाहिए; (क्योंकि जहां द्रव्य प्राधा रह जाय उससे एक स्थान (पूरा-पूरा) पहले जाने पर जो निषेक स्थित हो वहीं प्रथम गुणहानिका चरमस्थान होता है) प्रतएव दो गुणहानि = १७३४ २-३४३ अब मध्यधनएककम गच्छका प्राधासे न्यून दो गुणहानिचय अर्थात् ४६० : ३४३---चय , ४६० : ३४१-५३-चय , ४६००-२८चय ,, ४० x :--चय xx-- १६ (चय) अब सूत्रानुसार एक कम गच्छ ११ का प्राधा ५३ से चय १६ को पुरा करने पर पाये। चय मिलाने पर ८+१६१०४ प्राये । १०४४ गच्छ (१२)=१२४८ माये । यही उभय द्रव्यविशेषद्रव्य है। शेष सुगम है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : + गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २३१ जानना चाहिए । जहां विशेष हो वहां विशेष जानना चाहिए। यहां संदृष्टिकी अपेक्षा चयहीन क्रम लिये पूर्वकृष्टि आदि की रचना निम्न प्रकार होती है- पूर्वकृष्टि रचना आस्तिमकृष्टि आदिकृष्टि पूर्वकृष्टि अधस्तशीर्षद्रव्य मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि रचना के नीचे ही अधस्तनकृष्टिद्रव्यद्वारा अपूर्व कृष्टि की समपट्टिकारचना निम्नप्रकार होती है- अथ शीर्ष द्रन्य अच्छ शी दिव्य पूर्वकृष्टि अपूर्वकृष्टि समपट्टिका पूर्व कृष्टियों में अधस्तनशीर्षद्रव्य मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि की रचना इसप्रकार होती है। रिभ्य 'द्रव्य विशेष द्रव्य ― अघ अध शोष/ द्रव्य शीर्ष संदृष्टि नं० ३ में उभयद्रव्यविशेष द्रव्य मिलाने पर संदृष्टि की आकृति निम्न प्रकार होती है । इसे गुपुच्छाकृति कहते हैं पूर्व कृष्टि अपूर्व कृष्टि समपट्टिका पूर्वकृष्टि अधू शिर्ष अधू शोष द्रव्य उभय द्रव्य विशेष द्रव्य Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] नाधिकार । गाथा २८७-२८६ ध्यम पूर्वराष्ट्र संदष्टि नं. ४ में मध्यमखण्डद्रव्य मिलाने पर संदृष्टि की प्राकृति निम्न प्रकार हो जाती है - रखण्ड उभया! उभया श्र अपूर्वकृति समयढिका इसप्रकार द्रव्य देने का विधान जानना चाहिए। यद्यपि द्रव्य तो युगपत् जितना देने योग्य है उतना दिया जाता है; तथापि समझने के लिये पृथक-पृथक विभाग करके वर्णन किया है । हेट्ठासीसं थोवं उभयविसेसे तदो असंखगुणं । हेट्ठा अणंतगुणिदं मझिमखंडं असंखगुणं ॥२८७॥ पर्थ--(पूर्वोक्त गाथा २८६ में) कहे गये चारप्रकारके द्रव्योंम अधस्तनशीर्ष विशेष द्रव्य सबसे स्तोक है। इससे उभय द्रव्य विशेष असंख्यातगुणा है। इससे अधस्तनकष्टि द्रव्य अनन्तगुणा है और इससे मध्यमखण्ड द्रव्य असंख्यातगणा है ऐसा जानना। ___ तृतीयादि समयोंमें कृष्टियों सम्बन्धी विशेष करते हुए निक्षे गद्रव्य के पूर्व और अपूर्वगत संधि विशेष का कथन करते हैं भवरे बहुगं देदि हु विसेसहीणक्कमेण चरिमोत्ति । तत्तो [तगुणणं विसेसहीणं तु फड्ढयगे ॥२८८।। पवरि असंखाणंतिमभागणं पुवकिट्टिसंधीसु । हेट्ठिमखंडपमाणेणेव विसेसेण होणादो ॥२८६॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २३३ अर्थ-जघन्यकृष्टि में बहुत द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे अन्तिमकृष्टि पर्यन्त विशेष हीनरूपसे द्रव्य दिया जाता है। पूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणामें अनन्तगुणादीन द्रव्य दिया जाता है उससे ऊपर विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, किन्तु पूर्वकृष्टिको प्रथमकृष्टिमें जो द्रव्य दिया जाता है वह अपूर्व अन्तिमकृष्टिमें दिये गये द्रव्यसे असंख्यातवें भाग और अनन्तवें भागहीन है, क्योंकि एक अधस्तनकृप्टिका द्रव्य ब उभयद्रव्य विशेषसे हीन है। विशेषार्थ-प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये समस्त प्रदेशपुञ्जके असंख्यातवें भागको ग्रहणकर कृष्टियोंमें निक्षिप्त करता हुआ जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशपुज देता है। उससे अनन्तर उपरिम दुसरी कृष्टिमें प्रदेशज विशेषहोन देता है। दो गुणहानिके प्रतिभागके अनुसार अनन्तवें भागप्रमाण बिशेषहीन देता है । इसप्रकार इस प्रतिभागके अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तर पूर्वकृष्टिके प्रदेशपुञ्जसे विशेष हीन करके अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक विशेष हीन प्रदेशपुजको देता है। इतनी विशेषता है कि परम्परोपनिधाकी अपेक्षासे भी गणना करनेपर प्रथमकृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुञ्जसे अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त प्रदेशपुञ्ज अनन्तवां भाग हीन ही होता है, क्योंकि कृष्टियोंका आयाम एक स्पर्धक की वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण है । पुनः अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे ऊपर जघन्य स्पर्धक की आदि वर्गरगामें अनन्तगुरणे हीन प्रदेश पुञ्ज को देता है । ( विशेष कथनके लिये ज. प. पु. १३ पृ. ३११ देखना चाहिए। ) प्रथम समयमें अपकर्षित द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षित कर द्वितीय समयमें पूर्व-अपूर्व कृष्टियोंमें सिंचन करता हुआ द्वितीय समयमें तत्काल रची जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जो आदि जघन्यकृष्टि है उसमें प्रथम समयकी अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे असंख्यातगुणे पुजको देता है । इस आदि जघन्यकृष्टिकी अपेक्षा दूसरी अपूर्वकृष्टि में अनन्तवेंभाग हीन देता है । इसप्रकार अपूर्वकृष्टियों में जो अन्तिमष्टि है वहां तक इसी क्रमसे द्रव्य देते हुए ले जाना चाहिए। उसके बाद प्रथम समय में रची गई पूर्वकृष्टियों में जो जघन्य कृष्टि है उसमें विशेष हीन अर्थात असंख्यातवेंभाग और अनन्तवैभागप्रमाण कम देता है, क्योंकि प्रथम समयमें पूर्व कृष्टियोंमें निक्षिप्त द्रव्यसे दूसरे समयमें निक्षिप्त किया जानेवाला द्रव्य अपकर्षित किये गये द्रव्यके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा होता है । इसलिये पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में पहलेका अवस्थित द्रव्य इस समय सिंचित किये जाने वाले द्रव्यके असंख्यातवेंभागप्रमारण होता है। अतः Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] लब्धिसार [ गाथा २६० उतना' (पूर्व अवस्थित द्रव्य) कम करके पुनः एक गोपुच्छ विशेष' और कम करके प्रदेश विन्यास होता है, अन्यथा कृष्टियोंमें एक गोपुच्छश्रेणिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इससे मागे प्रोष उत्कृष्ट कष्टिकी अपेक्षा प्रथम समयमें रची गई कुष्टियों में अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र अनन्तवांभागप्रमाण विशेषहीन विन्यास होता है। पुनः उससे जघन्य स्पर्धककी प्रादिकी वगरणा में अनन्तगुणा हीन प्रदेशपुञ्ज दिया जाता है । उससे उत्कृष्ट स्पर्धकसे जघन्य अतिस्थापना प्रमाण स्पर्धक नीचे सरककर स्थित हुए वहां के स्पर्धकही उत्कृष्ट दर्गणारे साज होतक असन्तान भाग प्रमाण विशेष हीन प्रदेश बिन्यास होता है। प्रदेश विन्यासका जैसा क्रम दूसरे समय में कहा गया है वैसा शेष समयोंमें जानना चाहिए, क्योंकि दीयमान द्रव्य अर्थात दिये जाने वाले द्रव्यकी यह श्रेणिप्ररूषणा है । दृश्यमान द्रव्यको श्रेणीकी अपेक्षा-प्रथमकृष्टि में दृश्यमान प्रदेशज बहुत है, उससे दूसरीमें अनन्तवां भागप्रमाण विशेष हीन है। इसप्रकार अन्तिमकृष्टि तक उत्तरोत्तर विशेष हीन है । स्पर्धकको वर्गणानोंमें भी दृश्यमान द्रव्य विशेष हीन ही होता है । अब कृष्टियोंका शक्ति सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैंप्रवरादो चरिमेत्ति य अणंतगुणिदक्कमा सत्तीदो। इदि किट्टीकरणद्धा बादरलोहस्स विदियद्धं ॥२६॥ अर्थ-अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अपूर्वकृष्टिके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे द्वितीय. कृष्टिके अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार अनन्तगुरिणत क्रम पूर्वकृष्टिको अन्तिम कृष्टितक ले जाना चाहिए। इसप्रकार बादरलोभ वेदक कालका द्वितीया कृष्टिकरणकाल व्यतीत होता है। विशेषार्थ- जघन्यकृष्टि सदृश घनवाले परमाणुओं में से एक परमाणुके अविभाग प्रतिच्छेदों को ग्रहणकर एक कृष्टि होती है, यह स्तोक है । दूसरी कृष्टिके अर्थात् दूसरी कृष्टिके एक परमाणु सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार एकएक परमाणु को ग्रहणकर अनन्तगुणित क्रमसे अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक ले जाना १. अर्थात् अधस्तन कृष्टिद्रव्य । २. अर्थात् उभय द्रव्यविशेष । ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३१०-३१४ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६१ ] लबिसार [ २३५ चाहिए । अथवा सदृश धनवाले अनन्त परमाणुगोंको कृष्टि रूपसे ग्रहण कर यह कथन । करना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेदों की क्रम वृद्धि यहां पर नहीं पाई जाती इसलिये इसकी कृष्टि संशा है । पुनः अन्तिम कृष्टिसे ऊपर जघन्य स्पर्धककी प्रथमवर्गणा अनन्तगुणी हैं। लोभवेदककालके द्वितीय विभागको कृष्टिकरण कालसंज्ञा है, क्योंकि यहां पर स्पर्धकगत अनुभागका अपर्बतनकर कृष्टिबोंको करता है। जिसप्रकार क्षपकवेगिमें कृष्टियों को करता हुआ सभी पूर्व प्रोर अपूर्व स्पर्धकोंका पूर्णरूपेण अपवर्तनकर कृष्टियों को ही स्थापित करता है, उस प्रकार उपशमश्रेणिमें सम्भव नहीं है, क्योंकि सभी पूर्वस्पर्धवोंके अपने-अपने स्वरूपको न छोड़कर उसीप्रकार अवस्थित रहते हुए सर्व स्पर्धकों में से असंख्यातवेभागप्रमारण द्रव्यका अपकर्षणकर एक स्पर्धककी वर्गणाओं के अनन्तवेंभागप्रमाण सूक्ष्मकृष्टियोंकी रचना होती है। अच कृष्टिकरणकालमें स्थितिबन्धके प्रमाणको प्ररूपणा के लिए तोन गाथाओं द्वारा कथन करते हैं विदियद्धा संखेज्जाभागेसु गदेख लोभठिदिबंधो । अंतोमुहुत्तमेत्तं दिवसपुत्त्रं तिघादीणं ॥२६१॥ अर्थ--लोभसंज्वलन कालके तीनभागों में से दूसरे कालके (भागके) संख्यात बहभाग बीत जानेपर संज्यल नलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है शेष तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिनप्रमाण होता है । विशेषार्थ-कृष्टिकरण काल अर्थात् द्वितीयकालके अन्तिम समयको प्राप्त किये बिना वहांसे नीचे सरककर उस कालके संख्यात भागोंके अन्तिम समयमें संज्वलनका तात्कालिक स्थितिबन्ध पूर्व में होनेवाले दिवस पृथक्त्वपमाणसे यथाक्रम घटकर अन्त मुहूर्त प्रमाण हो जाता है । इससे पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन धातिया १. ज.ध. पु. १३ पृ. ३१४-१५; घ. पु. ६ पृ. ३१३ ॥ __२. क. पा. सुत्त पृ. ७०३ चूणिसूत्र २६०-६१; ध. पु. ६ पृ ३१४ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] लनिधार [ गाथा २६२-२६३ कर्मोका स्थितिबन्ध सहस्रवर्ष पृथक्त्वप्रमाण होता रहा जो यथाक्रम संख्यात गुणहानियों के द्वारा घटकर दिवस पृथक्त्वप्रमाण हो जाता है'। किट्टीकरणद्धाए जाव दुनरिमं तु होदि दिदिको । वस्साणं संखेज्जतहस्तारिए अधादिठिदिवंधो ॥२६२॥ अर्थ- कृष्टिकरणकालके द्विचरम स्थितिबन्धतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है। _ विशेषार्थ-लोभ संज्वलनकालके तीन भागोंमें से दूसराभाग कृष्टिकरणकाल के द्विचरम स्थितिबन्ध समाप्त होनेतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तोन अघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है, क्योंकि घातिया कर्मोके स्थितिबंधापसरण होने के समान अघातियाकर्मोके स्थितिबन्धका बहुत अधिक अपसरण होना असम्भव है । इसलिए द्विचरम स्थितिबन्धतक इनका स्थितिबन्ध नियमसे संख्यातहजार.. वर्षप्रमाण होता है । किट्टीयद्धाचरिमे लोहस्संतो मुहुत्तियं बंधो । दिवसंतो घादीणं वेवस्संतो प्रधादीणं ॥२६॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालमें अन्तिम स्थितिबन्ध लोभ संज्वलनका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, घातियाकर्मोका कुछ कम एकदिनप्रमाण तथा अघातियाकर्मोंका कुकम दो. वर्षप्रमाण होता है ।। विशेषार्थ- कृष्टिकरण काल में जो अन्तिम स्थितिवन्ध होता है, वह बादर. साम्परायिकका अन्तिम स्थितिबन्ध है । वह स्थितिबन्ध लोभ संज्वलनका अन्तर्मुहर्तप्रमाण होता है जो क्षपकश्रेरिण में होनेवाले स्थितिबन्धसे दूना है ; ज्ञानावरण, दर्शतावरण, अन्तराय इन तीन घातिया कोका कुछकम एकदिन रात्रिप्रमाण है जो क्षपकके बादरसाम्परायिकगुणस्थानमें होनेवाले अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है तथा नाम-गोत्र पौर १. ज. प. पु. १३ पृ. ३१६ । २. ध. पु. ६ पृ. ३१४ । क. पा. सुत्त पृ. ७०३ चूर्णिसूत्र २६२ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. ३१६ । ४. प. पु. ६ पृ. ३१४ । क. पा. सु. पृ. ७०३ सूत्र २६३-२६५ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६४-२९५ ] लब्धिसार [ २३७ वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों के भी संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्धसे घटकर कुछकम दो वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है जो बादरसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है, क्योंकि क्षपक श्रेणिमें इस स्थलपर होनेवाला स्थितिबन्ध एक वर्षसे कुछकम होता है। म संक्रमणकाल सम्ममधी अधषि का हिसार करते हैंविदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोहदुगं । सट्टाणे उवसमदि हु ण देदि संजलणलोहम्मि ।।२६४।। अर्थ-दूसरे कृष्टिकरणकालमें एक समयकम तीन प्रावलियां शेष रहने पर दो प्रकारका लोभ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ) संज्वलनलोभमें संक्रांत नहीं होता, स्वस्थान में ही उपशमाया जाता है। विशेषार्थ-एक समयकम तीन पावलि शेष रहनेपर संक्रमणावलि और उपशमनावलिका परिपूर्ण होना असम्भव है, इसलिये उस अवस्थामें अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ संज्वलनलोभ में संक्रमित नहीं होता, किन्तु स्वस्थानमें ही उपशमित होता है (अपने रूपसे हो उपशमता है)। पावलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं। प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहनेपर संज्वलन लोभकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है । अब लोभत्रय की उपशमन विधि का कथन करते हैंबादरलोहादिठिदी श्रावलिसेले तिलोहमुवसंतं । णवकं किट्टि मुच्चा सो परिमो थूलसंपराभो य ॥२६५॥ अर्थ-बादरलोभको प्रथम स्थितिमें प्रावलि शेष रहनेपर नवक समयप्रबद्ध और कृष्टियोंको छोड़ कर तीन प्रकारके लोभका द्रव्य उपशान्त हो चुकता है। वह अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्पराय होता है । १. ज. प. पु. १३ पृ. ३१७ । २. क. पा. सु पृ. ७०३ सूत्र २६६ । ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३१७-१८ । क. पा. सु पृ. ७०३ सूत्र २६७, प. पु. ६ पृ. ३१४ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] বলিষাৰ [गाथा २६६ विशेषार्थ-बादर लोभको प्रथम स्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहने पर उपशमनावलिके चरमसमयमें संज्वलनलोभका एक समयकम दो प्रावलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, कृष्टियां सभी अनुपशान्त रहती हैं। तथा नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर बादर संज्वलनलोभका शेष सर्वद्रव्य व अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्यारयानावरणका सर्व द्रव्य अशान्त रहता है । अर्थात स्पर्धकागत लोभसंज्वलन सम्बन्धी सर्व प्रदेशज इस समय उपशान्त हो चुकता है, किन्तु कृष्टिगत प्रदेशपूज अभी भी अनुपशान्त रहता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायकाल में कृष्टियोंकी उपशामना होती है । परन्तु दोनों प्रकारका लोभ पूरा ही उपशान्त हो चुकता है । नवक बन्धादिकका अनुपशम रहता है । यही अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक संयत है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणकालका अन्त देखा जाता है । सार यह है कि जब प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहता है उसो समय लोभसंज्वलनका सर्व स्पर्धकरूप द्रव्य तथा सकल ही प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान लोभ द्रव्य उपशान्त हो जाता है मात्र (१) नवक समय प्रबद्ध (२) उच्छिष्टावलिमात्र निषेक (३) सूक्ष्मकृष्टि ये उपशान्त नहीं होते। अथानन्तर सूक्ष्मसाम्परायमें किये जाने वाले कार्य विशेष का कथन करते हैंसे काले किटिस्स य पढम द्विदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूयं गत्य ॥२६६॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होने पर अनन्तर समयमें कृष्टियोंकी प्रथम स्थितिका कारक व वेदक होता है । बादर लोभकी प्रथम स्थितिके कुछकम आधेभागप्रमाण कृष्टियोंकी प्रथम स्थिति है। विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होनेपर अनन्तर समयमें ही वह सूक्ष्मष्टि वेदक रूपसे परिणमकर सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयतजीव उसी समय दूसरी स्थितिमेंसे कृष्टिगत प्रदेशपुजका अपकर्षण भागहारके द्वारा अपकर्षणकर उदयादि श्रेणिरूपसे अन्तमुहर्त आयामको लिये हुए प्रथमस्थितिका विन्यास करता है। बादर लोभकी प्रथम स्थिति, समस्त लोभ वेदककालके साधिक दो बटा तीन (३) भागप्रमाण होती है। कुछकम उसका अर्धभागप्रमाण सूक्ष्मसाम्परायको प्रथम स्थितिका विन्यास होता है। यहां की १. ज. ध पु १३ पृ. ३१८-१६ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६७ ] लडिप्रसार [ २३६ प्रथम स्थितिकी रचना सूक्ष्मसाम्परायिकके काल बराबर होती है, परन्तु ज्ञानावरणादिका उस कालमें होने वाला गुणश्रेणि निक्षेप सूक्ष्मसाम्परायके कालसे विशेष अधिक होकर उदयावलिके बाहर निक्षिप्त हुआ है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें निक्षिप्त हुआ गुणश्रेणिनिक्षेप गलित शेष होकर इस समय तत्प्रमाण अवशिष्ट रहता है । ____ आगे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथम समयमें उदीयमान कृष्टियोंका निर्देश करते हैं पढमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखमा नदेदि बहुमानिने सबने "२६७॥ अर्थ-प्रथम समयमें जो कृष्टियों की गई उनके अग्नान में से असंख्यातवेंभाग को छोड़कर और अन्तिम समयमें की गई कृष्टियों की जघन्य (आदि) कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागको छोड़कर अन्य सकल कृष्टियां सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण होती हैं। [संक्षेपमें १० वें गुणस्थानके प्रथम समयमें कृष्टियों के अधस्तन व उपरिम असंख्यातवेंभाग को छोड़ कर शेष असंख्यात बहुभाग का वेदन करता है। विशेषार्थ- कृष्टिकरण काल में से प्रथम और अन्तिम समयमें की गई कृष्टियोंको छोड़ कर शेष समयोंमें जो अपूर्वकृष्टियां की गई हैं वे सभी सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाती हैं, किन्तु यह सदृश धनकी विवक्षासे है, अन्यथा उन सभीका प्रथम समयमें पूर्ण रूपेण उदीर्ण होनेका प्रसङ्ग पा जावेगा, परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि उनमें से असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाले परमाणु प्रदेशपुजका ही अपकर्ष-प्रतिभागके अनुसार उदय होता है। प्रथम समय में जो कृष्टियां रची गई हैं उनके उपरिम असंख्यातवेंभागको छोड़कर शेष सर्व कृष्टियां प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाती है । यह भी सदृश धनकी विवक्षामें कहा गया है, क्योंकि उन सबका एक समय में पूर्ण रूपेण उदयरूप परिणाम नहीं पाया जाता अतः पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे खण्डित एकभागप्रमाण उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़ कर प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंका शेष जो असंख्यात बहुभाग बचता है वह सूक्ष्म साम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाता है। कृष्टि १. ज.ध. पु. १३ पृ. २१६-२०; ध. पु. ६ पृ. ३१५ । ___4. पु. ६ पृ. ३१५; क. पा. सुत्त पृ. ७०४ सूत्र २७४-२७७ । ज. ध. पु १३ पृ. ३२०-२१ । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० । लब्धिसार [ गाथा २६८ करणकालके अन्तिम समयमें रची गई कृष्टियोंके पल्योपमके असंख्यातवेंभागरूप प्रतिभाग द्वारा प्राप्त जघन्यकृष्टि से लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागको छोड़ कर शेष वहुभाग प्रमाण सभी कृष्टियोंको उस (प्रथम) समयमें उदयमें प्रविष्ट कराया जाता है, इसलिये सिद्ध हुआ कि सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें असंख्यात बहुभाग कृष्टियोंका वेदन होता है । प्रथम और अन्तिम समयमें रचित कृष्टियों में से उपरिम और अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंका सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदयाभाव है । इतनी विशेषता है कि प्रथम समय में की गई कृष्टियों में से नहीं बेदे जानेवाली उपरिम असख्यातवें भागके भीतरकी कृष्टि यां अपकर्षण द्वारा अनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टि रूपसे वेदी जाती हैं तथा अन्तिम समयमें रची गई कृष्टियोंमें से जघन्य कृष्टिसे लेकर नहीं वेदी जानेवाली अधस्तन असंख्यातवें भागके भीतरकी कृष्टियां अनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टि रूपसे वेदी जाती हैं, क्योंकि अपने रूपसे ही उनका उदयाभाव है, मध्यमरूपसे उनके उदयाभावका प्रतिषेध नहीं है । जिसप्रकार मिथ्यात्वके स्पर्धक अपने स्वरूपको छोड़ कर अनन्तगुणे हीन होकर सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे उदयको प्राप्त होते हैं तथा सम्पाय न सम्परियारको नाक अपने स्वरूपको छोड़कर मिथ्यात्वरूपसे उदयको प्राप्त होते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है । इसीप्रकार यहां भी उपरिम और अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां मध्यमरूपसे वेदी जाती हैं इसमें कुछ निषिद्ध नहीं है। द्वितीयादि समयोंमें उदयानुदयकृष्टि सम्बन्धी निर्देश करते हैंविदियादिसु समयेसु हि छंड दि पल्ला भसंखभागं तु। 'आफुददि हु अपुवा हेट्ठा तु असंखभागं तु ॥२६८॥ ____ अर्थ—सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयोंमें उदीर्ण हुई कृष्टियोंके अग्रानसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाणको छोड़ता है तथा नीचे से अपूर्व असंख्यातने भागका स्पर्श करता है। १. ज. प. पु. १३ पृ. ३२०-३२३ । २. आफुददि पास्पृशति वेदयति अवष्टभ्य गृह रणातीत्यर्थः । ज. ध. मूल. पृ. १८६६ । ज. ध. अ. प. ३. क. पा. सु. पृ. ७०५ सुत्र २८१ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६६-३०० ] लब्धिसार [ २४१ विशेषार्थ - दूसरे समय में तो प्रथम समय में उदीर्ण हुई कृष्टियों के अग्रसे अर्थात् सबसे उपरम कृष्टिसे लेकर नीचे पल्यके असंख्यातवें भाग मारण कृष्टियों को छोड़ता है, क्योंकि ऐसा न हो तो प्रथम समयके उदयसे दूसरे समयका उदय अनन्तगुणा हीन नहीं बन सकता है । इसलिये पूर्व समय में उदीर्ण हुई कृष्टियों में से सबसे उपरिम कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण उपरिम भागको छोड़कर अधस्तन बहुभागप्रमाण कृष्टियोंका दूसरे समय में वेदन करता है, परन्तु नीले प्रथमसमय में अनुदीर्ण हुई कृष्टियों के अपूर्वं श्रसंख्यातवें भाग को वेदता है अर्थात् आलम्बनकर ग्रहण करता है । प्रथम समय में उदीर्णं कृष्टियोंसे दूसरे समय में उदीर्ण हुई कृष्टियां श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण विशेषहीन हैं, क्योंकि अवस्तन अपूर्व लाभसे उपरिम परित्यक्त भाग बहुत स्वीकार किया गया है । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों में भी कथन करना चाहिए । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालका पालन करता हुआ आवलि प्रत्यावलिके शेष रहने पर आगाल- प्रत्यागालका विच्छेद करके पश्चात् एक समयाधिक आवलिकालके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति उदीरणा करके पुनः क्रमसे सूक्ष्मसाम्परायका अन्तिम समय प्राप्त हो जाता है' अथानन्तर सूक्ष्मकृष्टिद्रव्यके उपशम सम्बन्धी विधि एवं सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें फर्मोंके स्थितिबन्धका निर्देश करते हैं किटि समाददो चरिमोति श्रसंखगुणिदसेडीए । उवसमदि हु तच्चरिमे भवरट्ठदिबंधणं वरहं ॥२६६ ॥ अंतीमुत्तमेतं घादितिया जहरण ठिदिबंधो । णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ||३००|| अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समयसे अन्तिम समयतक कृष्टियों को प्रसंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उपशमाता है । अन्तिम समय में छहकमका जघन्य स्थितिबन्ध होता । तीन घातिया कर्मो का अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, नाम व गोत्रका १६ मुहूर्त और वेदनीयका चौवीस मुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है । १. ज ध. पु. १३५. ३२४-२५ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] सब्धिसार । [ गाथा ३०१ . विशेषार्थ-सुक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर सभी कृष्टियों के प्रदेशज को गुणश्रेरिगरूपसे उपशमाता है अर्थात् प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोंके प्रदेशपूजको उपशमाता है। सर्वप्रथम समयमें सर्वष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतने प्रदेशपुजको उपशमाता है । पुनः दूसरे समय में सर्वष्टियोंमें पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध पावे उतने प्रदेशपुजको उपशमाता है, किन्तु परिणामोंके माहात्म्यसे प्रथम समयमें उपशमाए गये प्रदेशपुजसे असंख्यातगुरणे प्रदेशपुजको दूसरे समयमें उपशमाता है । इसार सूक्ष्मसान्धरायिक गुणस्थानके अन्तिम समय होने तक सर्वत्र गुणश्र णिके क्रमसे उपशमाता है। केवल कृष्टियों को ही प्रसंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नहीं उपशमाता है, किन्तु जो दो समयकम दो पाबलिप्रमाण स्पर्धकगत नवकसमयप्रबद्ध है उन्हें भी असंख्यातगुणित थे णिरूप्से उपशमाता है । बादरसाम्परायके अन्त समयमें स्पर्धकगत उच्छिष्टावलि शेष रह गई थी वह यहांपर कृष्टिरूपसे परिणमकर स्तिबुकसंक्रमके द्वारा विपाकको प्राप्त होती है । अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया काँका जघन्य स्थितिबन्ध होता है जो अन्तर्मुहूर्तप्रमारण है । नाम व गोत्रका जधन्य स्थितिबन्ध सोलहमुहर्तप्रमाण है, वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिवन्ध चौवीस मुहूर्तप्रमाण होता है, क्योंकि क्षपकके होनेवाले बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तिम स्थितिबन्धसे यह दूने प्रमाण को लिये हुए होता है । यहाँ सभी कर्मोके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबंध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इतनी विशेषता है कि वेदनीयकर्मका प्रकृतिबन्ध, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें भी होता है, क्योंकि प्रकृतिबन्ध योगके निमित्तसे होता है इसलिये सयोगकेवलीके अन्तिम समयतक उक्त बन्ध सम्भव है। आगे २ गाथाओं में पूर्वोक्त कथनका उपसंहार करते हैंपुरिसादीणुच्छिट्ट समऊणावलिगदं तु पच्चिहिदि । सोदयपढमछिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥३०॥ अर्थ--पूरुषवेदादिका एकसमयकम प्रावलिप्रमाण निषेकोंका द्रव्य उच्छिष्टावलिरूप है वह द्रव्य क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टि पर्यन्तके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थिति १. ज. घ. पु. १३ पृ. ३२३-३२६ । क. पा. सु. पृ. ७०५; ध. पु. ६ पृ. ३१६ । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०२-३०३ सम्बन्धी निषेकों के साथ तद्रूप परिणमनकर उदयरूप होगा । विशेषार्थ -- पुरुषवेदके उच्छिष्टमात्र शेष निषेक तो संज्वलनकोधकी प्रथमस्थिति में तद्रूप परिणमनकर उदय होते हैं । इसीप्रकार संज्वलनकोधका संज्वलनमान में इत्यादि क्रमसे बादरलोभके कष्टादिराजन्यो विवेक सूक्ष्मकृष्टिने तद्रूप परिणमित होकर उदयरूप होते हैं । इसका कथन पूर्व में किया हो हैं । लब्धितार पुरिसाद लोहगयं एवकं समऊण दोरिण आवलियं । उवसमदि हू कोहादी किटचंते ठाणेसु ॥ ३०२ ॥ [ २४३ अर्थ -- पुरुषवेदसे लोभपर्यन्त के एक समयकम दो श्रावलिमात्र नवक समयप्रबद्धोंका द्रव्य क्रोधादि कृष्टिपर्यन्त की प्रथमस्थितिके कालोंमें उपशमता है । विशेषार्थ -- पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्ध संज्वलनकोधकी प्रथम स्थिति के कालमें उपशमित होता है इत्यादि कथन पूर्वमें किया ही है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमय में सर्वकृष्टि द्रव्यको उपशान्त करके सवनन्तर समय में उपशान्तकषाय हो जाता है, इस बात को बताते हैं-उवसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु | मोहस्सुदयाभावा सव्वत्थ समाणपरिणामो ॥ ३०३ ॥ अर्थ – उपशान्तकषाय के प्रथम समय में समस्त मोहनीयकर्म उपशुमरूप रहता है । मोहनीयकर्मके उदयका प्रभाव हो जानेसे उपशान्तकषाय गुणस्थानके सम्पूर्ण कालमें समानरूप परिणाम रहते हैं । विशेषार्थ - सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके कालको व्यतीतकर तदनन्तर समय में मोहनीयकर्मके बन्ध, उदय, संक्रम, उदीरणा, अपकर्षण और उत्कर्षण आदि सभी करणोंका पूर्णरूपेण उपशम रहता है। यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त उपशांत कषाय वीतरागस्थ रहता है। जिसकी सभी कषायें उपशांत हो गई हैं वह उपशांतकषाय कहलाता है तथा कषाय उपशांत हो जानेपर वीतराग हो जाता है अतः उपशांतकषाय वीतराग कहलाता है । समस्त कषायों के उपशांत हो जानेसे उपशांतकषाय और समस्त राग परिणामोंके नष्ट हो जानेसे वीतराग होकर वह अन्तर्मुहूर्तकाल तक अत्यन्त Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] लब्धिसार [ माथा ३०४-३०५ स्वच्छ परिणामवाला होकर अवस्थित रहता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे और अधिककालतक उपशम पर्यायका अवस्थान असम्भव है। समस्त उपशान्तकाल में वह अवस्थित परिणामवाला होता है, क्योंकि परिणामों की हानि-वृद्धि की कारणभूत कषायोंके उदयका अभाव होनेसे अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमसे युक्त सुविशुद्ध वीतरागपरिणामके साथ प्रतिसमय अभिन्नरूपसे उपशांतकषायवीतरागके कालका पालन करता है । अथानन्तर उपशांतकषाय गुणस्थानका काल कहते हैं अंतोमुहत्तमेत्तं उसंतकसायवीयरायद्धा । गुणसेडीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु ॥३०४॥ अर्थ-उपशांतकषायवीतरागका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उसके संख्यातवेंभागप्रमाण गुणणि आयाम है । विशेषार्थ - उपशांतकषायका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इस उपशांतकषायकालके संख्यातवेंभागप्रमाण पायाभवाला' इस जीवके ज्ञानावरणादि कर्मों का गुणश्रेणि निक्षेप होता है । ऐसा होता हुआ भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें किये गये गलितशेष गुणश्रेरिण निक्षेपके इससमय प्राप्त होने वाले शीर्षसे संख्यातगुणा होता है । उक्त कथनका विशेष स्पष्टीकरण आगे करते हैंउदयादिअवठ्ठिदगा गुणसेडी दवमावि अवट्ठिदगं । पढमगुणसेढिसीसे उदये जेट्ट पदेसुदयं ॥३०५॥ अर्थ-उपशांतगोह कालमें उदयादि गुग्गश्रेणिका पायाम अब स्थित है और द्रव्य निक्षेप भी अवस्थित है । प्रथम गुणश्रेरिग (उपशांतमोहके प्रथम समय में की गई गुणश्रेणि) के शीर्षका उदय होनेपर ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। १. यद्यपि यह उपशान्त कषाय जोव अवस्थित परिणामवाला होता है तो भी उपशान्तकषाय भावसे अवस्थानका काल अन्तर्मुहुर्त मात्र ही है, क्योंकि उसके बाद उपशमपर्यायका प्रवस्थान (टिकाव) असम्भव है । (ज. ध, मूल पृ. १८६२ एवं ध. पु. ६ पृ. ३१७) ज.ध. पु. १३ पृ ३२५-२७ । ३. क. पा. सु. पृ. ५०५, सूत्र २८८ ; ज. घ. मूल पृ. १८६६-६७; ध. पु. ६ पृ. ३१६ । ४. ज. ध पु. १३ पृ. ३२७ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०५ ] लब्धिसार [ २४५ विशेषार्थ-अवस्थित परिणाम होनेसे अनवस्थित आयामरूपसे तथा अनवस्थित प्रदेशजके अपकर्षणरूपसे गणश्रेणि विन्यास सम्भव नहीं है। इसलिये पूरे उपशांतकालके भीतर किये जाने वाले गुणश्रेणिनिक्षेप के आयामकी अपेक्षा और अपकर्षित किये जाने वाले प्रदेश पूजकी अपेक्षा वह ( गुणथोणि ) अवस्थित होती है । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक मोहनीयके अतिरिक्त शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिके बाहर गलितशेप होता है, परन्तु उपशान्तकषायके प्रथम समयसे लेकर उसीके अन्तिम समयतक गुणश्रेणिनिक्षेप उदयसे लेकर अवस्थित पायामबाला और अवस्थित प्रदेशोंकी रचनाको लिये हुए होता है। प्रथम समयमें गुणश्रेणिका जितने आयाम लिये आरम्भ किया उतने प्रमाण सहित हो द्वितीयादि समयों में उतना ही आयाम रहता है, क्योंकि उदयालिका एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थितिका एक समय मुणवेरिणमें मिल जाता है। उपशान्तमोहके प्रथम समय में जितना आकर्षित करने, गुदाई णिमें दिगा उतना ही प्रतिसमय दिया जाता है, इसलिए अपकर्षितद्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है। __उपशान्तकषायके प्रथम समयमें निक्षिप्त गुणश्रेणिनिक्षेपको अनस्थिति, वह प्रथम गुणणिशीर्ष है। उस प्रथम गुणरिणशीर्षके उदयको प्राप्त होने पर ज्ञानावरणादि कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योंकि वहां एक पिण्ड होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका उदय होता है। सरल कथन इसप्रकार है-प्रथम समयवर्ती उपशांतकषायका गुणश्रेणिशीर्ष वहां अविनष्टरूपसे उपलब्ध होता है । द्वितीय समयवर्ती उपशांतकषायकी भी द्विचरम गुणवेणि गोपुच्छा वहां पर है । तृतीय समयवर्ती उपशांतकषायकी त्रिचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहांपर उपलब्ध है ! इसप्रकार क्रमसे प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणि निक्षेपके आयाम प्रमाण ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं वहां पर (प्रथमगुणश्रेरिण शीर्ष में) पाई जाती हैं । इस कारण दूसरे स्थानको छोड़कर यहीं पर ( प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके उदयकाल में ) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । यद्यपि अगले समयसे लेकर उपशांतकषायके अन्तिम समयतक इतनो ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं प्राप्त होती हैं, किन्तु वहां पर उन स्थिति विशेषोंमें प्रकृति गोपुच्छा की अपेक्षा क्रमसे एक-एक गोपुच्छा-विशेष (चय) की हानि पाई जाती है । इसलिये गोपुच्छा विशेष (चम) के लाभको लक्ष्यकर यथानिर्दिष्टस्थान ही उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व कहा गया है । प्रकृति गोपुच्छा विशेष लाभकी दृष्टिसे यदि यह कहा जावे कि अपूर्वकरणके Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] विसार [ गाथा ३०६-३०७ प्रथम समयमें किया गया गुरणश्रेणीशीर्षके, जो उपशांतकषायके प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके भीतर ही नीचे उपलब्ध होता है, के उदयको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व होता है, क्योंकि संचयको प्राप्त हुए गोपुच्छाओंके माहात्म्यवश उसके बहुत अधिक प्रदेशों का संचय होता है। तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, सबसे अधिक प्रदेशपुजकी अपेक्षा इसको ग्रहरण करना शक्य नहीं है, क्योंकि इस सम्बन्धी समस्त द्रव्यसे भी श्रसंख्यातगुणा द्रव्य परिणामोंके माहात्म्यवश उपशांतकषायके प्रथम समय में किये गये गुणश्रपिशीर्ष में होता है । इसलिये पूर्वोक्त स्थल पर ही ( प्रथम गुराश्र शिशीर्ष उदय होने पर) ज्ञानावरणादि छह कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता । यह् प्रदेश उत्कृष्ट है, क्योंकि इनका ओघ उत्कृष्ट प्रदेशाग्र क्षपकश्रेणि में होता है' । १ २. अब ११ वे गुणस्थान में उदययोग्य सर्व ५६ प्रकृतियों में से अवस्थित वेदन और अनवस्थित वेदन वाली प्रकृतियों का विभाजन बताते हैं णामधुवोदय वारस सुभगति गोदेवक विग्धपणगं च । केवल सिद्दाजुयलं चेदे परिणामपच्चया होति ॥ ३०६ ॥ तेसिं रसवेदमत्रद्वाणं भवपच्चया हु सेसाओ । चोत्तीसा' उत्रसंते तेर्सि तिट्ठाय रसवेदं ॥३०७॥ अर्थ - उपशांतकषाय में उदययोग्य जो ५६ प्रकृतियां पाई जाती हैं उनमें तेजस कार्मणशरीर २, वर्णादि ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण नामकर्म की ये बारह प्रकृति और सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र, अन्तरायकी पांच, केवलज्ञानावरण, केबलदर्शनावरण, निद्रा, प्रचला ये सर्व २५ प्रकृतियां परिणामप्रत्यय हैं । ये २५ प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय हैं इसलिये उपशांतकषाय में उनका रसवेदन प्रवस्थित है । शेष ३४ प्रकृतियां भवप्रत्यय हैं इसलिए उन शेष ३४ प्रकृतियोंके रसवेदन संबंधी तीनस्थान हैं । ज. ध. पु. १३ पृ. ३२८-३३० । ३४ प्रकृतियां इसप्रकार हैं-ज्ञानावरण ४ दर्शनावरण ३, वेदनीय २, मनुष्यायु- मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, श्रीदारिक शरीर, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, आदिके ३ संहनन, ६ संस्थान उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, प्रत्येक त्रस, बादर, पर्याप्त और दो स्वर · 1 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मांथा ३०७ ] लब्धिसार [ २४७ विशेषार्थ - गाथोक्त २५ प्रकृतियों के उदय होने के काल में आत्माके विशुद्ध संक्लेश परिणामों में जैसी हाति वृद्धि होती है वैसी ही हानि वृद्धि इन २५ प्रकृतियों के अनुभागोद में होती है । श्रात्म परिणामके अनुसार इन २५ प्रकृतियों के अनुभागका उत्कर्ष - अपकर्षण होकर उदय होता है इसलिये ये २५ प्रकृतियां परिणामप्रत्यय हैं । समग्र उपशांतकालके भीतर केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणका अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योंकि उपशान्तकालमें ग्रात्मा के परिणाम अवस्थित होते हैं । निद्रा और प्रचला अध्र ुवोदयी प्रकृतियां हैं इसलिये इनका कदाचित् उदय नहीं होता । यदि इनका उदय होता है तो जबतक इनका उदय रहता है तबतक अनुभागवेदन अवस्थित होता है, क्योंकि आत्मपरिणाम अवस्थित होते हैं । श्रात्मपरिणाम अवस्थित ...होने के कारण अन्तरायकर्मकी पांचों प्रकृतियोंका अनुभागवेदन भी अवस्थित होता है । यद्यपि इन प्रकृतियोंकी क्षयोपशमलब्धि होनेसे छह वृद्धियों और छह हानियों के द्वारा नीचे गुणस्थानों में उदय सम्भव है तो भी उपशांतकषाय गुरणस्थानमें इन प्रकृतियोंका भाग उदय अवस्थित ही होता है, क्योंकि अवस्थित एक भेदरूप परिणामके होने पर परिणामके श्राधीन इनके उदयका द्वितीय प्रकार सम्भव नहीं है । मति श्रुत अवधिमन:पर्यय ये चार ज्ञानावरण, चक्षु अचक्षु अवधि ये तीन दर्शनावरण, इन लब्धि कर्माशों का अनुभागोदय अवस्थित ही होता है; यह नियम नहीं है, किन्तु उनके अनुभागोदय की वृद्धि हानि श्रवस्थान ये तीन स्थान होते हैं। जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशमरूप परिणाम होता है वे लब्धिकर्मांश होती हैं, क्योंकि क्षयोपशमलब्धि होकर कर्माशों की लब्धिकर्माश संज्ञा सिद्ध हो जाती है । यद्यपि ज्ञानावरण-दर्शनावरणको उक्त सात प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय हैं तथापि उनकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और श्रवस्थान उपशांतकषाय में सम्भव है ऐसा उपदेश पाया जाता है । उपशांतकषाय में यदि श्रवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है तो अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योंकि अनवस्थितपनेका कारण नहीं पाया जाता । यदि क्षयोपशम है तो छहवृद्धियों, छह हानियों और अवस्थित मसे अनुभागका उदय होता है, क्योंकि देशावधि और परमावधिज्ञानी जीवों में श्रसंख्यातलोक• प्रमाण भेदरूप अवधिज्ञानावरण सम्बन्धी क्षयोपशम के अवस्थित परिणाम होने पर भी वृद्धि, हानि और अवस्थानके बाह्य श्रौर अभ्यन्तर कारणोंकी अपेक्षा तीन स्थानोंके होने में विरोधका अभाव हैं । इस कारण सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत हुए उत्कृष्ट Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] लब्धिसार [ गाथा ३०७ अवधिज्ञानी जीवमें अवधिज्ञानावरणका अनुभागोदय अवस्थित होता है। उससे अन्यत्र अवधिज्ञानावरणका रसोदय छहवृद्धियों, छह हानियों और अवस्थानरूपसे अनवस्थित होता है । इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। शेष ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी अपेक्षा भी आगमानुसार कथन करना चाहिए। जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणाम प्रत्यय होते हैं उनका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थितवेदक होता है । बेदी जाने वाली नामकर्मको प्रकृतियोंको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि नहीं वेदी जाने वाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका अधिकार नहीं है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मण शरीर, छहसंस्थानों में से कोई एक संस्थान, प्रौदारिक शरीराङ्गोपाका तीन संहानमें से कोई एम संहान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियों में से कोई एक, श्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर-दुःस्वरमें से कोई एक, प्रादेय, यश कीति, सुभग, निर्माण ये नामकर्मको वेदी जानेवाली प्रकृतियां हैं। इनमें से तेजसशरीर, कार्मण शरीर, वर्ण, गंध, रस, शीत-उष्ण-स्निग्ध-रुक्ष स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशःकीति और निर्माण नामकर्म परिणामप्रत्यय हैं । गोत्रकर्ममें उच्चगोत्र परिणामप्रत्यय है । इसप्रकार परिणामप्रत्यय नाम व गोत्रकर्मकी उक्त प्रकृतियोंकी अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदना होती है, क्योंकि अवस्थित परिणामविषयक होने पर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है, परन्तु यहां वेदी जानेवाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि अघाति प्रकृतियोंकी छह वृद्धि और छह हानिके क्रमसे अनुभागको यह वेदता है। इसप्रकार उपशान्तकषाय गुणस्थानके अन्तिमसमयपर्यन्त चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम विधान सम्पूर्ण हुआ। १. ज. प. पु. १३ पृ. ३३०-३३४ । क. पा. सु. १.७०७ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लब्धिसार शुद्धिपत्र - T २. F • x 2.8 हता : 23 . - पृष्ठ पंक्ति शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३. प्रध:प्रवृत्तकरण अषःप्रवृत्तकरण निष्टापक निष्ठापक होता २० सलिये चौतिस इसलिये चौतीस ६७ १२ संशयिक सांशयिक गग्गोषबज्जारा ए रणग्गोचवज्जणाराए १७ १६ चउतीसा चोतीसा प्राप्त हो जो प्रसंप्राप्तासंपाद प्राप्त होकर हो इन्छ जीय १४ ११ चोदस बग्ध के भजतीय चोदस यह विप ५ वर्षभ यहां विशेष वज्रर्षभ १०३ १६ अनन्तरकाल १५ १२-१३ असंप्राप्ता अन्तरकाल असंप्राप्त १०३ २० प्रारम्भ १६ १४ बंभति चालू बंचंति १०४ ८ १८ २७ ज.प.पु.पृ. २११ ज.ध.पु. १२ पृ०२११ स्थितिधता उद बतलाया स्थितिवात उदय बतलाया १०८ १९ अनिवृत्तिकरसा वाला अनिवृत्तिकरण २४ २१ प्रजहण्यमणुक्कस्स्प्पदे भजहण्णमणुक्कस्स परिणाम वाला मदे | ११३ २० प्रायु कम का मायु कर्म का २८ १३ अपुष्वमगिट्टियं ।। अपुब्वमरिणयट्टि । कर्मों की कर्मों के गुरुपदेश गुरूपदेश ११५ १६ । स्थितिकर्म स्थिति सत्कर्म उवाक उर्वक ११५ २३ पल्पोप प्रमाण पल्यापम प्रमाण ३४ १. भाकर्षमनुष्टिः अनुकर्षणमनुकृष्टि वन्डका खण्ड का [ ११८ १७ गुसासे द्वि गुणसेडि १३ प्रतिभाव है प्रतिभाग है। अवस्थिति भवस्थित प्रपणा प्ररूपया १२६ १४ गुरसेविसंखभाग गुरासे दिसंखमांगा ४३ १० अन्तरोपनिया का अनन्त रोपनिया का १२७ १ मक्त मिरूपण निरूपित १३० ७ उदयाद उदयादि बद्रव्यावलि बद्ध द्रव्य प्रावली उदयहि उदयहि एक भाव को एक भाग को खविदे मध्वान अध्वान १४० ५ पपचावनुपूर्वी पश्चादानुपुर्वी निकभामाहार निषेकभागहार १४५ ७ प्रमाण तथा चयहान चयहीन १५० २६ उससे अपूर्वकरण के उससे संख्यातगुणा भागाहार भागहार प्रथम अपूर्व करण के प्रथम २.प्रतिपाद्यमान २ प्रतिपद्यमान स्थितिकर्म स्थितिसलम १५२ २४ असंख्यातगुण वृद्धि असंख्यात गुणवृद्धि प्रगावाला प्रमाण वाला जाकर काण्डक जाकर 2 .2 उक्त २४ १३ खवदे तथा 2 - - - - - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीदेसु स्तिबुक (२) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ..: शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति शुद्ध १६० २१ (मनुष्य) (मनुष्य) के | २६१ ५ स्थितिबन्ध दो स्थितिबन्ध से तग्जेछ तज्जेह्र गुणा दो गृणा १७ १८ पूर्वक होने वाला पूर्वक होनेवाला | २६३ ७ अन्तमुहूर्त क्रम अन्तमुहूर्त कम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व उपशमसम्यक्त्व, | २६३ १२ भादरग मोदरा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ठिदिबंधा लिदिबंधो १७१ २५ . प. पु. १........। धपु.१ पृ. ३६६ ।। २६४ ११ बादरकसायरा बादरकसाया १७३ ११ अनू कीर्यमाण अनुत्कीर्वमारग | २६६ २३ । वर्तन हो हाने से वर्तन हो जाने से १७८ २७ दोपहं पि उक्सेरि दोण्हं पि उक्सममेडि | २६६ २४ पविप्रकृति बन्ध का पांचप्रकृतिक बन्ध समारोहणे समारोहणे, का १५१ १६ मारवई मारभई २६९ गलिहावशेष . गलितावशेष १५८ ३ तीदेसु २७३ १८ पश्चादनुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी १९७ ८ प्रणुपुब्बीसंकमणं आणुपुखी संकमणं | २७४ ७ स्थितिबन्ध से असंख्यात गुणा २०४ १७ संटुव समदेतत्तो संढुवसमदे तत्तो | २७५ १२ घान-श्रेणी से समाधान-श्रेणी से २११ ८ तत्कालठिदिवषो तककालडिदिबंधो २७५ १३ प्रथवा और २१८ २१ स्तुयिक २७६ २५ उक्कस्स्स . उक्कस्स २२२ २८ (गच्छ-१) २] -(गच्छ-१)] | २७७ ६ विशेष अधिक प्रमाण विशेष अधिक का प्रमाण २२४ १३ प्रतिभा के प्रतिभाग के २७७ १३ तबतक पूर्ण तब तक पूर्व २२५ १४ ३२ अर्थात् दो चय, १६ अर्थात् एक घय २७७ २३ तदो एवं विठिदिबंध तदो एवंविट्ठि २२५ १५ ४८ अर्थात् तीन घय ३२ अर्थात् दो चय परावत्तागण दिबंधपरावतपाणि २२७ १४ चाहिये। पाहिये । [देखो चित्र | २७७ २४-२५ पलिदो प्रसख-भागिजो पलिदो० असंखे। २२६ पृष्ठ पर] भागिनो २२८ .१ एक चय को एक घय को "प्रादि | | २७८ १० माहत्म्य से माहात्म्य से स्थापित कर स्थापित कर | २७६ ५ असंख्यातवें भाग संख्यातवें भाग २४० ७ प्रमाण-स्थिति प्रमाण-स्थिति २४५ २७ यथानिादष्ट स्थान हा.ययानिदिष्ट स्थान | २८१ २२ के चरम समय में उतरने पर पर ही | २८४ १ गुणश्रेणि के विशेष गुण थोरिण के यशस्कीति मश:कोति विषय में विशेष . २५४ ७ द्रव्य का द्रव्य को | २६३ २२ श्रेण्यारोह श्रेण्यारोहण २५७ १५ लीये २६४ ७ प्रथम समय करता प्रथम समय २५७ १६ विशुद्ध विशुद्धि | २६७ २२ काण्डोत्कीरणकाल काण्डकोत्कीरणकाल २५६ ५ अधस्तन कृष्टि न मधस्तन कृष्टि का | २९८ १५ प्रथम स्थितिबन्ध प्रथमस्थितिबन्धकाल २५६, २६ सम्वासिमेगसमण्णव सम्वासिमेगसमएणेष | २६८ १५ . २६. .१ स्तुविक स्तिबुक / २९६ १० संख्यातगुण संख्यातगुणे २६. २६ लोमं परिव्यज्म लोम परित्यज्य / २९६ १३ प्रधिक या वह पषिक था वर लिये Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३.० १ ३०४ ६-७ अशुद्ध शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध विशेष अधिक विशेष मधिक है। । ३१३ ३.४ चढ़ने वाले के बादर चढ़ने वाले प्रनिविभाग है विभाग हैं लोम के वृत्तिकरण जीव के सासादनगुणस्थानके संख्यातगुरणे अपस्तन प्रथम समय में काल से संख्यातगुरणे कालरूप सासादन ! ३१३ ५ के अन्तिम स्थितिबन्ध के अन्तिम समय नीचे के मुरणस्थानके में स्थितिबन्ध इस कारण क्योंकि | ३१३ १५ होता है । उससे होता है, वह संख्यात उपशमनकाल के उपशान्त कालके गुणा है । उससे पल्यक पल्य के | ३१५ २ होता है . होते हैं। ३०४ . ७ १०६ १० ३१२ ५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लक्षणावलि : लब्धिसार ग्रन्थ में जहां परिभाषा माया यह पृष्ठ प्रकरणोपशामना २४६ ___ करणोपशामना से भिन्न लक्षणवाली प्रकरणोपशामना होती है। अर्थात् प्रशस्त समता परिक्षा के बिना ही प्राप्त काल वाले कर्म प्रदेशों का उदयरूप परिणाम के बिना अवस्थित करने को प्रकरणोपशामना कहते हैं । इसी का दूसरा नाम अनुदोर्णोपशामना है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का आश्रय लेकर कर्मों के होने वाले विपाक-परिणाम को उदय कहते हैं। इस प्रकार के उदय से परिणत कर्म को "उदीर्ण" कहते हैं। इस उदीरणं दशा से भिन्न अर्थात् उदयावस्था को नहीं प्राप्त हुए कर्म को अनुदीर्ण कहते हैं । इस प्रकार के अनुदोर्ण कर्म की उपशामना को अनुदीपोपपामना कहते हैं। इस अनुदोगोपशामना में करण परिणामों की अपेक्षा नहीं होती है, इसलिये इसे प्रकरणोपशामना भी कहते हैं । इस प्रकरणोपशामना का विस्तृत वर्णन कर्मप्रवाद नामक पाठवें पूर्व में किया गया है। aw अगुरुलघुचतुष्क मनस्थिति भतिस्थापना क. पा.सु०७० अर्थात् प्रगुरुलघु, उपघात, परघात भौर उच्छ वास । सत्त्वस्थ कर्म को अन्तिम स्थिति का द्रव्य प्रगस्थिति कहलाता है । कर्म परमाणुनों उत्कर्षण-अपकर्षण होते समय इनका अपने से ऊपरकी या नीचेकी जितनी स्थिति निक्षेप नहीं होता वह प्रतिस्थापनारूप स्थिति कहलाती है । अर्थात् कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होते समय तो उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति में निक्षेप नहीं होता वह प्रतिस्थापना रूप स्थिति है। ज. प. ७/२५० इसी तरह जिन स्थितियों में अपकर्षित द्रव्य दिया जाता है उनकी निक्षेप संज्ञा है तथा निक्षेपस्प स्थितियों के ऊपर तथा जिस स्थिति के द्रव्य का अपकर्षण होता है उससे नीचे, जिन मध्य की स्थितियों में प्रपकर्षित द्रव्य नहीं दिया जाता उनकी प्रतिस्थापना संज्ञा है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्द पृष्ठ पृष्ठ प्रघाप्रवृत्तकरण २१ परिभाषा उत्कर्पण में-प्रयाघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना एक प्राचली प्रमाण और प्रतिस्थापना उत्कृष्ट पाबाधा प्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना प्रावली के मसंरूपातवें भाग प्रमाण मोर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समय कम एक प्रापली प्रमाण होती है। ज० ध०७/२५० अपकर्षण में -एक समय कम पावली; उसके दो त्रिभाग प्रमाण जघन्य शतिस्थापना होती है तथा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण होती है। यह अव्याघात विषयक कथन है । ल० सा० गा० ५६-५८ व्याघात को प्रापेक्षा प्रतिस्थापनाउस्कृष्ट समयाधिक अन्तः कोटाकोटिसागर सागर से हीन उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण होती है। ल. सा० गा० ५६-६० ज०५०८/२५० प्रथम करण में विद्यमान जीव के करणो [परिणामों] में, उपरितन समय के परिणाम पूर्व समय के परिणामों के समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है। इस करण में उपरिम समव के परिणाम नीचे के समयों में भी पाये जाते हैं, क्योंकि उपरितनसमयवर्ती परिणाम मधः अर्थात् अघस्तनसमय के परिणामों में समानता को प्राप्त होते हैं, अत: "प्रधः प्रवृत्त' यह संज्ञा सार्थक है । घवल ६/२१७ जिसका कहीं पर भी प्रवस्थान--ठहरना म हो उसे अनवस्था कहते हैं । यह एक दोष है। ___अष्टसहस्री पृ० ४४४ प्रा० ज्ञानमतीजी] कहा भी है-मूलक्षतिकरीमाहरनवस्यां हि दूषणम् । वस्त्वनन्त्येऽप्यशक्तो च नानवस्था विचार्यते ॥१०॥ अर्थात् जो मूल तत्त्व का ही नाश करती है वह पनवस्या कहलाती है। किन्तु जहां वस्तु के अनन्तपने के कारण या बुद्धि की असमर्थता के कारण जानना न हो सके वहां अनवस्था नहीं मानी जाती है । मतलब जहां पर सिद्ध करने योग्य वस्तु या धर्म को सिद्ध नहीं कर सके और प्रागे-मागे अपेक्षा तथा प्रश्न या आकांक्षा बढ़ती ही जाय, कहीं पर ठहरना नहीं होवे, यह अनवस्था नामक दोष कहा जाता है । प्र० का मार्तण्ड पृ. ६४८-४६ [अनु० प्रा० जिनमतीजो] एवं षड्. ६० स० ५७/३७१/३६२, प्र. र. माला पृ० १७१ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शम्ब शब्द पृष्ठ पृष्ठ । । परिभाषा वस्तु अनन्तता के कारण यदि अनवस्था है तो उसका वारण नहीं किया जा सकता, वह तो भूषण है । षड्दर्शनसमुच्चय का० ५७ प्रकरण ३७१ पृष्ठ ३६२ [सं० डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य] कहा भी है—मप्रमाणिकानन्तपदार्थपरिकल्पनया विधान्त्यभावोऽनवस्था। यानी अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते हुए जो विश्रान्ति का प्रभाव होता है, इसका नाम अनवस्थादोष है। प्र. २० माला पृ. २७७ टि० १० । अभिधान रा. कोश. १/३०२ जैसे-पुत्र पिता के प्राधीन है, पिता अपने पिता के अधीन है, वह अपने पिता के प्राधीन है। इसीत्रकार सत् और परिणाम को पराधीन मानने पर मनवस्था दोष आता है क्योंकि पराधीनता रूपी भुसला का कभी अन्त नहीं मावेगा। पं०५० पू० ३८१-८२ यानी दो में से कोई एक वर्म, पर के पाषय है, तो जिस पर के प्राश्रय है वह भी सब तरह से अपने से पर के प्राश्रय होने से, अन्य पर के आश्रय की अपेक्षा करेगा और वह भी पर अन्य के प्राश्रय की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर अन्य-अन्य प्राश्रयों की कल्पना की सम्भावना से अनवस्या प्रसंग रूप दोष प्राता है । जिम करण में विद्यमान जीवों के एक समय में परिणाम भेद नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है। ज० प० १२/२३४ प्रनिवृत्तिकरण में एक-एक समय में एक-एक करण है। ज.ध. १२/२ ही परिणाम होता है, क्योंकि यहां एक समय में जघन्य व उत्कृष्ट भेद का प्रभाव है । एक समय में वर्तमान जीवों के परिणामों की अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहां नहीं होती के परिणाम पनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। घ०० ६ पृ० २२१-२२२ सारतः अनिवृत्तिकरण में प्रस्पेक समय में नाना जीयों के एक सा ही परिणाम होता है । नाना जीवों के परिणामों में निवृत्ति [अर्थात् परस्पर भेद] जिसमें नहीं है वह अनिवत्तिकरण है। घवल १/१८३, क.पा. सू०पू० ६२४, ज. ध० १२/२५६ अध: प्रवृत्ताकरण के प्रथमसमय से लेकर चरम समयपर्वन्त पृथक-पृथक एक एक समय में छह दृद्धियों के कम से अवस्थित और स्थितिबन्धापसरणादि के कारणभूत असंख्यातलोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं। परिपाटी क्रम से विरचित इन परिणामों के पुनरुक्त और अपुनरुक्त भाव का अनुसन्धान करना अनुष्टि है । अनिवृत्तिकरण ३१, ६८१, ४३, ६६क्षप. २४ अनुकृष्टि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ अनुदी *** भनुदीर्णोपशामना २४९ अनुभाग काण्डक- ४४; क्ष. सा. ात ४, १० ( ७ ) परिभाषा "अनुकर्षणमनुकृष्टिः" अर्थात् उन परिणामों की परस्पर समानता का विचार करना, यह अनुष्टि का मर्थ है। देखा करणशानना की परिभाषा में अकरगोपशामना का दूसरा नाम ही अनुदीपशामना है । पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तरा काले जो घादी शिष्पज्जदि सो अणुभागखंडय घावोणाम | बवल १२/३२ द्वारा जो घात अर्थ -- प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के निष्पत होता है वह अनुभाग काण्डकवात है । काण्डक पोर को कहते हैं। कुल अनुभाग के हिस्से करके एक-एक हिस्से का फालि क्रम से अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा प्रभाव करना अनुभाग काण्डकयात कहलाता हूँ । [ष० १२ / ३२ विशे० ] विशुद्धि में अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग का मनन्त बहुभाग अनुभागकाण्डक घात द्वारा घात को प्राप्त होता है। करण परिणामों के द्वारा श्रनन्व बहुभाग अनुभाग घाते जाने वाले भाग काण्ड के शेष विकल्पों का होना असम्भव है। एक एक अन्तर्मुहूतं में एक एक अनुभाग काण्डक होता है । एक एक अनुभाग का पडकोत्कीरण काल के प्रत्येक समय में एक-एक फालि का पतन होता है । कर्म के अनुभाग में स्पर्धक रचना होती है । प्रथमादि स्पर्धक में रूप अनुभाग होता है तथा धागे-आगे अधिक । वहां समस्त स्पर्धकों को श्रनन्त का भाग देने पर बहुभाग मात्र ऊपर के स्पर्धकों के परमाणुओं को एक भाग मात्र नीचे के स्पर्धेकों में परिणामाते हैं । वहां कुछ परमाणु पहले समय में परिस्कृत कराये जाते हैं, कुछ दूसरे समय में, कुछ तीसरे में ऐसे अन्तर्मुहुर्त काल में समस्त परमाणुओंों को परिणत करके ऊपर के स्पर्धकों का प्रभाव किया जाता है। यहां प्रत्येक समय में जो जो परमाणु नीचे के स्पर्धकरूप परिमाये उनका नाम फालि है। इसप्रकार अन्तर्मुहुर्त में जो कार्य किया, उसका नाम काण्डक है। इस अनुभागकाण्डक द्वारा जिन स्पर्धकों का अभाव किया वह अनुभाग काण्डकायाम है। एक एक स्थितिकाण्डकात के अन्तर्मुहूर्त काल के संख्यातहजारवें भाग प्रमाण प्रस्तर्मुहूर्त काल मैं ही एक अनुभाग काण्डकघात हो जाता है । ल० सा० ७६, ८०, ८१ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अन्तरकरण पूर्वकरण श्रप्रतिपात प्रतिपद्यमान स्थान प्रशस्तोपशामना श्रागालप्रत्यागास पृष्ठ ૬ ७२, ७३, २०८ क्षप० ६० ३० १५३, १६०, १६३ ५ परिभाषा विवक्षित कर्मों की अवस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूतं प्रमाण स्थितियों के निषेकों का परिणामविशेष से प्रभाव करने को अन्तरकरण कहते है । क० पा०सु० पृ० ६२६ क० पा०सु० पृ० ७५२ टिप्पण १ जिस करण में प्रतिसमय पूर्व अर्थात् असमान व नियम से अनन्तगुणरूप से वृद्धिगत परिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण है । इस करण में होने वाले परिणाम प्रत्येक समय में प्रसंख्यात लोकप्रमाण होकर भी भ्रन्म समय में स्थित परिणामों के सदृश नहीं होते। यह उक्त कथन का भावार्थ है । ज० ० १२ / २३४ इन्हें अनुभव स्थान भी कहते हैं । स्वस्थान में प्रवस्थान के योग्य और उपरिम गुणस्थान के श्रभिमुख हुए जीव के स्थान ये सब लब्धिस्थान प्रतिपात-प्रतिपद्यमान स्वरूप अनुभव स्थान हैं। अर्थात् संयमासंयम से गिरने के अन्तिम समय में होने वाले स्थानों को प्रतिपात स्थान कहते हैं। संयमासंयम को धारण करने के प्रथम समय में होने वाले स्थानों को प्रतिपद्यमान स्थान कहते 1 इन दोनों स्थानों को छोड़कर यर्थी समय में सम्भव समस्त स्थानों को प्रप्रतिपातप्रतिपद्यमान या अनुभय स्थान कहते हैं । ६० ६/२७७ ० ० १३/१४८ संयम की प्रपेक्षा भी ऐसे ही लगाना चाहिये । ल० सा० १६८ कितने ही कर्म परमाणुओं का बहिरंग अन्तरंग कारणवश उदीरया द्वारा उदय में श्रनागमनरूप प्रतिज्ञा को भप्रशस्तोपशामना कहते हैं। घचल १५ / २७६ भप्रशस्त उपशामना के द्वारा जो प्रदेशाच उपशान्त होता है वह श्रपकर्पण के लिये भी शक्य है, उत्कर्षण के लिये भी प्रफ्य है तथा श्रन्य प्रकृति में संक्रमण कराने के लिये भी शक्य है । वह केवल उदयाबलि में प्रविष्ट कराने के लिये शक्य नहीं है | जय भगल १३ / २३१ इसे देशकरखोपशामना भी कहते है । क० पा० सू० पृ० ७०८ द्वितीयस्थिति के द्रव्य का अपकर्षण करके उसके प्रथम स्थिति में निक्षेपण करने को बागल कहते हैं जय घ० अ० प० १५४ प्रथम स्थिति के प्रदेशों के उत्कर्षरणवश द्वितीय स्थिति में ले जाने को प्रत्यागाल कहते हैं। ज० ० अ० प. ९५४ उत्कर्षण- अपकर्षणवश परस्पर प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्म परमागमों का विषय संक्रम का नाम श्रग्गाल- प्रत्यागाल है । P Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शव पृष्ठ मानुपूर्वी संक्रम २७२, १६७ पायुक्तकरण १९६ क्षप०४७' परिभाषा मन्सरकरण [नवम गुणस्थान में ] कर चुकने के प्रथम समय में मोहनीय कर्म सम्बन्धी सात फरण प्रारम्भ होते हैं। उसमें से यह प्रथम करण है। मथा-स्त्रीवेदनपुसमवेद के प्रदेश पुंज पुरुषवेद में संक्रान्त होते हैं । पुरुषवेद छ: नोकषाय तथा प्रत्याख्यान, पप्रत्यास्यान कषाय सं० शोध में ही संक्रान्त होते हैं। इसी तरह संज्यलन कोष तथा दोनों प्रकार के मान मान संचालन में ही; मान संज्वलन तथा दोनों प्रकार की मामा संज्वलन मामा में ही तथा माया संज्वलन और दोनों लोभ लोम संज्वलन में ही संक्रान्त होते हैं। यह प्रानुपूर्वी संक्रम है। [मानुपूर्वो सकम मानी एक नियत क्रम में संकम] भायुक्त करण, उद्यत करण और प्रारम्भ करण ये तीनों एकार्यक है । तात्पर्यरूप से यहां से लेकर नपुसकर्वेद को उपशमाता है, यह इसका अर्थ है । ज.ध. १३/ २७२ कहा भी है-मसक वेद का "पायुक्तकरण संक्रामक" ऐसा कहने पर नपुसक वेद की क्षपणा [या उपशामना] के लिये उद्यत होकर प्रवृत्त होता है यह कहा गया है १ । नयधवला मूल पृ............ "ताधे चेव एसयवेदस्स आजुसकरणसंक्रामगो" की जयघवला। उपशम श्रेणी चढ़ने वाले को मारोहक तथा उतरने वाले को अवरोहक कहते हैं ! धवल ६/३१८-१६ विवक्षित प्राक्तन सत्कर्म से उसी कर्म का नवीन स्थितिबन्ध अधिक होने पर बन्ध के समय उसके निमित्त से सत्कर्म की स्थिति को बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है । कहा भी है-'वाम्मपदेसििदवछावणमुक्कड्डणा' अर्थात् कर्म प्रदेशों की स्थिति को बढ़ाना उत्कर्षरण है। [धवल १०/१२] अमत्र भी कहा है स्थित्यनुभागयोवृद्धिः उत्कर्षणम्" अर्थात् स्थिति व अनुभाग में वृद्धि का होना उत्कर्षण कहलाता है। [गो० ० गा० ४३८ की टीका] उत्पादानुच्छेद द्रव्याथिकानव को कहते हैं। यह सत्त्वावस्था में ही विनाश को स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ-सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में अन्तिम समय तक सूक्ष्म लोभ का उदय है । वहां पर उसकी उदयव्युच्छित्ति बतलाई जाती है। सो यह कथन उत्पादानुच्छेद की अपेक्षा से जानना चाहिये। जय घरल' ७/ ३०१-३०२; गो. क. गा०६४ की बड़ी टीका (तन उत्पादानुच्छेदो नाम द्रव्या१. यानी क्षपणा च उपशामना; दोनों के ही नन्दर प्रायुक्तकरण शब्द प्रारम्भ करण अर्थ में प्रयुक्त होता है । मारोहकावरोहक २५७ उत्कर्षण ५० उत्पादानुच्छेद तथा म.सा. २०८। २३, ६१ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शव पृष्ठ उदयादि अवस्थित १२० गुणरणी प्रायाम २४५ तथा २८३ उदयादि गलितावशेष १३० गुणश्रेणी प्रश्याम २८३ परिभाषा पिक:); धवल १२/४५७.५८ कहा भी है-विणासविसए दोगिण गया होति अप्पाटाणुच्छेदो प्रणुप्पादाणूच्छेदो चेदि । वानी विनाश के विषय में दो नय हैंउत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेद का अर्थ द्रव्यापिकनय है।.... अनुत्पादानुच्छेद का प्रथं पर्यायाथिकनय है । उत्पादानुनछेद सद्भाव की अवस्था में ही विनाश को स्वीकार करता है । तथा अनुत्पादानुच्छेद प्रसद् अवस्था में प्रभाव संशा को स्वीकार करता है । धवल १२/४५७-४५८ परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि से. अपवर्तनाकरण के द्वारा उपरितन स्थिति से हीन करके अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्याप्तगुणित वृद्धि के क्रमसे कर्म प्रदेशों की निजंरा के लिये जो रचना होती है उसे पुण घेणी कहते हैं। जैन सक्षणाबली २/४१३-४१४ जितने. निषेकों में असंख्यात गुणश्रेणीरूप से प्रदेशों का निश्शेपरण होता है वह गुणश्रेणी मायाम कहलाता है । यह गुणश्रेणी प्रायाम भी दो प्रकार का होता हैं । १ गलितावशेष २ अवस्थित (देखो चित्र पृ० २८३ ल. सा.) गलितावशेष गुणधरणी-गुणणी प्रारम्भ करने के प्रथम समय में जो गुणश्रेणी प्रायाम का प्रमाण था उसमें एक-एक समय के बीतने पर उसके द्वितीयादि समयों में गुणश्रेणो- प्रायाम क्रम से एक एक निषेक प्रमाण घटता हा प्रवशेष रहता है, इसलिये उसे गलितावशेष गुणश्रेणी प्रायाम कहते हैं। उदय समय से लगाकर गुणने पो होने पर उदयादि गलितावशेष गुणधेरणी कहलाती है तथा उदयावली से बाहर गुरिगतकम से प्रदेश विन्यास हो तो उदयाबलि बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणी कहलाती है। अवस्थित गुणश्रेणी-प्रथम समय में गुणश्रेणी का जितने भामाम लिये भारम्भ किया उतने प्रमाण सहित ही द्वितीयादि समयों में उतना ही पायाम रहता है, क्योंकि जदयावलि का एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थिति का एक समय गुणश्रेणी में मिल जाता है । ( पृ० १२०) प्रतः नीचे का एक समय व्यतीत होने पर उपरिम स्थिति का एक समय गुणश्रेणी में मिल जाने से गुणश्रेणी पायाम . जितना था उतना ही रहता है, ऐसा गुणश्रेणी पायाम अवस्थित स्वरूप होने से अवस्थित गुणप्रेणी पायाम कहलाता है। यह अवस्थित गुणधेसी पायाम भी गलिताचशेषवत् दो प्रकार का होता हैउदयादि प्रवस्थित गुणवेणी मायाम तथा उदयावलि बाह्य अवस्थित गुणाधणो Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { 'न' शब्द उदी उपयोग उपशम चारित्र पृष्ठ उपसम-उपशामक ( दर्शनमोह की अपेक्षा ) उपममावली करगोपशामना २४९ ३ ७१ १६६ २०७ २४९ . ( ११ ) परिभाषा भायाम | जहां उदयावलि के ऊपर प्रथम निषेक से अवस्थित गुणश्रेणी रचना हो तो वह उदयावलि बाह्य अवस्थित गुरवणी श्राय'म कहलाता है तथा वही उदय परवा समय से ही श्रेणी प्रायाम प्रारम्भ हो जावे तो वह गुएार्थणी आवाम, उदयादि कहा जाता है । जैसे सम्यक्त्व की वर्ष स्थिति सत्कर्म से पूर्व उदमावलि बाह्य गलितावशेष गुणवर्ष स्थिति सस्कर्म से लगाकर ऊपर सर्वत्र उदयादि यवस्थित ी थी, किन्तु गुणी आयाम है ( पृ० १११-१२० ) ऐसे ही उतरने वाला मायावेदक जीव उदयरहित लोभश्य का द्वितीयस्थिति से श्रपकर्षण करके उदयावलि बाह्य प्रवस्थित गुण श्रेणी करता है । (ल-सा० ३१७ ) सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम काण्डक की प्रथम फालि के पतन समय से लेकर द्विचरम फालि के पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गुण श्रेणी प्रायाम रहता है । ल० सा• गा० १४३ पृ० १३० इसप्रकार पारों प्रकारों की गुणवरियों के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । अन्यत्र भी गुणश्रेणी - विन्यास यथा प्रागम जानना चाहिए। विशेष इतना कि श्रायु कर्म का होता । शेष सब कर्मों का होता है । गुणश्र ेणी निक्षेप नहीं (देखो करणीपशामना में ) जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है। अर्थ के ग्रहण रूप आत्मपरिणाम को भी उपयोग कहते हैं । उपयोग के साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार हैं । इनमें से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है । करण परिणामों के द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते हैं। उपसम करने वाले को उपशामक कहते हैं । ज० ० १२/२८० सकल चारित्र मोहनीय के उपग्राम से जो चारित्र उत्पन्न होता है उसे उपशमचारित्र कहते हैं । त० सू० २/३ जिस भावली में उपशम करना पाया जाय उसे उपशमावली कहते हैं । प्रशस्त मौर प्रशस्त परिणामों के द्वारा कर्म प्रदेशों का उपशान्त भाव से रहना करगोपशामना है । अथवा करणों की उपशामना को करगोपशामना कहते हैं । अर्थात् निर्धात्ति, निकाचित आदि करणों का प्रभास्त उपशामना के द्वारा उपशान्त करने को करोपशामना कहते हैं । क० पा०सु० पृ० ७०८ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब पृष्ठ परिभाषा करणोपशामना के भी दो भेद है-देश करणापशामना और सर्वकरपोपशामना । अप्रशस्तोपशमनाधिकरणों के द्वारा फर्म प्रदेशों के एक देश उपशान्त करने को देशकरणोपशामना कहते हैं । सर्व कररणों के उपशमन को सर्व करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् उदीरणा, निपत्ति, निकाचित आदि पाठों करणों का अपनीअपनी क्रियापों को छोड़कर जो प्रशस्तीपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्व करणोपशामना कहते हैं । कषायों के उपशामन का प्रकरण होने से प्रकृत में यही सर्व करणोपशामता विवक्षित है। क. पा० सु० पृष्ठ ७०४ विस्तार इसप्रकार है-उपशामना दो प्रकार की होती है—करणोपशामना और अकरणोपशामना । उनमें से सर्व प्रथम उपशामना पद की व्याख्या करते हुए जव घवला में (पृष्ठ १८७१-७२) बताया है कि उदयादि परिणामों के बिना कर्मों का उपशान्त भाव से अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है। यहां "उदयादि परिणामों के बिना" का अर्थ यह कि किसी भी कर्म का बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादि के बिना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है। यह उपशामना का सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव करणोपशामना प्रौर प्रकरणोपशामना दोनों में पटित होता है । जय धवला में कहा है कि प्रशस्त अप्रशस्त परिणामों के द्वारा कर्म प्रदेशों का उपशमभाव से सम्पादित होना करणोपशामना है प्रधवा करणों की उपशामना का नाम करणोपशामना है। उपशामना, निधत्त, निकाचना प्रादि पाठ करणों का प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है। अथवा अपकर्षण प्रादि करणों का प्रप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इससे भिन्न लक्षण वाली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामों के बिना जिन फर्म प्रदेशों का उदय काल प्राप्त नहीं हुमा है उनका उदमरूप परिणाम के बिना अवस्थित रहना प्रकरगोपशामना (अनुदीर्णोपशामना) है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (जयपवला पृष्ठ १८७२ प्रथम पेरा) परन्तु देशकरणोपशामना में प्रशस्त परिणामों को निमित्तता है । कहा भी हैसंसार के योग्य प्रप्रशस्त परिणाम निमित्तक होने से यह (देश करणोपशामना) अप्रशस्त उपशामना कही जाती है । यह संसार प्रायोग्य प्रप्रशस्त परिणाम निमि. तक होती है यह प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि नत्यन्ततीव संक्लेश से ही प्रप्रशस्त उपपाामना, निधत्त और निकाचना करणों की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा क्षपक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ परिभाषा श्रेणि और उपागम श्रेरिण में विशुद्ध परिणामों के निमित्त से यह विनाश को प्राप्त हो जाती है, अतः इसका प्रप्रशस्तपना है, इस बात की सिद्धि में प्रतिबन्ध का प्रभाव है। इस कारण इस प्रकार की जो अप्रशस्त उपशामना [ अप्रशस्त परिणाम निमित्तक] है वह ही "देशकरणोपशामना" कही जाती है (जयधवल पृष्ठ १८७४) इस प्रकार एक तो अप्रशस्त परिणामों को निमित्त कर होती है, दूसरे कुछ कर्म परमाणुषों में ही इसका व्यापार होता है। ऐसी देशकरणोपशामना या अपास्त उपशामना सार्थक नाम वाली है। कहा भी है-प्रशस्त उपशामना मादि करणों के द्वारा एक देश कर्म परमाणुओं का उदयादि परिणाम के पर मुखी भाव से उपशान्त भाव को प्राप्त होना देवकरणोपशामना है। [ज०५० १८७२ चरमपेरा] यहां किन्हीं करणों का परिमित कर्म प्रदेशों में ही उपशान्तपना देखा जाने से इसकी देशकरणोपशामना संज्ञा बन जाती है । इसप्रकार संसार अवस्था में प्रप्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकालना प्रादि करणों के माध्यम से जो परिमित कर्म परमाणुमों का उपशामनारूप होकर उवय के प्रयोग्य रहना वह देश करणोपशामना है । जबफि सर्वोपशामना में समस्त कर्मपुज को अन्समुहूर्त के लिये उदय के अयोग्य करना विवक्षित है । यथा-दर्शनमोह की अपेक्षा अनिवृतिकरण के प्रारम्भिक समय में प्रप्रशस्त उपशामना, निधत्त, निकाचना की व्युग्छित्ति होने के बाद निवृत्ति परिणामों से दर्शनमोहनीय के समस्त फर्म परमाण को अन्तर्मुहूर्त के लिये उदय के अयोग्य करना सर्वोपशामना है । यद्यपि दर्शनमोह का उपशाम होने पर भी उसमें संक्रमकरण और अपकर्षण करा की प्रवृत्ति पाई जाती है, फिर भी समस्त कर्म परमाणु विवक्षित काल के लिये उदय के प्रयोग्य बने रहते हैं, अतः इसे सर्बोपशामना मानने में कोई बाधा नहीं है। इसी प्रकार चारित्र मोह की अपेक्षा अनिवृत्ति करण परिणामों के प्रारम्भिक समय में मप्रशस्त उपशामना, निधत्त और निकाचित की पुच्छित्ति होकर प्रनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्म साम्पराय द्वारा सकल चारित्रमोह के कर्म पुज को पन्तमुहूर्त काल के लिये उदयादि के प्रयोग्य करना सर्वोपशामना [ सर्वकरणोपशामना ] है। इसप्रकार प्रकरणोपमामना, देशकरणोपशामना तथा सर्वकरणोपशामना के बारे में विस्तृत कथन परिभाषा के साथ किया गया । प्रशस्त उपशामना [प्रशस्त करणोपशामना] मर्थात् सर्वोपशामना यानी सर्वकरणोपशामना मोहनीय कर्म की ही होती है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संद पृष्ठ परिभाषा कृष्टि २३३ क्षप०६३ कमकरण १७७ १ जम धवल मूल पृष्ठ १८७५ तथर क० पा० सुत्त पृ०७०६ कषाय की अपेक्षा परिभाषाजिसके द्वारा संज्वलन कार्यों का अनुभाग सत्त्व उत्तरोशार कृश अर्थात् अल्पतर किया जाय उसे कृष्टि कहते हैं । क. पा. सुपृ०८०८ योग की अपेक्षा परिभाषा--पूर्व पूर्व स्पर्धक स्वरूप से ईटों की पंक्ति के प्राकार में स्थित योग का उपसंहार करके जो सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्ड किये जाते हैं उन्हें कृष्टि कहते हैं । ज० घ० अ०प० १२४३, जन लक्ष. २४३६७ अनिवृत्तिकरण काल में मोहनीय का स्थितिबन्ध स्त्रोक; शानावरण, दर्शनावरण मौर अन्त राय का स्थितिबन्ध तुल्म; किन्तु मोहनीय के स्थितिबन्ध से असंख्यातगुणा तथा नाम-गोत्र का स्थिति बन्ध तुल्य; परन्तु पूर्व से असंख्यातगुणा मोर वेदनीय कर्म का स्थिति बन्ध विशेष अधिक होता है। जब इस क्रम से स्थितिबन्ध होता है तब इसे क्रमकरण कहते हैं। पूर्व संचित कर्मों के मलरूप पटल के अर्थात् प्रप्रशस्त ( पाप) कर्मों के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्ध के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणे हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, उस समय क्षयोपशम लम्घि होती है। चार अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व, सम्पम्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति; इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाले सम्यक्त्व को क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। सबसे छोटे भवग्रहण को क्षुद्र भव कहते हैं और यह एक उच्छवास के [ संख्यात मावली समूह से निष्पन्न] साधिक अठारहवें भाग प्रमाण होता हुआ संख्यात प्रावचि-सहस्र प्रमाण होता है । जय पवल में कहा है कि संख्यात हजार कोड़ा कोड़ी प्रमाण प्रावलियों के द्वारा एक उच्छवास निष्पन्न होता है और उसके कुछ कम १८वें भाग प्रमाण ( १ वां भाग) मह क्षल्लक भवग्रहण (क्षुद्र भवग्रहण) क्षयोपशमलब ५ क्षायिक सम्यक्त्व १०४ क्षुद्र भव ग्रहण होता है । ज० घ. मूल पृष्ठ १६३० जिन निषेकों में गुणकार क्रम से अपकर्षित द्रव्य निक्षेपित किया जाता है अर्थात् गुरगोरिणायाम ४६ १. शेष कर्मों की प्रकरणोपशामना तथा देशकरणोपशामना तो होती है। ऐसा जानो । .. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + शब पृष्ठ चतु:स्थानीय अनुभागबन्ध परिभाषा दिया जाता है, उन निषेकों का नाम गुणवेणी निक्षेप है। उन निषेको की संख्या का प्रमाण ही गुणधेरणी अायाम है। प्रशस्त प्रकृतियों का गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतोपम रूप अनुभाग दन्ध पतुःराय माग बन्ध कहलाता है । अप्रशस्त प्रकृतियों में "चतु:स्थानीय' शब्द से नीम, कोजीर, विष और हलाहलोपम लेना चाहिये । अथवा घातिया की अपेक्षा लता-दारु-अस्थि-शंस लेना चाहिये । प्रयत्' चारित्र मोहनीय (चालिस कोटा कोटी स्थितिबन्ध वाले कर्म चालीसिया कहलाते हैं) मूल और वृद्धि दोनों को मिलाकर स्थिति बन्ध के पूरे प्रमाण का निर्देश करना। विवक्षित प्रकरणमें यस्थिति बन्ध का यही तात्पर्य है। इसमें बाबाषा भी शामिल है । जम् प० १९१२; (यस्थितिबन्ध में बाधा भी गिनी जाती है घ० ११/ चालीसिया जस्थिति २८०,२६७ १०५ तीसिया असचतुष्क दूरापकृष्टि १०७, ११६, शानावरण, दर्शनावरण वेदनीय तथा अन्तराय को तीसिया कहते हैं। अर्थात् ' त्रस, बादर, पर्याप्त भौर प्रत्येक ।' जिस अवशिष्ट स्थिति सत्कर्म में से संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाण्डकका घात करने पर घात करने से शेष बना स्थिति सत्कर्म नियम से पल्पोपम के असंख्यात भाग प्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है उस सबसे अन्तिम पल्पोपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति सत्कर्म को दूरापकृष्टि कहते हैं । जय धवला पु. १३ पृ० ४५ तात्पर्य यह है कि जब स्थितिकाण्डकघात होते-होते सत्कर्म स्थिति पल्योपम प्रमाण शेष रह जाती है तब स्थितिकाण्डक का जो प्रमाण पहले था यह बदल कर अवशिष्ट स्थिति-सत्कर्म का संख्यात बहुभाग हो जाता है । भोर इस प्रकार उत्तरोत्तर उक्त विधि से स्थितिकाण्डकघात होते होसे जब सबसे जघन्य पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब वह "दुरापकृष्टि", इस नाम से पुकारी जाती है । यह घटते घटते प्रति अल्प रह गई है, इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं । प्रथका शेष रही इस स्थिति से प्रागे उत्तरोत्तर प्रवशिष्ट स्थिति के असंख्यात बहुभाग असंख्यास बहुभाग प्रमाण स्थिति को ग्रहण कर स्थितिकाण्डकपात होता इसलिये इसे "दुरापकृष्टि" कहते हैं । जय षक्ला पु० १३ पृष्ठ ४७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r-.. पृष्ठ परिभाषा देवचतुष्क १८ देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, बैंक्रियिकशरीर, बैंक्रियिकमरीर अंगोपांग: इन चार प्रकृतियों का समूह "देवचतुष्क" कहलाता है । भावारणोपशामना २४० रेखो-करोपशामना की परिभाषा में। देशघातीकरण १७७। अनिवृत्तिकरण काल में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराम का बन्ध जब देश धातिरूप होने लगता है, सर्वघातीरूप से बन्ध नहीं होता तब उसको देशघातीकरण कहते हैं। देप्रचारित्र इसे संयमासंयम भी कहते हैं । देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषायों के उदयाभाव से हिंसादिक दोषों के एक देश विरतिलक्षण अणुव्रत को प्राप्त होने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होता है उसे दिशचारित्र" अथवा संयमासंयमलन्धि कहते हैं। देशनालक्वि जीवादिक ६ द्रव्य तथा जीव, अजीब, प्रामव प्रादिक पदार्थों के उपदेश का नाम देखना है । उस देशना से परिणत प्राचार्यादि की उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विधारमा फी भक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते है। धवल ६/२०४ द्वितीय स्थिति जीव दर्शनमोह प्रादि के उपशम के समय अरतरकरण करता है । उस समय वह अन्तर के लिये जितनी स्थितियों को ग्रहण करता है उसकी "अन्तरायाम" संज्ञा है। उस पतराय के नीचे जितनी स्थिति है वह "प्रथम स्थिति" कहलाती है। तथा भरतराय से ऊपर जितनी कर्म स्थिति है वह "द्वितीय स्थिति,' कहलाती है। द्वितीयोपशम मिथ्यात्व से उत्पन्न होने वाला उपशम सम्यक्त्व प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। यह चतुर्थ से सप्तम गुरुस्थान तक होता है। क्षयोपशाम सम्यक्त्व प्रास् बेदकसम्यक्त्व सम्यक्त्व पूर्वक होने वाला उपशम सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। यही फिर चारित्रमोह की उपशामना करने के लिये प्रवृत्त होता है, अन्य प्रथमोपशम सम्यक्वी या वेदक सम्यक्स्पी नहीं। यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान तक के किसी भी गुण स्थान में स्थित झायोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य के उत्पन्न होता है । घबल पु० १/११: स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्सि मधिकार १२ गा• २०५ की टीका; घबल १/२१४ अन्यत्र भी कहा है-उपशम कणि के योग से जिसका मोह (वर्शन मोह) उप Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ द्विस्थानीय अनुभाग २८ नवकसमय प्रबद्ध ३०२ परिभाषा शान्त हो चुका है। उसके जो मोह के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न ोता है वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । ज. ल. २/५६६ विधि ल. सा• गा २०५ से २१८ में देखनी चाहिये। प्रप्रशस्त प्रकृतियों की अपेक्षा "लतान्दारू" रूप अथवा 'नीम-कांजीर' रूप अनुभाग । प्रशस्त प्रकृतियों की अपेक्षा "गुड़, खाण्ड" रूप अनुभाग द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है। नवक अर्थात् नवीन समयप्रबद्ध । जिनका बन्ध हुए थोड़ा काल हुआ है। संक्रमणादि करने योग्य जो निषेक नहीं हुए ऐसे नूतन समयप्रबद्ध के निषेक का नाम नवक समयप्रनत है । (गो० क. ५१४ टीका) दर्शनमोह; १ चारित्रमोहनीय २ की उपशामना प्रादि के समय विवक्षित कर्म के अंतिम समय के बन्ध के समय से लेकर चरम द्विचरम प्रादि एक समय कम दो मावली प्रमाण समयप्रया अनुपमित अथवा अविनष्ट रह जाते हैं। उन समयप्रबद्धों की नबक समयप्रबद्ध संशा है। जैसे चारित्रमोहनीय उपशामक के मनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अन्तिमसमयवर्ती सवेदी के एक समय कम दो प्रावली प्रमाण नवक समय प्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं। पुरुषवेद के । जो प्रागे मपगतवेदी अवस्था में एक समय कम दो मावली काल में नष्ट होते हैं । ( ज. ध० १३/ २८७ ) इसीतरह जैसे मान का उपशामक है । तो उसके चरम समय बन्ध के समय एक समय कम दो प्रावली प्रमाण समय प्रबद्ध मनुपशान्त रह जाते हैं। बाकी सब मानद्रव्य उपशान्त हो जाता है (उच्छिष्ठावली गौण है) यह एक समय कम दो मावली प्रमाण नवक बद्ध द्रव्य मायावेदक काल के भीतर एक समय कम दो मावलीकाल के द्वारा पूर्ण रूप से उपशमाये जाते हैं । क्योंकि प्रत्येक समय में एक-एक समय प्रबद्ध के उपाशामन क्रिया की समाप्ति देखी जाती है । ज. प. १३/३०१-३०२ इसी तरह कोष, माया, लोभ प्रादि के लिये भी प्रागमानुसार कहना चाहिये । इतना विशेष है कि नवक बम्व का बन्ध काल से एक प्रावली तक तो, बन्धावलि सकल करणों के अयोग्य होने से कुछ नहीं होता तथा बन्धावली के बाद उनका उपशमन काल एक प्रावली प्रमाण होता है (इसप्रकार एक नवक समय १जयघवल १२/२%8-8. २ ल० सा० गा० २६२, २६६, २७१, २७६, २८०, २६५ प्रादि Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकाचनाकरण निक्षेप ५५ परिभाषा प्रबद्ध का दो मावलियों द्वारा उपशम हो जाता है) ज. घ० १३/२८७ चरम पेरा विशेष हेतु ल० सा० पृष्ठ २०७ दखना चाहिये । जो कर्म उदयादि चारों के अयोग्य होकर (उदय, अपकर्षण, उत्कर्षण व संक्रमण) अवस्थान की प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध हैं, उनकी उस अमस्थान लक्षण पर्यायविशेष को निकाचना कहते हैं । ज० १० १३/२३१, ३० ६/२६९; प० ६/२३६ प्रादि उत्कर्षण मथवा अपकर्षण होकर कम परमाणुओं का जिन स्थितिविकल्पों में पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है। उत्कर्षण में अव्याघात दशा में जघन्य निक्षेप का प्रमाण एक समय (क. पा. सु० पृ. २१५) ज० घ०८/२६२ और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण उत्कृष्ट पाबाधा और एक समयाधिक प्रावली; इन दोनों के योग से हीन ७० कोटा-कोटी सागर है । व्याधात दशा में जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। (ल० सा गा ६१, ६२ एवं ज० ० ८/२५३; ज० १० ७/२५० तथा जाप०८/२६२) अपकर्षण में प्रयाघातदशा में जघन्य निक्षेप एक समय कम प्रावली का विभाग और एक समय प्रमाण निषेक रूप होता है । ( ल* सा० ५६ ) तथा उत्कृष्ट निक्षेप "एक समय अधिक दो प्रावली" से हीन उत्कृष्ट स्थिति (७० कोड़ा कोड़ी सांगर) प्रमाण होता है । ल. सा. ५८ व्याघात दशा में उत्कृष्ट निक्षेप पन्त: कोटा कोटीसागर प्रमाण होता है । ११ जो कर्म प्रदेशाम उदम में देने के लिये अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिये शक्य नहीं वह निघत है । (धवल पु०९ पृ. २३५) मन्यत्र भी कहा है जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षण के प्रविरुद्ध पर्याय के योग्य होकर पुन: उदय और पर प्रकृतिसंक्रमरूप न हो सकने की प्रतिज्ञारूप से स्वीकृत है उसकी उस अवस्था को निघसीकरण कहते हैं। [(जय धवल १३/२३१) तथा षवल पु० १६ पृष्ठ ५१६ ] ३४ । अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय सम्बन्धी परिणामस्थान के अन्तर्मुहूर्त अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण काल के संपातवें भाग प्रमाण काल के जितने समय हैं, उतने खण्ड करने चाहिये, वही निबर्गणाकाण्डक है । विवक्षित प्रमय के परिणामों का जिसस्थान से भागे मनुकृष्टिविच्छेद होता है वह निर्वगणाकाण्डक कहा जाता है । (ज० १० १२/२३६) निषत्तीकरण निवंगरणाकाण्डक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ निर्व्याघात. ४८ परिभाषा अभिप्राय-प्रधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे मषःप्रवृत्त करण के काल के संख्यातवें भाग प्रमाण खण्डों में विभाजित हो जाते हैं। जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाण को लिये हुए होते हैं । यहां पर उन परिणामों के जितने भण्ड हुए; निर्वगणाकांडक भी उतने समय प्रमाण होता है । जिसको समाप्ति के बाद दूसरा निर्वगंणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। प्रागे भी इसीप्रकार जानना चाहिये । (ज० ५० १२/२३७ विशे०) स्थितिकाण्डकघात का प्रभाव निर्व्याघात कहलाता है । ( अपकर्षरण में ) ज० घ०८/२४७ उत्कर्षण में-पावली प्रमाण प्रतिस्थापना का प्रतिघात ही यहां व्याघातरूप से विवक्षित है । (ज. व.८ पृ. २५३) जहां प्रतिस्थापना एफ आवसी से कम पाई जाती है वहां साक्षात विषयक उत्कर्षण होता है । (ज.ध. ८/२६२) प्रतः जिस समय मावली प्रमाण प्रतिस्थापना बन जाती है वह प्रव्याघात (निाघात) विषयक उत्कर्षण कहन लाता है। अर्थात् प्रकृतिबन्ध म्युच्छित्ति। कहा भी है-'प्रकृतिबन्ध ब्युच्छित्तिरूप एक बन्धापसरण" । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि के प्रायोग्य लब्धि के समय ३४ प्रकृतिबन्धापसरण होते हैं (पृ. १०) जिनमें ४६ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है।। पृष्ठ १४ यह बन्धव्युच्छेद विशुद्धि को प्राप्त होने वाले भव्य भौर प्रभव्य मिथ्यादृष्टि में साधारण अर्थात् समान है ।(धवल ६ पृष्ठ १३५ से १३९) यहाँ (पवला में) प्रकृति बन्धापसरण की जगह "प्रकृत्ति बन्ध व्युच्छेद" शब्द ही काम लिया है । प्रकृति बन्ध का क्रम से घटना प्रकृतिबन्धापसरण कहलाता है । देखो-अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान की परिभाषा में ! F- प्रकृतिबन्धापसरण १. प्रतिपद्यमान स्थान १५३ प्रतिपात स्थान प्रत्यावली २१६, २०८ प्रयमस्थिति .. .। प्रथमोपशम १, २, ३ मावली के ऊपर की जो दूसरी प्रावली है वह प्रत्यावली कही जाती है। ज. प. १३/२६८-२६१ देखो-द्वितीयस्थिति की परिभाषा में। अनन्तानुबन्धी ४ और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्पक्त्व इन सात प्रकृतियों के उपशम से प्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह मिथ्या दृष्टि जीवों को ही होता सम्यक्त्व १ इसे द्वितीयावली भी कहते हैं । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग्द पृष्ठ परिभाषा है । क्योंकि उपशम थेणी पर चढ़ने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपनाम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्व का "प्रथमोपशम सम्यक्त्व" यह नाम नहीं है । क्योंकि उस सपणामणि वाले के उपशम सम्यक्त्य की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिये प्रथमोपशम सम्यमत्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिये । (घवल ६/२०६) इसीलिये तो कहा है कि-सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्पग्मिच्यादृष्टि मथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि इन जीवों के उस प्रथमोपशमसम्यक्त्व रूप पर्याय के द्वारा परिणमन होने की शक्ति का प्रभाव है । (धवल ६/२०६-७) प्रायोग्य विष कमों की स्थिति को अन्तःकोडाकोड़ी तथा अनुभाग को द्विस्थानिक करने को "प्रायोग्य लब्धि" कहते हैं। [च० सा० मा०७ पृ०७] बीसिया १८५ माम गोत्र को बीसिया कहते हैं । (क्योंकि इनकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा कोटी सागर होती है ।) वर्णचतुष्क १८ "वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श"; इन चार नाम कर्मों का जोड़ा वर्णचतुष्क कहलाता है । विशुद्धि सभि ५ क्षयोपशम लब्धि के होने पर साता प्रादि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों के बन्ध योग्य जो जीव के परिणामों का होना है। वहीं विशुद्धि लब्धि है। बिसंयोजना चारों अनन्तानुबन्धी कषायों को युगपत् विसंयोजना होती है। विसंयोजना अर्थाद "अप्रत्याख्यानावरणादि १२ कषायरूप और , नोकषायों में से ५ कषायरूप परिणमा देना ।" कहा भी है---अनन्तानुबन्धिचतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं । ज० घ. २/२१८-१९ शेष शेष में निक्षेप २६५, २६७ पद गलितावशेष गुणवणी । सकन चारित्र १५७ सकल सावध के विरतिस्वरूप पांच महावत, पांच समिति मौर तीन गुप्तियों को प्राप्त होने वाले मनुष्य के जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे संयम लब्धि या सकल संयम (सकलधारित्र) कहते हैं । मनन्तानुबन्धी प्रादि १२ कषायों की उदयामाव समरण उपशामना के होने पर यह उत्पन्न होता है। यद्यपि पहा भार .. संज्वलन और नौ नो कषायों का उदय है, परन्तु उनके सर्वघाति स्पर्षकों का . उदय नहीं रहने से उनका भी देशोपशम पाया जाता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सर्वकरणोपशामना सहानवस्थान . ६२ परिभाषा यह क्षायोपशमिक सकल चारित्र की अपेक्षा कहा है। क्षायिक सकल चारित्र तथा प्रौपशमिक सकल चारित्र उपशम या क्षपक थेगी में होता है। क्षायोपमिक चारित्र प्रमत्त व अप्रमत्तसंयत इन दो गुण स्थानों में ही होता है । देखो-करणोपशामना की परिभाषा में इसकी भी परिभाषा प्राई है। पदार्थ का पूर्व में उपलम्भ (प्राप्ति या सद्भाव) होने पर, पश्चात् अन्य पदार्थ के सदभाव से उसके प्रभाव का ज्ञान होने पर दोनों में जो विरोध देखा जाता है उसे सहान वस्मारूप विरोध समझना चाहिये । जैसे शीतोष्ण । प्रक० मा० परि० ४ भू. ६ पृ. ४९८ [निर्णम सागर मु० बंबई से मुदित] इस परिभाषा का स्पष्टीकरण राजवार्तिक के निम्न विस्तृत कयन से हो जायगा-अनुफ्लम्भ अर्थात् प्रभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है-वघ्यघासक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक । १ वघ्यघातक माव विरोध सपं और नेवले या अग्नि और जल में होता है । यह दो विद्यमान पदार्थों में संयोग होने पर होता है । संयोग के पश्चात् जो बलवान होता है वह निर्बल को बाधित करता है । अग्नि से असंयुक्त जल अग्नि को नहीं बुझा सकता है । दूसरा सहानवस्थान विरोध ( जो कि प्रकृत है ) एक वस्तु को क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है । नयो पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे, ग्राम का हरा रूप नष्ट होता है और पीतरूप उत्पन्न होता है। प्रतिबन्य-प्रतिबन्धकभाव विरोध-जैसे ग्राम का फल जब तक डाली में लगा है, तब तक फल और इंठल का संयोगरूप प्रतिबन्धक के रहने से गुरुत्व (माम में) मौजूद रहने पर भी नाम को नीचे नहीं गिराता है । जब संयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। संयोग के प्रभाव में गुरुत्व पतन का कारण है। यह सिद्धान्त है। [अथवा जैसे दाह के प्रतिबन्धक चन्द्रकान्तमणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होती, इसलिये मरिण तथा दाह के प्रतिबन्धक-प्रतिबन्ध्य भाव युक्त है ।] रा. वा० पृ. ४२६ [हिन्दी सार] (म.प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) एवं षड्दर्शन समुच्चय का० ५७ पृ. ३५६ अर्थात् ३ लाख सागरोपम से ६ लाख सागरोपम के मध्य । सागरोपमशत सहस पृथक्त्व १४० . स्तिबुक संक्रमण २१८, २१६ (i) को स्थिवुक्कसंकमो रणाम ? उदयसरूवेण समद्विंदीए जो संकमो सो स्थित्रुक्कसंकमो ति भणदे । अर्य-उदयरूप से समान स्थिति में जो संक्रम होता है उसे स्तिबा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ (ii) (iii) (iv) ( २२ ) परिभाषा संक्रमण कहते हैं । ज० घ० १३/२०१६ क० पा०सु० पृ० ७०० टिप्पण ( यह नियम से उदयावली में होता है और अनुदय प्रकृति का होता है ) श्रन्यत्र भी कहा है --- प्रतुदी प्रकृति के दलिक का जो उदय प्राप्त प्रकृति में विलय होता है उसे स्तिबुक संक्रमण कहते हैं। गति, जाति आदि पिण्डप्रकृतियों में से जो अन्यतम प्रकृति उदय को प्राप्त है उस समान काल स्थिति वाली अन्यतम प्रकृति में अनुदय प्राप्त प्रकृतियों को संक्रान्त करा कर जो वेदन किया जाता है उसे तिबुक संक्रमण कहा जाता है। जैसे- उदय प्राप्त मनुष्यगति में शेष तीन नरक गति श्रादि का व उदय प्राप्त पंचेन्द्रिय जाति में शेष चार जातियों का । ( जनलक्षणावली भाग ३ पृ० ११७६ सम्पा० बालचन्द्र सि० शा० ) स्तिबुक संक्रमण होता है । उदयाचली से उदयरूप निषेक के अनंतर ऊपर के निषेक में अनुरूप प्रकृति के द्रव्य का उदय प्रकृतिरूप संक्रमण हो जाना स्सियुक संक्रमण है। जैसे नारकी के ४ गतियों में से नरकगति का तो उदय पाया जाता है; श्रन्म तीन गतियों का द्रव्य प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा नरकगतिरूप संक्रमण होकर उदय में श्रा रहा है। कहा भी है पिडगई जा उदयसंगमा तीए श्रणुदयगयान । संका मिऊ वेयइ जं एसो धिगसंकामो || पंचसं० सं०० ५० गतिनामकर्म की पिण्ड प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उदय पाया जाता है उसके प्रतिरिक्त ग्रन्थ तीन गतियों का द्रव्य प्रति समय उदयगति रूप संक्रमण करके उदग्ररूप निषेक में प्रवेश करता है । कहा भी है- उदयावली के अन्दर ही बाह्य स्तिबुक संक्रमण नहीं होता है । सप्तम नरक के नारकी के नरक गति के अन्तिम समय में अनन्तर अगले निषेक में अनुदयरूप तीन गति के द्रव्य का नरक गति रूप संक्रमण नहीं होगा, क्योंकि अगले समय में नरकगति का उदय नहीं होगा । किन्तु तियंच गति का उदय होगा । श्रतः गति के अन्तिम समय में उदयरूप निषेक से श्रनन्तर ऊपर के निषेक में जो द्रव्य नरकगति मनुष्यगति देवगतिरूप है वह स्तिबुक संक्रमण द्वारा तिच गतिरूप संक्रमण कर जायगा और तियंचगति रूप में उदय में भायगा । इसीप्रकार अन्यत्र भी लगा लेना चाहिये। ( रतन चन्द पत्रावली पत्र ७ ) श्रन्यत्र कहा भी है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और मत्र का अनुकूल संयोग न मिलने !! Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि . पृष्ठ स्थितिकाण्डकघात ४, क्षप० ४,१. ( २३ ) परिभाषा पर उत्तरकर्म प्रकृति स्वमुख से उदय में नहीं पाती; किन्तु स्तिबुक संक्रमण द्वारा उदयरूप स्वातातीय कर्म प्रकृति में संक्रमण हो जाता है। जैसे क्रोध के उदय के समय अन्य तीन (मान, माया, लोभ) कषायों का स्त्रमुख उदय न होकर स्तिदुक संक्रमण द्वारा कोषरूप संक्रमण हो जाता है और इसप्रकार उन तीन कपायों का द्रव्य कोष रूप फल देकर उदय में प्राता है। विवक्षित स्थिति समूह का घात करना धिति काण्डकघात है। यह एक अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न होता है । विवक्षित कर्म की स्थिति में से ऊपर की कुछ स्थिति समूह के द्रव्य को ग्रहण कर विशुद्धिवश मन्तमुहूर्त काल द्वारा नीचे के स्थिति समूह के परमाणुषों में मिला देना तथा ऊपर की स्थिति में स्थित सकस फर्म द्रव्य का प्रभाव कर देना स्थितिकाण्डक घात है । जितने काल में यह स्थितिघात का कार्य किया जाता है वह काल स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल कहलाता है तथा जितनी स्थिति का नारा करता है रिगति कायम: :.; बह दिलण्डकायाम कहलाता है। जैसे अपूर्व करण के प्रथम समय में जोव के स्थितिकाण्डक का प्रायाम उत्कृष्टतः सागरोपम पृथक्स्व प्रमाण होता है । अर्थात् प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण जीव स्थितिकाण्डक बात के लिये स्थिति समूह को ग्रहण करता हुआ उत्कृष्टतः इतनी स्थिति को घात के लिये ग्रहण करता है। तथा अन्तर्मुहूर्त में निष्पद्यमान इस स्थितिकाण्डक के प्रत्येक समय में जितना द्रव्य नीचे [ अधस्तन स्थितियों में शीत उदय में प्राने वाली स्थितियों में] देता है, उसे फाली कहते है । इसना विशेष है कि प्रामु कर्म का स्थितिकाण्डक बात नहीं होता। (ल. सा. गा० ७८; धवल ६/२२४) अपूर्वकरण के काल में संख्यात हजार स्थिति काण्डकघात होते हैं । इसीप्रकार अन्यत्र भी यथागम स्थितिकाण्डकघात का अस्तित्व जानना चाहिये । स्थितिकाण्डकघात के बिना कर्मस्थिति का घात असम्भव होता है। (चवल १२/४९) इसना विशेष है कि केवली समुद्घात के समय; ८ समयों में से लोकपूरा समुद्घात तक के ४ समयों में एक एक समय में एक एक स्थिति काण्डक घात होता है । यह माहात्म्य समुद्घातक्रिया का ही है। अन्यत्र एक समय में यह कार्य नहीं . होता। (क्षपणासार गा०२६५ पृ०२०२।। स्थितिबन्ध के अपसरण (क्रम से घटना) को स्थिति बन्घापसरण कहते हैं । (अपसरण = घटना) विशेष के लिये देखो लब्धिसार गा• ३९ तथा क्षपणासार +स्थितिबंधापसरण १. गा०३६५ तथा ज.५० मूल पृ० १.५१ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार अवतरण सूची [ टोकायामुद्धृतगाथासूचिः ] पृष्ठ गाथा का प्रारम्भिक अंश: ___ अन्यत्र जहां प्राई हैं : तिपिएसया छत्तीसा तिपिपासहस्सा सत्तयतं मिच्छत जमसद्दहणं ६७ धवल पु० १४ पृ० ३६२ गा० २०; गो० जी० १२३; भावपाहुड गा० २६ धवल १४ पृष्ठ ३६२ गा० १९ जय धवल १२ पृ० ३३३; भगवती पाराधना ५६; जैन लक्ष: ३/११६ क०पासु० गा० १०१ पृ. ६३३; जयपवला १२/३११ क.पासु० गा० ६६ जयघवला १२/ ३०७ क०पा०सुरु गा० १०५ पृ. ६३५; जमघवला १२/३१७; धवला ६/२४२ क०पा सु० गा० १.४ पृ० ६३५; जयषवला १२/३१६ कल्पा०सु. गा० १०० पृ. ६३३; जयधवला पु. १२ मिछस पच्चमो खलु मिच्छतवेदणीयं कम्म सम्मत्तपढमलंभस्स ६९ सम्मत्तपहमलंभो सम्वेहि दिदिविसेसेहि Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार -विशेष शब्द सूची २४६ ११५, २५५ १५२, १६० १०४ प्रकरणोपशामना अकर्मभूमिज भगुरुलघुचतुष्क प्रग्रस्थिति ३१, ४४ १०० अनुपशान्त अनुभयगत (स्थान) अनुभागकाण्डकवास अनुभागबन्धापसरण अनुभागसत्कर्म अनुभागस्पर्धक अनुयोगद्वार अनुसंधान अन्तदीपकन्याय प्रजघन्य प्रतिस्थापना १०. ३४ २२४ अन्तरकरण ६६, १७७ प्रन्तर काल १४७, १४६ प्रत्पन्ताभाव प्रषस्तन कृष्टि प्रधस्तन पोषविशेष अपप्रवृप्तकरण मधःप्रवृत्तदेशसंयत अधःप्रवृत्तसंक्रमण अध:प्रवृत्तसंयत प्रध्यान अनन्तानुबन्धिचसुरुक अनभिगृहीत मनवस्थादोष : अनादिमिथ्यादृष्टि अनानुपूर्वी संक्रमण अनिवृत्तिकरण १५८ १२४, १३४ ४७ ८६,० अन्तरायाम अन्त:कोटाकोटिसागर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार अपकर्षण-भागहार अपकृष्ट द्रव्य अपकृष्टावशिष्ठ अपुनरुक्तभाव अपूर्वकरण अपूर्वकृष्टि अपूर्ववृद्धि अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान अप्रशस्तोपशामना अबदायुष्क अभिगृहीत प्रक्रियाकारिपना २२८ २७६ अनुकृष्टि ११५, १८२, २५१ अनुस्कीर्यमा अनुदीएं अनुत्कृष्ट अनुदीगोपशामना अनुपपत्ति ३२. ३४ १७३, १७४ २४६ २५ २४६ २०४ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, १५८ पद्धं पुद्गलपरावर्तन । अलब्धपूर्व अल्पबहुस्वदण्डक अबरोहक अविभागी प्रतिच्छेद प्रविमर्शक नवेदक अथद्वानभाग भष्टांक २५७ २२२, १५२ २५ । २४० उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व उत्तर (चय) २२६ उत्तरधन उत्पादानुच्छेद २०८, २०६, २१७ उदयादिअवस्थित गुणने रिण पायाम १२० उदयादि गुणश्रेणी ११३, १२६ उदयाभाव उदयावलि बाह्य १०६ उदीरणा उदोर्ण उद्घाटित २५३, ९८१ उलना ज्वलना काल उपयोग उपरिमस्थिति उपशम "शा" २४६ भागाल ७२, २०८ ७२, २०८ प्रागाल-प्रत्यागाल मानुपूर्वी संक्रमण आन्तरिक स्थितियां माबाधा ३०६ १८, १३८ मायाम १९६ उपशमकरण मायुक्तकरण यारोहक पावली-प्रत्यावली माहारक चतुष्क २५७ २५३ १७३ २६ २१२ उपशमकालक्षय निबन्धन उपशमावलि उपशामक उभमद्रव्यविशेष उर्वक ७१ ईषन्मध्यमसंक्सेशपरिणाम २१२, १११ ऊहापोह एकान्तानुवृद्धि संग्रस उच्छिष्टावलि उत्कर्षण उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व उत्कृष्ट कर्म संचय उत्कृष्ट प्रदेश सत्व उत्कृष्ट स्थिति बन्ध Wn. प्रौदपकभाव " " ८ । करप Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमधन करण लब्धि कर्मस्कन्ध कषायप्राभृतग्रन्थ कृतकरणीयकाल .१५८ २८८ १२७ चालीसीया पूणिसूत्र चेतनाकार कृतकृत्यसम्यक्त्व कृप्तयुग्म ४६ ७. मकरण क्षयोपशम क्षायिकसम्यक्त्व क्षायोपयामिक जघन्य भमुभाग सत्त्व अघन्य प्रदेश सत्त्व जघन्य मुक्तासंख्यात जघन्य स्थितिबन्ध जघन्य स्थितिसत्त्व ज-स्थितिबन्ध जातिस्मरण जात्यन्तर जिनबिम्बदर्शन जिनमहिमा दर्शन शुभव २५४ क्षुद्र भवग्रहस २२६ डेढ़ गुणहानि गच्छ गलितावशेष गलिसावशेष गुणश्रेणी मुग श्रेणी गुणश्रेणि पायाम गुणणि विन्यास गुरपशि शीर्ष गुणसंकमण गुणहानिस्थानान्तर. १३०, २६६ ३१, ७७ ४५, ४६ २८२ १२४, १२६ ४४, १७७ तदुभयप्रत्पयिक (बायोपामिक) तीसिया असचतुक Han दण्डक गुणांश दीयमान १२४, २३४ गुरिणवकाश गोपुरयाकार ११२ पुनर्गि १०७, ११६, १८५ १२४, २३४ चतुःस्थानीय चतुःस्थानीय यवमध्य दूरापकृष्टि दृश्यमान देवचतुष्क वषिदर्शम देशकरणोपशामना चय २२६ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " देशघातिकरण देशना देशानालब्धि देशसंयमलब्धिस्थान देशामर्श देशोपशम दोलायमान वित्तीय स्थिति द्विस्थानीय ३६, ७४ १७ १६४ धर्मश्चवमा १२८ १४०, २७३ नयकप्रबद्ध २८८ २२६ पंचम लम्धि पर प्रकृतिसङ्क्रम १५२ परस्थान-प्रल्पबहुत्व परावर्तमान परिपाटी क्रम परिवर्तमान ७०, १७३ परिहारविशुद्धिसंयम पर्यवसान पर्व (श्रेणियां) पश्चादानुपूर्वी पुनरुक्त पुष्पदन्त-भूतवली पूर्वकृष्टि पृथक्त्व प्रकृतिचतुष्क प्रकृतिबन्यव्युच्छिति प्रतिधात प्रतिपक्ष स्वरूप १८६ प्रतिपद्यमानगत प्रतिपात प्रतिपातगत प्रतिबद्ध २८९ प्रतिभाग २१८ प्रत्मागाल प्रत्यालि प्रथमस्थिति प्रथमोपशमसम्यक्त्व प्रदेशपुज प्रमय ६ । प्रविशमान १५३ १५२, १६० नवकबन्ध निकाचनाकरण निकाचित निक्षेप निधत्तीकरण निपतित निरवशेष निरासान निनिबन्धनपना निर्मलसूत्र निलेप निर्वगणाकाण्ड नियघिात प्ररूपणा निषिात विषयक निषेक भागहार निष्ठापक नैसर्गिक प्रथमोपशम सम्यक्त्व २५३ १५२, १६. २७५ २३ ७२, २०८ २०८, २१६ ७०, १७३ :४४, १२६ २२६ १२१ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वै प्रास्तभाव प्रस्थापक प्रायोग्य प्रायोग्यलब्धि फालि बद्धयुष्क बध्यमान बन्धपरायतन बन्धापसरण हित बादरकृ ष्टिकरण बीसिया भजनीय भयद्विक भवक्षयनिबन्धन मध्यघन मध्यम कृष्टि मध्यम खण्ड महादण्डक मिथ्याea निमित्तक मिष्यानुष्ठान यतिवृषभाचार्यं यथास्यात चारित्र लक्षपृथक्त्वसागर "फ" "" 12 "य" "" : ( २६ द ५३ ४ 19 ४५ २६ १७ १७६ १० ५० २२१ १८५ १०२ १७ २५३ ५६, २२७ २४० २२४ २० १०१ २५८ १६४ २८० लब्बकम लब्धिस्थान वर्ग वर्गणा वर्णचतुष्क वाक्यशेष विकलचतुष्क विद्यात भागद्दार विद्यातसंक्रमण विपरीताभिनिवेश विपर्यास विप्रकृष्ट विमर्शक स्वरूप विलोम क्रम विशुद्धि लब्धि विशेष ( चय) विषमस्थिति वेदक वेदक सम्यग्दृष्टि व्याघात व्यापातविषयक व्यापृत मोह शक्ति स्थिति शतपृथक्त्व शलाका ानभ श्रेणि व्यवहार fing"! "श" २४७ १५२, १५३, १५४ २२२ २२१, २२३ १७ १०० १०७ २८६ ७५, १७० २७१ १, १४८ ३ २७१ 名 ३३ १६४ २५ ७५ ८१ ५० 158 १०८ ** १० ६० ६४ २२६ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांशयिक २२१ षटखण्डागम षट्स्थानपतित गया सावध सूक्ष्मकृष्टिकरण सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक संममासंयमगुण संयमासंयमलब्धि संवेगसम्पन्न स्तिबुक संक्रमण स्थितिकाण्डकपात स्थितिकाण्डकोरकीरणा काल १४४, १४३ १५८ ३, २१८, २१९, २६० ३१, ४४,५० ३११ १६४ २५० सङ्क्रमावली सङ क्लेश सदृशधन समकालभावी समस्थिति सर्वकरणोपशामना सर्वोपणम संवेदी सहानवस्थान सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्व सादिमिष्यादृष्टि सामायिक छेदोपस्थापना संयम ८७,६६ २१. ६२ १४० स्थितिखण्डायाम स्थितिबन्धापसरणकाल स्थितिबन्धोत्सरण स्थितिसत्कर्म स्पर्षक स्तनपान मानस स्वस्थान अल्पबहुत्व स्वस्थान संयमी २५७, २१ १२९ २२१, २२२, २२३, २२४ १६६ ३६, ७४ २६ १६४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारस्य गाथानुक्रमणिका पा.सं. गाथा x ३० :५४ १२ | गा. सं० गाथा १६२ प्रबरे विरदाणे ८. असुहाणं पयडीणं | २२३ असुहाणं रसखंड६५ महवावलि गदवरहिदि " ७८ पाउगवज्जाणं ठिदि प्राऊ पडिणिरमदुगे १२३ पादिमकरणदाए १२२ मादिमकरणद्वाए मादिमलद्धिभवो जो १३२ १०७ १०६ १३६ १३५ १३३ ११३ ११८ २२६ ९५ २४६ ११५ २४७ १४८ प्रजहरणमणुक्कस्स प्रजहण्षमणुक्कस्स अट्ट-अपुण्णपदेसु वि अडवस्सादो उरि प्रहवस्से उवरिम्मि अडवस्से य ठिदीदो अडवस्से संपहियं अडवस्से संपहियं अरिणयट्टी भद्धाए अणिमट्टिकरण पढमे प्रणियट्टिस्स य पढमें प्रणियट्टी संखगुणो अणुपुश्वी संकमणं प्रणियट्टी संखेज्जा मणुभयगाएंतरज अणुसमयो बट्टणय अथिरमसुभजसपरदी प्रशाखए पर्यतो अमर ठिदिसत्तादो प्रवरवरदेसलसी भवराजेटाबाहा प्रवरादो चरिमेसिम प्रवरादो वरमयिं अबरा मिच्छतियद्धा अवरो देसवारणे मवरे बहुगं देवि हु ५८ २४ १३४ १५ २५५ उक्कस्सदिदि बंधिय उक्कस्सदिदि बंधे १६७ उक्कस्सदिदि बंधो १०७ अदइहलाएं उदये १४६ उदयहि प्रोक्कट्टिय १३३ उदयासमावलिम्हि य ३१२ उदयारणं उदयादो २५४ ३०५ उदयादिभवदिदगा १०६ १४३ उदयादिलिदसेसा उदयालिस्स दच्वं २३४ उदयावलिस्स बाहि २९७ २४५ उदयिल्ला पंतरण २८ उदये उदसघादी १६७ उवणेउ मंगलं २३२ | २५ उरि सम उस्कोरइ ૨૨e ११२ १८४ ३७६ २९० ५६ १८० १६५ २२ १४२ १८० १८५ २८८ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.सं. २२२ १२५ RE गा.स. गामा २०५ उवसमचरिवाहिमूहा जवसमसम्मत्तता उवसमसम्मत वरि ३६१ उपसमक्ष पुष उवसामगो य सन्चो ३४२ उपसामरणा गिपत्ती १७४ उवसंतद्धा दुगुणा ३०३ उपसंतपढमसमये ३०८ उवसंते पडिवडिदे ११६ उचहिसहस्संतु २१ गा.. गाया २८४ प्रोक्कड़िद इगिभाग १४२ मोक्कलिद बहुमागे मोदरगकोहपढ़मे ३२२ मोदरगकोहपढमे ३२३ पोदरगपुरिसपढमे प्रोदरममाएपढमे ३२० मोदरगमारापढमे ३१६ मोदरबादरपदमे ३१७ प्रोदरमायापहमे प्रोदरमायापढ़ने ३१३ भोदरसुहमादीए ३४४ पोदरसुहमादीदो ६७ भोदरिय तदो बिदीया २४३ २६. ६ २६२ २५६ २८४ ७६ ले २५२ २०० २६५ २३० एइंदिय दिदीदो एक्केबकढिदिखश्य १६१ एतो उरि विरदे ५७ एत्तो समजणावलिः २६ एदेहिं विहीणाएं ८५ एमट्टिदिखंडुक्कोर २५१ एय सकुसयवेद २१९ एवं पमत्तमियर ३३० एवं पल्लासखं २३२ एवं परले जादे ७६ एकविह संकमण २५० एवं संखेज्जेमुठिदि २०६. १६६ २०२ १७६ १६६ t३४ २७७ १५६ अंतरकदपढमादो अंतरकदपतमादो अंतरफदादुचण्णा अंतरकररणादुवरि अंतरपसभादु कमे अंतरपढमे प्रष्णो अंतरपढमे पत्ते अंतरहेदुक्कीरद अंतिमरसखंडुक्को अंतिमरसखंडुक्कीरण अंतोकोडाकोड़ी अंतोकोडाकोड़ी ...। अंतोकोड़ाकोड़ी . अंतोकोड़ाफोड़ी . . . ७२ ६१ १९५ २४५ ६३ १७८ ६६. मोक्कड्डिद निमागे ७३ प्रोकड्डिदम्हि य दैदि १०४ . ओमफदिदइगिभाग- . G 0 जक - . म | ६५ | २२७ .. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atokisi ke पृ. सं. गी. सं. गाथा . . ३४. अंसोमुहसकाला .अंतोमुझुत्तकाले अंतोमुटुत्तकालं २ अंतोमुहत्तमच अंसोमुत्तमेत अंतोमुहत्तमेत अंतीमुहसमेस पृ. सं. । गा. सं. गाथा • २६ | ३७. गुणसेठी गुणसंकम १४३ / ५५ गुणसेदीदीहाम. १०६ । ३१४ गुणसेदीसत्येदर .. ७ २५७ २१. २६८ बादितिवारणं शियमा पादितिसाद मिच्छ ३८५ . २७६ । ३१५. ३१२५.. २८६ २८६ १५४ कदरकरणसम्मखवरणा ३३६ कमकरणविणट्ठादो कम्ममलपाल सत्ती १४७ करणपठमादु जावय ३४६ करणे मधापरते २९६ किट्टि सुहुमादीदो ३६६ किट्टीकरण हिमा २६२ किट्टीकरण द्वाए २६३ किट्टीयद्धाचरिमे २७. कोहदुगं संजलएग कोहल्स पदमद्विदी ३०३ कोहोषसामाद्धा २४१ : ३०० रहपडणमोहचरिम ३८६ घापर प्रपुब्बपनमो घडपडणमोहपतम ३८६ चडणे गामदुगारणं ३४७ उगोदरकालादो ३७०, चबादरलोहस्स य ३८. चड माणस य णामा पडमा अपुवस्स य ३८२ चमायमाएकोहो घडमायावेवता चदिमिच्छो सम्णी ३८१ चरततिय अवरबंध चरिमणिसेमोक्क चरिमाबाहा तसो १४५ चरिम फालि दिणे चरिमे सव्वे खंडा १४४ चरिमं फालि देदि दु पवता ३०२ २१२ २७१ . ४९. २८१ २०४ खपउवसमविसोही खबगसुहमस्स चरिमे खुज्जलं गाराए १३० "ग" १३६ १२६ खव्वरवपयत्यो गुणसेविसंखभाग गुणसेवीए सीसं गुगसेढीगुणसंकम ___४४ | ३३७ जत्तो पाये होदि . २७७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ २३२ २९६ १५१ । २४६ ४६ गा.सं. गाथा २५५ जत्तो पाये होदि हु . १२३ जत्य प्रसंखेज्जाएं जदि गोउपचविसेसं ३४६ जदि मरदि सासणो सो जदि वि प्रसखेज्जाणं १५० जदि संकिलेसजत्तो १२७ जदि होदि गुरिणदकम्मो जम्हा उरिमभावा ३५ ) जम्हा हेठिमभावा ३५५ जस्सुदयेणारूढो जस्सुदयेणारूको जस्सुदयेण च चडिदो . जावंतरस घुचरिम जेवरिदिदिबचे . ०५ ५१ २ ३१ २७४ २६१ २९९. ३१ २०० पृ सं. गा. सं. गाथा २५९ वरि असंखारपंतिम . | २६२ णवरि य पु वेदस्सयू १२३ ३२६ एवरि य णामदुगाणं रणामदुगवेयणीय णामधुबोदय बारस ५६ .. क्लेिवमदित्थावरण १११ एिट्ठवगो सट्ठाणे "त" ६४ तक्काले बज्झमाणे ३३४ तक्काले मोहरिणयं २६१ २३७ तत्काले वेरिणयं ३६८ - तग्गुणसेवी अहिया १७२ ४१ तच्चरिम ठिदिबंधो २६३ तच्चरिमे पुबंधो सट्ठाणे ठिदिसत्तो १७७ तत्तक्काले दिस्स ३४१ तत्ते अणियट्टिस्स य १२३ तत्तो प्रभव्वजोगं १६४ तत्तो उदधि सहस्स य १९६ वत्तोशुभयारणे १८३ २०६ तत्तो तियराविहिणा ६२ तत्तो दित्यावणगे ४४ १६५ तत्तो परिवज्जगया १४७ ४ तत्तो पदमो महिमो १७२ १९५ तत्तो य सृहुमसेजम १४१ तत्थ असंखेज्जगुणं २८८ १९६ तत्य य पडिवादगया १४ तत्थ य पड़िवादगया १५३ - ३९० तप्पडमििदसत्तं ८० १२३ २५० २२२ . ठिदिखंडय तु खइये ३८८ ठिदिखंडम तु चरिम ठिदिखंडाणुक्कीरण २२६ ठिदिवंघपुषसगदे २३९ ठिदिबंधसहस्सयदे २२८ ठिदिवंघसहस्सगदे २५७ हिदिबंधारणसरण ठिदिवघोसरणं पुरण १७५ हिदिरसघादो गस्थि २०८ ठिदिसत्तमपुम्वदुगे १६२ १७० २०४ u . ३५. परतिरियक्खवणराउन १६ एरतिरियारणं प्रोपो १७ परतिरिये तिरियणरे. .. . ३१४ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wing M गा. सं. ३७१ - ३४८ ३६२ २२० १३ २३५ ३८७ 1 १९ २१५ २३४ २३५ २३६ १८ ३०७ २४१ २३ २२ ३२७ ३६१ २६० २५६ १७४ ३१ १६८ १५९ गण्या समामवेददा तस्सम्मत्तद्धाए आए प्रभावसजाए ताहे चरिमसदो तिकरणबंधीसरणं faraगुज्जोवो विम तीदे बंधसहस्से तीसच उपमो ते व चोदसपदा सेवेवेकारपदा तेरा परं हायदि वा तेत्तियमेत्ते बंधे तेत्तियमेते बंधे तेतियमेसे बंधे ते तेरसविदिमेण य सिरसट्टा तो देसघादिकरणा तं दुगुनी तं सुरक "थ्" थी प्रण समे पढ श्री उदयस्स य एवं श्री उवसमिदानंतर श्रीमद्वासं खेज्जदि "तू" दवं श्रसंखगुि तिनाउ तित्याहार दुविहा चरितद्धि दूराकिट्टिपढमं ( पृ. सं. ܘ २८७ ३२. २९६ ܘ ܕ १९० ३१२ १४ १६ १७६ १८५ १७७.११० १८९ १८९ १४ JE १९३ RE १८ २६८ २९५ २०६ २०५ ५ १४६ २५ .१४३ ૨૫ ) गा. सं. २ १४६ १७६ ३५३ १६३ २०७ १६५ te; ३६६ ३७५ ३८३ ३७६ *** २०१ ३७७ १९४ १९६ १६८ ४४ २८५ ७४ २८२ १७९ ८६ २७३ ६१ गाथा देव सकारु देवे देवमणु देसो समये समये दो ि दसरा मोहवणा दसरा मोहांणं सोम दसरा मोहे विदे "घ" पचरिमे गहणादी पडपट्ठषि पडरणस्स प्रसंखाणं पडरणस्स तस्स दुगुर्ण पारिपट्टि यद्धा परिपरिमाणा परिवज्ज जगदुर्ग पडवडवर गुढी परिवादमा मिच्छे पढिवादादी तिदियं वादगवरवरं पडसमयपरिणामा पचिसमयमसंखगुण पडिलमगमसंखगुर्ण डिसमय मोक्कड्डु दि पदमठिदिभद्ध से मट्ठदि खंडुक्की पट्टि दिया पदमदिसीसाद पठमा गुणसंक्रम पु. सं. १७ १३१ १४८ २९० ११०४ १३७ ༢ཅབ ११.४१ १६३ २६८ ३०५. ३०९ ३०५ ३२ १६३ ३०६. १६० १६३ १-५५ ३२ '२२३ ६१ ६१ २२० १४९ ७१ २१४ or Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. सं. | मा. सं० गाथा ७६ ११२ पुरवं सिरमविहिणा . | ३५२ पुकोषोदय चलिय । ३६४ पुकोहस्सव उदये । ३२४. पुसजलणिदराणं » ३१५.... बादरपढमें किट्टी २९५ कादरलोहादिठिी m १८. २१६ • ६२ २१९ गी. सं. गापा १६- पढमापुव्यजहष्ण ५२ पढमापुखरसादो ... २६७ पढमावेदे संबलसाण. २६८ पढमावेदो तिविही.... १२ पढमे पक्रो पल्लो. ४८ पढमे सर पर ४६ . पदमे करणे पढमा ४६.. पढमे चरिमे समय २६७, पढमे चरिमे समरे २२५ः पहमे छठे चरिमे पढमे सध्वे विदिये पढमो मधापवत्ती ७७ परम प्रवरद्विदि. पदम ब विदियकरण २०२० परिहारस्स जहण १६१. पलिदोवमसंतादो पलिदोवमसंसादो १२० पल्लठिदिदो वरिः पातस्स संखभागो परसस्त्र संखभाग पल्सस्स संखभाग १५२ पल्लस्स संखभाग पल्लस्स संशभाग २४. पुगरवि मदिपरिभोगी २६६ पुरिसस्स उत्तरगवर्क २६४ पुरिसस्स य पढमद्विदि पुरिसादीणुच्छिदई ३०२ पुरिसादो लोहगयं . ३२५ पुरिसे दु प्रण वसंत ४१ २९१ २६१ २६१ २१६ ११० २१४ २७५ २१० । ७२ मज्झिमधामवरहिदे । २७५ मारपदुगं संजलएग२७६ मारास्स य पढठिदी २७४ माणस य मठिवी ३५६ मासादितियाण दये ३५५ माणोदयेणचउपजिदो ३५६ माहोदयेण चडिदो . २७१ मायदुर्ग संजलसा २८० मायाए पढौठदी मायाए पढठिदी १०७ मिश्चणथीमातिमुरगड़ मिच्छसमिस्ससम्म. मिन्छयदवेसभिषणे ५८ मिच्छतिमठिदिलंडो मिच्छत वेदंतो २६ मिन्छस्स चरिमफालि २०६ १.१ मिच्छाइटी जीरो २०८ १२४ मिच्छिटठावरि १५७ मिन्छे खवि सम्म २४३ मिन्छो देसवरिक्त २६७ । १७१ मिच्छो देखचरिशं ३६. ७३ १४४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त परवर्ती विरचित क्षपणासार (कर्मक्षपरण बोधिनी हिन्दी टोका समन्वित) सम्पादक स्व.ब.प. रतनचन्द्र मुख्तार सहारनपुर (उ.प्र.) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रकाशकीय निवेदन" दिगम्बर जैन साहित्य में सर्वप्रथम ग्रन्थरूप से सूत्रनिबद्ध लिपिबद्ध सैद्धान्तिक कृति षटखण्डागम सूत्र है । जिन्हें घर सेनाचार्य तक (परम्परा से ह्रासोन्मुख रूपेण) प्रागत भल्पतम एक देश अंगज्ञान को स्वयं धरसेनाचार्य से प्राप्त कर पुष्पदन्त-भूतबली प्राचार्यद्वय ने ग्रन्थ रूप में सुरक्षित किया था। लगभग इन्हीं के समकालीन गुण घराचार्य ने कषायपाहुड़ नामक ग्रन्थ गाथासूत्र में निबन्ध किया था। इन्हीं दो ग्रन्थों पर धवल-जयधवल एवं महाधवल (महाबन्ध) टीकाएं विस्तारपूर्वक वीरसेन स्वामी ने लिखी हैं । इन्हीं के आधार से श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्यदेव ने चामुण्डराय . के निमित्त गोम्मटसार (जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड) तथा लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थयो की रचना की है। जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता से लगभग ४० वर्ष पूर्व संस्कृत टीकाओं एवं पं. टोडरमलजी की हिन्दी टीका सहित शास्त्राकार रूप से ये नन्थ प्रकाशित हो चुके थे। वर्तमान में ये ग्रन्थ अनुपलब्ध भी थे तथा इनकी हिन्दी टीका ढुढारी भाषा में थी । अतः माधुनिक हिन्दी से परिचित अध्येतामों को इम ग्रन्थों के स्वाध्याय का यथोचित लाभ नहीं मिल पा रहा था । इसी को दृष्टिपथ में रखते हुए प. पू. प्राचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की स्मृति में स्थापित ग्रन्थमाला से चारों अनुयोग सम्बन्धी ग्रन्थ प्रकाशन योजना के अन्तर्गत करणानुयोग से सम्बन्धित इन ग्रन्थों का प्रकाशन भी पिछले म.६ वर्षों से निरन्तर चल रहा है । नेमिचन्द्राचार्य द्वारा विरचित त्रिलोक सार ग्रन्थ की माधवचन्द्र विद्यदेव द्वारा रवित संस्कृत टीका सहित प्रा. विशुद्धमती माताजी द्वारा विचित हिन्दी टीका के प्रकाशन से ग्रन्थमाला ने नेमिचन्द्र भारती का प्रकाशन प्रारम्भ किया था और उस भारती के ही ग्रन्थ गोम्मटसार कर्मकाण्ड का प्रकाशन प्रायिका प्रादिमती माताजी की हिन्दी टीका सहित सभी दो वर्ष पूर्व ही हुआ है। प्रायिकाद्वय भाचार्य श्री शिवसागरजी की ही दीक्षित विदुषी शिष्याएं हैं। अब नेमिचन्द्र भारती का तत्तीय चरण लब्धिसार-क्षपणासार के रूप में प्रकाशित हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ की टीका करणानुयोग मर्मज्ञ स्व. अ. पं. रतनचन्दजो मुख्तार सहारनपुर निवासी ने की है । पंडितजी ने ग्रन्थमाला से प्रकाशित होने वाले अन्य कई अन्थों का भी सम्पादन किया है । त्रिलोकसार और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीकानों का वाचन भी मापके सानिध्य में ही हुमा है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड की वाचना के अवसर पर प पू. प्रा. क. श्री श्रुतसागरजी महाराज के Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान्निध्य में जब पाप पाये थे उसी समय श्रीमान् सेठ रामचन्द्रजी कोठारी जयपुर निवासी को प्रवलतम प्रेरणा से लब्धिसार-क्षपणासार के प्रकाशन का निर्णय पं. रतनचन्द्रजी से ही नवीन टीका कराकर करने का हुअा था । तदनुसार एक वर्ष के निरन्तर अथक परिश्रम से स्व. मुख्तार सा. लब्धिसार और क्षपणासार को टीका करके चातुर्मास प्रबास में निवाई सन् १९७६ में पुन: प. पू. प्राचार्य कल्प श्रुतसागरजी महाराज के सान्निध्य में उपस्थित हुए । वाचना के पश्चात् चू कि पं. को स्वयं भावना थी कि पहले क्षपणासार का प्रकाशन हो क्योंकि इसकी टीका मैंने जयघवल की मूल प्राकृत टोका के उस भाग के प्राधार से की है जिसकी अभी तक हिन्दी टीका प्रकाशित नहीं हुई है । अतः उसी को पाण्डुलिपी का कार्य प्रारम्भ मानाशालाबार की गालिपि का पुननिरीक्षण भी उन्हीं ने कर लिया था । लब्धिसार की पाण्डुलिपि का वाचन उन्हीं के अनन्यतम शिष्य श्री जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री (भीण्डर) ने प्रा. क. श्री श्रुतसागरजी के समक्ष हो किया है । इस प्रकार पं. द्वारा विरचित टीका के प्रकाशन का संक्षिप्त इतिहास है। अत्यन्त खेद है कि अनेक अपरिहार्य कारणों से हम स्व. मुख्तार साहब के इस परिश्रमपूर्ण कार्य को उनके समक्ष मूर्तरूप नहीं दे सके। त्रिलोकसार का एवं गोम्मटसार कर्मकाण्ड का प्रकाशन उनके समक्ष हो चुका था, किन्तु गोम्मटसार कर्मकाण्ड की प्रस्तावना, शुद्धिपत्र एवं परिशिष्ट प्रादि ही वे बना पाये थे बाइन्डिग सहित प्रति वे नहीं देख सके । लब्धिसार-क्षपरणासार की प्रस्तावना भी वे टीका वाचन के समय ही लिख चुके थे अतः उसी को यहां उन्हीं की भाषा में प्रकाशित किया गया है। एक विशिष्ट बात और निवेदन कर देना चाहता हूं कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका वाचन के समय ही गोम्मटसार जीवकाण्ड की भी टीका लिखने का निर्णय हो चुका था, तदनुसार लब्धिसार-क्षपणासार को टीका वाचन के अनन्तर ही उन्होंने जीवकाण्ड की टीका को लिखना प्रारम्भ कर दिया था अथक परिश्रम करते हुए लिखी जाने वाली इस टोका को वे अपने मरण से दो दिन पूर्व तक लिखते रहे, किन्तु वे उसे पूरी नहीं कर पाये । अन्तिम ३७ गाथाओं को टीका भवशिष्ट रह गई थी जिसे उन्हीं की भावनानुसार उनके अनन्यतम शिष्य भीण्डर निवासी श्री जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ने ही की। उस टीका की पाण्डुलिपि का कार्य चल रहा है शीघ्र ही उसके प्रकाशन के लिये भी ग्रन्थमाला प्रयत्नशील है । आशा है स्व. मुख्तार सा. की उक्त कृति का भी शीघ्र ही प्रकाशन प्रारम्भ किया जा सकेगा। अत्यन्त हर्ष का विषय है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में सम्पूर्ण पार्थिक सहायता इस ग्रन्थ के प्रकाशन में प्रधान प्रेरक श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने ही प्रदान की है । भाप धार्मिक विचारों से युक्त नती श्रेष्ठो हैं, साथ अभीक्ष्ण स्वाध्यायी भी हैं । लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ प्रायको रुचिकर भी था इस ग्रन्थ का स्वाध्याय प्राप स्वयं भी दो-तीन बार कर चुके थे। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में मैं अपने को अन्य समझता हूं कि वार्धध की अवस्था में मुझे इन सिद्धान्त ग्रन्थों के प्रकाशन का मंगलमय सुअवसर प्राचार्य श्री शिवसागर ग्रन्थमाला के माध्यम से प्राप्त हुमा । स्व. मुख्तार सा. का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं कि जिन्होंने नेमिचन्द्र भारती प्रकाशन योजना के अन्तर्गत त्रिलोकसार एवं मोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीकाओं की वाचना-सम्पादनादि में अमूल्य सहयोग दिया तथा लब्धिसार-क्षपणासार, गोम्मटसार जीवकाण्ड की टीका लिखकर मध्येता समाज को उपकृत किया है । द्रव्य प्रदाता श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी का भी मैं अत्यन्त प्राभारी हूं, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए प्राथिक भार वहन किया है और तत्त्व जिज्ञासुओं को लाभान्वित किया है। द्रव्यप्रदाता की भावना को देखते हुए इस ग्रन्थ का मूल्य स्वाध्याय रखा है। माशा दै स्वाध्यायोजन सेठ सा. की इस उदारता का पूर्ण लाभ लेंगे। अन्त में बाकलीवाल प्रिण्टर्स का भी माभार मानता हूं कि ग्रन्थ मुद्रण का कार्य अत्यन्त तस्परता से किया है। साथ ही प्रेस कर्मधारो भी धन्यवादाह हैं जिन्होंने ग्रन्थ का सुन्दर मुद्रण किया है । नेमीचन्दजी बाकलीवाल तथा उनके सुपुत्र गुलाबचन्द एवं भूपेन्द्रकुमार भी जैनदर्शन के ग्रन्थों का मुद्रण प्रत्यन्त सुन्दरता से एवं परिश्रम से करवाते हैं। ब्र. लाडमल जैन Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार ___ लवित्रसार-क्षपणासार करगानुयोग का एफ प्राकृतगाथाबद्ध ग्रन्थ है। इसमें कुल ६५३ गाधानों द्वारा कर्मसिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन किया गया है । इसमें सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारित्र की उत्पत्ति का दिग्दर्शन है। प्रपंच यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व, क्षापिकसम्यवस्व, देशसंयमलब्धि [संयमासंयम], सकलसंयमलब्धि [सकल संयम या सकल चारित्र), चारित्र मोह की उपशामना, चारित्रमोह की क्षपणा, केवली-समुद्घात एवं योगनिरोध का इसमें करणानुयोग के अनुसार सूक्ष्म प्ररूपण किया गया है । इस ग्रन्थ की रचना श्री चामुण्डराय के प्रश्न के निमित्त से परमपूज्य नेमिचन्द्राचार्य द्वारा हुई। ग्रन्थराज श्री जयधवला इस ग्रन्थ के सृजन का मूल भाधार रहा है । श्री जयघवला कोई ६० हजार श्लोक प्रमाण माना जाता है, जो हिन्दी मनुवाद सहित कोई १५ अथवा १६ भागों में छपकर पूर्ण होगा। इसके १३ भाग तो छप चुके हैं। प्रवशिष्ट भाग छप रहे हैं इस जयधवल के लगभग एक तृतीय भाग के साररूप में लब्धिसार-क्षपणासार की रचना हुई है। श्री परमपूज्य नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त चक्रवर्ती म्यारहवीं शताब्दी के प्राचार्य थे। [ज ल. भाग १ पृष्ठ १८ ग्रन्थकारानुक्रमणिका] इनके गुरु प्रभयनन्दि थे। [प्रस्तुत ग्रन्थ, गा ६५२] ये [नेमिचन्द्राचार्य] वीरनन्दि, गुरु इन्द्रनन्दि एवं गुरु कनकनन्दि प्रादि मुनीश्वरों के समकालीन थे। [ल. सा. क्ष. सा. ६५२ एवं गो. क. ३६६] इस ग्रन्थ पर पूर्व में संस्कृतवृत्ति तथा हिन्दी में पण्डित प्रवर टोडरमलजी द्वारा टीका लिखी गई है। इसी ग्रन्थ पर अभीक्ष्ण स्वाध्यायी श्रीमन्त सेठ रामचन्द्रजी कोठारी के द्वारा अभिव्यक्त मनोभावना के बल पर परमपूज्य श्रुतसागरजी महाराज को विशिष्ट प्रेरणा से पू गुरुवर्य स्व. रतनचन्द मुख्तार सा. ने प्रस्तुत हिन्दी टीका लिखी है । जिसका प्राधार मुख्यतः जयधबला रहा है । मैं इस अवसर पर प्रतिसंक्षेप में पूज्य गुरुवयं के बारे में कुछ लिखना प्रावश्यक समझता हूं सहारनपुर शहर के बड़तल्लायादगार मोहल्ले में जुलाई १६०२ ईस्वी में श्री धवलकीतिजी के घर पर बरफीदेवी माता के गर्भ से प्रापका जन्म हुआ। विद्याध्ययन एवं बाल्यावस्था पार करके यथाकाल प्राप वकालात (मुख्तारी काम) करने लगे । वर्षों तक मुख्तारो का कार्य करके ३१ मई सन् ४७ को प्रापने वकालात का कार्य समग्ररूप से छोड़ दिया। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ሳ ( ५ ) श्री भागीरथजी वर्णी की प्ररेणा से श्राप स्वाध्याय की ओर प्राकृष्ट हुए । इसके बाद यथा समय श्राध्यात्मिक संत पूज्य श्री क्षु. गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचायें से आपका सम्पर्क हुआ । उन्हीं की प्रेरणा से गुरुजी ने १८ श्रावकाचार ग्रन्थों का अभ्यास किया तथा उनसे [पुज्य वर्णीजी से] द्वितीय प्रतिमा के व्रत अंगीकृत किये । जबसे वकालात का कार्य छोड़ा तबसे आप प्रतिदिन निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहते थे । नित्य ८ से १२ घण्टों तक स्वाध्याय कर लेते थे। ऐसा अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी मैंने गृहस्थों में तो कहीं नहीं देखा । श्रापका स्वाध्याय अत्यन्त स्तुत्य था । यद्यपि श्राप अंग्रेजी व उर्दू हो पढ़े थे, परन्तु श्राश्मबल से एवं जिनवाणी माँ की सेवा के प्रसाद से आपने हिन्दी, संस्कृत व प्राकृत में भी प्रवेश पा लिया था। किसी भी गुरु से नियमित रूप से पढ़कर ज्ञान-लाभ लेने का अवसर आपको नहीं प्राप्त हुआ, अर्थात् श्राप स्वोपार्जित ज्ञानी थे । raat saur की अभीक्ष्णता के कारण अल्प समय में ही प्रापने कोई २०० दिगम्बर जैन शास्त्रों का सूक्ष्म स्वाध्याय कर लिया तथा साप कृष्ण समय में एक शीर्षस्थ करणानुयोगज्ञ के रूप में भारत में माने जाने लगे थे | धवला, जयघवला तथा महाघवला का अध्ययन तो श्रापको श्रतिसूक्ष्म एवं बेजोड़ था। इन तीनों ग्रन्थों के श्राप पारङ्गत बोद्धा थे । इन ग्रन्थों के अनेकों स्थल प्रापको कण्ठस्थ थे। श्री बद्रीप्रसादजी सरावगी, पटनासिटी ने ठोक ही कहा है "वर्तमान में प्रकाशित धवला, जयघवला एवं महाबवला ग्रन्थों में गम्भीर व सूक्ष्म अध्ययन करके हजारों अशुद्धियां स्व. प्र. रतनचन्दजी ने पकड़ी थीं। कहां कितना विषय छूट गया था, कहां पर कितना ज्यादा है सब उनके पास नोट था ।" सन् १९५४ से अन्त तक आपका "शंका समाधान - स्तम्भ " जैन संदेश एवं जैन गजट में आता रहा था। जिससे हजारों स्वाध्यायी मुमुक्षु लाभान्वित होते थे। अखिल भारतीय दि. जैन शास्त्री परिषद् के भाप ४ वर्षों तक [ १६६५ से ६९ ] मध्यक्ष भी रहे थे । आपका सम्पर्क विशिष्ट रूप से प. पू. स्व. शिवसागरजी महाराज के संघ से रहा था । परम पूज्य शिवसागरजी महाराज के दिबंगत होने के पश्चात् भी प. पू. भा. क. श्रुतसागरजी महाराज के संध से आपका सम्पर्क जीवनान्त तक बना रहा था । परमपूज्य श्रुतसागरजी महाराज एवं उनके संघ को प्रेरणा से जीवन के अन्तिम दो-तीन वर्षो में प्राप्ने वलत्रय आदि के आधार पर लब्धिसार-क्षपणासार तथा जोवकाण्ड की टीकाएं लिखीं, जो सिद्धान्तग्रन्थों के स्वाध्यायीजनों के लिये प्रतीव लाभास्पद सिद्ध होगो । बड़े सौभाग्य की बात है कि भीण्डर में ससंघ परमपूज्य आ. क. श्रुतसागरजी महाराज का पदार्पण हुआ तथा संघ से मेरा नैकटय बढ़ा 1 फलस्वरूप मुझे लब्धिसार-क्षपणासार की वाचना [ प. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) पू. आचार्यकल्प श्री की प्रधान सन्निकटता में एवं वर्धमानसागरजी महाराज श्री के साथ ] का सुअवसर मिला । हमने इसमें यथाबोध अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग किया। अब लब्धिसार-क्षपणासार तो छपकर तैयार है तथा जीवकाण्ड की गुरुवर्यकृत टीका की प्र ेसकापी [ पाण्डुलिपि ] हो रही है। प. पू. श्रुतसागरजी महाराज का अकथनीय सहयोग, प्रस्तुत ग्रन्थ को वाचना आदि में न होता तो यह कार्य नहीं हो सकता था । पूज्य गुरुवयं लब्धिसार--क्षपणासार का टीका कार्य तो पूरा कर चुके थे तथा क्षपणासार उनकी उपस्थिति में ही छप चुका था, परन्तु लब्धिसार प्रेस में नहीं गया था। उसकी तो प्र ेस कापी भी बनानी शेष थी । लब्धिसार-क्षपणासार की तरह वे जोवकाण्ड की टीका पूरी नहीं कर पाये थे । वे ६६६ गाथाओं की टीका लिख चुके थे । अर्थात् अन्तिम ३७ गाथाओं की टीका लिखनी अवशिष्ट रह गई थी कि दिनांक २८-११००० को सन्ध्या के घर बजे इतर शरीर को छोड़कर दिवंगत हुए । हां ! अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निरीह तथा ज्ञान व त्याग के समन्वय से युक्त वह सत्पुरुष श्रब कहां ? अब तो उनको कृतियां ही उनकी स्मारिकाएं हैं। पूज्य गुरुजी के लिये कहे गये कतिपय विद्वानों एवं श्रीमानों के उद्गार - १. श्रीमान् स्व. . पं रतनचन्द्र मुख्तार, सहारनपुर वाले कररणानुयोगरूपी नभमण्डल के उदीयमान मार्तण्ड थे । गणित का आपको इतना ज्ञान था कि जो भाज के गणित के पी० एच० डी० को भी नहीं होगा । परमविदुषी पृ० १०५ श्र० विशुद्धमतीजी [ त्रिलोकसार, त्रिलोकसार दीपक आदि सिद्धान्त ग्रन्थों को टीकाकर्त्री ] २. चतुरनुयोग के अवगम को प्राप्त ब० रतनचन्द्रजी की साधना उत्कृष्ट थी । ३. डॉ० पं० ० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर ( M.P.) सादे और त्यागमय जीवन वाले सत्पुरुष स्व० ० रतनचन्द्रजी करणानुयोग के अधिकारी विद्वान् थे । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी सि。शास्त्री, काशी ४. स्व० बाबुजी रतनचन्द्रजी मुख्तार समतापूर्ण विद्वत्ता और विद्वत्तापूर्ण समता के धनी थे । अवसहस्र पृष्ठ प्रमारंग जनेन्द्र सिद्धान्त कोश अंसो अमर कृति के निर्माता क्षु० जिनेन्द्र व जी ‍‍ ย Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) लीन ५. दोनों भाई [ ब्र० रतनचन्द्रजी तथा ब० नेमिचन्दजी'] भाजीवन निरन्तर स्वाध्याय पं० तनसुखलाल काला, मुंबई रहते थे 1 ६. जीवनदानी, श्रुतसेवी स्व० पं० रतनचन्द्रजी दिगम्बर शास्त्रों के जीते-जागते कोश थे । पं० कन्हैयालालजी लोढ़ा, जयपुर ७. जिन्हें में अपना गुरु मानता था, वे पू० स्वर्गीय रतनचन्द्र इस शताब्दी के पं० बनारसीदास, पं० टोडरमल, पं० दौलतराम ही थे । श्री शान्तिलालजी कागजो, दिल्ली मुख्तार सा. का जीवन अविरत, देशविरत और महाव्रतियों के लिये वह निदर्शन है [ मोडल है ] जो कि पंचमकाल में निभ सकता है प्रो० खुसालचन्द गोरावाला, भदैनी काशी वस्तुतः के चतुरनुयोग - पारगामी शीर्षस्थ विद्वानों में से एक थे। उनके द्वारा लिखी गई प्रस्तुत ग्रन्थ की यह टीका सर्वोपयोगी सिद्ध होगी। इसी भावना के साथ उनको "वन्दन" करता हुआ मैं अपना वक्तव्य पूरा करता हूं । जवाहरलाल पिता मोतीलाल जैन वगतावत ८. साड़िया बाजार, गिरिवर पोल भण्डर [ राज० ] ३१३६०३ १. ० नेमिचन्दजी मुख्तार अभी जीवित हैं । माप भी अपने अग्रज के समान साधारण ज्ञान के धनी हैं। सरलता व निस्पृहता तो भापकी, मम्यत्र देखने को नहीं मिलती । जगत् के बाघ ब्राडम्बर से विरक्त एवं महान् माध्यामिक हैं। आप में अग्रज की प्रतिभा के ही दर्शन होते हैं । - जवाहरलाल * उनके बारे में सभी विद्वानों-श्रीमानों के मत लिखने पर तो प्रतिविस्तार हो जायगा, श्रतः इस भय से उक्त घाठ मत ही लिखे हैं। शेष 'मुख्तार स्मृति ग्रन्थ से जाने जा सकेंगे । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - in जीवन परिचय सेठ सा. श्री रामचन्द्रजी भीसा (बड़जात्या) कोठयारी-जयपुर - श्री रामचन्द्रजी कोठ्यारी का जन्म चत्र शुक्ला नवमी (रामनवमी) सं. १९६१ में हुअा। भापके पिता श्री जोहरीलालजी कोठ्यारो थे। प्रापकं पूर्वज जयपुर राजघराने में कोठयारी पद को अलंकृत करते पाये थे, इसी कारण प्राप भी कोठचारी कहलाये। यद्यपि मापने राजघराने में सेवा नहीं की थी किन्तु वंशपरम्परागत राजकीय सेवा होने से सभी परिवार वाले कोठ्यारी कहलाने लगे। वैसे आप दि. जैन धर्मानुयायी खण्डेलवाल जाति में भीसा (बड़जात्या) गोत्र में उत्पन्न हुमे हैं । ___ जब माप ७-८ महीने के ही थे उस समय भापके पिता श्री जोहरीलालजी का स्वर्गवास हो गया था। प्रापफे बड़े भाई श्री गुलाबचन्दजी कोठ्यारी थे किन्तु उन्होंने इनको पृथक कर छोटो अवस्था में ही अपना घर का भार वहन करने को मजबूर कर दिया । यद्यपि उस समय प्रापकी अवस्था छोटी ही यो तथापि साहस और पर्य ने इनका साथ नहीं छोड़ा और कुशाग्र बुद्धि के कारण तथा वाक् पटु होने से ग्राप अपने व्यवसाय में निपुरण हो गये । जो भी कारोबार किया सच्चाई और ईमानदारी से किया जिससे आपकी साख व प्रसिद्धि बाजार और व्यापार में प्रगाढ़ रूप से जम गई। ___ उस समय चांदी का व्यापार सट्टे के रूप में काफी जोरों पर था और राजमान्यता भी मिली हुई थी व इसके लिये बुलियन भी कायम हो चुकी थी । बड़े-बड़े व्यापारी वैध रूप से चांदी का सट्टा करते और काफी धन कमाते थे । इस व्यापार में इनको भी काफी लाभ हुआ। राद दिन दत्त वित्त होकर इस व्यापार में धन के साथ नाम भी कमाया, बुलियन के प्राप सम्माननीय सदस्यों की गिनती में प्राने लगे । यद्यपि भाज सट्टा बन्द हो गया और यह व्यापार मब नाममात्र को भी नहीं है फिर भी आप बुलियन में सम्माननीम पद को अलंकृत करते हैं। मापकी प्रवत्ति धार्मिक रही है। सदा मन्दिरों और घामिक संस्थाओं में माना जाना, उनको चंदा देना. उनकी देखरेख में रुचि रखना तथा समय-समय पर उनके कार्यों में अार्थिक सहायता देना इनकी पामिक रुचि का परिचायक है। इसी के परिणाम स्वरूप प्रापको कई संस्थानों ने सम्माननीय पद देकर अपना गौरव माना है। श्री दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज में मापने पूरा छात्रावास बनवाया जिसका उपभोग कालेज के पढ़ने वाले छात्र प्राज भी करते हैं पौर करते रहेंगे। __ पापको शास्त्र पढ़ने का व्यसन है, इसी से प्रापको धार्मिक तत्वज्ञान तथा पौराणिक जैन साहित्य का मामिक शान है। छोटे दीवानजी के मन्दिर में प्रापने वर्षों शास्त्र प्रबचन किया है, जिससे सिद्ध होता है कि प्रापकी स्वाध्याय में काफी रुचि रही है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार प्रापको स्वाध्याय से प्रेम है उसी प्रकार स्वाध्यायी बंधु प्रों से भी प्रेम है। पाप मुनि संघों की भक्ति में भी सदा से रुचि लेते आये हैं। कोई भी त्यागी, व्रती, प्रतिमाधारी, साधु सन्त जब भी माते हैं माप उनकी सेवा सुन्न षा में निरत हो जाते हैं और उनकी तन मन धन से चर्या करते हैं।' ' - - - . -..- संवत् २००८ में श्री १०८ प्राचार्य श्री बीरसागर जी महाराज के संघ से १०८ श्री शिवसागरजी महाराज व श्री सुमतिसागर जी महाराज व ३ आर्यिका माताजी फुलेरा से चातुर्मास पहले पदमपुरी दर्शन कर जयपुर पधारे उसी अवसर पर आपके परम मित्र श्री गुलाबचन्दजी लोंग्या (बाद में मुनि दीक्षा लेकर पूज्य १. श्री जयसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुये) ने पापके चौड़ा रास्ता स्थित भवन में पाहारदान दिया था। सभी सात्रु एवं साध्वियों का निरतराप पाहार भी हुमा था इस अवसर पर पापके शुद्ध जल की प्रतिज्ञा नहीं थी प्रतः भाप कृत कारित प्राहार न देकर मात्र अनुमोदन स्वरूप पाहार ही दे सके थे तथा मन प्रौर वचन से ही अपना उपयोग लगा सके थे। जब संघ फुलेरा चातुर्मास हेतु गमन कर रहा था तब वह भाकरोटा में विश्राम हेतु ठहरा था तब माप भाकरोटा गये थे और महाराज श्री के समक्ष शुद्ध जल ग्रहण करके प्राहारदान देने की पात्रता प्राप्त की थी और फिर फुलेरा जाकर चातुर्मास में संघ को प्राहार दान देकर अपनी मनशा पूर्ण की थी। प्रापके हृदय में मूनि संघ की सेवा के उत्कट भाव जागृत हो चुके थे इसी कारण प्रापने जब संघ चातुर्मास पूर्ण कर जयपुर माया तब संघ को श्री ब्र. लाठमलजी की प्रेरणा से सम्मेद शिखर की यात्रा कराने के मापकै भाव उत्पन्न हुए पौर प्राचार्य महाराज से संघ को सम्मेद शिखर ले जाने की अनुमति चाही। महाराज श्री ने भी मापको समर्थ एवम् धर्मानुरागी थावक समझकर संघ को यात्रा कराने की अनुमति प्रदान करदी। इसी प्रवसर पर प्रापने चांदी के शाब्दिक व्यापार अर्थात सट्टा करने का त्याग कर दिया जिससे सभी ने प्रापकी सराहना की। __यात्रार्थ गये संघ में परमपूज्य प्राचार्य महाराज श्री १०८ श्री वीरसागरजी महाराज तो प्रमुख थे ही साथ में १०८ श्री आदिसागरजी महाराज, १५८ श्री शिवसागरजी महाराज, १०८ श्री सुमतिसागरजी महाराज, १.८ श्री धर्मसागरजी महाराज, १०५ श्री एलक पदमसागरजी महाराज तथा १०५ प्रायिका श्री वीरमती माताजी, १०५ श्री सुमतिमाताजी, १०५ श्री पार्श्वति माताजी, १०५ श्री इन्दुमति माताजी, १०५ श्री सिद्धमति माताजी, १०५ श्री शान्तिमति माताजी, १०५ आयिका श्री कुन्थुमति माताजी, १०५ क्षु. श्री मजितमति माताजी, १०५ शु. श्री अनन्तमति माताजी, १०५ शु. श्री गुणमति माताजी, श्री प्र. लाउमलजी, श्री ब्र. कजोडीमलजी, श्री ब्र. सूरजमलजी, श्री. चांदमलजी, श्री अ. राजमलजी (वर्तमान श्री १०८ बी मजित सागरजी महाराज) व १५-२० ब्रह्मचारिणी बाइयां आदि संघ में उपस्थित थे। इन सभी साधु साध्वियों का संच ब्रह्मचारी श्री लाडमलजी के विशेष सहयोग से रास्ते की सभी अतिशय क्षेत्रों को यात्रा करते हुये सानन्द सम्मेद शिखर पहुंचा । मापने इस अवसर पर दिल खोलकर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया और संघ की सेवा का लाभ लिया । संदद १२, १३ पौर १४ में स्वानिया जयपुर में होने वाले चातुर्मास में भी मापका सक्रिय सहयोग संघ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिला। आपने इस अवसर पर प्राहारादि का देकर तथा अन्य सभी प्रकार की सेवा सुधू षा करके अपने धर्मानुराग का परिचय दिया जिमवाणी से प्रापका विशेष प्रेम होने से प्रापने पाश्यनाथ भवन में सरस्वती भवन बनवाया जो जिन. वारणी के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दे रहा है। प्राचार्यकल्प श्री १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के चातुर्मास में श्री . लाइमलजी की प्रेरणा से पाप संवत् २०३० के चातुर्मास में पदमपुरा (बाड़ा) में २५ फुट ऊंची खडगासन प्रतिमा स्थापित कराने हेतु उसे मकराना में तयार करा रहे हैं। श्री . लाडमलजी के विशेष सहयोग से प्रापने चघिसार एवं क्षपणासार की टीकायें छपायो हैं जो स्वाध्याय प्रेमियों को धर्म लाभ दे रही हैं । प्रापने अपने जीवन में तीन विवाह किये और तीनों से ही सन्तानोत्पत्ति हुई । अापके ६ पुत्र एवं चार पुत्रियां हैं। जिनके नाम क्रमशः श्री प्रकाघाचन्द, श्री घम्म कुमार, श्री सन्तकुमार व श्री पदमकुमार, श्री तृप्तिकुमार एवम् राजकुमार लड़के हैं और श्रीमती मुनादेवी, श्रीमती स्वर्णलता, श्रीमती मणिमाला एवम् श्रीमती अनिला ये पार पुत्रियां हैं। प्रापको धर्मपनि श्रीमती रतन देवी हैं जो धर्म में प्रापका पूर्ण सहयोग करती हैं। श्री १०८ श्री शिवसागरजी महाराज एवम् श्री १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज को सत्प्रेरणा से मि, प्रथम भादवा सुदी २ सं. २०१२ में प्रापने प. पू. प्राचार्य महाराज श्री १०८ श्री शान्ति सागरजी महाराज से दो प्रतिमायें धारण की जो सानन्द निभ रही हैं । प्रतिमामों का निर्वाह इनकी धर्मप्रेमी परिन के कारण ही समझना चाहिये जो इनको सभी प्रकार का सहयोग प्रदान करती है। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजो कोठधारी अपनी ८० वर्ष की अवस्था में अपने पुत्र एवं पौत्रों से सम्पन्न परिवार के साथ अपने धर्म ध्यान को साधते हुये सानन्द जीवन यापन कर रहे हैं । भापको गुरु भक्ति तथा जिनेन्द्र भक्ति सदा वृद्धिंगत हो यही हमारी हार्दिक कामना है । इति शुभम् । मिवेदक-गुलाबचन्द जैन, जैन दर्शनाचार्य एम.ए. जयपुर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तीर्थकर बर्धमान स्वामि की दिव्यध्वनि से नि:सृत, गौतम गण घर द्वारा सूत्र निबद्ध 'श्रुत' थत केवली परम्परा में अन्तिम श्रु त केवली भद्रबाह तक अक्षण्ण रूप से प्राप्त होता रहा । इससे पूर्व भी २३ तीर्थंकरों, एवं विदेह क्षेत्रस्थ सीमन्धरादि तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में भी वही प्ररूपण हुअा जो वर्धमान भगवान की वाणी में हुमाया। इतना ही नहीं अनन्तानन्त भूतपूर्व तीर्थकर्ता तीर्थंकरों की वाणी में भी उसी प्रकार प्ररूपण हमा है। कहने का तात्पर्य यह है कि-चारों घातिया कर्मों का क्षय हो जाने पर भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र के सभी तीर्थकरों को केवल ज्ञान होता है। केवलज्ञान होने पर समवसरण की रचना होकर यथाकाल दिव्यध्वनि प्रकट होती है। सभी केवल शानियों का केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट अविभागी-प्रतिच्छेद वाला होने से एकरूप है। दिव्य ध्वनि केवल ज्ञान का कार्य है।' प्रतः सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि एकरूप होती है, इसोलिये प्रागम अपौरुषेय तथा प्रनादि है । तीर्थंकर भगवान मागम के कर्ता नहीं हैं, व्याख्याता हैं।' प्रवाह रूप से अनादि होने के कारण दिव्यध्वनि न्यूनता और प्रधिकता से रहित होती है । इस प्रकार अनादि प्रवाह रूप से चला माया श्रत भद्रबाहु १ त केवली तक द्वादशांग रूप में प्राप्त था उसके पश्चात् ह्रासोन्मुख वह न त ज्ञान परम्परा से प्रांशिक रूप में श्री गुणधर भट्टारक एवं श्री घरसेनाचार्य को प्राप्त था। वही प्रांशिक ज्ञान घरसेनाचार्य से युष्पदन्त-भूतबली प्राचार्यद्वय को प्राप्त हुमा और उन्होंने उसे सूत्र रूप में निबद्ध कर दिया जिसे षट्खण्डागम के रूप में प्राज भी जाना जाता है। तथा गुणधराचार्य को जो प्रांशिक ज्ञान प्राप्त था उसे उन्होंने २३३ गाथानों में कषायपाहुड़ रूप से निबद्ध किया है। यद्यपि गुणधराचार्य ने कषायपाहुड़ के प्रारम्भ में पन्द्रह अधिकारों को १८० गाथामों में निबद्ध करने की प्रतिज्ञा की है, किन्तु इसमें २३३ गाथाएं हैं। इसके अतिरिक्त चूलिका में दो गाथाएं और हैं। दूसरे अधिकार में १८० गाथानों की प्रतिज्ञा के अनुसार शेष ५३ गाथामों को कितने ही व्याख्यानाचार्य नागहस्ति आचार्य कृत मानते हैं, किन्तु कषायपाहुड़ के इन गाथा सूत्रों पर वीरसेन स्वामि ने अपनी ६०००० श्लोक प्रमाण टीका की है । वे इन सभी २३३ गाथाओं के रचयिता गुणधराचार्य को ही स्वीकृत करते हैं । २३३ गाथाएं सूत्र गाथाएं हैं । ये २३३ गाथा प्राचार्य परम्परा से माती हुई प्रायमंच और नागहस्ती भाचार्य को प्राप्त हुई । प्राचार्य युगल के पादमूल उन्हीं २३३ गाथाओं के अर्थ को भली-भांति श्रवण करके प्रवचन १. तत्र मनोभावे तरकार्यस्य वयसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य जानकार्यत्वात्। प. पु.१ पृ. २५८ । सत्येषमागमस्यायौदषयत्वं प्रसजतीति चेस् न, सायबासकभावन पर्ण-पम-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेणमा पौरुषेमत्माभ्युपगमात् (प. पु. १५ पृ. २८६)। अनिद्वारेणैकस्य प्राहरूपैणा पौरुषेयरूपागमस्यासत्यत्व विरोधात् । प. पु. १ पृ. १९५ । प्रपौवषयत्वेनोऽमाविः सिद्धान्त: (ध. पु. १ पृ.७६) प्रवाहरूपेणापौरुषेयत्वतातीर्थकुवादयोऽस्य व्याख्यातार एव न कत्तरि इति (प.पु. १ पृ. ३४९) ४. होणाहिपभाविरहिय (ज, ध. पु. १ पृ. ६५; प. पु.१ ५. ६१) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्सल प्राचार्य श्री यतिवषभ ने उन गाथानों पर रिगसूत्रों की रचना की । कषायपाहड़ ग्रन्थ की रचना का मूलस्रोत दृष्टिवाद अंग के १४ पूर्व रूप भेदों में पांचवें पूर्व के बारह वस्तु अधिकारों में २० प्राभूत हैं, उन २० प्राभूतों में से तीसरा पेज्जदोस पाहुड़े है अर्थात् तृतीय प्राभूत को अवलम्बन कर ही कषायपाहु ग्रन्थ की रचना हुई है। __इस नन्थ में १५ अधिकार है और उन पन्द्रह अधिकारों में मात्र मोहनीय कम सम्बन्धी कथन किया गया है शेष सात कर्म सम्बन्धी कथन नहीं पाया जाता है। पन्द्रह अधिकारों में से १० वें अधिकार में दर्शन मोह की उपशामना, ग्यारहवें अधिकार में दर्शन मोह की क्षपणा, बारहव अधिकार में संमयासंयम लब्धि, तेरहवें अधिकार में चारित्रलब्धि, चौदहवें अधिकार में चारिश्रमोह की उपशामना और पन्द्रह अधिकार में चारित्रमोहः को क्षपणा का विवेचन है । १० से १५ तक इन छह अधिकारों के णिसूत्र से श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त: चक्रवर्ती ने लब्धिसार-क्षपरणासार प्रन्थ की रचना की है। जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये छह द्रव्य इस लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। पुद्गल द्रव्य की २३ वर्गणाएं हैं, जिनमें से प्राहारवर्गपा, तेजसवगंगा, भाषावगंणा, मनोवर्गरणा और कार्मणवर्गणा इन पांच वर्गणाओं को जीव अपनी योगशक्ति के द्वारा ग्रहण करता है। पुदगल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की कमों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति योग कहलाती है ।' कर्म वर्गगाएं पाठ प्रकार की हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनोय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से जो ज्ञानावरणीय के योग्य द्रव्य है वही मिथ्यात्वादि प्रत्ययों के कारण पांच ज्ञानावरणीय रूप से परिणामन करता है अन्य रूप से परिणमन नहीं करता, क्योंकि वह अन्य के अयोग्य होता है। इसी प्रकार सभी कमों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। अन्तर का अभाव होने से कामंगवगरणा पाठ प्रकार की हैं ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता है। कर्म और प्रारमा का परस्पर संश्लेष सम्बन्ध होकर दो पने के त्याग पूर्वक एकरूपता हो जाना सो बन्ध है। निश्चयनय में न बन्ध है न मोक्ष है, क्योंकि बन्ध व मोक्ष पर्याय हैं; और निश्चयनय पर्यायों को ग्रहण नहीं करता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने समयसार ग्रन्थ में भी कहा है गवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणमो दु जो भावो। एवं भगति सुद्धं पाभो जो सो उ सो चेव ॥६॥ —निश्चय नय से जीव न तो अप्रमत्त (मुक्त) और न ही प्रमत्त (संसारी) होता है। एक ज्ञायक भाव है, वह वही है। प्रतः निश्चयनय में न संसार अर्थात् कर्मबन्ध है और न ही मोक्ष पर्थात् कर्मक्षय है। १. पुषस विभाइ देहोदयेस मण वपण काय जुतस्स । जोधस्स जा हुत्ती कम्मागम कारणं चोगो॥ २१६ गो, जी. का।। २. वारणावरणीयस्स माणि पाम्रोग्याणि प्रमाणितारिण चेव. मिच्छत्तानि पच्चएहि पंच पाणावरणीय सहवेण परिणमति सल्वेष। कुदो ? अप्पासोमात्तादो। एवं सति कम्मा बत्तम्छ। प. पु. १४ ३. संश्लेषलक्षणे बधे सति । स. सि. ५३२२ बंधो पाम बुभाव परिहारेण एयत्तावतो। . पु. १३ पृ.७। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रश्य संग्रह में भी कहा है शुद्ध निश्चयनय से जीव के बन्ध ही नहीं है तथा बन्धपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है ।" जब निश्चयनय में बन्ध व मोक्ष ही नहीं तो मोक्षमार्ग कैसे सम्भव है अर्थात् निश्चयनय से मोक्षमार्ग भी नहीं है । बन्धपूर्वक मोक्ष और मोक्षमार्ग के उपदेश के लिए ही पट्खण्डागम और कषायपाहुड़ ग्रन्थों की रचना हुई । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ करणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इनमें करण अर्थात् श्रात्म-परिणामों की तरतमता का सूक्ष्म दृष्टि कथन पाया जाता है तथापि इन दोनों ग्रन्थों में आत्म-विषयक कथन होने से वास्तव में ये अध्यात्म ग्रन्थ हैं | पूर्व कर्मोदय से जीव के कषायभाव होते हैं और इन कषाय भावों से जीव के कर्मबन्ध होता है । बाघ द्रव्य क्षेत्र काल भव-भाव धनुकूल मिलने पर द्रव्य कर्म उदय में (स्वमुख से ) प्रकर अपना फल देता है | यदि वाघ द्रव्य क्षेत्र काल भव-भाव अनुकूल नहीं मिलता तो कर्म (स्वमुख से ) उदय में न प्राकर अपना फल नहीं देता। जिन बाह्य द्रव्यादि के मिलने पर कषायोदय हो जावे ऐसे ऋण आदि के संयोग से अपने की यही हमारा पुरुषार्थ हो सकता है । जैसेअणुव्रत ग्रहण द्वारा देश संयम हो जाने पर अप्रत्यारूपान क्रोध आदि कषाय तथा भानादेय, दुभंग, श्रयशःकीति आदि कर्मोदय रुक जाता है । चरणानुयोग की पद्धति के अनुसार हम स्वयं को उन द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से बचा सकते हैं जिनके मिलने पर कषायादि उदय में आते हैं । ( १३ ) प्रस्तुत ग्रन्थ का नामकररण प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूर्व पांच लब्धियां होती हैं तथा श्रनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षाधिक सम्यक्त्व, उपशम चारित्र व क्षायिक चारित्र से पूर्व तीनों करलब्धि होती हैं। देश संयम श्रीर सकलसंयम से पूर्व प्रधःकरण और अपूर्वकरण ये दो करणलब्धियां होती हैं । इन लब्धियों का कथन प्रस्तुत ग्रन्थ में विस्तार पूर्वक होने से इस ग्रन्थ का लब्धिसार गौण्य पद नाम है तथा चारित्र मोह को क्षपणा का कथन होने से अथवा भाठों कर्मों की क्षपणा का कथन होने से दूसरे ग्रन्थ का क्षपणासार सार्थक नाम है । इस प्रकार लब्धिसार क्षपणासार यह नामकरण विषय विवेचन की प्रधानता से किया गया है। प्रत्यकर्ता विसार क्षपणासार ग्रन्थ के कर्त्ता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। मापने पुष्पदन्तभूतवलि श्राचार्य द्वारा विरचित षट्खंडागम सूत्रों का गम्भीर मनन पूर्वक पारायण किया था । इसी कारण आपको सिद्धान्त चक्रवर्ती उपाधि प्राप्त थी । श्रापने स्वयं भी गो क. की गाथा ३६७ में सूचित किया है कि जिस प्रकार भरतक्षेत्र के छह खंडों को चक्रवर्ती निविघ्नतया जीतता है उसी प्रकार प्रज्ञा रूपी चक्र के द्वारा मेरे द्वारा भी छह खंड ( प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ - षट्खण्डागम) निर्विघ्नतथा साधित किये गये हैं अर्थात् जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गरगाखण्ड और १. २. ३. ४. धश्च शुद्ध निश्चयनयेन माहित तथा अन्यपूर्वकमोशोsपि । गा. ५७ को टोकर 'एवं पविसय' 'पथदाए प्रज्झप्पविज्जाए व पु. १३ पृ. १३६ । कर्मणां ज्ञानावरणादीनां जह चक्के य चक्की छ तह महलके क्षेत्रकाल भवभावप्रत्ययफलानु भषमं । सर्वार्थसिद्धि ९ / २६ । साहियं श्राविवेश । साहियं सम्मं ॥ मया छपखंड Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ . ( १४ ) महाबन्ध रूप षट्खण्डागम ग्रन्थ को मैंने अपने बुद्धिबंभव से सिद्ध किया है। पखण्डागम के प्रति- रिक्त कपायपाहड़ (चणिसूत्र सहित) तिलोय पण्पत्ति प्रादि ग्रन्थों के भी पाप पारगामी बिदच्छिरोमणि प्राचार्य थे। इन्हीं सिद्धान्त ग्रन्थों के साररूप में प्रापने गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार तथा त्रिलोकसारादि ग्रन्थों का प्रणयन किया है। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि लब्धि सार-क्षपणासार की रचना का मूलस्रोत ग्रन्थ कषायपाहुड़ ग्रन्थ रहा है। गुणधराचार्य कृत इस नन्थ पर चरिणसूत्र यतिवृषभाचार्य ने रचे और चरिणसूत्र समन्वित कषायपाहुड की ६०००० श्लोक प्रमाग वाली जय धवला टीका लिखी गई है। इतने विशालकाय ग्रन्थ के एक तिहाई भाग (१०वें १५वें तक ६ अधिकार) को ६५३ गाथानों में संकलित किया जाना ही नेमिचन्द्राचार्य के बुद्धि वैभव का उद्घोष करता है। यह कोई साधारण कार्य नहीं है। प्रत्यकर्ता का समयकाल गोम्मटसार ग्रन्थ की कर्णाटकीय प्रादि वृत्ति के कर्ता केशववर्णी प्रादि अपने प्रारम्भिक कथन में लिखते हैं कि श्री नेमिक शिद्धान्त कह का समादि विपिश चामुण्डराय के लिए प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ (षट्खण्डागम) के प्राछार पर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की। स्वयं प्राचार्यदेव ने ही गो. क. की प्रन्तिम प्रशस्ति में राजा गोम्मट अर्थात् चामुण्डराय जयकार किया है। चामुण्डराय गंपनरेषा श्री रात्रमल्ल के प्रधानमन्त्री एवं सेनापति थे। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डराय पुराण शक सं ६०० तदनुसार वि सं. १०३१ में पूर्ण किया था। राचमल्ल का राज्य काल बि.सं १०४१ तक रहा है ऐसा ज्ञात होता है। बाहुनली चरित में गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का समय वि. सं. १०३७-३८ बतलाया है। गोम्मटेश की प्रतिष्ठा में स्वयं नेमिचन्द्राचार्य उपस्थित थे। इसलिए नेमिचन्द्राचार्य का काल विक्रम की ११वीं शताब्दी सिद्ध होता है । प्रन्थकर्ता के गुरु त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा में श्री ने मिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने प्रापको प्रभयनन्दी गुरु का शिष्य कहा है। इसके अतिरिक्त प्राचार्य वीरनंदि, इन्द्रनन्दि तथा कनकनन्दि का भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड की निम्न गाथा के प्रकाश में ग्रन्थकर्ता के दीक्षा गुरु का आभास मिलता है गाया इस प्रकार है जस्स य पायपसाएणतसंसारजलहि मुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो रणमामि तं अभयदि गुरु ॥४३६।। बीरनन्दि और इन्द्रनन्दिका बत्स जिनके चरणप्रसाद से अनन्त संसाररूपी सामर से उत्तीर्ण हो गया उन अभय नन्दि गुरु को मैं । नेमिचन्द्र) नमस्कार करता हूं। अनन्त संसार रूपी सागर से उत्तीर्ण होने का अभिप्राय दीक्षा से ही है । अतः ऐसा लगता है कि उनके दीक्षागुरु अभयनंदि हैं । इसी प्रकार श्री नेमिचन्द्राचार्य ने इन्द्रनन्दि वीरनन्दि प्रादि प्राचार्यों का भी गुरु रूप में स्मरण किया है। १. इविणेमिचंदमुरिगणा अप्पसुवेणभपणंविवच्छेण । इयो विसोयसारो खमंतु बहुगुणायरिया ॥११॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय लब्धिसार की प्रथम ८८ गाथानों में क्षयोपशम-विशुद्धि-देशना प्रायोग्य एवं करण रूप पांच लब्धियों का सविस्तर वर्णन करते हुए प्रथम जन सामियों का स्वरूप मानक-एक गाथा में ही कर दिया है। प्रायोग्य लब्धि के अन्तर्गत ३४ बन्धापसरण और उन अपसरणों में बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों का कथन १५ गाथानों में किया गया है। इसके पश्चात् सात गाथानों द्वारा प्रायोग्य लब्धि में उदय व सत्व योग्य प्रकृतियों का कथन किया है। तदनन्तर ५६ गाथाओं में करपलब्धि के विवेचन को प्रारम्भ करते हुए प्रध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण लब्धियों का कथन किया है। इसके पश्चात् गाथा १०६ तक उपशम सम्यक्त्व प्रादि के प्रकरण में होने वाले अनुभाग काण्डकादि कालों का अल्पबहुत्व तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने प्रादि का सर्व कधन पाया जाता है। गाथा ११० से दर्शनमोहनीय कर्म को क्षपणा का कथन प्रारम्भ होता है उसके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना का कथन गाथा ११२-११६ तक किया गया है। तदनन्तर गाथा १६६ तक क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकरणा है। १६७वीं गाथा से प्रारम्भ होकर गाथा १८८ तक देशसंयमलब्धि का कथन सविस्तर किया गया है। देश संयमलब्धि अधिकार के पश्चात् माथा १८६ से सकलसंयमलब्धि का वर्णन प्रारम्भ हुअा है। तदनन्तर गाथा २०५ से चारित्र मोहोपशामनाधिकार प्रारम्भ हप्रा है, उसके अन्तर्गत १४ गाथानों द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का कथन है। गाथा २२० से ३६१ तक श्रेण्यारोहण और श्रेण्यावरोहण की अपेक्षा उपशम चारित्र का सविस्तर कथन प्राचार्यदेव ने किया है। इस प्रकार लब्धिसार ग्रन्थ में सर्व ३६१ गाथाओं में पंच लब्धियों का पूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने के पश्चात् ३६२ से ६५३ तक ३६१ गाथाओं द्वारा क्षपणासार में चारित्रमोहनीय फर्म की क्षपणा के सविस्तर कथन पूर्वक ज्ञानावरण, दर्शनावरण सौर अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों के क्षय का विधान बताते हए नाम-गोत्र-वेदनीय इन तीन प्रघातिया कर्मों के आय का विधान निरूपित किया गया है। इसके साथ ही केवली समुद्घात, योग निरोध, महन्त व सिद्ध भगवान के सुख का भी विवेचन भी प्रसंग प्राप्त होने से किया गया है। इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार में प्रतिपादित विषय का परिचय प्रति संक्षिप्त में दिया गया है विस्तृत विवेचन ग्रन्थ अध्येता स्वयं अध्ययन कर ग्रन्थ से जानने में सक्षम होंगे प्रत: प्रस्तावना में विस्तारपूर्वक विषय परिचय 'पिष्ट पेषण' के भय से नहीं दिया गया है । सब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की प्रस्तुत टीका एवं उसके प्राधार लब्धिसार की सिद्धान्त बोधिनी एवं क्षपणासार की कर्म क्षपणबोधिनी टीका, इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की नधीन टीका का यह नामकरण किया गया है। यद्यपि पंडित प्रवर टोडरमलजी की सुबोध हिन्दी टोका सहित लब्धिसार की संस्कृतवृत्ति युक्त लब्बिसार का प्रकाशन 'जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था' कलकत्ता से प्रकाशित हुया था जो इस समय उपलब्ध नहीं है । संस्कृत वृत्तिकार ने प्राय: जयधवल टीका का अनुसरण किया है। हिन्दी टीकाकार के समक्ष जयधवल टीका नहीं थी अतः पंडितजी ने संस्कृत वृत्ति का मात्र हिन्दी अनुवाद किया है। लब्धिसार का प्रकरण जयधवल पु. १२ व १३ में चरिणसूत्र समन्वित जयधवला टीका के हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुका है 1 हां! गाथा ३०० से ३६१ तक का प्रकरण, जिसमें उपशम श्रीशि से गिरने तथा मानादि कषायों व स्त्रीवेदादि सहित उपशम रिग पारोहण का कथन भी पाया जाता है Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका जयघवला टीका में जो वर्णन है वह प्रभी प्रकाशित नहीं है। कषायपाहड़ भाग १४ जो कि अभी प्रकाश्य है उसमें प्रकाशित होगा । अत: लब्धिसार को इस प्रस्तुत टीका में पंडित टोडरमल जी की हिन्दी टीका तथा संस्कृतवृत्ति के साथ-साथ ज.ध. पु. १२ व १३ प्राधार रही है, किन्तु गाथा ३०५ से ३६१ तक की टीका जय धवल मूल (फलटन से प्रकाशित) के प्राधार से लिखी गई है। क्षपणासार की कोई संस्कृत टीका नहीं है। हां ! माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित संस्कृत क्षपणासार की दो प्रतियां जयपुर भण्डार से प्राप्त हुई थीं जो कि स्वतंत्र रचना है अतः वह स्वतंत्र कार्य की अपेक्षा रखता है । सम्भव है पं. टोडरमल जी के समक्ष यह क्षपणासार रहा हो जो उनको क्षपणासार टीका का अवलम्बन रहा हो। गाथा ४७३ की टीका में उन्होंने अपनी लधुता प्रगट करते हुए लिखा है कि-"इस गाथा का पर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष किछु किया नहीं और मेरे जानने में भी स्पष्ट न प्राया तातें इहाँ न लिख्या । बुद्धिमान होइ सो याका यथार्थ प्रथ होइ सो जानहू।" इन पंक्तियों के प्रकाश में मेरे अनुमान से एक तथ्य प्रगट होता है कि पंडित प्रवर टोडरमलजी के समक्ष क्षपणासार की हिन्दी टीका सहित कोई प्रति होना चाहिए। अन्यथा वे ऐसा क्यों लिखते कि इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान 'क्षपरणासार विष किछु किया नाहीं । माघवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित क्षपणासार संस्कृत भाषा का स्वतंत्र ग्रन्थ है वह अथं रूप व्याख्यान (टीका) तो है नहीं । खैर ! जो भी हो यह है अनुसंधान का विषय । मेरे द्वारा अनुमानित पं टोडरमलजी के समक्ष विद्यमान क्षपणासार की भाषानुवादित उस टीका के कर्ता ने भी जयधवल मूल टीका का पाश्रय लिया है यह स्पष्ट है। क्षपणासार की कर्मक्षपणबोधिनी नामा इस नवीन टीका को भी मैंने फलट न से प्रकाशित जयधवल मूल (शास्त्राकार) के प्राधार से ही लिखा है, क्योंकि क्षपणासार से सम्बन्धित इस विषय की जयधवला टीका हिन्दी अनुवाद सहित संभवतः १५-१६ वें भाग के रूप में मथुरा से अभी तक प्रकाशित नहीं हुई हैं प्रकाशनाधीन हैं । पास्म निवेदन उक्त नवीन टीका करने की प्रेरणा मुझे श्रा फ. श्री श्रुतसागरजी महाराज से प्राप्त हुई। सन् १९६३ से तो मैं निरन्तर उनके सान्निध्य में जाता रहा है। इसी शृखला में सन् १६७१.७२ में त्रिलोकसार की नवीन टीका (प्राधिका विशुद्धमतोजी द्वारा लिखित) के वाचनावसर पर मुझे भी जाने का प्रसंग प्राप्त हया था। ६ वर्ष पश्चात सन १९७८ में पुनः गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 'सिद्धान्त ज्ञानदीपिका' नामा नवीन हिन्दी टीका (प्रायिका भादिमतीजी विरचित) की याचना के अवसर पर प्रा. क. श्री के सान्निध्य का लाभ मिला और उस टीका के सम्पादनत्व का भार भी मुझ पर पाया। उक्त वाचना के अवसर पर ही जयपुर निवासी श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने प्रा. के. श्री के समक्ष अपनी हार्दिक मनोभावना व लाडमलजी के माध्यम से व्यक्त की थी कि "लब्धिसारक्षपणासार की भी शुद्ध माधुनिक हिन्दी में नवीन टीका लिखी जानी चाहिए उसके प्रकाशन का अर्थ भार मैं स्वयं वहन करूंगा।" कोठारीजी की इस भावना को देखते हुए मुझे प्रेरणा मिली और उसी समय मैंने भा. क श्री को अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। लगभग १ वर्ष के परिश्रम से मैं इस नवीन टोका को लिख पाया और इसकी याचना के लिए चातुर्मास प्रवास में मैं प्रा. क. श्री के सानिध्य में पहुंचा। वाचना के अनन्तर ही फिर मुझे गोम्मटसार जीवकाण्ड की नवीन टीका लिखने Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए पू. महाराज श्री को प्रेरणा मिली जिसे मैंने सिरोवाय दिया। इन दिनों में उस (गोम्मटसार जीयकाण्ड को) टोका को लिख रहा हूं। ___ सन् १९३५ तदनुसार वि. सं. १६६१ में विद्वज्जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. माणिकचन्द्रजी कोन्देय 'न्यायाचार्य' दस लक्षण पर्व पर सहारनपुर पधारे थे। तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने उपशम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया किन्तु ज्ञान के भल्पक्षयोपशमवश उनके द्वारा मागमानुमोदित वह व्याख्या मैं समझ नहीं पाया । हां! इतमा अवश्य समझ सका कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही मेरा भात्म हित हो सकता है। शास्त्र प्रवचन के अनन्तर मैंने पंडितजी से पूछा कि सम्बग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय और उसका स्वरूप जैन दर्शन के किस ग्रन्थ में विस्तार पूर्वक मिल सकता है ? मेरे इस प्रश्न का सहजिक उत्तर देते हुए पंडितजी बोले प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित 'लब्धिसार-क्षपणासार' ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे 'अंधे को दो प्रांखें ही मिल गई हों उक्ति के अनुसार मुझं निधि प्राप्ति ही हुई हो। सहारनपुर में उन दिनों मुद्रित प्रथ उपलब्ध नहीं थे। मतः हस्तलिखित ब्धसार-क्षपणासार स स्वाध्याय प्रारम्भ किया। कई दिनों तक विषय स्पष्ट नहीं हमा फिर भी मन में निराशा नहीं हुई और बार-बार के प्रयत्न से सफलता मिली। कछ दिनों के पश्चात तो वकालात का कार्य छोड़कर जैन सिद्धान्त के विभिन्न ग्रंथों का (धवल-जयधवल-महाधवल, गोम्मटसार-समयसारप्रवचनसार-त्रिलोकसारादि) अपने लघुभ्राता नेमिचन्द्र बकोल के साथ स्वाध्याय किया। मुझे अत्यन्त हर्ष है कि जिस ग्रन्थ के अध्ययन से मुझे सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिली उसी ग्रन्थ की टीका लिखने का जीवन के अन्तिम चरणों में सुअवसर मिला। यह मत्यन्त सुखद संयोग है। पू. आ. क. श्री श्रुतसागरजी महाराज का अत्यन्त कृतज्ञहूं कि जिन्होने टीका की याचना को उपयोग पूर्वक श्रवणकर यथायोग्य सुझाव दिये। उन्हीं की प्रेरणा एवं प्राशीबदि से मैं इस कार्य को करने में सक्षम हो सका हूं। प्रागे भी इसी प्रकार जिनवाणी सेवा में मेरा जीवन व्यतीत हो इसी मंगल भावना से विराम लेता हूं। भाशा है अ. लाडमलजी के सप्रयत्न से इस टीका का शीघ्र प्रकाशन होगा। दीपावली वि.सं. २०३६ निवाई रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर (उ.प्र.) विशेष : प्रम्प को यह प्रस्तावना स्व. मुख्तार साहब प्राय की नवीन टीका को वाचना के अवसर पर जब निवाई चातुर्मास में माये ये तभी वाचना के धनम्तर ही लिख गये थे। एक वर्ष के पश्चात उनका स्वर्गवास ही हो गया। प्रत्यन्त खेव रहा कि इस प्राय के प्रकाशन को नहीं देशसके। चमके द्वारा लिखित उसो प्रस्तावना को अब अन्य प्रकाशन साप हा प्रकाशित किया जा रहा है। (प्रकाशाकीय टिप्पण) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणासार विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ | विषय मंगलाचरण संक्रमणकरण का प्रतिपादन चारित्रमोह क्षपणाधिकार संक्रम द्वारा नपुसक वेद की अपा चारित्रमोह की क्षपणा में प्रतिपाद्य अधिकार नपुंसक वेद के संकमणकाल में बन्ध, उदयन संक्रम अषः प्रवृत्तकरण में होने वाली क्रियाएं १ | के माध्यम से प्रदेश विषयक अल्पबद्दुत्व का कपन ४९ अपूर्वकरण का वर्णन है | उदय भौर संक्रमण की निरन्तर गुणश्रेणि ५० यहां होने वाली गुणानेणिका कयन १. स्त्रीवेद संक्रमण में हाने वाले कार्यों का निर्देश ५१ गुण संक्रम के विषय में निर्देश | सात नो कषाम के संक्रमण काल में होने वाले कार्य ५१ अपकर्षण व उत्कर्षण सम्बन्धी प्रतिस्थापनादि का अश्वकरणं करण के स्वरूप निर्देश पूर्वक संज्वलन कथन चतुष्क के अनुभाग का अश्वकर्ण क्रिया का विधान अपूर्वकरण में जघन्य उत्कृष्ट स्थिति खण्ड़ के प्रमाण तथा उसमें होने वाले कार्यों का निर्देश का निर्देश प्रश्वकर्याकरण के प्रथम समय में होने वाले अपर्वउक्त करण में प्रथम व चरम समय में स्थितिखण्डादि स्पर्षकों का कथन के प्रमाण का निर्देश अपूर्वस्पर्धक की रचना में पाया जानेवाला द्रव्य का एक स्थिति काण्डक के पतन में सहस्रों अनुभाग परिमाण काण्डक घात होते हैं लोभादिक के स्पर्धकों की वर्गणा सम्बन्धी विशेष अनुभाग काण्डक किनके होता है ? विचार; प्रकृत में गणित सूत्र, क्रोधादि के काण्डक अपूर्वकरण में किस क्रम से किन-किन प्रकृतियों का व उनकी शलाका मादि का कथन बन्धव्युच्छेद होता है ? | प्रकृत मल्प बहुत्व अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी कबम २३ । प्रश्वकर्णकरण के प्रथम समय में उक्त स्पर्धकों में से अनिवृत्तिकरण गुण स्थान में स्थिति खण्टु प्रमाण उदय बन्ध को प्राप्त स्पर्घकों का कचन अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में स्थिति बम्ब प्रकृत में दृश्यमान इण्य का कथन स्थिति सत्त्व प्रादि का निर्देश प्रथम मनुभागकाण्डक होने पर होने वाला कार्य स्थिति बन्धापसरण का क्रम निर्देश प्रश्वकर्णकरण के प्रथमादि समयों में क्रमश: घटते स्थिति सत्त्वापरण का कथन क्रम से मपूर्व स्पर्धक रचना ७ सत्य के क्रमकरण के बाद यथास्थान असंख्यात प्रकृत में स्पर्षक की वर्गणा में भविभागी प्रतिच्छेद समय-प्रबद्ध की उदीरणा की अपेक्षा अल्पबहुत्व स्थितिबन्ध और स्थितिसस्व सम्बन्धी काकरण के भश्वकर्षकरण में प्रथम प्रनुभागखण्ड पतित होने कथन के पश्चात् ८ कषाय व १६ प्रकृतियोंका क्षपण- पर स्पर्धक प्रादि में अल्पबहुल्य དད करणाधिकार अश्वकर्णकरण के चरम समय में स्थितिबन्ध व सत्त्व ९१ देशघातिकरण का कथन ४२ । | मागे बादर कृष्टिकरण के कालका प्रमाण जानने के प्रन्तरकरण का कयन ४३ | उपाय ७ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पष्ठ ! विषय पष्ठ कृष्टियां कौन ब्य से करता है इसका निर्देश ९३ | परस्थान व स्वस्थान गोपुच्छ का नाश अपकषित द्रव्य का विभाजन याय और व्यय द्रव्य का कथन १२४ संग्रह एवं प्रवयव कृष्टि की प्रपेक्षा कृषिटयों की संख्या १४ स्वस्थान-परस्थान गोपुच्छ के सद्भाव का विधान १२४ कृष्टि में दध्य विभाजन सम्बन्धी निर्देश मध्यम खण्डादि करने का कथन १२४ प्रथमादि बारह संग्रह कृष्टि का प्रायाम पत्यके विरच्यमाण अपूर्व कृष्टियों का विधान १२२ प्रसंख्याल. भाग के क्रम से घटता है कृष्टियों के घात का कथन किस कषायोदय से श्रेणी चढ़ने वाले के कितनी क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टि की प्रथम स्थिति में संग्रह कृष्टियां होती हैं समयाधिक प्रबलीकाल शेष रहने की अवस्था अन्तर कुष्टियों की संख्या व उनका क्रम संग्रह कृष्टियों के चरम समय में फाली के देने का उक्त कथन विशेष स्पष्टीकरण विधान लोभ की जघन्यकृष्टि के द्रव्य से क्रोष को उस्कृष्ट द्वितीय संग्रह वेदक के उदयादि का विधान प्रथम कृषिट पर्यन्त देयद्रव्य संग्रहबत है पाश्वंकृष्टि सम्बन्धी विधान क्रोध की द्वितीय संग्रह का स्वस्थान-परस्थान द्रव्य देने का क्रम, कृष्टि भेद तथा उष्ट्रकूट रचना सक्रमण की सीमा का कथन १०७ स्वस्थान-परस्थान संक्रमण में नियम का विशेष अनुभाग की अपेक्षा कृष्टि व स्पर्धक का लक्षण १११ स्पष्टीकरण कृष्टिकारक कृष्टिका भोग नहीं करता, इसका निर्देश प्रकृत में किस-किस कृष्टि का संक्रमण नहीं है। एवं कृष्टिकरण काल समाप्ति का निर्देश वेद्यमान व भवेद्यमान संग्रह कृष्टि के बन्ध प्रबन्ध कृष्टिवेदनाधिकार - का निर्देश संग्रह कृष्टियों में प्रवयब कृष्टियों के द्रव्य का कृष्टिवेदन तथा इसके प्रथम समय में होने वाले पत्पबहुत्व ४० बन्ध-सत्त्व का निर्देश वेद्यमान कृष्टि को प्रथम स्थिति में समयाधिक प्रकृत में उच्छिष्टावली, नवकप्रबद्ध के अनुभाग का मावली शेष रहने पर होने वाली स्थिति एवं कार्य १४१ निर्देश ११२ कृष्टिकारक व देदक के क्रम तथा प्रथम संग्रह कृष्टि द्वितीय संग्रह वेदक के चरम स्थिति बन्ध व सत्त्व १४२ का पहले वेदन होता है इसका निर्देश क्रोध की ततीय संग्रह की प्रथम स्थिति स्थापना कृष्टि वेदक के प्राथमिक समय में होने वाले कार्य ११४ तथा चरम समम क्रोष बेदक के बन्ध-सत्व १४३ प्रकृत में उदीयमान कृष्टि, बन्ध कृष्टियों का निर्देश मान की प्रथम स्थिति स्थापना तथा उसका प्रमाण १४३ प्रकृत में अल्पबहुस्व | मान की प्रथम संग्रह कृष्टि का वेदन प्रकार क्रोधद्वितीयादि समयों में उक्त विषय का विशेषस्पष्टी- बत् तथा चरम समय में बन्छ सत्त्व का निर्देश करण मान की द्वितीय संग्रह कृष्टि का वेदन तथा इसके प्रति समय में इन कृष्टियों का बन्ध-उदय कैसे होता चरम समय में बन्ध-सत्त्वका निर्देश है इसका निर्देश तृतीय संग्रह का वेदन तथा अन्त में बन्ध-सत्त्व १४६ संक्रमण द्रव्य का विधान १२० माया की प्रथम द्वितीयादि कृष्टियोंके वेदनका वर्णन प्रति समय होने वाली अपवर्तन की प्रवृत्तिका कम १२३ तथा वहां दो चरम समय में होनेवाला बन्ध-सत्व १४७ १३९ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रति समय श्रसंख्यात गुणी होन कृष्टि रचना तथा दीयमान द्रव्य में असंख्यात गुणी करता सूक्ष्म कृष्टि करण के समय में दीयमान द्रव्य का विशेषहीन आदि रूप क्रम द्वितीयादि समयों में क्रियमाण अधस्तन कुष्टि व अन्तरकृष्टि निर्देश एवं उनका प्रमाण प्ररूपण द्वितीयादि समयों में दोयमान द्रव्य सम्बन्धी कथन सूक्ष्म कृष्टियों को करने वाले के दृश्यमान प्रदेश पुज प्रकृत में संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रका प्रल्पबहुत्व सूक्ष्म कृष्टि में संक्रान्त द्रव्य के प्रमाण को प्राप्त करने का साधकभूत बादर कृष्टियों में संक्रान्त प्रदेश का प्रल्पबहुत्व लोभ की द्वितीय संग्रह कृष्टि से तृतीय संग्रह कृष्टि में संक्रमण करने की अवधि बादर लोभ की प्रथम स्थिति में समयाधिक श्रावली शेष रहने पर तृतीय व किचिदून तृतीय कृष्टिका सूक्ष्म रूप परिणमना नदम गुण स्थान के चरम समय में स्थिति बन्ध निर्देश नवम गुण स्थान के चरम समय में स्थिति सत्व निर्दोश सूक्ष्म साम्पराय का कथन पर्वश्रय के कथनपूर्वक अवस्थित गुण रिण का भायाम अपकृष्ट द्रव्य के देने का विधान द्वितीयादि समयों में दिया गया द्रव्य प्रथम समवर्ती सूक्ष्म सम्पराय के दृश्यमान प्रदेश की श्रेणि प्ररूपणा चरम निषेक का द्रव्य प्रमाण तथा दीयमान द्रव्य की प्ररूपणा प्रकृत में दृश्यमान द्रव्य द्वितीय स्थिति काण्डक के प्रथमादि समयों में गुण श्रेणी शीर्ष का अल्पबहुत्व ( ३ ) पृष्ठ विषय १५३ सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान के प्रथम समय में मोह की गुशा श्र ेणी अन्तराय म यादि का अल्पबहुत्व द्वितीयादि काण्डकों के काल में गुण श्रेणी के ऊपर १५४ ] गोपुच्छता का निर्देश अधस्तन अनुदी, उपरिम धनुदी, मध्यम श्रनुदो कृष्टियों का अल्पमत्व सूक्ष्म साम्पराय में क्षपक के अन्त में होने वाली गुण श्ररणी का निर्देश १५४ १५५ ARE १५६ १५७ १६० १६० क्षीण कपाय गुरा स्थान में स्थिति मनुभाग काण्डक घात का प्रमारण १६१ १६२ १६१ क्षीण कषाय के परम काण्डक का ग्रहण तथा वहां पर देयादि द्रव्य का विधान १६३ १६३ १६४ १६६ मेंदीयमान और दृश्यमान द्रव्य का निर्देश प्रभुत चरम काण्डक के पश्चात् काण्डक घात के प्रभाव के प्रतिपादन पूर्वक मोह के स्थिति सत्त्व का निर्देश सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान के चरम समय में बन्ध का प्ररूपण उक्त गुण स्थान के चरम समय में ही स्थिति सत्व का निर्देश १६६ १६८ क्षीणकषाय के स्थिति अनुभाग बन्ध के प्रभाव का कथन १६८ पृष्ठ क्षीण कषाय के चरम समय में सत्व व्युच्छिन प्रकृतियों का निर्देश १६६ १७० ૭૦ १७२ १७३ ૨૦૪ १७४ १७४ १७६ १७७ क्षीणकषाय को कृतकृत्यक संज्ञा की प्राप्ति तथा इसके द्विचरम में उदय व्युच्छिन्न प्रकृति का निर्देश १७८ मानादि पात्रय सहित श्रप्यारोहक जीव के विषय में प्रथम स्थिति प्रादि का विशेष निर्देश स्त्री वेदोदय सहित श्रप्यारोहक जीव के स्त्री वेद को प्रथम स्थिति के प्रमाणादि का निर्देश नपुंसक वेदोदय सहित श्रप्यारोहक जीव के प्रथम स्थिति प्रमाणादि के विषय में विशेष कथन ve १८२ १८३ tex अनन्त चतुष्टय की उत्पत्ति का कारण व इसकी विशेषता १८५ किस कर्म के लाश से कौनसा गुण स्थान होता है ? १८५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ । १८ विषय विषय अनन्त सुख की उत्पत्ति का कारण तथा उसकी सूक्ष्म ऋष्टिकरण का प्रमाण, प्रथम समय में कृष्टि विशेषताएं द्वितीयादि समयों में मसंख्यात गुणं प्रदेशों का क्षामिक सम्यक्त्व तथा उत्कष्ट चारित्र की उत्पत्ति मपकर्षण नवीन कृष्टि निर्माण तथा कृष्टि प्रमाण का कारण का निर्देश असाता वेदनीव के उदय से केवली भगवान के क्षुधादि-परीषह पाये जाते हैं तथा उनके माहारादि योग के अपूर्व स्पर्धक तथा सूक्ष्मकृष्टि प्रादि के क्रिया होती है ऐसो असत् मान्यता का परिहार १८७ सम्बन्ध में कथन २१० इन्द्रिय सुख की परिभाषा १८७ कष्टिकरण के मनन्तर समय में सकल स्पर्धकों का केवली साता प्रसाता जन्य सुख-दुःखक प्रभाव | कृष्टिरूप परिणमन, योग कृष्टियों का हीन क्रम । का कारण से वेदन केवली के साता वेदनीयका एक समय स्थिति वाला सयोगी जिनके तृतीय शुक्ल ध्यान का प्ररूपण तथा उदयरूप स्थिति बन्ध होता है इसका निर्देश १८८ मन्त में नाश को प्राप्त योग कृष्टि । सयोग केवली के प्रति समय होने वाले नोकर्माहार प्रघातिया कर्मों का चरम स्थिति काण्डक तथा तथा उसको स्थिति का कथन १९६ चरम समय में होने वाली समस्थिति का कथन समुद्घातगत केबली के तीन सममों तक नोकर्म प्रयोगी जिन व उनके ध्यान २१५ पाहार का प्रभाव पाया जाता है पश्चिम स्कंधद्वार कथन के अन्तर्गत केवली समुद् प्रयोगी के शुक्ल ध्यान द्वारा नाशित प्रतियां २१६ धात के निर्देश पूर्वक कंवली समुद्घात के अन्तर्गत प्रप्टम पृथ्वी का वर्णन २१७ पावजितकरण तथा इसके पूर्व एवं बाद में होने प्रथम एवं द्वितीय शुक्ल ध्यान का अधिकार वाले क्रिया विशेषों का कथन | सिद्धों से रत्नत्रयकी शुद्धि व समाधि की याचना २२६ योग निरोध का प्ररूपण सूक्ष्म योग, अपूर्वस्पर्धक सूजन, प्रति समय असंख्यात- क्षपणाधिकार इलिकागुणा अपकर्षण, किन्तु अपूर्वस्पर्षक प्रसंख्यातगुणा दर्शन मोह और पारित्रमोह कर्म प्रकृतियों को हीन कम से सूजन तथा प्रपूर्वस्पर्षक के प्रमाण क्षपणाविधि पूर्व में कही गई उसका उपसंहार करते का कथान २०६ । हुए चलिझा रूप ब्याख्यान २१२ २१३ २.३ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार कर्मक्षपण बोधिनी हिन्दी टीका समन्वित "पांगलाचरणा" मुणियपरमयवित्थरमुणिवरवीरेहि सिद्धविज्जेहिं । जा संथुआ भयवनो पसियउ सुयदेवया मज्झ ॥१॥ सुसुदेवयाए भत्तो सुदोवजोगीवभाविओ सम्म । आवहइ गाणसिद्धि णाणफलं चादि णिचाणं ॥२॥ तो सुअदेवयमिणमो तिक्खुत्तो पणमियूण भत्तीए । वोच्छामि जहासुतं चरित्तमोहस्स खवरणविहि ॥३॥' तिकरणमुभयोसरणं कमकरणं खवणदेसमंतरयं । संकम अपुवफड्डयकिट्टीकरणाणुभवणखमणाए ।॥१॥३६२॥ गुणसेडी गुणसंकमठिदिरसखंडाण णस्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहि वडीहिं वदि हु ॥२॥३६३॥ 'सत्थाणमसस्थाणं चाउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणंतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥३॥३६४॥ १. ज. ५० मूल पृष्ठ १६३६ से उद्धत। २. ल० सा० गाथा ३७ भी इसी प्रकार है। ३. ल. सा. गाथा ३८ के समान । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १-५ 'पल्लस्स संखभागं मुहूत्तअंतेण ओसरदि बंधे। संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्हि ओसरणा ॥४॥३६५॥ आदिमकरणद्धाए पढमदिदिबंधदो द चरिमम्हि । संखेजगुणविहीणो ठिदिबंधो होदि णियमेण ।।५॥३६६।। अर्थः–अधःकरण, अपूर्व करण और अनिवृत्ति करणरूप तीनकरण ; बंधापसरण और सत्त्वापसरण ये दो अपसरण तथा क्रमकरण, आठ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण) कषाय और १६ प्रकृतियों को भषणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, संक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, कृष्टि अनुभवन इसप्रकार चारित्रमोहको क्षपणामें अधिकार जानना ॥१॥ पहले अधःप्रवृत्तकरण में गुणश्रेणि, गुणसंक्रम, स्थिति काण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है अतः जोव समय-समयप्रति अनन्तगुणे क्रमसहित विशुद्धताकी वृद्धिद्वारा वर्धमान होता है ।।२।। जो जीव समय-समयप्रति प्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तगुणे क्रम से चतुःस्थानिक अनुभागबन्ध करता है और अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तवें भागरूप क्रमसे विस्थानिक बन्ध करता है ।।३।। पूर्वस्थितिबन्धमेंसे पल्यका असंख्यात वांभाग मात्र स्थितिबन्ध घटाते हुए एक अन्तमुहूर्त कालपर्यन्त प्रति समय समानबन्ध होता है सो यह एक स्थितिबन्धापसरण हुआ ऐसे संख्यातहजार स्थितिबंधापसरण अधःप्रवृत्तकरण में होते हैं ।।४।। ___ इसप्रकार स्थितिबंधापसरण होनेसे अधःप्रवृत्त करणकालमें प्रथमसमयसम्बन्धी जो स्थितिबन्ध है उससे संख्यातमुणा होन स्थितिबन्ध अन्तसमयमें नियमसे होता है । ऐसे इस अधःप्रवृत्तकरणमें आवश्यक होते हैं ।।५।। विशेषार्थः-कषायोपशामना (चारित्रमोहोपशामना) अधिकारके पश्चात् चारित्रमोहनपणाधिकार प्रारम्भ होता है । दर्शनमोहक्षपणाकी अविनाभावी यह चारित्र १. ल. सार गाथा ३६ के समान । २. देखो ल० सार गाथा ४० १ तथा ध० पु. ६५० २२३ ! Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया १-५ ] क्षपणासार [३ मोक्षपणा है, क्योंकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना क्षपकश्रेणीका आरोहण असम्भव है | दर्शनमोहकी क्षपणा भी अनन्तानुबन्धीको विसंयोजना पुरस्सरा है अर्थात् अनन्तानुबन्धकी विसंयोजना हो चुकनेपर ही दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है, अन्यथा दर्शन मोहकी क्षपणा प्रारम्भ हो नहीं सकती । इसका कथन दर्शनमोहक्षपणाधिकारमे हो चुका है सम्यविस्तार के भय से उनका यहां पुनः कथन नहीं किया गया है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी और दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी क्रियाविशेष समाप्त हो जानेपर क्षपकश्रेणिपर आरोहण के लिए प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थान में साता व असाता बन्धके प्रावर्त ( परिवर्तन ) सहस्रोंबार करके प्रमत- अप्रमत्तगुणस्थान में सहस्रोंबार गमनागमन करके क्षपकश्रेणिकी प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर क्षपक श्रेणि चढ़नेवाले के पूर्व में अधःकरणादि तीन विशुद्धपरिणामवालोंकी एक पंक्ति होती है, क्योंकि इनके बिना उपशमन व क्षपणक्रयाका होना असम्भव है। अधःकरणादि तीन विशुद्धपरिणामकालों में प्रथम अधःप्रवृत्तकरणकाल, द्वितीय अपूर्वकरणकाल और तृतीय अनिवृत्तिकरणकाल है । 'इन तीनों में से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनोंकाल परस्पर संबंधित हैं और ऊर्ध्वरूप एक श्रेण्याकारसे विरचित है। दर्शनमोहकी उपशामनायें अधःप्रवृत्तकरण आदिका लक्षण तथा तत्सम्बन्धी क्रियाओंका कथन किया गया है वैसी ही प्ररूपणा यहां भी करना चाहिए, क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है, किन्तु क्षपकश्रेणिसे पूर्व उपशामना आदिमें होनेवाले अधः प्रवृत्तकरण आदिके कालसे क्षपकश्रेणि सम्बन्धी अधः प्रवृत्तकरणआदिका काल असख्यातगुणा हीन है, क्योंकि खड्गधाराके समान शुद्धतर परिणामों में चिरकालतक ठहरना सम्भव नहीं है । उपशामनादिसम्बन्धी परिणामों से क्षपकश्रेणिसम्बन्धी परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध पाए जाते हैं । सातिषायमप्रमत्त नामक सप्तमगुणस्थान में क्षपकश्रेणिसम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरण होता है । १. एदासि च पादेक्कमंतो मुहुत्तपमारणावण्णिाणं समयभावेणेगसेढीए विरइदार्ण लवखाविहाणं जहा दंसण मोहोवसा मरणाए अधापवत्तादिकरणाणि णिरुभियूण परुविद तहा एत्थ विपरूवियव्यं, बिसेसाभावादो । वरि हट्टिमाते सकिरियासु पडिबद्ध अधापवत्तादिकरणद्धाहिती एत्थतरणअधापवत्तकरणादिअढाओ असंखेज्जगुणहीगाओ सुद्धयर परिणामेसु खग्गधारासरिसेसु चिरकालमवाणासंभवादो । ( जयधवल मूल पू० १६३६ ) । २. किन्तु घ० पु० १२ पृ० ७८ पर गाया नं० ८ में यह काल संख्यातगुणा हीन कहा है । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासास [ गाथा १-५ अधःप्रवृत्त करणके प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता हुआ स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघातके बिना ही अपने काल में संख्यातहजार स्थितिबंधापसरणोंको करता है, अप्रशस्तप्रकृतियों के विस्थानिक अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणा-अनन्तगुणाहोन अनुभागबन्ध करता है और प्रशस्तप्रकृतियों का प्रतिसमय अनन्तगुणा-अनन्तगुणा चतुर्थानिक अनुभागबन्ध करता है । इसप्रकार बन्ध करता हुआ अध:प्रवृत्तकरणके कालको क्रमसे व्यतीत कर चरमसमयको प्राप्त होता है। अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें 'आत्मविशुद्धि के द्वारा बढ़ता है। इसे आदि करके प्रस्थापनासम्बन्धी निम्न चार गाथासूत्रोंकी विभाषा की जाती है । संकामणपट्टबगस परिणामों केरिसो भवे। जोगे कसाय उपजोगो लेस्सा वेवो य को भवे ।।१।। काणि वा पुदवबद्धाणि के वा असे णिबंधदि । कधि सापलिय परिसंशिदिवा पसगो ॥६॥ के अंसे क्षीय पुथ्वं बंधेण उदएण वा। अंतरं वा कहि फिच्चा के के संकामगो कहिं ।।३॥ कि द्विवियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा। ओवट्टे दूण सेसाणि कं ठाणं पडिबज्जवि ॥४॥ अर्थ:--संक्रमण प्रस्थापकके अर्थात् कषायकी क्षपणापर आरूढ़ चारित्रमोहादि कमकी प्रकृतियोंको अन्य प्रकृतिरूप संक्रमित करता है। उसके परिणाम किसप्रकारके होते हैं ? (उसके परिणाम इसप्रकारके होते हैं, ऐसी प्ररूपणाको विभाषा कहते हैं ।) उसके परिणाम विशुद्ध होते हैं और कषायोंका क्षपण प्रारम्भ करनेके भो अन्तर्मुहूर्त पहलेसे अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होते आ रहे हैं । शुभपरिणाम कहनेसे अशुभपरिणामका निषेध हो जाता है । शुभपरिणामको प्रणालीबिना इतने विशुद्धपरिणामोंका होना असम्भव है। __ योग कोनसा होता है ? कषायों को क्षपणा करनेवाला चारों मनोयोगोंमें से किसी एक मनोयोगवाला अथवा चारों वचनयोगों में से एक वचनयोगवाला अथवा औदारिककाययोगी होता है, इन ६ योगोंके अतिरिक्त अन्ययोग सम्भव नहीं है। १. विसोहीए सुहागमणुभाग वुद्धि मोत्तूण पयारतरासंभवादो 1 (जयधवल मूल पृ० १९४१)। २. जयधवल मूल पृ० १६३९-४० । ३. कुछ पाठान्तर के साथ कषायपाहुड़े सुत्त पृ० ६१४-१५ गा०६१ से ६४ तक । ४. संकामएपढ़वगो कसायक्खवणाए आडवगो त्ति घुत्तं होदि (जयधवल मूल पृष्ठ १९४१) । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १-५] __ शंका:-क्षपकके मनोयोग तो सम्भव है, क्योंकि इनस्थके ध्यानावस्थामैं मन को एकाग्नता होती है, किन्तु चारों वचनयोग कैसे सम्भव है, क्योंकि ध्यानावस्था में समस्त बहिरङ्ग व्यापार रुक जाता है, जिसका वचनप्रवृत्तिके साथ विरोष है । समाधानः-यह दोष नहीं है, क्योंकि ध्यानयुक्तके भी अवक्तव्य रूपसे वचनयोगकी प्रवृत्ति के विप्रतिषेधका अभाव है। इसीप्रकार औदारिककाययोग भी सम्भव है, क्योंकि ध्यानावस्था में उसके सम्बन्धसे जीवप्रदेशों का परिस्पंदन संभव है। कषाय कोनसी होती है ? क्रोध-मान माया और लोभ इन चारकषायरूप परिणामों में से किसी एक कषायरूप प्रवृत्तिका विरोध नहीं है। शंका:-कषायरूप परिणाम वर्धमान होते हैं या हीयमान होते हैं ? समाधानः-कषायपरिणाम हीन होते हैं, वर्धमान नहीं, क्योंकि विशुद्धपरि. णामोंका वर्धमानकषायपरिणामोंसे विरुद्ध स्वभाव है'। उपयोग कौनसा होता है ? अर्थात् अर्थग्रहणरूप आत्मपरिणाम उपयोग है, वह साकार व अनाकारके भेदसे दो प्रकारका है । मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय और केवल इन पांचज्ञानरूप व कुमति-कुश्रुत-विभङ्ग इन तीन कुज्ञानरूप इसप्रकार आठभेदबाला साकारोपयोग और चक्षु-अचक्षु-अवधि केवलरूप चार प्रकारका अनाकार उपयोग होता है । क्षपकवेणि चढ़नेवाले के एक श्रुतज्ञानोपयोग होता है, क्योंकि पृथक्त्ववितर्कवीचार संज्ञक प्रथम शुक्लध्यानके अभिमुख चौदह या दस अथवा नौ पूर्वधारीके श्रुतज्ञानोपयोग अवश्यंभावी है । द्वितोय उपदेशानुसार श्रुतज्ञान, मति ज्ञान, चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन इन चारमें से कोई एक उपयोग होता है, क्योंकि वह अन्तरीय (अन्य) नहीं है, मात्र कारणरूप है मतिज्ञानके होनेपर चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शनके होनेमें भी कोई विरोध नहीं आता, क्योंकि चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शन के बिना मतिज्ञान नहीं हो सकता। शंका:-मतिज्ञान श्रुतज्ञान-चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन इन चार उपयोगोंके समान अवधिज्ञान मन:पर्य यज्ञान और अवधिदर्शन भी क्यों नहीं होते ? । समाधान:-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस सूत्र के द्वारा उनका विरोध कर दिया गया है तथा एकानचितानिरोध लक्षणरूप ध्यान से अवधिज्ञानादिका विरुद्ध स्वभाव है। १. जयषवल मूल पृ० १६४१-१९४२ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १-५ लेश्या कोनसी होती है ? नियमसे शुक्ल ही होती है, क्योंकि सुविशुद्धलेश्याकी कारणभूत मन्दतमकषायके उदय में शुक्ललेश्याको प्रवृत्ति पाई जाती है, अन्य ले श्याओंकी नहीं। शुक्ललेश्या भी वर्धमान है हीयमान नहीं है, क्योंकि प्रतिसमय कषायानुभागस्पर्धक अनन्तगुणे हीनरूपसे उदयमें आनेसे शुभलेश्यारूप परिणामों में वृद्धिक अतिरिक्त हानि होना असम्भव है'। वेद कौनसा होता है ? स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद इन तीनों वेदों में से कोई एक वेद होता है, क्योंकि तीनों वेदोंके उदयके साथ श्रेणि चढ़ने के प्रतिषेधका अभाव है अर्थात् तीनों वेदों में से किसी भी वेदोदय के साथ आपकश्रेणि चढ़ सकता है । इतनी विशेषता है कि द्रव्य से पुरुषवेदके साथ ही श्रेणि चढ़ सकता है, क्योंकि अन्यद्रव्य वेदके साथ श्रेणि चढ़ने का विरोध है। यहांपर गति आदि की भी विभाषा करती चाहिए, क्योंकि यह देशामर्सक सूत्र है । इसप्रकार प्रथमगाथाकी विभाषा समाप्त हुई आगे द्वितीयगाथाको विभाषा इसप्रकार है-- दूसरी प्रस्थापन गाथाका प्रथमपद- कौन-कौनकर्म पूर्वबद्ध हैं ? यहांपर प्रकृति सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका अनुमार्गण करना चाहिए । सर्वप्रथम प्रकृतिसत्कर्म अनुमानणके लिए यहांपर दर्शन मोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और तीन आयुके अतिरिक्त शेष कर्मप्रकृतियोंका सत्कर्म है । इतनी विशेषता है कि आहारक शरीर व आहारकअङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिका सत्त्व भजितव्य है, क्योंकि इनका सर्व जीवों में नियमरूपसे होने का अभाव है। आयुकर्मके अतिरिक्त जिन प्रकृतियोंका सत्कर्म है उनका स्थिति सत्कर्म अन्त:कोडाकोड़ीसागर प्रमाण है । अनुभागसत्कर्म भी अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्विस्थानिक और प्रशस्त प्रकृतियोंका चतुःस्थानिक है । सर्वप्रकृतियोंका प्रदेशसत्कर्म अजघन्य अनुत्कृष्ट है । किन-किन कर्माशोंको बांधता है ? यहांपर भी प्रकृतिबन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश बन्धका अनुमार्गण करना चाहिए। कितनी प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती हैं ? सभी मूल प्रकृतियां उदयावली में आती हैं (प्रवेश करती हैं), किन्तु जो उत्तरप्रकृतियां विद्यमान हैं वे उदय या अनुदय (परमुखउदय) स्वरूपसे उदयावलीमें प्रवेश करती हैं। कितनी प्रकृतियां उदीरणास्वरूपसे उदयावली में प्रवेश करती है ? आयु और वेदनीयकर्मको छोड़कर जितने भी वेदन १. जयधवल मूल पृ० १९४३ । २. जयधवल मूल पु० १६४४ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १-५] क्षपणासार किये जाने वाले (स्वमुख उदयस्वरूप) कर्म हैं वे उदोरणारूपसे उदयावलिमें प्रवेश करते हैं । पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणका तो नियमसे उदय है । निद्रा और प्रचलाका कदाचितु अबक्तव्य उदय है । साता व असातावेदनोयमें से किसी एकका, चार संज्वलन कषायों में से, तीन वेदों में से और दोयुगलों (हास्य-रति व अरतिशोक) में से किसी एकका नियमसे उदय है। भय व जुगुप्साका कदाचित् उदय है और कदाचित् उदय नहीं है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक-त जस-कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमें से किसी एक संस्थान का, औदारिकशरीरअंगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्ण-गन्धरस-स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार (अगुहलघु-उपघात-परघात-उच्छ्वास) प्रशस्त व अप्रशसपिहायोति में से किसी एकवः, सचतुष्क (स-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक), स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग और सुस्वर-दुःस्वरमें से किसी एकका, आदेय, यशस्कोति, उच्च गोत्र, पांच अन्तराय (दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्यान्तराय) का नियमसे वेदक होता है । यहाँपर अन्य प्रकृतियोंका उदय सम्भव नहीं है। इनमेंसे साता-असाताबेदनीय और मनुष्यायुको छोड़कर शेषका उदीरक होता है अर्थात् शेषकर्मो को उदीरणा होती है। शंका:-यहां आयु व वेदनीयकर्मको उदोरणा सम्भव क्यों नहीं है ? समाधानः-नहीं होती, क्योंकि वेदनोय व आयुकर्मको उदोरणा प्रमत्तसंयतगुणस्थान से आगे सम्भव नहीं है । (तृतीयगाया) कौन-कौन कर्मांश बन्ध अथवा उदयको अपेक्षा पहले व्युच्छिन्न हो जाते हैं ? यहांपर ज्ञानावरणकर्म की पांचों प्रकृतियों का बन्ध होता है अतः ज्ञानावरणकर्मकी एक भी प्रकृतिको बन्धव्युच्छित्ति नहीं कही गई है। दर्शनावरणकर्मकी स्त्यानगृद्धित्रिककी पूर्व में हो बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके आगे इन का बन्ध असम्भत्र नहीं है । वेदनीयकममें से असातावेदनीयकर्म की बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, क्योंकि प्रमत्तसंयतगुणस्थानसे ऊपर असातावेदनीयके बन्धका अभाव है । मोहनीयकर्मको मिथ्यात्व, बारहकषाय, अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुसकवेद ये १७ प्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं, क्योंकि पूर्व में ही इन प्रकृतियोंकी यथा सम्भव अघस्तन गुणस्थानों में बन्धव्युन्छित्ति हो जातो है। आयुकर्मको सभी प्रकृतियां १. जयधबल मूल पृ० १६४५ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १-५ बन्धसे व्युच्छिन्न हैं, क्योंकि उनके बन्धकारणोंको उल्लंधकर क्षपक श्रेणिके अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी तत्प्रायोग्य विशुद्धि में वर्तन कर रहा है । नामकर्मको परिवर्तमान सभी अशुभप्रकृतियों की पूर्व में ही बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । नरकगति, तिर्यञ्चति, एकेन्द्रियादि चार जाति, पांच अशुभसंस्थान, पांच अशुभसंहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यच. गत्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीति नामकर्मको ये प्रकृतियां यथासम्भव नीचले गुणस्थानों में बन्धसे ज्युच्छिन्न हो जाती हैं | नामकर्मको केवल इतनी ही प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती, किन्तु मनुष्यगतिद्विक, औदारिक द्विक, वज्रवृषभनाराचसंहनन इन शुभ प्रकृतियों को असंयतसम्यग्दृष्टियोंके भी बंधव्युच्छित्ति देखी जाती है । आतप और उद्योत इन दो शुभ प्रकृतियों की बन्धयुच्छित्ति यथाक्रम मिथ्यादृष्टि व सासादनगुणस्थानमें हो जाती है । वहांपर (क्षपकणि में) नामकर्मकी इतनी प्रकृतियों को बन्धव्युच्छित्ति पायी जाती है। गोत्रकर्ममें नीचगोत्र बन्धसे व्युच्छिन्न है, क्योंकि सासादनगुणस्थानसे आगे इसका बन्ध नहीं होता है । अन्त रायकर्मकी एकभी प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं है । उदयसे व्युच्छिन्न प्रकृतियां निम्नप्रकार हैं- स्त्यानगृद्धितिक पूर्व में ही उदयसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं । यहांपर निद्रा और प्रचला उदयसे व्यूच्छिन्न नहीं होती, क्योंकि उनका उदय क्षीणकषाय गुणस्थानके द्वि चरमसमयतक सम्भव है । शेष मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, १२ कषाय, मनुष्यायुफे अतिरिक्त तीन आयु, नरकगति, तियंञ्चगति, देवगति और इनके प्रायोग्य अर्थात् नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी एकद्रिय-विकलेंद्रियजाति, वैक्रियकशरोर, वैक्रियक अंगोपांग, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म-साधारणशरीर, आहारकटिक, बज्रवृषभनाराचसहनन को छोड़कर शेष पांचसंहनन मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अशुभविक (दुर्भग, अनादेय, अयशस्कोति), अपर्याप्त, नीचगोत्र ये प्रकृतियां उदयसे पूर्व में ही व्युच्छिन्न हो जाती है । तीर्थङ्करप्रकृतिको कदाचित उदयव्युच्छित्ति होती है कदाचित् नहीं । कहां पर अन्तरकरके किन-किन कर्मोंको कहां संक्रामण करता है ? यह अघःप्रवृत्तकरणसंयत यहाँ अन्तर नहीं करता, किन्तु अपूर्वकरणकालको उलंघकर १. कर्मप्रकृतियोंका क्षय १४ गुणस्थान तक है अत: क्षपणाका यह प्रकरण १४वें गुणस्थानतक जानना । इसी अपेक्षा तीर्थङ्करप्रकृतिका स्यात् उदय और स्यात् अनुदय कहा है। २. जयधवल पु० १६४६-४७ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ६ ] क्षपणासार [ अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर अन्तर करता है और वहीं पर चारित्रमोहकी प्रकृति योंका ययावसर संक्रामक होगा। (चतुर्थगाथा) कषायों की क्षपणा करनेवाला किस-किस स्थिति और अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त कराता है, शेषकर्म किस स्थिति तथा अनुभागको प्राप्त होते हैं ? इस चतुर्थगाथाके द्वारा यह प्रश्न किया गया है कि स्थितिविशेषमें वर्तन करनेवाले कर्मों का अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर अवशेष अनुभाग कितना रह जाता है ? यहां स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघातकी सूचना इस पृच्छा द्वारा की गई है । अध:प्रवृत्तकरण के चरमसम यतक स्थित के स्थिति काण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है, किन्तु अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें अपूर्वकरणके प्रवेश हो जानेपर दोनों काण्डकघातकी प्रवृत्ति होती है। शङ्का:--यदि ऐसा है तो अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशुद्धिकी प्राप्ति निरर्थक हुई, क्योंकि स्थिति व अनुभागकाण्डक घासरूप कार्यविशेषकी अनुपलब्धि है । समाधान:---ऐसी शंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्थिति व अनुभागघातके हेतुभूत अपूर्वकरण परिणामोंकी उत्पत्ति में ये (अधःप्रवृत्तिकरणके) परिणाम निमित्तरूपसे देखे जाते हैं । इसप्रकार इन चार मूल गाथाओंको विभाषामें अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है। अथानन्तर अपूर्वकरणका वर्णन करते हैं-- 'गुणसेढी गुणसंकम ठिदिखंडमसत्थगाण रसखंडं । विदियकरणादिसमए अण्णं ठिदिबंधमारवई ॥६॥३६७॥ अर्थः-द्वितीय अपूर्वकरणके प्रथमसमय में गुणधेणि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्डन होता है तथा अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयमें जो स्थितिबन्ध होता था उससे पल्य के असंख्यातवेंभाग मात्र घटते हुए अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता है, क्योंकि यहां एक स्थितिबंधापसरण होने के कारण इतने प्रमाण स्थितिबन्धको घटाता है। १. जयघवल मूल पृ० १९४१ से १६४८ तक। २. ल. सा. गा• ५३ के समान । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १०] [ गाथा ७-६ विशेषार्थ:-अधःप्रवृत्तकरण समाप्त होने के अन्तरसमय में अपूर्वकरणगुणस्थानमें प्रवेश करता है, इसका काल अन्त महतंप्रमाण है। अपूर्व करण के प्रथम समय मे स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्ड क्रघात प्रारम्भ होता है क्योंकि अपूर्वक र पाको विशुद्धिका स्थिति व अनुभागकाण्डकघात के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है'। - गुणसडीदीहत्तं अपुवचउक्कादु साहियं होदि । ... गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दु शिकवे भो । ७॥३६८।। अर्थः--यहां गुणश्रेणि आयामका प्रमाण अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्म साम्पराय और क्षीणकषाय इन चारों गुणस्थानोंके कालसे साधिक है, सो अधिक का प्रमाण क्षीणकषाय गुणस्थानके कालके संख्यातवेंभागमात्र है अत: उदयालिसे बाहर गलितावशेषरूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है उसमें अपकर्षण किये हुए द्रव्यका निक्षेरण होता है । विशेषार्थ:-परिणाम विशेषके कारण असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणिआयाममें निक्षेपण करता है । “पडिसमयं उक्कद्ददि असंखगुणिदक्कमेण संचदि यः ... इदि गुणसेढीकरणं पडिसमयमपुटवपढमादो ॥८॥३६६॥ अर्थः-प्रथम समय में अपकर्षण किए हुए द्रव्यसे द्वितीयादि समयोंमें असंख्यातगुणा क्रम लोए हुए प्रतिसमय द्रव्यक्का अप्रकर्षणःकरता है और सिंचित अर्थात् उदयावली, गुणश्रेणी आयाम और उपरितनस्थितिमें निक्षेपण करता है । इसप्रकार अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय गुणश्रेणि होती है। .....पडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसस्थाणं । . घंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥६॥४०॥ .. अर्थः-अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणेक्रमसे युक्त (यहां जिनका बन्ध नहीं होता) अप्रशस्तप्रकृतियोंका जो द्रव्य है वह (यहां १ जयधवल मूल पृष्ठ १६४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १९५१ । २. लब्धिसार गाथा ५३ के समान । ४. लब्धिसार गाथा ७४ के समान । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १० ] क्षपणासार [ जिन प्रकृतियों का बन्ध पाया जाता है ऐसी ) स्वजातीय प्रकृतियों में संक्रमण करता है: अर्थात् तद्रूप परिणमन कर जाता है । विशेषार्थ :- यह गुणसंक्रमण अबन्धरूप अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही होता है, अन्य में गुणसंक्रमण की प्रवृत्ति असंभव है' । जैसे - असातावेदनीयप्रकृतिका द्रव्य साता वेदनीयरूप परिणमन करता है, इसीप्रकार अन्य प्रकृतियों का भी जानना | प्रोट्टा जहरा आउलियाऊणिया तिभागेण । एसा द्विदिसु जहा तहाणुभागे सांते ॥ १० ॥ ४०९ ॥ अर्थ :- जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण त्रिभागसे होन आवलिप्रमाण है । यह जघन्य अपवर्तना स्थितिके विषय में ग्रहण करना चाहिए, किन्तु अनुभागविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकोंसे प्रतिबद्ध है । विशेषार्थ :- यद्यपि इस गाथा में स्थितिसम्बन्धी अपकर्षणको जघन्य अति स्थापनाका कथन किया गया है, तथापि देशार्षक होने से स्थिति अपकर्षण- उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन करना चाहिए। अनुभाग के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि जबलक अनन्तस्पर्धक अतिस्थापनारूपसे निक्षिप्त नहीं हो जाते तब तक अनुभागविषयक अपवर्तनाको प्रवृत्ति नहीं होती है । उदयसे लेकर एकसमय अधिक आवलिप्रमाण स्थितिवाले निषेक के द्रव्यका अपकर्षण होनेपर समयक्रम आवलिका दो-त्रिभाग ( 3 ) तो अतिस्थापना है और शेष नीचेका समयाधिक आवलिका त्रिभाग निक्षेप है । स्थिति अपकर्षणसम्बन्धी यह जघन्यअतिस्थापना व निक्षेपका प्रमाण है। उससे अनन्तर उपरिमनिषेक ( उदद्यावलिके बाहर द्वितीयनिषेक) का अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्ववत् समयकम आवलिके त्रिभागसे + १. जयधवल मूल पृ० १६५१ । २. यह गाथा क० पा० की गाथा १५२ के समान है तथा यह धवल पु० ६ पृष्ठ ३४६ तथा क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७४ पर भी है । यद्यपि क्षपणासार में 'उबट्टा।' यह पाठ था, किन्तु वह अशुद्ध प्रतीत होता है अतः उसके स्थान पर 'ओवट्टणा' यह शुद्ध उक्त आधारसे रखा गया है । ज० ध० मूल पु० २००२ पर भी यह गाथा दी गई है । ३. जयघवल मूल पृ० २००२, क० पा० सु० दृष्ट ७७४ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [ गाथा १० समयाधिक है, किन्तु अतिस्थापना पूर्व से एकसमय बढ़ जाती है । उपरितन- उपरितनस्थितिवाले निषेकोंके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर जघन्यनिक्षेपको अवस्थित करके अतिस्थापना एक-एक समय के क्रमसे तब तक बढ़ानी चाहिए जबतक समयाधिकविभाग निक्षेपके ऊपर एक आवलिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना नहीं हो जातो। उसके पश्चात् अवलिप्रमाण अतिस्थापनाको अवस्थित करके एक-एकसमयके प्रमाणसे निक्षेपको तब तक बढ़ाना चाहिए जबतक उत्कृष्टनिक्षेप हो जावे । उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण समयाधिक दो आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है जो इसप्रकार है- कषायकी उत्कृष्टस्थिति चालीसकोड़ाकोड़ो सागरप्रमाण बांधकर पुनः बंधावलिकाल बितानेपर ४० कोड़ाकोड़ीसागरको उत्कृष्टस्थिति एक आवलिप्रमाण कम होगई । बंधावलिके व्यतीत हो जानेपर अग्रस्थिति के द्रव्यको अपकर्षणकर उपमिनीचे एक कालिप्रमाण अतिस्थापना छोड़कर नीचे उदयस्थितिपर्यन्त वह अपकर्षण किया हुआ द्रव्य दिया जाता है । इसप्रकार बन्धावलि, अग्रस्थिति, अतिस्थापनावलि अर्थात् समयाधिक दो आवलिप्रमाणको कर्म स्थिति में से कम करनेपर स्थिति अपकर्षणसम्बन्धी उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण होता है' । क्षपणासार उदया H मानाकि उत्कृष्टस्थितिका प्रमाण १००० समय है, आवलिका प्रमाण १६ समय है । स्थिति अपकर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप व अतिस्थापना इसप्रकार हैवलि १६ समय, उदयाबलिके अनन्तर ऊपर १७ वें निषेकका अपकर्षणकर के उदद्यावलिमें देना है । एकसमयकम आवलि ( १६ - १ = १५ ) का दो विभाग ( १५ ) १० समय अर्थात् ७ वें निषेकसे १६ वें निषेकतक अतिस्थापना है और एकसमय अधिक विभाग ( १५ x .+१= ६ ) ६ समय निक्षेप है अर्थात् प्रथमनिषेकसे छठे निषेकतक निक्षेप है । १८वें समयसम्बन्धी निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर पूर्ववत् प्रथम ६ निषेक तो निक्षेप है और ७वें निषेकसे १८वें निषेकतक ११ निषेक अतिस्थापनारूप हैं । इसीप्रकार १६ वें निषेकका अपकर्षण होनेपर १२ निषेक और २०वें निषेकका अपकर्षण होनेपर १३ निषेक अतिस्थापनारूप होते हैं. किन्तु निक्षेप पूर्ववत् ६ समय ही है । इसप्रकार एक-एक समय बढ़ते २३ वें निषेकसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षण होनेपर अतिस्थापना १६ समयप्रमाण एकआवलि हो जाती है, किन्तु निक्षेप प्रथम ६ समय प्रमाण है । २४वें नियोकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर अतिस्थापना तो पूर्ववत् १६ समयप्रमाण और निक्षेप एकसमय बढ़ जाता है अर्थात् प्रथमसात निषेकों में द्रव्यसिंचित किया जाता है । इसके १. जयघवल मूल पू० २००२-२००४ तक । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११ ] क्षपणासार आगे अतिस्थापनाका प्रमाण तो अवस्थित उपरितनएकावलिप्रमाण है और निक्षेप एकएकसमय बढ़ता जाता है। उत्कृष्ट निक्षेप-उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का प्रमाण १००० समय है। १६ समय बन्धावलि के व्यतीत होनेपर स्थिति १०००-१६ =९८४ समयप्रमाण शेष रह जाती है । ९८४वें समयवाले निषेकके द्रव्यका अपकर्णण होनेपर ६७८ से १८३ तक १६ निषेक तो अतिस्थापनारूप हैं और प्रथमनिषेकसे ६७७ निषेकतक निक्षेप है । यह उत्कृष्ट निक्षेपकी अङ्कसन्दृष्टि है । शंका:-क्षपश्रेणिके कथन में सांसारिक अवस्थाके उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण बतलाना असम्बद्ध है । फिर क्यों यह कथन किया गया ? समाधान:-प्रसङ्गवश अपकर्षणसम्बन्धी यह कथन किया गया। इस प्ररूपणामें कोई दोष नहीं है। यहां अल्पबहत्व इसप्रकार है- 'एकसमयकम आवलिके तृतीयभागसे एक समयाधिक (६) जघन्यनिक्षेपका प्रमाण है जो सबसे स्तोक है, इससे अधिक जघन्यअतिस्थापना है जिसका प्रमाण एकसमयकमावलिके दो विभाग (१०) है । इससे विशेष अधिक उत्कृष्ट अतिस्थापनावलि (१६ ) प्रमाण है। उत्कृष्ट निक्षेप इससे असंख्यातगुणा है, क्योंकि वह समयाधिक दोश्रावलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। ____ अनुभागविषयक अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापनाका प्रमाण जानना चाहिए । स्थिति-अनुभागविषयक उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन आगे किया जावेगा अतः यहां नहीं किया है। संकामेदुक्कड्डदि जे अंसे ते अवठ्ठिदा होति । श्रावलियं से काले तेण परं होंति भजिदव्वा ।।११।।४०२॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २००४ । २. यह गाथा क० पा की १५३ वीं माथा समान है, किन्तु 'दुक्कट्टदि' और 'भजियव्व' के स्थान पर क्रमशः दुवकडुदि' और 'भजिदव्बा' पाठ हैं जो शुद्धप्रतीत होते हैं अत: यहां शुद्धपाठ क० पा० के अनुसार ही प्रयुक्त किये हैं । यह गाथा धवल पु० पृष्ठ ३४६ पर भी पाई जाती है । तथा जयधवल मूल पृष्ठ २००५, क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७७ पर भी है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १२ अर्थः- जो कर्म प्रदेश संक्रमित व उत्कषित किये जाते हैं वे एक आवलिकालतक अवस्थित रहते हैं उसके पश्चात् अनन्तरसमय में भवितव्य है । १४ ] क्षपणासार विशेषार्थ :- पर प्रकृति में संक्रामित प्रदेशाग्र तथा स्थित व अनुभागकी अपेक्षा उत्कषित प्रदेशान आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रमभाव से अवस्थित रहते हैं । आवलिमात्र कालतक अन्य क्रियारूप परिणाम के बिना जहांवर जिसरूपसे प्रदेशाग्र निक्षिप्त किये जाते हैं वहां पर उसी रूपसे निश्चल भाव से अवस्थित रहते हैं । आवलिकाल व्यतीत होने के अनन्तर समय में या उससे ऊपरवर्ती समयों में भजितव्य होते हैं । संक्रमावलिप्रमाणकाल के व्यतीत हो जानेपर उसके अनन्तरवर्ती ने कर्मप्रदेश संक्रमण, उत्कर्षण, वृद्धि-हानि क अवस्थित क्रिया के लिए भजितव्य है, क्योंकि आवलिकालके पश्चात् तद्रूप प्रवृत्ति के प्रतिषेधका अभाव है । जो प्रदेशान पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण करते हैं वे आवलिकालपर्यन्त अपकर्षण, उत्कर्षण व संक्रमण के लिए शक्य नहीं है। जो प्रदेशाग्र स्थिति या अनुभाग में उत्कर्षण को प्राप्त होते हैं ये भी आवलिकालतक अपकर्षण, उत्कर्षण या संक्रमण के लिए शक्य नहीं है । आवलिकालपर्यन्त निरुपक्रपभावके पश्चात् अपकर्षण आदि क्रिया के लिए भजितव्य भावकी प्ररूपणा मन्दबुद्धिवालों को समझाने के लिए की गई है। * ओक्कड्डदि जे असे से काले ते च होंति भजिदन्वा । डीए अट्ठाणे हाणीए संकमे उदए || १२ ||४०३ ॥ अर्थः-- जो कर्म प्रदेशाग्र अपकषित किये जाते हैं के अनन्तर अगले समय में वृद्धि हानि, अवस्थान, संक्रमण व उदयके लिए भजितव्य हैं । विशेषार्थ : -- उत्कर्षित प्रदेशाग्र या परप्रकृतिरूप संक्रमितप्रदेशाय आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रम भावसे अवस्थित रहते हैं ऐसा नियम है, किन्तु ऐसा नियम अपकर्षित प्रदेशाग्र सम्बन्ध में नहीं है । अपकर्षितप्रदेशाय दूसरे समय में ही संक्रमण व १. जयधवल मूल पृ० २००५ । २. यह गांथा कषायपाहुडकी १५४वी गाथा है (क०पा०सु० पृष्ठ ७७७ व धवल पु० ६ पृष्ठं ३४७). किन्तु वहां हृदि' व 'अवठाण' के स्थानपर क्रमश: 'ओक्कदि' और 'अवद्वाणे' ये पाठ दिये गए हैं जो कि शुद्ध प्रतीत होते हैं अतः उन शुद्ध पाठों को ही यहांपर रखा गया है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३ ] [ १५ अर्थात् जिन कर्मप्रदेशाकास्थित उदीरणा होना सम्भव है भाग में अपकर्षण होता है वे अनन्तरसमय में हो वृद्धि हानि अवस्थान व संक्रमणके लिए भजनीय है, अनन्तर समय में अपकर्षित प्रदेशाग्र में से कुछ तो पुनः अपकर्षित हो जाते हैं अपकर्षण नहीं होता, कुछ प्रदेशाग्रोंकी वृद्धि होती है और कुछकी वृद्धि नहीं होती । अपकर्षितप्रदेशों में से कुछ प्रदेशाग्र अपने स्थानपर स्थित रहते हैं और कुछ अन्यक्रियाको प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार संक्रमण व उदयके विषय में भी योजना करनी चाहिए। अपकवितप्रदेशाग्र की दूसरे समय में पुनः अपकर्षण आदिरूप प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं है । कर्म प्रदेशाप्रका स्थितिमुखसे या अनुभागमुखसे ही अपकर्षण होता है, अन्यप्रकार से अपकर्षण नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए' | एक्कं च दिट्ठदिविसेसं तु असंखेज्जेस द्विदि विसेसेसु । वडूढेदि हरस्सेदि व तहाणुभागे सांते || १३ | ४०४ ॥ क्षपणासार अर्थः- एक स्थितिविशेषको असंख्यात स्थितिविशेषों में बढ़ाता भी है और घटाता भी है । इसीप्रकार अनुभागविशेषको अनन्त अनुभागस्पर्धकोंमें बढ़ाता और घटाता है । विशेषार्थः -- एक स्थितिविशेषके उत्कर्षण होनेपर असंख्यात स्थितिविशेषों में वृद्धि होती है, क्योंकि उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप भी आवलिके असंख्यातवेंभाग है उससे कम में नहीं । एक स्थितिविशेष के अपकर्षण होनेपर असंख्यात स्थितिविशेषों में ह्रास होता है इससे कममें नहीं । गाथा अनुसार अपकर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप भी आवलीका तृतीयभाग है । अनुभागसम्बन्धी स्पर्धककी एकवर्गणा में उत्कर्षण या अपकर्षण होनेपर नियमसे अनन्त अनुभागस्पर्धकोंमें वृद्धि या ह्रास होता है। इससे अनुभागविषयक अपकर्षण- उत्कर्षण में जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण बतलाया गया है । स्थितिसत्कर्म की अग्रस्थिति से एसकमय अधिक स्थितिबन्ध होनेपर, स्थितिसत्कर्मको अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव १. जयश्रवल मूल पृ० २००६ । २. यह गाथा कसायपाहुड़की गाथा १५६वीं के समान है (क० पा०सु० पृष्ठ ७७८ व वेवल पु० ६ पृष्ठ ३४७) किन्तु क० पा० सु० में 'ठिदि' और 'रहस्सेदि' के स्थानपर क्रमश: 'द्विदि' और 'हरस्सेदि' पाठ है अतः क्र० पा० के आधारसे ही पाठ परिवर्तित किया गया है । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १३ होनेसे उत्कर्षण होने का विरोध है । इसीकारणसे दोसमय आदि अधिक-अधिक स्थितिबन्ध होने पर उत्कर्षण नहीं होता । आवलिप्रमाण अधिक स्थितिबन्ध होनेपर स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि जघन्य अतिस्थापना होते हुए भी निक्षेपका अभाव होनेसे उत्कर्षणका प्रतिषेध है। याद स्थितिसत्कर्मको अग्रस्थितिसे एक आवलि और एकआवलिके असंख्यातवेंभाग अधिक स्थितिका बन्ध हो तो अग्रस्थिति. का उत्कर्षण हो सकता है, क्योंकि अग्रस्थितिका उत्कर्षण होनेपर प्रावलिप्रमाण जघन्य अतिस्थापना करके आवलिके असंख्यातवेंभागप्रमाण जघन्य निक्षेपमें निक्षिप्त होता है और यह निक्षेप आवलिके असंख्यातवेंभागको आदि करके एक-एकसमय वृद्धिसे निरन्तर उत्कृष्टनिक्षेप प्राप्त होनेतक बढ़ता है । स्थिति सत्कर्मकी अनस्थितिकी अपेक्षा ओघउत्कृष्टनिक्षेप प्राप्त नहीं होता, किन्तु उदयावलिसे बाहर अनन्तरस्थितिके प्रदेशाग्नका उत्कर्षण होनेपर उत्कृष्टनिक्षेपका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसी में ओध उत्कृष्टविक्षेप संभव है अर्थात् जघन्यनिक्षेपसे लेकर उत्कृष्टनिक्षेपतक सर्वस्थान निक्षेप स्वरूप हैं । ___ सर्व कर्मोंका अपना-अपना उत्कृष्टस्थितिबन्ध होने पर आगमअविरोषसे उत्कृष्टनिक्षेप सम्भव है, किन्तु उदाहरणरूपसे कषायके उत्कृष्ट निक्षेपका कथन इस प्रकार है४० कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण कषायकी उत्कृष्टस्थितिबन्ध होनेपर एकसमय अधिक आवलि और चारहजारवर्णकम ४० कोड़ाकोड़ोप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप है। कषायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके बन्धावलि व्यतीतकर अन्तिम निषेक में से प्रदेशारका अपकर्णणकर नीचे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार निक्षिप्यमान उदयावलिसे बाहर द्वितीयस्थिति में निक्षिप्त प्रदेशाग्रको उत्कर्षण करने के लिए ग्रहण करता है। उस प्रदेशानको तदनन्तर समयमें बन्ध होनेवाली ४० कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण उत्कृष्टस्थिति के ऊपर उत्कर्षण करता हु ग्रा ४००० वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आबाघाकालका उल्लंघन करके इससे उपरिमनिषेकस्थितियों में ही निक्षिप्त करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट आबाधाकाल से हीन ४० कोड़कोड़ीसागरप्रमाण चारित्रमोहनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थिति ही उत्कर्षणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण होता है, किन्तु एकसमयाधिक बन्धालिकालसे उक्त कर्मस्थितिको कमकरना चाहिए, क्योंकि निरुद्ध समयप्रबद्धकी सत्त्वस्थितिका समयाधिक बन्धावलिकाल प्रमितकाल नीचे ही गल चुका है । इसप्रकार समयाधिक आवलि और ४००० वर्षोंसे हीन ४० कोड़ाकोड़ीसागरोपम उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण है शेष अनुरस्कृष्ट निक्षेपस्थानों को उपायविधिसे जानना चाहिए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया १३ ] क्षपणासार आबाधाकालसे ऊपर जितनी भी स्थितियां हैं उनका उत्कणि होने पर जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अतिस्थापनावलि प्रमाण है, क्योंकि अन्य प्रकार होना असम्भव है । पाबाधाकाल से अधस्तनवर्ती पर स्थितिकका उम होनेपर अतिस्थापना किसी स्थिति की तो एकआचलि, किसी स्थिति की एकसमय अधिक प्रालि, विसी स्थिति. की दो समय अधिक आवलि और किसीकी तीनसमय अधिक आवलि है । इस प्रकार निरन्तर एकसमय अधिक तक बढ़ना चाहिए जब तक उदयालिसे बाहर अनन्तस्थितिकी सर्वोत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त नहीं होती। शंकाः- उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण कितना है ? समाधानः-जिसकर्मकी जो उत्कृष्ट आबाधा है वह एक समय अधिक आवलि से हीन आबाधा उस कर्मको उत्कृष्ट अतिस्थापना है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर उत्कृष्ट आबाधा होती है और उसीके एक समय अधिक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधा ही उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है । उदयालि से बाहर अनन्तर स्थिति का उत्कर्षण होनेपर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना प्राप्त होती है। क्षपककी प्ररूपणाके अवसर में संसारअवस्थासम्बन्धी उत्कर्षणकी अर्थपद प्ररूपणा की गई है, क्योंकि क्षपकणिमें सत्कर्मसे अधिक स्थितिबन्ध न होनेसे उत्कर्षण प्ररूपणा सम्भव नहीं है । जिसप्रकार उत्कर्षण-विषयक जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापना. का प्रमाण बतलाया है, उसीप्रकार अपकर्षणसम्बन्धी निक्षेप और अतिस्थापनाका भी जान लेना चाहिए । अब उन्हीं उत्कर्षण-अपकर्षणसम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं (१) उत्कर्षण की जानेवाली स्थिति का जघन्यनिक्षेप सबसे स्तोक है, क्योंकि वह आवलिके असंख्यातāभागप्रमाण है । (२) इससे अपकर्षणकी जानेवाली स्थितिका जघन्य निक्षेप असंख्यातगुणा है, क्योंकि उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलिका विभाग प्रमाण है । (३) इससे अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य अतिस्थापना कुछकम दोगुणो है, क्योंकि इसका प्रमाण एकसमयकम आवलिका दो त्रिभाग है और जघन्यनिक्षेपका प्रमाण समयाधिक विभाग प्रमाण है इसलिए जघन्य अतिस्थापना दो समयकम दुगुणी है अतः विशेष अधिक है । (४) अपकर्षणसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना और निा २. जयधवल मूल पृष्ठ २००८ । १ जयधवल मूल पृष्ठ २००७ से २०११ तक। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०११ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] क्षपणासार [ गाथा १४ घातकी अपेक्षा उत्कर्षण सम्हाली र अन्य अतिस्थापना के दोनों परतुष्य होते हुए भी पूर्वसे विशेष अधिक हैं, क्योंकि वे दोनों आवलिप्रमाण है और समय अधिक आवलिके विभाग प्रमाण पूर्व से विशेष अधिक है। (५) उत्कर्णसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है, क्योंकि इसका प्रमाण समयाधिक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधा है । (६) व्याघातकी अपेक्षा अपकर्षण सम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना असंख्यातगुणी है, क्योंकि वह एक समयकम उत्कृष्टस्थितिकाण्डकप्रमाण है। (७) उत्कर्शणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण अन्तःकोडाकोड़ीसागर है, क्योंकि इसका प्रमाण समय अधिक आवली और उत्कृष्ट आबाघासे हीन ४० कोड़ाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्टस्थिति है। (८) अपकर्षणविषयक उत्कृष्टनिक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण संख्यातावलि हैं, क्योंकि यहां पर एकआवलिसे हीन उत्कृष्ट आबापाका प्रवेश सम्मिलित हो जाता है। (६) उत्कृष्टस्थिति एकसमयअधिक दोआवलि प्रमाण विशेष अधिक है, क्योंकि समयाधिक अतिस्थापनावलिके साथ बन्धाबलि भी सम्मिलित हो जाती है। 'पल्लस्स संखभागं वरं पि अबरादु संखमुणिदं तु । पढमे अपुवखवगे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥१४॥४०५॥ अर्थः-~-क्षपक अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिखण्ड अर्थात् स्थितिकाण्डकायामका जघन्य और उत्कृष्टप्रमाण यद्यपि पल्यके संख्यातवेंभागमात्र है तथापि जघन्यसे उत्कृष्टका प्रमाण संख्यातगुणा है । विशेषाय:-जिसके स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा होन है उसके जघन्यस्थितिकाण्डकघात होता है और संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्म वालेके उत्कृष्टस्थितिकाण्डकघात होता है । यद्यपि जघन्यस्थितिकाण्डकघातसे उत्कृष्टकाण्डकघात संख्यातगुणा है तथापि दोनोंका प्रमाण पल्योपमका संख्यातवांभाग है । जिसप्रकार दर्शनमोहकी उपशामनामें, दर्शनमोहको क्षपणामें तथा कषायोपशामनामे (उपशमश्रेणी) अपूर्वकरणका प्रथम स्थिति १. जयधवल मूल पृ. २०१२ । २. देखो धवल पु० ६ पृष्ठ ३४४, जरवल मूल पृ० १६४६, क. पा. सु० पृष्ठ ७४१.४२ । ३. क. पा० सुत पृष्ठ ७४१ सूत्र ४६ । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४ क्षपणासार [ १९ काण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवांभाग और उत्कृष्टसे सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण होता है । इसीप्रकार असंयत, संयतासंयत व संयतके अनन्तानुबन्धीको विसंयोजनासम्बन्धी अपूर्वकरणका प्रथमस्थितिकाण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सागरोपमपुयक्त्व होता है, किन्तु चारित्रमोह क्षपणाके अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिकाण्डकघात जघन्य और उत्कृष्ट दोनों हो पत्योपमका संख्यातवभागप्रमाण होकर भी जघन्यसे उत्कृष्ट का प्रमाण संख्यातगुणा है । क्षपकश्रेणि अपूर्वकरण में दो व्यक्तियोंने एक साथ प्रवेश किया। उनमें एकके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है और दूसरेका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होन है । जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होन है उसके प्रथम स्थितिकाण्डकसे, संख्यातगुणेस्थितिसत्कर्मवालेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा है । एक तो दर्शनमोहका क्षपण करके उपशमश्रेणि चढ़कर पुनः क्षपकश्रेणिसम्बन्धी प्रथमसमयवति अपूर्वकरण हुआ और दूसरा उपशमश्रेणि चढ़ा पुनः वहांसे उतरकर दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हो प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण हुआ, इनमें से पहले की अपेक्षा दूसरे व्यक्तिका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है । अथवा एक दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ और दूसरा दर्शनमोहका क्षयकर उपशमश्रेणीपर चढ़कर क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ प्रथमकी अपेक्षा द्वितीयका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणाहीन है और प्रथमका संख्यातगुणा है, क्योंकि इसके उपशमश्रेणिसम्बन्धी स्थितिघातका अभाव है। जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है उसके प्रथमस्थितिकाण्डकघात से दूसरेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा है, क्योंकि स्थितिसत्कर्मके अनुसार स्थितिकाण्डकघातको प्रवृत्ति होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । इसीप्रकार द्वितीय, तृतीयादि अपूर्वकरणके चरमस्थितिकाण्डकलक जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा जानना चाहिए। यदि स्थितिसत्कर्म एक दूसरे से विशेषहीन व विशेष अधिक है तो अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात भी विशेष हीन व विशेष अधिक होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समय में पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिकाण्डकघात, अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तबहुभागवाला अनुभाग काण्डकघात और पल्य के संख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धापसरण होता है । अधःप्रवृत्तकरण के चरम स्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके प्रथम समय में अन्यस्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेंभाग हीन होता है । अपूर्व १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४१ सूत्र ४७ । जयघवल मूल पु० १६४६ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० । क्षपणासार [ गाथा १५ करणके प्रथमसमयमें परिणाम विशेषके कारण असंख्यातसमयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर उदयावलिसे बाहर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्प राय और क्षीणकषायके कालोंसे विशेष अधिक काल में गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता है न बंधनेवाले अप्रशस्त कर्मों का गुणसंक्रमण होता है। अपूर्वकरणके द्वितोयादि समयों में गुणश्रेणि असंख्यात गुणी है, क्योंकि जितने द्रव्यका प्रथम समय में अपकर्षण किया था; द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणे क्रमसे द्रव्य का अपकर्षणकर; शेष-शेष (गलितावशेष) गुणश्रेणि आयाम में निक्षेप करता है, विशुद्धि भो प्रतिसमय अनन्तगुणे क्रमसे बढ़ती है, प्रथमसमयसे अन्य कोई विशेषता नहीं है । यह क्रम प्रथम अनुभागकाण्ड कके समाप्त होने तक है। अनन्तर अगले समयमै शेष अनुभागका अनन्त बहुभाग घातने के लिए अन्य अनुभागकाण्डकको प्रारम्भ करता है इस प्रकार प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर अन्य अन्य संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघात होते हैं । 'आउगवज्जाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुवे होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥१५॥४०६।। अर्थः-आयुकर्म बिना शेष सातकर्मों का स्थितिकाण्ड कायाम, स्थिति सत्त्व और स्थितिबन्ध ये तीनों अपूर्वकरण के प्रथमसमयमें जो पाये जाते हैं उनसे अपूर्वकरणके चरमसमय में संख्यातगुणे कम होते हैं । विशेषार्थः-प्रत्येक स्थिति काण्डकघात में स्थितिसत्कर्म हीन होता जाता है । स्थितिकाण्डकायाम (एकस्थितिकाण्डकघात के द्वारा जितनी स्थिति का घात होता है वह स्थितिकाण्डकायाम है) स्थिति सत्त्वका अनुसरण करने वाला है। स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर स्थितिकाण्डकायाम भी होन होता जाता है । प्रत्येक स्थितिबाधापसरणके द्वारा स्थितिबन्ध घटता जाता है । अपूर्वकरणकालमें हजारों स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण होते हैं अतः अपूर्वकरणके चरमसमय में इन हजारों स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थिति सत्कर्म का घात होकर संस्पातगुणा होन रह जाता है, स्थिति सत्कर्मका अनुसरण करने वाला स्थिति काण्डकायाम भी संख्यातगुणा १. यह विशेषार्थ जयश्वल मूल पृ० १९४८-१९५२ के आधारसे लिखा गया है । २. जयधवन मूल पृष्ठ १६५० | यह गाथा लब्धिसारको गाथा ७८ के समान है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ गापा १६-१७ ] क्षपणासार हीन हो जाता है । हजारों स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध विशेष हीन होता हुआ अपूर्वकरणके चरमसमय में स्थितिबन्ध भी संख्यातगुणा हीन होने लगता है'। 'अंतोकोडाकोड़ी अपुवपढमम्हि होदि ठिदिबंध धंधादो पुण सत्तं संखेज गुणं हवे तत्थ ॥१६॥४०७॥ अर्थः--अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण अर्थात् पृथक्त्वलक्षकोटिसागर प्रमाण है तथा स्थितिसत्त्व भी यद्यपि अन्तःकोटाकोटी प्रमाण है तथापि स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है । विशेषार्थ:--सायिकसम्यग्दृष्टिके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तःकोडाकोड़ीसागर प्रमाण हो जाता है, किन्तु बन्धसे सत्त्व संख्यात गुणा होता है वही प्रवृत्ति यहाँपर भी पाई जाती है। 'एक्केवक द्विदिखंडयणिवडण ठिदिओसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य रिणवडंति रसस्त खंडाणि ॥१७॥४०८।। अर्थ:---एक-एक स्थितिखण्डके पतन होने में अथवा एक स्थितिबन्धापसरणके कालमें संख्यातहजार अनुभागकाण्डकका पतन होता है । विशेषार्थ:-एकस्थितिकाण्डकका काल और एक स्थितिबन्धापसरणकाल समान होते हैं। स्थिति काण्डकको अन्तिमफालिका पतन होनेपर स्थितिकाण्डककाल समाप्त होता है और अन्तिमफालिके पतन होनेपर ही स्थितिघात होता है, द्विचरमफालि के पतन होने तक स्थितिघात नहीं होता इसीप्रकार एक स्थितिबन्धापसरणके प्रथमसमय जितना स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया था उतना ही स्थितिबन्ध चरमसमयपर्यन्त होता रहता है । स्थितिबन्धापसरणके चरमसमयके पतन होनेपर, अन्य स्थितिबन्ध स्थिति घटकर होने लगता है। एकस्थितिकाण्डक और एकस्थितिबन्धापसरण इन दोनोंका काल तुल्य है। १. ज. प. मूल पृष्ठ १६५१ । २. धवल पु० ६ पृष्ठ ३४५; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४२ सूत्र ५५ ॥ ज० ध० मूल पृष्ठ १९५१ । ३. यह गाथा ल० सार माथा ७६ के समान है । धवल पु० ६ पृष्ठ २२८ ज. ५० मूल पृष्ठ १९५२ । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २२ ] [ गाथा १८-१६ अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकका अन्त मुहूर्त काल व्यतीत हो जानेपर तदनन्तर समयमें अन्य अनुभागकाण्डक प्रारम्भ हो जाता है जिसके द्वारा पूर्वघातित शेष अनुभागके अनन्त बहुभागका घात होता है। प्रथमस्थितिकाण्डक काल के भीतर पुनः पुनः संख्यातहजार अनुभागकाण्ड कके पतन के साथ अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिकाण्डकका और प्रथम स्थितिबन्धापसरणका भी पतन होता है। इसप्रकार तीनोंका पतन एक साथ होता है अर्थात तीनोंका पतन समकालीन है। असुहाणं पयडीणं अतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णस्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥१८॥४०६॥ अर्थः--अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकाण्डकका प्रमाण अनन्तबहुभागमात्र है तथा प्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभागखण्ड नियम से नहीं होता है, क्योंकि विशुद्धपरिणामों के द्वारा शुभप्रकृतियोंका अनुभागघात सम्भव नहीं है । विशेषार्थः-पूर्व में जो अनुभाग था उसको अनन्तका भाग देने पर उसमें से बहुभागमात्र प्रथमअनुभागकाण्डकमें घटाता है अवशेष एकभागमात्र अनुभाग रहता है उसको अनन्त का भाग देनेपर उसमें से बहुभाग द्वितीय अनुभागकाण्डकमें घटाता है, अवशेष एक भागप्रमाण अनुभाग रहता है, यह क्रम अन्तिम अनुभागकाण्ड कपर्यन्त क्रम जानना । इसप्रकार अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभागखण्ड करणविशुद्धिके द्वारा यहां होता है। अनुभागकाण्डक सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है-एकप्रदेशगुणहानिस्थान में स्पर्धक स्तोक है, अतिस्थापना अनन्त गुणी है, निक्षेप अनन्तगुणे, अनुभागकाण्डकके द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग अनन्त गुणा है। पढमे छठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । बंधेण अपुवस्स य से काले बादरो होदि ॥१६॥४१०॥ अर्थः-अपूर्वकरणके प्रथमभागमें दो प्रकृतियां, छठे भागमै ३० प्रकृतियां और अन्तिमभागमें ४ प्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । अपूर्वकरणसे अनन्तरसमयमें बादर साम्पराय होता है। १. जयधवल मूल पृ. १९५२ । २. जयबबल मूल पृ० १९४८ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ गाथा २० ] क्षपणासार विशेषार्थ:-हजारों स्थितिबन्धापसरणके व्यतीत हो जानेपर अपूर्वकरणके सातभागोंमें से प्रथमभाग समाप्त होता है उस समय निद्रा और प्रचलाको बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । यह कथन अनुत्पादानुच्छेदको अपेक्षा है, किन्तु उपपादानुच्छेदकी अपेक्षा प्रथमभागके अन्तसमय में निद्रा-प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। प्रथमभागके समाप्त होते ही निद्रा और प्रचलाका गुणसंक्रमण होने लगता है, क्योंकि क्षपक या उपशमश्रेणिमें जिन अप्रशस्तप्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उनकी गुणसंक्रमणके अतिरिक्त अन्य पर्याय सम्भव नहीं है । अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे छह भाग व्यतीत हो जाने पर परभवसम्बन्धी प्रकृतियोंकी बन्धसे व्युन्छित्ति हो जाती है। शंका:-परभवसम्बन्धी प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं ? समाधान:-- देखगति, पन्दे दिगजाति मियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैऋियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परधात, उच्छ्वास) प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर ये तोस प्रकृतियां परभवसम्बन्धी हैं। शंकाः--इनको परमधिक संज्ञा क्यों है ? समाधान:--परभवसम्बन्धी देवगति के साथ बन्धको प्राप्त होती हैं, अत: इनकी परभविक संज्ञा है। यशस्कोतिका बन्ध भी देवगति के साथ होता है और उसकी भी परभविक संज्ञा है, किन्तु उसको बन्धव्युच्छित्ति यहां नहीं होती, क्योंकि यशस्कीति के बन्धके साथ अपरितन विशुद्धि का विरोध नहीं है । यशस्कीतिका बंध सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके अन्तसमयपर्यन्त होता है उससे आगे इसके बन्धका अभाव है। उसके बाद हजारों स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अपूर्वकरणका चरमसमय प्राप्त होता है । अपूर्वकरणफे चरमसमय में स्थित हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उसी समय छह नोकषायकी उदयब्युच्छित्ति हो जाती है । उसके अनन्तर समयमें बादरसाम्पराय अर्थात् अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हो जाता है । अब आगे अनिवृत्तिकरणका कथन करते हैंअणियदृस्स य पडमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारबई । उत्रसामणा रिणवत्ती णिकाचणा तत्थ बोछिण्णा ॥२०॥४११॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा २१-२२ अर्थ :- अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में अन्य ही स्थितिखण्डादिक प्रारम्भ करता है उनमें अपूर्वकरणके अन्तिम समयवर्ती स्थितिकाण्डकायामसे भिन्न हो स्थितिकाण्डकायाम, इसके पश्चात् अवशिष्ट जो अनुभाग उसका अनन्त बहुभागमात्र अन्य ही भाण्डक होता है और अपूर्वकरण के अन्तिमसमय के स्थितिबन्ध से पल्य के संख्यातवेंभागमात्र घटता हुआ अन्य ही स्थितिबन्ध यहां होता है तथा यहीं अप्रशस्तोपशम, धति व निकाचनारूप तीन करणोंकी व्युच्छित्ति भी हुई है । अतः अब सर्व कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण करने योग्य हुए हैं । २४ ] निवृत्तिः व्यावृत्तिः - परिणामोंकी विसदृशता; इसरूप निवृत्ति जिसमें न हो वह श्रनिवृत्ति कहलाता है । नानाजीवोंके एकसमयसम्बन्धी परिणामों में व्यावृत्तिका प्रभाव होने से प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है वह अनिवृत्तिकरण है' । बादरपढमे पढमं ठिदिखंडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडपं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि ॥ २१ ॥ ४९२ ॥ पल्लरस संखभागं वरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिम ठिदिखंडो सेसा सव्वस्स सरिसा हूँ || २२ ||४१३ ।। अर्थ :-- अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमय में जो प्रथमस्थितिखण्ड है सो तो विसदृश है, नानाजीबोंके समान नहीं है तथा ओ द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं वे समानकाल में सभी जीवोंके समान हैं । प्रथम स्थितिखण्ड जघन्यसे तो पल्यका सख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट इससे संख्यातवभाग अधिक है और अवशेष द्वितीयादि स्थितिखण्ड सभी जीवोंके समाव हैं । विशेषार्थः -- त्रिकालसम्बन्धी समानसमयवर्ती सर्व अनिवृत्तिकरणवालोंके परिणाम सदृश होते हैं इसलिए प्रथम स्थितिकाण्डकघात सदृश ही होता है ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, किन्तु प्रथमस्थितिकाण्डकघात में जघन्य व उत्कृष्टके भेद से विसदृशता सम्भव है । किन्हीं के विसदृश होता है और किन्होंके सदृश होता है । जघन्य प्रथमस्थितिकाण्डकघात से उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघांत संख्यातवेंभाग अधिक है । १. जयधवल मूल पृष्ठ १६५३ व १९५५ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१-२२ ] क्षपणासार [ २५ शंका:---सदृश परिणामवाले अनिवृत्तिकरणका प्रथम स्थितिकाण्डकघात विसहशा कैसे सम्भव है ? समाधान:--सदृशा परिणाम होते हुए भी स्थिति सत्कर्म में विशेषता होनेसे प्रथम स्थिति काण्ड कमें विभिन्नता सम्भव है। दो जीव एक साथ क्षपकणिपर आरूढ़ हुए उनमें से एकका स्थिति सत्कर्म संख्यात भाग अधिक है और दूसरेका संख्यातभागहीन है। जिसका स्थिति सत्कर्म संख्यात भाग अधिक है उसके अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकधातसे लेकर अनिवृतिगारमा जम्बन्धी प्रथम स्थितिमा पन्ति सस्थितिकाण्डकघात दूसरे जीवके स्थिति काण्डकघातों से संख्यातभाग अधिक होता है। जिसका स्थिति सत्कर्म संख्यातभाग अधिक है उस जीवके अपूर्वकरणके घातसे शेष बचा हा स्थिति सत्कर्म जितना विशेष अधिक होता है उसको अनिवृत्तिकरणके प्रथमस्थितिकाण्डकघातद्वारा ग्रहण करता है इसलिए अनिवृत्तिकरणका उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातयां भाग अधिक होता है। शंका:-यदि किसीका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हो तो उसका प्रथम उस्कृष्टकाण्डकघात संख्यातगुणा होगा? समाधान:- उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा नहीं हो सकता, क्योंकि संख्यातगुणा स्थितिसत्कर्म असम्भव है । शंकाः--संख्यातगुणास्थितिसत्कर्म असम्भव क्यों है ? समाधानः- अपूर्वकरणके चरमसमयमें घात किया हुआ स्थितिसत्कर्म जो अवशेष रहता है वह उत्कृष्ट भी जघन्यसे संख्यातवेंभाग अधिक होने का नियम है। इसलिए अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी जघन्यस्थितिकाण्ड कसे उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक संख्यातभाग अधिक है । इसीप्रकार प्रथम अतुभागकाण्डक भी विसदृश होता है। प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर त्रिकालवति अनिवृत्तिकरणकाल में वर्तन करने वाले सर्व जीवों के घातसे शेष बचा हुआ स्थिति सत्कर्म समान ही होता है, क्योंकि समान परिणामके द्वारा घात होकर शेष बचा हुआ है। समान स्थिति सत्कर्मसम्बन्धी द्वितीयादि स्थितिकाण्डक भी समान होते हैं, क्योंकि कारणको समानता होनेपर कार्य समान होते हैं, समान कार्यको छोड़कर अन्य कार्य असम्भव है । इसीप्रकार Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] क्षपणासार [ गाथा २३-२४ द्वितीयादि अनुभाग में भी सदृश होते है, क्योंकि द्वितीयादि अनुभागकाण्डक में नानापन असम्भव है । प्रयमस्थितिकाण्डकके नाश होनेपर अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश हुए तुल्यकाल हुआ है उन सबका स्थिति सत्कर्म तुल्य होता है और एकका द्वितीयस्थितिकाण्डक अन्य सब सामान्य कालवालोंके द्वितोयस्थितिकाण्ड क के समान होता है उसके आगे तृतीयादि स्थितिकाण्डक तृतीयादि स्थितिकाण्डकोंके तुल्य होते हैं । उदधिसहस्सपुधत्तं लक्वपुधत्तं तु बंध संतो य । अणियट्टीसादीए गुणसेढीपुवपरिसेसा ॥२३॥४१४। अर्थ:-पूर्व में जो स्थितिबन्ध अन्त:कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण था वह अपूर्वकरण में होनेवाले संख्यातहजार स्थितिबन्धायसरणोंसे घटते हुए अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमय में स्थितिबन्ध पथक्त्वहजारसागरप्रमाण हो जाता है तथा पूर्वमें जो अन्तकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिसत्त्व था वह अपूर्वकरण में होने वाले संख्यात हजार स्थितिकाण्डक. घातोंके द्वारा घटते हुए पृथक्त्व लक्षसागर प्रमाण हो जाता है । जघन्य या उत्कृष्ट परिणामों के कारण जो जघन्य या उत्कृष्ट गुणश्रेणीनिक्षेप अपूर्वकरणमें प्रारम्भ किया था वह गुणश्रेणियाम अपूर्वकरणका काल व्यतीत होने के पश्चात् जितना शेष रहा वही यहां जानना । समय-समयप्रति असंख्यातगुणे क्रमसहित पूर्ववत् गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण वर्तता है । ये सब प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके आवश्यक हैं । तदनन्तरकालमें ये उपयुक्त ही आवश्यक होते हैं, विशेषता केवल यह है कि यहां गुणवेणि असंख्यातगुणो होती है, शेष-शेष (गलितावशेष) में निक्षेप होता है, विशुद्धि अनन्तगुणी वृद्धिरूप है। आगे स्थितिबन्धापसरणका क्रम कहते है-- "ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा। तत्थासरिणस्सटिदिसरिसं ठिदिबंधणं होदि ॥२४॥४१५॥ १. जयधवल भूल पृ० १९५४ । २. जयघबल मूल पृष्ठ १९५५ । क० पा० सु० पृष्ठ ७४३-४४ सूत्र ७५ से ७७ । ३. यह माथा ल० सा० गाथा २२८ के समान है । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८१ । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५ ] क्षपणासार [ २७ अर्थ:--इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अनियत्तिकरणकालके संख्यात बहभाग तो व्यतीत हो जाते हैं तथा एकभाग शेष रहने के अवसरमें असंज्ञीचेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितियार होता है । विशेषार्थ:-उपयुक्त आवश्यकोंका पालन करते हुए अन्तमुहर्तकाल व्यतीत हो जानेपर प्रथमअनुभाग काण्डक निर्लेपित होता है तथा शेष अनुभागके अनन्तबहभागको घात करने वाला अन्य अनुभागकाण्डक होता है अवशिष्ट आवश्यकों में कोई अन्तर नहीं होता । संख्यातहजारअनुभागकाण्डकोके व्यतीत हो जाने पर प्रथमस्थिति काण्डक व प्रथमस्थितिबन्धापसरण व अन्य अनुभागकाण्डक एकसाथ समाप्त होते हैं । इसप्रकार अनुक्रम लीये एक स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थिति बन्ध घटने से एक स्थितिबन्ध होता है ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनिवृत्तिकरण के कालका संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर एक भाग अवशेष रहा वहाँ असंज्ञीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है, वह इसप्रकार है-एक हजारसागरके वां भागमात्र मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चारकर्मोका और 3 वां भाग नाम-गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध होता है। चालीस, तीस व बीस कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिकी अपेक्षा चारित्रमोहको चालीसीय, ज्ञानावरणादि चारकर्मोको तीसीय एवं नाम-गोत्रको बीसिय जानना चाहिए । "ठिदिबंधसहस्सगदे पत्तेयं चदुरतियविएइंदी । टिदिबंधसमं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥२५॥४१६॥ अर्थः-पूर्वोक्तक्रम लीये संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनुक्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, हीन्द्रिय और एकेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है। इनमें चतुरिन्द्रियके समान तो १०० सागर, श्रीन्द्रियके समान ५० सागर, द्वीन्द्रियके समान २५ सागर, एकेन्द्रियके समान एकसागरका वां भाग मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चार तीसीय कर्मोका, ३ भागमात्र नाम-गोत्र बीसिय कर्मोंका स्थितिबंध होता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीके ७० कोडाकोड़ी सागर स्थितिवाले मिथ्यात्यकर्मका क्रमसे एक, पचीस, पचास, सौ और एकहजार सागरका १. जयधवल मूल प० १६५६ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २२६ के समान है, किन्तु 'सहस्स' के स्थानपर पुधत्त' पाठ है। क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८२-८३ । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २८ ] [ गाथा २६-२८ स्थिति बन्य होता है तो क्रमशः चालीस, लोस व बीस कोड़ाकोड़ीरूप उत्कृष्टस्थितिवाले मोहनोय, ज्ञानावरणादि चार और नाम व गोत्रकर्मका कितना बन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करने पर पूर्वोक्त स्थितिबन्धका प्रमाण प्राप्त होता है। यही त्रैराशिकक्रम आगे भी जानना'। 'एइंदियद्विदीदो संखलहस्से गदे हु ठिदिबंधे । पल्लेकदिवड्डदुगं ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥२६॥४१७॥ अर्थः-एकेन्द्रियके समान स्थितबन्धसे आगे संख्यातहजार स्थिति बन्ध जानेपर नाम गोत्रका (वोसियका) एक पल्य, तोसीयाक्रमौका १३ पल्य और मोहनीयका दो पल्य स्थितिबन्ध होता है । तक्काले ठिदिसंतं लक्वपुधत्तं तु होदि उबहीणं । बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥२७॥४१८॥ अर्थः-उस कालमें कर्मोंका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वलक्ष सागरप्रमाण होता है सो अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध से संख्यातगुणाकम जानना "स्थिति. बंधापसरण के द्वारा स्थितिबन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकोंसे स्थितिसत्त्व कम होता है" ऐसा सर्वत्र जानना । विशेषार्थ:-जिस समय नाम व गोत्रकर्मका पल्योपमको स्थितिवाला बन्ध होता है उस समय अल्पबहुत्व इसप्रकार है-नाम ब गोत्र का स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म का स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पूर्वके स्थितिबन्ध भो इसी अल्पबहुत्व विधानसे व्यतीत होते हैं। "पल्लस्स संवभागं संखगुणणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणे पल्लं पल्लासंखं असंखवस्तंति ॥२८॥४१६॥ १. जयधवल मूल पृ० १९५६ । २. यह गाथा रन ० सा• गाथा २३० के समान है। क० पा० सु० पु.० ७४४ सूत्र २४-८५-८६ । ३. जयधवल मूल पृ० १६५६ । ४. जयववल मूल पृष्ठ १६५६-५७ ! क पा० सुत पू० ७४४ सूत्र ८७ से ८३ । ५. यह माथा ल० सा० गा० २३१ के समान है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६ ] क्षपणासाय । २९ अर्थः-अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिबन्धसे जबतक पल्वमात्र स्थितिबन्ध होता है तबतक स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पत्यके संख्यातवें भाग है उसके पश्चात् पल्य के असंख्यातवेंभागरूप स्थितिबन्धपर्यन्त पल्यके संख्यात बहुभागवाले स्थितिबन्धापसरण होते हैं अर्थात् प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण में स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातबहुभाग घटता हुआ होता है । दुरापकृष्टि से लेकर जबतक संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहां प्रत्येक स्थितिबन्धापसरग द्वारा पल्प का असंख्यात बहुभाग घटता स्थितिबन्ध होता है। एवं पल्लं जादा वीतीया तीसीया य मोहो य । पल्लासंखं च कर्म बंधेण य वीसियतियाओ ॥२६॥४२०।। अर्थः-इसप्रकार (२० कोडाकोड़ोसागरकी स्थितिवाले) बोसोयकर्मों का पल्यमात्र स्थितिबन्ध होने तक वोसोय कर्मों से डेढ़गुना तोसीयका और दोगुणा मोहका स्थितिबन्ध है, ऐसा ही क्रम जानना । इसके अनन्तर एक स्थितिबन्धापसरण होनेसे वोसीय. कोका स्थितिबन्ध तो संख्यात गुणाक्रम होता जाता है । पल्यको संख्यातका भाग देने पर उसमें से बहभाग घटाने से एकभागमात्र स्थिति बन्ध रहता है तथा अन्य कर्मों का जबलक पल्यमात्र स्थितिबन्ध नहीं हो जाता उससे पूर्वबन्धसे पल्यका संख्यातवें भागमात्र विशेषसे होन स्थितिबन्ध होता है । यहां वीसीयकर्मोंका स्थितिबन्ध स्तोक है उससे ज्ञाना रणादि चार तोसोयों का स्थितिवन्ध तुल्य होकर संख्यातगुणा है क्योंकि वोसोय कर्मों का स्थितिबन्ध तो पल्पके संख्यातवेंभाग और तीसोयकर्मों का साधिक पल्यमात्र है एवं तोसोयोंसे मोहनीयकर्म का स्थितिबन्ध विशेष अधिक है इसप्रकार अल्पबहुत्व' जानना । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर ज्ञानावरणादि तीसीयकर्मों का पत्यमात्र स्थितिबन्ध हो जाता है । तोसीयकर्मोंके स्थितिबन्धसे तीसराभाग अधिक मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है, क्योंकि तोसीयका पल्य मात्र स्थितिबन्ध होता है, तो चालीसीय का कितना स्थितिबन्ध होता है इसप्रकार राशिक करनेपर त्रिभाग अधिक पल्य मात्र मोहनीयक्रमका स्थितिवन्य प्राप्त होता है। इसके अनन्तर तीसोयकर्मों का एक स्थितिबन्धापसरण द्वारा पूर्व स्थिति बन्धसे पल्यका संख्यताबहुभागमात्र घटता अर्थात् संख्यात गुणा घटता स्थितिबन्ध होता है । यहां नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक उससे तीसोयोंका संख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका संख्यात गुणा स्थितिबन्ध होता है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार | गाथा २६ इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर मोहनीयकम का पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है। यहां छह कर्मोंका स्थितिबन्ध पत्यके संख्यातवेंभाग मात्र है ऐसे बीसीय, तीसीय और मोहनीयका पत्यमात्र स्थितिबन्ध होने का क्रम जानना तथा इसके अनन्तर जब मोहनीयकर्मका पल्यके संख्यातबहभागवाला एक स्थितिबन्धापसरण होता है तब सातों ही कर्मोंका स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेंभागमात्र हो जाता है यहां नामगोत्रका स्तोक उससे तीसीयकर्मोका संख्यात गुणा और उससे मोहनीयकर्म का स्थितिबन्ध संख्यातगुणा जानना । इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका दुरापकृष्टि' नामक पल्यके संख्यातवेंभागवाला अन्तिम स्थितिबन्ध होता है। इसके अनन्तर पल्यका असंख्यात बहुभागमात्र एक स्थितिबंधापसरण होने से जब नाम व गोत्रका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है वहां अन्यकर्मोंका पल्यके संख्यातवेंभागमात्र हो स्थितिबन्ध है, क्योंकि दुरापष्टिका ललंघन होनेसे इनके स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेंभागप्रमाण और स्थितिबन्धापसरण पल्यके संख्यातबहुभाग १. संखेज्जसहस्समेत्तेसु ठिदिखंडएसु गदेसु तदो हेट्ठा दूरयरमोइण्णस्स दूराव किट्टिसपिरणदं सव्व पछिम पलिदोयमस्स संखेज्जभागपमाणं ठिदिसंतकम्ममसिट्ठे होदि । कि कारणमेदस्स ठिदिविसेसस्स दूरावकिट्टिसण्णा जादा ति चे? पलिदोवमट्टिदिसंतकम्मादो सुठ्ठ दूरयरमोसारिय सव्वजहरणपलिदोवमसंखेज्जभागसवेरगावट्ठाणादो । पल्योपस्थितिकर्मणोऽधस्तादूरतरमपकृष्टत्वादतिकृशत्वाच्च दूरापष्टिरेपा स्थितिरित्युक्तं भवति । अथवा दूरतरमपकृष्यतेऽस्याः स्थितिकरण्डकमिति दूर।पकृष्टिः। इतः प्रभृत्यसंख्येयान् भागान् गृहीत्वा स्थितिकाण्डकघातमाचरतीत्यतो दूरापकृष्टिरिति यावत् । अर्थात् संख्यातहजार स्थिति काण्डकोंके जानेपर उससे नीचे बहुत दूर गये हुए जीवके दुरापकृष्टि संज्ञावाला सबसे अन्तिम पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है। शंका:-इस स्थितिकी दूरापकृष्टि संज्ञा किस कारणसे है ? समाधान:-क्योंकि पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पल्योपमके संख्यातवेंभा गरूपसे इसका अवस्थान है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसकर्मसे नीचे अत्यन्त दूरतक अपकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृश-अल्प होने से यह स्थिति दूरापकृष्टि है यह उक्त कथन का तालर्य है । अथवा इसका स्थितिकाण्डक अत्यन्त दुरतक अपकर्षित किया जाता है इसलिए इसका नाम दूरापकृष्टि है। यहांसे लेकर असंख्यात बहुभागोंको ग्रहणकर स्थिति काण्डकयात किया जाता है अतः यह दूरापकृष्टि कहलाती है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०-३१ ] क्षपणासार [ ३१ मात्र ही है। यहां नाम व गोत्रका सबसे स्तोक उससे ज्ञानावरणादि चार तोसियकर्मों का असंख्यात गुणा उससे मोहनीयकर्मका संख्यातगुणा स्थितिबन्ध जानना । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर ज्ञानावरणादि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय) तीसीय कर्मोंका स्थितिबन्ध दुरापष्टिका उलंघनकरके जब पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र हो जाता है । तब नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे तोसीयकर्मोका असंख्यातगुणा सौर उससे मोमीक सल्यानमा स्थितिबन्ध है । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर दुरापकृष्टि को उलंघकर मोहनीयकर्मका भी पल्यके असंख्यातवेंभाग स्थितिबन्ध हो जाता है । यहां सभी कर्मोंका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है । इसीप्रकार बीसीय, तीसीय और चालीसीयकर्मीका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध क्रमसे होता है । "उदधिसहस्सपुधत्तं अब्भतरदो दु सदसहस्सस्स । तककाले ठिदि संतो आउगवज्जाण कम्माणं ॥३०॥४२१॥ अर्थः--उस मोहनीयकर्मका पल्पके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होने के कालमें आयुबिना अन्यकर्मों का स्थितिसत्त्वपृथक्त्व हजारसागर प्रमाण होता है सो पृथक्त्वहजार शब्दसे यहां लक्षके भीतर यथासम्भव प्रमाण जानना । पहले पृथक्त्व लक्षसागरका स्थितिसत्त्व था सो संख्यातहजार स्थिति काण्डकघातोंके द्वारा यहां इतना शेष शंका:-स्थितिबन्ध में जिसप्रकार असंख्यातगुणा क्रम हो गया था उसीप्रकार स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम क्यों नहीं हुआ ? समाधान:--स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम नहीं हुआ, क्योंकि स्थितिबन्ध से स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा है अत: सदृश अपवर्तन सम्भव नहीं है । 'मोहगपल्लासंखट्टिदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु । मोहो तीसिय हेट्ठा असंखगुणहीणयं होदि ॥३१॥४२२।। १. ज०१० मूल पृष्ठ १६५६ से १६५६ । क. पा. सुत्त पृष्ठ ७४५-४६-४७ सूत्र ६४ से १२४ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४७ सूत्र १२५; ध० पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३. ज० घ. मूल पृष्ठ १६६० । ४. यह गाथा ल० सार गाथा २३३ के समान है । क. पा. सुत्त पृ० ७४७ सूत्र १३० से १३३, धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३२-३३ अर्थ :-- मोहनीयकर्म का पत्यके असंख्यात भागमात्र स्थितिबन्ध होनेके बाल में नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, उससे असंख्यातगुणा ज्ञानावरणादि चारतीसीयकर्मोंका और उससे असंख्यातगुणा मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार के अल्पबहुत्वसहित संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे मोहनीयकर्मका असंख्यातगुणा तथा उससे भी असंख्यातगुणा ज्ञानावरणादि चार तीसोयकमका, ऐसे अन्यप्रकार स्थितिबन्ध होता है। यहां विशुद्धता के निमित्तसे ती सोयकर्मोंके नीचे अतिप्रशस्त मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेषघात के वश से असंख्यातगुणा कम हो जाता है' 1 ३२ ] क्षपणासार "तेत्तियमेत बंधे समतीदे वीलियाण हेद्वादु । एक्कसराहे मोहे असंखगुणहीयं होदि ॥ ३२ ॥४२३॥ अर्थ:-- पूर्व गाथोक्त अरुपबहुत्व के क्रमसहित उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर एक ही बार अन्यप्रकार से स्थितिबन्ध होता है वहां मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, नाम व गोत्रकर्मका असंख्यातगुणा और उससे ज्ञानावरणादि चारों तीसीयकर्मोंका असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धता के बलसे अति अप्रशस्त मोहका स्थितिबन्ध वीसी मके नीचे असंख्यातगुणा कम हो जाता है । तेत्तियमेत बंधे समतीदे वेदरणीय दादु | तीसियघादितिया असंखगुणही गया होंति ॥ ३३ ॥ अर्थ:- इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे उतने ही संख्यातहजारस्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य ही प्रकार स्थितिबन्ध होता है । तब मोहनीय कर्मका सबसे स्तोक, उससे नाम व गोत्रका असंख्यातगुणा और उससे तीन घातिया का असंख्यातगुणा तथा १. जयघवल मूल पृ० १६६० । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३४ के समान है । क० पा० सु० पु० ७४७ सूत्र १३४ से १३६ धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३ जयधवल भूल पृष्ठ १६६० । ४. यह गाया लब्धिसार गाथा २३५ के समान है। घवल पु० ६ पृष्ठ ३५३ क० पा० सुत पृ० ७४७-४८ सूत्र १३७ से १४० तक । 1 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४-३६ ] क्षपणासार [ ३३ उससे असंख्यात गुणा वेदनीयकमका स्थितिबन्ध होता है । यहाँ विशुद्धता होने से तीसीयकर्मों में भी वेदनीयकमसे नीचे अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असंख्यातगुणा घटते हुए स्थितिबन्ध हो जाता है। "तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठा दु। तीसियादि शिवायोडासा गुणहीणया होति ॥३४॥४२५॥ अर्थ:---इसी उपर्युक्तक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर पूर्वस्थितिबन्धसे अन्य प्रकार स्थिति बन्ध होता है तब मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, उससे तीन घातियाकोका असंख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असंख्यातगुणा और उससे साधिक वेदनीयकमका स्थितिबन्ध होता है। यहां विशुद्धताके बलसे बीसीय (नामगोत्र) कर्मोके नीचे अतिप्रशस्त तीन घातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा घटते हुए स्थितिबन्ध होता है। 'तकाले वेद णियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेद णियाणं कमो बंधे ॥३५॥४२८।। अर्थः--उस (विशुद्धतावश अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा घटते हुए स्थितिबन्धके) काल में वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध नाम व गोत्रके स्थितिबन्धसे साधिक है अर्थात् नाम व गोत्रके स्थितिबन्धसे आधाप्रमाण अधिक (१३ गुणा) है, क्योंकि वीसीयकर्मोके स्थितिबन्धसे तीसीयकर्मोका स्थितिबन्ध डेढगुणा त्रैराशिकविधीसे सिद्ध होता है । इसप्रकार मोहनीय, तीसीय, बीसीय और वेदनीयकर्मका क्रमसे बन्ध सोही क्रमकरण जानना । नाम और गोत्रकर्मसे वेदनीयका डेढ़गुणा स्थितिबन्धरूप क्रम से अल्पबहुत्व होना ही क्रमकरण कहलाता है । अथानन्तर स्थितिसत्त्वापसरणका कथन करते हैं:बंधे मोहादिकमे संजादे तेत्तियेहिं बंधेहिं । ठिदिसंतमसरिणसमं मोहादिकमंतहा संते॥३६॥४२७॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ १९६०-६१। २. यह गाथा ल० सार मा० २३६ के समान है। घवल पु० ६ पृष्ठ ३५३; क. पा. सु० पृष्ठ ७४८ सूत्र १४१ से १४८ तक। ३. जयघबल मूल पृ० १९६१। यह गाथा ल० सा० माथा २३७ के समान है । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५३ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ]' क्षपरणासार । गाथा ३४-३६ -:: अर्थ:-मोहादिके क्रम लीये जो क्रयकरणरूप बन्ध हुआ उससे आगे इसीक्रमसे उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंजो पञ्चेन्द्रियके समान स्थितिसत्त्व होता है तथा उससे आगे जिसत्रकार मोहादिकसम्बन्धी स्थितिबन्धका व्याख्यान क्रमकरणपर्यन्त किया गया है वैसे ही स्थितिसत्त्वका व्याख्यान अनुक्रमसे जानना । विशेषार्थ:--यहां पल्पस्थितिपर्यन्त पल्यका संख्यातवांभागमात्र, उससे दूरापकृष्टिपर्यन्त पल्यका - संख्यातबहभागमात्र, उससे आगे संख्यातहजारवर्ष स्थितिपर्यन्त पुल्यका असंख्यात बहुभाममात्र आयाम लोये जो स्थितिबन्धापसरण हैं उनके द्वारा स्थितिबन्धघटनेका क्यन किया था उसीप्रकार यहां उतने आयामसहित स्थितिकाण्डकोंके द्वारा स्थितिसत्त्वका घटना होता है । जिसप्रकार क्रमकरणमें संख्यातहजार स्थितिबन्धका व्यतीत होना कहा था वैसे यहां भी कहते हैं और वहीं उतने स्थितिकाण्डकोंका व्यतीत होना कहेंगे, क्योंकि स्थितिबन्धापसरणका और स्थितिकाण्डकोत्करणका काल समान है तथा क्रमकरणके प्रकरण में स्थितिबन्ध कहा था उसके स्थानपर स्थितिसत्त्व कहना तथा अल्पबहुत्व, राशिकादि विशेषकथन बन्धापसरणबत् ही जानना चाहिए । स्थिति सन्त्रके क्रमका कपन निमार है-.. 'प्रत्येक संख्यातहजारकाण्डक व्यतीत हो जानेपर क्रमसे असंज्ञोपञ्चेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान ही कर्मोंका स्थितिसत्त्व भी एकहजार, सो, पचीस व एकसागरप्रमाण होता है तथा संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर बीसीय (नाम-गोत्र) कर्मो का एकपल्य, तीसोय (ज्ञानावरणादि चार) कर्मोका डेढ़पल्य और मोहनोयकर्म का दो पल्य स्थितिसत्व होता है । इससे आगे पूर्वसत्त्वका संख्यातबहुभागमात्र एककाण्डक होनेसे बोसोय कर्मों का फ्ल्यके संख्यातवेंभागमात्र स्थितिसत्त्व हो जाता है। उस कालमें बीसीयकर्मों का सबसे स्तोक, वोसीयकर्मों के स्थितिसत्त्वसे तीसीयकर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा और मोहनीयकर्मका विशेष अधिक है। इस क्रमसे पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर तोसोयकर्मीका पल्यमात्र और मोहनोयकर्मका त्रिभाग अधिक पल्पमात्र स्थिति सत्त्व जानना । इसके आगे एककाण्डकके होने पर तोसोयकर्मों का स्थिति पत्त्व भो पल्य के संख्यातवेंभागमात्र हो जाता है तब बोसोयक्रमों का स्थितिसत्त्व सबसे स्त्रोक तोसीयकर्मों का उससे संख्यातगुणा और है। - १. ज० ५० मूल पृष्ठ १९६१ । क. पा. सुत्त पृष्ठ ७४८.७४६ सूत्र १४६ से १६३ । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४-३६) क्षपणासार [ ३५ उससे भी संख्यात्तगुणा स्थितिसत्त्व मोहनीयकर्मका जानना । इस क्रम से पृथक्त्व (बहुतसे) स्थिति काण्डक बीत जानेपर मोहनीयकमका स्थितिसत्त्व पल्योपममात्र हो जाता है । एककाण्डकके पूर्ण हो जानेपर मोहनीयकर्मका भी पल्य के संख्यातवें भागमात्र स्थितिसत्त्व हो जाता है। उसी काल में सातों कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्यके संख्यातवेंभागमात्र हो जाता है वहां वीसीय कर्मोंका स्थिति सत्त्व सबसे स्तोक, तोसीय कोंका संख्यातगुणा और उससे भी संख्यात गुणा मोहनीयकर्मका स्थिति सत्व होता है । इसके आगे इसक्रमसहित संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर बीसीयकर्मोंका स्थिति सत्व दूरापकृष्टिको उलंघकर पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र हो जाता है उससमय वीसीयकर्मोका सबसे स्तोक उससे तीसीयकाका असंख्यात गुणा और उससे मोहनीयाका संख्यातगुणा स्थितिसत्त्व होता है। इससे आगे इस क्रम से पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बीत जानेपर तोसीनकर्मोंका स्थितिसत्त्व दुराप कृष्टि को उलंघकर पत्यके असंख्यातवेंभागमात्र होता है तब नाम व गोत्रकर्मका स्थितिसत्त्व सबसे कम चार तीसीयकर्मोंका स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है तथा मोहनीयकर्म का स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । पुनः स्थितिकाण्डकपृथक्त्वके पश्चात् मोहनीयकर्मका भी स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातभागमात्र हो जाता है तब सभी कर्मोका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र होता है उससमयमें बीसीयकर्मोंका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक उससे तीसोय (ज्ञानावरणादि चार) कर्मोका असंख्यातगुणा और उससे भी असंख्यातमुणास्थितिसत्त्व मोहनीयकर्मका है। इसक्रम से संख्यातहजार स्थितिकाण्डक बीतजानेपर नाम व गोत्र कर्मका सबसे स्तोक उससे मोहनीयकर्मका असंख्यातगुणा एवं उससे असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व चार तोसीयकर्मोंका होता है । इसक्रमके द्वारा पृथक्त्व स्थिति काण्डक बीत जानेपर मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक उससे नाम-गोत्रकर्मका असंख्यात गुणा, और उससे ज्ञानावरणादि चार तीसीयकर्मोका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व होता है । इसीक्रपसे पृथक्स्व स्थितिकाण्डक व्यतीत होने पर मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक, उससे बीसीयकर्मोंका असंख्यातगुणा, उससे तीनघातियाकाँका असंख्यातगुणा, उससे भी ' असंख्यातगुणा १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४६ सूत्र १६४ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६२ । . २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४६ सूत्र १७० । जय ध० मूल पृष्ठ १६६२ । ५.३. क. पा० सुत्त पृ० ७४६-५० सूत्र १७१ से १७४ । ज० ध० मूल पृष्ठ १६६२ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५० सूत्र १७८-१८१ । जयघवल मूल पृष्ठ: १६६२ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] क्षपणासार [ गाथा ३७-३० स्थितिसत्त्व वेदनीयकमका होता है । इसक्रमसे पृथक्त्व स्थितिकाण्डकोंके बीत जानेपर मोहनीयकर्म स्थितिसत्त्व सबसे कम है, उससे तीन धातियाकर्मों का असंख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असंख्यातगुणा और विशेष अधिक स्थिति सत्व वेदनीयकर्मका होता है। इस प्रकार अन्त में नाम व गोरके स्थितिमत्त्वसे वेदनीयकर्म का स्थिति सत्त्व साधिक हो जाता है । तब मोहादिकर्मके क्रमसे स्थिति सत्त्वका क्रमकरण होता है । सीदे बंधसहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे । तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ।।३७।।४२८॥ अर्थ:--इस क्रमकरणसे आगे संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जाने पर पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है तब असंख्यात समय प्रबद्धोंको उदोरणा होती है । विशेषार्थः- यहाँसे पूर्व में अपकर्षण किये हुए द्रव्यको उदयावलिमें देने के लिए असंख्यातलोकप्रमाणभागहार सम्भव था वहां समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागमात्र उदोरणाद्रव्य था उसका नाश करके अब परिणामोंकी विशुद्धताके कारण सर्ववेद्यमान कर्मोंका उदीरणारूप द्रव्य असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण हो जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वसम्बन्धी क्रमकरणका कथन पूर्णकरके ८ कषाय व १६ प्रकृत्तियोंका क्षपणकरणाधिकार प्रारम्भ करते हैं-- *ठिदिबंधसहस्तगदे, अट्ठकसायाण होदि संकमगों । ठिदिखंडपुत्तेण य, तद्विदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥३८॥ १. क. पा० सु० ए० ७५० सूत्र ८२ से १६२ जयधवल मूल पृष्ठ १९६२-६३ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३८ के समान है । जयघवल मूल पृष्ठ १६६३ । क. पा० सुस पृष्ठ ७५१ सूत्र १६३-१६४ । धवल पु०६ पृष्ठ ३५५ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १९३.६४ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ट ७५१ सूत्र १६५ से १६७ 1 जयघबल मूल पृष्ठ १९६३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५५-५६ । अट्ठकसायाणमपच्छिमट्टिदिखंडए चरमफालिसख्वेण णिल्लेविदे तेसिमावलियपविठ्ठसंतकम्मरसेब समयूण बलियमेतणिसेगपमाणस्स परिसेससत्तसिद्धोए णिव्वाहमुबलभादो। (जयधवल मूल पृ० १६६३) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया ३६ ] [ ३७ अर्थः- तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर आठ (अप्रत्याख्यानाचरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) कषायों का पृथक्त्वस्थितिखण्डसम्बन्धी कालके द्वारा संक्रमण होता है तथा उच्छिष्टावलीमात्र स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है । अपणासा विशेषार्थः असंख्यात समयबद्धमात्र उदीरणा होनेसे लगाकर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर अप्रत्याख्यात व प्रत्याख्यान कोध - मान-माया व लोभरूप बाठ कषायों का संक्रमण होता है। यहां पर प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ होना संक्रमण जानना । ये उपर्युक्त आठकषाय अप्रशस्त थे अतः प्रथम हो इनकी क्षपणा सम्भव है। इन कषायोंके द्रव्यमें से कुछ द्रव्य तो क्षपणाके प्रारम्भके प्रथम समय में, कुछ द्रव्य द्वितीय समय में इसप्रकार समय-समय त्रति एक-एक फालिका संक्रमण होते हुए अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी फालियोंके द्वारा प्रथमकाण्डका संक्रमण होता है । इसप्रकार ये कर्म परमुखसे नष्ट होते हैं, सो अन्यप्रकृतिरूप होकर जिसका नाश होता है वही परमुखनाश कहलाता है । मोनोयकर्मरूप राजा की सेनाकी नायकरूप इन आठ कषायोंका अन्तिमकाण्डकसम्बन्धी अन्तिमफालिके नास होनेसे अवशिष्ट स्थितिसत्त्व कालको अपेक्षा आवलीमात्र रहता है और निषेकों को अपेक्षा एकसमयक्रम आवलिप्रमाण रहता है, क्योंकि अन्तिमकाण्डकघात के समय प्रथमनिषेकका संक्रमण स्वमुख उदयसहित किसी सज्ज्वलनकषाय में होता है तथा उदयावली को प्राप्त निषेकका काण्डकघात नहीं होनेसे एकसमयकम आवलिमात्र निषेक अन्तिमफालिके साथ नष्ट नहीं होता है । प्रतिसमय स्तुविकसंक्रमणद्वारा प्रत्येकनिषेक ज्वलनरूप परिणमनकरके विनाशको प्राप्त होता है । 'ठिदिबंध पुत्तगदे सोलसपयडी होदि संकमगो । वलिपविट्ठ ॥३६॥४३०|| ठिदिखंडपुधतेय तट्ठिदिसंतं तु अर्थ :--- तत्पश्चात् पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर सोलह (स्त्यानद्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चारजाति, बातप, उद्योत, स्थावर, १. क० पा० सुत्त पृ० ७५ सूत्र १६७-६८ । जयधवल मूल पू० १६६३-६४ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । एत्थ रिणयतिरिक्खाईपाओग्गणामाओ त्ति वृत्तं निरयगइरिग इपाओग्गापुवीतिरिक्खगइतिरिक्खमई पाओग्गाणुपुवीएइन्दियवी इंदियतीइदियच उरिदियजादि आदावुज्जीवथावरसुहुमसाहारणरणामाणं तेरसहं पपडीणं गहूणं कायव्वं (जयधवल मूल पृष्ठ १६६४ ) Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापणासार [ गाथा ३९ सूक्ष्म, साधारण) प्रकृतियोंका सिथतिसत्त्व पशवनस्थितिलपड़ों के काल द्वारा पर प्रकृतिरूप संक्रमण होता है, उच्छिष्टावलीप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है । विशेषार्थः-इसके उपर पृथक्त्वस्थितिबन्ध बीत जानेपर निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ये तीन दर्शनावरणकर्मकी और नरकगति-नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति-तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चारजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण ये १३ नामकर्मकी इन १६ प्रकृतियोंका संक्रमण द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं । समय-समयप्रति इनके द्रव्यको पूर्वोक्त प्रकार एक एकफालिका संक्रमण होनेपर प्रथमकाण्डकघात होकर पृथक्त्व स्थितिकाण्डकों द्वारा संक्रमण होता है वहां अन्तिमकाण्डकघात होते हुए अवशेष स्थितिसत्व कालापेक्षा आवलिमात्र और निषेकापेक्षा समयकम आवलिमात्र रहता है । इसप्रकार इनका उदयवलोसे बाहर सर्वनिषेकोंका द्रव्य स्वजातीय अन्यप्रकृतियों में संक्रमण होकर क्षयको प्राप्त होती हैं । अपनी जातिकी अन्यप्रकृतियोंकी स्वजाती कहते हैं । जैसे-स्त्यानगृद्धित्रिककी स्वजातीय दर्शनावरणकी अन्य प्रकृति हैं इसीप्रकार अन्य प्रकृतियों के सम्बन्ध में भी जानना । यहां पृथक्त्व शब्द विपुलतावाची है । इसप्रकार यहां मोहनीयकमको तो गाठ प्रकृतियों का नाश होने से नामकर्मकी १३ प्रकृतियां, दर्शनावरणकर्मकी तीन प्रकृत्तियों का नाश हो जाने पर छह प्रकृतिका और 'नामकमकी १३ प्रकृतिका नाश हो जानेसे ८० प्रकृतिका सत्त्व रह जाता है ज्ञानावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायकर्म में किसी प्रकृति का नाश नहीं होला है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होकर जिस समय क्षपणविधि प्रारम्भ करता है उससमय अध:प्रवृत्तकरणको करके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त में अपूर्वकरणगुणस्थानवाला होता है, वह एक भी कर्म का क्षय नहीं करता किन्तु प्रत्येक समस में असंख्यात गुणितरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है। एक एक अन्तर्मुहूर्तमें एक-एक स्थिति काण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घात करता है और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे संख्यातहजारगुणे अनुभागकाण्डकोका घात करता है। क्योंकि, एक अतुभागकाण्डक के उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल संख्यातगुणा है ऐसा सूत्र वचन है । १. जयधबल प० १६६३-६४ । क० पा० सुत्त पृ० ७५१ सूत्र १९५-६६ । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ ४२ व २२५ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३९ ] [ ३९ इसप्रकार अपूर्वकरणगुणस्थानसम्बन्धी क्रियाको करके अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमै प्रविष्ट होकर, वहां भी अनिवृत्तिकरण कालके संख्यातबहभागको अपूर्वकरणके समान स्थितिकाण्डक घातादि विधिसे बिताकर अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यातवांभाग शेष रहनेपर स्स्थानमृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति आदि नामकर्मकी १३ ऐसे उपयुक्त १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत करके प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक • साथ क्षय करता है । यह सत्कर्मप्राभृतका उपदेश है, किन्तु कषायप्राभृतका उपदेश तो इसप्रकार है कि पहले आठकषायोंके क्षय हो जानेपर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्मप्रकृतियां क्षयको प्राप्त होतो हैं । ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं ऐसा कितने हो आचार्यों का मत है, किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है तथा दोनों कथन प्रमाण हैं यह वचन भो घटित नहीं होता है, क्योंकि "एक प्रमाणको परे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिए" ऐसा न्याय है। शंका:-नानाजीवोंके नानाप्रकारकी शक्तियां सम्भव है; इसमें कोई विरोध नहीं आता है। अतः कितने ही जीवोंके आठ कषायोंके नष्ट हो जाने पर तदनन्तर सोलहकर्मोके क्षय करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। इसलिए उनका आठकषायोंका क्षय हो जाने के पश्चात् सोलहकर्मों का क्षय होता है, क्योंकि "जिस क्रमसे कारण मिलते हैं उसी क्रमसे कार्य होता है," ऐसा न्याय है तथा कितने ही जीवों के पहले सोलहकर्मों के क्षयको शक्ति उत्पन्न होती है तदनन्तर आठ कषायों के क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है । इसलिए पहले १६ कर्मप्रकृतियां नष्ट होती हैं पश्चात् एक अन्तमुहर्त के व्यतीत होने पर आठकषायें नष्ट होती हैं अतः पूर्वोक्त दोनों उपदेशों में कोई विरोध नहीं आँता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । समाधानः--किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले जितने भी जीव हैं वे सब अतोत, वर्तमान और भविष्यकालसम्बन्धी किसी एकसमयमें विद्यमान होते हुए भी समान-परिणामवाले ही होते हैं इसीलिए उन जीवों की गुणश्रेणी निर्जरा भी समानरूपसे हो पाई जाती है । यदि एकसमयस्थित अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालोंको विसदृश परिणामवाला कहा जाता है तो जिसप्रकार एकसमयस्थित अपूर्वकरणगुणस्थानवालों के विसदृश परिणाम होते हैं अतएव उन्हें अनि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] क्षपणासार [ गाथा ३६ वृत्त यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है उसीप्रकार इन परिणामोंको भी अनिवृत्तिकरण यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी और असंख्यातगुणश्रेणीके द्वारा कर्मस्कन्धों के क्षपणके कारणभूत परिणामोंको छोड़कर अन्य कोई भी परिणाम स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात के कारणभूत नहीं हैं, क्योंकि, उन परिणामोंका निरूपण करनेवाला सूत्र ( आगम ) नहीं पाया जाता है। : शंकाः - अनेक प्रकार के कार्य होनेसे उनके सावनभूत अनेक प्रकारके कारणों का अनुमान किया जाता है ? अर्थात् हवं गुणस्थान में प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिघात्यादि अनेक कार्य देखे जाते हैं इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेक प्रकारके होने चाहिए । समाधान:- यह कहना भी नहीं बनता, क्योंकि एक मुद्गरसे अनेक प्रकार के कपालरूप कार्यकी उपलब्धि होती है । शंका:- वहां भी मुदुगर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियों में एकपता नहीं बन सकता । यदि मुदुगरकी शक्तियों में भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालरूप कार्यकी उत्पत्ति होगी । समाधान:- यदि ऐसा है तो यहां भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभाग काण्डकघात, स्थितिबन्धा पसरण, गुणसंक्रमण गुणश्रेणी शुभप्रकृतियोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारणभूत परिणामों में नानापना रहा आवे तो भी एकसमय में स्थित नानाजीवों के परिणाम सदृश ही होते हैं अन्यथा उन परिणामोंके 'अनिवृत्ति' यह विशेषण नहीं बन सकता है । शंका:- यदि ऐसा है तो एक समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरणगुणस्थान वालोंके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातकी समानता प्राप्त हो जावेगी । समाधान: --- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह बात तो हमें इष्ट ही है । शंका: -- प्रथम स्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डकों की समानताका नियम तो नहीं पाया जाता है इसलिए उक्त कथन घटित नहीं होता है । समाधान:- यह दोष कोई दोष नहीं है; क्योंकि, प्रथमसमय में धातकर के शेष बचे हुए स्थितिकाण्डकोंका और अनुभाग काण्डकोंका एकप्रमाण नियम देखा जाता है । दूसरी बात यह है कि अल्पस्थिति और अल्प- अनुभागका विरोधी परिणाम उससे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ३६ 1 क्षपणासार [ ४१ अधिक स्थिति और अधिक अनुभागों के अविरोधीपने को प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखने में नहीं आता, किन्तु इस कथनसे अनिवृत्तिकरणके एकसमय में स्थित सम्पूर्ण जीवोंके प्रदेशबन्ध सदृश होता है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए, क्योंकि प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होता है, परन्तु अनिवृत्तिकरणके एकसमयवर्ती उन सर्व जीवोंके योगकी सदृशताका कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्रात में स्थित केलियोंके योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है, उसप्रकार अनिवृत्ति करणमें योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है। इसलिये समान (एक) समयमें स्थित अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले सम्पूर्ण जीवोंके सहशपरिणाम होने के कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात तथा उनका बन्धापसरण, गुणश्रेणीनिर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है । शङ्काः-इसप्रकार समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालोंके स्थितिखण्ड और अनुभागखण्डोंके समानरूपसे पतित होनेपर घात करने के पश्चात् शेष रहे हुए स्थिति और अनुभागोंके समानरूपसे विद्यमान रहने पर और प्रकृतियोंके अपना-अपना प्रशस्त और मप्रशस्तपनाके नहीं छोड़नेपर व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों के विनाशमें विपर्यास कैसे हो सकता है ? अर्थात् किन्हीं जीवोंके पहले आठकषायोंके नष्ट हो जानेपर सोलहप्रकृतियोंका नाश होता है यह बात कसे सम्भव हो सकती है ? इसलिए दोनों प्रकार के वचनों में से कोई एकवचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योंकि जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं होते अत: उनके वचनोंमें विरोध नहीं होना चाहिए । समाधान:-यह कहना सत्य है कि उनके वचनों में विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु ये जिनेन्द्रदेवके वचन न होकर इस युगके आचार्योंके वचन हैं अतः उन वचनोंमें विरोध होना सम्भव है। शडाः-तो फिर इस युग के आचार्यों द्वारा कहे गये सत्कर्मप्राभृत और कषाय प्राभृतको सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान:-नहीं, क्योंकि जिनका अर्थरूपसे तीर्थङ्करोंने प्रतिपादन किया है और गणधरदेवने जिनकी ग्रन्थरचना की ऐसे बारहअन आचार्य परम्परांसे निरन्तर चले आ रहे हैं, किन्तु कालप्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होनेपर और उन अंगों को धारण करनेवाले योग्यपात्रके अभाव में उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] क्षपणासार [ गाथा ४०-४१ जिन आचार्योंने आगे श्रेष्ठबुद्धिवाले पुरुषोंका अभाव देखा और जो अत्यन्त पापभीरु थे, जिन्होंने गुरुपरम्परासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्योंने तीर्थविच्छेद के भयसे उससमय अवशिष्ट रहे हुए अङ्गसम्बन्धी अर्थको पोथियों में लिपिबद्ध किया अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता । शङ्काः-यदि ऐसा है, इन दोनों वचनोंको द्वादशाङ्गका अवयव होनेसे सूत्रपमा प्राप्त हो जावेगा ? ___समाधानः-दोनों में से किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त होओ, किन्तु दोनोंको सूत्रपना प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि उन दोनों बचनों में परस्पर विरोध पाया जाता है । शङ्काः-उत्सूत्र लिखनेवाले प्राचार्य पापभीरु कैसे हो सकते हैं ? समाधानः-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि दोनों प्रकारके वचनों में से किसी एक ही बचनके संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छृखलता आ जाती है, किन्तु दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करनेवाले आचार्योंके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है अर्थात् बनी रहती है। शङ्काः--दोनों प्रकार के वचनोंमेंसे किस वचनको सत्य माना जावे ? समाधान:-इस बातको के वली या श्रुत के वली जानते हैं, दुसरा कोई नहीं जानता, क्योंकि इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है, इसलिए पापभीरु वर्तमानकालके आचार्यों को दोनों का संग्रह करना चाहिए, अन्यथा पापभीस्ताका विनाश हो जावेगा। अथानन्तर देशघातिकरणका कथन करते हैं--- 'ठिदिबंधषुधत्तगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खुभोगं पुणो चक्रवू ॥४०॥४३१।। पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विस्यं कमेण अशुभागो। बंधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधो ॥४१॥४३२।। १. ये दोनों गाथाएं ल० सा० गाथा २३९.४० के समान हैं। क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१-५२ सूत्र २०० से २०५। जयधवल मूल प० १९६४-६५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६-३:५७ । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गाथा ४२ ] क्षपणासार [ ४३ अर्थ: - - ( सोलह प्रकृतियोंके संक्रमण से आगे) पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बोत जानेपर मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय कमका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता हैं पुन: इतने ही स्थितिबन्ध बीत जानेपर अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरणरूप अवचिद्विक और लाभान्तरायका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता है। इसीप्रकार पृथक्त्वस्थितिबन्धों को पुनः पुनः व्यतीतकर क्रमशः श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तराय इन तीन कर्मोंका पश्चात् चक्षुदर्शनावरणका फिर मतिज्ञानावरण एवं उपभोगान्तराय इन दोनोंकमका पुनः बीर्यान्तरायकर्मका अनुभागबन्ध देशघाति हो हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । इसप्रकार प्रकृतिगत अनुभाग स्तोक होनेसे देशघातिबन्ध होने का यह क्रम है । यहां स्थितिबन्ध यथासम्भवपत्यका असंख्यातवां भाग मात्र ही जानना | आगे अन्तरकरणका कथन करते हैं- 'टिदिखंड सह स्सगदे चदुसंजलपास को कलायाणं । एट्टिदिखं डुक्कीरणकाले अंतरं कुरणदि ॥४२॥४३३॥ अर्थ :-- देशघातिकरणके आगे संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालके द्वारा चार संज्वलन और नव नोकषायका अन्तर करता है अन्यका अन्तर नहीं होता है । विशेषार्थ:--अधस्तन और ऊपरितनवर्ती निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्त मात्र बीच निषेकों का परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करना अन्तरकरण कहलाता है । [विरह- शुन्य और अभाव ये एकार्थवाची हैं ] यहां अन्तरकरणकालके प्रथम समय में पहले की अपेक्षा अन्य प्रमाणसहित स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धका प्रारम्भ एक साथ होता है तथा एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणका जितना काल है उतने कालके द्वारा अन्तरकरणका कार्य पूर्ण करता है । इसकालके प्रथमादि समयोंमें उन निषेकोंके द्रव्यको अन्य निषेकोंमें निक्षेपण करता है । १. क्र० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सूत्र २०६ से २०८ ० ० ६ ० ३५७ । २. जबघवल पु० १२ पृष्ठ २७२ । ३. जयचबल मूल पष्ठ १९६५ । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । गाय - ४४ क्षपणासाय [ गाया ४३-४४ 'संजलणाणं एक्कं वेदाणेक्कं उदेदि तद्दोगह । सेसारणं पढमद्विदि ठवेदि अंतोमुहुत्तमावलियं ॥४३॥४३४॥ अर्थः-सञ्ज्वलनचतुष्क में से कोई एक और तीनों वेदों में से कोई एक इस- प्रकार उदयरूप दो प्रकृतियोंकी तो अन्तमुहर्त प्रमाण प्रथमस्थिति स्थापित करता है । इनके बिना जिनका उदय नहीं पाया जाता ऐसी ११ प्रकृतियों को प्रथमस्थिति आवलिप्रमाण स्थापित करता है। विशेषार्थ:-जो पुरुषवेद और क्रोधके उदयसहित श्रेणी मांडना है बह इन दोनोंको प्रथमस्थिति तो अन्तमुहर्तामात्र तथा अन्य प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति करता है सो वर्तमानसमयसम्बन्धो निषेकसे लेकर प्रथमस्थिलिप्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़कर इनके ऊपर गुणश्रेणी शोर्षसे सहित प्रथमस्थिति से संख्यातगुणे निषेकों का अन्तर करता है। स्त्रोवेद, नपुसकवेद और छह नोकषाय का जितना क्षपणाकाल है उतने प्रमाण पुरुषवेदको प्रशस्थिति है, जो कि सबसे स्तोक है, उससे संज्वलन क्रोधको प्रथम स्थिति विशेष अधिक है, जो कि संज्वलनक्रोधके क्षपणाकालप्रमाणसे विशेष अधिक है। उदयस्वरूप और अनुदयस्वरूप सभी नोकषायोंको अन्तिम स्थिति सदृश ही होतो है, क्योंकि द्वितोयस्थिति के प्रथम निषेकका सर्वत्र सदृश रूपसे अबस्थान होता है, किन्तु अवस्तन प्रथमस्थिति विसदृश है, क्योंकि उदयरूप प्रकृतियों की प्रथमस्थिति अन्तमुहर्त है और अनुदय प्रकृतियों की प्रथम स्थिति आवलिमात्र है । 'उक्कीरिदं तु दवं संत्ते पढमट्ठिदिम्हि संथुहदि । धंधेवि य आवाधमदित्थिय उक्कदे णियमा ॥४४॥४३५॥ अर्थ:--अन्तररूप निषेकोंके द्रव्यको सत्त्वमेंसे अपकर्षणकरके प्रथमस्थिति में निक्षेपण करता है और जिन कर्मों का बन्ध होता है उनके अपकर्षितद्रव्यको आबाधा छोड़कर बन्धरूप निषेकोंमें भी निक्षेपण करता है । १. यह गाथा ल. सा. गाथा २४२ के समान है, किन्तु "तहोण्ह" के स्थानपर वहाँ "तं दोण्हं" यह पाठ है। क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सूत्र २०६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५७ । २. जयधवल मूल पृ० १६६५ । ३. क. पा० सुत्त प० ७५२-५३ सूत्र २१० से २१४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५८ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा ४३-४४ ] क्षपणासार [ ४५ विशेषार्थ:-जिससमय अन्तरकरणका आरम्भ होता है उसी समय पूर्वके स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक समाप्त हो जाने के कारण अन्य स्थितिबन्धको असंख्यातगुण हानिरूपसे आरम्भ होता है और अन्य स्थिति काण्डक पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाणसे और अनुभागकाण्डक अनन्त बहुभागरूपसे होता है। हजारों अनुभागकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकाण्डक, वही स्थिति काण्डक, वही स्थितिबन्ध और अन्तरका उत्कीरणकाल एक साथ सम्पन्न होते हैं, क्योंकि तत्काल होने वाले स्थितिबन्ध और स्थिति काण्डकोत्कीरणकालके समान अन्तरकरणोत्कीरणकाल होता है अर्थात् अन्तररूप निषेकोंके द्रव्यको फालिरूपसे ग्रहणकर अन्य निषेकोंमें देता है । फालियां अन्तमुहूर्त प्रमाण होती हैं, फालियोंके द्वारा द्रव्य असंख्यातगुणित क्रमसे ग्रहण होता है । ____ अंतर करनेवाला जीव जिनकर्मीको बांधता है और वेदता है उन कर्मों की अंतरस्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपूजको अपनी प्रथमस्थिति में निक्षिा करता है और आबाघाको छोड़कर द्वितीयस्थिति में भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नहीं करता है, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे वे स्थितियां रिक्त होनेवाली हैं अत: उनमें निक्षेप होने का विरोध है। (जब तक अन्तरसम्बन्धी द्विचरमफालि है तब तक स्वस्थानमें भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने हो आचार्य च्याख्यान करते हैं, किन्तु सूत्र में इसप्रकारको सम्भावना स्पष्टरूपसे निषिद्ध है। जो कर्म न बंधते हैं और न वेदन किये जाते हैं ऐसी छह नोकषायों के उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपुञ्जको अपनी स्थितियों में नहीं देता, किन्तु बन्धनेवाली प्रकृतियों की द्वितीयस्थिति में बन्धके प्रथमनिषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सींचता है। बंधनेवाली और नहीं बंधनेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति है उनमें भी यथासम्भव अपकर्षण और परप्रकृतिसमस्थितिसंक्रम द्वारा सींचता है, किन्तु स्वस्थानमें निक्षिप्त नहीं करता है । जो कर्म बन्धते नहीं, किन्तु वेदे जाते हैं जैसे स्त्रीवेद और नपुसकवेद, उनको अन्तरसम्बन्धी स्थिलियों के प्रदेशपुञ्जको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथमस्थिति में अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा बन्धकी द्वितीयस्थिति में उत्कर्षणकरके सिंचित करता है। जो कर्म केवल बन्धको प्राप्त होते हैं वेदे नहीं जाते जैसे परोदयकी विवज्ञामें पुरुषवेद और अन्यत्र संज्वलनका उनको अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [ गाथा ४५-४६ प्रदेश पुञ्जका उत्कर्षणवश अपनी द्वितीयस्थिति में संचार होता है, क्योंकि उदयसहित बंधनेवाली प्रकृतियों की प्रथम व द्वितीयस्थिति में तथा अनुदयरूप बंधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थिति में संचार विरुद्ध नहीं है । इस क्रम से अन्तर्मुहूर्तप्रमाण फालिरूपसे प्रतिसमय संख्यातगुणी श्रेणीद्वारा उत्कीरण होनेवाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर पूरा उत्कीर्ण हो जाता हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तरसम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जाने पर सब द्रव्य प्रथम और द्वितीयस्थिति में संक्रमित होता है । यथा - प्रथमस्थिति से संख्यातगुणी स्थितियोंको ग्रहणकरके आबाधा के भीतर अन्तरको करता है और गुणश्रेणिके अग्रभागके अग्रभाग में से असंख्यातवें भागको खण्डित करता है तथा उससे ऊपर की संख्यातगुणी अन्यस्थितियों को भी अन्तर के लिए ग्रहण करता है' | क्षपणासाच अब संक्रमणकरण का करते हैं "सत्त करणाणि यंतरकद पढमे ताणि मोहणीयस्स | इगिठाणबंधु तस्सेव य संखवरसटिदिबंधो ॥ ४५ ॥ ४३६ ।। तस्लापुविक्रम लोहस्स असंकर्म व संदस्य । प्रवेत्तकरणसंकम छावलितीदेसुदीरणदा ॥ ४६ ॥ ॥४३७॥ अर्थ::- अन्तर करनेकी क्रिया समाप्त हो जाने के पश्चात् अनन्तर प्रथम सातकरण होते हैं -- (१-२) मोहनीयकर्मका एक स्थानीय अर्थात् लतारूप अनुभागका बन्ध उदय (३) मोहनीय कर्मका संख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध ( ४ ) मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का आनुपूर्वी संक्रमण (५) संज्वलन लोभका असंक्रमण ( ६ ) नपुंसक वेदका आयुक्तकरण संक्रमण ( ७ ) छह आवलियोंके बीत जानेपर उदीरणा । विशेषार्थः -- अन्तरकरणक्रिया समाप्तिका जो काल है उसी समय में ये सातकरण युगपत् प्रारम्भ होते हैं -- ( १ ) मोहनीय कर्मका एक स्थानीय ( लतारूप) अनुभाग १. जयबल पु० १३ पृष्ठ २५३ से २६२ । २. ये दोनों गाथाएं कुछ अन्तर के साथ ल० सार गा० २४८ व २४९ के समान हैं । क० पा०सु० पृष्ट ७५३ सूत्र २१५ । परं तत्र "आवेश्तकरण" इत्यस्य स्थाने "आजुत्तकरण" इति पाठो । ध तत्रापि 'आउतकरण" इति पाठो स च उपयुक्तो प्रतिभाति । ५० ६ पृष्ठ ३५८ ४. जयघवल मूल पृष्ठ १९६६-६७ । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४५-४६ ] क्षपणासार [ ४७ बन्ध प्रारम्भ हो जाता है, इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूप (लता, दारु रूपसे) मोहनोय कर्मका अनुभागबन्ध होता था अब परिणामोंके माहत्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय (लतारूप) हो जाता है । (२) पहलं मोहनीयक के अनुभागका उदय द्विस्थानीय (लता, दारु) देशघातिरूपसे होता था अन्तरकरणके अनन्तर ही एक स्थानीयरूपसे (लतारूपसे) परिणत हो गया । (३) मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पहले असंख्यात वर्षप्रमाण होता था यह घटकर अब संख्यातहजारवर्षप्रमाणवाला हो गया। (४) मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रम यथा-स्त्रीवेद और नपुसकवेदके प्रदेशपुञ्जको पुरुषवेदमें ही नियमसे संक्रान्त करता है । पुरुषवेद और छह नोकषायके प्रदे शपुञ्जको सज्वलनक्रोधमें संक्रान्त करता है, अन्य किसी में संक्रान्त नहीं करता । संज्वलनक्रोधको संज्वलमान में ही, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें हो और संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमें निक्षिा करता है। पहले चारित्रमोहनीयरूप प्रकृतियोंका आनुपूर्वीके बिना संक्रम होता था, किन्तु इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वोसे प्रवृत्त होता है । (५) पहले आनुपूर्वीके बिना लोभसंज्वलनका भी शेष संज्वलन और पुरुषवेदमें प्रवृत्त होने वाला संक्रम होता था, किन्तु यहां आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होनेपर प्रतिलोभसंक्रमका अभाव होनेसे रुक गया । यहाँसे लेकर संज्वलन लोभका संक्रमण नहीं होता । यद्यपि आनुपूर्वीसंक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तो भी मन्दबुद्धिजनोंके अनुग्रहके लिए पृथक् निर्देश किया गया । (६) नपुसकवेदता क्षपक 'आयुक्तकरणके द्वारा नपुंसकवेदको क्षपण क्रिया उद्यत होता है । जैसे पहले सर्वत्र ही समयबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही उदीरणाके लिए शक्य रहता आया है इसप्रकार यहां शक्य नहीं है, किन्तु अन्तर किये जाने के प्रथमसमयसे लेकर जो कर्म बंधते हैं वे कर्म छह मावलियों के व्यतीत होने के बाद उदीरणाके लिए शक्य होते हैं बंधसमयसे लेकर जबतक पूरी छह आकलियां ब्यतीत नहीं होती तब तक उनकी उदीरणा होना शक्य नहीं है। १. आयुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनों एकार्थक हैं। यहांसे लेकर नपुंसकवेदकी क्षपणा प्रारम्भ हो जाती है । (जयधवल पु० १३ पृष्ठ २७२) "तत्थ गवंसयवेदस्स आउत्तकरणसंकामगो ति भरिणदे णवंसयवेदस्स खवणाए अब्भुढिदो होदूण पयट्टो त्ति भरिणदं होदि" (जयघषल मूल पृष्ट १६६७) । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २६४ से २६७ तक । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ४८ ] [ गाथा ४७-४६ 'संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णउंसयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोह म्हि संछुह दि ॥१७॥४३८॥ कोहं च छुह दि माणे माणं मायाए णियमसा छुह दि। मायं च छुहदि लोहे पडिलोमो संकमो गास्थि ॥४८॥४३६॥ अर्थ:-स्त्रीवेद और नपुसकवेदसम्बन्धी द्रव्य तो पुरुषवेदमें ही संक्रमण करता है अन्यत्र नहीं । पुरुषवेद और हास्यादि छह ये सात नोकषायोंका द्रव्य संज्वलनशोधमें संक्रमण करता है। क्रोधकषायका द्रव्य मान में ही संक्रमण करता है, मानकषायका द्रव्य मायामें, मायाका द्रव्य लोभमें संक्रमण करता है । इसप्रकार संक्रमणके द्वारा अन्य - रूप परिणमनकर स्वयं नाशको प्राप्त होता है, यही आनुपूर्वीसंक्रमण जानना । प्रतिलोभ अर्थात् अन्यथा प्रकार संक्रमण अब नहीं होता है । "ठिदिवंधसहस्सगदे संडो संकामिदो हवे पुरिसे । पडिलमयमाणं संकामगधस्मितमोत्ति ॥४६॥४४०॥ अर्थः-हजारों स्थिति बंधापसरण व्यतीत हो जानेपर नपुसकवेदका संक्रमण पुरुषवेदमें हो जाता है । चरमसमयतक प्रतिसमय असंख्यातमुणे द्रव्यका संक्रमण होता है और चरमसमयमें सर्वसंक्रमण द्वारा नपुंसकवेदका सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेदमें संक्रान्त हो जाता है । __ विशेषार्थ:--अन्तरकरणके अनन्तरसमयसे लगाकर संख्यातहजार स्थितिबंध व्यतीत हो जानेपर नपुसकबेद पुरुषवेदमें संक्रमित होता है। नपुसकवेदकी क्षपणाके प्रथमसमयसे समय-समय प्रति असंख्यातगुणे क्रमसे संक्रमकालके अन्तसमयमें नपुसकवेदके द्रव्यका पुरुषवेदमें संक्रमण होता है सो समय-समय में जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह फालि है और अन्तमुहूर्तमात्र फालियोंका समूहरूप काण्डक है। इसप्रकार गुणसंक्रमणरूप अनुक्रमसे संख्यातहजारकाण्डक व्यतीत होनेपर अन्तसमय में जो अन्तिम १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गाथा १३८ के समान है। जयधवल मूल पृष्ठ १९८८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ट ७६५ गाथा १३६ के समान । जयधवल मूल पृष्ठ १९५६ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १६६७ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५. ] क्षपणासार [ ४६ काण्डकको अन्तिम फालि है उसको सर्वसंक्रमणके द्वारा संक्रमाता है । इस प्रकार नपुंसकवेदको पुरुषवेदरूप परिणमाकर नाशको प्राप्त कराता है। ऐसा अर्थ खोवेदको क्षपणा आदिमें भी लगाना चाहिए। 'बंधेण होदि उदओ अहिलो उदएण संकमो अहिो । गुणसे डि असंखेजापदे सग्गेण बोधवा . ॥५०॥४४१॥ अर्थः-बंधसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है । इसप्रकार प्रदेशाग्रको अपेक्षा गुणश्रेणि असंख्यातगुणी जानना चाहिए । (गुणकाररूपसे पंक्तिकी अपेक्षा गुणश्रेणिका प्रयोग हुआ है।) विशेषार्थ:--'प्रदेश' शब्दसे परमाणुरूप द्रव्य जानना । यहाँ समयप्रबद्ध बंधता है उसमें ७का भाग देनेपर मोहनीय कर्मको जो द्रव्य प्राप्त होता है उसमें कषाय व नोकषायरूप द्रव्यप्राप्तिके लिए पुनः दोका भाग देनेसे नोकषायरूप पुरुषवेदका जितना द्रव्य प्राप्त होता है उतने प्रमाण तो प्रदेशोंका बन्ध होता है तथा सर्वसत्तारूप पुरुषवेदसंबंधी द्रव्यमें गुणश्रेणी आदिके द्वारा दिये गये द्रव्यसहित इससमय उदय पाने योग्य विषेकका द्रव्य असंख्यातसमय प्रबद्धप्रमाण है सो उतने प्रदेशोंका उदय होता है। ये प्रदेश बंधप्रदेशोंको अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। सर्वद्रव्यको गुणसंक्रमणका भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, उतने प्रदेशोंका संक्रमण होता है सो ये प्रदेश भी उदयप्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं । इसप्रकार एक ही काल में होनेवाले बन्ध, उदय व संक्रमणकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहने से गुप, संक्रमणरूप द्रव्यका प्रमाण जाना जाता है। जिन प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है उनका भी संक्रमण द्रव्य असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण होनेसे उदयद्रव्यकी अपेक्षा असंख्यात गुणा है । शङ्काः-उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणभागहार असंख्यातप्रणा है अतः अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्रव्य उदयद्रव्य से असंख्यातगुणा नहीं हो सकता । ___समाधान:-अपकर्षित किया हुआ सभी द्रव्य गुणश्रेणि में नहीं दिया जाता उसका असंख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है अतः उदयद्रव्यसे संक्रमणद्रव्य असंख्यातगुणा है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गा. १४४ के समान । प० पु०६ १०३५६ 1 ज०५० मूल पृ० १९६४। २. जयधवल मूल पृष्ठ १६६५ ! Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] क्षपणासार गाथा ५१ 'गुणलेढिअसंखेज्जा पदेसागेण संकमो उदो। से काले से काले भजो धंधो पदेसग्गे ॥५.१।।४४२।। अर्थ:-प्रदेशाग्रको अपेक्षा संक्रमण और उदय उत्तरोत्तर काल में असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे होते हैं, किन्तु प्रदेशाग्नमें बन्ध भजनीय है। विशेषार्थः- अन्तरकरणकी समाप्लिके पश्चात् प्रथमसमय में प्रदेशोदय अल्प होता है, तदनन्तरसमयमें असंख्यातगुणा होता है। इसी क्रमसे उत्तरोत्तर समयोंमें असंख्यातगुणितक्रमसे प्रदेशों का उदय होता रहता है । जैसी प्ररूपणा उदयसम्बन्धी है वैसी ही गुणसंक्रमण की भी है। प्रथमसमय में प्रदेशोंका संक्रमण अल्प होता है तदनन्त रसमयमें असंख्यातगुणे प्रदेशोंका संक्रमण होता है। उत्तरोत्तर समयों में असंख्यात गुणितकमसे प्रदेशोंका संक्रमण होता है। पूर्व समय में जितने प्रदेशों का बन्ध हुआ उससे अनंतर समय में असंख्यातगुणित प्रदेशबन्धका नियम नहीं है । प्रदेशबन्ध कदाचित् चतुर्विधवृद्धिसे (असंख्यातवेंभागवृद्धि, संख्यातवेंभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि) बढ़ भी सकता है, कदाचित् चतुर्विध हानिरूपसे ( असंख्यातवेंभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि) घट भी सकता है और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है अर्थात् जितने प्रदेशोंका पूर्वसमयमें बन्ध हुआ था उतने ही प्रदेशों का उत्तरसमय में भी बन्ध होता है । अधःप्रवृत्तसंक्रमणमें असंख्यातगुणाक्रम नहीं है मात्र विशेष अधिक या विशेषहीन होती है । प्रदेशबन्ध योगके कारण होता है । क्षपकश्रेणीपर आरोहण करनेवालेके योगकी वृद्धि-हानि और प्रवस्थान ये तीनों अवस्थायें सम्भव हैं, क्योंकि वीर्यान्त रायकमके क्षयोपशमके अनुसार योगमें हानि वृद्धि और अवस्थान होता है। योगस्थान असंख्यात हैं, क्योंकि जोबप्रदेश असंख्यात हैं अतः योग में अनन्तभागवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, अनतवेंभागहानि और अनन्तगुणहानि सम्भव नहीं है । इसीलिये षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि के स्थानपर चतुर्वित्र हानि-वृद्धि कही गई है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७७२ गाथा १४६ के समान। ध• ० ६ ५० ३६० । ज०३० मूल पृष्ट १६६६ । २. जयधवल मूल पृष्ठ १६६६ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५२-५४ उत्तरार्ध तक ] परगासार [ ५१ 'इदि संबं संकामिय से काले इरिथवेद संकमगो । र ठिदिरसखंड अरणं ठिदिबंधमार वई || ५२ || ४४३ || थी श्रद्धा संखेजाभागेपगदे तिघादिदिदिबंधो । वस्लाणं संखेज्जं थी संकंतापगद्ध ते ।। ५३ ।। ४४४ ।। ताने संखसहस्सं वस्ताणं मोहणीय ठिदिसंतं पूर्वागा. ५४ । ४४५ ।। अर्थः- इसप्रकार नपुंसक वेदको संक्रमाकर तदनन्तरकाल में स्त्रीवेदका संक्रा मक प्रथमसमयवर्ती आयुक्तक्रिया के द्वारा होता है। उससमय में अन्यस्थितिकाण्डक, अन्य ही अनुभाग काण्डक और अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है । पश्चात् ( स्थितिकांडकपृथक से ) स्त्रीवेट पालक संख्यातवभाग व्यतीत होनेपर तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष प्रमाणवाला होता है, तत्पश्चात् ( स्थितिकाण्डक पृथक्त्वके द्वारा ) स्त्रीवेदका जो शेष स्थितिसत्त्व है वह सब क्षपणा के लिये ग्रहण हो जाता है। (शेष कर्मोंके स्थितिसत्त्वका असंख्यात बहुभाग क्षपणाके लिए ग्रहण हो जाता है । उस समय मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्षप्रमाण हो जाता है । शेषकमका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यात वैभागप्रमाण है) अन्तिम स्थितिकाण्ड के पूर्ण होनेपर संक्रम्यमान स्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता है । इसप्रकार पुरुषवेद में संक्रान्त होकर स्त्रीवेदका श्रय हो जाता है । विशेषार्थ :- श्रप्रशस्त होनेके कारण नपुंसकवेदके पश्चात् स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करता है । उस समय पूर्व में तीनघातियाकमका जो स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षका होता था वह घटकर संख्यातवर्षका रह जाता है । *से काले संकमगो सत्तरहं खोकसायाणं ॥ ५४ ॥ उत्तरार्ध ॥ १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५३-५४ सूत्र २१७ से २२३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६०-६१ । जयघवल मूल पृष्ठ १९६७-६८ । २. "ठिदिबंध मारवई" इस्यस्यस्थाने 'ठिदिबंध मारभदि' इति पाठो प्रतिभाति । ३. जयववल मूल पू० १६६७-६८ । ४. क०पा० सुत पृ० ७५४ सूत्र २२४ से २३२ । ध. पु. ६ पृष्ठ ३६१ । ज. ध. मूल पृष्ठ १९६८-६६ १ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] क्षपणासार [ गाया ५५-५७ ताहे मोहो थोयो संखेजगुणं तिघादिठिदिबंधो। तत्तो असंखारिणयो णामदुगं साहियं तु वेयणियं ॥५५।। ताहे असंखगुणियं मोहाद तिघादिपयडिठिदिसतं। तत्तो असंवगुणियं णामदुर्ग साहियं तु वेयणियं ॥५६॥ अर्थः-स्त्रोबेदको क्षपणाके अनन्तरसमय में (प्रथमसमयवर्ती) सात नोकषाय (पुरुषवेद, हास्य, रति. अरति शोक भाऔर जुगुमाल संगामक होता है। उस प्रथमसमयमें मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनाबरण, अन्तराय) कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातगुणा, नामद्विक (नाम-गोत्र) कर्मों का स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक अर्थात् डेवगुणा है । उसी प्रथमसमयमें मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मोंका स्थितिसत्त्र असंख्यातगुणा, नामद्विक (नाम गोत्र) का स्थिति सत्त्व असंख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है। विशेषार्थः-मोहनीयकर्मका स्थितिसत्कर्म संख्यातवर्षका हो जानेपर भी तीन घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण नहीं होता इसीलिए स्थिति सत्कर्मका अल्पबहत्व पूर्वके समान है। 'सत्तरहं पढमठिदिखंडे पुण्णे दु मोह ठिदिसंतं । संखेज्जगुणविहीणं सेसाणमसंखगुणहीणं ॥५७॥४४८।। अर्थः-साल ( पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा) प्रकृतियों का प्रथमस्थितिकाण्डकघात पूर्ण होनेपर मोहनीयकर्मका स्थिति सत्व संख्यातगुणा हीन और शेषकर्मोका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणाहीन हो जाता है । विशेषार्थः-मोहनीयकर्मकी भेवरूप नव नोकषायों में से नपुसक व स्त्रीवेदका संक्रमणद्वारा क्रमशः क्षय हो जानेपर शेष सात नोकषायोंका घात करने के लिये स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरणादिका प्रारम्भ होता है। स्थिति १. जयधवल मूल पृष्ठ १६६६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र २३३-३४ | ध० पु० ६ पृष्ठ ३६१ । जयवल मूल पृष्ठ १९६६ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५८] सपणासार काण्डकघात के द्वारा स्थितिसत्कर्म के बहुभागका घात होते-होते एकभाग शेष रह जाता है । मोहनोयकर्मका स्थितिसत्व संख्यातवर्षप्रमाण है। अतः प्रथमस्थिति काण्डकघातको अन्तिमफालिका पतन होने पर मोहनोयकर्मसम्बन्धी स्थितिसत्वके संख्यातबहुभाग घात हो जाने पर शेष स्थिति पत्र संख्यातगुणाहोन अर्थात् संरूपातवेंभाग रह जाता है। शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्त राय, वेदनीय. नाम और गोत्र इनछह कर्मों के स्थितिसत्कर्म का असंख्यात बहुभाग उसो (प्रथम) स्थितिकाण्डकघातके द्वारा घाता जानेसे शेष स्थितिसत्त्व असंख्यातवें भागहीन अर्थात् असंख्यातवेंभाग रह जाता है । इनछह कर्मों का स्थितिसत्त्व, मोहनोयकर्मके स्थितिसत्तसे असंख्यातगुणा होनेके कारण (गाथा ५६) असंख्यातवर्षप्रमाण है । अतः स्थितिसत्वका बहुभाग अर्थात् असंख्यातबहुभागका घात प्रय मस्पितिकाण्डकको अन्तिमफालिके पतनके समय हो जाता है । 'सत्तरहं पढ मद्विदिखंडे पुण्णेति घादिठिदिवंधो। संखेजगुणविहीणं अवादितियाणं अवगुणहीणं ॥५८॥४४६।। अर्थः-सातकर्मोका प्रथमस्थितिकाण्डक पूर्ण होने पर घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहोन और तोन अघातियाकोका असंख्यातगुणाहोन हो जाता है। विशेषार्थः-सात (पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) नोकषायको क्षय करने के लिए अन्यस्थितिकाण्डक, अन्धस्थितिबन्धापसरण और अन्य ही अनुभागकाण्डकका प्रारम्भ होता है। स्थितिकाण्डकके द्वारा स्थितिसत्त्वका घात होता है, स्थितिबन्धापसरण से स्थितिबन्ध घटता है और अनुभागकाण्डकके द्वारा अप्रशस्त (अशुभ-पाप) प्रकृतियों के अनुभागका घात होता है। हजारों अनुभागकाण्डकोंके हो जानेपर एक स्थितिकाण्डक पूर्ण होता है और अन्तिम अनुभागकाण्डकघात व स्थितिकाण्डक युगपत् समाप्त होते हैं । एक स्थितिकाण्डकका काल और स्थितिबन्धापसरणका काल परस्पर तुल्य है । सात नोकषायोंके स्थितिसत्त्वका घात करने के लिए जो प्रथमस्थितिकाण्डक प्रारम्भ हुआ था उसके पूर्ण होने पर अर्थात् प्रथमस्थितिकाण्डककाल समास होनेपर प्रथमस्थितिबन्धापसरणद्वारा स्थितिबन्धका बहुभाग घट जाता है अर्थात् प्रथमस्थितिबन्धापसरण पूर्ण होने पर जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्वस्थिति बन्धका १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३५-३६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६१ १ ज० ५० मूल पृष्ठ १६६६ । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] क्षपणासार [ गाथा ५६-६० संख्यातवांभागमात्र होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय इन तीनघातियाकौका स्थितिबन्ध संख्यातवाना न होता था अत: स्थितिमा पञ्चाकाल पूर्ण होनेपर प्रथमस्थितिबन्धाप सरणके द्वारा घातियाकर्मोंका स्थिति बन्ध संख्यातबहुभाग घटकर संख्यात गुणा हीन अर्थात् सस्थातवेंभाग हो जाता है। इसी प्रकार प्रथमस्थितिकाण्डककाल पूर्ण होनेपर उसी प्रथमस्थितिबन्धापस रणके द्वारा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यात बहुभाग घटकर असंख्यात गुणाहीन अर्थात असंख्यातवेंभाग हो जाता है । अघानियाकोका स्थितिबन्ध असख्यातवर्षप्रमाण होता था इसलिए उनमें असंख्यात बहुभागका स्थितिबन्यापसरण होता है । यहां 'प्रथमस्थिति. काण्डक पूर्ण होनेपर' ये शब्द मात्र प्रथम स्थिति काण्डककाल अन्तर्मुहुर्त है इस बातके धोतक हैं; कारणके द्योतक नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डकद्वारा स्थितिबन्ध नहीं घटता । यदि कहा जाय कि स्थिति काण्डकसे स्थिति सत्त्व और बन्ध दोनोंका घात होता है तो स्थितिबन्धापसरणका कोई कार्य ही नहीं रहेगा । 'ठिदिबंधपुछत्तगदे संखेजदिमं गदं सदद्धाए । एस्थ अघादितियाणं ठिदिवंधो संखवस्सं तु ।।१६।।४५०।। अर्थः-पृथक्त्व स्थितिबन्धापसरणोंके हो जानेपर सात नोकषायके क्षपणाकालका संख्यातवांभाग व्यतीत हो जाता है तब तीन प्रघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षवाला हो जाता है। विशेषार्थ:--पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इनसात नोकषायोंके क्षपणाकालका संख्याताभाग व्यतीत हो जाने पर तब नाम व गोत्र, वेदनीय इन तीनअघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध पृथक्त्वबन्धापसरणोंके द्वारा असंख्यातवर्षसे घटकर संख्यातहजारवर्षप्रमाण हो जाता है। इन तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध प्रत्येक स्थितिबन्धापसरणके द्वारा असंख्यातवर्ष घटता है । इसप्रकार सर्वकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष होने लगता है । 'ठिदिखंडपुधत्तगदे संखाभागा गदा तदद्धाए । घादितियाणं तत्थ य ठिदिसतं संखवस्सं तु॥६०॥४५१॥ १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३७ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६१ । अयधबल मूल पृष्ठ १६६६ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३८ । ६ पु. ६ पृष्ठ ३६१-६२ । ज. ध. मूल पृष्ठ १६६६-७० । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६१ 1 शपणासार [ ५५ ___ अर्थः-पथक्त्वस्थितिखण्डोंके हो जानेपर सात नोकषायोंके क्षपणाकालका संप्रातभार माना हो जाता है उसमय तीनघातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है । विशेषार्थः-अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष हो जाने के पश्चात् जब 'पृथक्त्व अर्थात् बहुत स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जाते हैं और पुरुषवेद व हास्यादिछह नोकषायोंके क्षरणाकालका संख्यातबहुभाग व्यतीत हो जाता है तथा संख्यात वांभाग शेष रह जाता है उसपमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय इन तीन घाति याकर्मोंका स्थिति सत्कर्म संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है । जो स्थिति सत्त्व पूर्व में असंख्यात. वर्षवाला था वह स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घातित होकर संख्यात वर्षमात्र रह जाता है, क्योंकि सात नोकषायके क्षपणकालमैं संख्यात हजारवर्ष आयामवाला भी स्थिति काण्डक होता है । यहां से लेकर तोन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) पाति या कर्मोके प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण और स्थिति काण्ड कके पूर्ण होने पर स्थितिबन्ध एवं स्थिति सत्त्व संख्यातगुणे हीन होते जाते हैं । स्थिति काण्डकायाम व स्थितिबन्धापसरण का विषय भी संख्यातगुणा है । स्थिति काण्ड कके पूर्ण होने पर नाम, गोत्र व वेदनीयकर्म का स्थिति सत्त्व असंख्यातगुणाहीन हो जाता है। इस क्रमसे तबतक जाते हैं जबतक कि सात नोकषायोंके संक्रामकका अन्तिमस्थितिबन्ध होता है। पडिसमयं असुहाणं रसबंधुदया अणंतगुणहीणा । बंधोवि य उदयादो तदणंतरसमय उदयोथ ॥६१॥४५२।। अर्थः--अशुभप्रकृतियों का अनुभागबन्ध व अनुभाग उदय प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है। अनुभागउदयसे अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है, किन्तु इस बन्धसे अनन्तरसमय में होने वाला उदय अनन्तगुणाहीन होता है। विशेषार्थ:--अशुभप्रकृतियों के अनुभागका उदय पूर्वसमय में बहुत होता है । इससे अनन्तर उत्तरसमयमें अनुभागोदय अनन्त गुणाहोन होता है। इसप्रकार आगे-मागेके समयों में अनुभागका उदय अनन्त गुणा-अनन्त गुणाहीन होता है । अर्थात् १. यहां पृथक्त्व शब्द विपुलवाचो है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] क्षपणासार गाथा ६२ अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अनन्त गुणित हीन श्रेणिरूपसे वेदन (उदय) होता है। विवक्षितसमयमें अप्रशस्तप्रकृतियों का जो अनुभागबन्ध होता है वह स्तोक है, उसीसमयमें बन्धसे अनुभागोदय अनन्तगुणा होता है अर्थात् अनुभागोदयसे अनुभागबन्ध अनन्त गुणाहीन होता है, क्योंकि अनुभागोदय चिरंतनसत्त्वके अनुरूप है अर्थात् पूर्वबद्ध अनुभागका उदय विवक्षितकाल में होता है और पूर्वबद्ध अनुभागसत्कर्म विवक्षितसमयमें बंधनेवाले अनुभागसे अनन्त गुणा होता है । अन्तिमसमय में बद्ध अनुभागसे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है, उससे द्विचरमसमय में होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्त गुणा है, उससे बही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है। इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समयपर्यंत क्रमसे नीचे उतरना चाहिए । विवक्षितसमयमें अनन्तर उत्तरसमय में अशुभप्रकृतिका जो अनुभागोदय है वह विवक्षितसमयके अनुभागबन्धसे अनन्त गुणाहीन है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तितक ले जाना चाहिए । 'बंधेण होदि उदो अहियो उदयेण संकमो अहियो । गुणसेडि अांतगुणा बोधवा होदि अणुभागे ॥६२॥४५३॥ १. क. पा० सुस पृष्ठ ७५० गाथा १४६ का पूर्वार्ध एवं सूत्र ३५६ । धवल पु०६ पृष्ठ ३६२ !'अणुभागबन्धो अणुभागउदओ च समयं पडि असुहाण कम्माणमणतगुणाहीणो"। जयधवल मूल पृष्ठ १९६६। २. "वट्टमारणसमयपबद्धादो वट्टमासमए उदओ अणंतगुणो त्ति दबो। किं कारणं ? चिराण संत सरूवत्तादो।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० नं०३ व जयधवल मूल पृष्ठ १९६६) जयधवल पु० ५ पृष्ठ १४६ । क. पा. सुत्त पष्ठ ७७. सूत्र ३४१ से ३५२ व गाथा १४५ का उत्तरार्ध । "से काले उदयादो एवं भरिणदे गिरुद्धसमयादो तदर्णतरोवरिमसमए जो उदो अणुभागविसओ, तत्तो एसो संपहिसमयपबद्धो अर्णतगुणो त्ति दट्ठव्यो । कुदो एवं च समए समए अगुभागोदयस्स विसोहिपाहम्मेणगंत गुणहाणीए ओट्टिज्जमाणस्स तहाभावोववत्तीए । (जय धवल मूल पृष्ठ १९६६, धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० ० ३) ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गाथा १४३ । धवल पु०६५० ३६२। जयघवल मूल पृष्ठ १९६३। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६३ ] क्षपणासार [ ५७ अर्थ:- बन्धसे अधिक उदय और उदयसे अधिक संक्रमण होता है । इसप्रकार अनुभाग के विषयमें अनंतगुणित गुणश्रेणि जानना चाहिए अर्थात् यहां अधिकका प्रमाण अनन्तगुणा है । विशेषार्थ:-- अनुभागको अपेक्षा तत्काल होनेवाला बन्ध अल्प है, बन्धसे उदय अनन्तगुणा है जो कि चिरंतनसत्त्व के अनुभागस्वरूप है, उदयसे संक्रमण अनन्तगुणा है, क्योंकि अनुभागसत्त्व अनन्तगुणाहीन होकर उदय में श्राता है, किन्तु चिरंतन - सस्त्रका संक्रमण तदवस्वरूपसे हो पर प्रकृति में संक्रमित होता है। यह अल्पबहुत्वका कथन घातिया कर्मसम्बन्धी है । 'गुणसेदि अांतगुणेगूणा य वेदगो दु अभागो । गणादियंतसेडी पदेसग्गेण बोधव्वा || ६३ ।। ४५.४॥ अर्थ :- अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन गुणश्रेणिरूपसे वेदक होता है, किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गणनातिक्रान्त अर्थात् असंख्यातगुणित श्रेणिरूप से वैदक जानना चाहिए । विशेषार्थ : - विवक्षित समय में अनुभागोदय बहुत होता है। इसके अन्दरसमय में अनुभागका उदय अनन्तगुणा - अनन्तगुणाहीन जानना चाहिए । प्रदेशोदय विवक्षित समय में अल्प होता है, इसके अनन्तरसमय में असंख्यातगुणा होता है । इसीप्रकार उत्तरोत्तर समयों में सर्वत्र असंख्यातगुणा प्रदेशोदय जानना चाहिए । १. गुणसेढि अनंतगुणेणूगाए वेदगो दु अणुभागे । गणादियंतसेढी पदेस अग्गेण बोद्धव्वा ॥ १४६ ॥ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७० । धवल पु० ६ पृष्ठ १६३ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६६ । २. अस्सि समए अणुभागुदयो बहुगो से काले अणंतगुणहीनो । एवं सव्वस्य । (क० पा० सुत्त सूत्र ३५६ पृष्ठ ७७० ) तदो समए समए अनंतगुणहीण मर्णत गुण हीण मपसत्य कम्माण मणुभागमेसो वेदयदि ति गाह्रा पुष्बद्धे समुदयस्यो । ( घबल पु० ६ पृष्ठ ३६३ टि० नं० १) । जयधवल मूल पृष्ठ १६६७ । I ३. पदेस सुदयो अस्सि समए थोवो से काले असंखेज्जगुर । एवं सव्वस्थं । क० पा० सुत्त सूत्र ३५७ पृष्ठ ७७० | गणणादियंतसेढी एवं भणिदे असंखेज्जगुणाए सेकीए पदेसग्गमेसो समय पंडि वेदेदिति भणिदं होई । (घबल पु० ६ पृ० ३६३ टि० नं० १ ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] क्षपणासार [गाथा ६४-६५ 'बंधोदएहि णियमा अणुभागो होदि शंतगुण हीणो। से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥६४॥४५५।। अर्थः--तदनन्तरकालमें बन्ध और उदयको अपेक्षा अनुभाग नियमसे अनन्तगुणितहीन होता है, किन्तु संक्रमण भजनीय है । विशेषार्थः-विवक्षितसमयमें अनुभागबन्ध बहुत होता है और तदनन्तर उत्तरसमयमें विशुद्धिके कारण अनन्तगुणितहीन होता है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन होता जाता है । तथैव अनुभाग उदयकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए अर्थात् विवक्षितसमय में अनुभागोदय बहुत होता है और उससे अनन्तरसमयोंमें प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता जाता है । यद्यपि पूर्व में भी यह कथन किया जा चुका है तथापि सरलतापूर्वक बोध हो जाये इसलिए पुनः कथन किया गया प्रतः पुनरुक्तदोषको शंका नहीं करना चाहिए । जबतक अनुभागकाण्डकका पतन नहीं होता अर्थात् जबतक एक. अनुभागकाण्डकका उत्कीरण होता है तबतक अवस्थितअनुभागसंक्रमण होता रहता है। अनुभागकाण्डकका पतन होनेपर अन्य अनन्तगुणाहीन अतुभागसंक्रमण होता है, क्योंकि अतुभागकाण्डकके द्वारा अवन्तबहुभाग अनुभागका घात हुआ है । 'संकमणं तदवढे जाव दु अणुभागखंडयं पडिदि । अण्णाणुभागखंडे पाढते पंतगुणहीणं ॥६५॥४५६।। अर्थः- अनुभागकाण्डकघातके पतन होनेतक तदवस्थ अर्थात् अवस्थित संक्रमण होता है, अन्य अनुभागखंडके प्रारम्भ होनेपर पूर्व से अनन्तगुणा घटता अनुभागसंक्रमण होता है। १. क. पा० सुत्त पृ. ७७२ गाथा १४८ एवं सूत्र ३६५ से ३६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ : जय घवल मूल पृष्ठ १६६-६६ | २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७२ पर "संक्रमो जाब अणुभागखंडयमुक्कोरेदि ताव तत्तिगो तत्तिमो अणु भागसंकमो । अण्णम्हि अणुभागखंडए आडत्ते अणंतगुणहीणो अणुभागसंकमो।" सूत्र ३६६ । "जाव अणुभागखंडयं पादेदि ताव अवट्टिदो चेव संकमो भवदि, अणुभागखंडए पुण पदिदे अणुभागसंकमो अर्णतगुणहीणो जायदि त्ति ।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ टि. नं०२), जयधवल मूल पृष्ठ १९६८ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ६६] क्षपणांसार [ ५६ विशेषार्थ:-अनभागकाण्डकका काल अन्तमुहर्त है, अतुभागकाण्डक काल में प्रतिसमय एक-एक फालिका पतन होता है । फालिपतनसे यद्यपि फालीप्रमाण कमप्रदेशोंका अनुभाग अनन्तगुणाहीन हो जाता है, किन्तु शेष कर्मप्रदेशों में उतना ही रहता है। अतुभागकाण्डक के शेष सर्व कर्म प्रदेशोंका अन्तिमफालिद्वारा ग्रहण होता है अतः अन्तिमफालिके पतन के समय सर्वप्रदेशों में से अनुभागघात होकर अनन्तगुणाहीन हो जाता है । जबतक अन्तिमफालीका पतन नहीं होता तबतक अनुभागकाण्डक काल में अनुभागसत्कर्म उतना ही रहता है इसलिए अनुभागसंक्रमण भी उतना ही अवस्थितरूपसे होता रहता है । अनुभागकाण्डककी अन्तिमफाली के पतन होनेपर अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणाहीन हो जाने से अनुभागसंक्रमण भी अनन्तगुणाहीन होता है। यही क्रम अन्य अनुभागकाण्डकोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए । 'सत्तएहं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं । सोजस संजलणाणं संखसहस्साणि लेसाणं ॥६६॥४५७॥ अर्थ:--सातक के संक्रमणके अन्तिमसमयमै पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, संज्वलनकषायोंका १६ वर्षप्रमाण एवं शेष छहकर्मीका संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थः-पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन सात नोकषायरूप कर्मों के संक्रामक अर्थात् क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे यथाक्रम घटकर पुरुषवेदका पाठवर्षप्रमाण, सञ्ज्वलन क्रोध-मान-माया व लोभका १६ वर्षप्रमाण और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र इन घातिया-अघातियारूप छहकर्मीका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है । यहापर पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने से पुरुषवेदका यह आठवर्षवाला जघन्य स्थिति बन्ध होता है तथा शेषकोका जघन्यस्थितिबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय होता है । इन उपयुक्त पुरुषवेदादि सातकर्मोका क्षय कोषसञ्चलन में संक्रमणके द्वारा होता है अत: माथामें 'क्षपक' के स्थानपर 'संक्रामक' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँपर संक्रामकका अभिप्राय क्षपफसे ही है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३-४४-४५ । प. पु. ६ पृष्ठ ३६३ । ज० घ० मू० पृष्ठ १९७० । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपणासाच ६. ] [ गाथा ६७-६८ 'ठिदिसतं घादीणं संस्खसहस्साणि होति वस्साणं । होंति अघादितियाणं वस्लाणमसंखमेत्ताणि ॥६७॥४५॥ अर्थः-उसोसमय घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है और अघातियाकर्मों का असंख्यातवर्ष होता है । विशेषार्थः-सात नोकषायरूप कर्मों का संक्रमणवाले जीवके अन्तिमसमयमें मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चारघातिया कर्मों का स्थितिसत्कर्म संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है, क्योंकि धातियाकर्म होने से अति अप्रशस्त है अत: स्थितिखण्ड के द्वारा इनकी अधिक स्थितिका घात होता है । नाम-गोत्र और वेदनीय इनतोनअघातियाकर्मों का स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण है, क्योंकि अघातिया होने के कारण पातियाकर्मोको अपेक्षा इनका स्थिति घात अल्प होता है। 'पुरिसस्स य पढमहिदि, पावलिदोसुवरिदासु आगाला । पडि आगाला छिराणा, पडि प्रावलियादुदीरणदा ॥६८॥४५६॥ अर्थः-पुरुषवेदको प्रथमस्थिति में दोआवलिमात्र शेष रह जानेपर आगाल व प्रत्यागालको व्युच्छित्ति हो जाती है और मात्र प्रत्यावलि शेष रह जानेपर उदोरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। विशेषार्थ:-प्रथम और द्वितीयस्थितिके प्रदेशपुञ्जोंके उत्कर्षण-अपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमको आगाल व प्रत्यागाल कहते हैं। द्वितीयस्थितिके प्रदेशजका प्रथमस्थितिमें आना आगाल तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपून का प्रतिलोमरूपसे द्वितीय स्थिति में जाना प्रत्यागाल है । इसप्रकार पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक दोआवलियो शेष रहनेतक आगाल और प्रत्यागाल होते हैं। पुरुषवेदको प्रथमस्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्रके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल उपपादानुच्छेदके द्वारा ब्युच्छिन्न हो जाते हैं अथवा परिपूर्ण आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६-४७ । घ• पु० ६ १०.३६३ । ज ५० मूल पृष्ठ १९७१ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६, धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ । जयधवल मूल पृष्ठ १६७१ । यह गाथा ल० सार गाथा २६४ के समान है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाचा ६९-७०] क्षपरणासास प्रामाल-प्रत्यागाल होकर पुन: तदनन्तरसमय में एकसमयकम दोआवलि शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल अनुपपादानुच्छेदके द्वारा व्युच्छिन्न हो जाते हैं, यह उक्त गाथाका अभिप्राय है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका आश्रयलेकर सद्भावके अन्तिम समयमें ही उसके अभाबका विधान गाथामें किया गया है। यहोंसे पुरुषवेदको गुणश्रेणी भी नहीं होतो । 'प्रत्यावलिमें से ही असंख्यातसमयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है | पुरुषवेदको प्रथमस्थितिमें एकसमयअधिक आबलि शेष रहनेपर जघन्यस्थिति। उदीरणा होती है । अर्थात् पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति जब समाप्त हो जाती है और मात्र उदयावलि एवं उसके ऊपर तदनन्तर एक विषेक रह जाता है उससमय उदयालिसे बाह्य एकनिषेकको स्थिति एकसमयअधिक उदयावलिमात्र है। तदनन्तरसमयमें वह निषेक भी उदयावलिमें प्रवेश कर जाता है तब पुरुषवेदकी उदीरणा भी व्युच्छिन्न हो जाती है और वह चरमसमयवर्ती सवेदी होता है । उदयालिप्रमाण निषे कोंका प्रति. समय परमुख उदय होता रहता है, स्वमुखउदय नहीं होता। 'अंतरकदपढमादो कोहे छण्णोकसाययं छुहदि । पुरिसस्स चरिमसमए पुरिसवि एणेण सम्वयं छुहदि ॥६६॥४६०॥ समऊणदोरिणावलिपमाणसमयप्पबद्धणवबंधो। विदिये ठिदिये अस्थि हु पुरिसस्तुदयावली च ॥७०॥४६१॥ १. उदयालिसे बादकी (ऊपरको) आवलिको प्रत्यावलि कहते हैं । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २८५-८६ । ३. "समयाहियाए आवलियाए सेसाए जहपिण्या ठिदि उदीररणा" (क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५०; धवल पु. ६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १९७१) ४, "अंतरादो दु समयकदादो पाए छण्णोकसाए कोधे संछह दि" ॥२४८ । क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ । "अंतरादो पढमसमयकदादो पाए छपरणोकसाए कोहे संहदि ।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४) "तदो चरिमसमयपुरिसवेदओ जादो । ताचे छपणोकसाया संछुद्धा । पुरिसवेदस्स जाओ दोआवलियाओ समयूणाओ एत्तिगा समयपबद्धा विदिट्टिदीए अत्थि, उदयट्ठिदी च अस्थि, सेसं पुरिसवेदस्स संतकम्मं सव्वं संछुद्धं ।" (क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५१ से २५३; धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १६७१-७२) ५. "उदयावली' इत्यस्यस्थाने 'उदयविदि' इति पाठो वर्तते ध• पु० ६ पृष्ठ ३६४ एवं क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३, (जयधवल मूल पृष्ठ १६७२) । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [ गाथा ६९-७० अर्थ :- अन्तरकृत अर्थात् अन्तरकरण कर चुकनेके पश्चात् प्रथमसमयसे लेकर छह नोकषायों को संज्वलनकोष में स्थापित करता है । पुरुषवेदके अन्तसमय में छह नोकषायोंका सर्वद्रव्य संक्रमणको प्राप्त हो चुकता है और उसीसमय पुरुषवेदका भी पुरातन सर्वद्रव्य संज्वलनक्रोधमें संक्रान्त हो जाता है, किन्तु एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयबद्ध द्वितीयस्थिति में है और उदयावलि भी है । क्षपणासार विशेषार्थ :- अन्तरकरण करनेकी क्रिया समाप्त हो जानेके पश्चात् प्रथमसमय में अथवा अन्तरकृत दूसरे समय में ( अन्तरकृत प्रथम समय के पश्चात्का दूसरासमय ) आनुपूर्वीक्रमसे संक्रमणके नियमानुसार छह नोकषायोको संज्वलनक्रोध में संक्रमण करता है अन्यत्र संक्रमण नहीं करता है । सवेदभागके द्विचरमसमय में पुरुषवेद के सत्ता में स्थित पुरानेकमौका और छह नोकषायोंकी अन्तिमफालिका सर्वसंक्रमद्वारा कोषसञ्ज्वलन में संक्रमण करता है । तदनन्तरवेदका अनुभव करनेवाला सवेदभाग के चरमसमय से लेकर एक समयकम दोआबलि कालतक पुरुषवेद और चारसज्वलन इन पांच प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है, क्योंकि पुरुषवेदका एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवक समय प्रबद्ध और उच्छिष्टावली ( उदयावली ) का द्रव्य शेष है । दोसमयकम दो बावलियों में जितने समयबद्ध होते हैं उतने समय प्रबद्ध प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी के होते हैं । शंका- दोआवलियों में किसकारणसे दोसमयक्रम किये गए हैं ? समाधान:- अपगत वेदीके प्रथमसमय से लेकर आगेकी एक अवलिप्रमाणकाल अपगतवेदकी प्रथमावलि है और इससे आगेकी दूसरी आवलिप्रमाणकाल उसकी दूसरी आलि है, क्योंकि इनका सम्बन्ध अपगतवेदसे है । उस द्वितीयावलिके त्रिचरमसमयतक अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधा गया कर्म दिखाई देता है, क्योंकि एकसमयकम दोआवलिके अतिरिक्त और अधिककालतक विवक्षित नयकसमयप्रबद्धका अवस्थान नहीं पाया जाता । अपगतवेदीके एकसमयकम एकावलिकालतक नवकसमय प्रबद्ध निर्लेप नहीं होता अर्थात् तदवस्थ रहता है, क्योंकि बन्धावलिकाल में उसका अन्यप्रकृति संक्रमण नहीं होता तथा संक्रमणका प्रारम्भ होनेपर भी एकसमयकम एकआवलिप्रमाण काल में ३. जयघवल पु० २ ० २३४-३५ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६९-७०] क्षपणासार [ ६३ भी वह निर्लेप नहीं होता, क्योंकि संक्रमणावलिके अन्तिमसमयमें उसका प्रभाव पाया जाता है इसलिए अपगतबेदीकी द्वितोयावलिके तृतीयसमयतक वह समयप्रबद्ध पाया जाता है तथा उस द्वितीयआवलिके द्विचरमसमयमें प्रकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि सवेदोके अन्तिमसमयसे गिनने पर वहां पूरी दोआवलियां पाई जाती हैं। उपान्तसमयवर्ती सवेदीने जो पुरुषवेदकर्म बाँधा है वह अपगतवेदोके द्वितीयावलिके चतुःचरमसमयतक दिखाई देता है और विचरमसमयमें अकर्मपचेको प्राप्त होता है, क्योंकि अपगतवेदीको दोसमयकम प्रथमावलिसे बंधावलि बिताकर प्रथम आवलिके द्विचरमसमय में इस नवकसमयप्रबद्धका संक्रमण प्रारम्भ होता है एवं अपगतवेदीको द्वितीयावलिके त्रिचरमसमयमें वह नवकसमयप्रबद्ध अकर्मभावको प्राप्त होता है। बन्धसमयसे लेकर यहातक गिनने पर पूरी दो आवलियां हो जाती है। जो कर्म सवेदीने विचरमसमय में बांधा है वह अपगतवेदीके द्वितीय मावलिके पंचमचरमसमयतक दिखाई देता है। जो पुरुषवेदकमं सबेदीने अपने चतुर्थ समय में बांधा है वह अपगतवेदीको द्वितीयावलिके षष्ठम चरमसमयतक दिखाई देता है। इसीप्रकार अन्तिममावलिके प्रथमसमयतक ले जाना चाहिए । सवेदभागको अन्तिमावलिके प्रथमसमयमें जो पुरुषवेदकर्म बंधा है वह अपगतवेदोकी प्रथमावलिके अन्तिमसमयमें अकर्मभावको प्रास होता है, क्योंकि कर्मबन्धके समयसे गिनती करनेपर अपगसधेदोकी प्रथम मावलिके अन्तिमसमयमें बन्धावलि और संक्रमावलि इसप्रकार वहांतक पूरी दोआवलियोंका प्रमाण पाया जाता है एवं नवक्रसमयप्रबद्ध एकसमयकम दोआवलिसे अधिक कालतक नहीं रहता है, क्योंकि और अधिककालतक इसके रहने का निषेध है । सवेदीने अपनी द्वि चरमालिके प्रथमसमयमें जो कम बांधा है वह सवेदोके अन्तिमसमय में अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर गिनती करने पर वहां पूर्ण दोआवलियां पाई जाती हैं । जो कर्म सवेदीको उसी द्विचरमावलिके द्वितोयसमय में बंधा है वह अपगतवेदोके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर अपगतवेदके प्रथमसमयमें पूर्ण दोश्रावलियां पाई जाती हैं । इसप्रकार सवेदभागकी हिचरमावलिके प्रथम और द्वितीयसमयमें बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध अपगतवेदके प्रथमसमय में नहीं हैं, किन्तु सवेदभागकी दोसमयकम विचरमावलि और चरमावलिसम्बन्धी सर्व समयप्रबद्ध पाए जाते हैं, क्योंकि सवेद१. जयधवल पु० ६ पृष्ठ २६३ से २९७ तक । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] क्षपणासार [गाथा ७१ भागको द्विचरमावलिके दूसरे समय में बंधा समयप्रबद्ध अवेदभागके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है अत: गाथा ७० में सवेदभागको द्विचरमावलीके प्रथमसमयप्रबद्धको कभकरके ही "सभऊण दोषण आवलिय" अर्थात् एकसमयकम दोआवलि कहा गया है। अथानन्तर अश्वकर्णकरणका स्वरूप कहते हैं'से काले ओवट्टणिउव्वट्टण अस्सकरण आदोलं । करणं तियसरणगदं संजालणरसेसु वटिहिदि ।।७१॥४६२॥ अर्थ:--(अन्तिमसमयवर्ती पुरुषवेदके) "से काले" अनन्तरसमय में अपवर्तनउद्वर्तन, अश्वकर्णकरण, आदोलकरण ऐसा तीन नामवाला करण संज्वलनकषायके अनुभागमें प्रवृत्त होता है। विशेषार्थः-अश्वकर्णकरण, प्रादोलकरण, अपवर्तचोद्वतनकरण ये तीनों एकार्थक नाम हैं । अश्वकर्ण अर्थात् घोड़ेके कान के समान जो क्रोषसंज्वलनसे लोभसंज्वलनतक अनुभागस्पर्धक क्रमसे हीयमान होते हुए चले जाते हैं उनको अश्वकर्णकरण कहते हैं। आदोल हिंडोलेको कहते हैं, जिसप्रकार हिंडोलेके स्तम्भ और रस्सीके अन्तरालमें घोड़ेके कान सदृश त्रिकोणाकार दिखता है इसीप्रकार यहां भी क्रोधादि संज्वलनकषायों के अनुभागका सन्निवेष भी क्रमसे घटता हुआ दिखता है अतः इसे आदोलकरण भी कहते हैं । क्रोधादिकषायोंका अनुभाग क्रोधसे लोभकषायपर्यन्त हानिरूप और लोभसे क्रोघ - - १. किन्तु धवल पु० ६ पृ. ३६४ पर टिप्पण नं. १ में "से काले औवणि उबट्टण मस्करण आदोल" इति । गाथाके पूर्वार्धका यह पाठ शुद्ध प्रतिभासित होता है । अत: लब्धिसार-क्षपणासार मुद्रितप्रतिमें छपे "से काले ओबट्टणिउट्टण अस्सकण्ण आदोल" के स्थानपर उपर्युक्त शुद्ध पाठ ही दिया है । 'अस्सकण्णकरणे त्ति वा आदोलकरणे ति ओवट्टण-उच्चट्टणकरणे त्ति का तिणि णामाणि अस्सकग्णकरणस्स" क० पा० सुत्त प० ७८७ सूत्र ४७२ । जयधवल मूल पृ० २०२२ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ७२ ] तक बुद्धिरूप अर्थात् हानि वृद्धिरूप दिखाई देनेके कारण इसे अपवर्तनोद्वर्तनकरण भी छह नोकषायका द्रव्य और पुरुषवेदका प्राचीनसत्कर्म सर्वसंक्रमणद्वारा क्रोध संक्रांत हो जाने के अनन्तरसमयमें प्रथमसमयवर्ती अवेदी होता है उसी समय में प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक होता है अर्थात् क्रोधसे लोभतक चारों संज्वलनकषायोंका अनुभागक्रमसे हीयमान हो जाता है। क्रोधके अनुभामसे मानका अनुभाग हीयमान, मानसे मायाका अनुभाग होयमान और मायासे लोभका अनुभाग हीयमान हो जाता है । 'ताहे संजलणाणं ठिदिसंतं संखवस्सयसहस्सं । अंतोमुहुत्तहीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो ॥७२॥४६३॥ अर्थः-'ताहे' वहां अश्वकर्णकरणके प्रथमसमय में संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम सोलबर्ष है। विशेषार्थः-यद्यपि सात नोकषायोंके क्षपणकाल में सर्वत्र संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष ही था, किन्तु अश्वकर्णकरण करने के प्रथमसमयमें वह संख्यातसहस्र स्थितिकांडकोंसे संख्यातगुणितहानिके द्वारा पर्याप्तरूपसे घटकर उससे संख्यातगुणितहीन हो जाता है । सवेदके अंतिमसमयमें चारों संज्वलनकषायोंका स्थितिबंध पूर्ण १६वर्षप्रमाण था वह स्थितिबंध वहींपर समाप्त हो जाता है । अश्वकर्णकरणके अर्थात् अवेदके प्रथमसमय में १, अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः, अश्वकर्णवत्करणमश्वकर्णकरणम् | यथावकर्णः अग्रात्प्रभृत्यामलाद क्रमेण हीयमामस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करणं क्रोधसंज्वलनात्प्रभत्यालोभसंज्वलनाद्यथाक्रममनन्तगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्था करणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । संपहि आदोलनकरणसण्णाए अस्थो वृच्चदे-आदोलं णाम हिंदोलमादोलमिधकरणमादोलकरणं। यथा हिदोलत्यंभस्स बरत्ताए च अंतराले तिकोणं होगुण कण्णायारेण दोसइ, एवमेत्य वि कोहादिसंजला णाणमणुभागसंरिगवेसो कमेण हीयमाणो दोसइ ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोलकरणसण्णा जादा। एवमोवट्टण-उठवट्टणकरणेत्ति एसो वि पज्जायसद्दो अणुगयट्ठो दुवो, कोहादिसंजलणाणमणुभागविण्णासस्स हावि विसरूवेणायट्ठाणं पेखियूण तत्थ ओवट्टणध्वट्टण. सण्णाए पुख्वाइरिएहिं पट्टिवेदत्तादो। क. पा. सुत्त पृ. ७५५-५६ । घबल पु० ६ पृष्ठ ३६४ टिप्पण नं० ५। २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४७४-७५ । घ. पु. ६ पृष्ठ ३६५ । ज. प. मूल पृष्ठ २०२२-२३ । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ 1 क्षपणासार [ गाथा ७३ अन्यस्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। प्रत्येक स्थितिवन्धमें अन्तमुहर्तस्थितिका अपसरण होता है अतः अबेदके प्रथमसमय में अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम १६ वर्षका होता है' | तीनपातियाकर्मों का स्थिति वन्ध व सत्व संपातहजारवर्ष है। तोन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष और सत्व असंख्यातवर्ष है। 'रससंतं आगहिदं खंडेण समं तु माणगे कोहे । मायाए लोभेवि य अहियकमा होंति बंधेवि ॥७३॥४६४॥ अर्थ:--अश्वकर्णकरणको प्रारम्भ करनेवालेने अनुभागखण्डके द्वारा अनुभागको घातकरने के लिए जिस अनुभागसत्वको ग्रहण किया है वह अनुभागसत्त्व मान, क्रोध, माया और लोभमें विशेष अधिक क्रमसे हैं । अनुभागबन्धभो इसी क्रमसे होता है । विशेषार्थः-अश्वकर्णकरणको प्रारम्भ करनेवालेने जिस अनुभागसत्त्वमें से अनुभागखण्डनको ग्रहण किया है. समकाल में (वेदीके प्रथमसमय में) उस अनुभागसत्त्वका यह अल्प बहुत्व है --अनुभागसत्त्व मानमें स्तोक, क्रोधमें विशेष अधिक, माया में विशेषअधिक और लोभ में विशेष अधिक है अर्थात् अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थानके अवेदभागके प्रयमसमय में जब अश्वकर्णकरणका प्रारम्भ होता है और अनुभागको घातकरनेके लिए अनुभागकाण्डकको (आगहिदं) ग्रहण करता है उसके साथ रहने वाला अनुभागसत्व इसप्रकार है--मानमै अनुभागसत्त्व स्तोक, उससे क्रोधका अनुभागसत्त्व विशेषाधिक, उससे मायाका अनुभागसत्व विशेष अधिक और उससे लोभका अनुभाग १. "चरिमसमयसवेदस्स ठिदि बंधो मजलाणं संपुष्णसोलसवस्स मेत्तो तम्मि चेव पज्जवसिदो । तदो दिदिबंधे समत्ते पढमसमय अबेदो अण्णं ट्टिदियधमाइबेइमाणो संजलाणाणं पुविल्लदिदिबंधादो अंतोमूहतूणं दिदिबंधमाढवेइ एत्तोपाए संजलणाणं डिदिबंधोऽपसरणस्स अंतोमुत्तपमारणत्तादो।" (जयघवल पु. १३ पृ. २८६-६०) २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४७६-४८० । ध० पु० ६ पृष्ठ ३६५ । जयधवल मूल पृष्ठ २०२३ । ३. "अणुभागसंतकम्म सह आगाइदेण माणे थोवं ।।४७६।। क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८॥" "अणुभागसंत. कम्मं आगइदेण सह माणे थोवं, कोहे विसेसाहियं, मायाए बिसेसा हियं, लोभे विसेसाहिय" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६५) ४, घवल पु० ६ पृष्ठ ३६५ टि० नं० २ । जयघवल मूल पृष्ठ २०२३ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७४ ] क्षपणासार [ ६७ सत्व विशेष अधिक होता है। यहां विशेष अधिकका प्रमाण अनन्त अविभागप्रतिच्छेद है। अनुभागका यह अल्पबहुत्व अन्तदीपक है, इससे नीचे भी संज्वलन के अनुभागसत्कर्म में अल्पबहुत्वका यही विधान है और अनुभागबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व विधिक क्रमसे होता है। 'रसखंडफड्ढयात्रो कोहादीया हवंति अहियकमा । अवसेसफड्ढयाओ लोहादि अणतगुरिणदकमा ७४॥४६५॥ अर्थ:--अनुभागखण्डफे लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक क्रोधादि कषायोंमें विशेषअधिक क्रमसे होते हैं, किन्तु घात होने के पश्चात् शेष रहे स्पर्धक लोभादिकषायों में अनन्तगुणित क्रमसे होते हैं। विशेषार्थः-शङ्काः---अश्वकर्णकरणसे नीचे अशेष अनुभागकाण्डकों में मानके स्पर्धक स्तोक, उससे विशेष अधिक क्रोधके, इससे विशेष अधिक मायाके और इससे विशेषअधिक लोभके स्पर्धक प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि अनुभागसत्त्वके अनुसार अनुभागकाण्डकघातोंमें अल्पबहत्व होता है, किन्तु अश्वकर्णकरणसम्बन्धी अनुभागकाण्डकमें क्रोधके स्पर्धक सबसे स्तोक और उससे मानसे लोभपर्यन्त स्पर्धक विशेष अधिक क्रमसे क्यों ग्रहण किए गये ? समाधानः- अश्वकर्णकरण में घातसे बचे हुए शेष अनुभागका लोभसे अनन्तगुणा मायाका, मायासे अनन्तगुणा मावका और मानसे अनन्तगुणा क्रोधका, ऐसा क्रम होता है जो गाथामें कथित अनुभागके द्वारा ही सम्भव है अन्य प्रकार धातके द्वारा संभव नहीं है । अथवा अपूर्वस्पर्धक विधान के पश्चात् क्षय होनेवाले कर्मों में जिनका मन्द उदय होकर घात होता है उनके अनुभागसत्कर्मका बहुत घात होता है । लोभका सबसे अंत में घात होने से उसका मन्दतम उदय होकर घात होता है अत: अश्वकर्णकरणके प्रथमसमय में लोभके अधिकस्पर्धक घातके लिए ग्रहण होते हैं उससे पूर्व मायाका मन्दतर उदय होकर घात होता है और उससे भी पूर्व मानका मन्द उदय होकर घात होता है । क्रोधका सर्वप्रथम घात होवेसे उसके अनुभागका मानके समान मन्दउदय होकर घात नहीं होता, किन्तु मावको अपेक्षा विशेषअधिक अनुभागके साथ घात होता है। इसलिए १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४८१-६८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३६५ । ज० घ० मूल पृष्ठ २०२३-२४ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] क्षपणासाच [ गाथा ७५ अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमै अनुभागखण्ड के लिए ग्रहण किए गये स्पर्धक क्रोध के स्तोक, मानके विशेषअधिक, उससे मायाके विशेषअधिक और उससे लोभके विशेषअधिक इसक्रमसे होते हैं । क्रोध में जितना अनुभाग छोड़कर शेषको घात करनेके लिए ग्रहण किया जाता है मानमें उसका अनन्तत्रांभाग छोड़कर शेषको घात करनेके लिये ग्रहण करते हैं । इसीप्रकार माया व लोभ में भी जानना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण निम्न अङ्कसंदृष्टिसे हो जाता है । घात से पूर्व क्रोधादि चारसज्वलनकषायों के अनुभागका क्रम घात के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक क्रोधादिके शेष स्पर्धक [९६६५६७/६८ ] [६४७८१२४] [ ३२/१६८४] घातसे पूर्व क्रोधादि कषायोंके अनुभागका अल्पबहुत्व घात के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धकोंका अल्पबहुत्व तथा क्रोधादिके शेष अनुभागका अल्पबहुत्व ये तीनों कल्पबहुत्व उपर्युक्त अङ्कसन्दृष्टि से स्पष्ट हो जाते हैं । अश्वकर्णकरणके प्रथमसमय में होनेवाले अपूर्वस्पर्धकों का कथन करते हैं-'ताहे संजलखाणं देसावरफढयस्स हेट्ठादी | गुणमपुत्रं यमिह कुदि हु भांतं ॥७५॥ ४६६ ॥ प्रर्थः - वहां अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम समय में ही संज्वलनकषायोंके देशघाति जधन्यस्पर्धक के नीचे अमन्सगुणितहानिके क्रम से अनन्य अपूर्व अनुभागस्पर्धकों को करता है | विशेषार्थ :- अश्वकर्णकरण करनेके प्रथमसमय में ही क्रोध मान-माया ओर लोभरूप चार संज्वलनकषायों के अपूर्वस्पर्धक करता है । अपूर्वस्पर्धक - जो स्पर्धक पूर्व में कभी प्राप्त नहीं हुए, किन्तु क्षपकश्रेणी में हो अश्वकर्णकरणके कालमें प्राप्त होते हैं और जो संसारावस्था में प्राप्त होने वाले पूर्वस्पर्धकों से अनन्तगुणितहानिके द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाववाले हैं वे अपूर्वस्पर्धक हैं । १. क०पा० सुत्त पृ० ७८६ सूत्र ४६०-४६६ घ. पु. ६ पृष्ठ ३६५-६६ । ज. व. मूल पृष्ठ २०२५ । २. कानि अपुष्वफद्दयारि णाम ? संसारावस्थाए पुग्व मलद्धप्पसरूवारिण सवगसेढीए चेव अस्सकरणद्धाए समुत्रलब्भमाणसरूवा रिण पुन्त्रकद्दरहितो अनंतगुणहाणीए ओवट्टिज्ज माणसहावरणि जाणि फद्दयाणि ताणि अपुण्यकारिणति भण्णते (ज० ध० मूल पृष्ठ २०२५ ) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ७५ ] [६६ शङ्काः---पूर्वस्पर्धकों के अनुभागको अपवर्तनके द्वारा अनन्तगुणाहीन करके यदि अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं तो उनको कृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई ? समाधान:--जिनकी उत्तरोत्तर वर्गणाओं में अविभागप्रतिच्छेद क्रमसे विशेष. अधिक या हीन होते हैं तो उनकी स्पर्धक संज्ञा है, किन्तु कृष्टियोंमें अनन्तगुणो वृद्धिहानिका क्रम होता है । अनन्त गुणी वृद्धि व हानिका उत्तरोत्तरकम अपूर्वस्पर्धकों में नहीं पाया जाता अतः उनकी कृष्टिसंज्ञा सम्भव नहीं है। अनुभागस्पर्धक दो प्रकारके हैं-पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक । पूर्वस्पर्धक वर्धमानक्रमसे हैं अर्थात् प्रथमपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयस्पर्धक, अनुभाग बढ़ता हुआ है, द्वितीयसे तृतीयस्पर्धकमें और तृतीयसे चतुर्थ में अनुभाग वृद्धि रूप है। अपूर्वस्पर्धकोंमें अनुभाग होयमानक्रमसे हैं। प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयमें, द्वितोयसे तृतोय में अनुभाग हीयमान है, यही क्रम सर्व अपूर्वस्पर्धकोंमें जानना चाहिए । सर्व अक्षपक जीवों के सभी कर्मों के देशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तुल्य है । सर्वघातियोंमें भी केवल मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सर्वघातिकर्मों को आदिवर्गणा तुल्य है, इन्हींका नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन पूर्वस्पर्धकोंसे चारों संज्वलनकषायों के अपूर्वस्पर्धकोंको करता है उस समय क्षपकके जो डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और पूर्वस्पर्धकों में यथायोग्य विभागके अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा असंख्यातवेंभागका अपकर्षणकरके अपूर्वस्पर्धक बनानेके लिये ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अनन्त गुणितहानिके द्वारा हीन. शक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धकों के प्रथमदेशघातिस्पर्धाकों के नीचे उनके अनन्तवेंभागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उन अविभाग प्रतिच्छेदों के अनन्तवेंभागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धककी सबसे अन्तिम (आदि ?) वर्गणा में होते हैं । इन अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण अनन्त है जो अभव्योंसे अनन्त गुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। १. ज.ध. मूल पृष्ठ २०२५ ! २. वर्धमानं मतं पूर्व हीयमानमपूर्वकं । स्पर्धक द्विविधं ज्ञेयं स्पर्धकक्रमकोविदः ।। (अमितगति पंचसंग्रह ११४६) ३. जयधवल मूल पृ० २०२५-२६ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० क्षपणासार [ गाथा ७६. 'गण: णादेय पदेसगगुणहाणिढाणफयाणं तु । होदि असंखेज दिमं अबरादु वरं प्रणांत गुणां ॥७६॥४६७।। अर्थः-गणनाको अपेक्षा अपूर्वस्पर्धक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तरके स्पर्धकोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं । जघन्य अपूर्वस्पर्धकके अविभागप्रतिच्छेदोंसे उत्कृष्ट अपूर्वस्पर्धक में अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद अनन्त गुणे हैं । विशेषार्थः- पूर्वस्पर्द्ध कोंकी आदिवर्गणा एक-एकवर्गणा विशेषसे घटते-बटते आधी हो जाती है उतने आयामका नाम एकगुणहानिस्थानान्तर है। इसमें अभन्योंसे अनन्त गुणे और सिद्धोंके अनन्तवेंभाग स्पर्धक होते हैं उनको उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारसे असंख्यातगुणे भागहारके द्वारा भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने अपूर्वस्पर्धक होते हैं अर्थात् एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकों के असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धकोंको संख्या (गणना) होती है, वह संख्या अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्त_भागप्रमाण अनन्त है । प्रथमसमय में रचे गए अपूर्वस्पर्धकोंमें से प्रथम अर्यात जघन्यस्पर्धकको आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसमूह सर्वजीवोंसे अनन्तगुणा होते हुए भी उपरिम पदोंकी अपेक्षा स्तोक है । द्वितीयस्पर्धक की आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद समूह अनन्तबहभाग अधिक है । प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणाके सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंकी संख्यासे अविभागप्रतिच्छेदों को गुणा करनेपर अविभागप्रतिच्छेदसमूहरूप एकपुज होता है, उससे दूसरेस्पर्धककी आदिवर्गणाके सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंमे सर्व अविभागप्रतिच्छेदसमूह कुछकम दुगुना होता हुआ अनन्तबहुभाग अधिक है। प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाआयामसे (आदिवर्गणा प्रदेशजसे) दूसरेस्पर्धककी आदिवर्गणा आयाम विशेषहीन है । एकस्पर्धक शलाकाप्रमाण वर्गणाविशेषके बराबर विशेषहीनका प्रमाण है। प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणाके एक परमाणुके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयस्पर्धककी आदिवर्गणाके एकपरमारगुमें अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे होते हैं। प्रथमस्पर्धककी आदिवगंणाके अविभागप्रतिच्छेद प्रतिस्पर्धककी आदिवर्गणामें दुगुणे-तिगुणे१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८६ सूत्र ४६७ । धवल पु० ६ ० ३६६ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५०१.२ । घ. पु०६ पृ० ३६७ । ३. ज०५० मूल प० २०२७ । ४, "अर्णता भागा अर्गत भागा, अणंतभागेहिं उत्तरमणंतभागुत्तरं ।" (जः घ० मूल पृष्ठ २०२७) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७६ ] [ ७१ आदिक्रमसे बढते जाते हैं । यदि प्रथमस्पर्धकका आदिवर्गणाआयाम और द्वितीय स्पर्धक - का आदिवर्गेणाआयाम सदृश ( समान ) होते तो प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदसमुदायसे द्वितीयस्पर्धककी आदिवर्गणाका अविभागत्रतिच्छेदसमूह दुगुणा होता है, किन्तु दोनों आदिवर्गणाआयाम सदृश नहीं है, क्योंकि प्रथमस्वर्वककी आदिवर्गाआयामसे द्वितीयस्पर्धकका आदिवर्गणाआयाम विशेषहीन है। जितना हीन है उसको दुगुणे अविभागप्रतिच्छेद ( प्रथमस्ककी आदित्रणाके एक परमाणुगतअविभागप्रतिच्छेदका दुगुणा ) से गुणा करनेपर जो अनन्तवभागप्रमाण गुणनफल प्राप्त होता है उतना दुगुणा होनेमें कम है। जिनकी वृद्धि हुई हैं ऐसे शेष अविभागप्रतिच्छेद अनन्त बहुभागप्रमाण हैं, क्योंकि अनन्तवभाग घटानेपर अनन्तबहुभाग शेष रहता है । इसप्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि प्रथमको आदिवाके अविभाग प्रतिच्छेदसमूह द्वितीय स्पर्धक की आदिवर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुज अनन्तबहुभाग अधिक है । इसीप्रकार द्वितयस्पर्धकको आदिवर्गणासे तृतायस्पर्धक की आदिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम आधे से अधिक है। तृतीयाकको आदिवर्गणा चतुर्थ स्पर्धकको आदिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछक्रम तृतीयभागसे अधिक हैं। तथैव पंचमादिस्पर्धकों में कुछकम चतुर्यादिभाग अधिक यथाक्रम जानना चाहिए । जधन्य परितासंख्यातस्पर्धकी आदिवर्गणा में नीचे के स्पर्धकको आदिवर्गणासे कुछकम उत्कृष्टसंख्यातवेंभाग (अविभागप्रतिच्छेद) अधिक हैं । संख्यातवें भाग की वृद्धि यहांवर समाप्त हो जाती है । इससे आगे यथाक्रम असंख्यातवें भागको वृद्धि होती है । जघन्यपरीतानंतस्पर्धक में अपने से नोचेके स्वर्धकसे उत्कृष्ट संख्यातवें भागवृद्धि होती है । यहांपर असंख्यात भागकी वृद्धि समाप्त हो जाती है । इससे ऊपर अपूर्वक चरमस्कत क अनन्तभागवृद्धि होती है । जितने वर्धक ऊपर चढ़ हैं उनमेंसे एककम करके उससे अस्तनवर्ती स्पर्धककी वर्गणाको भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उससे कुछ कम ऊपरितन स्पर्धक में विशेषअधिकका प्रमाण होता है ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए। इस प्रकार अपूर्वस्पर्धकका चरमस्पर्धक द्विपरमस्पर्धकसे कुछकम अनन्त भाग विशेषअधिक हैं । इस सम्बन्ध में अल्पबहुत्व इसप्रकार है - प्रथम समय में रचित अपूर्वपर्णक के प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणा अल्प है, चरम अपूर्वस्पर्धक की आदिवर्गणा अनन्तगुणी है। क्योंकि प्रथम पूर्वस्पर्श कसे अनन्त ( अ भव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तर्वे भाग ) स्पर्धक चढ़कर चरम स्पर्धक प्राप्त होता है । पूर्वस्पर्ण को आदिवर्गणा अनन्तगुणी है, क्योंकि क्षपणासार Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ७२ ] | गाथा ७७ पूर्वस्पर्शकको सबंजघन्यदेशघातियगणाअनुभागसे अनन्तगुणेटीन अनुभागके द्वारा अपूर्वस्पर्धाकोंकी रचना होती है। क्रोध-मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धकोंमें से असंख्यातवेंभागका अपकर्षण होकर क्रोध-मान-माया व लोभके देशघाति प्रथमस्पर्धक के नीचे तत् तत्सम्बन्धी अपूर्वस्पर्धाकोंकी रचना होती है। पुरुषवेदके नवकसमयप्रबद्धकी अपूर्वस्पर्धकरचना नहीं होती है, क्योंकि उसका अनुभागकाण्डकघात नहीं होता, उसका तो प्रतिसमय सञ्ज्वलनकोषमें संक्रमण होता रहता है । 'पुव्वाण फड्ढ्याण छेत्तूरण असंखभागदव्वं तु । कोहादीणमपुव्वं फडूढयमिह कुणदि अहियकमा ।।७७॥४६८।। अर्थः--सञ्ज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धकद्रव्यको असंख्यातसे भाग देकर मात्र एकभाग द्रव्यसे क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक करता है । वे स्पर्धक अधिकक्रमसे होते हैं । विशेषार्थः-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान का क्षय हो जानेसे मात्र सज्वलनक्रोध, मान, माया व लोभकषायरूप द्रव्य है जिसको पूर्वस्पर्धकसंज्ञा है। क्रोध-मान-माया व लोभमें से प्रत्येककषायके समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करनेपर प्रत्येककषायके पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। इस द्रव्यको उत्कर्षण-अपकर्षणभागहाररूप असंख्यातसे भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यसे अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है। चारों सज्वलनकषायों में से प्रत्येक कषायको एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है, तो भी सर्वसज्वलनकषायों में खण्डोंका प्रमाण सम नहीं है, क्योंकि संज्वलनक्रोधके अपूर्वस्पर्धक स्तोक हैं, उससे सज्वलनमानके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं, मायासंज्वलनके अपूर्व स्पर्धक विशेषअधिक हैं और लोभसंज्वलनके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक है । संख्यातवें या असंख्यात वेभाग विशेषअधिक नहीं हैं, किंतु अनंतवेंभागरूपसे विशेषअधिक हैं । १. जयघवल मूल पृष्ठ २०२७-२०३०॥ २. ५० पु. ६ पृष्ठ ३६८ (जयधवल मूल पृष्ठ २०२६ व २०३०) । ३. जयषवल मूल पृष्ठ २०२६-२७ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८-७९ ] क्षपणासार [७३ संज्वल नक्रोघके स्पर्धकों को तत्प्रायोग्य अनन्तसे भागदेकर एकभागप्रमाणसे विशेष अधिक मानकषायके अपूर्वस्पर्धक हैं । इसी प्रकार मान और मायाकषायके अपूर्वस्पर्धकोंको यथाक्रम तत्प्रायोग्य अनन्तका भाग देकर माया और लोभकषायके विशेषअधिक अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण प्राप्त होता है । संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभकषायके अपूर्वस्पर्धको की अङ्कसन्दृष्टि [१६।२०।२४.२८] इसप्रकार है'। समखंडं सविसेसं णिक्विवियोंकट्टिदादु सेसधणं । पक्खेवकरण इजि.गोउंदण उसवय ८॥४६६॥ मोक्कट्टिदं तु होदि अपुचदिवग्गणार होणकमं । पुवादिवग्गणाए असंखगुणहीणयं तु हीणकमा ॥७६ ॥४७० ___अर्थ-अपकषित द्रव्य में से अपूर्वस्पर्धकको प्रादिवर्गणासे लेकर विशेषहीनक्रमसे द्रव्य दिया जाता है, किन्तु पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा में संख्यातगुणाहोच द्रव्य दिया जाता है उसके पश्चात् विशेषहीनक्रमसे द्रव्य दिया जाता है। अपूर्वस्पर्धकको वर्गणाओंमें विशेषसहित समखण्डद्रव्य देकर शेषद्रव्यको इसप्रकार दिया जाता है जिससे पूर्व और अपूर्व दोनों स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार सिद्ध हो जावे । विशेषार्थः- अपूर्वस्पर्धकोंको अन्तिम वर्गणा में दिये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणाहीन द्रव्य पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गगामें क्यों दिया जाता है उसे बतलाते हैं-अपूर्वस्पर्धक को अन्तिमवर्गणामें जो द्रव्य निक्षिप्त किया गया है वह पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणासे एकवर्गणा चय (विशेष) अधिक है। पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें पूर्व अवस्थितद्रव्यका असंख्यातांभाग द्रव्य निक्षिप्त किया जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्यके असंख्यातवेंभागमात्र अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्यको कुछ अधिक डेढ़गुणहानिसे भागदेने पर पूर्वस्पर्धकको आदिवगंणाका द्रव्य आता है और उस आदिवर्गणाको उत्कर्ष-अपकर्षभागहारसे खण्डित करने पर अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है। अङ्कसन्दृष्टि में सम्पूर्णद्रव्य ६३०० है । एक गुणहानि ८ है, डेढगुणहानि (x) १२ है । सम्पूर्णद्रव्य ६३०० को कुछ अधिक डेढ़गुणहानि १२ से भाजित करने पर ५१२ आदिवर्गणाका द्रव्य प्राप्त होता है । इस आदिवर्गणा (५१२) को उत्कर्षण-अपकर्षण भागाहारसे खण्डित करनेपर अपकषितद्रव्यका १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३० । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५०५ से ५०६ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ७४ ] [ মাখা ও प्रमाण प्राप्त होता है अतः अपकर्षितद्रव्य पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणाके असंख्यात वभाग होनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें पूर्व अवस्थित द्रव्य, निक्षिप्तद्रध्यसे असंख्यातगुणा है । इसीको क्षेत्र विन्यासके द्वारा स्पष्ट किया जाता है-- समस्त द्रव्यको पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा प्रमाणरूप करनेपर डेढगुणहानिप्रमाण आदिवर्गणा होती है, उसका क्षेत्रविन्यास निम्न प्रकार है जिसका विषकम्भ आदिवर्गणा प्रमाण है और आयाम डेढगुणहानि प्रमाण है । - - - - - - - - डेढगुणहानि - - - - - - -------IDEALE ----- - --------.- एकगुणहानि - - - - - - - - - - - - - -अर्धगुणहानि--- इस क्षेत्रके विषकम्भकी उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारप्रमाण फालियां करनी चाहिए। उनमें से एकफालिको ग्रहणकर पृथक् स्थापित करना चाहिए । इस संबंध में चित्र नं० २ देखना चाहिए। १. जयधवल मूल पृष्ठ २०२३ । जयधवल मूल पृष्ठ २०३४ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७६ ] क्षपणासार [ ७५ चित्र नं. २ :- उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारसे खण्डितकर एकफालि नीचे पृथक् ग्रहण की गई है। उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार अङ्कमन्दृष्टि में (५) है। ---------- डेढगुणहानि ------- - एकफालि बहुफालिप्रमाण पूर्वस्पर्धकका शेषद्रव्य - - - - - - -- - अपकषित द्रव्य पृथक् ग्रहण किया एकफालिप्रमाण क्षेत्र समस्त अपकषितद्रव्य है। अपूर्वस्पर्धकोंके लिए इसद्रव्यका अपकर्षण किया गया है । एकगुणहानिका भागहार है । पृथक ग्रहण की गई फालिका मायाम डेढ़गुणहानि है अतः असंख्यातगुणे अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारको भी डेढ़गुणा करना चाहिए । इसलिए डेढ़गुण हानिआयामके इतने खण्ड करने चाहिए । देखो निम्न चित्र नं. ३ । अङ्कसष्टिमें असंख्यातगुणा अपकर्षणउत्कर्षण भागहार - ८ । चित्र नं. ३ एकफालि -----------डेढ़गुणहानि-------- इनमें से एकखण्डका आयाम अपूर्वस्पर्धकके आयामके बराबर है । इन खण्डोंमें से एककम उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारप्रमाण खण्डोंको ग्रहणकर पूर्वखण्डोंके क्षेत्रके नीचे स्थापित करनेपर अपूर्वस्पर्धकवर्गणा पूर्वस्पर्धकवर्गणाओंके सदृश ( बराबर ) प्रमाण दिखाई देती है । देखो चित्र नं. ४ : Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] क्षपणासार [गाथा ७६ --एक कम उत्कर्षण-अपकर्षण भागहार-- चित्र नं. ४ - - - - - - पूर्वस्पर्धकोंका शेषद्रव्य एककम उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारप्रमाण चित्र नं. २ का उपरिभाग उलटकर रखा गया है । --.-डेढ़गरगहानि-- -- -- पूर्व स्पर्धक पूर्वस्पर्धक पूर्वम्पर्धक पूर्वस्पर्धक , १अ स्पर्धक १अ स्पर्धक १अ स्पर्धक १अ स्पर्धक एककम उरकर्षण-अपकर्षणभागहार (५-१) प्रमाण अपूर्वस्पर्धक जब तक इन अपूर्वस्पर्धकों में अपूर्वस्पर्वकोंको वर्गणाओं में वर्गणाविशेष (वर्गणा चय) न मिलाये जावें तबतक इन अपूर्वस्पर्धकोंका गोपुच्छाकार नहीं हो सकता । इस Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८-७९ ] [ ७७ लिए अप की वर्गेणाओं के अध्वानसम्बन्धी संकलन प्रमाण वर्गणाविशेष द्रव्य शेषखण्डोंमेंसे ग्रहणकर आगम अविरोधमे अपूर्वस्पर्ध कोंको वर्गणाओं में प्रक्षेप करना चाहिए । यह संकलनद्रव्य एकखण्ड के असंख्यातवें भाग प्रमाण है' । क्षपणासार अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणासे द्विचरमवर्गणा में एक चतुःचरमवर्गणा में तीन वर्गणाविशेष (वर्गणाचय) अधिक है। इसप्रकार प्रतिवर्गणा एक-एक वर्गणा विशेष बढ़ाते हुए पूर्वस्पर्धक की प्रथमवर्गातक ले जाना चाहिए। इन सब वर्गणाविशेषोंको जोड़नेके लिए अपूर्वस्पर्धककी वर्गणाओंके अध्वानका संकलन कहा है । यदि अपूर्व स्पर्धककी वर्गेणाओं का अध्वान ( वर्गणाओं की संख्या) २० हो तो एक, दो, तीन आदि २०: तक जोको बीसका फल कहा जाता है । एकसे लेकर जिस संख्यातक संकलन करना हो तो उस अन्तिमसंख्या के आधे से एक अधिक अन्तिमसंख्याको गुणा करनेपर संकलनका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । जैसे एकसे बोसतकको संख्याओं को जोड़ना है तो x २१ = २१० प्राप्त होते हैं; यह बोसका संकलन है । इसीप्रकार यदि 'क' संख्यातक संकलन होगा । ( 'क' संख्या संकलन करना है तो [ क× (क× १) ] क + असंख्यात या अनन्तको द्योतक हो सकती है | } १. जय धवल मूल पृष्ठ २०३४ । = एकफालिप्रमाण अपकर्षितद्रव्यके ड्योढ़े असंख्यात गुणित - अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारप्रमाण खण्ड किये गये थे (चित्र नं० ३ ) । इन खण्डों में से एककम उत्कर्षणअपकर्षणभागहारप्रमाण खण्ड अपूर्वस्पर्धकोंके लिए ग्रहण किये गए थे अतः ड्योढ़ संख्यातगुणित- अपकर्षण- उत्कर्षणभागहार प्रमाण समस्तखण्डों में से एककम अपकर्षणउत्कर्षणभागहारप्रमाण खण्डोंके घटानेपर समस्त शेषखण्डों को पूर्व व अपूर्वस्पर्धकों में डाल देने चाहिए 1 वे खण्ड पूर्व - अपूर्वस्पर्धकों में इसप्रकार निक्षित किए जाते हैं- उन शेषखण्डोंमेंसे एकखण्डको ग्रहणकर पूर्व में कहे गये एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरका भागहार जो असंख्यात - अपकर्षण- उत्कर्ष णभागहार, उसको डेढगुणा करके जो प्रमाण प्राप्त हो उतने अवान्तर अर्थात् विकलखण्ड, उस ग्रहण किये गये एक सम्पूर्ण (सकल) खण्ड के करने चाहिए उनमें से प्रत्येक अवान्तर खण्ड ( विकलखंड ) का श्रायाम अपूर्वस्पर्धक के आयाम बराबर है | देखो निम्न चित्र नं० ५ : Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [ माथा ७६ इन विकल ( अवान्तर ) खण्डों में से एक विकल खण्डको ग्रहणकर अपूर्वखण्डों पार्श्व में देना चाहिए और शेष समस्त विकलखण्डों को पूर्वस्पर्धकों में देना चाहिए । इसीप्रकार शेष समस्त सकलखण्डों के विकल (अवान्तर ) खण्ड करके पूर्व- अपूर्व स्पर्धकों में देना चाहिए। इसप्रकार पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा में दिए गये सर्वविकलखण्डों का प्रमाण एक सकलखण्ड के बराबर नहीं होता, किन्तु किंचित्ऊन सकलखण्डप्रमाण होता है । यदि अवकर्षण- उत्कर्षणमामाहारप्रमाण विकलखण्ड और होते तो एक सकलखण्ड हो जाता । इसप्रकार अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा में जो द्रव्य दिया गया है वह किंचित्ऊन एक सकलखण्डप्रमाण है । अपूर्वस्पर्धकों में एककम अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारप्रमाण द्रव्य दिया गया है। इससे सिद्ध हो जाता है कि अपूर्वस्पर्धककी अन्तिम वर्गणा में निश्चित प्रदेशाग्रोंसे पूर्व स्पर्धक की आदिवर्गणा में विक्षिप्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणेहीन हैं। यहांवर गुणाकार साधिक अपकर्षणउत्कर्षणभागाहार है । इसलिए पूर्वस्पर्धककी प्रादिवर्गणा में जो प्रदेशाग्र पहले से विद्यमान हैं उनके असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्रोंका निक्षेपण होता है । पूर्वस्पर्धकों की द्वितीयवर्गणा में विशेषहीच प्रदेशाघ्र दिये जाते हैं । पूर्व और अपूर्वस्पर्धकों में दिये गये अवशेष द्रव्य द्वारा पूर्व और अपूर्वस्पर्धकों की एक गोपुच्छाकार बच जाती है । चित्र नं० ५ अन् १२ खण्ड क्षपणासार पूर्व स्पर्धक Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८०-८३ ] क्षेपणासार [ ७६ 'कोहादीणमपुत्वं जेटें सरिसं तु अवरमसरित्थं । लोहादिअादिवग्गणअविभागा होति अहियकमा ८०॥४७१॥ सगसगफड्डयएहिं सगजे? भाजिदे लगीआदि । मज्मे वि अगंताओ वगणमामो समाणाओ ।।८१४७२॥ जे हीणा अवहारे रूवा तेहिं गुणित्तु पुवफलं । हीणबहारेणहिये अद्ध पुवं फलेणहियं १८२॥४७३॥ कोहदुलेसेण वहिदकोहे तक्कंडयं तु माणतिए । रूपहियं सगकंडयहिदकोहादी समासला ॥८३॥१७४॥ अर्थ-क्रोधादि चार सज्वलनकषायोंके अपूर्वस्पर्धकोंमें उत्कृष्ट (अन्तिम) स्पर्धककी आदिवगंणा सदृश हैं और जघन्य (प्रथम) को आदिवर्गणा विसदृश हैं । लोधादि कषायों के अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अधिक्रम लिए हुए हैं ।।८०।। अपने अपने उत्कृष्टस्पर्धककी प्रादिवर्गणाको अपने अपने स्पर्धकों की संख्यासे भाग देनेपर अपनी-अपनी आदिवगंणा प्राप्त होती है। अन्तिमस्पर्धकके समान मध्य में भी चारोंकायों की अनन्तवर्गणा समान होतो है ।।८१।। जिसका पूर्व फल अर्थात् आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद होन हैं उसको अधिक अवहार काल (स्पर्धकसंख्या) से गुणा करना चाहिए और पूर्वफल (आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद) अधिक है उसको होन अबहारकालसे गुणा करना चाहिए ।।८२॥ क्रोधको अपूर्वस्पर्धकसंख्याको मानकषायको अपूर्वस्पर्ष कसंख्या में से घटानेपर जो शेष रहे उससे क्रोधको अपूर्वस्पर्धक संख्या को भाग देनेपर क्रोधके काण्डकों का प्रमाण प्राप्त होता है । उस काण्डकप्रमाणमें एक एक अधिक करनेसे मान-माया व लोभ इनतीन काण्डकोंका प्रमाण प्राप्त होता है । अपने-अपने काण्डकोंसे अपनी-अपनी अपूर्वस्पर्धक संख्याको भाग देनेपर समान शलाका प्राप्त होती हैं ।।८३॥ १. क. पा० सुत्त पत्र ७६१ सूत्र ५१० से ५१४ । धवल पु० ६ प ३६८ । जय धवल मूल पृष्ठ २०३१ । २. गाथा ८२ का अर्थ स्वकीयबुद्धिसे किया है अतः यदि अशुद्ध हो तो बुद्धिमान उसे सुधार लेवें। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा ६३ विशेषार्थः---क्रोधादि चार संज्वलनकषायों से प्रतिबद्ध प्रथमअपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा लोभादिको परिपाटीमें यथाक्रम अनन्तभाग अधिक है अर्थात् लोभकषायसम्बन्धी प्रथम पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाम अविभागप्रतिच्छेद स्लोक, मायाकषायमें अनन्त वेंभाग अधिक, मानकषायमें अनन्त वें भाग अधिक और क्रोधकषायमें अनन्तवेंभाग अधिक है। इस परिपाटी क्रमसे स्थित आदिवर्गण के अविभागप्रतिच्छेदोंको अपनीअपनी अपूर्वस्पर्धक शलाकाओंसे गुणा करनेपर अपने-अपने अन्तिमस्पर्धककी आदिवर्गणा प्राप्त होती हैं जो एक दूसरे की अपेक्षा परस्पर समान प्रमाणवाली हैं। प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणासे द्वितीय, तृतीयादि सार्थकोंकी प्रथमवर्गणाका गच्छमान दुगुणा, तिगुणा आदि क्रमसे होता है, इस प्रकार चरमस्पर्धककी आदिवर्गणाके गच्छमान में अपूर्वस्पर्धकशलाकाप्रमाण गुणकार सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अपने प्रथम अपूर्वस्पर्धककी आदिवगणाको स्पर्धक शलाकासे गुणा करनेपर घरमस्पर्धकको प्रादिवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। शिष्यगणको इसका सरलतापूर्वक बोध हो जाने जयधबलाटीकाकार इस विषयको अङ्कसन्हष्टि द्वारा समझाते हैं-- क्रोधादि चार संज्वलनकषायकी प्रथम प्रपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंका मान इसप्रकार है [ क्रोध - मान - माया - लोभ 1 अपूर्वस्पर्धक शलाका 1 २ [१०५ -मान ८४ ७० ६० ] | क्रोध - मान - माया - लोभ ] अन्तिम अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणाका प्रमाण। १६ २० २४ २८ मा अपरमरका आपदवगणाका प्रमाण दिवर्गणा ऋष मान माया लोभ । क्रोधादि चारों संज्वलन कषायोंकी J१०५ ८४ ७० ६० । स्पर्धक शलाका १६x२० x २४ ४२८ । पर चरम अ.स्पर्धकको आदिवर्गणाका चरमस्पर्धक आदिवर्गणा (१६८०-१६६०-१६८०-१६८०) प्रमाणसर्वत्र १६८० होनेसे सदृश है । क्रोधादिकी अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा ही सदृश है यह अन्तदीपक न्यायसे कहा गया है, क्योंकि नीचे भी अनन्तअपूर्वस्पर्धकोंको आदिवर्गणा सदृश है । सन्दृष्टि में क्रोधकी स्पर्धकशलाका १६ है और मानकषायकी २० शलाका है इनको घटानेपर (२०-१६) शेषका प्रमाण ४ होता है | इसीप्रकार मान व मायाकषायकी और माया व लोभकषायकी स्पर्धाकशलाकानोंको घटानेपर (२४-२०), (२८-२४) सर्वत्र शेष ४ रहता है। इस ४ से क्रोधादिकी स्पर्धाकशला काओं में भाग देने पर क्रमशः १६= ४, २=५.२४ = ६,२८७; ४, ५, ६, ७ लब्ध प्राप्त होता है। क्रोषसंज्वलन में Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ८४] [८१ चौथे अपूर्वस्पर्शककी डादिवर्गणाका प्रमाण (१०५४४) ४२० है. मानसंज्वलन के पांचवें अपूर्वस्पर्शककी आदिवगंणाका प्रमाण (८४४५) ४२० है, मायासंज्वलनके छठे अपूर्वस्पर्धाक की प्रथमवर्गणाका प्रमाण (७०४६) ४२० है । लोभकषाय के सप्तम अपूर्वस्पर्धक की आदिवगंणाका प्रमाण (६०४७) ४२० है । चारों कषायों में आदिवर्गणाका प्रमाण ४२० होनेसे सदृश हैं। इसीप्रकार इतना अध्यान ऊपर ऊपर चढ़ने से क्रोधादि चारों संज्वल नकषायों में क्रमशः आठवें, दसवें, बारहवें और चौदहवें अपूर्वस्पर्शकोंकी आदिवर्गणाका प्रमाण ४० होने से और क्रमशः बारहवें, १५वें, अठारहवे और २१वें अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवगंणाका प्रमाण १२६० होनेसे सदृश है । अपने-अपने खण्ड प्रमाणका अपनीअपनी अपूर्वस्पर्शक शलाकामें भाग देने से समानलब्ध प्राप्त होता है । अङ्कसन्दृष्टि में जैसे १६. २९. २४, २८ = ४ प्राप्त होता है । प्रत्येक संज्वलन कषायके लब्धप्रमाण अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रादिवर्गणा परस्पर तुल्य होती हैं । जैसे अंकसन्दृष्टि में संज्वलनक्रोधकषाय के चौथे, आठवें, बारहवें और सोलहवें इन चार अपूर्नस्पर्धाकोंकी आदिवर्गणा ; सज्वलसमानकषाय के पांचवें, दसवे, पंद्रहवें और २०वें इन चार अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा; संज्वलनमायाकषायके छठे, बारहवें, अठारहवें और २४३ इनचार अपूर्वस्पर्धाकोंकी आदिवर्गणा तथा संज्वलन लोभकषायके सातवें, चौदहवें, इक्कीसवें और अठाईसवें इनचार अपूर्वस्पर्शकोंकी मादिवर्गणा, इसप्रकार चारों संज्वलन कषायसम्बन्धी चार आदिवगंणाएं परस्परमें एक कषायकी आदिवर्गणा दूसरी बायको आदिवर्गणाके तुल्य होती हैं । तुल्यता बताने के लिए संकसन्दृष्टि में जैसे ४ संख्या प्राप्त होती है, अर्थसन्दृष्टिमें अनन्तको संख्या प्राप्त होती है, क्योंकि अपूर्वस्पर्धाकशलाकाका प्रमाण अनन्त है। इस. प्रकार मध्यके अनन्तअपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तुल्य होती है यह सिद्ध हो जाता है। 'ताहे दव्यवहारो पदेसगुणहाणि फड्ढयवहारो। पल्लस्स पढममूलं असंखमुरिणदक्कमा होति ॥८४॥४७५।। अर्थ-अश्वकर्णकरण के प्रथमसमयमें द्रव्यके अवहारसे प्रदेशगुणहानिस्पर्धकका अवहार असंख्यातगुणा है, उससे पल्योपमका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६२ सूत्र ५१५ से ५१७ । घ. पु०६१० ३६६ । जय मूल पृ० २०३२। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ८२] [माथा ८५ विशेषार्थः-प्रश्वकर्णकरण कार्य के प्रथमसमय में अर्थात् अश्वकर्णकरण करने. वाला प्रथमसमयमें जिस अवहारकालके द्वारा प्रदेशाग्रका अपकर्षग करता है उसकी उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार संशा है। वह उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार उपरिमपदोंकी अपेक्षा स्तोक है, इससे अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण लानेके लिए एकप्रदेशगुणहानि स्थाना. न्तरको एकबार भाग दिया जाता है और अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे पुनः पुनः भाग दिया जाता है । इसलिए अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातमुणा है और यह पल्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण है । "इसका प्रमाण पत्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भाग है" यह ज्ञान कराने के लिए "इससे पत्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है" ऐसा कहा गया है । इस भागहारसे एकप्रदेशगुणहानि स्थानान्तरके स्पर्धकों में भाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतने संज्वलनक्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यह अल्पबहुत्व पर कहो जानेवालो निषेकनरूपणाका सामनभूत है । अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे अपूर्वस्व कोंके लिए एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यात गुणा है इसका कारण यह है कि प्रदेशपिण्ड इसप्रमाण से दिये जाते हैं जिससे कि पूर्व स्पर्धककी वर्गणाओं के साथ अपूर्वस्पर्धककी वर्गणा गोपुच्छाकार हो जावे अर्यात् पूर्व और अर्व दोनों स्पर्धक मिनारक गोपुच्छाकार हो आई । यदि अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातगुणाहीन हो जाये तो पूर्वस्पर्षकको वर्गणाओं के साथ अपूर्वस्पर्धकवर्गणाको एकगोपुच्छाकार रचना नहीं हो सकती । अपकषित समस्तद्रव्य अपूर्वस्पर्धक अध्वानसे अपवर्तित होने पर अपूर्वस्पर्धकको एकवर्गणाका द्रव्य पूर्वस्पर्धाकको प्रादिवर्गणाके असंख्यातभागप्रमाण होता है । 'साहे अपुवफयपुटवस्सादीदणंतिमुवदेहि । बंधो हु लताणंसिमभागोत्ति अपुरफड्ढ्यदो।।५।।४७६।। अर्थ-उस कालमें अपूर्व और पूर्वस्पर्धकोंको आदिसे लेकर अनन्त भागस्पर्धकोंका उदय होता है तथा लताकै अनन्तवेंभाग अनुभागसहित अपूर्वस्पर्धाक होकर बन्धको प्राप्त होते हैं। १. जयधवल मूल पृ० २०३२ । २. क. पा० सुत्त पृ० ७६३-६४ सूत्र ५२४ से ५२६ । ५० पु०६१० ३३० । जपधवल मूल पृ० २०३६-३७ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गाथा ८६ ] [ ८३ विशेषार्थ- - तत्काल में अपूर्वस्पर्धक रूप से परिणत अनुभाग सत्कर्म मे से असंख्यात वेंभाग प्रदेशका अपकर्षणकर के उदीरणा करनेवाले के उदयस्थिति में सर्व अपूर्वस्पर्धक - स्वरूपसे अनुभागसत्कर्म उपलब्ध होता है, किन्तु अपूर्वस्पर्धक रूप से परिणत सत्कर्म विश्वशेष (पूर्ण) उदय में नहीं आता, क्योंकि अपूर्वस्पर्धक के समान घनवाले जो परमाणु स्पर्धकों में समयस्थित हैं, उनमें से कितने परमाणु उदयको प्राप्त होते हैं और शेष वहीं पर अवस्थित रहते हैं । इसलिए सर्व अपूर्वस्पर्धकका उदय होता भी है और नहीं भी होता है । इसीप्रकार आदिसे लेकर अनन्तवें भागतक पूर्वस्पर्धक भी उदय व अनुदय स्वरूप हैं । पूर्वस्पर्धकों में भी सदृश घनवाले उदय के अभिमुख रहनेवालोंका उदय होता है और तत् जातिस्वरूप शेष अनुदयरूप रहते हैं, क्योंकि विप्रतिषेधका अभाव है ! लता के अनन्तभागसे ऊपर के अनन्तबहुभाग पूर्वस्पर्धाक नियमसे अनुदयस्वरूप हैं, वे सभी अपने-अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त नहीं होते । पूर्व में संज्वलनकषायके अनुभागका पूर्वस्पर्धक स्वरूपसे बन्ध लता के अनन्त वेंभाग स्पर्धकस्वरूपसे प्रवृत्त होते थे, किन्तु अब उससे अनन्तगुणेहीन घटकर प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे लेकर लताके अनन्तभाग अनुभागवाले स्पर्धकतक जितने स्पर्धक हैं उन स्पर्धक स्वरूप प्रवृत्त होते हैं, किन्तु पूर्वकथित उदयस्वरूप स्पर्धकों से बन्धस्वरूप स्पर्धक अनन्तगुणेहीन अनुभागवाले होते हैं, क्योंकि यहां पर बन्धसे उदय अनन्तगुणा होता है । यह सब अश्वकर्णके प्रथम समयकी प्ररूपणा है' । क्षपणासार *विदयादिसुसमयेसु वि पढमं व अपूव्वफयाण विही *वरितगुणं होणो अनुभाग पडिलमयं ॥ ८६ ॥ ४७७ || १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-३७ ॥ २. क. पा. सुत्त पृष्ट ७६४ सूत्र ५२७ व ५२८ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३७० । ज. घ. मूल पृष्ठ २०३७ । ३. गाथा ८६ के उत्तरार्ध में मुद्रितप्रति (शास्त्राकार) में पाठ त्रुटित था उसके स्थानपर "णवरि अनंतगुणूर्ण बंधो अनुभाग पश्डिसमय" यह पाठ रखा है जो कि क. पा सुत्तके चूणिसूत्र ५२८ पृष्ठ ७४६ ६ जयधवल मूल पृष्ठ २०३७ के विषयानुसार किया है सो सूत्र इसप्रकार है (अणुभागवंध अतगुणहीण) इस आधारसे ४७७ गाथा के उत्तरार्ध में जो पाठ पूर्ति की है उसे विद्वद्द जन विचारें यदि अशुद्ध प्रतीत हो तो शुद्ध कर लेवें। हमने उपर्युक्त आधारसे स्वकीय बुद्धिद्वारा पाठ पूर्ति की है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [ गाथा ८७ अर्थ – द्वितीयादि समयों में भो अपूर्वस्वकविधि प्रयमसमयके समान है। - क्षपणासार किन्तु अनुभागबन्ध प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है । विशेषार्थ - अश्वकर्णकरण के प्रथम समय में जिसप्रकार स्थितिकाण्डक अनुभागeeruse और स्थितिबन्त्र होते हैं उसोप्रकार अश्वकर्णकरणके द्वितीयादिममयों में भी होते हैं, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिके बढ़ने से शस्त्रप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है । चारों संज्वलनकषायका जितना अनुभागबन्ध प्रथमसमय में हुआ था उससे प्रतन्तगुणाहोन अनुभागबन्ध द्वितोयसमय में होता है, तृतीयसमय में उससे भी अनन्तगुणाहीन अनुभागबन्ध होता है। आगे प्रत्येक समय में भी अनुभागबंध अनन्तगुणा घटते हुए होता है | इसोप्रकार अनुभागोदय के विषय में जानना चाहिए । विशुद्धि के बढ़ने से प्रतिसमय श्रेणिरूप से असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकरके गुण श्रेणी में निक्षेपण करता है । 'त्रयाण करणं पडिसमयं एवमेव वरिं तु । दव्वमसंखेज्जगुणं फयमाणं असंखगुगाहीं ॥८७॥ ४७८ ॥ अर्थ -- ( अश्वकर्णकरण के ) प्रथमसमयके समान ही प्रत्येक समय में नवीन स्पर्धकोंको रचना होतो है, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां द्रव्य तो क्रमसे असंख्यात गुणा बढ़ता हुआ अपकर्षण करता है और नवोन स्पर्धकों की रचना असंख्यात गुणीअसंख्यात गुणीहीत होती है । प विशेषार्थ - अश्वकर्णकरणके प्रथम समय में अपकर्षितद्रव्यसे अपूर्वस्पर्धकों की रचना हुई थी, उसीप्रकार अश्वकर्णकरण के द्वितोयादिसमयों में भी अपकषितद्रव्यसे नवीन अपूर्वरकों को रचना होती है और पुराने अर्थात् पहले समयों में रचे गए अपूर्वभी अपकर्षित द्रव्य दिया जाता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय जो प्रदेशाय अपकर्षित किये जाते हैं उनका प्रमाण असंख्यातगुणा असंख्यातगुगा होता जाना है और नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं उनको संख्या प्रतिसमय असंख्यातगुणीअसंख्यात गुगोहोन होतो जाती है । अर्थात् प्रथममें जितने प्रदेशानोंका अपकर्षण हुआ था उससे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रोंका अवर्षण द्वितीयसमय में होता है उससे १. कु०पा० मुल पृष्ठ ७६८ सूत्र ५२६-३० । धवल ० ६ पृष्ठ ३०० 1 ज. ध. मून पृष्ठ २०३७-३८ । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार माथा ६८ ] असंख्यातगुणे प्रदेशात तृतीयसमयमें अपकर्षित होते हैं। प्रदेशाग्रके अपकर्षण होनेका यही क्रम चतुर्थादि समयों में भी है, इस प्रकार मुण श्रेणि असंख्यातगुणो है । प्रथमसमयमै जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हैं द्वितीयसमय में वे भी रचे जाते हैं और उनसे असंख्यातगुणे हीन अन्य भी नवीन अपूर्वस्पर्वकों को रचना होती है। प्रथम और द्वितीय समयोंमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हुए हैं तृतीयसमय में वे भी रचे जाते हैं (उनमें भी सदृशअनुभागवाला अपकर्षितद्रव्य दिया जाता है) और द्वितीयसमयमें रचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंसे असंख्यातगुणहीन नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यहीक्रम चतुर्थ आदि समयों में विरचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंके विषयमें भी जानना। 'पडमादिसु दिज्जकर्म तत्कालजफट्ठयाण चरिमोत्ति हीणकम से काले असंखगुणहीणयं तु हीणकर्म ॥८॥४७६।। अर्थ-उसी समय (काल) में रचे गए नवोन अपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गणासे अन्तिमवर्गणातक प्रदेशाग्न हीनक्रमसे दिये जाते हैं तदनन्तर पूर्वसमयों में रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें असंख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है और द्वितीयादि वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे दिया जाता । विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें रचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुत. प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, द्वितीयवर्गणामें विशेष (चन) हीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं। इस. प्रकार अनन्तरवर्तीवर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे तबतक दिये जाते हैं जबतक नवीनअपूर्वस्पर्धकोंको अन्तिमवर्गणा प्राप्त होती है। पश्चात् उनको अन्तिम वर्गणासे प्रथमसमय में निर्वतित अपूर्वस्पर्धकोंको प्रथमवर्गणा में असंख्यातगुणे होन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं तथा उन्हीं अपूर्वस्पर्धकोंको द्वितीयवर्गणामें उससे होन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। यहांसे लेकर अनन्तरवर्ती सभी वर्गणाओं में विशेष (चय) होन क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । पूर्वस्पर्धकोंकी आदि (प्रथम) वर्गणामें विशेषहीन ही प्रदेशाग्र दिये जाते हैं शेष वर्गणामों में भी विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । तृतीयसमय में विरचित असंख्यातवेंभागमात्र नबीन अपूर्वस्पर्धकोंको आदिवर्गण!में बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है, द्वितोयवर्गणा में विशेष (चय) हीन प्रदेशाप दिये १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३३ से ५३५ एवं ५३७ से ५३६ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७०-७१-७२। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] क्षपणासार [ गाथा - ६० जाते हैं । इसप्रकार अनन्तरवर्ती वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे उन्हीं नवीन अपूर्वस्पर्धकोंको अन्तिमवणातक प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, उससे द्वितीयसमय में निर्वर्तित अपूर्वस्पर्धकों की प्रथमवर्गणा में असंख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । वहांसे लेकर द्वितीयादि वर्गणाओं में सर्वत्र (पूर्व - अपूर्वस्पर्धकों की वर्गणाओं में) विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं' । 'पढमादिसु दिस्लकमं तक्कालजक याण चरिमोत्ति । ही कम से काले होणं हीणं कर्म तत्तो ||८६|| ४८० || अर्थ — उस विवक्षितसमय में रचे गए नवीनअपूर्वस्पर्धकों की प्रथमवर्गणा से लेकर अन्तिमवर्गणातक ही क्रम से और उस विवक्षित समय से पूर्वसमयोंके अपूर्व-पूर्वस्पर्धकों की वर्गणाओं में भी अनन्तर क्रमशः हीन-हीन प्रदेशान दिखाई देते हैं । विशेषार्थ -- अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय में की पूर्वस्पर्धकोंकी एक-एक वर्गणा में जो प्रदेशान दिखाई देता है वह नवीन अपूर्वस्पर्धकों की प्रथम - वर्गणा में बहुत और शेष सभी वर्गणाओं में अनन्तरक्रम से विशेषहीन है । तृतीयसमय में भी यही क्रम है अर्थात् जो प्रदेशाग्र दिखता है वह नवीन प्रपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणा में बहुत तथा ऊपर अनन्तरक्रम से सभीवगंणाओं में विशेषहीन है । जो क्रम तृतीय समय में है वही क्रम प्रथम अनुभाग काण्डक के उत्कीर्ण होने के अन्तिमसमयतक उपरिमसमयों में भी है । Y इसप्रकार प्रथम अनुभाग काण्डकघात होनेपर क्या होता है सो कहते हैं-* पढमाणुभागखंडे पडिदे श्रणुभागसंतकम्मं तु । लोभादस गुणिदं उचरिं वि अांतगुणिदकमं ॥ ६०॥४८१ ॥ अर्थ - प्रथम अनुभागखण्ड के पतन होनेपर लोभकषायसे ऊपर अनन्तगुणा अनुभाग होता । इसप्रकार अनुभागसत्कर्म में अनन्तगुणा क्रम हो जाता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३८ ३६ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३६ एवं ५४०-४१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७१-७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-४० ॥ ४. क० पा० सुत पृष्ठ ७६५ सूत्र ५४२ से ५४८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७२ । 2 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७ गाथा ६९-१ क्षपणासार विशेषार्थ--प्रथम अनुभागकाण्डक उल्कोर्ण होने के अन्तिमसमयसे अनन्तर अगले समयमें अनुभागसत्त्वमै विशेषता हो जाती है जो इस प्रकार है-संज्वलनलोभमें अनुभागसत्त्व स्तोक है, उससे संज्वलनमायामें अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है, उससे संज्वलनमानका अनुभागसत्व अनन्तगुणा है और उससे भो सल्बलनक्रोधका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्णकरणकाल में यही क्रम है। 'आदोलस्त य पढमे णिवत्तिदअपुब्बफड्डयाणि बहू । पडिसमयं पलिदोवममूलासंखेज्जभागभजियकमा।६११।४८२|| अर्थ-आंदोल अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं उसके आगे प्रतिसमय पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित क्रमसे हैं । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें जो अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या बहुत है, द्वितीयसमय में जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या असंख्यातगुणीहीन है । प्रथमसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्शकोंको संख्याको पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतने दूसरे समय में रचित नवोन त्यपूर्वस्पर्धक हैं । द्वितीय समयके अपूर्वस्पर्धाकों को पल्यके प्रयमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो प्राप्त हो तत्प्रमाण तृतीयसमय में नवोन अपूर्व स्पर्धक रचे जाते हैं । इसप्रकार अश्वकर्णकरणकालमें प्रतिसमय जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं वे क्रमसे असंख्यातगुणहीन होते जाते हैं। असख्यातगुणाहोन प्राप्त करने के लिए पर्वाके अपूर्णस्पर्धकोंको पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातशेंभागसे भाजित किया जाता है। "आदोलस्त य चरिमे अपुवादिमवग्गणाविभागादो । दो चढिमादीणादी चढिदवा मेत्तणंतगुणा ॥६२|४८३॥ अर्थ--आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणकालके अन्तिमसमयमें प्रथम स्पर्धक की आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयादि स्पर्शकोंकी आदिवर्गणाके अविभाग १. जयश्चबल मूल पृष्ठ २०४० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५४६ से ५५३ । धवल पु०६१४ ३७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४१। ४. क. पा. सुत्त पधु ७६६ सूत्र ५५४ से ५५७ तक । धवल पु० ६ प ३७२-७३ । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ८८ [गाथा ६३-६५ प्रतिच्छेद दुगुणे आदि हैं। अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। विशेषार्थ:--अश्वकर्णकरणके अन्तिम समय में लोभकषायको प्रथमअपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी आदिवगंणामें अविभागप्रतिच्छेद स्तोक हैं । द्वितीय अपूर्वस्पर्धकको प्रथमवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे और तृतीय स्पर्धकको प्रथमवर्गणा अविभागप्रतिच्छेद तिगुणे हैं। इसप्रकार प्रथमस्पर्धककी प्रथमवर्गणासम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे जितनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदारका संकल्प हो उतनवें स्पर्धकको प्रथमवर्गणामें प्रथमस्पर्धक सम्बन्धी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदाग्नसे उतनागुणा अविभागप्रतिच्छेदाग्र होता है । इस प्रकार अनन्तस्पर्धक चढ़नेपर अनन्तवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदारका गुणाकार अनन्त है । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगृणे हैं, यह कथन एकपरमाणुसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदको अपेक्षा किया गया है सर्वपरमाणुको अपेक्षा किंचिदऊन दुगुणा तिगुणा आदि क्रम लिये है, क्योंकि प्रतिवर्गणामें परमाणुको संख्याहीन होती जाती है । इसोप्रकार माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धकोंमें अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए'। 'आदोलस्स य पढमे रसखंडे पाडिदे अयुव्वादो। कोहादी अहियकमा पदेसगुणहाणिफया तत्तो ॥६३॥४८४॥ होदि असंखेज्जगुणं इगिफड्डयवग्गणा अणतगुणा । तत्ती अर्णतयुरिणदा कोहस्स अपुवफड्ढयाणं च ॥६४॥४५॥ माणादीणहियकमा लोभगपुव्वं च वग्गणा तेसि । कोहोति य अठ्ठपदा अणंतगुणिदक्कमा होति ॥६५॥४८६॥ अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम अनुभागखण्डके पतित होने पर क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे हैं। प्रदेशगुणहानिके स्पर्धक उससे १. जयबल मूल पृ. २०४१ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६-६७ सूत्र ५५८ से ५७७ । धवल पु०६ पृ० ३७३ | जयपवल मूल पृष्ठ २०४२-२०४३ । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५ ] [ २ असंख्यातगुणे हैं, एक स्पर्धकसम्बन्धीवर्गणा अनन्तगुणी हैं, उससे अनन्तगुणी कोधकी अपूर्वस्पर्धक वर्गणाएं है इससे मानादि कषायों में विशेषअधिक क्रमसे हैं, लोभके पूर्वस्पर्धक और उनकी वर्गणाओंसे कोषपर्यन्त प्राठपद अनन्तगुणित क्रमसे हैं । क्षपणासार विशेषार्थ :- अश्वकर्णकरण के प्रथम अनुभागकाण्डकके नष्ट होनेपर संज्वलनकषायों के शेष अनुभागसम्बन्त्र अल्पबहुत्व इसप्रकार है - क्रोधकषायके पूर्वस्पर्धक सबसे स्तोक हैं उससे मानकषायके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं, उससे मायाकषायके पूर्वस्पर्धक विशेषअधिक और इससे लोभकषायसम्बन्धी अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं । इनसे भी एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अपूर्वस्पर्धक एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धकोंके असख्यातवें भागप्रमाण हैं । एक स्पर्धककी वाएं अनन्तगुणी है, क्योंकि पूर्व या अपूर्वस्पर्धकों में एकरपर्धकसम्बन्धी वर्गणाए अभय अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तभाग हैं. सर्व स्पर्धकों में वर्गणाओंका प्रमाण सदृश है । संज्वलन की अपूर्वस्पर्धक वर्गणाएं अनन्तगुणी हैं, क्योंकि संज्वलनको धके अपूर्वस्पर्धक अनन्त है तथा तत्सम्बन्धी वर्गणाएं एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धकों से असंख्यात भागगुणी हैं। एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणानों को एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धको के असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धकों से गुणा करनेपर संज्वलन कोष के सर्व अपूर्वस्पर्धकों की संख्या प्राप्त हो जाती है जो एकस्पर्धाकसम्बन्धी वगंणाओंसे अनन्तगुणो हैं, उससे संज्वलनमानके अपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाएं विशेषअधिक हैं, उससे संज्वलनमायाके अपूर्वस्पर्धकों की वर्गणाएं विशेषअधिक हैं तथा इससे संज्वलन लोभकषाय के अपूर्वस्पर्धकों की वर्गणाएं विशेषअधिक हैं, क्योंकि अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे हैं । लोकषाय के पूर्वस्पर्धक अनंतगुणे हैं, क्योंकि पूर्ववर्षकों के अनन्तभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, अपूर्वस्पर्धक एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के असंख्यातवें भाग: हैं । अपूर्णस्पर्धकों को एकस्पर्धक वर्गणासे गुणा करनेपर अपूर्वस्पर्धककी वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है । पूर्वस्पर्धकोंके अनन्तभागप्रमाण पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी नानागुणहानिशलाकासे एकस्पर्धककी वर्गणा अनन्तगुणीहीन है इसलिए अपूर्वस्पर्धक वर्गणाओंसे पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे हैं यह सिद्ध हो जाता है | संज्वलनलोभके पूर्वस्पर्धकों की वर्गणा अनन्तगुणी हैं, यहां गुणकार एकस्पर्श क सम्बन्धी वर्गणाशलाका है । मायाकषाय के पूर्व स्पर्धक लोभकषाय के पूर्वस्पर्धकों से अमन्तगुणे हैं, क्योंकि अनुभागखण्ड के नष्ट हो जावेपर लोभादि संज्वलनकषायों के पूर्वस्पर्शक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ६६ अनन्तगुणित वृद्धि क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं । इसप्रकार लोभसंज्वलन के पूर्वस्पर्धकोंसे मायासंज्वलनके पूर्वस्पर्धकोंका अनन्त गुणापना विसंवादसे रहित है। शङ्खा-लोभसंज्वलनके पूर्वस्पर्ध कोंसे अनन्तगुगो वर्गणामोंसे मावास्पर्धक अनन्तगुणे कैसे हो सकते हैं ? समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि वर्गणाशलाकागुणकारसे स्पर्धकशलाकागुणकार अनन्तगुणा है। संज्वलनलोभके पूर्वस्पर्ध कोंको वर्गणाका प्रमाण प्राप्त करने के लिए जिस अनन्तरूप संख्यासे गुणा किया जाता है उस अनन्तसंख्यासे अनन्तगुणी वह संख्या है जिससे संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्धक प्राप्त करने के लिए लोभसंज्वलन के पूर्वस्पर्धकोको गुणा किया जाता है । संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्षकोंसे संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाए अनन्त गुणी हैं उससे मानकषाय के पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे और उन्हीं को वर्गणाए उनसे अनन्तगुणी, उससे क्रोधकषायके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे तथा उससे उन्हीं की वर्गणाए' अनन्तगुणी हैं। रपालिदिखा संखेसहस्सगाणि गंतूणं । तत्थ ये अपुवफड्ढयकरणविही णिट्टिदा होदी ।।६६।।४८७॥ अर्थ-इसप्रकार संख्यातहजार अनुभागकाण्डकघात ध स्थितिकाण्डकघात व्यतीत हो जानेपर वहां अपूर्वस्पर्धककरणको विधि पूर्ण होती है । विशेषार्थ-हजारों अनुभागकाण्डक हो जानेपर एकस्थितिकाण्डक होता है। संख्पातहजार स्थिति काण्डक और उनसे हजारोंगुणे अनुभागकाण्डकोंके अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा प्रतिसमय अपूर्वस्पर्धकों को रचना क्रिया होती है । इसप्रकार अन्तमुहर्त कालतक अश्त्रकर्णकरण प्रवर्तमान रहता है, क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्तकाल में हो संख्यातहजारस्थिति काण्डकों और उनसे हजारोंगुणे अनुभागकाण्डकों के द्वारा अपूर्वस्पर्धकोंको रचना पूर्ण हो जाती है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २०४२-४३ । २. "एवमंतोमुहुत्तमस्तकण्याकरण" (क. पा. सुत्त पृ०७६७ सूत्र ५.७८; प. पु. ६ पृष्ठ ३७३) अयधवल मूल पृष्ठ २०४३ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६७-६.] क्षपणासास [r 'हयकरणकरणचरिमे संजलणाणटुवस्सठिदिबंधो। वस्साणं संखेज्जसहस्साणि हवंति सेसाणं ॥१७॥४८॥ अर्थ-अश्वकर्णकरणके अन्तिमसमयमें संज्वलनकषायोंका आठवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है और शेषकर्मोका संख्यातहजारवर्षवाला स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-अश्वकर्ण करणकाल के प्रथमसमय में संज्वलनकषायका बंघ अंतर्मुहूर्तकम १६ वर्ष और ज्ञानावरणादि शेषकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष होता था । जब अपूर्वस्पर्धक निर्वर्तनाका चरमसमय होता है उससमय संज्वलन क्रोध-मान-मायालोशमा स्पतिबन्ध माडर जो कम होता है उस बन्धकी स्थिति आठवर्षमात्र होती है, किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातियाकर्म तथा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघातियाकर्मोंका अर्थात् इन छहोंकोका स्थितिबन्ध हजारों स्थितिबंधापसरण के द्वारा संख्यातगुणा घटकर संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि ये छहकर्म मोहनीयकर्मके समान अतिप्रशस्त नहीं हैं। 'ठिदिसत्तमघादीणं असंखवस्साण होति घादीणं । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि हवंति णियमेण IIE८॥४८॥ अर्थ-समातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण और घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षका नियमसे होता है। विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके चरमसमयमें नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यातवर्ष और ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय इन चार घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है। इसप्रकार अश्वकर्णकरणका काल समाप्त होता है। आगे बादरकृष्टिकरणकेकालका प्रमाण जाननेके लिए गाथासूत्र कहते हैं--- छक्कम्मे संछुद्ध कोहे कोहस्स वेदगद्धा जा। तस्स य पढमतिभागो होदि हु हयकरणकरणद्धा ॥६६॥४६॥ १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६७ सूत्र ५७६-८० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७४ । जयघवल मूल पृष्ठ २०४४ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७ सूत्र ५८१.८२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३७४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४४ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] क्षपणासार [ माथा १०० विदियतिभागो किट्टीकरगाद्धा किट्टिवेदगद्धा हु । तदियतिभागो किट्टीकरणो हयक सणकरणं च ॥१०॥४६१॥ अर्थ--(छह नोकषायोंको संज्वलनक्रोध में संक्रमण कर के नाश करनेके अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अन्तमुंहतंमात्र जो क्रोधवेदककाल है उसमें संख्यातका भाग देकर बहुभागके समानरूपसे तीन भाग करते हैं तथा अवशेष एकभागको संख्यातका भाग देकर उनमें से बहुभागको प्रथम त्रिभागमें एवं अवशिष्ट एकभागमें संख्यातका भाग देकर बहुभाग दूसरे त्रिभागमें तथा अवशेष एक भागको तृतीय विभाग में जोड़ते है ।) इसप्रकार करते हुए प्रथमत्रिभाग कुछ अधिक हुआ और वह अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरणका काल है सो पहल हो ही गया। द्वितीयत्रिभाग किंचित् ऊन है सो चार संज्वलनकषायोंका कृष्टि करनेका काल है जो अब प्रवृत्तमान है एवं तृतीयत्रिभाग किंचित ऊन है जो कि क्रोधकृष्टिका वेदककाल है जो आगे प्रवृत्तमान होगा। इस कृष्टिकरण काल में भी प्रश्वकर्ण करण पाया जाता है, क्योंकि यहां भी अश्वकर्णके आकाररूप 'संज्वलनकषायोंका अनृभागसत्त्व या अनुभागकाण्डक होता है अत: यहां कृष्टिसहित अश्वकर्णकरण पाया जाता है । विशेषार्थ-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह नोकषायरूप कर्मप्रकृतियों का संज्वलन क्रोधमें संक्रमण होकर नष्ट हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण क्रोध वेदककाल होता है । उसके तीन भाग होते हैं; उन तीन भागों में से प्रयमभाग सबसे बड़ा होता है, द्वितीयभाग उस प्रथमभागसे विशेषहीन होता है और तृतीयभाग इस दुसरे भागसे भी हीन कालवाला होता है । वह इसप्रकार है--क्रोध वेदककालको संख्यातसे भाजितकर उसमें से बहुभागके तीन समखण्ड होते हैं । क्रोषवेदककाल जो संख्यातवां एकभाग शेष रहा उसको पुनः संख्यातसे भागदेकर बहुभाग प्रथम विभागमें मिलानेपर प्रथमभागसम्बन्धी कालका प्रमाण होता है, शेष एक भागको पुनः संख्यातसे भागदेकर बहुभाग द्वितीयभागमें मिलाने से द्वितीय भागके कालका प्रमाण होता है। शेष एकभागको तृतीयभागमें मिलानेपर तीसरेभागके कालका प्रमाण होता है | इस हीन क्रमसे क्रोषवेदककालके तीनखण्ड हैं। यद्यपि स्थूलरूपसे प्रत्येकभागको त्रिभाग कहा गया है तथापि वे क्रोधवेदककालके त्रिभागसे कुछ हीन या अधिक हैं। उन तीन भागों में से प्रथमभाग अश्वकर्ण काल है, द्वितीयभाग कृष्टिकरणकाल है और तृतीयभाग कुष्टिवेदककाल हैं। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथ। १०१-१०९ क्षयमासार [१३ अश्वकर्णकरणके समाप्त होनेपर अर्थात् प्रथमभागका काल समाप्त होनेपर तदनन्तरकालमें अन्यस्थितिबन्ध होता है। जो पारों संज्वलनकषायोंका अन्तर्मुहुर्तकम आठवर्ष है और कर्मों का स्थितिबन्ध पूर्व के स्थितिबन्धसे संस्थातगुणाहीन है अन्य अतुभागकाण्ड क होता है । अन्य स्थितिकाण्डक होता है जो कि मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रौर अन्त राय इन चार शातियाकर्मोका संख्यातसहस्रवर्ष है और नामगोत्र, वेदनीय इन तीन अघातियाकोका असंख्यातबहुमाग है'। कृष्टिकरणकाल में अश्वकरण भी होता है, क्योंकि अनुभाग की अपेक्षा कृष्टियों की रचना अश्वकर्णकरण भी होता है जिसके द्वारा संज्वलनकषायरूप कर्म कृश किया जाता है, उसकी कृष्टि यह सार्थक संज्ञा है । यह कृष्टिका लक्षण है। कोहादीणं सगसगपुवापुव्वगदफड्डयेहितो । उक्कड्डिदण दव्वं ताएं किट्टी करेदि कमे ॥१०१॥४६२|| अर्थ-क्रोधादिके अपने-अपने पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोंसे अपकर्षित द्रव्यके द्वारा क्रमसे कृष्टियां करता है । विशेषार्थ-कृष्टिकारक प्रथम समय में क्रोधके पूर्व और अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर क्रोध कृष्टियों को करता है । मानके पूर्व अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मानकृष्टियों को करता है । मायाके पूर्व और अपूर्वस्पर्शकोंसे प्रदेशानका अपकर्षणकर मायाकृष्टियों को करता है । लोभके पूर्व-अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकर लोमकृष्टियोंको करता है । उक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिदिणिबद्धो फड्ढयगे सेसई गिभागो ॥१०२॥४६३॥ अर्थ-अपकर्षितद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजितकर उसमें से बहुभागद्रव्य स्वादर कृष्टियों में दिया जाता है और एकभाग पूर्व-अपूर्वस्पर्धकों में दिया जाता है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७-७६८ सूत्र ५८५-५८८ । २. किसं कम्मं कदं जम्हा, तम्हा किट्टी ।।७३३।। एदं लक्खणं ॥७३४।। (क. पा. सुत्त पृ. ८०८) ३. धवल पु०६ पृष्ठ ३७४.३७५ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपणासार [गाया १०३-१०४ विशेषार्थ-डेढ गुणहानि समय प्रबद्धप्रमाण सत्ता द्रव्य है, इसको अपकर्षणभागहारसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह अपकर्षित द्रध्य है । उस अपकर्षितद्रव्यको पल्योएमके असंख्यातवेंभागसे भाजित करने पर जो द्रव्य प्राप्त हो वह तो पूर्व और अपूर्वस्पर्धकों मैं निक्षिप्त किया जाता है । शेष बहुभागद्रव्य से बादरकृष्टियां निर्वतित होती हैं इसप्रकार अपकषितद्रव्यका विभाजन होता है। किट्टीमो इगिफड्ढयवग्गण संखाणगांतभागो दु । एक्केक्कम्हि कसाए तियंति श्रहना अगांताबा ॥१०३॥४६४॥ अर्थ-कृष्टियों की संख्या एक स्पर्धकको वर्गणाओंके अनन्तवें भाग है'। एकएक कषायकी तीन-तीन कृष्टियां अथवा अनन्त कृष्टियां है। विशेषार्थ-चारों कषायोंकी कृष्टियां गणनासे एकस्पर्धकको वर्गणाओंकी संख्याको अनन्तकाभाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतनी हैं अर्थात् अनन्त हैं, किन्तु संग्रहकी अपेक्षा संग्रहकृष्टि १२ हैं, क्योंकि क्रोघ-मान-माया-लोभ इन चारों कषायों में से प्रत्येकको तीन-तीन संग्रक्रष्टियां हैं। एक-एक ग्रह कृष्टिको अनन्त अवय वकृष्टियां होती हैं इसकारणसे "अथवा अनन्त होती है" ऐसा कहा गया है। अकसायकसायाणं दव्धस्स विभंज जहा होदी। किद्विस्स तहेव हवे कोहो अकसायपडिबद्धं ॥१०४॥४६५।। अर्थ-अकषाय अर्थात् नोकषाय और कषायमें द्रव्य (समयप्रबद्ध) का जिस प्रकार विभाजन होता है उसीप्रकार कृष्टियों में भी द्रव्यका विभाजन होता है, किन्तु अकषायका द्रव्य शोधकृष्टि में सम्मिलित होता है। १. धवल पु०६ पृष्ठ ३७५ । २. बल पु.६ पष्ठ ३७६ । "ताश्च किट्टयः परमार्थतोऽनन्तापि स्थुरजाति भेदापेक्षया द्वादश कल्प्यन्ते, एककस्य कषायस्य तिस्रस्तिस्रः ।" (जयषवल पु०६ पृष्ठ ३८१ टि.नं.५) "एक्के कम्मि कसाए तिष्णि तिणि किट्टीओ त्ति एवं तिगतिग" क. पा. सुत्त पृष्ठ ८०६ सूत्र ७१४। ३. "एक्के किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ त्ति एदेण अघवा अणतामओ जादा । (क. पा. सुत्त पृष्ठ ८०६ सूत्र ७१५ । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०४] क्षपणासाच [६५ विशेषार्थ--विभाजन द्वारा समयबद्धका जितना दव्य चारित्रमोहको मिलता है उसमें से आधा नोकषायसम्बन्धी है और आधा क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार कषाय सम्बन्धी है । इसप्रकार प्रत्येक कषायको चारित्रमोहसम्बन्धी अर्धद्रव्यका चतुर्थ भाग मिलता है अर्थात् कोधकषायका चारित्रमोहनीय द्रव्य का आठवांभाग तथा मानका, मायाका और लोभका भी चारित्रमोहनीयद्रव्यका आठवी-आठवा भाग है। नोकषायस्वरूप चारित्रमोहनीयका आधा द्रव्य है । क्षपक अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर १३ प्रकृतियों का अन्तरकरण करके फिर नपुसकवेदको क्षपणाका प्रारम्भ करता है । पुनः उसका प्रारम्भ करते हुए गुण संक्रमणके द्वारा नपुसकवेदको पुरुषवेद में संक्रान्त करता है, क्योंकि नवम गुणस्थानमें अन्तरकरण करनेके बाद जो संक्रमण होता है वह आनुपूर्वी क्रमसे होता है अतः शेषकषायोंमें नपुसकवेद और स्त्रोवेदका संक्रमण न करके नपुंसकवेदका क्षपण करता हुआ नपुसकवेदको द्विचरमफालीके प्राप्त होने तक जाता है, उसके बाद अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर नपुसकवेद नष्ट हो जाता है फिर स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ करके अन्तमूहर्त प्रमाण उसके क्षपणाकालसम्बन्धो चरमसमय में स्त्रीवेदको अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर वीवेदका भी सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेद में संक्रान्त हो जाता है । पुनः इस पुरुषवेद (जिसमें नपुंसकवेद और वीवेद, इन दोनों वेदोंका द्रव्य संक्रान्त हो चुका है) के साथ शेष छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) का द्रव्य क्रोधसंज्वलनमें संक्रान्त हो जानेपर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट संचय होता है, क्योंकि उससमय क्रोधसंज्वलनका द्रब्य चारित्रमोहनीयके द्रव्यके (+) माठ भागोंमें से पांचभागप्रमाण हो जाता है। इसप्रकार | नोकषायोंका द्रव्य जो चारित्रमोहनीयके अर्धद्रव्यप्रमाण है वह क्रोधकृष्टि में सम्मिलित होता है। क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टि से प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्र तेरहगुणा कैसे संभव है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्वप्रदेशरूप द्रव्य अङ्कसन्दृष्टिको अपेक्षा ४६ कल्पित कीजिए | इसके दो भागों में से असंख्यातवेंभागसे अधिक एकभाग (२५) तो कषायरूप द्रव्य है और असंख्यातवें भागसे होन शेष दूसराभाग (२४) नो १. जयधवल पु. ६ पृष्ठ १११-११२ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] क्षेपणासार [माथा १.५ कंषांयरूप द्रव्य है । अब यहापर कषायरूप द्रव्यको क्रोधादि चारकषायोंकी १२ संग्रहकृष्टियों में विभाग करतेपर क्रोध प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य (२) अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनोयक मंके सकल (४६) द्रव्य की अपेक्षा कुछ अधिक २४यो भागप्रमाण है । प्रकृत हुष्टिकरणालमें नोकपाका सर्थद्रव्य भी संज्वलनकोषमें संक्रमित हो जाता है जो कि सर्व ही द्रव्यकृष्टि करनेवालेके कोषको प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे हो परिणत होकर अवस्थित रहता है । इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथमसंग्रहकृष्टिरूप से हो उसके परिणमनका नियम है। इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रका स्वभाग (२) इस वोकषायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर (२+२४=२६) क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिके दो अञ्प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा तेरहगुणा (२४१३=२६) सिद्ध हो जाता है । अतएव चूर्णिकारने उसे तैरहगुणा बतलाया है। इसप्रकार उपयुक्त सूत्रसे सूचित स्वस्थान-अल्प बहुत्व इसप्रकार जानना चाहिए। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्न संख्यातगुणित हैं। मानका स्वस्थानअल्पमहत्व इसप्रकार है-मानको प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाप्र सबसे कम है, द्वितीयसंग्रहकृष्टि में विशेष अधिक हैं, तृतीय संग्रह कृष्टि में विशेषअधिक हैं । इसीप्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान-अल्पबहुत्व जानना चाहिए । पडमादिसंगहामो पल्लासंखेज्ज भागहीणामो । कोहस्स तदीयाए भकप्तापाणं तु किट्टीओ ॥१०५॥४६६।। अर्थ-संग्रहकृष्टिकरणको प्रथमं (जघन्य) संग्रहकृष्टिसे लेकर आगे-आगे क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टितक द्रव्य हीन होता गया है । प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतना द्रव्य द्वितीयसंग्रह कृष्टि कम है। कृष्टिकरण की अपेक्षा कोष की तृतीयकृष्टि (उदयापेक्षा क्रोधकी प्रथमकृष्टि) में नोकषायका द्रव्य मिल जाता है । १. क. पा. सुत्त ८१२ । गाथा ६६ से १०४ तक ६. गाथाओंकी टीका मात्र क. पा. सुत्त और घबल पु. ६ के आधारसे लिखो गई है क्योंकि जयधवल मूल (फलटनसे प्रकाशित) के पृष्ठ २०४५ से २०४८ के पृष्ठ नहीं मिल सके । इन गाथाओं सम्बन्धी विषय उन पृष्ठोंमें होगा ऐसा प्रतीत होता है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा १०५] क्षपणासार [६७ विशेषार्थ-गाथा १०५ का विशेषार्थ कषाय गहुड़ गाथा १७० और जय धवलमूलटीका के आधारसे लिखा जा रहा है। क. पा. गाथा १७० में उदयको अपेक्षा 'प्रथमादि' क्रम रखा गया है अतः यहां भी उदयकी अपेक्षा हो प्रथमादि का लिखा जावेगा । जैसे ऊपर गाथा में तो "क्रोधको तृतीयकृष्टि में नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, किन्तु उदयापेक्षा वह तृतीयकृष्टि ही प्रथमकृष्टि है इसीलिए क. पा. गाथा १७० में "प्रथमकृष्टि में नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, क्योंकि कुष्टिरचना तो नोचेसे ऊपरको ओर होती है अर्थात् जघन्धअनुभागसे उत्तरोत्तर अनुभाग बढ़ते हुए कृष्टिरचना होती है, किन्तु प्रथम उदय अधिक अनुभागवाला होता है तथा आगे उत्तरोत्तर होन अनुभागका उदय होता जाता है अर्थात् उदय ऊपरसे नीचेको और होता है। क्रोधोदयको अपेक्षा द्वितीयसंग्रहकष्टि के प्रदेशाग्र अल्प हैं, उससे उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टि में संख्यातगुणे अर्थात् तेरहाणे प्रदेशाग्र हैं, क्योंकि इस कृष्टि में नोकषाय का द्रव्य मिल गया है । उसी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टि में विशेष अधिक द्रव्य है, क्योंकि यह बादमें उदय आवेगो। इस प्रकार क्रोधकषायको तीनसंग्रहकष्टिसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना। शंका-क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टि तेरहगुणी किस प्रकार है ? समाधान-अङ्कसन्दृष्टिमें मोहनोयकर्मका सर्वद्रव्य (४६) है । इसके दो भाग करनेपर असंख्यातवेंभाग अधिक एकभाग कषायका द्रव्य है जिसकी अङ्कसन्दृष्टि (२५) है और असंख्यातवेंभागसे होन शेष दूसरा नोकषायसम्बन्धी द्रव्य है, जिसकी अंकसंदृष्टि (२४) है । कषायभागको बारह संग्रहकृष्टियों में विभाजित करनेपर क्रोध कषाय को प्रथमसंग्रहकृष्टिमें कषायसम्बन्धो द्रव्यका १२वां भाग है उसकी सन्दृष्टि (२) है । चोकषायका सर्वद्रव्य भी क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि में मिलता है, क्योंकि यह उदयागतकृष्टि है । कषायसम्बन्धी प्रत्येकसंग्रहकृष्टिके द्रव्यसे नोकषायका द्रव्य १२ गुणा है, क्योंकि कषाय द्रव्य का १२ संग्रहकष्टियों में विभाजन होनेसे प्रत्येक संग्रहकृष्टिको १२ वें भाग द्रव्य मिला है । क्रोधकषायको द्वितोयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य कषायसम्बन्धी सकलद्रव्यका १२ वा भाग है जिसकी सन्दष्टि दो है अतः द्वितीयसंग्रहकष्टि के द्रव्य (२) से उदयागत प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य (२६) तेरहगुणा सिद्ध हो जाता है । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द 1 i 1 2 ६ : ६ T ८ ]. क्षपणासार [ गाथा १०५ शंका- क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यसे तृतीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य कितना अधिक है? समाधान -- क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यको पत्य. असंख्यात वैभाग से खण्डित का एक तृतीय प्रकृष्टक द्रव्य विशेष अधिक है।' उदय (वेदक ) की अपेक्षा मानकषायको प्रथम संग्रहकृष्टि अथवा कारककी अपेक्षा मानकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्तोक है; उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि तीव्रअनुभागवाले प्रदेशपिण्ड से मन्दप्रनुभागवाला प्रदेश पिण्ड अधिक होता है । द्वितीय संग्रहकृष्टि से तृतीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है । विशेष के लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवांभाग है, यह प्रतिभाग स्वस्थानके लिए है अर्थात् मानकषायकी तीन संग्रहकृष्टियों में परस्पर विशेषका प्रमाण स्वस्थानविशेष है । इसी प्रकार माया व लोभकषाय में भी स्वस्थानविशेष जानना चाहिए । मानकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टि से क्रोध कषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रश्य विशेष अधिक है। यहां पर विशेषके लिए प्रतिभाग आवलिका असंख्यातवां भाग है। क्योंकि यहां परस्थानविशेष है कारण कि मान और क्रोध दोनों भिन्न-भिन्न कषाय है । क्रोष कषाय की तृतीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है; यहांविशेषका प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवां भाग है । मायाकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टि से विशेषअधिक है, यहां विशेषअधिक के लिए प्रतिभाग आवलिका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि परस्थान है । मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि के द्रव्यसे माया कषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है। यहां विशेष अधिक के लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यांतवभाग है; क्योंकि स्वस्थान है । इससे मायाकषायकी तृतोय संग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है यहां भो स्वस्थान होने से विशेषअधिकके लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवांभाग है । मायाकषायकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे लोभकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है, यहां पर परस्थान होनेसे विशेषअधिक के लिए प्रतिभाग आवलिका असंख्यातबांभाग है, क्योंकि माया व लोभकषाय भिन्न-भिन्न कषाएं हैं। लोभकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टि से लोभकी ही द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है और इससे तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है। यहां द्वितीय और तृतीय दोनों ही कृष्टियों में विशेषअधिक के लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि स्वस्थान है । इस १. "विसेसो पलिदोबमस्स अखेज्जदिभाग पडिभागो" (क. पा. सुत्त पृ० ८ १२ सूत्र ७६२ ) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०६-१०७ क्षपणासाय [e प्रकार क्रोधकषायको उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य संस्पात गुगा अर्थात् तेरहगुणा है, क्योंकि इसमें नोकषायका द्रव्य मिल गया है।' किस कषायोदयसे श्रेणी चढ़नेवाले के कितनी संग्रहकृष्टियां होती हैं - कोहस्त य माणस्स य मायालोभोदएण चडिदस्स । बारस णव छ तिगिण य संगह किट्टी केमे होंति ॥१०६॥४७॥ अर्थ-क्रोध-मान-माया अथवा लोभके उदयसे क्षपकणि चढ़नेवाले के क्रम से १२-६.६ व ३ संग्रहटियां होती है। विशेषार्थ:-संज्वलनशोधके उदयसहित जो जीव श्रेणी चढ़ता है उसके तो चारों कषायोंकी बारह संग्रहकृष्टि होती हैं, क्योंकि प्रत्येक कषायकी तीन-तीन संग्रहकाष्टि होती हैं । मानकषायके उदयसहित श्रेणी चढ़ता है, उसके कृष्टिकरणकालसे पहले ही कोषका संक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए संज्वलनक्रोधको संग्रहकष्टि नहीं होती अवशेष तीन कषायों की है संग्रहकृष्टि होती हैं, मायाकषायके उदयसहित जो श्रेणि चढ़ता है उसके क्रोध व मानकषायका कृष्टिकरणकालसे पहले ही संक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए दो कषायोंकी छहसंग्रहकष्टि होती है तथा लोभकषाय के उदयसहित जो श्रेणो चढ़ता है उसके क्रोध-मान व मायाकषायका कृष्टिकरणकालसे पहले हो स्पर्धकरूपसे संक्रमणकरके क्षय होता है इसलिए एक लोभकषायकी ही तीन संग्रहकृष्टि होती हैं । यहां जितनी संग्रहकृष्टि होती हैं उन्हीं में कृष्टिप्रमागका विभाग पंपासम्भव जानना चाहिए। अन्तरकृष्टियोंकी संख्या व उनका क्रम-- संगहगे एक्कक्के अंतरकिट्टी हवदि हु अंकता। लोभादि अांतगुणा कोहादि अांतगुणहीणा ॥१०७॥४६॥ अर्थ-एक-एक संग्रहकृष्टिमैं अन्त र कृष्टियां अनन्त हैं तथा उन संग्रहं कृष्टियोंमें लोभकषायसे लेकर क्रमसें अनन्तगुणा बढ़ते हुए और क्रोधकषायसे लेकर ऋषसे --- घटता हुआ अनुभाग जानना । १. जयषवल मूल पृष्ठ २०८२ से २००६ तक । २. जयधवल मूल पृष्ठ २०७१ से २०७३ । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 [ गाथा १०८ विशेषार्थ - क्रोध- मान-माया व लोभ इन चारोंकषायों में प्रत्येककषाय की तीन-तीन संग्रहकृष्टि होकर सर्व (४X३) १२ संग्रहकृष्टियां होती हैं तथा इनमें से एकएक संग्रहकृष्टियों में अवान्तर कृष्टियां अभ्रव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तभागप्रमाण अनन्त होती हैं और इनके अन्तर भी अनन्त हैं। एक-एक कृष्टिसम्बन्धी अत्रान्तरकृष्टियों के अन्तर की संज्ञा "कृष्टि अन्तर" है एवं संग्रहकृष्टि के ग्यारह अन्तरालोंमें रची गई कृष्टियोंकी "संग्रहकृष्टिअन्तर" संज्ञा है। इनमें से कृष्टि अन्तरके गुणकारको 'स्वस्थानगुणकार' और संग्रहकृष्टि अन्तरके गुणकारको "परस्थान गुणकार” संज्ञा है । १००] क्षपणासार लोभकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें अनुभाग स्तोक है, उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि मैं अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तगुणा क्रम लीये क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकूष्टितक जाना चाहिए, यह कथन अनुलोभकी अपेक्षा है । विलोमकी अपेक्षा कोषकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमें अनुभाग सबसे अधिक है, उससे क्रोधकधायकी द्वितीय संग्रहकूष्टि में अनन्तगुणाहीन है । इसप्रकार क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे लेकर बोकी प्रथम संग्रहकूष्टिपर्यन्त अनन्तगुणेहीन क्रमसे अनुभाग होता है । इसका विशेषकयन लागे गाथा १०५ में किया जावेगा । उपर्युक्त गाथाके कथनका स्पष्टीकरण करनेके लिए गाथा सूत्र कहते हैं 'लोभादी कोहोति य सट्टांत रमणंत गुणिदकमं । ततो वादरसंग किट्टी अंतरमतदिकमं ॥ १०८ ॥ ४६६ ॥ अर्थ — लोभकषायसे क्रोधकषायपर्यन्त स्वस्थान अन्तर अनन्तगुणा क्रम लीये तथा उस स्वस्थान अन्तरसे बादर संग्रह कृष्टिअन्तर अनन्तगुणा क्रमसहित है । — १. "एक्के किस्से संगह किट्टीए अणताओ किट्टीओ । तासि अंतराणि वि अणताणि । तेसिमंतरा सण किड्डी अंतराइ णाम । " सबह किट्टाए च संगकिट्टीए च अंतराणि एक्कारस, तेसिस संग्रह किट्टी अंतराइणाम । (क. पा. सुत्त पृष्ठ ७१६ सूत्र ६११) ध० पु० ६ ० ३७६ | जय वल मूल पृ० २०५१ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७९६ से ८०१ सूत्र ६१४ से ६४२ तक । धवल पु० ६ पृ० ३७८ ॥ ३. "तत्य सत्थाणगुणगारस्स किट्टी अंतरमिदि सण्णा, परवाणगुणगाराणं संग्रह किट्टीणं अंतरणि ति सा ।" अर्थात् एकसंग्रहकृष्टि की अन्तरकृटियों का जो परस्पर गुरणकार है वह स्वस्थानगुणकार है । एकसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृतिका जो गुणकार है वह परस्थान गुणकार है । ( जयधवल मूल पृष्ठ २०५१ ) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०८] क्षपणासार विशेषार्थ-बादर संग्रहकष्टि सम्बन्धी एक-एकसंग्रहकष्टि में अन्तरष्टि सिद्धराशिके अनन्तवेंभागमात्र है तथा उन के अन्तराल एककम कृष्टिप्रमाण हैं, क्योंकि दोकृष्टियों के बीच में एक अन्तराल, तीन कृष्टियोंके बीच में दो अन्तराल होते हैं । इसप्रकार विव. क्षितकृष्टि प्रमाण में अन्तराल एककम उस कृष्टिप्रमाण होता है। यहां कारणमें कार्यका उपचार होनेसे अन्तरकी उत्पत्तिमें कारणभूत गुणकारोंको अन्तर कहते हैं। और इन्हीं का नाम कुष्टयं तर है। अघस्तनसंग्रहकृष्टि और उपरितनसंग्रहकृष्टिके बीच में ११ अन्तराल होते हैं, क्योंकि क्रोधादि चारकषायसम्बन्धी संग्रह कृष्टियां १२ हैं अतः एककम (१२-१) अन्तरोंका प्रमाण होगा, इन्हींको संग्रहकृष्टय तर कहते हैं । यहां उक्त कथन का यह अभिप्राय जानना कि जितने अन्तराल होते हैं उतनीबार अन्तु र कृष्टियों की रचना होती है और उनमें स्वस्थान परस्थान गुणकार होता है । वहां स्वस्थानगुणकारका नाम कृष्टय तर ह तथा परस्थान गुणकारों का नाम संग्रहकृष्टचतर है । एकही संग्रहकृष्टिमें अधस्तन अन्तरकृष्टिसे उपरितन संगहकष्टि में जो गुणकार होता है वह तो स्वस्थानगुणकार तथा अधस्तन संग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टिसे अन्य संग्रहकृष्टि सम्बन्धी प्रथमअन्तरकृष्टि में जो गुणकार होता है उसे परस्थान गुणकार कहते हैं । इसप्रकार संज्ञाएं बताकर कृष्ट्य तर और संग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्वको स्पष्टरूपसे बताने के लिए अङ्कसन्दृष्टिद्वारा कथन करते हैं __ यहां अनन्तको सन्दष्टि दो और एक संग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टिके प्रमाणकी सन्दृष्टि (४) है । सर्वप्रथम लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टिको स्थापित करके उसमें अनन्त रूप गुणकारसे गुणा करने पर उसकी द्वितीयकृष्टिका प्रमाण होता है । यहां उस गुणकारको जघन्यकृष्टयन्तर कहते हैं और उसकी सहनानी (२) है तथा द्वितीय कृष्टिको जिस गुणकारके द्वारा गुणा करनेसे तृतीयकृष्टि होती है उस गुणकारको द्वितीयकृष्टयन्तर कहते हैं, यह जघन्यकृष्टयन्तरसे अनन्तगुणा है और इसकी सहनानी (४) है । इसीप्रकार क्रमसे तृतीयादि कृष्टयन्त र अनन्सगुणे-प्रवन्तगुणे होते हैं । जिस गुणकारसे द्विचरमकृष्टिको गुणा करनेसे अन्तिमकृष्टि होती है वह अन्तिमगुणकार द्विचरमगुणकारसे अनन्तगुणा है और उसकी सहनानी (4) है। प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तिमकृष्टिको जिसगुणकारसे गुणा किया जानेसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टि होती है वह गुणकार परस्थान गुणकार है और यह स्वस्थानगुणकारोंसे अनन्तगुणा है । अतः इसको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टिको जिस गुणकारसे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [ गाथा १०८ गुणा करनेपर उसकी ( द्वितीय संग्रह कृष्टिकी) द्वितीयकुष्टि होतो है वह प्रथमगुणकार उपर्युक्त अन्तिमस्त्रस्थानगुणकारसे अनन्तगुणा है इसकी अङ्कसन्दृष्टि (१६) है । इसप्रकार बीच-बीच में परस्थानगुगकारको छोड़कर एक-एककूष्टिके प्रति गुणकारका प्रमाण अनन्तगुणा जानना । यहां कृष्टियोंके प्रमाण में से एककम प्रमाण अन्तराल हैं उनमें ११ परस्थानगुणकार और एक जघन्यगुणकार पाया जाता है । अन्तिम प्राप्त संख्याका गुणकार नहीं होता ( सन्दृष्टि में ४२ = ३२७६८) इसप्रकार इन १३को कृष्टियों के प्रमाण में से घटानेपर अवशेष जितना प्रमाण रहा उतनीबार जवन्य गुणकारको अनन्त से गुणा करनेपर जो लब्ध आया उससे क्रोध कषाय की तृतीयसंग्रहकृष्टिकी द्विचरमकूष्टिको गुणा करें तो कोवकषायकी तृतीय संग्रहकुष्टिसम्बन्धी चरमकृष्टि होती है । यहाँ अङ्क ४८ कृष्टियों में से १३ घटाने से (४८ - १३) ३५ शेष रहे बतः ३५ बार अनन्तके प्रमाण (२) को परस्पर में गुणा करनेपर १६ गुणा बादाल ( १६ X बादाल ) लब्ध आया | यहांसे स्वस्थानगुणकारको छोड़कर पुनः लौटकर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम वर्मणाको ( कृष्टिको ) जिस गुणकारसे गुणा करने से द्वितीय संग्रह कृष्टिकी प्रथमवर्गणा (कृष्टि) होती है वह परस्थानगुणकार पूर्वोक्त भन्तिमस्वस्थान गुणकार से अनन्तगुणा है और इसको सन्दृष्टि ३२ गुणा बादाल ( ३२Xबादाल ) है तथा लोभकषायकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणाकरने पर लोभकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी प्रथमकुष्टि होती है वह द्वितीयपरस्थानगुणकार उपर्युक्त प्रथमपरस्थान गुणकार से अनन्तगुणा है एवं लोभकषायकी तृतीयसंग्रहकूष्टिसम्बन्धी arunfest जिस गुणकारसे गुणा करवेपर मायाकषायको प्रथम संग्रहकृष्टि सम्बन्धी प्रथम अन्तरकृष्टि होती है वह तृतीयपरस्थानगुणकार पूर्वोक्त द्वितीयपरस्थान गुणकार से अनन्तगुणा है । इसीप्रकार ११ परस्थानगुणकारोंको क्रमसे मनन्तके द्वारा गुणाकरनेपर कोषकषायकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तिमकुष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करने से कोषकषायकी तृतीयसंग्रह कृष्टिसम्बन्धी प्रथम कृष्टि होती है उस गुणकार प्रमाण लब्धराशि प्राप्त होती है । क्षपणासार कृष्टि अन्तरों एवं संग्रह कृष्टिअन्तरोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है - 'लोभकषायकी प्रथम संग्रहकुष्टि में जघन्यकृति अन्दर अर्थात् जिस गुणकारसे गुणित जघन्यकुष्टि अपनी द्वितीयकुष्टिका प्रमाण प्राप्त करती है वह गुणकार सबसे १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ से प्रारम्भ । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाश १०८] क्षपणासार [१०३ कम है, इससे द्वितीयकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्त र अनन्तररूपसे जाकर अन्तिमकृष्टिअन्त र अनन्त गुणा है । लोभकषायकी ही द्वितीयसग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे अन्तिमष्टि अन्तरतक अनन्तगुणा अन्तर जानना चाहिए। पुनः लोभकषायकीही ततीयसंग्रहकष्टि में प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। ऐसे अनन्तर-अनन्तररूपसे जाकर अन्तिमकृष्टि अन्तरः अनन्तगुणा है। यहांसे आगे मायाफपायको प्रवनसंग्रहकृति प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे मायाकषायकी भी तीनों संग्रहकृष्टियोंके कृष्टि-अन्तर यथाक्रमसे अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहांसे आगे मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्त गुणा है । इसप्रकार मानकषायकी भी तीनों संग्रहकृष्टियोंके कृष्टिमातर यथाक्रमसे. अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहाँसे आगे क्रोधकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार क्रोधकषायकी भी तीनों सग्रहकृष्टियोंके अन्तर यथाक्रमसे अन्तिम-अस्तरपर्यन्त अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । उससे अर्थात् स्वस्थानगुणकारोंके अन्तिमगुणकारसे लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का अन्तर अनन्तगुणा है । इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्स गुणा है और इससे तृतोयसंग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । लोभ व मायाकषायसम्बन्धी अन्तर अनन्तगुणा है । मायाकषायका प्रथमसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है, इससे द्वितीयसग्रहकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है, इससे तृतीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । मायाकषायसे मानकषायका. अन्तर अनन्तगुणा है ।मानकषायका प्रथमसंग्रहकष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है, इससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है, इससे तृतीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्त गुणा है । मानकषाय और क्रोधकषायका अन्तर अनन्तगुणा है । क्रोधकषायका प्रथमसंग्रहकष्टिअन्तर अनन्तगुणा है, इससे द्वितोयसंग्रहकष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है और इससे तृतीयसंग्रहकष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । क्रोधकषायको अन्तिमष्टिसे लोभकषायके अपूर्वस्पघंकोंकी आदिवर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है।' १. क. पा. सुत्त पृ.८०१तक । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] क्षपणासाय [ गाथा १०८ गुणकारसम्बन्धी सन्दृष्टि इसप्रकार है नाम लोभ माया मान क्रोध तृतोयसंग्रहकृष्टिमें ५१२ । ६५ ८४६५ = २०४८ ४२ = १६ २५६ | ६५ = २ | ६५ = १०२४ ४२ = ८ ६५ = १ ! ६५ = ५१२ ४२ = ४ स्वस्थान गुणकार । १२५ परस्थानगुणकार ४२=६४ | ४२५१२ ४२ = ४०६६ | ४२=३२७६८ द्वितीयसंग्रहकृष्टमें ६४ । ३२७६८ | ६५ = २५६ ] ४२ = ६५ = १२८ स्वस्थानगुणकार | १६ । ८१९२ ६५ = ६४ | ६५ == ३२७६८ परस्थानगुणकार [४२=३२ ४२-२५६ ४२२०४८ | ४२=१६३८४ प्रथमसंग्रहकृष्ट में स्वस्थानगुणकार ४०६६ २०४८ १०२४ ६५ = ३२ । ६५=१६३८४ ६५%= ८१६२ | ६५ - ८ |६५= ४०६६ अपूर्वस्पर्धक वर्गणा गुण परस्थान परस्थानगुणकार 1४२-१२८ । ४२= १०२४ | ४२८-८१९२४२-६५ - | नोट-उपर्युक्त सन्तुष्टि में पाणट्ठीको सहनानी ६५-- और बादालको सहधानी ४२= है तथा इनके आगे जो अंक हैं उतने का इनमें मुणकार जानना । अंकसन्दृष्टिके द्वारा ११ परस्थान गुणकारोंको १० बार दुगुणा करनेपर ३२७६८ गुणा बादाल प्रमाण होता है और इससे उस गुणकारका प्रमाण अनन्तगुणा जानना जिस गुणकारके द्वारा क्रोधकषायको तृतीयसंग्रहकृष्टिको अन्तिमसंग्रहकष्टि को गुणा करनेसे लोभकषायके अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है । उस गुणकारको सन्दृष्टि ६५= ४२ (पण्णट्ठीx बादाल) है। इसप्रकार गुणकारों का प्रमाण कहा, उसका स्पष्टीकरण करते हैं- अंकसंदृष्टि में जैसे लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टि में जो अनुभाग पाया जाता है, उससे दुगुणा द्वितीयकृष्टि में तथा उससे चारगुणा तृतीयकृष्टिमें, उससे आठगुणा अन्तिमकृष्टि में पाया जाता है । इससे ३२ गुणित बादाल गुणा (३२ x बादाल) लोभकषायकी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! गाथा १०६-११० क्षपरणासार [ १०५ द्वितीयसंग्रहकुष्टसम्बन्धी प्रथम कृष्टि में अनुभाग है | यहांसे पहले अभ्यप्रकार गुणकार था अतः वहां पर्यन्त प्रथम संग्रहकृष्टिकी ही कृष्टियां हैं। यहां अन्यप्रकार गुणकार हुआ इसलिए यहांसे आगे द्वितीय संग्रह कृष्टि वहीं इसीप्रकार अन्तपर्यन्स विधान जानना । इसीप्रकार (अंकसंदृष्टि कथन के समान ) यथार्थ कथन ( अर्थ संदृष्टिरूप कथन ) भी जानना, किन्तु ( २ ) के स्थानपर अनन्त और संग्रह कृष्टियों में जो चार अन्तरकृष्टियो कही उसके स्थानपर अनन्त अनन्तरकृष्टियां जानना । इसप्रकार अनुभाग अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा कृष्टियोंका कथन किया । जेटुकि हिस्स । तेण भागेण ॥ १०६ ॥ ५०० ॥ 'लोहस्स अवर किट्टिगदव्यादो को दव्वोत्ति य हीराकमं देदि लोहस्स अवर किट्टिगदन्वादो कोधजेट किट्टिस्स । दव्वं तु होदि होणं असंखभागेण जोगे । ११० । जुम्मं ॥ ५.०१ ।। अर्थ - लोभकषायकी जघन्यकृष्टि से लेकर क्रोधकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त द्रव्य अनन्त भागहीन क्रमसे दिया जाता है तथा लोभकषायकी जघन्यकृष्टि के द्रव्य से क्रोध कषायकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य अनन्तवें भागहीन है । विशेषार्थ - प्रथमसमयवर्ती कृष्टिकारक पूर्व-अपूर्वस्पर्धकों से असंख्यातवें भाग प्रदेशाग्रका व्यपकर्षणकरके पुनः समस्त अपकर्षित द्रव्य के प्रसंख्यात वैभाग द्रव्यको कृष्टियोंमें विक्षिप्त करता है । इसप्रकार निक्षिप्तमान लोभकषायकी जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्रको देता है । द्वितीयष्टि में एकवगंणा विशेष ( चय) से होन द्रव्य देता है तथा इससे आगे-आगेकी उपरितन कूष्टियों में यथाक्रम से अनन्तयां भागविशेष ( चय) से हीन द्रव्य कोषकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त देता है । इस विधानसे अन्तरोपनिधाकी अपेक्षा एकएकवर्गणा विशेषसे हीन द्रव्य उपरिम सर्व कृष्टियों में सर्वोत्कृष्ट अर्थात् कोषकषायकी चरम कृष्टिपर्यन्त देता है, किन्तु संग्रहकृष्टियोंकी अन्तरालवर्ती कृष्टियों को उल्लंघ जाता है, क्योंकि इस अध्वानमें एक अन्तरसे दूसरे अन्तर में 'अनन्तवेंभाग से होन' अन्य कोई १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८० १ सूत्र ६४३ से ६४७ तक ॥ २. "हीणं असंखभागेए" इत्यस्य स्थाने "हीरणमांत भागेण" इति पाठो (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८० १ सूत्र ६४८ ) । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [गाया १११-११२ पर्याय असम्भव है । परम्परोपनि बाकी अपेक्षा लोभकषायकी जघन्यकृष्टिसे कोषकषायकी उत्कृष्टसम्बन्धी प्रदेशाग्र अनन्तभागले विशेषहीन हैं, क्योंकि कृष्टिमध्वान एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के अनन्तभागप्रमाण है और एककम कृष्टिमध्वानप्रमाण वर्गणाविशेष से ही समस्त द्रव्य है' । क्षपणासार पडिलमयमसंखगुणं कमेण उक्कहिदूगा दव्वं खु । संगपासे किट्टी करेदी हु ॥ १११ ।। ५०२ ।। हेट्टा संभागं फासे वित्थारदो असंखगुणं । मज्झिमखंडं उभयं दविलेले हवे फासे ॥ ११२ ॥ जुम्मं ॥ ५०३ ॥ अर्थ --- प्रथमसमय से द्वितीयादि समयों में असंख्यातगुणे क्रमयुक्त द्रव्यको अपकर्षण द्वारा संग्रहकृष्टके नीचे अथवा पार्श्व में अपूर्वकृष्टिको करता है । संग्रहकृष्टि के नीचे की हुई कृष्टियों का प्रमाण तो सर्वकृष्टियों के प्रमाण के असंख्यातवें भागमात्र है तथा पार्श्व में की हुई कृष्टियोंका प्रमाण नीचे की हुई कृष्टियोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है । यहां पार्श्व में की हुई कृष्टियों में मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष पाये जाते हैं । विशेषार्थ - कुष्टिकरणकालमें प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ते रहने से असंख्यातगुणं असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकरके संग्रहकृष्टियोंके नीचे प्रपूर्वकृष्टियोंको करता है और पूर्वकृष्टियोंमें द्रव्य देता है अर्थात् पार्श्वभाग में कृष्टियों को करता है । पूर्व - अपूर्वस्पर्धकोंसे जितना द्रव्य प्रथमसमय में अपकर्षण किया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्यको द्वितीयसमय में अपकर्षणकरके प्रथम समय में की गई कृष्टियोंके असंख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षणकरके प्रथम समय में की गई कृष्टियोंके नीचे अन्य अपूर्वकृष्टियों की रचना करता है जो प्रथमसमय में निर्वर्तित कृष्टियों के असंख्यातवें भागमात्र है । प्रथमसमयमै निर्वर्तित कृष्टियों में तत्प्रायोग्य पल्यके असख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो जतनो अपूर्वकृष्टियां द्वितोधसमय में होतो हैं । द्वितीयसमय में जितना द्रव्य अपकषित किया गया है उसके असंख्यात वैभाग द्रव्यको श्रागम के अविशेषरूपसे पूर्व कृष्टियों मैं तथा पूर्व अपूर्वस्पर्धकों में देता है । इसप्रकार एक-एक संग्रहकृष्टि के नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है । संज्वलनकोष के पूर्व अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके कोषको • १. अघवदल मूल पृष्ठ २०५७ । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ११३-११४] [१०७ तीन संग्रहकृष्टियोंके नीचे पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागमात्र अपूर्वकृष्टियां हितीयसमयमें रची जाती हैं। इसीप्रकार संज्वलनमान-माया व लोभकषायके अपने-अपने स्पर्धकों से प्रदेशाग्र अपकर्षित करके अपनी-अपनी संग्रहकृष्टियों के नीचे प्रथमसमयमें रची गई कृष्टियोंके असंख्यात भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको द्वितीयसमयमें रचता है । इसप्रकार १२ कृष्टियोंके नीचे द्वितीयसमय में अपूर्वकृष्टियोंकी रचना की जाती है। पालमें की हुई कृष्टियों का प्रमाण अपूर्वकृष्टियोंसे असंख्यातगुणा है । यहां पार्श्वकृष्टियों में मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष है। मध्यमखण्ड और उभय द्रव्यके सम्बन्धमें लब्धिसार. गाथा २८६-८७ देखना चाहिए। 'पुवादिम्हि अपुवा पुवादि अपुव्वपढमगे सेसे । दिज्जदि असंखभागेणू णं अहियं अणंतभागणं ॥११३॥५०४|| वारेक्कारमणंतं पुवादि अपुवमादि सेसं तु । तेवीस ऊंट कूडा दिज्जे दिस्से अणंतभागणं ॥११४॥५०५॥ अर्थ- अपूर्वकृष्टि की अन्तिमकृष्टि से पहले जो पुरातनकृष्टि है उसकी प्रथमकृष्टि में तो असंख्यातवें भाग घटता द्रव्य देता है तथा पूर्वकृष्टिको अन्तिमकृष्टिसे द्वितीय सग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिकी प्रथम कृष्टिमें असंख्यातयांभागमात्र अधिक द्रव्य देता है। एवं अवशिष्ट सर्वकृष्टियोंमें पूर्वकृष्टिसे उत्तरकृष्टि में अमन्तवांभागमात्र घटते हुए द्रव्य देता है । यहां पुरातन (प्रथम) कृष्टियो १२ और अपूर्वप्रथमकृष्टि ११ तथा अवशेष कृष्टियां अनन्त जाननी । दृश्यमानमें लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी नवीन (अपूर्व) जघन्यकृष्टिसे लेकर क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकष्टि सम्बन्धी पुरातन (पूर्व) अन्तिमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागमात्र घटते हुए क्रमसे द्रव्य जानना चाहिए । विशेषार्थः-लोभकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीयसमय में निवर्तमान लोभको अपूर्वकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टि में अन्य उपरिमकृष्टियोंकी अपेक्षा बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है अन्यथा कृष्टिगत प्रदेशों में पूर्वानुपूर्वी एक गोपुच्छ विशेषको अवस्थित अनुवृत्ति सम्भव नहीं है । द्वितीयकृष्टि में विशेषहीन अर्थात् अनन्त-भागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । यहां अनन्तोंभागका प्रमाण एकवर्गणा-विशेषके प्रमाण के बराबर है अतः १. क. पा० सुस्त पृष्ठ ८०१ से ८०३ तक सूत्र ६५३ से ६७२ तक । ३० पु० ६ पृष्ठ ३८० । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१०८ ] क्षपणासार [गाथा ११४ प्रथमकृष्टि में दिये जाने वाले प्रदेशानोंसे द्वितीयकृष्टि में निसिच्यमाण प्रदेशाग्र एकवर्गणाविशेष होन होते हैं । इसप्रकार तदनन्त र प्रतिकृष्टि अनन्तौभागहीन अर्थात् एकवर्गणाविशेषहोन द्रव्य तबतक दिया जाता है जबतक प्रथम संग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीयसमयमें निर्गत मान अपूर्वकृष्टियों को अन्तिमकृष्टि प्राप्त होती है । उससे असंख्यालों भागरूप विशेषहोन द्रव्य प्रथम समय में नितित लोभकषाय को प्रथम संग्रहकष्टिको अन्तरष्टियों में से जघन्य कृष्टिमें दिया जाता है। प्रथमसमयमें कृष्टियों में दिये गये प्रदेशपिण्डकी अपेक्षा द्वितोयसमय में समस्तकृष्टियों में निसिंच्यमाण सकलप्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि अनन्तगुणो विशुद्धि के द्वारा इसका अपकर्षण हुआ है । इसलिए प्रशमसमयको जघन्यकृष्टि में पूर्व भवस्थित प्रदेशपुनको अपेक्षा द्वितीयसमयमें निर्तिमान अपूर्व चरमकृष्टि में निःसिक्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे अधिक होते हैं । अतः असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य देने से अपूर्व चरमकृष्टिके प्रदेशपुञ्जको अपेक्षा पूर्व जघन्यकृष्टि में दृश्यमान (पूर्व और नि:सिंचित) द्रव्य एकगोपुच्छविशेषसे हीन हो जाता है । अन्य संधिविशंपों में जहां-जहां असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य देनेका कथन हो वहां भी इसीप्रकार जानना चाहिए। प्रथमसंग्रहकृष्टिमें अनन्तभागसे होन प्रदेशाग्र दिया जाता है उसके आगे प्रथम समयमें निर्वर्तित लोभकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्त र कृष्टियों में अनन्त र अनन्तररूपसे प्रथमसंग्रहकष्टिको अन्तिम अन्तराष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। प्रथमसमयमें हो निर्वतित लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीय समय में रची गई अपूर्वकृष्टियोंकी पंक्ति है । उन द्वितीयसमयमें निर्तित अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें दीयमान प्रदेशाग्र (प्रथमसंग्रह कृष्टिको चरमकृष्टिमें नि:सिक्त प्रदेशानको अपेक्षा) असंख्यातवेंभागसे विशेष अधिक हैं । इसप्रकार द्रव्य देनेसे पूर्वप्रथमसंग्रहकृष्टि की चरमकृष्टिको अपेक्षा इस अपूर्व द्वितीयसंग्रहकष्टिको जघन्यकृष्टि में प्रदेशपुञ्ज एकवर्गणा (गोपुच्छ) विशेषसे हीन होते हैं। आगे जहां-जहां भी पूर्वचरमकृष्टि से अपूर्वजघन्य. कृष्टि में असंख्यातवेंभागअधिक द्रव्य देने का कथन हो वहां इसीप्रकार जानना चाहिए । उसके आगे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नीचे निवर्तमान अपूर्वकृष्टियोंकी अन्तिमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीत प्रदेशाग्न दिया जाता है । उससे प्रयमसमयमें निर्वतित पूर्वद्वितीय संग्रह कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में असंख्यातवेंभागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे द्वितीय पूर्वकृष्टिको अन्तिमकृष्टि तक अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाय दिया जाता है । तत्पश्चात् द्वितीयसंग्रहकृष्टि में जैसी विधि बतलाई गई है वैसी ही विधि Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११४ ] [ १०६ तृतीयसंग्रहकृष्टिमें भी जाननी चाहिए। जिसप्रकार द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी आदि अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में एकबार असंख्यातवें भागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका विन्यास होकर पश्चात् अपूर्वष्टिके अन्तपर्यन्त अनन्तवें भागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । अपूर्वकृष्टियोंको उलंघकर पूर्व कृष्टियोंकी आदिकृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन द्रव्य दिया जाकर अनन्तरकृष्टियों में अनन्त वें भागहीन प्रदेशान दिये जाते हैं ऐसा प्ररुपण किया गया है उसीप्रकार लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नोचे अन्तरकृष्टियों में भी होवाधिक प्रदेशाप्र देनेका कथन करना चाहिए। क्षपणासाय तदनन्तर लोभकषायको अन्तिमकृष्टिसे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीय समय में निर्वर्तमान अपूर्वकृष्टियों में जो जघन्यकृष्टि है उसमें असंख्यातवें भाग विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है। इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे जहां-जहां पूर्व कृष्टियों की अन्तिमकृष्टिसे अपूर्व कृष्टियों की जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवें भाग से विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है और जहां-जहां अपूर्वकृष्टियोंको अन्तिमकृष्टि से पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कहो गई है वहां-वहां असंख्यातवेंभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इस क्रम से द्वितीयसमय में निक्षिप्यमाण प्रदेशाग्रका बारह कुष्टि स्थानों में श्रसंख्यातवें भागसे हीन दोयमान प्रदेशानका अवस्थान है, क्योंकि बारह पूर्ण संग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्व कृष्टियोंकी रचना हुई है इसलिए बारह अपूर्णकृष्टियों की चरमकृष्टि से बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टियों में असंख्यातवें भागसे हीन प्रदेशा दिये जाते हैं, किन्तु असंख्यातवेंभाग से अधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है, क्योंकि लोभकी प्रथमपूर्वसंग्रहकृष्टि के नीचे रचना हुई है उन अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिस्थान में अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी संविका अभाव होनेसे अपूर्व कृष्टियोंकी पूर्व संग्रह कुष्टियों की अन्तिम कृष्टिसम्बन्धी सन्धि ११ स्थानोंमें होती है । शेषकूष्टिस्थानों में दीयमान प्रदेशाप्रका अनन्तभागसे हीन अवस्थान है । इसप्रकार द्वितीयसमय मेंदीयमान प्रदेश की यह उष्ट्रकूटश्रेणि है अर्थात् ( जिसप्रकार ऊंटकी पोठ पिछलेभाग में पहले ऊंची होती है पुनः मध्य में नीची होती है और फिर आगे नीची-ऊंची होती है, उसीप्रकार यहां प्रदेशान भी आदि में बहुत होकर फिर स्तोक रह जाता है पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और होन होता जाता है इसीकारण यहांपर होनेवाली प्रदेशश्रेणीको रचनाको उष्ट्रकूश्रेणी कहा है ) । द्वितीयसमय में जो प्रदेशान दिखता है जो ग्यारह कृष्टिस्थानों में अपूर्व कृष्टियों की जवम्यकूष्टि और पूर्व संग्रहकृष्टि की Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ११.] [ गाथा ११५.११७ वह जघन्यकृष्टिमें बहुत है और शेष सर्वकृष्टियों में अनातरोपनिधासे अनन्तभागहीन है। जिसप्रकार द्वितीयसमय में कृष्टियोंमें दोयमान प्रदेशाग्रकी प्ररुपणा की है उसीप्रकार सम्पूर्णकृष्टिकरणकालमें दीयमान प्रदेशाग्रके २३ उष्ट्रकूटोंकी प्ररुपणा करना चाहिए, किन्तु दृश्यमान प्रदेशाग्र सर्वकालमें अनन्तभागहीन जानना चाहिए । जो प्रदेशाग्न सामस्त्यरूपसे प्रथमसमयमें कृष्टियों में दिया जाता है वह सबसे अल्प है, उससे द्वितोयसमयमें कृष्टियोंमें दिया जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है, इससे तृतीय समय में कृष्टियों में दिया जाने वाला प्रदेशाग्र असंख्यात गुणा है। विशृद्धि में प्रतिसमय अनन्त गुणीवृद्धि होने के कारण सर्वकृष्टिकरणकाल में उत्तरोत्तर असख्यातगुणा असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न अपकर्षणकरके कृष्टियोंमें निक्षिप्त किया जाता है । किट्टीकरणद्धाए चरिमे अंतीमुहत्तसुज्जुत्तो। चत्तारि होति मासा संजलणाणं तु ठिदिघंधो ॥११५॥५०६।। सेसाणं वस्साणं संखेजसहस्सगाणि ठिदिबंधो । मोहस्स य ठिदिसंतं अडवस्संतोमुहुत्तहियं ।।११६॥५०७॥ घादितियाणं संखं वस्ससहस्साणि होदि ठिदिसंतं । वस्साणमसंखेज्जसहस्सारिण अघादितिएणं तु॥११७॥ कु.५०८॥ अर्थ- अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें अन्त मुहूर्त अधिक चारमासप्रमाण संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध है । यह स्थितिबन्ध अपूर्वस्पर्धककरणकालके चरमसमय आठवर्षप्रमाण था सो एक एक स्थितिबन्धापसरणमें अन्तमुहर्तप्रमाण घटकर इतना अवशेष रहता है । शेष कोका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षमात्र है, पूर्व में भी संख्यातहजारवर्षमात्र ही था सो संख्यातगुणहीन क्रमरूप संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर भी आलापसे इतना ही कहा है तथा मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व पहले संख्यातहजारवर्षप्रमाण था सो घटकरके यहां अन्तमुहर्त अधिक आठ १. जयधवल मूल पृष्ठ २०५६ से २.६४ तक । २. इन गाथाघोंसे सम्बन्धित विषय क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०३-४ सुत्र ६७३ से ६७७ तक आया है। धवल पु० ६ १ ३८० | जयधवल मूल पष्ठ २०६४ । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ११८-११६ ] [१११ वर्षमात्र रह गया। तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय) कोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है, क्योंकि जिसप्रकार मोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्वका विशेष घात होता है वैसा विशेषघात शेष तीन घातियाकर्मोका नहीं पाया जाता है। तीनअघातियाकर्मों का सत्त्व यद्यपि असंख्यातगुणहानियों द्वारा अपवर्तनधात होता हैं तथापि उनका स्थितिसत्त्व यहां असंख्यातहजारवर्षप्रमाण ही है । पडिपदमणंतगुणिदा किट्टीनो फड्डया विसेसहियो । किट्टीण फडयारणं लक्वणमणुभागमासेज ॥११८।५०६।। अर्थ-यहां सर्वष्टियां तो प्रतिपद अनन्तगुणा अनुभाग लीये हैं अर्थात् प्रथमकृष्टि के अनुभागसे द्वितीयकृष्टिका अनुभाग अनन्त गुणा है । उससे तृतीयकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है । इसप्रकार चरमकृष्टि पर्यन्त क्रमसे अनन्तगुणा अनुभाग पाया जाता है तथा जो स्पर्धक हैं वे प्रतिपद विशेष अधिक अनुभाग लोए है । अर्थात् स्पर्धकोंको प्रथमवर्गणासे द्वितीय वर्गणामें और द्वितोयवर्गणासे तृतीयवर्गणा में, इसप्रकार प्रनन्तवर्गणा पर्यन्त क्रमसे विशेषमधिक अनुभाग पाया जाता है । इसप्रकार अनुभागका आश्रयकरके कृष्टि और स्पर्धकोंका लक्षण कहा । द्रव्यको अपेक्षा तो चय घटता क्रम कृष्टि और स्पर्धक इन दोनोंमें हो है, किन्तु अनुभाग क्रमको अपेक्षा कृष्टि और स्पर्धकका लक्षण पृथक् पृथक् है । 'पुवापुवफड्डयमणुहवदि हु किट्टिकारओ णियमा । तस्सद्धा णिहायदि पढमद्विदि आवलीसेसे ॥११६॥५१०॥ अर्थ-कृष्टि करनेवाला कृष्टिकरणकाल में पूर्व-अपूर्वस्पर्धकोंके उदयको नियमसे अनुभवता है । जैसे अपूर्वस्पधंकोंको करते हुए पूर्वस्पर्धकके साथ अपूर्वस्पर्धकका अनुभव करता है वैसे कृष्टि करते हुए कृष्टिको नहीं भोगता है । इसप्रकार संज्वलनकोच. की प्रथमस्थिति में उच्छिष्टावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर कृष्टिकरणकालकी निष्ठापना (समाप्ति) करता है । यह कथन उत्पादानुच्छेद की अपेक्षासे है। ॥ इति कृष्टिकरणाधिकारः ॥ १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७८ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३२२ । जयधवल मूल पुष्ठ २०६५ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रथ कृष्टिवेदनाधिकार" 'से काले किट्टीमो अणुहदि हु चारिमासमडवस्सं । बंधो संतं मोहे पुवालावं तु सेसाणं ॥१२०॥५११॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके अनन्तरसमयमें अपने कृष्टि वेदक काल में कृष्टियों के उदयका अनुभव करता है । द्वितीयस्थितिके निधेकों में रहती हुई कृष्टियोंको अपकर्षणकरके प्रथमस्थिति में उक्ष्यावलिके निषेकोंमें प्रास कर के भोगता है और उस भोगनेका नाम ही वेदना है । उससमय प्रथमस्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है, किन्तु आबलिका प्रयमनिषेक स्तुविकसंक्रमण द्वारा कृष्टिरूपसे उदय में आता है । उसकाल (उदयकाल) के प्रथमसमय चारसंज्वलनरूप मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक चारमासको घटकर चारमास हो जाता है और स्थितिसत्त्व आठवर्षमात्र है। यह स्थितिसत्त्व पहले अन्तर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष था सो अन्तमुहूर्त कमकरके इतना रह गया। अवशेष कौका भी स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व यद्यपि कम हुआ है तथापि पालापद्वारा पूर्वोक्तप्रकार तीनघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व संख्यातहजार. वर्ष एवं वेदनीय, नाम व गोत्रकका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यातहजारवर्ष जिसप्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें कहा था वैसे ही यहां भी जानना। 'ताहे कोहुच्छि8 सव्वं घादी हु देसघादी हु। दोसमऊणदुआवलिणवक ते फलयगदाभो ॥१२१॥५१२॥ अर्थ-संज्वलन क्रोधका जो अनुभागसत्त्व उदयावलिके भीतर उच्छिष्टावलिरूपसे अवशिष्ट अवस्थित है वह सत्व सर्वघाति है और संज्वलनचतुष्कके जो दोसमय १. क. पा. सुस पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७६ से ६८५ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३८३ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६-६८७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८३ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२२ क्षपपासा [११३ कर दोआवलि प्रमाण न बकसमयप्रबद्ध हैं वे देशधाति है तथा उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्धकस्वरूप है। विशेषार्थ-रोघष षायकी उच्छिष्टालिका अनुभागसत्त्य तो सर्वधाती है, क्योंकि एक समयकम आवलिप्रमाण ऋोधके निषेक उदयावलिको प्राप्त हुए हैं। इनमें पूर्वअनुभागसत्त्व लता व क्षारके समान शक्तिबाला है सो इसी शक्तिकी अपेक्षा यहाँ सर्वघाती कहा है । शौलादि की समानताकी अपेक्षा सर्वघाती नहीं कहा गया है सो ये निषेक उदयकाल में कृष्टिरूप परिणमन करके वर्तमानसमयमे उदय प्राने योग्य निषेकोंमें उदय रूपहोकर निर्जराको प्राप्त होते हैं। यहां आबलि में एकसमयकम कहा है वह इसलिए कहा है कि उच्छिष्टालिका प्रथमनिषेक वर्तमानसमय में कृष्टिरूप परिणमन करने से परमुखरूप होकर उदय में आता है । सज्वलन चतुष्क,के दोसमयकम दो प्रावलिमात्र अवशिष्ट नवकसम यप्रबद्ध में देश घाति शक्ति से युक्त अनुभाग है, क्योंकि कष्टिकरणकालमें स्पर्धकरूप शक्तिसे युक्त जो अनुभाग बघता है वह दोसमयकम दोआवलिकालमें कृष्टिरूप परिणमनकरके सत्तासे नाशको प्राप्त होगा। यहां अवशिष्ट रहे नबकबन्ध और क्रोधकषायकी उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेकोंका स्वरूप तो इसप्रकार जानना कि कृष्टिकरणकालक चरमसमयमें हो ये सर्वनिषेक कृष्टिरूप परिणमन करते हैं। लोहादो कोहादो कारउ वेदउ हवे किट्टी । आदिमसंगह किट्टी वेद यदि ण विदीय तिदियं च ॥१२२॥५१३॥ अर्थ--कृष्टिकारक तो लोभसे लेकर क्रमवाले हैं और कृष्टिवेदन क्रोषसे लेकर क्रमवाले हैं। यहां पहले क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का ही अनुभव करता है द्वितीयतृतीयसंग्रहवृष्टि का अनुभव नहीं करता है । विशेषार्थ-कृष्टिकरणमें तो सर्वप्रथम लोभको फिर मायाकी पश्चात् मानकी और बादमें क्रोधकी, इसक्रमसे कृष्टियां कहीं थीं, किन्तु यहां कृष्टिबेदनकाल में पहले क्रोधको फिर मानकी पश्चात् मायाको और बादमें लोभकी कृष्टियों का अनुभव होता है । कृष्टिकरणमें जिसको तृतीयसंग्रहकृष्टि कही है उसको कष्टिवेदन के समय प्रथमकृष्टि और जिसको कृष्टिकरणमें प्रथमकृष्टि कही है उसको कृष्टिवेदनमें तृतीयष्टि १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६६ । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा १२॥ जानना । यदि इसप्रकार नहीं होगा तो पहले स्तोक शक्तिवालो कृष्टियोंका अनुभव होकर पश्चात् अधिक शक्तिवाली कृष्टियोंका अनुभव होगा सो होता नहीं, क्योंकि प्रति. समय अनन्त गुणे घटते हए अनुभागका अनुभद होता है । जरिए संग्रहकृष्टियों में कृष्टिकारकसे कृष्टिवेदकका उलटा क्रम जानना, किन्तु अन्तरकृष्टियों में पूर्वोक्त क्रम ही है । 'किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य पढमसंगहादो दु । कोहस्त य पढमठिदी पत्तो उव्वट्टगो मोहे ।।१२३॥५१४॥ अर्थ--कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधको प्रथम स्थिति प्रास करता है तथा मोहनीयकर्म का अपवर्तनपात करता है। ... विशेषार्थ-कृष्टिकरणकालके धरमसमयपर्यन्त तो जहां कष्टियों के दृश्यमान प्रदेशों का समूह चयरूप घटते हुए क्रमसहित गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थान में रहता है और स्पघंकोंके प्रदेशोंका समूह एक गोपुच्छाकार रूपसे अपने स्थानमें रहता है वहां कृष्टियोंके द्रव्यसे स्पर्धकोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है अतः कृष्टि और स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार नहीं है, किन्तु कृष्टिकरणकालकी समाप्तिके अनन्तर सभी द्रव्य कृष्टिरूप परिणमनकर एक गोपुच्छाकाररूप रहता है, तब संज्वलन के सर्वद्रव्यको आठका भाग देकर उसमें से एक-एक भागप्रमाण द्रव्य लोभ, माया और मानका तथा पांचभागप्रमाण द्रव्य क्रोधका जानता। यदि. १२ संग्रहकृष्टियोंमें विभाग किया जावे तो संज्वलनके सर्वद्रव्यको २४का भाग देनेसे वहाँ अन्य संग्रहकृष्टियोंका एक-एक भागप्रमाण और क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका १३ भागप्रमाण द्रव्य है । यहां साधिकपना न्यूनपना है सो यथासम्भव पूर्वोक्तप्रकार (गाथा १०५के अनुसार) जानना । पहले कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयमें जैसा विधान कहा वैसा हो यहां भी जानना । प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके प्रमाणमैं उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण द्वितीयादि सभयों में की गई कृष्टियोंका प्रमाण जोड़नेपर सर्व : पूर्व-अपूर्वकृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भागदेकर लब्धमें से एकभाग ग्रहणकर उसको पल्य के असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमेंसे एकभागको १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६ । . पु० ६ पृष्ठ ३६३ । जयषवल मूल पुष्ठ २०६७ । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १२४ } [ ११५ ग्रहणकरके प्रथम स्थितिको करता है। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदककालसे उच्छिष्टावलिमात्र अधिक उस प्रथमस्थिति के निषेकोंका प्रमाण है और वही गुणश्रेणो आयाम भी कहा जाता है, उसके वर्तमान में उदयरूप प्रथम निषेकमें तो सबसे स्तोकद्रव्य देता है, उससे द्वितीयादि से चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकार उस एकभागप्रमाण द्रव्यका गुणश्रेणीरूपसे देना कहा । यहां प्रथमस्थितिके अन्तिम निषेकको ही गुणश्रेणोशोष कहते हैं। जो अवशेष बहुभागमात्र द्रव्य था उसको स्थितिको अपेक्षा क्रोधकी द्वितीय व तृतोयसंग्रहकष्टिसे भो अपकर्षित द्रव्यमै मिलानेपर जितमा द्रव्य हुआ उसमें, यहां आठवर्षमात्र स्थिति है, उसकी संख्यातआवलियां हुई और वही हुआ गच्छ, उस गच्छका भाग देनेसे मध्यधन प्राप्त होता है। उस मध्यधनमें एककम गच्छके माधेप्रमाण चय मिलानेपर द्वितीयस्थिति के प्रथमनिषेक में दिये हुए द्रव्य का प्रमाण होता है, यह द्रव्य गुणश्रेणिशीर्ष में दिये गए द्रव्यसे असंख्यातगुणा है सो इसके असंख्यातवेंभागमात्र विशेषका (चयका) प्रमाण है अतः इस विशेषरूप घटते क्रमसे द्वितीयादि निषेकोंमें अलिस्थापनावलिके नीचे नीचे द्रव्य दिया जाता है। इस क्रमसे प्रतिसमय उदयादि गलितावशेष गुणश्रेणि करता है। यहाँपर मोहनोयकर्म का अपवर्तनघात होता है । इससे पूर्व अश्वकर्णकरणरूप अनुभागका अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होनेवाला काण्डकघात होता था, किन्तु अब संज्वलनकी बारहष्टियोंका प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभाग होनेसे अपवर्तनधात प्रवर्तता है । 'पढमस्स संगहस्स य असंखभागा उदेदि कोहस्स । बंधेवि तहा चेव य माणतियाणं तहा बंधे ॥१२४॥५१५।। अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियों के प्रमाणको असंख्यातका भाग देवेपर उसमें से बहुभागमात्रष्टि उदयमें आती है । यहां जो बहुभागमात्र कहा गया है वह एकभागप्रमाण उपरितन व अधस्तन कृष्टि. को छोड़कर मध्यवर्ती कृष्टियोंका प्रमाण है। प्रथम, द्वितीयादि कृष्टियों को तो अघस्तर और चरम व उपातआदि कृष्टियोंको उपरितनकृष्टि कहते हैं। उदयरूप नहीं होती ऐसी अधस्तनकृष्टि तो अनन्तगुणरूपसे बढ़ते हुए अनुभागरूप होकर तथा उपरितन १. जयघवल मूल' पृष्ठ २०६७ व २०६८ । क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६६०-६१ । ध० पु०६ पुष्ट ३५३, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ११६] [गाथा १२५.१२६ कृष्टि अनन्तगुणेरूप घटते हुए अनुभागरूप होकर मध्यवर्ती कृष्टिरूप परिणमनकरके उदयमें आती हैं । बंध भी असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन व उपरितनष्टि छोड़कर बीचको असंख्यात बहभागप्रमाण कृष्टि जानना । उदयरूप कृष्टियों में जो उपरितन अनुदयकृष्टियोंका प्रमाण है उससे साधिक दुगुणे प्रमाणसहिन अवस्नन व उपरितन अष्टियों का प्रमाण सागर बचा कृष्टियों का प्रमाण होता है, इनका यहां बन्ध होता है। यहां मानादिको अपनी-अपनो प्रथम संग्रहकष्टिको अधस्तन व उपरितनष्टि प्रमाणका असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियों को नीचे और कार छोड़कर मध्य की बहुभागमात्र कृष्टि बंधतो है, किन्तु मानादिको तोनों हो संग्रहकृष्टियों का उदय नहीं है तथा क्रोध की द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टिका बन्ध व उदय दोनों हो नहीं है । इसीप्रकार मान-माया च लोभका कथन भी जानना । 'कोहस्स पढमसंगहकि हिस्स य हेट्ठिमणुभयढाणा । तत्तो उदयट्ठाणा उवरिं पुण अणुभयट्ठाणा ॥१२५॥५१६॥ उवरि उदयट्ठाणा चत्तारि पदाणि होति अहियकमा। मज्झे उभयाणा होति असंखेजसंगुणिया ॥१२६१५१७॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंमें अचस्तन अर्थात् प्रथम, द्वितीयादि अघस्तन अनुभयस्थानरूप (जिनका उदय और बन्ध दोनों ही नहीं हैं) अप स्तनकृष्टियोंका प्रमाण स्तोक है उसी (पूर्वोक्त अधस्तन अनुभयस्यानरूप कृष्टियोंके प्रमाणको पल्यके असंख्यात.भागका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण विशेषरूप अधिक अनुभयकृष्टियोंके ऊपरितनवर्ती जो अधस्तन उदयस्थानरूप (जिनका उदय तो पाया जाता है बन्ध नहीं पाया जाता) कृष्टिका प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके असंख्यातवे. भागका भाग देनेपर उसमें से एकभागप्रमाण विशेष से अधिक उपरितन अर्थात् अन्त व उपान्तादि उपरितन अनुभ यस्थानरूप (बन्ध व उदयरहित) कृष्टि का प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके असंख्यातवें भागका भागदेकर उसमें एकभागप्रमाण विशेषसे अधिक उन कृष्टियोंके नीचे पाये जानेवाले उपरितन उदयस्थानरूप (उदयसहित व बंधरहित) १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०५ सूत्र ६९३ से ६६७ । धवल पु० ६ पृ० ३८४ 1 जयधवल मूल पृष्ठ २०६८-२०६६। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया १२७ क्षपणासार [११७ कृष्टियोंका प्रमाण है इसप्रकार चारपद तो अधिक क्रमसहित हैं तथा उससे असंख्यातगुणे मध्यके उभयस्थानरूप (जिनका बन्ध व उदय दोनों पाये जाते हैं) कृष्टियोंका प्रमाण है'। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि में पायी जाने वाली कृष्टियों के प्रमाणको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें बहुभागमात्र तो मध्यको उभयकृष्टियों का प्रमाण है तथा अवशेष जो एकभाग रहा उसको ["प्रक्षेपयोगोधुतमिश्रपिंडः" इत्यादि सूत्रविधानसे अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा २-३.४ च ७ शलाकाओंको जोड़नेपर (२+३+४+७) १६ लब्ध आया] इससे भाग देकर जो एकभागका प्रमाण आया उसको अपनी-अपनो दो आदि शलाकरों से गुणा करनेपर अघस्तन व उपरितच अनुभयआदि कृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार बारहसंग्रहकृष्टियों के वेदककालके प्रथमसमय में अल्प. बहुत्व जानना । विदियादिसु च उठाणा पुटिवल्लेहिं असंखगुणहीणा । तत्तो असंखगुणिदा उबरिमणुभया तदो उभया ॥१२७।१५ १८|| अर्थ-द्वितीयादि समयों में चारोंस्थान पूर्वसे असंख्यातगुणे हीन हैं, उससे असंख्यातगुणे ऊपरितन अनुभयस्थान तथा उससे असंख्यातगुणे उभयस्थान हैं । विशेषार्थः-पूर्वसमय में बन्धरहित जो अघस्तन केवल उदयकृष्टि थो वे तो उत्तरवर्ती समयमें उभयष्टिरूप होती हैं और पूर्वसमय में जो अनुभयकृष्टि थीं उनमें अन्तकी कुछ ऋष्टि उभयरूप एवं उनसे नोचेको कुछ कृष्टियां उत्तर समय में केवल उदयरूप होती हैं तथा पूर्वसमय में जो उपरितन केवल उदयष्टि थीं वे सभी उत्तरसमयमें अनुभयरूप होती हैं । पूर्वसमयमें जो उभयष्टि थी उनमें अन्तिम कुछ कृष्टियां अनुमयरूप हैं उनसे नीचे की कुछ कृष्टियां उत्तरसमय में केवल उदयरूप होतो हैं। इसप्रकार प्रतिसमय बन्ध और उदयमें अनुभागका घटना होता है, क्योंकि अधस्तन कृष्टियोंमें स्तोक अतुभाग पाया जाता है और उपरितन कृष्टियों में बहुत मनुभाग पाया जाता है। अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं ___ अधस्तन अनुभयकृष्टि स्तोक हैं, उससे उनके ऊपर जो अधस्तनरूप केवल उदयकष्टि हैं वे विशेषअधिक हैं । इससे आगे ऊपर उत्कृष्ट अनुभागसहित पूर्वसमयवर्ती १. जयघवल मूल पृष्ठ २०६८-२०६६। . Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] क्षपणासार [गाथा १२८-१२६ बन्ध रूप जो अन्तिमष्टि थी उससे लेकर नाचं उत्तरसमयमें जो अनुभय कृष्टि हुई हैं वे विशेष अधिक हैं। इनके नीचे विवक्षितसमय में होनेवालो केबल उदयरूपकृष्टि इससे विशेषअधिक हैं । इसप्रकार ये चारस्थान तो पूर्वसमयमें अधस्तन अतुभयआदिकृष्टि का जो प्रमाण था उससे असंख्यातगुणे कम हैं। उदयष्टियोंसे पूर्वसमयमें जो ऊपरको उदयकृष्टि थीं उनमें स्तोक अनुभागवाली जो आदिको जघन्यकष्टि थी उसीके समान कृष्टि से लेकर उत्तरसमयमें जो सर्व अनुभयष्टियां हुई वे असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि पूर्वसमय में ऊपरकी अनुभयष्टियों का जो प्रमाण था उसके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टि पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरकी जघन्य उदय कृष्टिसे नीचे उत्तरोत्तर समयमें ऊपरकी जघन्य अनुभयकृष्टि होती हैं । इससे पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरको उदयकृष्टियोंके प्रमाणके असंख्यात उभागमात्र कृष्टि नीचे उतरनेपर इस विवक्षितसमयमें ऊपरको जघन्य उदयकृष्टि होती है। अनुभयकृष्टियों के प्रमाणसे बंध व उदययुक्त मध्यवर्ती उभयकृष्टियो असंख्यात गुणी हैं । इसप्रकार द्वितीयादि समयों में कृष्टियोंका अल्पबहुत्व जानता। पुविल्लबंधजेट्ठा हेट्ठासंखेज्जभागमोद रिय । संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ॥१२८॥५१६॥ प्रयं-पूर्वसमयसम्बन्धी बन्धकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टिसे लेकर पूर्वसमयसम्बन्धी उभयष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां नीचे उतरकर वर्तमानमें उत्तरसमयसम्बन्धी केवल उदयरूप अन्तिमकृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि होती है और इसके अनन्तर ऊपर अनुभयंकृष्टि की जघन्यकृष्टि पाई जाती है । उत्कृष्ट उदयकुष्टिसे नीचे पूर्वसमयसम्बन्धी उदयष्टिके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमानमै उदयको जघन्य कृष्टि होती है, उसके अनन्तर नीचे उभयकृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्टकृष्टि होती है । ऐसा ही विधान उपरिम कृष्टियों में भी जानना ।। हेट्ठिमणुभयवरादो असंखबहुभागमेत्तमोदरिय । संपडिबंधजहएणं उदयुक्कस्सं च होदित्ति ॥१२६।।५२०॥ अर्थ-पूर्वसमयसंबंधी अनुभय कृष्टिकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टिसे पूर्वसमयसंबंधी अनुभय कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर संप्रति बन्धकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है उसके अनन्तर नीचेकी केवल उदयरूप उदय कृष्टियोंको उत्कृष्टकृष्टि है, उससे लेकर पूर्वसमयसम्बन्धो उदयकृष्टियोंके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणासार गाथा १३०] नीचे उतरकर संप्रति उदयकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है । उसके नीचे पूर्वसमयसम्बन्धी अनुभयकृष्टियों के असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमानमें जघन्यप्रनुभयकृष्टि होती है, वही सर्वकृष्टियों में जघन्यकृष्टि है । इसप्रकार अधस्तनकृष्टियोंमें विधान जानना । ऐसे प्रतिसमय पूर्वसमयसम्बन्धी अधस्तन अनुमयरूप उदयकृष्टि और उपरितन उदय व अनुक्ष्यरूप कृष्टियों के प्रमाणसे उत्तरसमयसम्बन्धी कृष्टियोंका प्रमाण असंख्यात. गुणा कम है और मध्यवर्ती उभयकृष्टियों का प्रमाण विशेष अधिक होता है ऐसा जानना । 'पडिसमयं अहिगदिणा उदये बंधे च होदि उक्कस्सं । बंधुदये च जहरणं अणंतगुणहीणया किट्टी ॥१३०॥५२१॥ अर्थ-प्रतिसमय सर्पको गतिवत् उदय ब बन्धमें तो उत्कृष्टकृष्टि तथा बन्ध व उदयमें जघन्यकृष्टि अनुभाग अपेक्षा अनन्तगुणे घटते हुए क्रमसहित जाननी । विशेषार्थ-सर्वकृष्टि पोंके अनन्त मध्यवर्ती कृष्टियां उदयरूप है और उदयरूप कृष्टियोंके मध्यवति कृष्टियां बन्धरूप है। उनमें सबसे स्तोक अनुभागवाली प्रथमकृष्टि हो जघन्य कृष्टि है और सबसे अधिक अनुभागसहित अन्तिमकुष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है। कृष्टिबेदककालके प्रथम समय में उदयसम्बन्धी उपरितन उत्कृष्ट कृष्टि बहुत अनुभागसहित है, उसी समय में बन्धकी उपरितन उत्कृष्ट काप्टि उससे अनन्तगुणेकम अनुभागयुक्त है, क्योंकि उदयागत कृष्टि से अनन्तकृष्टि नीचे जाकर बन्धकृष्टिका अवस्थान है। उससे द्वितीयसमयमै उदयको उपरितन उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागवाली है, क्योंकि प्रथमसमयसे द्वितीयसमयमें विशुद्धि अनन्तगुणी है। उससे द्वितीयसमयमें हो बन्धकी उपरितन उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागसहित है, उससे तृतीयसमयवर्ती उदयसम्बन्धी उत्कृष्ट कृष्टि अनन्त गुणहीन अनुभागयुक्त है, उससे उसी समयवाली बंध. को उत्कृष्ट कृष्टि अतन्तगुणहीन अनुभागसहित है। इसप्रकार सर्पगतिवत् (जसे सर्प इधर से उधर और उधर से इधर गमन करता है) विवक्षित समयमें उदयको कृष्टिसे बन्धको कृष्टि और पूर्वसमयसम्बन्धी बन्धकृष्टिसे उत्तरसमयबाली उदयष्टि में अनन्त - गुणाहीत अनुभाग क्रमसे जानना | कृष्टि वेदककालके प्रथमसमयमें अधस्तन बन्धसम्बन्धी जघन्यकृष्टि बहुत अनुभागयुक्त है, क्योंकि जघन्य उदयकृष्टिसे अनन्तकृष्टि ऊपर जाकर १. क. पा० सुत्त पृ ८५० सूत्र १०७२-१०८२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४। जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ व २१६७। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १३१ इसका अवस्थान है । उससे प्रथमसमयवर्ती ही अधस्तन जघन्य उदय कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभाग वाली है | इस प्रकार सर्पगतियत् एकसमय में बन्धकृष्टिसे उदयकृष्टि और पूर्वसमयसम्बन्धी उदयकृष्टिसे उत्तरसमयवर्ती बन्धको अघन्यकृष्टि में अनन्तगुणा- अनन्त गुणःहीन अनुभाग जानना । इसप्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि वेदककाल के चरमसमयपर्यंत ऐसी ही प्ररूपणा है । क्रोधकी ही द्वितीयसंग्रहकुष्टवेटकके भी ऐसा क्रम लगा लेना चाहिए । बं p उ अधस्तन क्षपणासार बन्धरूप कृष्टियां - उदयरूप कृष्टियां - कृष्टि अध्वान उपरितन अब संक्रमणद्रव्यका विधान कहते हैं संकमदि संगहाणां दव्वं सगहेट्ठिमस्स पढमोति । तद गुदये संखगुणं इदरेसु हवे जहाजोग्गं ॥ १३१ || ५.२२ ॥ अर्थ - विवक्षित स्वकीयकषाय के अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथम संग्रह कुष्टिपर्यंत संग्रहकृष्टियोंका द्रश्य संक्रमण करता है। यहां जिस संग्रहकृष्टिको भोगता है उस संग्रहकृष्टि के अपकर्षित द्रव्यसे संख्यातगुणा द्रव्य उस कृष्टिके अनन्तर भोगने योग्य जो संग्रहकुष्टि है उसमें संक्रमित होता है तथा अन्यकुष्टियों में यथायोग्य संक्रमण करता है । विशेषार्थ --- यदि स्वस्थानमें विवक्षित कषायकी संग्रह कुष्टिका द्रव्य अन्यसंग्रहकूष्टि में संक्रमण करता है तो उस विवक्षित कषायकी शेष अघस्तन कृष्टियों में संक्रमण करता है, यदि परस्थान संक्रमण होता है तो निकटतम कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करेगा और जो द्रव्य जिस कषाय में संक्रमण करता है वह उसी कषायरूप परिणमन कर जाता है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १३१] ६१२१ जिस प्रकार लोकव्यवहार में जमा-खरच कहा जाता है उसी प्रकार यहाँ भी आयद्रव्य और व्ययद्रव्यरूप कथन करते हैं । अन्य संग्रहकृष्टियों का द्रव्य संक्रमण करके विवक्षित संग्रहकष्टि में पाया (प्राप्त हुआ) उसे आयद्रव्य और विवशित संग्रहकृष्टिका द्रव्य संक्रमण करके अन्य संग्रह कृष्टियों में गया उसे व्ययद्रव्य कहते हैं। यहां क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिबिना अन्य ११ संग्रहकष्टियोंके स्वकीय स्वकीय द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देने पर लब्धमें से एकभागप्रमाण द्रव्य संक्रमण करता है अत: उसे 'एकद्रव्य' कहते हैं तथा क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्ट्रि के द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देने. पर लब्धमें से जो एकभागप्रमाण द्रव्य संक्रमण करता है वह 'तेरह द्रव्य है, क्योंकि अन्य संग्रहकृष्टिके द्रव्यसे क्रोषको प्रथमसंग्रहकृष्टि का द्रव्य नोकषायका द्रव्य मिल जाने से से १३ गुणा है। लोभको तृतीयसंग्रहकष्टिमें लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टि और द्वितीयसंग्रहकष्टि का अपकषित द्रव्य संक्रमण करता है इसलिए लोभको तृतीयसंग्रहकुष्टि में आयद्रव्य दो हुआ। लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टि में लोभको प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकर्षितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिए द्वितीयसंग्रहकष्टि में आयद्रव्य एक है तथा लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में मायाकी प्रथम-द्वितीय व तृतीयसंग्रहकष्टिका अपकर्षित द्रव्य संक्रमण करता है अत: लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में आयद्रव्य तीन है । मायाकी तृतीयसंग्रहकष्टिमें मायाको द्वितीय व प्रथमसंग्रहकृष्टिका अपकर्षितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिये मायाकी तृतीयसंग्रहकष्टिमें आय द्रव्य दो है । मायाकी द्वितीय संग्रहकृष्टि में मायाको प्रथमसंग्रहष्टि का अपकर्षित द्रव्य संक्रमण करता है इसलिए मायाको द्वितीयसंग्रहकृष्टि में आयद्रव्य एक है तथा मायाकी प्रथमसंग्रहकष्टिमें मानकी प्रथम, द्वितीय व ततीयसंग्रहकष्टिका अपकर्षित द्रव्य संक्रमित होता है अतः मायाको प्रथमसंग्रहकष्टि में आयद्रव्य तीन हैं। मानकषायकी तृतीयसंग्रहकष्टि में मानकी द्वितीय व प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकर्षितद्रव्य संक्रमित होता है इसलिए मानकी तृतीयसंग्रहकष्टिमें आयद्रव्य दो है, मानको द्वितीयसंग्रहकृष्टि में मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका ही अपकर्षितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिए मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य एक है तथा मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में क्रोधकी प्रथम-द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टि के अपकर्षित द्रव्यका संक्रमण होता है इसलिए मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में आयद्रव्य १५ है। क्रोधकी तृतीयसंग्रह कृष्टि में क्रोधकी प्रथम व द्वितीयसंग्रहकष्टिका अपकषित द्रव्य संक्रमण करता है अतः क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमें आय द्रव्य १४ है, क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टि में क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अपकर्षित Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२) क्षपणासार [गाथा १३१ द्रव्य १३ है इसलिए १४ गुणा संक्रमण होता है अतः क्रोधको द्वितीयसंग्रह कृष्टि में आयद्रव्य १८२ है । यहां १४ गुणा करने का प्रयोजन कहते हैं अनन्तर भोगने योग्य संग्रहकृष्टि में संगात गुणे का संक्रमण होता है वह यहां संख्यातके प्रमाण अपने गुणकारसे एक अधिक जानना । यही क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिको और उसके पश्चात् क्रोधको द्वितोयसंग्रहकष्टिको भोगता है इसलिये क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके अपकर्षितद्रव्यसे संख्यातगुणा द्रव्य द्वितोयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है। प्रयमसंग्रहकृष्टिद्रव्य में गुणकार १३ है अतः उससे एक अधिक (१३+१) करवेपर यहां संख्यातका प्रमाण १४ होगा (१३४१४-१८२) । अन्यसंग्रहकष्टिके वेदक काल में संख्यातका प्रमाण अन्य होगा, उसे आगे कहेंगे। कोषको प्रथमसंग्रहकष्टि में आय द्रव्य नहीं है, क्योंकि वहां आनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है। इस प्रकार आयद्रव्यका कथन करके अब व्ययद्रव्यको कहते हैं क्रोवको प्रयमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य कोषको द्वितीय, तृतीय व मानकी प्रथम. संग्रहकष्टिमें संक्रमण कर गया प्रतः (१८२+१३+१३) क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिका व्ययद्रव्य २०८ हुमा, क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टिका -द्रव्य क्रोधको तृतीय व मानको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमणकर गया इसलिए क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टिका व्ययद्रव्य दो है तथा क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकष्टिमें ही संक्रमणकर गया अतः क्रोध को तृतीयसंग्रहकृष्टिमें व्ययद्रव्य एक ही है । मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि का द्रव्य मानको द्वितीय, तृतीय व मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमणकर गया इसलिए मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका व्ययद्रव्य तीन है, मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी तृतीय व मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमणकर गया अत: मानको द्वितीय-दितीयसंग्रहकृष्टिमें व्ययद्रव्य दो वै । मानको तृतीयसंग्रहकष्टिका द्रव्य मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमणकर गया अत: मानकी तृतीयसंग्रहकष्टिमें पयद्रव्य एक है। मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य द्वितीय, तृतीय व लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिमैं संक्रमणकर गया इसलिए मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि में व्ययद्रव्य तोन है, मायाको द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाको तृतीय और लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित हुआ अत: मायाको द्वितीयसंग्रहकष्टि में व्ययद्रव्य दो है । मायाको तृतीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित हुआ इसलिए यहां व्ययद्रव्य एक ही है। लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि का द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टि में गया इसलिए लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिका व्यय द्रव्य दो है, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३२-१३३ ] [ १२३ लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभको तृतीय संग्रह कृष्टि में संत्रमित हो गया इसलिए लोभकी द्वितीय संग्रह कुष्टि में व्ययद्रव्य एक है तथा लोभकी तृतीयसंग्रह कृष्टिका द्रव्य अन्यत्र नहीं जाता है क्योंकि विपरीतरूप संक्रमणका अभाव है अतः लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमें व्ययद्रव्य नहीं है । क्षपणासार आगे प्रतिसमय होनेवाली अपवर्तनकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं'पडिसमयमसंखेज्जदिभागं खासेदि कंडये विणा । बारससंग किडीणग्गादो कि हिवेदगो शियमा ॥१३२॥५२३ ।। अर्थ - कृष्टि वेदकजीव काण्डक बिना ही बारह संग्रहकृष्टियोंके अग्रभाग से सर्वकृष्टियों के श्रसंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियोंको नियमसे नष्ट करता है । विशेषार्थ - अनन्तगुणी विशुद्धिसे वर्धमान प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकजीव बारह संग्रह कृष्टियों की प्रत्येक संग्रहकृष्टि के अग्रभाग से उत्कृष्ट कृष्टिको आदि करके अनंतकृष्टियों के संगमा कृष्टि लपवर्तनाचा करके उन कृष्टियोंकी अनुभागशक्तिका अपवर्तनकर स्तोक अनुभागयुक्त नीचली कृष्टिरूप करता है । इसीप्रकार द्वितीयादि समयों में भी अपवर्तनाघात करता है, किन्तु प्रथमसमय में जितनी कृष्टियोंका घात किया या द्वितीयादि समयों में घात की जानेवाली कुष्टियोंका प्रमाण उत्तरोत्तर असंख्यातगुणाहीन होता है । यासेदि परट्टाणिय, गोउच्छं अम्गकिट्टीषादादो । सट्टाणियगोउच्छं, संकमदव्वादु घादेदि ॥ १३३ ॥ ५२४ ।। अर्थ - अग्र कृष्टिघातके द्वारा तो परस्थानगोपुच्छको नष्ट करता है और संक्रमद्रव्यरूप (अन्य संग्रहरूप ) पूर्वोक्त व्ययद्रव्य से स्वस्थानगोपुच्छको नष्ट करता है । विशेषार्थ - - विवक्षित एक संग्रहकृष्टि में अन्तर कृष्टियोंका जो विशेषहीन क्रम पाया जाता है वह यह स्वस्थानगोपुच्छ कहलाता है तथा अधस्तनवर्ती विवक्षित संग्रह १. क० पा० सुस पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८८ । जय घ० मूल पृष्ठ २१६८ । २. मुद्रित शास्त्राकार बड़ी टीका में गाथा में "पडिसमयं संखेज्जदिभागं " ऐसा पाठ मुद्रित है. किन्तु क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८८ व गाथा ५३६ के अनुसार एवं गाथा में कथित अर्थानुसार "एडिसमयमसंखेज्जदिभाग" ऐसा पाठ रहा है । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १२४] [गाथा १३४.१३६ कृष्टिको चरमष्टिसे उपरिम अन्यसंग्रहकष्टिको आदिकृष्टि में जो विशेषहीन क्रम पाया जाता है वह परस्यानगोपुच्छ कहलाता है । कृष्टियोंके हीनाधिक द्रव्य का संक्रमण होनेसे चय (विशेष) होनरूप ऋम नष्ट हो जानेसे पूर्व में जो स्वस्थानगोपुच्छ था वह संक्रमणद्रव्यके द्वारा नष्ट हो गया तथा नोचलीसंग्रहकृष्टिकी चरमकृष्टि व उपरिमसंग्रहकृष्टि को आदिकृष्टि में कृष्टियोंका घात होनेसे एक विशेषहीनरूप क्रमका अभाव हो गया प्रतः पूर्व में जो परस्थानगोपुच्छ था, उप्तका अग्रकृष्टिपातद्वारा नाश हुआ। . . . . यहां कोई कहता है कि व्ययद्रव्य तो गया और आय द्रव्य पाया अतः व्ययद्रव्यसे स्वस्थानसोपुछका ना हा मला यायायो स्वस्थानगोपुच्छका होना कहा उसीको कहते हैं- आय और व्यय द्रव्य का कथन आयादो वयमहियं, हीणं सरिसं कहि पि अण्णं च । तम्हा आयद्दब्बा, ण होदि सट्ठाणगोउच्छं ।।१३४॥५२५॥ अर्थ-किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्यसे व्यय द्रव्य अधिक है तो किसी में हीन है और किसी संग्रहष्टिमें आय-व्ययद्रव्य समान भो है । किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य तो है, किन्तु व्य यद्रव्य नहीं है और किसी में व्ययद्रव्य तो है आयद्रष्य नहीं है इसलिए आयद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छका होना मानना ठीक नहीं है । अब स्वस्थान-परस्थानगोपुच्छके सद्भावका विधान कहते हैं घादयदब्बादो पुण वय मायदखेत्तदव्वगं देदि । __ सेसासंखाभागे अणंतभागूणयं देदि ॥१३५॥५२६॥ अर्थ-घातक द्रव्यसे व्यय और आयतक्षेत्रद्रव्यको देनेसे एक गोपुच्छ होता है तथा शेष असंख्यात भागमें अतन्तभाग ऊण द्रव्य दिया जाता है। विशेषार्थ-धात की हुई कृष्टियोंके व्ययद्रव्यको पूर्वोक्त व्यय द्रव्यमें से घटानेपर अवशिष्ट द्रव्यप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे ग्रहणकरके जिन कृष्टियोंका जितना-जितना द्रव्य व्यय हुआ था उनमें उतना-उतना द्रव्य देकर उनको पूर्ण करनेसे स्वस्थानगोपुच्छ होता है। .. उदयगदसंगहस्स य मझिमखंडादिकरणमेदेन । दब्वेण होदि णियमा एवं सबेलु लमयेसु ॥१३६॥५२७॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३७ ] १२ अर्थ – उदयको प्राप्त संग्रहकृष्टिका इस बातद्रव्यद्वारा मध्यमखंडादि किये जाते हैं यह विधान सभी समयों में होता है । झपणासार विशेषार्थ :- जिस संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है उसमें आयद्रव्यका अभाव है अतः संक्रमणद्रव्यसे मध्यमखंडादि नहीं होते हैं । इसलिए मध्यमखण्ड, उभयद्रव्य, विशेष इत्यादि वक्ष्यमाण विधान करने के लिये उस वेदनेरूप संग्रहकृष्टिका असंख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे पृथक् रखकर अवशिष्ट घातद्रव्यको हो पूर्वोक्तप्रकार विशेषहीन क्रमसे एकगोपुच्छाकार द्वारा दिया जाता है। एक भामके आगे मध्यमखण्डादि विधान से द्रव्यदेने का कथन करेंगे। यह विधान सर्वसमय (कृष्टिगत उदय के समयों) में जानना । इसप्रकार घातद्रव्यसे एकमोपुच्छ हुआ, अब जो अन्यसंग्रहका द्रव्य विवक्षित संग्रह में द्रव्य आया उसको पूर्व में आयद्रव्य कहा था उसका नाम यहां संक्रमण द्रव्य कहा जाता है तथा जो द्रव्य नवोनसमयप्रबद्ध में बन्धकरके कृष्टिरूप होता है वह बन्धद्रव्य कहा जाता है । उसका विधान कहते हैं कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यसे कुछ नवीन पूर्वकृष्टियों को करता है । इनमें संक्रमणद्रव्यके द्वारा तो उन संग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिके नीचे कुछ अपूर्वकृष्टियोंको करता है, इनको अघस्तनकृष्टि कहते हैं तथा उन संग्रहकृष्टियों को पूर्वअवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में नवीन पूर्वकृष्टियों को करता है, इनका नाम अन्तरकृष्टि है । बन्धद्रव्य के द्वारा अवयवष्टियोंके बीच-बीचमें ही नवीनअपूर्वकृष्टियों को करता है, इनको भी अन्तरकृष्टि कहते हैं । कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यको पूर्वकृप्टियों में हो निक्षेपण करता है । इसीका विधान अगली गाथा में कहते हैं- हेट्ठा कि द्विपदि संकमिदासंखभागमेतं तु । सेसा संखाभागा अंतर किहिस्स दव्वं तु ॥ १३७ ॥ ५२८ ॥ अर्थ – संक्रमणद्रव्यको असंख्यातका भाग देनेपर उसमेंसे एकभागमात्र द्रव्य तो अधस्तन कृष्टिनादिमें देता है अर्थात् इस एकभाग प्रमाण द्रव्यसे क्रोधकी प्रथम कृष्टिके अतिरिक्त शेष ११ संग्रहकृष्टियों के अधस्तन अपूर्वकृष्टि करता है तथा अवशेष असख्यात - बहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है, इससे अन्तर कृष्टियों के अन्तर में अपूर्व कृष्टियों को करता है । इस गाथाका विशेष अर्थ जाननेके लिये गाथा १४३का विशेषार्थ देखना चाहिए । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १२६) [गाया १३८-१४० संपदा तिमभागं तुम्म पुवकिपिडिबद्धं । सेसाणंता भागा अंतरकिटिस्स दव्वं तु ॥१३८॥५२६॥ अर्थ-बन्धको प्राप्त द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर एकभागप्रमाण तो पूर्वकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है अत: इस एकभाग प्रमाण द्रव्यका पूर्वोक्त कृष्टियों में निक्षेपण करता है तथा अवशिष्ट अनन्त बहुभागप्रमाण द्रव्य अन्तर कृष्टिसम्बन्धी है, इससे नवीन अन्तरकृष्टियों को करता है। इस माथाके सम्बन्ध में विशेषकथन गाथा १४२के विशेषार्थसे जानना चाहिए । कोहस्स पढमकिट्टी मोत्तूणणेकारसंगहाणं तु। बंधणसंकमव्वादपुवकिहि करेदी हु ॥१३६॥५३०॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके बिना अवशेष ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके यथासम्भव बन्ध व संक्रमणरूप द्रव्य से अपूर्वकृष्टियोंको करता है । क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमणद्रव्यका अभाव होने से मात्र बन्धद्रव्य से ही अपूर्वकृष्टि करता है । विशेषार्थ-वेद्यमान क्रोधको प्रथम संग्ग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी संक्रम्यमान और यथासम्भव बघ्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टि की रचना को जाती, किन्तु क्रोधकी प्रथम संग्रहकष्टि सम्बन्धी अपूर्वकृष्टियो मात्र बध्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उसमें संक्रम्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । अतः 'क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिको छोड़कर" ऐसा कहा गया है । मान, माया व लोभको प्रथमसंग्रहकष्टिसम्बन्धी अपूर्वकष्टियां अध्यमान और संक्रम्यमान दोनों प्रकारके प्रदेशाप्रसे रची जाती है, शेष संग्रहकष्टिसम्बन्धी अपूर्वकृष्टियां मात्र संऋम्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उनमें बध्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । यहाँपर अपकर्षित द्रव्यकी संक्रम्यमान संज्ञा है । सर्वत्र यहाँ ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए'। धंधणदव्वादो पुण चदुसट्टाणेसु पढमकिट्टीम् । बंधुप्पवकिट्टीदो संकमकिट्टी असंखगुणा ॥१४०॥५३१॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २१६६ । क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८६ से १०११ तक । ५० पु०६ पृष्ठ ३८५। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपणासार गाथा १४१-१४२] [ १२७ संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण । एक्केस्कबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥१४१॥५३२॥ अर्थ-क्रोधादि चारकषायों की प्रथमसंग्रहकृष्टिरूप चारस्थानों में बन्धद्रव्यसे अपूर्वकृष्टिको करता है । संक्रमणद्रव्यसे पहले ग्यारहस्थानों में कृष्टि रचना कही गई है । बन्धद्रव्यसे होनेवालो अपूर्वकृष्टियोंसे संक्रमणद्रव्यके द्वारा उत्पन्न कृष्टियां फ्ल्यके प्रसंख्यातवेंभागगुणो हैं। असंख्यातपल्पके प्रथमवर्गमूल जाकर एक-एक अपूर्वकृष्टि बन्घती है यही कृष्टिगत अन्तर है। सिमेणार्थ --- बन्धहम समानद्धप्रमाण है, उससे संक्रमणद्रव्य प्रसंख्यातगुणा है । "कृष्टिद्रव्यके अनुसार कष्टियां उत्पन्न होतो हैं" इस न्यायके अनुसार बध्यमान प्रदेशाग्रसे थोड़ो (स्तोक) अपूर्वष्टियां रची जातो हैं, क्योंकि डेढ़गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण सत्त्वद्रव्य के असंख्यातवेंभाग संक्रम्यमाण द्रव्य है। यह संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र बध्यमान प्रदेशाग्नसे पल्यके असंख्यातभागगुणा है । बध्यमानप्रदेशानसे जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं वे चारों हो प्रथम संग्रहकष्टि में से प्रत्येक संग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियोंके अन्तरालों में निर्वतित की जाती हैं, किन्तु प्रथमआदि असंख्यात पल्योपमके प्रथमवर्गमूलप्रमाणकृष्टि अन्तरालों को लांघकर आगे कृष्टि अन्तरालमें प्रथमअपूर्वष्टि रची जाती है । पुनः असंख्यातकृष्टि अन्तरालों उलंघकर द्वितीय अपूर्वकृष्टि रचो जाती है । इसप्रकार असंख्यातपल्योपमके प्रयमवर्गमूलप्रमाण असंख्यातकृष्टि अन्तरालों को छोड़-छोड़. कर तृतीय, चतुर्थादि अपूर्वकृष्टिको रचना होती है । यह कम तबतक चला जाता है जबतक अन्तिमअपूर्वकृष्टि निष्पन्न नहीं होती है । दिज्जदि अणंतभागेणूणकमं बंधगे य गंतगुणं । तगणंतरे गतगुणणं तत्तोणतभागूणं ॥१४२॥५३३॥ अर्थ-बध्यमानद्रव्य पहले अनन्तवेंभागहीन क्रमसे दिया जाता है पुनः अनन्त. गुणा द्रव्य दिया जाता है उसके अनन्तर अनन्तगुगाहोन दिया जाता है तदनन्तर अनंतभागहीन द्रव्य क्रमसे दिया जाता है । १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०६२-६३ व १०९५, १०६६, ११०१ से ११०४ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८५.३६६ । जयधवल पूल ए २१६६ से २१७२ तक । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ क्षपरणासाच [ गाथा १४३ विशेषार्थ-बध्यमानप्रदेशाप्रकी श्रेणिप्ररुपणा कही जाती है.--चारों प्रथमसंग्रहकृष्टियोंके नीचे व ऊपर असंख्यातवेंभाग कष्टियौंको छोड़कर शेषसमस्त मध्यमस्वरूपसे प्रवर्तमान नवाबन्धका अनुभाग पूर्वकष्टि स्वरूप भी होता है और अपूर्वकृष्टिस्वरूप भी। नवकसमय प्रबद्धका अनन्त भाग प्रदेशाग्र पूर्वष्टियोंमें दिया जाता है और शेष अनन्त बहुभाग नबीन अपूर्वकृष्टिस्वरूपसे दिया जाता है। नवकसमयप्रबद्धके उपयुक्त अनन्तवें भागमें से जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्न दिया जाता है । द्वितीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। तृतीयकष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, चतुर्थ कृष्टिमें अनन्तभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। इसप्रकार विशेषहीन विशेषहीन प्रदेशाग्र नवीन अपूर्वकृष्टि के प्राप्त होनेतक दिया जाता है । पुनः अनन्तगुणेप्रदेशाग्र द्वारा अपूर्वकृष्टि निर्धर्तित होती है । इस अपूर्वकृष्टि से अनन्तरकृष्टि में अनन्त गुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। तदनन्तर अनन्तभागहीन-अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र तब तक दिया जाता है जबतक कि अन्य अपूर्वकुष्टि प्राप्त हो । पुनः अनन्तगुणे प्रदेशानद्वारा अन्य अपूर्वकृष्टि निवर्तित होती है, उससे अनन्तरकृष्टि में अनन्तगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है और उससे आगे अनन्तवें भागहोन प्रदेशाग्न दिया जाता है । इसीप्रकार शेष सर्वष्टियों में जानना चाहिए । पूर्व और अपूर्वकृष्टियोंमें गोपुच्छसम्पादन के लिए प्रदेशाग्र का यह क्रम होता है । इसप्रकार बध्यमानप्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टियोंकी रचना कही गई। संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरं होदि । संगह अंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ॥१४३॥५३४॥ अर्थ--संक्रमणरूप द्रव्यसे उत्पन्न हुई अपर्वकृष्टियों में से कुछ कृष्टियां तो संग्रहकृष्टियों के नीचे उत्पन्न होती हैं और कुछ कृष्टियां पूर्वमें जो अवयवकृष्टि थों उनके अन्तरालोंमें होती हैं। यहां संग्रष्टियोंके अन्तराल में नीचे उत्पन्न हुई कृष्टियोंसे अवयवकृष्टियों के अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्टि असंख्यातगुणो हैं । विशेषार्थ-संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती है वे दो अवकाशों (स्थलों) अर्थात् कृष्टि अन्तरालमें भी और संग्रहकृष्टि अन्तराल में भी रची १. ० पा० सुन पृष्ट ६५३ सूत्र ११०५ से १११४ । घ० पु० ६ पृष्ट ३८६ । जयघवल मूल पृष्ठ २०७२ से २०७४ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४४ ] क्षपणासार [ १२६ जाती हैं। क्रोध की प्रथमसंग्रहकष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्व कृष्टियां संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र अर्थात् अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यातवेंभागसे रची जाती हैं अतः वे अल्प हैं । संक्रम्यमाणप्रदेशाग्र अर्थात् अपकषित समस्तद्रव्यके असंख्यातबहुभाग द्वारा कृष्टिअंतरालोंमें जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं उससे संग्रह कृष्टियोंके नीचे अपूर्व कृष्टियोंकी रचनामें दिये जानेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यद्वारा कृष्टिअन्तरालोंमें रची जानेवाली अपूर्वष्टियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि इनकी रचना असंख्यातगुणा द्रव्य लगा है'। संगहअंतरजाणं अपवकिहि व बंधकिहि वा। इद राणमंतरं पुण एल्लपदासंखभागं तु ॥१४४॥५३५॥ अर्थ-संग्रहकृष्टि अन्तरालोंमें जो अपूर्व कृष्टियोंकी रचना की जाती है उनका विधान कृष्टिकरण में निवर्त्य मानकष्टियों के विधान जैसा जानना चाहिए । 'इदराणाम अर्थात् कृष्टि अन्तरालोमें रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंका विधान बध्यमानप्रदेशाग्रसे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियोंके विधान (गाथा १४१-४२) जैसा यहां भी जानना चाहिए, किन्तु यहां अपूर्वकृष्टिगत अन्तर पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातभाग है। __ विशेषार्थ:- कृष्टिकरणकालमें पूर्व में निर्वत्यंमान अपूर्वकृष्टियोंकी जो विधि वही विधि निरक्शेषरूपसे अपकर्षितद्रव्यके द्वारा संग्रहकृष्टियोंके अन्तराल में रची जानेवाली अपूर्वसंग्रहकृष्टियों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए, क्योंकि उष्ट्रकूट श्रेणिके आकार से दिये जानेवाले प्रदेशानकी निषेकप्ररुपणाके प्रति भेदकी अनुपलब्धि पायी जाती है। इसप्रकार उष्ट्रकूटश्रेणिसामान्यकी अपेक्षासे दोनों विधानोंमें कोई विशेषता नहीं है ऐसा कहा गया है, किन्तु अर्थतः (वास्तवमें) देखनेपर इन दोनोंमें सादृश्य नहीं दिखाई देता, क्योंकि दोनों में कुछ विशेषता संभव है । वह विशेषता इसप्रकार है कि कृष्टिकरणकालके प्रथमसमयमें कृष्टिरूपसे परिणत प्रदेशपिण्डसे द्वितीयसमयवर्ती कृष्टियोंमें नि:सिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यात गुणा होता है, उससे तृतीयसमयमें नि:सिध्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यात गुणा है, उससे चतुर्थसमयमें निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा है । इस. १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ६५४ सूत्र १११५ से १११६ । घवल पु०६ पृ० ३८७ 1 जवधवल मूल पृष्ठ २०७४-७५ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५४ सूत्र ११२० से ११२३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८७ । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० क्षपणासार [गाथा १४४ प्रकार कृष्टिकरणकालके चरमसमयपर्यन्त प्रतिसमय कष्टियों में निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड विशुद्धिके माहात्म्यसे असंख्यातमुगा-असंख्यातगुणा होता जाता है। वर्तमानसमय में निर्वतित अपूर्व कृष्टि की चरमकृष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे पूर्व समय में की गई पूर्वकृष्टियों की जघन्यकृष्टि में नि:सिंच्यमान प्रदेशाग्न असंख्यातभागहीन होता है, क्योंकि उसमें पूर्व अवस्थितद्रव्य इतना हो होन दिवाई देता है। तदनन्तर अनन्त भागहानिरूपसे यथाक्रम जाकर पुनः पूर्वसमयमें की गई संग्रहकष्टिसम्बन्धी चरिमष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे वर्तमान समय में द्वितीयसंग्रहकृष्टिने नोचे को मई अपूर्व अवयकामे दिया जानेवाला प्रदेशपिण्ड असंख्यात भाग अधिक होता है। शेष अपूर्वकृष्टियों में अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, इसोप्रकार आगे भी जानना चाहिए । पुनः दृश्यमानप्रदेशाग्र सर्वत्र अनन्तभागहीनरूपसे रहता है। इसप्रकार यहक्रम कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयसे चरिमसमयपर्यन्त जानना चाहिए, किन्तु कृष्टिबेदककालमें ऐसो विधि नहीं होतो, क्योंकि कृष्टिवेदककालको अपूर्वकृष्टियों में नि:सिंच्यमान प्रदेशाग्र पूर्वकृष्टिप्रदेशपिंडसे असंख्यातवेंभागप्रमाण होता है, उससे कृष्टिवेदककालके प्रथमसमय में निर्वत्यं मान अपूर्वकृष्टियों की चरमकृष्टि में निर्तित प्रदेशाग्रसे पूर्व कृष्टिको जघन्यकृष्टिके प्रथमसमयमें प्रदेशाग्न असंख्यातगुणाहीन होता है, अन्यथा पूर्व अपूर्वकृष्टियों की सधिमें एकगोपुच्छकी उत्पत्ति वहीं होगी। अतः कृष्टिकरणविधि और कृष्टिवेदकविधिमै इसप्रकारको विशेषता दिखाने के लिए श्रेणीप्ररूपणा करते हैं कृष्टिवेदककालके प्रथम समय में पूर्वानुपूर्वी को अपेशा लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि के नीचे अपकषित प्रदेशाग्रके द्वारा जो अपूर्वकृष्ट्रियां रची जाती हैं, उनमें से जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है तथा उसके आने चरमकृष्टिपर्यन्त अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है । उसके आगे अपूर्वकृष्टि को चरमकृष्टि में पतित प्रदेशानसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिको पूर्वकृष्टिसम्बन्वी जघन्य कृष्टि में असंख्यातगुणाहीन प्रदेशान दिया जाता है, द्वितोयपूर्वकृष्टिमें उससे अनन्तभागहोन द्रव्य दिया जाता है और यह अनन्तभागहोनरूप द्रव्यका क्रम प्रथमसंग्रहकृष्टिको चरमकृष्टिपर्यन्त जानना। पुनः उस प्रयमसंग्रहकृष्टिको चरमकृष्टि में पतित प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नोचे रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंको जघन्यकृष्टि में असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे आगे अपूर्व चरमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीनरूप क्रमसे द्रव्यका सिंचन होता है । पुनः अपूर्वचरमकृष्टि में निसिंचित प्रदेशाग्रसे, पूर्वनिर्वतित द्वितोयसंग्रहकष्टिको अन्तर Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४४ ] [ १३१ कृष्टि सम्बन्धी जघन्यकृष्टि में असंख्यातगुण' हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उससे आगे अतभागहीन रूप श्रम से होकर द्रव्य निःसिंचित होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वकृष्टियों के अन्तर में रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंकी और पूर्वकृष्टियोंकी संधि में प्रदेशविन्यासका भेद है। इसप्रकार कही गई विधी ऊपर (आगे) भी जानना चाहिए। कृष्टिवेदक के द्वितीयादि समयों में भी निषेकप्ररूपणा इसीप्रकार जानना चाहिए। इस उपर्युक्त fafant अपेक्षा दोनोंमें (कुष्टिकरण व कृष्टिवैदक काल में ) विशेषता सम्भव है इसकी विवक्षा गाथासूत्रमें नहीं है । ग्यारह संग्रहकृष्टियों के नीचे एक-एक पूर्व कुष्टि में से असंख्यात वैभागप्रमाण द्रव्यको अपकर्षित करके पूर्वकृष्टि योंके असख्यातवें भाग मात्र अपूर्वकृष्टियों को करनेवाला उष्ट्रकूट श्रेणी रूप से प्रदेशविन्यास करता है इसको देखते हुए गाथासूत्र में ( कुष्टिकरण व अपूर्वकृष्टि रचना विधानकी) समानता कही गई है' । क्षपणासार जिसप्रकार असंख्यात कृष्टियोंका अन्तर देकर बध्यमान प्रदेशाग्र से अपूर्वकूष्टिया रवी जाती हैं, उसीप्रकार पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण कूष्टियों के अन्तरसे संक्रम्यमान प्रदेशाग्र से अवान्तर कृष्टि योंमें पूर्व कृष्टियां रची जाती हैं । दियमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणा जैसी वहां (बध्यमान प्रदेशाग्र से अपूर्वकृष्टि रचना में) की गई है वैसी ही प्ररूपणा यहां भी जानना, किन्तु यहां उससे थोड़े (अल्प ) अर्थात् प्रथमवर्गमूलके असंख्यातगुणे हीन अन्तरालसे संक्रम्यमान प्रदेशाग्र से अपूर्वकुष्टि रची जाती है । संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र कृष्टि अन्तरों में निर्वर्तित संपूर्वकृष्टि में जो प्रदेशाग्र दिये जाते हैं उनकी श्रेणिप्ररूपणाका विधान बन्धद्रव्यसे निर्वर्तितं प्रपूर्वकृष्टिमें जैसा कहा गया है। वैसा जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि संग्रहकृष्टियोंके नीचे निर्वर्तित प्रपूर्वकृष्टि में पूर्वोक्त क्रमसे प्रदेश निसिक्त करनेके पश्चात् अपूर्वचरम कृष्टिकी अपेक्षा पूर्व जघन्य कृष्टि मैं असंख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्र निःसिंचित किये जाते हैं, उसके आगे उत्कर्षण- अपकर्षणभागहारप्रमाण पूर्वकृष्टियों में अनन्तभागहीनरूप क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं उसके बाद कृष्टिअन्तराल में निर्बंदित की जानेवाली अपूर्व कृष्टिमें असंख्यातगुणे प्रदेशान दिये जाते हैं, तत्पश्चात् प्रचन्तर पूर्व कुष्टि में असंख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं तथा उसके अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र देता है । संधियोंको जानकर यह क्रम विरुद्ध संग्रह कृष्टि के अन्तपर्यन्त जानना चाहिए, इससे ऊपरकी संग्रहकृष्टियों में भी इसी विधान से श्रेणिप्ररूपणा १. जयधवल मूल पृष्ठ २१७५-७६ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १३२ 1 [ गाथा १४५-१४६ करना चाहिए । कृष्टिवेदककालके प्रथम समयकी यह प्ररुपणा जिसप्रकार की गई है, वह सर्वप्ररुपणा उसी प्रकार द्वितीयादि समयों में भी कहना चाहिए' । कृष्टियोंके घातका कथन'कोहादिकिट्टिवेदगपडमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमयं तस्सासंखेजभागकम ॥१४५॥५३६॥ कोहस्त य जे पढमे संगहकि हिम्हि णट्ठकिट्टीओ। बंधुझियकिट्टीणं तस्स असंखेउजभागो हु ॥१४६॥५३७॥ अर्थ--क्रोधको प्रथमसंग्रह कृष्टिका वेदकजीव प्रथमसमय में सर्वष्टियों का असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंको नष्ट करता है तथा द्वितोयसमयमें उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियोंका घात करता है । इसी क्रमसे प्रतिसमय असंख्यातवेंभागप्रमाणरूप क्रमसे कृष्टियोंका घात करता है । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके सर्ववेदककालमें जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं वे क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अवध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं। विशेषार्थ-विशुद्धि के माहात्म्यसे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी कृष्टियों में से अग्रकृष्टिको आदि करके कृष्टियों का असंख्यातवेंभाग प्रतिसमय अपवर्तनाघातद्वारा विवाश किया जाता है। जो कुष्टियो प्रथमसमयमें विनष्ट होती हैं वे बहुत हैं, क्योंकि समस्तकष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं और जो कृष्टियां द्वितीयसमयमें नष्ट को जाती हैं वे प्रथमसमयमें विनष्टकृष्टियोंसे असंख्यातगुणीहीन हैं । यद्यपि द्वितीयसमयमें विशुद्धि अनन्तगुगी बढ़ जाती है तथापि प्रथमसमयमें विनष्ट कृष्टि योंसे रहित शेष बची हुई कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागका घात करता है इसलिये द्वितीय समय में असंख्यात. गुणोहोन कृष्टियोंका नाश करता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयोंमें भी प्रतिसमय अपवर्तनाघातका क्रम जानना चाहिए । यह असंख्यातगुणाहीनक्रम अपने विनाशकालके द्विचरमसमयतक चला जाता है । प्रथमसमयवर्ती कृष्टिबेदकके क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें १. जयघवल मूल पृष्ठ २१७७-७८ । २. इन दोनों गाथासम्बन्धी विषय क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५४.५५ सूत्र ११२४ से ११२८ उक एवं घवल पु० ६ पृष्ठ ३८७-८८ पर भी है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा १४७-१४६ ] क्षपणासार [१३३ ऊपर और नीचेको असंख्यातāभागप्रमाण कृष्टियां अबध्यमान कहलाती हैं । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयसे लेकर निरुद्ध प्रथमसंग्रहकृष्टिके विनाशकालके द्विचरमसमयतक उपरिम अबध्यमानकृष्टियों के असंख्यातवेंभाग मात्र कृष्टियों का विनाश होता है । उपरिम व अधस्तन इन दोनों भागों में से उपरिमभागमें विनष्ट कृष्टियों का प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र विशेष है। जैसा क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके विनाशका क्रम कहा गया है वैसा हो क्रम शेष संग्रहकृष्टियोंके विनाशका भी जानना चाहिए, क्योंकि इसमें विरोधका अभाव है। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथम स्थिति में समयाधिक आवलोकाल शेष रहनेको अवस्थाका कथन कोहादिकिटियादि द्विदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहण्णुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्स ॥१४७५३८॥ ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणी । सत्तोवि य सददिवसा अडमासभहियछवरिसा ॥१४॥५३६॥ घादितियाणं बंधो दलवासंतीमुहुत्तपरिहीणा । सत्तं संखं वस्सा लेसाणं संखऽसंखवस्साणि ॥१४६॥५४०॥ अर्थ-कोषकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथमस्थितिमें समयअधिक आवली अवशेष रहनेपर जघन्यस्थितिको उदीरणा करनेवाला होता है। आवलोके ऊपर जो एकसमय है उस समयसम्बन्धी निषेकको अपषित करके उदयावलिमें निक्षेपण करता है तथा वहीं क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदकका चरमसमय होता है। वहां (पूर्वोक्त समयाधिक आवलिकाल शेष रह जाने पर) संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्त कम १०० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम आठमाह अधिक ६ वर्ष है। तीनघातिया कर्मोंका स्थिति १. जयघवल मूल पृष्ठ २१७८.७६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ २५५ सूत्र ११२६ से ११३१ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३० । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] क्षपणासार [गरथा १४१ बन्ध अन्तर्मुहूर्त कम १० वर्ष है और स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है। शेष (तीन अघातिया) काँका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्ष है'। विशेषार्थ--प्रथमसमयवर्ती कृस्टिवेदक संज्वलनक्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टि में से अवयवकृष्टियोंका अपकर्षण करके उसके द्वारा क्रोधबेदककालके साधिक त्रिभागकालसे एक प्रालि अधिक प्रमाण स्थितिको करता है ! क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिको वेदन करनेपालेकी जो प्रथम स्थिति है उस प्रथमस्थितिका वेदन करते हुए जिससमय एकसमयअधिक आवलिमात्र काल उस प्रथमस्थिति में शेष रह जाता है वही क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके वेदनका अन्तिमसमय होता है। प्रथमस्थिति में समय अधिक आवलिमात्र शेष रह जानेकदान्तिमतिका अगरफेउसाचलिमें क्षेपण करनेवाले के संज्वलनऋोधकी जघन्यस्थितिउदीरणा होती है वहांपर द्वितीयस्थितिसे उदीरणा सम्भव नहीं है, क्योंकि उसप्रथमस्थिति में मालि-प्रत्यालिकाल शेष रह जाने पर पहले ही आगालप्रत्यागालको घ्युच्छित्ति हो जाती है। कृष्टि वेदकके प्रथमसमयसे संज्वलमचतूकके अनुभागसत्वकी जो पूर्वप्रवृत्त अनुसमय अपवर्तना है वह उसीप्रकारसे होती रहती है। पूर्व अर्थात कृष्टिवेदनके प्रथम समय में संज्वलनचतुष्कका स्थिति बन्ध पूर्ण चारमाह होता था यह संख्यातहजार स्थितिबन्धापसर णोंके द्वारा यथा क्रम घटकर प्रथम कृष्टिकी प्रथमस्थिति के एकसमयअधिक आबलिकाल शेष रह जानेपर चालीसदिनअधिक दो माह अर्थात् (४०+६०) १०० दिन रह जाता है। तीनों संग्रहकृष्टियोंके वेदककाल में स्थितिबन्ध दो माह अर्थात् ६० दिन घटता है तो एक (प्रथम) संग्रहकृष्टि के वेदककाल में स्थितिबन्ध कितना कम होगा ? इसप्रकार राशिकविधि करनेपर (५) २० दिन प्राप्त होते हैं, जो कि प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदककालके त्रिभागसे कुछ अधिक है । अतः प्रथमसंग्रहकष्टियेदककाल में चारसंज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्त अधिक २० दिन घटकर अन्तमुहूर्त कम १०० दिन रह जाता है । १. "जा पुश्व पबत्ता संजलणाणुभाग संतकम्मरस अणुसमयमोवदृणा सा तहा चेव" अर्थात् संज्वलन. चतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्व प्रवृत्त अनुसमयवर्ती अपवर्तना है वह उसीप्रकार होती रहती है । (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५५ सूत्र ११३३) यह पाठ जयधवल मूल पृष्ठ २१८० तथा श्वल पु० ६ पृष्ठ ३८८ में भी, किन्तु नेमिचन्द्राचायंने उसे यहां ग्रहण नहीं किया है। २. जय धवल मूल पृष्ठ २१७६-८० । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३८ कृष्टिदककाल के प्रथम संवलनचतुष्कका स्थितितत्त्व आठवर्ष मात्र था । संख्यातहजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा वह स्थितिसत्त्व कमसे घटकर इस समय अर्थात् क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिको प्रयमस्थिति में एकसमयअधिक आवलिमात्रस्थिति शेष रह जाने पर अहूर्त कछवर्ष रह जाता है । तीनों कृष्टियों के वेदककाल में संज्वलनचतुष्कका स्थितिसत्त्व यदि चारवर्ष कम हो जाता है तो प्रथमसंग्रहवेदककाल में कितना कम होगा ? इसप्रकार त्रैराशिकविधिके द्वारा साधिक प्रथमसंग्रहकृष्टिके त्रिभागप्रमाण अर्थात् अन्तर्मुहूर्त अधिक चारमाहसहित एकवर्ष क्रम हो जाता है । इसको आठवर्ष में से कम करनेवर (८ वर्ष - १ वर्ष ४ माह व अन्तर्मुहूर्त ) अन्तर्मुहूर्त - कम आठमास ६ वर्ष शेष स्थितिसत्त्व रह जाता है' । गाथा १५०-१५१ ] क्षपरणासा पूर्वसंधि अर्थात् क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिके बेदककाल के प्रथम समय में तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) घातिपाकमका स्थितिजन्य संख्यातहजारवर्ष था जो यथाक्रम घटकर इससमय ( क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि की प्रथम स्थिति में ) समयाधिक श्रावलिकाल शेष रह जानेपर अन्तर्मुहूर्तकम १० वर्ष रह जाता है और स्थितिसत्त्व पूर्वसंधि में संख्यातहजारवर्ष था. वह संख्यातहजार स्थितिकाण्डकों द्वारा घटकर संख्यातहजार गुणाहीन होतेसे तत्प्रायोग्य संख्यातघर्षप्रमाण रह जाता है । शेष ( वेदनीय, नाम व गोत्र ) तीन प्रघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध पूर्वसंधि में संख्यातहजारवर्षप्रमाण था वह सहस्रों स्थितिबन्धापसरणोंके द्वारा घटकर यथाक्रम घटते हुए संख्यातगुणाहीन होकर भी संख्या हजारवर्षप्रमाण है और स्थितिसत्कर्म भी हजारों स्थितिकाण्ड कघातोंके द्वारा असंख्यातगुणाहीन होकर तत्प्रायोग्य असंख्यातवर्ष रह जाता है । "से काले कोहस् य विदियादो संगहादु पढमठिदी । कोहस्स विदियसंगह कि हिस्स य वेदगो होदि ।। १५० । । ५.४१ ।। कोहस्स पढमसंगह किहिस्सावलिपमा पढमठिदी । दोलमऊपणावलित्रकं च वि चेउदे ताहे ॥ १५१ ॥ ५४२ ।। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८०.८१ । २. जय ध० मूल पृष्ठ २१५१ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५५-५६ सूत्र ११३६-४० व ४१ । ६० पु० ६ पृष्ठ ३६६ । जयत्रवल मूल पृष्ठ २१८१ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] क्षपणासार [गाथा १५२ ____ अर्थ- उसके (क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि वेदनके चरमसमयके ) अनन्तरसमयमें क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टि से प्रथमस्थिति करके क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है। उस समय क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिका द्रव्य और दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध शेष रह जाता है और उसी काल में कोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है। विशेषार्थ-जब प्रथम संग्रहकष्टिको पूर्वोक्त प्रथमस्थिति में उच्छिष्टालिकाल शेष रह जाता है उससमय द्वितीयस्थिति में स्थित क्रोधको द्वितीयकष्टिके प्रदेशात्रों को अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणीके द्वारा द्वितीयसंग्रह कृष्टिके वेदककालसे आवलि. अधिककाल द्वारा प्रयमस्थितिको करता है । क्रोधकी द्वितोयसंग्रहकृष्टि में से अपकर्षणकरके प्रथमस्थितिको करनेवालेके उससमय दोसमयकम दोआवलि प्रमाण नवकसमयप्रबद्धरूप प्रदेशान और उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रदेशानको छोड़कर क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के शेष समस्त प्रदेशाग्र क्रोधको द्वितीय कृष्टिरूप संक्रमण कर जाते हैं। क्रोधको द्वितीयकृष्टिसे प्रथमष्टि तेरहगुणी थी, क्योंकि प्रथमसंग्रह कुष्टिमें नोकषायका भी द्रव्य था। प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य द्वितीयसंग्रहकष्टिके नीचे अनन्तगुणहीन परिणमन करके अपूर्वकृष्टिरूप होकर प्रवृत्त करता है, उससमय शेष पृथक् पृथक् संग्रहकष्टिके द्रव्यसे इसका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है, क्योंकि प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य इस द्वितीयकृष्टि रूप संक्रमित होगया है । नक्कबन्ध और उच्छिष्टावलिके प्रदेशान यथाक्रम प्रतिसमय दूसरीकृष्टिमें संक्रमण करते हैं, उसोसमय क्रोधको द्वितीयकृष्टि का वेदक होता है। पढमादिसंगहाणं घरिमे फालिं तु विदियपहुदीणं । हेट्ठा सव्वं देदि हु मउझे पुज्वं व इगिभागं ॥१५२॥ ५४३।। अर्थ- प्रथमादि संग्रहकष्टियोंके अन्तिमसमयमें जो संक्रमणद्रव्यरूप फालि है उसका (बहुभाग) द्रव्य तो द्वितीयादि संग्रहकृष्टियोंके नोचे सर्वत्र देता है और एकमागरूप द्रव्य पूर्ववत् मध्य में देता है । विशेषार्थ---जिस संग्रहकष्टिको भोगता है उसका नब कसमयप्रबद्धविना सर्वद्रव्य सर्वसंक्रमणरूप है और वही अन्तिमफालि है, इसको अनंतर समयमें भोगी जानेवाली १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८१-८२ । २. इस गाथाका विषय जयधवल मूलमें नहीं है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १५३-५४] [१३७ संग्रहकृष्टिके नीचे और मध्य में अपूर्वकृष्टिरूप परिणमाता है, वहां उस संग्रहकृष्टिको अवयवकृष्टियोंके मध्य में जो अपूर्वकृष्टियां करता है, उनको पूर्ववत् चरमसमयवर्ती स्वकीय द्रव्य के असंख्यातभागप्रमाण द्रव्यसे रचता है तथा अवशिष्टद्रव्यसे उस संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियों को करता है, क्योंकि यहां क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिके अनंतर द्वितीयसंग्रहष्टिको भागता है अतः देता बिधान जानना । 'कोहल विदियकिट्टी वेदयमाणस्स पढमकिर्टि वा । उदो बंधो णासो अपुवकिट्टीण करणं च ॥१५३॥५४४॥ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालेके उदय, बन्ध, घात तथा संक्रमण व बन्ध द्रव्यसे अपूर्वकृष्टियोंका करना आदि विधान प्रथमसंग्रहकृष्टिबत् ही जानना। विशेषार्य:-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदककालमें जो विधि कही गई है वही विधि द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदककालमें भी जानना चाहिए | वह इसप्रकार है-उदीर्ण कृष्टियोंकी, बध्यमान कृष्टियोंकी, विनाश की जानेवाली कृष्टियोंकी, बध्यमान प्रदेशाग्रसे नियमान कृष्टियोंकी तथा संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वय॑मान अपूर्वकृष्टियोंकी विधि प्रथमसग्रह कृष्टिकी प्ररुपणाके समान है। 'कोहस्ल विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्स संकमणं । सट्टाणे तदियोत्ति य तदणंतरहेट्ठिमस्स पढमं च ॥१५४॥५४५|| . अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदकके स्वस्थान अर्थात् विवक्षित कषायमै ही संक्रमण तो तृतीयसंग्रहकृष्टि में होता है और परस्थान अर्थात अन्यकषायमें जो संक्रमण होता है वह उसके नीचे जो (मान) कषाय है उसको प्रथमसंग्रहकृष्टि में होता है । विशेषार्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रको क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टि में और मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि संक्रमित करता है १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४२ से ११४४ तक 1 धवल पु. ६ पृष्ठ ३८६ । २. जयधवल मुल पृष्ठ २१८२ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३८६ । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] क्षपणासार [ गाथा १५५ अन्यकृष्टियों में नहीं, क्योंकि संक्रमण आतुपूर्वी रूपसे होता है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्वस्थानस्वरूप क्रोधको तृतीयकृष्टि में अपकर्षणभागहारसे संक्रमण करता है और परस्थानस्वरूप मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्वारा संक्रमण करता है। क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है, क्योंकि अन्यत्र संक्रमण असम्भव है। यहां भी अधःप्रवृत्तसक्रमण होता है । पढमो विदिये तदिये हेट्रिम पढमे च विदिगगो दिये। हेट्ठिमपडमे सदियो हेट्ठिमपढमे च संकमदि ॥१५५ ।।५४६॥ अर्थ-विवक्षित कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य तो अपनी द्वितीय, तृतीय और अधस्तनवर्ती कषायको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है, द्वितीय संग्रहकृष्टिका (विधक्षितकषायकी) द्रव्य अपनी तृतीय व अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है तथा (विवक्षितकषायकी) तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य अधस्त नवर्ती कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में हो संक्रमण करता है। [नोट--इस गाथाका सम्बन्ध गाथा १३१ से है] विशेषार्थ--यहां जिस कषायका वेदन कर रहा है उस विवक्षित कषायके अनन्तर जिस कषायका वेदन करेगा उसे अधस्तन वर्ती कषाय कहा गया है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टिके प्रदेशसमूहका क्रोधको तृतीय व मानकषायको प्रथम संग्रहकष्टि में संक्रमण करता है, क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है । मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी द्वितीय-तृतीय व मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है, मानकषायको द्वितीयसंग्रहकष्टिके द्रव्यका मानको तृतीय व मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और मानकषायकी सतीयसंग्रहकष्टि के द्रव्यको मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है। मायाकषायको प्रयमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यका संक्रमण मायाको द्वितोय-तृतीय व लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में होता है, माया कषायको द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाको तृतीय व लोभ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ से ११५६ ५ धवल पु०६ पृष्ठ ३८६-६० । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपणासाय गापा १५६-५७] [१३६ की प्रथमसंग्रहकष्टि में संक्रमण करता है तथा मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यको लोभ. की प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है। लोभकषायकी प्रथम संग्रहकष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है और लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टि. के द्रव्यका संक्रमण लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिमें करता है, (देखो गाथा १३१ की टोका) क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें भी दिया जाता है । यहां विवक्षित कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्य स्वस्थानमें (अपनी ही अन्य संग्रहकृष्टिमें) संक्रमित करता है और परस्थानमै (अन्यकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टि में) विवक्षितकषायके द्रव्यको अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्यका संक्रमण करता है। कोहस्त पढमकिट्टी सुराणोत्तिण तस्स अस्थि संकमणं । लोभंतिमकिटिस्स य णस्थि पडिस्थावणणादो ॥१५६॥५४७॥ अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि तो शून्य हो गई (नास्तिरूप हो गई) अतः + उसका संक्रमण नहीं होता तथा लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नहीं है, क्योंकि अतिस्थापनाका अभाव है। विशेषार्थ-इसप्रकार क्रोधकी प्रथम व लोभको तृतीयसंग्रहकष्टि बिना शेष दशसंग्रहकष्टियोंके द्रव्य का संक्रमण करता है । वेदन करने योग्य द्वितीयसंग्रहकष्टि में यद्रज्यका अभाव है अत: वहाँ घात (व्यय) द्रव्यको पूर्वष्टियों में पूर्वोक्तप्रकार दिया जाता है तथा लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टि में व्ययद्रव्य नहीं, किन्तु आयद्रव्य ही है अतः दशसंग्रहकृष्टियों में संक्रमण द्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार पूर्व-अपूर्वकृष्टियों में दिया जाता है। 'जस्स कसायरस जं किहि वेद यदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किदि तु बंधदि हु॥१५७१५४८॥ अर्थ--जिसकषायको जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उसो संग्रहकष्टिका बन्ध करता है तथा अन्यकषायोंकी प्रथमसंग्रहकष्टिका बन्ध करता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३-८४ । २. क. पा० सूत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६०। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाय १४०] [ गापा १५८ विशेषार्थ- शङ्का-जैसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिका वेदन करनेवाला चारों कषायोंको प्रथमकृष्टियोंका बन्ध करता है उसी प्रकार क्रोधको द्वितीयकृष्टि का वेदन करनेवाला क्या चारों ही कषायोंकी द्वितीयकृष्टियोंका बन्ध करता है ? समाधान--जिसकषायकी जिसकृष्टिका वेदन करता है अर्थात् प्रथम द्वितीय या तृतीयकृष्टिका बेदन करता है तो उस कषायकी उसी कृष्टि को बांधता है । वेद्यमान कषायके अतिरिक्त अन्य अधस्तनवर्ती कषायों की प्रथमसंग्रहकष्टि का बन्ध करता है, क्योंकि अन्यप्रकार असम्भव है। क्रोधकी द्वितीयकृष्टि का वेदन करने वाला क्रोधकी द्वितीय. कृष्टिका बन्ध करता है, किन्तु मान-माया व लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टि का बन्ध करता है । इसीप्रकार उपरितनकृष्टियोंका वेदनकरने बालोंके भी लगा लेना चाहिए। 'माणतिय कोहत दिये मायालोहस्स तिय तिये सहिया। संखगुणं वेदिज्जे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥१५८।५४६।। अर्थ-यहां संग्रहकृष्टियों में अवयवकृष्टियोंके द्रव्यका अल्पबहुत्व कहते हैं ~~~ मानकी तीन, क्रोधकी एक तृतीयकृष्टि तथा माया व लोभको तीन-तीन, इन संग्रहकृष्टियों में तो विशेष अधिक और वेद्यमान क्रोधकी द्वितीयकृष्टि में कृष्टियोंका और प्रदेशोंका संख्यातगुणाप्रमाण क्रमसे है। विशेषार्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदन करनेवाले जीवके ग्यारहसंग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्य इसप्रकार है-कृष्टिवेदकके मानको प्रथम संग्नहकुष्टिको अवयवकष्टियां व प्रदेशाग्न अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवेंभाग होते हुए भी सबसे अल्प है, क्योंकि स्तोकद्रव्यसे निर्वतित हुई है । मानकषायको द्वितीयसंग्रहकृष्टि में अंतर. कृष्टियां विशेष अधिक हैं । पल्यके असंख्यातवैभागका भाग देने पर जो लब्ध पावे उतनी अधिक है, क्योंकि स्वस्थानमें यह प्रतिभाग है । तृतीयसंग्रहकृष्टि भी उतनी ही अधिक है । मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टि की अवयवकृष्टियां विशेष अधिक है । आवलिके असंख्यातवेंभागका भाग देने से जो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योंकि पर १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११५७ । जयघवल मूल पृष्ठ २१८४ । २. जय ५० मूल पृष्ठ २१८४ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६३ से ११७४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६०-६१ । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गाथा १५६ ] [ १४१ स्थान में आवलिका असंख्यातवां भाग प्रतिभागस्वरूप है । इसीप्रकार ऊपर भी स्वस्थानविशेष और परस्थानविशेष कहना चाहिए। उससे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अंतर कृष्टियां विशेष अधिक हैं । मायाको द्वितीय संग्रह कृष्टिकी अंतर कृष्टियां विशेष अधिक हैं, मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टिय विशेषअधिक हैं । इससे लोमको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, उससे लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियों विशेषअधिक हैं उससे कोषको द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां संख्यात अर्थात् चौदहगुणी हैं, क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म के सम्पूर्णद्रव्यसे २४ कृष्टियां बनीं थीं । क्रोधको द्वितीयष्टिमें अपना मूल द्रव्य तो है, किन्तु इसमें क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य ३३ प्रविष्ट होने से इसका द्रव्य (+) २४ हो गया । अतः अन्तरकृष्टियां व प्रदेशाग्र भी चौदहगुणा हो गया' । "वेदिज्जादिट्टिदिए समयाहियमावलीय परिसेसे । ताहे जहरपुदीरणनरिमो पुणु वेदगो तस्स || १५६ ।। ५.५० ।। अर्थ – बेद्यमान कृष्टिकी प्रथम स्थिति में समयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर जघन्य उदीरणा होती है और विवक्षित कृष्टिके वेदककालका चरससमय होता है । क्षपणासास विशेषार्थ - वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थिति में आवलि - प्रत्यावलि शेष रहनेपर आगाल- प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । यद्यपि कृष्टिकरणकाल के प्रारम्भ से ही मोहनीय कर्मके उत्कर्षणका अभाव हो जानेसे प्रथमस्थितिके प्रदेशात्रका द्वितीयस्थिति में संचार नहीं होता तथापि द्वितीय स्थिति से प्रदेशाग्रका अपकर्षण होकर प्रथमस्थिति में आगमन होता है अतः आगाल- प्रत्यागाल कहा जाता है । इसके पश्चात् एकसमयकम आवलिकाल व्यतीत हो जानेपर जब प्रथम स्थिति में एकसमयाधिक एकआवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है अर्थात् उदयावलिसे बाह्यस्थित निषेकके द्रव्यका अपकर्षणद्वारा उदयावलिमें निक्षेप होता है वही विवक्षितकृष्टिके वेदनका चरमसमय होता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८५-८६ । २. क० पा० सुत पृष्ठ ८५० सूत्र १९७५-७६ | बबल पु० ६ पृष्ठ ३६१ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] क्षपणासार [ गाया १६०-१६२ संभो अंतोमुहत्तपरिहीणो । 'ताहे संजलगा सत्तोत्रिय दिसीदी चउमासम्भहियपणवस्ता ।। १६० ।। ५५१ ।। घादितियाणं बंधी वासपुधत्तं तु सेसपयडीगां । वस्सागां संखेजलइस्लाणि हवंति यिमेण ॥। १६१ ।। ५५२ ।। घादितियाणं सत्तं संखसहस्सा होंति वस्ताणं । तिराई विषादी वस्ाणि असंखमेत्ताणि ।। १६२ ।। ५५३ ।। अर्थ -- वही (क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिवेदक के चरमसमय में ) संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ८० दिन मात्र है और उनका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम चारमास अधिक पांच वर्षप्रमाण है । तीनघातिया कर्मो का स्थितिबन्ध पृथक्त्ववर्षप्रमाण तथा शेष रहे अघातियाकमका स्थितिबन्ध नियमसे संख्यातहजारवर्षप्रमाण है । तीन घातिया कर्मोंका स्थित्तिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है तथा (आयुबिना) तीन अघातिया - कर्मोका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षमात्र है । विशेषार्थ - क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिवेदक के चरमसमय में संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त क्रम १०० दिन होता था, वह यथाक्रम घटकर क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्ट वेदकके चरमसमय में अन्तर्मुहूर्तकम ८० दिन रह गया और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तम आठमाहअधिक छहवर्षसे यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्तकम चारमास अधिक पांचवर्ष रह गया । क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिवेदक के चरमसमय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंका स्थितिन्बध अन्तर्मुहूर्त क्रम १० वर्ष होता था जो यथाक्रम घटकर क्रोधकी द्वितीय कृष्टिवेदकके चरमसमय में अन्तर्मुहूर्तकम वर्ष पृथक्त्व रह जाता है । तीनसे अधिक और ६ से कम यथायोग्य संख्याको पृथक्त्व कहते हैं । शेष अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मीका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता था वह अब भी संख्यातहजारवर्षमात्र ही है, किन्तु पहले से हीव है । इसीप्रकार तीनघातिया कर्मो के विषय में स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण जानना । १. इन तीनों गाथासम्बन्धी विषय क० पा० सुत पृष्ठ ८५० सूत्र ११७७ से ११८२ और घवल ५० ६ पृष्ठ ३६१-६२ पर भी है । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार पाया १६३-१६४ ] [१४३ तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व यद्यपि असंख्यातहजारवर्ष है तथापि पहिलेस हान है। यह स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व पूर्वोक्त राशिकविधिसे प्राप्त करना चाहिए' । से काले कोहस्स य तदियादो सग्गहादु पढमठिदि । अंते संजलणाणं बंधं सत्तं दुमास चउवरला ॥१६३।।५५४॥ अर्थ-पूर्वोक्त क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि वेदनके चरमसमयसे अनन्तर समयमै क्रोधकी तृतीयसंग्रहकष्टि के प्रदेशाग्रसे प्रथमस्थिति होती है उसके अन्तिमसमयमें संज्वलनचतुष्कका बन्ध दोमाह और स्थितिसत्व ४ वर्ष होता है । विशेषार्थ--क्रोधको तृतीयसंग्रहष्टिका जो द्रव्य द्वितीयस्थिति था उसमें से अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करनेवाला क्रोधको तृतीयकृष्टि का प्रथमसमयवर्तीवेदक होता है उससमय द्वितीयकृष्टिके दो समयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलि प्रमाण द्रव्यको छोड़कर शेषसर्वद्रव्य तृतीयष्टिरूप परिणमन कर जाता है । इसप्रकार क्रोधकी तृतीयकृष्टिका द्रव्य चारित्रमोहनीयकर्मके द्रव्यका (+) ५ भाग हो जाता है। उसोसमय क्रोधको तृतीयकष्टिकी अन्तरष्टियोंके असंख्यातवें भागकी उदीरणा होती है और असंख्यातवेंभागप्रमाण कष्टियोंका बन्ध होता है, किन्तु उदीरणासे बन्धकृष्टियों की संख्या अल्प है । कोषको द्वितीयकृष्टि के वेदनका जो विधान कहा गया है वहीं तलीयसंग्रह कृष्टिका जानना । प्रथमस्थिति में जब आवलि-प्रत्यावलिकाल शेष रह जाता है उससमय आगाल-प्रत्यागाल की व्युच्छित्ति हो जाती है और एकसमयअधिक आवलिकाल रहनेपर जघन्य स्थितिउदीरणा होती है, उसोसमय क्रोधका चरमसमयवर्ती वेदक होता है और तभी संज्वलन चतुष्कका स्थितिबन्ध पूर्ण दोमास एवं स्थितिसत्त्व चारवर्षप्रमाण होता है । इसीप्रकार पूर्वोक्त राशिकविधिसे शेषकर्मोंका भी स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व जान लेना चाहिए। से काले माणस्स य पढमादो संगहादु पढमठिदी । माणोदयअद्धाए तिभागमेत्ता हु पढमठिदी ॥१६४॥५५५॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८७1 २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५८-५६ सूत्र ११८३ से ११६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ । ३, जयधवल मूल पृष्ठ २१८७-८६ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६१-६२ । ५० पु० ६ प ३६२-६३ । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] क्षपणासार [ गाथा १६५ ___ अर्थ-क्रोधवेदककाल के अनन्तरसमयमें मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमस्थितिको करता है जिसका काल मानोदयकालके तृतीयभागमात्र है। विशेषार्थ-क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके चरमसमयसै अनन्तरसमयमें मानको प्रथमकृष्टिके द्रव्यको द्वितीय स्थिति से अपकर्षित करके प्रथम स्थितिको करता है। क्रोधबेदककालसे विशेषहीन मानवेदकका सर्वकाल होता है। इस मानवेदकके सर्वकालके तृतीयभागप्रमाण मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। मानको प्रथमकृष्टिवेदकके कालसे आवलिप्रमाण अधिक प्रथमस्थिति होती है । मानकी प्रथमकृष्टिको वेदन करनेवाला प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंके असंख्यातबहुभाग प्रमाण अन्तरकृष्टियोंका वेदन करता है और उसोसमय उन कृष्टियोंसे विशेषहोन कृष्टियों को बांधता है, क्योंकि वेद्यमान कुष्टियों में ऊपर और नीचेको असंख्यातवेंभागप्रमाण कष्टियोंको छोड़कर मध्यवर्ती बहुभागप्रमाण कृष्टिरूपसे बन्ध होता है ऐसा पहले कहा जा चुका। क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलिके द्रव्यको छोड़कर शेष सर्वद्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन कर जाता है, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमणके वशसे मानमें संक्रमण होना अविरुद्ध है। क्रोवके प्रदेशाग्र मानरूप संक्रमित हो जानेपर जबतक संक्रमावलि व्यतीत नहीं हो जाती तबतक उनका उदय नहीं होता । क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके उपरिमभागमें अपूर्वकृष्टिरूप होकर परिणमन नहीं करता, किन्तु मानकी सदृश अनुभागवाली कृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिरूपसे क्रोधका प्रदेशाग्न परिणमन करता है। उसमें भी थोड़ाद्रव्य तो पूर्व कृष्टिरूपसे तथा बहुतद्रव्य अपूर्वकृष्टिरूपसे परिणमन करता है। क्रोधकी तृतीयकृष्टि का द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में परिणमन करने से मानकी प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य १६ गुणा हो जाता है, शेष दो कषायों (माया व लोभ) की प्रथमसंग्रहकृष्टियोंका बन्ध होता है'। 'कोहपढम व मारणो चरिमे अंतोमुहत्तपरिहीणो । दिणमासपएणवत्तं धंधं सत्तं तिसंजलणगाणं ॥१६५।।५५६॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २१८६ से २११० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६६-६६ । धवल पु०६ पृष्ठ ३६३ । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६६] क्षपणासाब [ १४५ अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिको जिस विधीसे वेदता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करता है। मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि वेदक के चरमसमयमें संज्वलन त्रयका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम ५० दिन और स्थितिसत्त्व अन्त मुहूर्त कम ४० माह होता है। विशेषार्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे अग्रकृष्टि आदि असंख्यातवेंभाग उपरिमकृष्टियोंका प्रतिसमय अपवर्तनाघात करता है उसीप्रकार भानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाला कृष्टियोंका अपवर्तनाघात करता है । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे बध्यमान प्रदेशाग्रसे और संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टिके अन्तरालोंमें और संग्रहकष्टिके अन्तरालोंमें यथासम्भव अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का वेदक अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है तथा क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदक जिसप्रकार कृष्टियोंके बन्ध व उदयसम्बन्धी प्रतिसमय अनन्तगुणे होनरूपसे अपसरणोंको करता है उसीप्रकार मान की प्रथमसंग्रहकृष्टि का वेदक अपसरणोंको करता है । इन करणों में तथा अन्यकरणों में कोई अन्तर नहीं है। मारकी प्रथा परामकृष्टिनेटका के इस प्रकार प्रथमस्थिति क्षीण होते हुए जब एकसमयअधिक आवलि काल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है और मानकी प्रथमसंग्रहकुष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर स्थिति बन्ध तो अन्तर्मुहूर्त कम ५० दिन अर्थाद एकमाह २० दिन एवं स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम ४० माह अर्थात् ३ वर्ष चारमाह रह जाता है । यह पूर्वोक्त श्रराशिक विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए। 'विदियस्स माणचरिमे चत्तं बत्तीस दिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो तिसंजलणगाणं ॥१६६।५५७।। अर्थ-इसके अनन्तर मानको द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदक होता है और उसके चरमसमय में तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्तकम ४० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम बत्तीसमासप्रमाण है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६०-६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०० से १२०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] क्षपणासार [ गाथा १६७ विशेषार्थ--मानको प्रथमसंग्रहकष्टिका बेदक चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थिति में से मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणिरूपसे प्रथमस्थिति में क्षेपण करता है और द्वितीयसंग्रहकष्टिको उसी विधिसे वेदन करता हुआ जबतक प्रथमस्थितिमें एकसमय अधिक प्रावलिकाल शेष रहता है तबतक पूर्वोक्त विधिसे सत्र कार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थिति शेष रह जानेपर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है, उससमय तीन संज्वलनकषायोंक स्थितिबन्ध स्थान भटकर अन्त हूतकम ४० दिन अर्थात् १ मास १० दिन और स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्त कम ३२ माह अर्थात् २ वर्ष ८ माह रह जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध तो १० दिन और स्थितिसत्त्व माठमाह घट जाता है । यह सब पैराशिक विधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए' । 'तदियस्स माणचरिमे तीसं चउवीस दिवसमासाणि । तिरहं संजलणाणं ठिदिषंधो तह य सत्तो य ।।१६७॥५५८।। अर्थ-उसके पश्चात् मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, उसके चरमसमय में तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम ३० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहूर्तकम २४ माहप्रमाण होता है । विशेषार्थ-मानकषाय की द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदककालके घरमसमयके अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानका अपकर्षणकरके पूर्वोक्तप्रकार प्रथमस्थिति करता है और उसी विधिसे मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिप्रमाणकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है और जब एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मानका चरमसमयवर्ती वेदक होता है तब तीनों संज्वलनकषायों (मान, माया व लोभ) का स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर ३० दिन अर्थात् एकमास और स्थितिसत्त्व भी यथाक्रम घटकर २४ मास अर्थाद परिपूर्ण २ वर्ष रह जाता है। यहां भी घटनेका काल राशिकविधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१-६२ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ५६० सूत्र १२.४ से १२०८ । धवल पु० ६१० ३६४ | ३. जयघवल मूल प २१६२ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६५-१६६ ] क्षपणासार [१४७ 'पढमगमायाचरिमे पणवीसं वीस दिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलग्णगाणं ॥१६८१५५६॥ अर्थ--उसके अनन्तर मायाकषाय की प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, इसका वेदककाल मायाके सम्पूर्ण वेदककालका त्रिभागमात्र है। इसके चरमसमय में संज्वलनमाया व लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम २५ दिव और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम २० माहप्रमाण होता है। विशेषार्थ-मानकषायके वेदनके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे मायाको प्रथमकृष्टि के प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है और उसी विधिसे मायाको प्रथमकृष्टि को वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उसमें एकसमयाषिक आधलिकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुया चला जाता है। प्रथमस्थिति में एकसमयाधिक आयलिकाल शेष रहने पर माया और लोभ इन दोनों संज्वलनोंमा स्थितिबन्ध अमर्न कम २५ दिवम और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम २० माह होता है । यहां भी घटने का प्रमाण त्रैराशिक विधो से ही प्राप्त करना चाहिए । विदियगमायाचरिमे वीसं सोलं च दिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलणगाणं ॥१६६॥५६०॥ अर्थ--उसके पश्चात् मायाकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है उसके चरमसमयमें दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम २० दिन और स्थितिसत्त्व अंतमुंहूतंकम १६ माहप्रमाण होता है । विशेषार्थ-मायाकषायको प्रथमकष्टिके चरमसमयसे अनन्तरवर्तीसमयमें द्वितीयस्थितिसे मायाकी द्वितीयकृष्टि से प्रदेशानका अपकर्षण करके मायाकी द्वितीयकृष्टि सम्बन्धी प्रथम स्थितिको करता है, वह मायाको द्वितीयकृष्टिका वेदक भी पूर्वोक्त घिधिसे द्वितीयकृष्टिको तबतक वेदन करता है और सर्वकार्य तबतक करता है जबतक प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक एकावलिकालशेष रहता है। उससमय दो (माया व लोभ १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०६ से १२१२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३६४ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२ । ३. क. पा. सुत्त पृष्ठ १६०-६१ सूत्र १२१३ से १२१६ । धवल पु. ६ पृष्ठ ६६५ । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] क्षपणासार [गाथा १७०-७१ संज्वलनकायों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम २० दिन और स्थिति सत्त्व अन्त मुहूर्त कम 'तदियगमायाचरिमे पण्णरवासय दिवसमासाणि । दोण्हं संजलणाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥१७०॥५६१॥ मासपुधत्तं वासा संखसहस्साणि बंध सत्तो य । घादितियाणिदराणं संखमसंखेज्जवस्साणि ।।१७१॥जुम्म।।५६२।। अर्थ-उसके अनन्तर मायाको तृतीयसंग्रहकाष्टिका वेदक होता है, इसके अन्तिमसमयमें दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध १५ दिन और स्थितिसत्त्व १२ मास प्रमाण होता है और यहीं तीन घानियाकाँका स्थितिबन्ध पृथवश्वमासप्रमाण है एवं स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षमात्र है । तथैव तोन अघातिया कोका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षप्रमाण व स्थिति सत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण है। विशेषार्थ-मायाकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि के वेदनके चरमसमयसे अनन्त रवर्तीसमयमें द्वितीयस्थितिसे मायाकी तृतीयकृष्टि से प्रदेशाग्र अपकर्षणकरके मायाको तृतीयकृष्टि सम्बन्धी प्रथमस्थिति की जाती है और उसो विधीसे मायाको तृतीयकृष्टिको वेदन करनेवालेकी प्रथमस्थिति एकसमयाधिक आवलि शेष रहनेतक सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है । प्रथमस्थिति में एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मायाकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है और चरमसमयका देदक होता है, उससमयमें माया 4 लोभ इन दोनों संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध पूर्ण १५ दिन और स्थितिसत्त्व पूर्ण १२ मास (१ वर्ष) प्रमाण होता है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध पथक्त्वमास व स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है । नाम, गोत्र और वेदनोय इन तीन प्रघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्ष है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२-२१६३ । २. इन दोनों गाधाओंका विषय क. पा० सुत्त पत्र ५६१ सूत्र १२१७ से १२२४ तक तथा पवल पु० ६ पष्ठ ३६५ पर भी है। ३. जय धवल मूल पृष्ट २१६३ । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा १७२-१७३ ] क्षपणासार [ १४६ 'लोहस्स पढमचरिमे, लोहस्संतोमुत्त बंधदुगे। दिवस पुधत्तं वासा, संखसहस्साणि घादि तिये ॥१७२।५ ६३॥ सेसाणं पयडीणं, वासपुधत्तं तु होदि ठिदिबंधी । ठिदिसत्तमसंखेज्जा, वस्त्राणि हवंति णियमेण ॥१७३॥जुम्मा५६४॥ अर्थ-लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके चरमसमयमें लोभका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तम हतप्रमाण है और तीन घातियाकर्मोंका स्थिति बन्ध पथक्त्व दिवस तथा स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है । शेष तीन अघातियाकोका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व और स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष होता है ऐसा नियमसे जानना । विशेषार्थ--संज्वलनमायाकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका बेदककाल यथाक्रम परि. समास होनेपर अनन्तरवर्तीसमय में द्वितोयस्थितिमें स्थित लोभ की प्रथमसंग्रहकष्टि में से प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके उदयादि गुणश्रेरिणरूपसे क्षेपणकर अपने वेदककालसे आवलिअधिक काल प्रमाण प्रथम स्थितिको करता है । लोभवेदकके सर्वकालके त्रिभागसे कुछअधिक अथवा बादरलोभवेदककालके आधेसे कुछअधिक प्रथमस्थितिका काल होता है । उसी पूर्वोक्त विधानसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरष्टियोंके असंख्यातबहभागकी उदीरणा होती है और उससे विशेषहीन कृष्टि योंका बन्ध होता है, प्रतिसमय कृष्टियोंके बन्ध व उदयसम्बन्धी निवर्गणाकरण अर्थात् अनन्तगुणीहानिरूपसे अपसरण होता है, अनुभागसत्त्वका प्रतिसमय अपवर्तनाघात होता है, बध्यमान व संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टियों के नीचे तथा संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको रचना होती है। इस विधिसे लोभकी प्रथमकृष्टिको वेदता हुआ जब प्रथम स्थितिमें एक समयाधिक आवलिकाल शेष रह जाता है उससमय जघन्य उदीरणाका तथा चरमसमयवर्ती वेदक होता है और संज्वलन लोभका पूर्वबद्ध स्थितिबन्ध यथात्राम घटकर मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, तथैव स्थितिसत्त्व भी घटकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही शेष रहता है, किन्तु यह अन्तर्मुहूर्त स्थितिबन्धके अन्समुहूर्तसे संख्यातगुणा है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय, इन सोन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वसे घटकर दिवसपृथक्त्व और स्थितिसत्त्व संख्यात. हारवर्ष रहता है। नाम, मोत्र व वेदनीय, इन तोन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध १. क. पा. सुप्त पृष्ठ ८६१-६२ सूत्र १२२५ से १२३२ । धवल पु० ६ पृष्ट ३६६ । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] क्षपणासार [गाया १७४-१७५ यथायोग्य संख्यातवर्षोंसे घटकर वर्षपृथक्त्व तथा स्थितिसत्त्व हीन होते हुए असंख्यात. वर्ष रह जाता है। से काले लोहस्स य विदियादो संगहादु पढमठिदी। ताहे सुहमं किर्टि करेदि तविदियत दियादी ॥१७४॥५६५॥ अर्थ-- अनन्तरवर्तीकालमें लोभली मिती यकृष्टि में से 14 को इस और उसी काल में द्वितीय व तृतीय कृष्टिसे सूक्ष्म कृष्टि करता है। विशेषार्थ--लोभवेदकके प्रथमसंग्रहकष्टिको अनन्तर प्ररुपित क्रमसे वेदकरके पश्चात् अनन्तरसमय में लोभवेदककालके द्वितीयत्रिभागके प्रथमसमयमें द्वितीयस्थितिमें स्थित लोभको द्वितीयसंग्रहकष्टि में से प्रदेशाग्न अपकर्षित करके उदयादिगुणश्रेणीरूपसे द्वितीयकृष्टिवेदककालसे आवलिअधिकप्रमाणवाली प्रथमस्थितिको उत्पन्न करता है । इसप्रकार प्रथमस्थितिको करके द्वितीय त्रिभागके प्रथमसमयमें लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक द्वितीय व तृतीयसंग्रहकष्टिमें से असंख्यातभागप्रमाण प्रदेशाग्रको अपकषित करके सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियोंको करता है। यदि द्वितीयत्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको नहीं करे तो तृतीयभागमें सूक्ष्मकाष्टिके घेदकरूपसे परिणमन नहीं हो सकता । यदि कहा जावे कि तृतीयत्रिभागसे सूक्ष्मष्टिवेदककाल में सूक्ष्मसाम्परायिककष्टियोंको करलेगा तो ऐसी शंका भी ठीक नहीं, क्योंकि सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमन किये बिना अपने स्वरूपसे उदय में आनेसे सूक्ष्मसाम्परायिक परिणामोंकी अनुपलब्धि होती है । सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका लक्षण इसप्रकार है--संज्वलनलोभकषायके अनुभागको बादरसाम्परायिक कृष्टियों से भी अनन्तगुणित हानिरूपसे परिणमित करके अत्यन्तसूक्ष्म या मन्द अनुभागरूपसे अवस्थित करनेको सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि कहते हैं । सर्वजघन्यबादरकृष्टिसे सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका भी अनुभाग अनंतगुणाहीन होता है । लोहस्स सदियसंगहकिट्टीए हेढदो भवट्ठाणं । सुहमाणं किट्टीणं कोहस्स य पडमकिट्टि णिभा ॥१७५॥५६६॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६३-६४ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ५६२ सूत्र १२३३-३४। धवल पु०६ पाठ ६६६ । ३. अयधवल मूल १४२१६४-६५ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६२ सूत्र १२३६-३७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६-६७ । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७६-७७ क्षपणासार प्रथं-उन सूक्ष्म कृष्टियोंका अवस्थान लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नीचे है स्था वे सूक्ष्मकृष्टियां क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान होती हैं । विशेषार्थ- सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंका अवस्थान लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टिके नीचे है, क्योंकि अनन्तणितही अनुभागसे परिमित की गई हैं। रे सूक्ष्मष्टियां संज्वलनक्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के समान ही हैं। जैसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि शेष संग्रहकृष्टियोंके आयामको देखते हुए अपने आयामसे द्रव्यमाहात्म्यकी अपेक्षा असंख्यातगुणी थी वैसे ही ये सूक्ष्मसाम्परायिककष्टियां भी क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि के बिना शेषसंग्रहकष्टियोंके कृष्टिकरणकाल में समुपलब्ध आयामसे संख्यातगुणे पायामवाली जानना चाहिए, क्योंकि मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य इसके आधाररूपसे ही परिणमन करनेवाला है अथवा जसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि अपूर्वस्पर्धकोंके अधस्तनभागमें अनन्तगुणीहीन की गई थी वैसे ही यह सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि भी लोभकी तृतीयबादरकृष्टिके अधस्तनभागमें अनन्तगुणीहीन की जाती है अथवा जिस प्रकार क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि जघन्यकुष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसीप्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनी जघन्यवृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणो होती जाती है । इसीलिए किसी भी कृष्टिके साथ सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिको समानता त बताकर क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि के साथ बतलाई गई है'। 'कोहस्स पढमकिट्टी कोहे छुद्धे दु माणपढमं च । माणे छुछ मायापमं मायाए संछुद्ध ॥१७६॥५६७।। लोहस्स पढमकिट्टी आदिमसमयकदसुहुमकिट्टीय। अहियकमापंचपदा सगसंखेज्जदिमभागेण ॥१७७||जुम्म॥५६८॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां सबसे कम हैं (क्योंकि उनके आयामका प्रमाण है।) क्रोधके संक्रमित होतेपर अर्थात् क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको मानको प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रक्षिप्त करनेपर मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि की अन्तर १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ट ८६३ सूत्र १२४८ से १२५३ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३६७-६८१ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] क्षपणासार [गापा १७७ कृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण है ।) मानके संक्रमित होनेपर मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण । है ।) मायाके संक्रमित होनेपर लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण ३३ है ।) प्रथमसमय में की गई सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियां विशेष अधिक हैं (क्योंकि उनका प्रमाण १४ है।) इसप्रकार चारकषाय और पांचवीं सूक्ष्मसम्परायिककृष्टि अपनेसे अनन्तरपूर्व से संख्यातवेंभागअधिक क्रमवाले हैं। विशेषार्थ-इस उपयुक्त अल्पबहुत्व में क्रोधादि कषायों की प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंकी हीनाधिकता बतलानेके लिए जो अङ्कसन्दृष्टि दी गई है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रदेशबन्धको अपेक्षा आये हुए समयप्रबद्धके द्रव्यका जो पृथक-पृथक् कर्मों में विभाग होता है उसके अनुसार मोहनीयकर्म के हिस्से में जो द्रव्य आता है उसका दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीयमें विभाग होता है । चारित्रमोहनीयका द्रव्य अवान्तरप्रकृतियों में विभाग होता है। प्रथमगुणस्थानके पश्चात् मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य चारित्रमोहनीयको मिलता है उसका आधाभाग (1) नोकषायको और आधाभाग (8) चारकषायोंको मिलता है। इसप्रकार संयमीकेमात्र संज्यलनका बन्ध होनेसे संज्वलनक्रोधको आधेका चौथाई भाग (Ex.) अर्थात् मोहनीयकमका आठवांभाग मिलता है । पुनः यह आठवांभाग भी क्रोधकी तीनों संग्रहकृष्टियों में विभक्त होता है, अतएव क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मोहनीयकर्मके सकलद्रव्यकी अपेक्षा (४) चौबीसवांभाग है । नोकषायका सत्त्वरूपसे अवस्थित सर्वद्रव्य (1) भी कोषको प्रथमसंग्नहष्टि में पाया जाता है, उसके साथ इसका द्रव्य मिलनेपर (+) भाग हो जाता है अत: क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरष्टियोंका प्रमाण भी उतना ही (1) है । जो उपरिमपदकी अपेक्षा सबसे कम है । भाग प्रमाणवाली क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि जिससमय क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित होती है उस समय द्वितीयसंग्रह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है। पुनः क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमण हो जानेपर उसका प्रमाण (१४+) हो जाता है, पुनश्च क्रोधको तृतीयसंग्रहकष्टि जब मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रान्त होती है तब उसका प्रमाण (+11) ३४ हो जाता है । इसप्रकार १ भाग प्रमाणवाली कोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अपेक्षा मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का प्रमाण विशेष अधिक है, क्योंकि इसमें और अधिक मिल गया है। मान की तीनों संग्रहकृष्टियोंका द्रव्य पूर्वोक्त Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७८ ] [ १५३ (+) भाग, इस प्रकार प्रकारसे मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रान्त होनेपर उसकी विशेषकृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है, जो विशेषअधिक है। मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा मायाको प्रथम संग्रह कुष्टि में मानकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोंके भाग तथा मायाको प्रथम संग्रह कृष्टिका और मिल जाने से मायाकी प्रथमसंग्रहॠष्टि सम्बन्धी अन्तरष्टियोंका प्रमाण विशेष अधिक सिद्ध हो जाता है । मायाका लोभमें संक्रमण होनेपर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रमाण विशेषअधिक अर्थात् ३ भाग हो जाता है, क्योंकि उसमें मायाको द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टियों का भाग तथा स्वयंका ४ भाग, ऐसे भाग और अधिक बढ़ जाने से (३) भाग अन्तर कृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है । जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां प्रथमसमय में की जाती हैं उनका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् ३४ भाग प्रमाण हो जाता है, क्योंकि उसमें लोभकी द्वितीय तृयीय संग्रहकूष्टिसम्बन्धी () भाग मिल जाने से (३+३) हो जाता है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अधिक होनेवाले इस विशेषका प्रमाण अपने पूर्ववर्ती प्रमाणके संख्यातवें भागप्रमाण सिद्ध हो जाता है ' । क्षपणासार हुमा किडीओ पडिसमयमसंखगुणविहीणाश्रो । दव्वमसंखेज्जगुणं विदियस्स य लोइचरिमोत्ति ॥ १७८ ॥५६६ ॥ अर्थ --- सूक्ष्मॠष्टियां प्रतिसमय असंख्यातगुणे होनक्रमसे की जाती हैं तथा द्वितीयसमयसे लोभकषायके चरमसमयतक द्रव्य असंख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है । विशेषार्थ - प्रथम समय में जो सूक्ष्मकृष्टियां की जाती हैं वे बहुत हैं, द्वितीयसमय में जो कृष्टियां की जाती हैं वे असंख्यातगुणोहीन होती हैं । इसप्रकार अन्तरोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्पूर्ण सूक्ष्मसाम्परायिककुष्टिकरण के काल में अपूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असंख्यातगुणीहीन श्रेणीके क्रमसे की जाती हैं । प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों के भीतर जो प्रदेशाग्र दिया जाता है वह स्टोक है, द्वितीयसमय में दिये जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्त १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६-६७ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६४-६५ सूत्र १२४४ से १२४६ | बबल पु० ६ पृष्ठ ३६८ । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] सपणासार [ गाथा १७९-८० गुणी विशुद्धि बढ़नेसे सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिकालके घरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । 'दव्वं पढमे समये देदि हु सुहुमेसणंतभागणें । थूलपढमे असंखगुणू णं ततो मतभागणं ।। १७६ ।।५७०॥ अर्थ-सूक्ष्म कृष्टिकरणकालके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टिको जघन्यकृष्टि से उत्कृष्ट सूक्ष्मकुष्टिपर्यन्त अनन्तभाग अनन्तभाग घटते हुए क्रमसहित द्रव्य दिया जाता है तदनन्तर जघन्यबादरकृष्टि में असंख्यातगुणा घटता द्रव्य दिया जाता है उसके पश्चात् अनन्तगुणे घटते क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। विशेषार्थ-उससमय में अपकषित समस्तद्रव्यके असंख्यातबहभागका ग्रहण होकर जघन्य सूक्ष्मकृष्टिम बहुत प्रदेशाग्र दिये जाते हैं. द्वितीय कृष्टिमें अनन्तवेंमागसे विशेषहीनद्रव्य दिया जाता है, तृतीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इसप्रकार अन्तरोगनिधारूप श्रेणिके कमसे अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिपर्यन्त विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । चरमसूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिमें सूक्ष्म साम्पराय अध्वानसे खण्डित बहुभागद्रव्यमें से एकभागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है । शेष असंख्यातवेंभाग द्रव्यको बादरकृष्टिअध्वानसे खण्डितकर एकखण्डद्रव्य जघन्यबादर. साम्परायिककृष्टिमें दिया जाता है जो चरमसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें दिये गए प्रदेशाग्रसे असंख्शतगुणाहीन है अर्थात् चरमसूक्ष्म साम्परायिककृष्टिसे जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणाहीन है। इसके आगे अन्तिमबादरसाम्परायिककृष्टिपर्यन्त अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाम दिया जाता है। *विदियादिसु समयेसु अपुब्बाओ पुवकिहि हेट्ठाओ। पुवाणमंतरेसुवि अंतरजणिदा असंखगुणा ।।१८०॥५७१॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६७-६८ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६ सूत्र १२५० से १२५४ । घबल पु० ६ पृष्ठ ३६८ । ३. जय ५० मूल पृष्ठ २१६५-६६ ! ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६५ सूत्र १२५५ से १२६० १ १० पु०६ पृष्ठ ३६६ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८१] क्षपणासार [ १५५ __ अर्थ-द्वितीयादि समयों में नवोन अपूर्वसूक्ष्मकृष्टिको पूर्वसमयमें की गई सूक्ष्मकृष्टिके नीचे और उनके बीच-बीच में करता है। इनमें अधस्तनकृष्टियोंका प्रमाण स्तोक है और उनसे असंख्यातगुणा अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण है। विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणीहीन अपूर्वसूक्ष्मकृष्टियोंको दोस्थानों में अर्थात् प्रथम समय में की गई कृष्टियों के नीचे और अन्त - राल में करता है । जो कृष्टियां नीचे करता है वे अधस्तन और जिन कृष्टियोंको बीचबीचमें करता है वै अन्तर कृष्टियां कहलाती हैं। कृष्टियोंके नीचे की जानेवाली (अघस्तन) कृष्टियां अल्प हैं तथा अन्तराल में की जानेवाली (अन्तर) कृष्टियां उनसे असंख्यातगुणी होती है। 'दश्वगपढमे सेसे देदि अपुटवेसणंतभागणं । पुवापुवपवेसे असंखभागणहियं च ॥१८१॥५७२॥ अर्थ--द्वितीयादि समयोंमें प्रथमसमययत् द्रव्य देता है, किन्तु इतनी विशेषता है सूक्ष्मकृष्टि सम्बन्धी द्रव्यको अघस्तन अपूर्वकृष्टियोंमें अनन्ताभागरूप हीन क्रमसे तथा पूर्व-अपूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें क्रमशः असंख्यातवेंभागहीन व असंख्यातवेंभागप्रमाण अधिक अर्थात् पूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें असंख्यातवेंभागहीनरूपसे द्रव्य दिया जाता तथा मपूर्वकृष्टियोंके प्रवेश में असंख्यातQभागप्रमाण अधिकद्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें जो जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है, उसमें बहुत प्रदेशाग्न दिया जाता है, द्वितीयकृष्टि में अनन्तभागसे होन दिया जाता है । इस क्रमसे जाकर प्रयमसमयमें जो जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है उसमें असंख्यातवेंभागसे होन प्रदेशाग्र दिया जाता है और इसके आगे निर्वयंमान अपूर्वकृष्टि जबतक प्राप्त नहीं होती तबतक अनन्तवें भागसे होन प्रदेशाग्न दिया जाता है तथा अपूर्वनिवर्त्तमानकृष्टि में असंख्यातवें भागअधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे उत्तरोत्तर प्रतिपद्यमान प्रदेशाग्रका अनन्तवांभागरूप होन प्रदेशाग्र दिया जाता है। हितोयसमयमें दिये जाने १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६५-६६ सूत्र १२६१ से १२६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] क्षपणासार [ माथा १८२.१८३ वाले प्रदेशाग्रको जो विधि पहले कही गई है वहीं विधि शेष समयोंमें जानना चाहिए और यह क्रम बादरसाम्परायि कृष्टिके चरमसमयत क ले जाना चाहिए' । पढनादिसु दिस्त कम सुहुमेसु अणंतभागहीणकम । वादरकितिपदेसो असंवगुणिदं तदो हीणं ॥१८२॥५७३॥ अर्थ-सूक्ष्म साम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमय में दृश्यमानक्रम सूक्ष्पकृष्टियोंमें अनन्तवेंभागहीनरूपसे घटता हुआ द्रव्य है, उसके अनन्तर बादर कृष्टि में असंख्यातगुणा तथा उसके पश्चात् अनन्तवें भागहीन द्रव्य है। विशेषार्थ-बादरकृष्टियों के द्रव्यका असंख्यातवांभाग अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्पराविककृष्टिकारक कृष्टियों में दृश्यमान प्रदेशाग्न प्रथमसमय में इसप्रकार है-जघन्य. सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिमें दृश्यमान प्रदेशाग्र बहुत है, इससे आगे चरमसूक्षमसाम्परायिककृष्टितक प्रत्येककृष्टि में दृश्यमानद्रव्य पूर्वकृष्टिसे अनन्तवेंभागहीन है अर्थात् एक-एक चय घटता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिके अनन्तर ऊपर तृतीयवादरसंग्रहकृष्टिकी जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादरकृष्टियों के असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नोंका अपकर्षण होकर सूक्ष्मकृष्टियोंकी रचना हुई है अत: सूक्ष्मकृष्टिप्रदेशानको अपेक्षा बादरकृष्टि में दृश्यमानप्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं। उसके पश्चात् प्रत्येक बादरकृष्टिमें अनन्त-भाग-अनन्त भागहीन होता गया है अर्थात् अन्तरोपनिधामें एक-एक चय घटता गया है । यह श्रेणिप्ररुपणा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथम. समयसे लेकर चरमसमयवर्ती बाद र साम्परायिककष्टिपर्यन्त करना चाहिए। प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियों में भी दृश्यमान प्रदेशाग्रकी यही श्रेणिप्ररुपणा है । पूर्वद्रव्य और निक्षिप्तद्रव्यके मिलने पर दृश्यमानप्रदेशाग्न होता है । *लोहस्सतदियादो सुहमगदं विदियदो दु तदियगदं । विदियादो सुहुमगदं दबं संखेज्जगुणिदकमं ॥१८३॥५७४।। १. जयषवल मूल पृष्ठ २१६६ से २२०१ तक । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२७० से १२७५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०० । ३. जयघबल मूल पृष्ठ २२०१-२२०२ ।। ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६७ सूत्र १२७७ से १२७६ । घ० पु० ६ पष्ठ ४०० । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२७ पाथा १८४.६६ 1 सपणासार अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक लोभको द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोंमें से असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नका अपकर्षणकरके संक्रमण के द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिरूप संक्रमित करता है। इसप्रकार संक्रमण करनेवाला तृतीयबादरसाम्परायिक कृष्टि से अपकर्षणकरके जो प्रदेशाग्र सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूप संक्रमण करता है वे प्रदेशाग्र थोड़े हैं, उससे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र लोभकी द्वितीयसंग्रहकुष्टिसे तृतीयसंग्रह कृष्टि में संक्रमण करता है, क्योंकि लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टिके प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं। लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे जो प्रदेशाग्र तृतीयसंग्रहकुष्टिरूप संक्रमित किये जाते हैं उनसे संख्यात गुणे प्रदेशाग्र द्वितीयसंग्रहकृष्टि से सूक्ष्म माम्परायिकरूप संक्रामित होते हैं, क्योंकि लोभके तृतीयसंग्रहकष्टिआयामसे सूक्ष्म साम्प रायिककृष्टिका आयाम संख्यातगुमा है और आयामके अनुसार ही प्रदेशात्रों की संख्याका प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिमाह्य के अल्पबहुत्वके अनुसार 'पडिमेज्झमाण' अर्थात् प्रतिग्राह संक्रमणद्रव्यका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । 'किट्टीवेदगपडमे कोहस्स य विदियदो दु तदियादो। माणस्त य पडमगदोमाणतियादो दु मायपढमगदो॥१८४॥५७५॥ मायतियादो लोभस्सादिगदो लोभपढमदो विदियं । तदियं च गदा दव्या दसपदमद्धियकमा होति ।।१८५॥५७६।। 'कोहस्त य पढमादो माणादी कोहतदियविदियगदं । तत्तो संस्लेजगुणं अहियं संखेजसंगुणियं ॥ १८६॥तियलं ५७७।। अर्थ-कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधको द्वितीयकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण होता है वह स्तोक है। क्रोध का तृतीयसंग्रहकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है, मानको प्रथमसंग्रह कृष्टि से मायाको प्रथमसग्रहष्टि में विशेष अधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है, १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ १६७-६८ सूत्र १२८० से १२०६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ट ८६ सूत्र १२६० से १२६२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१-४०२ । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] क्षपणासार [ गाथा १८६ मानकी द्वितीयसंग्नकृष्टि से मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें विशेषअधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है तथा मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमित होते हैं। मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमित होते हैं, मायाको द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में विशेषाधिक प्रदेशाग्र संक्रमित होते हैं, मायाको तृतीयसंग्रहकृष्टि से लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमित होते हैं। लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिमें विशेषाधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है, लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टिसे लोभको तृतीय संग्रहकष्टि में विशेषअधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है। अधिक क्रमसे द्रव्यका संक्रमण करनेवालेके ये दशस्थान हैं। क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टि से मानकी प्रथमसंग्रह कृष्टि में (पूर्वोक्त संक्रमणसे) संख्यात गुरिपत प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है । क्रोधको ही प्रथमसंग्रहकष्टि से क्रोधको ही तृतीय संग्रहकृष्टि में विशेषअधिक प्रदेशानका संक्रमण होता है । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिमें संख्यात गुणे प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है। विशेषार्थ-~-कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर अनन्तरसमयमें कोषको प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकर्षण करके उसका देदन करनेवालेके क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टिसे मानकी प्रथमष्टिमें अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्वारा संक्रान्त किये जाते हैं वे कहे जानेवाले अन्यसंक्रमणद्रव्यकी अपेक्षा स्तोक हैं। जिस संग्रहकृष्टिका अनुभाग अल्प होगा उसके प्रदेशाग्न बहुत होते हैं । बहुत प्रदेशों में संक्रमण होने वाले प्रदेश भी बहुत होते हैं, अतः पूर्वकथित संक्रमणद्रव्य से यह संक्रमणद्रव्य विशेष अधिक है। पूर्व द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे खण्डितकर एकखण्ड प्रमाण विशेष अधिक हैं । मामको प्रथमसग्रहकृष्टिसे मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण होनेवाला द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि क्रोधको तृतीयकृष्टिकी प्रतिग्रहस्थानरूप मानको प्रथमकृष्टिको अपेक्षा मानकी प्रथमकृष्टि की प्रतिग्रहस्थानरूप मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि विशेष अधिक है। आधार विशेष अधिक होने के कारण अधिकप्रदेशोंका संक्रमण होता है । यहांपर विशेषअधिक प्रमाणका प्रतिभाग आवलिका असंख्यातवांभाग है इससे आगेके स्थानों में सत्त्वकर्म के अनुसार ही विशेषअधिक संक्रमण होता है और सर्वत्र अधःप्रवृत्तसक्रमण भागहार है । शङ्का-क्रोध-मान व मायाकी संग्रह कृष्टियोंका द्रव्य अन्यकषायकी संग्रहकृष्टियोंमें होता है अतः वहाँपर अधःप्रवृत्तसंक्रमणभागहार होता है अतः यहांपर अपकर्षणभागहार होना चाहिए जो अधःप्रवृत्तसक्रमणभागहार असंख्यातगुणाहीन है ? Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८६ ] क्षपणासार [ १९ समाधान--ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परिणामों के माहात्म्यसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि के संक्रमण में भी भागहारमें हानि नहीं हुई है। लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें से लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टिमें संक्रमित होनेवाले प्रदेशाग्रका प्रतिग्रहस्थान लोभको द्वितोयसंग्रहकृष्टि है जो अल्प है और लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित होनेवाले प्रदेशानको प्रतिग्रहस्थान लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि है जो विशेषअधिक है । प्रतिग्रहस्थान में विकता होने का विषयभूत संक्रमणप्रय भी विशेष अधिक हो जाता है । लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे जितने प्रदेशाग्न लोभकी तृतीयकृष्टिमें संक्रमण किये जाते हैं उससे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से मानको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित किये जाते हैं, क्योंकि लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अपेक्षा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्रसत्त्व १३ गुणा है। इसलिये प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणा है । उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से क्रोधको तृतीयसंग्रहकष्टि में प्रदेशसंक्रपण विशेषाधिक है, क्योंकि पूर्व प्रतिग्रह स्थानसे क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिरूप प्रतिग्रहस्थान विशेष अधिक है। मतः प्रदेशसंक्रमण भी विशेष अधिक है । उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से कोषकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमण होने वाले प्रदेशाग्र संख्यालगुणे हैं । यद्यपि प्रतिग्रहस्थानस्वरूप क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टि से अल्प है तथापि वेद्यमान क्रोधकी प्रथमसंग्रह कृष्टि से अनन्तर वेद्यमान क्रोधकी द्वितोयसग्रहकृष्टि में संक्रमित होनेयोग्य प्रदेशाग्न संख्यातगुणा है । यह बादरकृष्टि सम्बन्धी प्रदेशाग्र यद्यपि अतिक्रान्त हो चुका है तथापि की जानेवाली सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों में आश्रयभूत मानकर यहां कहा गया है। लोभको द्वितीयकृष्टि से जो प्रदेशाग्न लोभको तत्तीयसंग्रह कृष्टि में संक्रान्त हुए हैं उनसे संख्यातगुणे प्रदेशाग्न सूक्ष्मकृष्टि रूप होते हैं ऐसा जो गुणकारका अनुक्रम कहा गया है वह नवीन नहीं है, किन्तु बादरकृष्टियों में भी संख्यातगुणकार का अनुक्रम है यह बतलाने के लिए बादरष्टियोंके प्रदेशसंक्रमणके संक्रमण में अल्पबहत्वका कथन किया गया है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ से २२० । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२०५-२२०६ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापणासार [गाथा १८७-१८८ लोहस्स विदिय कि हि वेदयमाणस जाव पढमटिदी। श्रावलितियमवसेसं आगच्छदि विदियदो तदियं ॥१८७॥५७८॥ अर्थ-इसप्रकार लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिको वेदते हुए जीवके द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थिति में तीनआयलीप्रमाण काल शेष रहने तक द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकष्टि में द्रव्य संक्रमण रूप होकर प्राप्त होता है । विशेषार्थ-लोभकी द्वितीय संग्रह कृष्टिको प्रथमस्थितिमें विश्रमणावलि, संक्रमणावलि व उच्छिष्टावलि ये तीनों अशिष्ट रहनेतक लोभको द्वितोयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में दिया जाता है, क्योंकि तृतीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित हुआ द्रव्य विश्रमणावलि पर्यन्त वहीं विश्राम करता है पश्चात् संक्रमणावलि में सूक्ष्मकृष्टिरूप होकर संक्रमण करता है तब उच्छिष्टावलिमात्र प्रथमस्थिति अवशेष रह जावे उससे तीन मावलि अवशेष रहनेतक द्वितीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य तृतीयसग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है तथा उसके ऊपर द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्य में अपक्षणभागहारका भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यका संक्रमणद्वारा सूक्ष्म कृष्टि में ही संक्रमण करता है। यह क्रम जबतक दो आवलिप्रमाण काल अवशेष रहे तबतक जानना, वहीं आगाल व प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति होती है । आनुपूर्वीसंक्रमणके कारण तनीयसंग्रहकष्टिका द्रव्य द्वितीयष्टि में न आनेसे आगाल नहीं होता मात्र प्रत्यागाल हो होता है तथा समयकम आवलिप्रमाण निषेकोंको अधोगलनरूप क्रमसे भोगकर समयाधिक आवलि अवशेष रखता है। तत्तो सुहमं गच्छदि समयाहियावलीयसेसाए । सम्वं तदियं सुहुमे णव उच्छिटुं विहाय विदियं च ॥१८८॥५७६॥ अर्थ-वादरलोभकी प्रथम स्थिति में एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर लोभकी ततीयसंग्रहकष्टिका सर्वद्रव्य सूक्ष्म कृष्टिरूप संक्रमण कर जाता है । नयकसमय. प्रबद्ध व उच्छिष्टावलिके द्रव्य को छोड़कर लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका शेषद्रव्य भी सूक्ष्मकृष्टिरूप संक्रमण कर जाता है । विशेषार्थ-इसक्रमसे लोभको द्वितीयकृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथम स्थिति में जब एफसमयाधिक आबलिकाल शेष रह जाता है उस Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा १८६-१९०] क्षपणासार समयमें बह चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है, उसी समय में अर्थात् अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमय में लोभको संक्रम्यमाण (जिसका पूर्वसे यथाक्रम संक्रमण हो रहा था) चरम (तृतीय) बादर कृष्टि सामस्यरूपसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों में संक्रांत हो जाती है । यह कथन उत्पादानुच्छेदको अपेक्षा है, क्योंकि उससमय वह बादरसाम्परायिक है. अन्यथा सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमय में बाद रसाम्परायिक कृष्टिद्रव्यका सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मष्टिमें संक्रमण देखा जाता है। उससमय मात्र लोमकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्य का हो संक्रमण नहीं होता, किन्तु लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टि के भी एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्धको तथा उदयावलिमें प्रविष्टद्रव्यको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिको संक्रम्य माण शेष अन्तरकृष्टियां संक्रमणको प्राप्त हो जाती हैं' । 'लोहस्स तिघादीणं, ताहे अघादीतियारण ठिदिबंधो । अंतो दु मुहत्तस्स य दिवसस्स य होदि वरिसस्स ॥१८६॥ ५०॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें संज्वलनलोभका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तमुहूर्तप्रमाण, तीनवातियाकर्मों का कुछ कम एकदिन तथा तीन अघातियाकोका कुछकम १ वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें लोभसंज्वलनका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होता है और उसीसमय मोहनीयकर्मकी बंधव्युच्छित्ति होती है, क्योंकि उसके ऊपर मोहनीयकर्भके बन्धमें कारणभूत परिणामोंका अभाव है। तीव घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध पहले दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता था जो घटकर कुछकम एकदिन-रात प्रमाण रह गया। माम, गोत्र व वेदनीय, इन तीन अघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षसे घटकर बन्तःवर्ष अर्थात् कुछकम एकवर्ष प्रमाण रह जाता है । 'ताणं पुण ठिदिसंतं कमेण अतोमुहत्तयं होदि । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि असंखवस्साणि ॥१६॥५८१॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सून १२६८-१३०० । धवल पु. ६ पृष्ठ ४०२-४०३ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२०७-२२०८ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ १६८ सूत्र १३०१-१३०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०३ । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १६२ ] [गाथा १६१ अर्थ-अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमय में स्थितिसत्त्व क्रमसे लोभका अन्तर्मुहूर्त, तीन घातियानोका यथायोग्य संख्यातहजारवर्ष और तीन अघातियाकोका यथायोग्य असंख्यातवर्षप्रमाण है'। सूक्मसाम्परायका कथन-- से काले सुहमगुणं पडिबजदि सुहमकिहिटिदिखंडं । आणायदि तहव्वं उक्कटिय कुणदि गुणद्धि ॥१६१॥५८२॥ अर्थ--बादर कृष्टिवेद्यमान काल समाप्त होनेके अनन्तरसमय में सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानको प्राप्त होता है वहांपर सूझमकृष्टियोंका स्थितिकाण्डकघात करता है और लोभके सूक्ष्मकृष्टिद्रव्य का अपकर्षणकरके गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता है । विशेषार्थ-बादरकृष्टिवेदनने अन्तिमसमयसे अनंतरवर्तीसमयमें सूक्ष्मष्टियों. का अपकर्षण करके वेदन करनेवाला उसोसमय सूक्ष्मसाम्परायिकभावों से परिणत होकर प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानवाला हो जाता है । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके उसी प्रथमसमय में अन्त मुहूर्त प्रमाण स्थितिके संख्यातवेंभागप्रमाणस्थितिकाण्डकायाम होता है । मोहनीयकर्मके सूक्ष्म कृष्टिअनुगत अनुभागका पूर्ववत् अपवर्तनापात करता है । ज्ञानावरणादि कर्मों का भी पूर्ववत् स्थिति काण्डक व अनुभागकाण्डकघात करता है तथा अपकर्षित प्रदेशाग्रके असंख्यातवेंभागकी गुणश्रेणी करता हुआ प्रथमसमयमें थोड़ा द्रव्य देता है जिसका प्रमाण असंख्यातसमयबद्ध है, उससे ऊपर मुणश्रेणी शोर्षपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । सूक्ष्मसाम्परायकृष्टियों में से असंख्यातवेंभागप्रमाण प्रदेशाग्रको अपकर्षणकरके पुनः अपकर्षितद्रव्यके असंख्यातबहुभागको पृथक रखकर असंख्यातवेंभागको गुणश्रेणीरूपसे देनेवाला उदयस्थितिमें स्तोकद्रव्य देता है जो असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण है । उदयस्थिति के अनन्तर उपरितनस्थिति में उससे असंख्यातगुणे द्रष्यको देता है । उससे अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार अनन्तर उत्तरोत्तर स्थितियों में असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिमें तबतक १. अयधवल मूल पृष्ठ २२० । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १३०४-१३०७ । धवल पु. ६ पृष्ठ ४०३ । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथ! १९२-१९४] क्षपणासार देता है जबतक गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त नहीं होता । यह गुणश्रेणी आयाम सकल अन्तरायामके संख्यातवेंभागप्रमाण है, तथापि सूक्ष्ममाम्परायकालसे विशेष अधिक है। विशेष अधिकका प्रमाण सूक्ष्म साम्परायके संख्यातवेंभाग है । भानावरणादिका गलितावशेष गुणश्रेणीआयाम भी इतना है । अपकर्षित प्रदेशाग्रका असंख्यात बहुभाग जो पृथक रखा था वह गुणश्रेणीसे उप रिमस्थितियों में दिया जाता है। 'गुणसेडि अंतरहिदि विदियट्ठिदि इदि हवंति पञ्चतिया । सुहुमगुगादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसंढी ॥१६२॥५८३॥ अर्थ- गुग श्रेणि, अन्तरस्थिति और द्वितीयस्थिति ये तीन पर्व होते हैं । सूक्ष्मसाम्प रायगुणस्थानके काल से उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिका आयाम अधिक है। विशेषार्थ- गुणश्रेणि, अन्तर स्थिति ब द्वितीयस्थिति इन तीनों पोंमें अपकर्षितद्रव्यका विभाजन किया जाता है । जबतक अपकर्षितद्रव्य असंख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है वह गुणश्रेणी कहलाती है, उसके ऊपरवर्ती जिन निषेकोंका पहले प्रभाव किया था उनके प्रमाणरूप अन्तर स्थिति है तथा उससे ऊपरवती अवशिष्ट सस्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानका काल अन्त मुहूर्त मात्र है, उससे विशेष. अधिक अर्थात् संख्यातवेंभागअधिक गुणश्रेणी आयाम है। ज्ञानावरणादि कर्मों की भी गलितावशेषगुणश्रेणि निक्षेपका आयाम सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके कालसे अन्तर्मुहूर्तअधिक, क्योंकि इसमें क्षीणकषायगुणस्थानका काल भी गभित है'। "ओक्कट्टदिइ गिभागं गुणसेढीए असंखबहुभागं । अंतरहिद विदियटिदी संस्त्रसलागा हि अवरहिया !!१६३।।५८४॥ गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयल विदिम्हि णिक्खिवदि । सेसबहुभागमावलिहीणे वितियट्ठिदीएहू ॥१६४॥५८५॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०८-२२०६ 1 २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १३०८ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२० । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६९-७० सूत्र १३०६-१३१२ । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] [ गाथा १९५ अर्थ — अपकर्षितद्रव्यका असंख्यातवां एकभाग गुणश्रेणि द्यायाम में दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति में दिया जाता है । अन्तरस्थिति से द्वितीयस्थितिको भाग देने से जो संख्यातशलाकारूप लब्ध प्राप्त हो उसका भाग असंख्यात बहुभाग द्रव्य में देनेसे जो प्राप्त हो उसका चतुरादि खण्ड में गुणा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह द्रव्य समस्त अन्तर स्थितियों में निक्षिप्त किया जाता है और शेष बहुभाग प्रतिस्थापनावलिहोन द्वितीय स्थितियों में दिया जाता है। (नोट- यहां जो 'चतुरादि' संख्या दी गई है वह अष्टिकी अपेक्षा से है | ) क्षणासार विशेषार्थ - - सूक्ष्मकृष्टियोंके द्वारा अन्तर भर दिया जाता है अर्थात् पूर्ण कर दिया जाता है और एकरूप हो जाती है, तथापि अतिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीयस्थितिका भेद करके अन्तरका कथन किया गया है । अन्तरस्थितियों में अपकर्षित द्रव्य के असंख्यात बहुभागका संख्यातवां एकभाग दिया जाता है या संख्यातबहुभाग दिया जाता है इससम्बन्धमें दो मत हैं । इन गाथाओं के अनुसार असंख्यातवां भाग दिया गया है, किन्तु जयधवल मूल पृष्ठ २२०६ के अनुसार अन्तरस्थितियों में संख्यातबहुभाग दिया जाता है। जयधवल मूल पृष्ठ २२१० पर इन दोनोंमतों का उल्लेख कर दिया गया है । क्षपणासार बड़ोटोका ( शास्त्राकार) पृ० ६६७ पर जो अङ्कसन्दृष्टिश्रादि दो गई है उसका समर्थन जयधवल मूल (चारित्रक्षपणाधिकार ) आर्धग्रन्थ से नहीं होता अतः यहां नहीं दो गई । द्वितीयस्थिति में एक मोपुच्छहोव क्रम से प्रदेशास तबतक दिये जाते हैं जबतक एकसमयअधिक अतिस्थापनावली शेष रह जाती है । अतिस्थापनावली में द्रव्य नहीं दिया जाता' । अंतर पडम ठिदित्तिय असंखगुखिदक्कमेण दिज्जदि हु । दीपकमं संखेज्जगुगुणं हीणक्कमं तत्तो ॥ १६५॥। ५८६ ।। अर्थ - अन्तरायामको प्रथमस्थिति पर्यन्त तो असंख्यातगुणं क्रमसे द्रव्य दिया जाता है और उसके ऊपर हीनक्रम से ( गोपुच्छ विशेषहीन ) द्रव्य दिया जाता है । उसके पश्चात् संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । १. जयधवल मूल प २२०९-२२१० । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ५७० सूत्र १३१३-१३१४ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार जाया १६५ ] [ १६५ विशेषार्थ--यह कथन द्वितीयादि समयों की अपेक्षा है, क्योंकि प्रथमसमयका कथन गाथा १९२ में किया जा चुका है। उदयस्थितिसे लेकर गुणश्रेणियायाममें असंख्यातगुणित क्रमसे प्रदेशाग्र दिया जाता है और गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न अन्त रायामकी प्रथम स्थिति में दिया जाता है । इस कथनको स्मरण कराने के लिए गाथामें कहा गया है कि अन्त रायामको प्रथमस्थितितक असंख्यातगुणतक्रमसे द्रव्य दिया जाता है, उससे अनन्तरवर्ती स्थितिसे लेकर अन्तरायामकी अन्तिमस्थितितक एक गोपुच्छवि शेषसे होन द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकार से अन्तरायामस्थितियों में प्रदेश विन्यास होता है। अन्तरायामको चरमस्थिति के अनन्तरवर्तीस्थितिमें (जो कि पूर्व में की गई द्वितीयस्थिति में आदिस्थिति है) संख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है अर्थात् जहां पर अन्तरायामकी अन्तिम स्थिति की और द्वितीयस्थिति सम्बन्धी आदिस्थितिको संधि होती है वहां संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । अन्तरायामको स्थितियों में अपकषितद्रव्यके असंख्यातबहुभागका संख्यातवांभाग या संख्यातबहुभाग दिया जावे, किन्तु द्वितोयस्थितिसम्बन्धी स्थितियों में से मादिस्थिति में संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि अन्तरायामस्थितियों की अपेक्षा द्वितीयस्थितिकी स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । उसके अनन्तरवर्तीस्थितियों में गोपुच्छविशेषहीन द्रव्य अपनी अतिस्थापनावलीतक दिया जाता है। जितना द्रध्य सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमें अपकर्षित किया गया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्य का द्वितीयसमय में अपकर्षण होता है उसमें से उदयस्थिति में स्तोक द्रव्य तथा द्वितीय स्थितिमें उससे (उदयस्थिति से ) असंख्यातहुणा द्रव्य दिया जाता है | प्रथमसमय के गुणश्रेणिशीर्ष से ऊपर अनन्तरस्थितितक इसी असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि यहां पर मोहनीयकर्मका अवस्थितगुणश्रेणिआयाम है। द्वितीयसमयके गुणश्रेणीशीर्षसे अनन्तर उपरिम एकस्थिति में भी असंख्यालगुणा द्रव्य दिया जाता है, उसके पश्चात् अन्तरायामकी चरमस्थितितक विशेषहीन-विशेषहीन द्रव्य दिया जाता है । इसके अनन्तर द्वितीयस्थिति की स्थितियों में से प्रथमस्थितिमें संख्यातगुणाहीन प्रदेशपिण्ड दिया जाता है, उसके आगे अनन्तरवर्तीस्थितिसे लेकर जिस स्थितिमेंसे प्रदेशाग्र अपकर्षण किया गया था उससे एक आवलि नीचे तक असंख्यातगुणहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । इसोप्रकार तृतीयादि समयोंमें प्रदेशाग्रका अपकर्षण व नि:सिंचन होता है। द्वितोयस्थिति के समस्तद्रव्यका संख्यात बांभाग प्रथमस्थिति काण्डकको चरमफालिके लिए अपकर्षित होता है जो पूर्वोक्त विधिके अनुसार Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ 3 [ गाथा १६६-१९७ दिया जाता है । चरमफालिके पतन होनेपर गुणश्रेणिके बिना सूक्ष्मसाम्परायिक स्थितियोंका द्रव्य एकगोपुच्छाकार रूप हो जाता है । प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके पतन होने के अनन्तर समय में द्वितीयस्थितिकाण्डकका प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इसका आयाम प्रथम स्थितिकाण्डकायामसे स्तोक है । द्वितीयस्थितिकाण्डकसे अपवर्षण करके भी प्रदेशाग्र उदयस्थिति में दिया जाता है वह अल्प है इससे आगे असंख्यातगुणीश्रेणिके क्रम से गुणश्रेणिशीर्ष से अनन्तर उपरिम एकस्थितितक द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे गोपुच्छ विशेष से होन प्रदेशाग्र दिया जाता है । यही क्रम सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके मोहनीय कर्मके स्थितिघात होनेतक रहता है' । दक्षपणः सार अंतरपदमटिदित्तिय संखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु । ही एकमेा असंखेज्जेण गुणं तो विद्दीयकमं ॥ १६६ ॥ ५८७॥ अर्थ — अन्तरकी प्रथम स्थितिपर्यन्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे क्रमसे दिखाई देते हैं. इससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, तदनन्तर प्रसंख्यातगुणे और तत्पश्चात् विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं । विशेषार्थ- - इस गाथा में प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायके दृश्यमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणा बतलाई गई है । प्रथमसमय में सूक्ष्मसाम्परायकी उदयस्थिति में अल्प प्रदेशा दिखाई देते हैं, द्वितीयस्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशान दिखाई देते हैं । इसप्रकार यह श्रसंख्यातगुणाक्रम गुणश्रेणी शीर्षतक जानता तथा उससे आगे चरम अन्तरस्थितितक विशेषहीन - विशेषहीन प्रदेशाग्र दिखाई देता है । तदनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशान दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देते हैं। यह क्रम तबतक रहेगा जबतक कि fe प्रथमस्थितिकाण्डक के समाप्त होनेका चरमसमय प्राप्त नहीं होता' । कंड रिमठिदी सविसेसा चरिमफालिया तस्स । संखेज्जभागमंतरठिदिम्हि सव्वे तु बहुभागं ॥ १६७॥५८८ ॥ १. जयधचल मूल पृष्ठ २२०६ से २२१३ तक । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७०-७१ सूत्र १३१९ से १३२५ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४०४ | ३. जंयधवल मूल पृष्ठ २२१३-२२१४ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १९८] क्षपणासाय (१६७ अर्थ-घरमस्थितिको काण्डकायामले गुमाकरके उसमें विशेष () व्य मिलाने से परमफालिका द्रव्य होता है उसका संख्यातवांभाग अन्तरस्थितियों में देता है और बहुभाग सर्वस्थितियों में देता है । विशेषार्थ-द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेक में एककम द्वितोयस्थितिमायामप्रमाण विशेष घटानेपर उसके चरमनिषेकका द्रव्य होता है, उससे लेकर नीचेके काण्ड कायामात्र निषेकोंका द्रव्य अन्तिमफालिमें ग्रहण करता है उससे उस अन्तिमनिषेकके द्रव्यको काण्डकायामसे गुणा करने पर वहां अधस्तन निषेकमें जो विशेषअधिक पाया जाता है उनको मिलानेपर अन्तिमफालिके सर्वद्रव्य का प्रमागा होता है इसमें अधस्तन निषेकोंका अपकर्षण किये हुए द्रव्यको जोड़नेपर जो दृष्य होता है उसको पल्यके असंख्यातवेंभागका भागदेकर एकभागको गुणश्रेणी आयाम में देनेके पश्चात् अवशिष्ट द्रव्यके संख्यातवेभागको अन्तरायामको स्थितियों में और शेष बहुभागको द्वितीयस्थितिकी स्थितियो में गोपुच्छाकाररूपसे एक-एक चयरूप हीन द्रव्य देता है। अंतरपढमठिदिति य असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु। होणं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६८॥५८६॥ अर्थ- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें मोहनीयकर्म सम्बन्धो द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे लेकर द्विचरमकाण्डकघातपर्यन्त अन्तरायामकी प्रयमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है तथा उसके ऊपर एक-एक चयरूप हीनद्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ--मोहकर्मके द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे लेकर द्विचरमकाण्डकघात. पर्यन्त काण्ड कसे गृहोत स्थितिसे नीचे और उदयावलिसे ऊपर जो निषेक हैं उनके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य ग्रहणकरके पुनः उसको पल्यका असंख्यात्तवेंभागका भागदेकर एकभागको पूर्वोक्तप्रकार गुणश्रेणियायाम में प्रथमउदयनिषेकमें तो स्तोकद्रव्य तथा द्वितोयादि निधेकोंसे गुणश्रेणिशीर्षपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । अवशिष्ट बहुभागमात्रद्रव्य को गुणश्रेणिसे ऊपरको स्थितियों में दिया जाता है । गुणश्रेणिके ऊपरवर्ती निषेकों में जो द्रव्य देता है वह गुणश्रेणीशीर्ष में दिये गए द्रव्य से असंख्यात गुणा है। इसप्रकार अन्तरके प्रथमनिषेक पर्यन्त तो असंख्यातशुणे क्रमसे तथा उसके ऊपर एक-एक विशेष (चय) रूप घटते क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। यह क्रम प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होनेतक पाया जाता है। सर्वस्थिति Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १६८) [गाया १९९-२०० काण्डकों में जबतक चरमफालि प्राप्त नहीं होती तबतक जो अपकष्टद्रव्य है वह सम्पूर्णद्रव्यका दासंख्यातवें भागमात्र तथा अन्तिमफालिका द्रव्य सर्बद्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण है'। 'अंतरपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणं तु मोहविदियट्टिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६६॥५६॥ अर्थ-मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्ड क निर्लेपित होनेपर द्वितीयस्थितिकादशगतसे तिननाममाण्डा माता दृश्यमान द्रव्य गुणथेरिपके प्रथमनिषेकमें स्तोक है, उससे गुणश्रेणि शीर्षके ऊपरवर्ती अन्तरायामको प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसहित है और उसके ऊपर चरमसमयपर्यन्त विशेष घटते हुए क्रमसे दृश्यमान द्रव्य है, पयोंकि प्रथमकाण्डकको धरमफालिका पतनस मय में गुणश्रेणीसे पर सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है। पडमगुणसे डिसीसं पुबिल्लादो असंखसंगुणियं । उरिमसमये दिस्सं विसेसअहियं हवे सीसे ॥२००॥५६१॥ अर्थ—सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होने के पश्चात् अर्थात् द्वितीयस्थितिकाण्डक के प्रथमसमय में गुणवेगिशीर्ष पूर्व सनदके गुणश्रेणोशीर्षसे असंख्यातगुणा दिखाई देता है, किन्तु आगे द्वितीयादि समयों में गुणश्रेणिशोषं पूर्व समयवर्ती गुणश्रेणिशीर्षसे अधिक दिखाई देता है। विशेषार्थ--द्वितीयस्थितिकाण्ड क में अपकर्षितकरके ग्रहण किया गया समस्तद्रव्य भी मिलकर एकस्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे भाजितकरके जो १. जयघवल मूल पृष्ठ २२१३ पं. ८-१०। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२६-५७; धवल पु. ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२१४ । ४. "मुणसे ढि दिस्समाण दव्यमेत्तो पाए असंखेज्जगुणं णं होदि विसेसायि चेव होदि । तत्थ कारण परूवरण। जहा दसएमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स अट्ट वस्सट्टि सतकम्माको उपरि मागिदा तहा चेव मग्गिदूण गेण्हियध्वा" (जयधवल मूल पृष्ठ २२१५) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [१६९ गाथा २०१.२०२] एकभाग लब्ध आवे उतना है और वह मोहनीयकर्मके स्थिति सत्कर्मप्रमाण निषेकोंमें अपकर्षणभागहारका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवेंभागप्रमाण दृश्यको हो नीचे गुणश्रेणिमैं सिंचित करता है । शेष असंख्यातबहुभागको इससमयके गुणश्रेणीशोषसे उपरिम गोपुच्छाओंमें आगममें प्ररूपितविधिके अनुसार सिंचित करता है। इसकारणसे पहले के गुणश्रेणिशीर्षसे इससमयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं हुआ, किन्तु दृश्यमानद्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिए । यहांपर अवस्थित गुणधेणिआयाम होने से प्रतिसमय ऊपर-ऊपरका निषेक गुणश्रेणिशीर्ण होता जाता है'। 'सुझुमद्धादो अहिया गुणसेढी अंतरं तु तत्तो दु । पढमे खंडं पढमे संतो मोहस्स संखगुणिदकमा ॥२०१।।५६२।। अर्थ--सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालसे उसीके असंख्यातधेभागसे अधिक सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमय में मोहनीयकर्मका गुणश्रेणीमायाम है, उससे अन्तरायाम संख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके सोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्डकायाम संख्यात गुणा तथा उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमय में मोहनी यकर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है। सर्वत्र गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा है । 'एदेणप्पाबहुगविधाणेण विदीयखंडयादीसु । गुणसेटिमुज्झियेया गोपुच्छा होदि सुहुमम्हि ।।२०२।।५६३॥ अर्थ---इस अल्पबहत्व विधानके द्वारा साम्परायगुणस्थानमें हितोयस्थितिकाण्डकोंके काल में गुरगश्रेरिणको छोड़कर उसके ऊपरवर्ती सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है । विशेषार्थ-यहां अंतरायामसे प्रथम स्थितिकाण्डकायाम संख्यात गुणा कहा है, उससे प्रथम स्थितिकाण्डककी चरमफालिके द्रव्यमें अन्तरायाममें देनेयोग्य गोपुच्छरूप १. जयधवल पु० १३ पृष्ठ ६८ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३३० से १३३५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०५ । ३. जय ५० मूल पृष्ठ २२१४०२२१५ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२८ । घ० पु० ६ पृष्ट ४०५ । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] क्षपणासार [गाया २०३.२०४ द्रव्यको अंतरायाममें देकर द्वितीयस्थिति के और इस अन्तरायामके एकगोपुच्छ किया जो प्रथमस्थितिकाण्डकायामसे अन्तरायाम बहुत होता तो वहां अन्तरायाम पूर्ण नहीं होता तब अन्तरस्थितिके और द्वितीयस्थिति के एक गोपुच्छ नहीं होता । अत: यहां अन्तरायाम से प्रथमस्थितिकाण्डकायाम बहुत कहा है, उससे अन्तरायाम और द्वितीयस्थिति के एकगोपुच्छ प्रथमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके पतन समय में ही होता है' । जहाँ विशेष (चय) रूप घटना क्रम होता है वहां गोपुच्छ मंज्ञा है। "सुहमारणं किट्टीगणं हेवा अणु दिएणगा हु थोवाओ। उरि तु विसेसहिया मज्झे उदया असंखगुणा ॥२०३।।५६४॥ अर्थ- सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियों के अधस्तनभाग, अनुदीर्ण कृष्टियां स्तोक हैं, उपरिमभागमें अनुदोर्ण सूक्ष्मकृष्टियां विशेषअधिक हैं । मध्य में उदीणं सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं। विशेषार्थ-प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिकक्षपकके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों के असंख्यातबहुभाग उदोर्ण होते हैं। ये उदीर्णमान सूक्ष्मष्टियां ऊपर और नीचेके संख्यातवेंभागको छोड़कर मध्यके बहुभागमें पायी जाती है। अधस्तन अनुदीर्णसूक्ष्मकृष्टियां स्तोक हैं, उपरिम अनुदीर्णसूक्ष्मष्टियां विशेष अधिक है, मध्य में उदीर्णमान सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं। जिसप्रकार सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमें उदीर्ण और अनुदोर्णकृष्टियोंका कथन किया है वैसा ही द्वितीयादि समयों में जानना, उसमें कोई विशेषता नहीं है, किन्तु द्वितीय समयमें पूर्व उदीर्णमान कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागको छोड़ देता है और अबस्तन अनुदोर्णकृष्टियो असंख्यातवेंभाग बढ़ जाती है। "सुहमे संखसहस्से खंडे तीदे वसाणखंडेण । पागायदि गुणसेढी आगादो संखभागे च ॥२०४॥५६५।। १. जयघवल मूल पृष्ठ २२१४ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३३६ से १३४३ । धवल पु०६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयधयल मूल पृष्ठ २२१७ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३४४ । ध० पु० ६ पृष्ठ ४०६ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०४ ] क्षपणासाय [ १७१ अर्थ- सूक्ष्म साम्परायमें संख्यातहजार स्थिति काण्डक व्यतीत होने पर अन्तिमस्थितिकाण्डकसे पूर्वगुणधेरिण आयामके संख्यातवेंभागमात्र आयाममें गुणधेरिण करता है। विशेषार्थ:- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संख्यातहजार स्थितिकाण्डकों को ग्रहण करनेवाला, सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में जो गुणश्रेरािनिक्षेप सूक्ष्म माम्परायगुणस्थान के कालसे विशेष अधिक था उसके संख्यातवेंभाग अनस्थितियोंको घातके लिए ग्रहण करता है अर्थात् सूक्ष्म साम्परायकालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर शेष जितने भी अधिक निक्षेप थे उन सबको काण्डका रूपसे ग्रहण करता है। मात्र इतनी ही स्थितियों को नहीं ग्रहण करता, किन्तु गुणश्रेरिणशीष (गुणगि निक्षेप) से ऊपर संख्यातगुणी स्थितियोंको धरमस्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करता है, क्योंकि उनके ग्रहणबिना गुणश्रेणिशोषका काण्डकरूपसे ग्रहण होना असम्भव था । अतः गगाणि शीर्षके साथ बारिम अन्तर्गवर्न प्रमाण संख्यातगुणी स्थितियोंका चरमस्थितिकाण्डको ग्रहण होता है। चरमस्थितिकाण्डकके प्रथमसमयमें प्रथमफालि के लिए द्रव्य का अपकर्षणकरके उदयस्थिति में थोड़े प्रदेशाग्रको देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र देता है । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके अन्तिमसमय तक इस असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे निक्षेप होता है वही अब गुरगश्रेणोशीर्ष है, उससे ऊपर अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उसके पश्चात् पुगतन गुग्गश्रेणिशीर्षतक हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे अनन्तर उपरिम एकस्थितिम असख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उससे आगे घरमस्थितिसे आवलि काल पूर्वतक विशेषहीन विशेषहीन प्रदेशान दिया जाता है । इसी प्रकार द्वितोयादि फालियोंमें भी प्रदेशाग्र देता है । प्रदेशाग्रनिक्षेप यह क्रम चरमस्थितिकाण्डकको द्विचरमफालिपर्यन्त रहता है । चरमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके द्रव्यको ग्रहणकर उदयस्थितिमें स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानको चरमस्थितितक असंख्यातगुणो श्रेरिणरूपसे प्रदेशाग्रका निक्षेप करता है । द्विधरमस्थितिमें जितने प्रदेशाप्रका निक्षेप करता है उससे पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूलगुणे (पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यात) प्रदेशाग्र को चरमस्थितिमें निक्षिप्त करता है। पूर्वगुणाकार पस्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवेंभागप्रमाण है अर्थात् प्रथमस्थितिसे पल्योपमके असंख्यासवेंभागगुणा प्रदेशाग्न द्वितीयस्थितिमें देता है उससे भी पल्योपमके असंख्यातभागगुणा प्रदेशाग्र तृतीयस्थितिमें देता है । इसप्रकार यह क्रम द्विधरमस्थितितक यह क्रम रहता है अतः द्विधरमस्थिति तक Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाब १७२ ] [ गाथा २०५ अन्तिमफालिका असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्य और चरमस्थिति में शेष बहभाग प्रदेशान देता है इसीलिये गुणाकार पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूलप्रमाण हो जाता है । इसप्रकार चरमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिघातादि क्रिया नहीं होती, मात्र अधःस्थितिगलनाके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियां निर्जराको प्राप्त होती हैं। एत्तो सुहुमंतोत्ति य, दिज्जस्स य दिस्समाणगस्त कमो। सम्मत्तचरिमखंडे. तक्कदिकज्जेवि उत्तं च ॥२०५॥५६६॥ अर्थ-इसप्रकार यहांसे लेकर सूक्ष्म साम्पराधिक गुणस्थानके चरमसमयपर्यन्त देयद्रव्य और दृश्यमानद्रव्यका क्रम जानना। जैसे क्षायिकसम्यक्त्वविधान में सम्यक्त्वमोहनीयके चरमस्थितिकाण्डकमें अथवा उसको कृत्य कृत्यावस्थामें (कृतकृत्यवेदक सम्यक्वकी अवस्थामें) कहा था वैसे ही आमना । विशेषार्थ-यहां मोहनीयकर्म को सर्वस्थितिमें सूक्ष्मसापरायका जितना काल अवशिष्ट रहा उतनेप्रमाण स्थितिबिना अवशेष सर्वस्थितिका घात चरमकाण्डकद्वारा किया जाता है वहां इस काण्डककी स्थितिसम्बन्धी निषेकों के द्रव्य में जो द्रव्य अन्तिमकाण्डकोत्कीरणकालके प्रथमसमयमें ग्रहण किया उसको प्रथमकाल कहते हैं। इसीको स्पष्ट करते हैं प्रथमफालिके द्रव्यको अपकर्षणकरके उसको पत्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें बहुभाममात्र द्रव्यको यहां (प्रथमफालिके पतन समय) सम्बन्धो सूक्ष्मसाम्परायकालके चरमसमयपर्यन्त तो गुणश्रेणिआयामरूप प्रथमपर्वमें देता है। वहां उसके (गुणश्रेणियामके) उदयरूप प्रथमनिषेकमें स्तोक उससे द्वितीयादि निषेकों में असंख्यात. गुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है (यहां सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके चरमसमयको गुणधे णोशीर्ष कहते हैं) तथा अवशेष एकभागप्रमाणे द्रव्यको पल्य के असंख्यातवेंभागका भागदेकर बहुभागप्रमाण द्रव्य गुणवेणीशोर्षसे ऊपर जो गुणश्रोणिायाम या उसके शोर्षपर्यन्त द्वितीयपर्व में दिया जाता है, यह द्रव्य गुणवेणोशोर्ष में दिये गए द्रव्यसे असंख्यात. गुणा कम है। उसके ऊपर द्वितीयादि निषेकोंमें चयरूपसे होन क्रमयुक्त द्रव्य दिया १. जयधवल मूल पृष्ठ २२१७-१८ । जयधवल पु० १३ पृष्ठ ७६ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 · तथा २०६ १७३ जाता है तथा अवशेष रहे एकभागप्रमाण द्रव्यको द्वितीयपर्वके ऊपर जो सर्वस्थिति है, उसके अन्त में अतिस्थापनावलिबिना सबंनिषेकरून तृतीयपर्व में देता है । पुरातन गुणश्रणिशीर्ष में दिये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणाकम द्रव्य अनन्तरस्थितिमें देता है तथा उसके ऊपर जयरूप होनक्रमसे द्रश्य देता है । इसप्रकार चरमकाण्डककी प्रथम फालिके पतनसमय में द्रव्य देने कहा है । ऐसा ही विधान धरकाण्डकको द्विचश्मकालिके पतनपर्यन्त जानना चाहिए । अब चरमकाण्डककी अन्तिमफालिमें द्रव्य देनेका विधान कहते हैं क्षपणासार किंचित्ऊन द्वगुणहानि ( डेढगुणहानि ) गुणित समयप्रबद्धप्रमाण चरमफालिका द्रव्य है उसको असंख्यातगुणे पल्यके वर्गमूलप्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग का भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्यको वर्तमान में उदयरूप समय से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय के द्विचरमसमयपर्यन्त निषेकरूप प्रथमपर्व में देता है। वहां प्रथम निषेक में स्तोक, द्वितीयादिनिषेकों में असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य देता है तथा अवशेष बहुभागप्रमाण द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयसम्बन्धी निषेकरूप द्वितीयपर्व में दिया जाता है | यह द्रव्य द्विचरमसमय में दिये गये द्रव्यसे असंख्यात पल्यवर्ग मूलसे गुणित जानना' । इसप्रकार देय द्रव्यका विधान कहा है, ऐसे ही दृश्यमानद्रव्यका विधान भो यथासम्भव जान लेना चाहिए । "उक्किये भवाणे खंडे मोहस्स सत्थि विदिषादो । ठिदिसतं मोहस् य सुहुमद्धासेल परिमाणं ॥ २०६ ॥ ५६७॥ अर्थ - इसप्रकार मोहराजा के मस्तकसदृश लोभके चरमकाण्डकका घात करते हुए अब मोहनीय कर्मका स्थितिघात नहीं होता है। सूक्ष्मसाम्परायका जितनाकाल अब शेष रहा है उतना ही मोहनीयकर्मका स्थितिसत्व शेष रहा जो कि प्रतिसमय अपवर्त मान सूक्ष्मकृष्टिरूप अनुभागको प्राप्त होता है उसके एक एक निषेकको एक-एक समय में भोगते हुए सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयको प्राप्त होता है । १. जयघवल पु० १३ पृष्ठ ७२ से ८० । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३४५-४६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६ -४०७ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२१८ । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १७४ ] [ गाथा २०७-२०॥ 'णामदुगे वेदणीये अडवारमुहत्तयं तिघादीणं । अंतोमुद्दुत्तमेत्तं ठिदिबंधो चरिम सुहमम्हि ॥२०७॥५६८।। अर्थ- सूक्ष्म साम्परायके चरमसमयमें नाम व गोत्रकर्मका आठ मुहूर्तप्रमाण, वेदनीयकर्मका बारह मुहूर्तप्रमाण तथा तोन चातियाकर्मोका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। 'तिगह घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहत्तमेत्तं तु । तिहमघादीणं ठिदिसंतमसंखेज्जवस्ताणि ॥२०८॥५६६।। अर्थ--सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें तोनघातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) कोका स्थिति सत्व अन्तमुहर्तप्रमाण तथा तीन अघातिया (वेदनीय, नाम व गोत्र) कोंकर स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण है। विशेषार्थ-धातियाक के स्थितिसत्त्यका प्रमाण अन्तमुहर्त कहा गया है वह क्षीणकषायगुणस्थानके काल से संख्यातगुणा है । मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व क्षयके सम्मुख है अर्थात् पर्यायाथिक तयको अपेक्षासे यद्यपि इस समय विद्यमान है, तथापि उपपादानुच्छेदकी अपेक्षा नष्ट ही हो गया है । इसप्रकार क्षयके सम्मुख लोभको संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है, सो सूक्ष्मसाम्परायचारित्रसे युक्त सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानवर्ती जीव है ऐसा जानना । इसप्रकार कृष्टिवेदनाधिकार पूर्ण हुआ। से काले सो खीणकसामो ठिदिरसगबंधपरिहीणो। सम्मत्तडवस्सं वा गुणसेढी दिज्ज दिस्सं च ॥२०६॥६००॥ प्रर्थ--जो अनन्तर अगले समय में क्षीणकषाय हो जाता है उसके स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध नहीं होता है । दर्शनमोहकी क्षपणामें जब सम्यक्त्वप्रकृतिको आठवर्ष. १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६४ सूत्र १५५७-१५५८ । धवल पु. ६ पृष्ट ४१०-११ । जयधरल मूल पृष्ठ २२६३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८१४ सूत्र १५५६-६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०७ । ज. घ. मूल पृष्ठ २२६३ । ३. क. पा० सुस पृष्ठ ८९४ सूत्र १५६२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ४११ । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा २०६] क्षपणासार [ १७५ प्रमाण स्थिति रह जाती है तब जिसप्रकार गुणश्रेणोनिर्जरा, देय द्रव्य व दृश्यमानद्रव्य कथन है उसीप्रकार यहां भी जानना । विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मका क्षय होनेके अनन्तरवर्ती समयमें द्रव्य व भावकषायसमूहले उपरम (हित) हो जावेसे पाय संज्ञाको प्राप्त होता है और यथाख्यातविहार शुद्धिसंयमी हो जाता है। प्रथमसमयमें निम्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्रास कर लेता है । क्षीणकषायगुणस्थानका लक्षण इसप्रकार कहा है हिस्से सखोणमोहो फलिहामलभायणुदय समचित्तो। खोणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयराएहिं ॥' मोहकर्मके नि:शेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मलभाजनमें रखे हुए सलोलके समान स्वच्छ हो गया है ऐसे निग्रंन्थसाधुको वीतरागिर्योने क्षोणकषायसंयत कहा है। उस क्षीणकषायावस्थामें सर्वकर्मों के स्थिति, अनुभाग व प्रदेशका प्रबन्धक हो जाता है। स्थिति व अनुभागबन्धका कारण कषाय है, क्योंकि कषायका स्थिति आदि बन्धके साथ अन्वय-व्यतिरेक है । संश्लेषरूप कषायपरिणामों के अपगत (व्यतीत) हो जानेसे लोणकषायो जीवके स्थितिमादि बन्ध सम्भव नहीं हैं। प्रकृतिबन्धका कारण योग है जो शीणकषायी जीवके भी सम्भव है इसलिए प्रकृतिबन्धका निषेध नहीं किया गया । सातावेदनीयके अतिरिक्त अन्य प्रकृतियोंका बन्ध क्षीणकषायगुणस्थातमें नहीं होता, क्योंकि सूखे भाजनपर धूलके समान बन्धके अनन्तरसमयमें गल जाती हैं अर्थात् अकर्मभावको प्राप्त हो जाती है। स्थिति और अनुभागबन्धको कारणभूत कषायकी संगतिका अभाव होनेसे दूसरे समय में ढक (निर्जीर्ण) हो जाता है, ईर्यापथ बन्धकी निर्जराका इसप्रकार उपदेश है। जहाँपर ईर्यापथ कर्मवर्गणाओंके लक्षणका विस्तारपूर्वक कथन है वहांसे विस्तार जानना चाहिए । क्षोणकषायसे अधस्तनवर्ती गुणस्थानों __ १. गोम्प्रटसार जीवकाण्ड गाथा ६२ । २, नयघवलाकारने क्षीणकषायवर्ती को प्रदेशका भी अबन्धक कहा है और योगसे मात्र प्रकृतिबन्ध कहा है, किन्तु गो० क. माथा २५७ में योगको प्रकृति व प्रदेश दोनों के बन्धका कारण कहा है। ३. धवल पु० १३ पृष्ठ ४७ से ५४ तक । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १७६] [गाथा २१० मैं जो गुणश्रेणि निर्जरा होती थी, क्षीणकषायगुणस्थानमें वह गुणश्रेणोनिर्जरा पूर्व से असंख्यात. गुणी हो जाती है । सफषायपरिणामसे होने वाली गुणश्रेणिनिर्जराकी अपेक्षा अकषायपरिणामोंसे होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । सम्यक्त्वप्रकृतिके चरमस्थितिकाण्डकघात तथा देयमान व दृश्यमानद्रव्य एवं गुणश्रेणिनिर्जराका सा कथन (गाथा २०५ में) है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए'। धादीण मुहुरतं अघादियाणं असंखगा भागा। ठिदिखंडं रसखंडो अरणंतभागा असत्थाणं ॥२१०॥६०१॥ - अर्थ-क्षीणकषायगुणस्थान में तीनघातियाकर्मोका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और तीन प्रघातिया कर्मोंका पूर्वसत्त्व असंख्यातबहुभागमात्र स्थितिकाण्डकायाम है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोंके पूर्व अनुभागको अनन्तका भाग देनेपर उसमें से बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकायाम है। विशेषार्थ-क्षीणकषायगुणस्थानके प्रथमसमयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका अन्त मुहूर्त आयामवाला स्थितिकाण्डकघात होता है, उन्हीं कमों के घातसे शेष रहे हुए अनुभागके बहुभागका अनुभागकाण्डकघात होता है । नाम-गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मीको शेष स्थितिसत्वके असंख्यात बहुभागवाला स्थिति काण्डकघात होता है और इन तीनों अधातियाकर्मोकी अप्रशस्तप्रकृतियों के अनुभागसत्यके अनन्त बहुभागका अनुभागकाण्डकघात करता है। छहों कर्मों के प्रदेशपिण्डको अपकर्षण करके गुणश्रेणिरूपसे विन्यास करनेवाला उदयस्थिति में स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र निक्षिा करता है। क्षीणकषाय. कालसे असंख्यातवेंभाग आगे जाकर गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त होने तक इसप्रकार असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे प्रदेशाग्र देता जाता है, पुनः गुणरिणशीषंसे अनन्तर उपरिम स्थिति में भी असंख्यात मुरणा द्रव्य देता है, क्योंकि गुणोणिमें अपकषितद्रव्यका असंख्यातवांभाग दिया जाता है और असंख्यात बहुभाग गुणश्रेणिशोर्षसे ऊपर की स्थितियों में दिया जाता है । इसको उपरिमअध्वानसे खण्डित करने पर अर्थात् उपरिम अध्वानमें विभाजन करने पर एकखण्डप्रमाण प्रदेशाग्रसे गुणश्रेणी शीर्षको अनन्त र उपरिस्थिति रची जाती है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६४-६५ । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया २१. 1 क्षपणासार [ १७७ अतः उपरिम अनन्तर स्थिति में गुणश्रेणी शीर्षसे असंख्यातगुणे प्रदेशान हैं, उसके ऊपर चरमस्थिति से आव लिपूर्वतक विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। इसप्रकार द्वितीयादि समयों में भी अवस्थितगुणश्रेणी प्ररुपणा जानकर करना चाहिए'। बहुठिदिखंडे तीदे संखा भागा गदा तदद्धाए । चरिमं खडं गिराह दि लोभं वा तत्थ दिजादि ॥२११॥६०२।। अर्थ-पूर्वोक्त क्रमसे बहुत (संख्यातहजार) स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर क्षीणकषायकालके संख्यात बहभाग चले जानेके पश्चात् जब एक भाग अवशेष रहा तब तीन घातियाकर्मों के चरमकाण्डकको ग्रहण करता है। वहां देयआदि द्रव्यका विधान सूक्ष्मलोभके समान जानना । ___ विशेषार्थ-यहां क्षीण कषायगुणस्थानके अवशिष्टकालके बिना तीनधातिया कर्मोकी शेष बची सर्वस्थितिको चरमकाण्डकके द्वारा घातता है । क्षीणकषायगुणस्थानके ऊपर और क्षीणकषायसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके नीचे गुणश्रेणिके अधस्तनवर्ती क्षीण. कषायकालके संख्यातवेंभागप्रमाण निषेक और गुणश्रेणिशीर्षके ऊपर संख्यातगुणे उपरितन निषेकको ग्रहणकरके अन्तिमकाण्डकद्वारा लांछित (खंडित) करता है ऐसा जानना । उसके (अन्तिमकाण्डक) द्रव्य देने का विधान जैसे लोभ के अन्तिमकाण्डकमें कहा था उसीप्रकार जानना । इस प्रकार अन्तिमकाण्डककी प्रथमादि फालियों का घातकरके पश्चात् किचित्ऊन द्वयर्धगुणहानि (डेढ़गुणहानि) गुणित समयप्रबद्धप्रमाण चरमफालिके द्रव्यको उदयनिषेकसे लेकर क्षीणकषायके द्विचरमसमयपर्यन्त असंख्यात गुणे क्रमसे और द्विचरमसमय में दिये गए द्रव्यसे असंख्यातपल्यवर्गमूलगुणा द्रव्य क्षीणकषायके चरमसमयसम्बन्धी निषेकमें देता है। जबतक एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रहता है तबतक तीनघातिया कोकी उदीरणा होती है उसके पश्चात् उदयावलि शेष रह जानेपर बदीरणा नहीं होती। प्रतिसमय एक-एक निषेकका उदय होकर निर्जरा होती है। क्षोणकषायकाल में प्रथमशुक्लध्यान और पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यान होता है, क्योंकि सुविशुद्ध शुक्लध्यानपरिणामके बिना कम निर्मूल नहीं होते है । १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६५ । २. जयपत्रल मूल पृष्ट २२६५ । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपणासार १७८] [माथा २१२ चरिमे खंडे पडिदे कदकरणिजोति भएणदे एसो । तस्स दुचरिमे गिदा पयला सत्तुदयवोच्छिणा ।।२१२॥६०३॥ अर्थ--अन्तिमकाण्डकके पतित होनेपर कृतकृत्य छद्मस्थ कहलाता है । क्षोणकषायके द्विचरमसमयमें निद्रा और प्रचला सत्त्व-उदयसे व्युच्छिन्न हो जाते हैं। विशेषार्थ--चरमस्थितिकाण्डक निवृत्त होनेके पश्चात् तीनघातिया कर्मों की गुणश्रेणिक्रिया नहीं होतो, किन्तु उदयावलि के बाहर स्थित प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी धेणिरूपसे उदीरणा होतो है अतः वह कृतकृत्य है । क्षोणकषायके चरमसमयसे अनंतर अधस्तनसमय द्विचरमसमय है, उस द्विचरमसमय में दर्शनावरणकर्मको निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां एकसाथ उदय और सत्त्व से व्युच्छिन्न होती हैं, क्योंकि घातियाकर्मरूप ई धनको जलानेवाली द्वितीयशुक्लध्यान रूप अग्निके द्वारा क्षीणकषायीके निद्रा व प्रचला प्रकृति की उदयव्युच्छित्ति सम्भव है। शङ्का-क्षीणकषायी जीयके ध्यानपरिणामसे विरुद्धस्वभाववाली निद्रा और प्रचलाका उदय कसे सम्भव है ? समाधान--ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि ध्यानयुक्त अवस्थामें भी निद्रा और प्रचलाके अवक्तव्य (अवक्तव्य-अप्रगट) उदयके विरोधका अभाव है । क्षीणकषायकालके आदिसे लेकर कुछ कालतक तो पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथमशुक्लध्यानका पालन करते हुए जब अपने कालका संख्यातवांभाग शेष रह जाता है तब एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यानको अर्थ व्यन्जन व योगसंक्रातिसे रहित ध्यानेवाला अवस्थित यथाख्यातविहार शुद्धिसंयम परिणामवाला, अवस्थित गुणश्रोणि निक्षेपके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा करनेवाला क्षीणक्षायगुण स्थानवर्ती जीव अपने द्विचरमसमयमें निद्रा और प्रचला प्रकृतिके सत्त्व और उदयकी व्युच्छित्ति करता है । कहा भी है १. जयषवल मूल पृष्ठ २२६५ । २. अयधवल मूल पृष्ठ २२६६ ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासास गाथा २१३-२१४ ] [ १७६ 'उपशान्तकषायो अथवा क्षीणकषायी पूर्वोके ज्ञाता तीनों योगवालेके, शुक्ल-.. लेश्यायुक्त एवं उत्तमसंहननवाले के प्रथम शुक्लध्यान होता है। प्रथमशुक्ल ध्यान के समान ही द्वितीयशुक्लध्यान भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वितीय शुक्ल ध्यान एकयोगवाले के होता है । क्षीणकषायीके यह द्वितीय शुक्लध्यान ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायकर्मका निरोध करने के लिये होता है। 'कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहादि एक्कदोतीहि । खवणद्धाहिं कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥२१३॥६०४॥ माणतियाणुदयमहो कोहादि गिदुतियं खवियपणिधम्हि । हयकरणकि टिकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ।।२१४॥६०५॥ अर्थ-क्रोधको प्रथमस्थितिसहित क्रोधादि एक-दो-तीन कषार्योंका सपणाकाल क्रमसे मानादि तीनकषायोंकी प्रथम स्थिति होती है। मानादि तोनकषायोसहित श्रेणी चढ़नेवाला जीव क्रमसे क्रोधादि एक-दो-तीन कषायोंके क्षपणाकालके निकट अश्वकर्णसहित कृष्टिकरणको करके लोभको नष्ट करता है । विशेषार्थ- अन्तरकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त अबतक जो प्ररुपणा की गई है वह पुरुषवेदके उदयसहित संज्वलनक्रोधके उदयवाले क्षपकको प्ररुपणा है, किन्तु १.. "शान्त-क्षीणकषायस्य, पूर्वज्ञस्य त्रियोगिन:। शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य, मुख्यं संहननम्य तत् ॥१॥ द्वितीयस्याद्यवत्सवं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ।।२।। (जयधवल मूल पृष्ठ २२६६) २. "एयत्तविपक्क-अवीयार-झारणस्स अप्पडिवाइविसेसणं किण्ण कदं ? ए, उवसंतकसायम्मि भवद्धा खएहि कसाएसु रिणबदिदम्मि पडिवादुवलंभादो।" [धवल पु० १३ पृष्ठ 11 एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के लिये 'अप्रतिपानी विशेषण क्यों नहीं दिया ? समाधान-नहों. क्योंकि उपशांतकषाय जीवके भव तप और काल क्षयके निमित्त पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क-अविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। धवल पु० १३ के इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवेंगुणस्थानमें भी एकत्ववितर्फ-अवोचार नामक दूसरा शुक्लध्यान होता है। ३. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० से ८९२ सूत्र १५०२ से १५३४; धवल पु. ६ पृष्ठ ४०७; जयघवल मूल पृष्ठ २२५५-५६ । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० क्षपणासार [गापा २१४ इन गाथाओं में पुरुषवेदसहित मानके उदय के साथ क्षरकणि चढ़ने वाले की प्ररुपणा है । जबतक अन्तर नहीं किया गया यानि अन्तर करनेसे पूर्वतक क्रोध या मान सहित क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेवाले जीवकी क्रियाओंमें कोई अन्तर नहीं है, अन्तर करने के पश्चात् विभिन्मता है और वह विभिन्नता यह है कि अन्तरके पश्चात् क्रोधको प्रथमस्थिति नहीं होती। जिसप्रकार पुरुषवेदसहित क्रोधोदयके साथ क्षपकके अन्तमुहर्त प्रमाण क्रोधकी प्रथमस्थिति होतो थी उसीप्रकार पुरुषवेदोदयसहित मानोदयवाले क्षपकके मानकी प्रथम स्थिति होती है । क्रोधोदयसे श्रेणि चढ़ने वाले क्षपकके कृष्टिकरणकालपर्यन्त क्रोधको प्रथमस्थिति और क्रोधको तीनों संग्रहकृष्टिका क्षपणाकाल, इन दोनोंको मिलानेसे कालका जो प्रमाण होता है उतनाकाल मानोदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाले के मान को प्रथमस्थिति का है। क्रोधोदयो कड़े हुए पशाने हाल में अरवारीकरण व अपूर्वस्पर्धक करता है उसकालमें मानोदयसे श्रेणो चढ़ा हुआ क्षपक क्रोधका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है, क्योंकि मानोदयसे श्रेणी चढ़ क्षपकके क्रोषोदयका अभाव होनेसे स्पर्धक. रूपसे विनाश होने में कोई विरोध नहीं है । अनिवृत्तिकरणपरिणामोंका अभिन्नस्वभाव होते हुए भी भिन्न कषायोदयरूप सहकारिकारणके सन्निधान के चशसे प्रकृतमें नानापना सिद्ध है अर्थात एककाल में कार्योकी विभिन्नता हो जाती है। क्रोधोदयसे युक्त क्षपक जिसकालमें चार संज्वलनकषायोंकी कृष्टियां करता है उसकालमें मानोदयसहित क्षपक उससमय तोन संज्वलन कषायोंका अश्वकर्णकरण करता है। क्रोधोदयी क्षपक जिसकालमें क्रोधको तीनसंग्रहकृष्टियों का क्षय करता है उसकालमें मानोदयी क्षपक संज्वलनमान-माया-लोभकी (३४३) ६ सग्रहकृष्टियां करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें मानकी तीनसंग्रहकष्टियोंका क्षय करता है उसोकाल में मामोदयीक्षपक भी मानकी तीनसंग्रहकष्टियोंका क्षय करता है इसमें कोई अन्तर नहीं है। इस स्थलसे लेकर मागे जिस प्रकार क्रोधके उदयसे श्रेणि चढ़ने वाले की क्षपणाविधी कही गई है वैसी ही विधि मानोदयसे श्रेणी चढ़नेवाले जीयको जानना चाहिए । आगे पुरुषवेदसहित मायो. दयसे श्रेणि चढ़नेवाले क्षपकको विभिन्नता बतलाते हैं-- ____ अन्तर करके मायाकी प्रथमस्थिति करता है, क्योंकि क्रोध मानकषाय के उदयका अभाव है । क्रोधको प्रथमस्थिति, अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल, क्रोधकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षपणाकाल, मानकी तीनों संग्रहकृष्टियोंका क्षपणाकाल, इनसर्व कालोंको मिलाने से कालका जो प्रमाण हो उतनाकाल मायोदयीक्षपकको प्रथमस्थितिका Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१४ ] [ १८१ काल है, क्योंकि इतने कालके बिना प्रथम स्थिति में किये जानेवाले कार्य पूर्ण नहीं हो सकते । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें अश्वकर्णकरण करता है उसीकालमें मायोदयोक्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिस काल में कृष्टियां करता है उस काल में मायोदयवाला क्षपक मानका स्पर्धक रूपसे क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षक जिसकाल में क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक संज्वलनमाया व लोभका अश्वकर्णकरण और अपूर्वस्पर्धक करता है । सहकारीकारण कषायोदय में भेद होनेपर नानाजीवोंके अनिवृत्तिकरणपरिणाम भिन्न-भिन्न स्वरूपसे हो जाते हैं । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकालमें मायोदयबाला क्षपक संज्वलनमाया और लोभकी छह कृष्टियोंकी रचना करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिस काल में मायाकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसी काल में मायोदयवाला लपक मायाकी तीन संग्रहकृष्टियों का क्षय करता है इसमें कोई अन्तर नहीं है तथैव लोभके क्षपण में भी कोई अन्तर नहीं है । पुरुषवेदसहित लोभोदयसे क्षपकरण चढ़नेवालेकी विभिन्नताका कथन करते हैं क्षपणासार जबतक अन्तर नहीं करता तबतक कोई भेद नहीं है । अन्तर करनेके पश्चात् लोभको प्रथम स्थिति होती है जिसका प्रमाण कोषकी प्रथमस्थिति में क्रोध, मान व माया क्षपणाकाल, अश्वकर्णकाल और कृष्टिकरणकाल मिलानेसे उत्पन्न होता है । कोवोदयीक्षपक जिस काल में अश्वकर्णकरण करता है उसकालमें लोभोदयवाला क्षपक कोषका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय में कृष्टियां करता है उससमय में लोभोदयोक्षपक मानका क्षय करता है । क्रोधोदयी क्षपक जिससमय क्रोधका क्षय करता है उसी काल में लोभोदयोक्षपक मायाका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिस समय मानका क्षय करता है लोभोदयीपक उससमय अश्वकर्णकरण करता है । यहांपर एकसंज्वलन लोभकषाय है । यद्यपि संज्वलनलोभकषायके अनुभागका अश्वकर्ण आकार से विन्यास होना सम्भव नहीं है तथापि अनुभागका विशेषघात होकर अपूर्वस्पर्धक विधानकी अपेक्षा अश्वकर्णकरण कहने में कोई विरोध नहीं है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मायाका क्षय करता है उससमय लोभोदयी क्षपक लोभकषायके पूर्व व अपूर्वस्पर्धकों की अपवर्तन करके लोभकी तोन संग्रहकृष्टियोंको करता है, क्योंकि शेष कषायोंका क्षय हो चुका है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय लोभका क्षय करता है उसी Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] क्षपणासार [ गाथा २१५ समय में लोभोदयोक्षपक भी लोभका क्षय करता है यह सब सन्निकर्षप्ररूपरणा पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी की गई है' । 'पुरिसोदएण चडिद स्सिस्थी खवरणद्धउत्ति पढमठिदी। इस्थिस्स सत्तकम्मं अवगवेदो समं विणासेदि ॥२१५॥६०६॥ अर्थ-पुरुषवेदोदयसे श्रेणोपर चढ़ा हुआ जिस कालतक खोवेदका क्षय करता है वहांतक स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके स्त्रीवेदकी प्रथमस्थिति है । अपगतवेदी होनेपर सातकर्मों (सात नोकषाय) का एक साथ क्षय करता है । विशेषार्थ- जबतक अन्तर नहीं करता तबतक स्त्रीवेदोदयसे श्रेणि चढ़े हुए और पुरुषवेदोदयसे चढ़े हुए जीवमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि अन्तरकरणसे पूर्व दोनों क्षपकोंकी क्रियाविशेषमें कोई भिन्नता नहीं है । अन्तर करनेपर स्त्रीवेदोदयवाले. के स्त्रीवेदकी प्रथमस्थिति होती है । पुरुषवेदोदयीक्षपकके नपुंसकवेद व स्त्रीवेदके क्षयकालको मिलाने पर जितना काल होता है उतनाकाल स्त्रीवेदोदय वाले क्षपककी प्रथमस्थितिका है । नपुसकवेदके क्षयसम्बन्धी प्ररुपणा में कोई अन्त र नदों है। नमक लेदका क्षय करने के पश्चात् स्त्रीवेदका क्षय करता है। पुरुषवेदोदयसे उपस्थित क्षपकके जितना बड़ा काल स्त्रीवेदकी क्षपणाका है उतना ही बड़ा काल स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकके स्त्रीवेदक्षपणाका है । स्त्रीवेदको प्रथमस्थिति क्षीण हो जानेपर अपगतवेदी हो जाता है तब अपगतवेदभागमें पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषायका क्षय करता है, किन्तु पुरुषवेदोदयसे श्रेणीपर चढ़ा हुमा क्षपक सदभाग में हास्यादि छह नोकपाय और पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्मका क्षय करता है। स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़े हुए क्षपकके पुरुषवेदके पुरातनसत्कर्म का क्षय हो जानेपर भी एकसमयकम दोआबलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध शेष रह जाता है, किन्तु स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपकके वह नवकसमयप्रबद्ध नहीं रहता, क्योंकि अबेदभावसे वर्तमान के पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता। इस उपर्युक्त विभिन्नताके अतिरिक्त अन्य कोई अन्तर पुरुषवेदोदयीक्षपक व स्त्रीवेदोदयीक्षपकमें नहीं है। १. जयधक्ल मूल पृष्ठ २२४५ से २२६० तक । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६३ सूत्र १५३५ से १५४३ । ५० पु० ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२६० से २२६२ तक । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय २१६-१७] क्षपणासार [ १८३ 'थी पढमट्ठिदिमेत्ता संस्सवि अंतरा सेक्क । तस्सद्धाति तदुवरिं संढा इत्थि च खवदि थी चरिमे ॥ २१६ ॥ ६०७ ॥ अवगदवेदी संतो सत्त कसाये खवेदि कोहुदये । अर्थ-नपुंसक वेदोदय पुरिसुदये चडणविही सेसुदयाणं तु हेट्ठवरिं ॥ २१७ ॥ ६०८ || के प्रथमस्थितिका काल उतना ही है जितना स्त्रीवेदोदय से श्रेणि बड़े क्षपक के प्रथम स्थितका काल है । अंतरके पश्चात् नपुंसक वेद के क्षपणाकाल है उसके ऊपर स्त्रीवेदका क्षपणाकाल उसके काल में नपुंसक और स्त्रीवेदकी क्षपणा करता हुग्रा प्रथमस्थितिके चरमसमय में नपुंसक वेदसहित स्त्रीवेदका क्षय करता है तथा अपगतवेदी होकर सात नोकपायका क्षय करता है, इससे नोचे और ऊपर की विधि पुरुषवेद व क्रोधोदयसे श्रेणी चढ़ े क्षपक के समान है । - विशेषार्थ - - स्त्री वेदोदयसे श्रेणी बढ़ क्षपककी प्रथमस्थितिके समान नपुंसक - वेदोदय श्रेणी चढ़ क्षपककी प्रथमस्थिति है अर्थात् इन दोनों प्रथमस्थितियोंका काल समान है । पुनः अन्तर करनेके द्वितीयसमय में नपुंसक वेदका क्षय करना प्रारम्भ करता । पुरुष वेदोदयीपक के जितना नपुंसकवेदका क्षपणाकाल है, नपुंसक वेदोदयीपक के उतना काल व्यतीत हो जानेपर नपुंसकवेद क्षण नहीं होता, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति अब भी शेष है । पश्चात् अनन्तरसमय में स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करके स्त्रीवेदका क्षय करता हुआ नपुंसकवेदका भी क्षय करता है । पुरुषवेदोदयबाला क्षपक जिस कालमें स्त्रीवेदका क्षय करता है उसी समय नपुंसक वेदोदयीक्षपक स्त्री व नपुंसकवेदका युगपत् क्षय करता है । यह स्थूल कथन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे सवेदकालके द्विचरमसमय में नपुंसक वेद की प्रथमस्थिति के दो समयमात्र शेष रहने पर स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के सत्ता में स्थित समस्त निषेकोंको पुरुषवेद में संक्रमित हो जानेपर नपुंसकवेद की उदयस्थितिकी अन्तिम स्थितिका विनाश नहीं हुआ उसका विनाश अगले समय में होगा । ( जयधवल पु० २ पृष्ठ २४६ ) अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषाय इन सात कर्मप्रकृतियोंका एकसाथ क्षय करता है, इन साठोंका ही क्षपणाकाल समान है । शेष पदोंमें जैसी विधि पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी कही गई है वैसी १. ० पा० सुत्त पृष्ठ ८६३८६४ सूत्र १५४६ से १५५२ तक । घवल पु० ६ पृष्ठ ४१० । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] सपणासार [ गाथा २१८ ही होनाधिकता से विधि यहां भी कहना चाहिए। तीनों काल में नानाजीवोंके अनि बृत्तिकरण परिणामों में बिलक्षणता सम्भव नहीं है तथापि वेद और कषायके उदयमें भेद होनेसे अनिवृत्तिकरण परिणामों में नानाविशिष्ट कार्य होने में कोई विरोध नहीं है । 'चरिमे पढमं विग्धं चउर्दसण उदयसत्तवोच्छिण्णा । से काले जोगिजियो सवराह सव्वदरसी य ॥२१८॥६०६।। अर्थ-क्षोणकषायगुणस्थानके अन्तसमय में प्रथम अर्थात् ज्ञानावरण, अन्तराय और चारदर्शनावरण, ये फर्मप्रकृतियां सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं और अनन्तरकाल में सयोगिजिन सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं। विशेषार्थ--क्षीणकषायनामक १२वें गुणस्थान के चरमसमयमें एकत्ववितर्कअबोचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानके द्वारा (मति-श्रुत-अवधि मनःपर्यय-केवल) पांच ज्ञानावरण, पांच (दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य) अन्तराय, (चक्षु-अचक्षु-अवधिकेवल रूप) चार दर्शनावरण इसप्रकार तीनघातिया कर्माको १४ प्रकृतियोंकी उदय व सत्त्वम्युच्छित्ति हो जाती है अर्थात् इन प्रकृतियोंका क्षय हो जाता है, क्योंकि इनको बन्धव्युच्छित्ति सूक्ष्मसाम्परायनामक १०वें गुणस्थान में ही हो जाती है। शंका--क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमें घातियाकर्मों के साथ अघातिया. कर्मोंका क्षय क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि कर्मत्वको अपेक्षा घातिया व अघातियाकर्मों में कोई अन्तर नहीं है ? समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विशेष बातभावको अपेक्षा धातिया और अघातिया कोमें अन्तर पाया जाता है । इसीलिए क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमें अघातियाकर्मोंका स्थितिसत्कर्म रहता है, क्योंकि इनकी स्थिति के विशेषघातका अभाव है । अघातियाकर्मों की स्थिति के विशेषघातका अभाव असिद्ध भी महीं है, क्योंकि अघातियाकर्म धातियाकर्मोके समान अप्रशस्त नहीं हैं। घातियाकर्मों में मोहनीयकर्म अधिक प्रप्रशस्त है इसलिए विशेषघात भावके कारण पूर्व में अर्थात सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरम समय में क्षय हो जाता है । यद्यपि कर्मत्वकी अपेक्षा घातिया व १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १५७१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४१२ । गो. जीवकाण्ड माथा ६४ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१९.२२.] क्षपणासार [१८५ अघातियाकर्मों में विशेषता नहीं है तथापि घातकी अपेक्षा विशेषता होनेसे द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा क्षीणकषायके चरमसमय में घातियाकर्मों का निर्मूल क्षय हो जाता है । क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमय में घातियाकर्मोंके नाश का यह कथन उपपादानुच्छेद नयको अपेक्षासे है अन्यथा उस चरमसमयमें अन्तिमनिषेकका सत्त्व और उदय पाया जाता है । बन्धकी अपेक्षा इन घातियाकर्मोंका और जीवप्रदेशोंका एकत्वरूप परिण मन हो रहा था । बन्धके कारणोंके प्रतिपक्षी मोक्षके कारणभूत परिणामरूपयन्त्रके द्वारा पेलनेपर जीवप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोंका निर्मूल हो जाना क्षय है। जीवसे पृथक् हो जानेपर भी अकर्मभावसे परिणत कर्मपुद्गलोंका पुद्गलस्वरूपसे क्षय नहीं होता, जैसे मलसे व्यावृत्ति होनेपर कपड़ा निर्मल हो जाता है, किन्तु मलकी सत्ताका अत्यन्त विनाश नहीं होता वैसे ही प्रात्मा कर्मोसे निर्वृत्त होने पर परिशुद्ध हो जाता है' । पश्चात् अनन्तरसमयमें अनन्त केवल ज्ञान-केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त जिन, के वली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर सयोगिजिन हो जाते हैं। खीणे घादिचउक्के णतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥२१६॥६१०॥ अर्थ-घातियाकर्म चतुष्टयका नाश होने पर अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, यह अनन्त चतुष्टय सादि व अपर्यवसित (अविनाशो) है तथा उत्कृष्ट अनन्त संख्यावाला है। विशेषार्थ-सादि अर्थात् उत्पत्तिकाल में आदिसहित है तथापि अपर्यवसिता यानि अबसान-अन्तसे रहित होनेसे अनन्त है अथवा अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनन्तानन्तप्रमाण संख्या है अत: अनन्त कहते हैं । किस कर्मके नाशसे कौनसा गुण होता है, सो प्रागे कहते हैं आवरणदुगारण खये केवलणाणं च दसणं होदि । विरियंतरायियस्स य खरण विरियं हवे णतं ॥२२०॥६११॥ अर्थ-दोनों आवरणोंके क्षयसे केवलज्ञान व केवलदर्शन तथा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तयोर्य होता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६८ । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ क्षपणासार [गाथा २२१ विशेषार्थ-ज्ञानाबरण व दर्शनावरण इन दोनोंके नाशसे के वलज्ञान और केवलदर्शन होता है । इनमें केवलज्ञान तो इन्द्रिय, मन व प्रकाशादिको सहायतारहित है इसलिए केवल है । परमाणु आदि सूक्ष्म हैं अतीत-अनागतकालसम्बन्धी अन्तरित अर्थात् द्रव्य अनादि-अनन्त है, अतीत में भो था और अनागत में भी रहेगा अतः द्रव्यको जाननेसे अतीत व अनागतका जानना हो जाता है तथा दुरवर्ती क्षेत्रमें स्थित 'दुर' कहलाता है । इन सूक्ष्म, अन्तरित व दूरवर्ती सर्वपदार्थोको केवलज्ञान युगपत् जानता है एवं केवलदर्शन देखता है । जैसे चन्द्र में शोतस्पर्श व श्वेतवर्णता युगपत् है वैसे जिनेन्द्रभगवान में केवलज्ञान व केवलदर्शन युगपत् प्रवर्तता है छमस्थजीवके समान क्रमवर्ती नहीं है । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयसे अप्रतिहत सामर्थ्यवाला अनन्तवीर्य होता है जिसके सद्भाव में समस्तज्ञेयोंको सदाकाल जानते हुए भी खेद उत्पन्न नहीं होता। अनन्तवीर्यके बलाधान विना निरन्तर अवस्थित उपयोगकी वृत्ति नहीं हो सकती। अनन्तवीर्य की सामर्थ्य विना अनवस्थित उपयोगका प्रसंग आ जावेगा'। रणवणोकसायविग्घचउपकारणं च य खयादणंतसुई । अणुवममव्वावाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥२२१॥६१२॥ अर्थ-नयनोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे अनन्तसुख होता है और वह सुख अनुपम, अव्याबाध, अन्यको अपेक्षासे रहित आत्मासे उत्पन्न है । विशेषार्थ-नव नोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे होनेवाला अनन्तसुख अनुपम है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा सुख नहीं पाया जाता है, किसीके द्वारा बाधित नहीं है अतः अव्याबाध है, आत्मासे उत्पन्न होनेसे आत्मस मुत्थ है तथा इन्द्रियविषय, प्रकाशादिको अपेक्षासे रहित है इसलिए निरापेक्ष है । इसप्रकार ज्ञान वैराग्यकी उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ अनाकुललक्षण अनन्तसुख केवलीके पाया जाता है । १. "तव वीर्यविघ्नविलऐन समभवदनन्तर्यता । तत्र सकल भुवनाधिधमप्रभृति स्वशक्तिभिरव स्थितो भवानिति ।।१४२।।" [जयधवल मूल पृष्ठ २२६६] २. "वीतरागहेतुप्रभवं न चेत्सुखं न नाम किंचितदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव नास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयियेन केवलम् ॥१४४।। [जयघवल मूल पृष्ठ २२७०] Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया २२२-२२४ ] क्षपणासार [ १८७ सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उत्समदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥२२२।।६१३॥ अर्थ-सातप्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व तथा चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे या उपशमसे उत्कृष्ट यथाख्यातचारित्र होता है । विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चारकषाय व तीन दर्शनमोह (मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व) इन ७ प्रकृतियों के क्षयसे तत्त्वोंका यथार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व होता है सो क्षायिक सम्यक्त्व है । चारित्रमोहनोयकर्मको २१ प्रकृतियोंके उपशम या क्षयसे उत्कृष्ट चारित्र (यथाख्यात चारित्र) होता है जो निष्कषाय आत्माचरणरूप है । यद्यपि यहां क्षायिक यथाख्यात चारित्रका प्रकरण है तथापि उपशान्तकषायगुणस्थानमें भी यथाख्यातचारित्रका प्रसंग होनेसे उपशमयथाख्यातचारित्रको भी कह दिया है । केवली भगवान्के असातावेदनीयकर्मके उदयसे क्षुधादि परीषह पाये जाते हैं प्रतः उनके भी आहारादिक्रिया होती हैं इसप्रकारको शंका होनेपर उसके परिहार स्वरूप गाथा कहते हैं। जं णोक सायविग्धचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपयडिणुदयभवं इदियखेदं हवे दुक्खं ॥२२३॥६१४॥ अर्थ--नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे दुःखरूप असाताबेदनीयादि अशुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियों के खेदरूप आकुलताका नाम दुःख है' और वह दुःख केवलीभगवान के नहीं पाया जाता है। जं णोकसाय विग्धं च उक्काण बलेण साद पहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोतं हवे सोक्खं ॥२२४॥६१५॥ अर्थ-नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदय के बलसे सातावेदनीयादि शुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके संतुष्टिरूप कुछ निराकुलसुख भी केवलोभगवानके नहीं पाया जाता है । क्योंकि-- १. "सपरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियलद्धं तं सोक्खं दुःखमेव सदा ॥७६॥" (प्रवचनसार) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] अपणासार [गाथा २२५-२६ णहा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो । तेण दु सादासादजसुद्द दुक्खं णस्थि इंदियजं ॥२२५॥६१६॥ अर्थ-केवलीभगवानके राग-द्वेष नष्ट हो गए हैं तथा इन्द्रियजनित ज्ञान भी नष्ट हुआ है इसलिए साता-असातावेदनीयके उदयसे उत्पन्न सुख-दुःख नहीं है । समयढिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेण प्रसादस्सुदओ सादसावेण परिणमदि ॥२२६६६१७।। प्रथं-एकसमयप्रमाण स्थितिवाला सातावेदनोयकर्म बंधता है जो कि उदयरूप ही है इसलिए उनके (केवलीभगवान्के) असाताका उदय भी सातारूप होकर परिणमन करता है। विशेषार्थ-असातावेदनीयका वेदन करनेवाले जिनदेव आमय और तृष्णासे रहित कैसे हो सकते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि असातावदनीय वेदित होकर भी वेदित नहीं है, कारण कि अपने सहकारीकारणरूप घातियाकमौका अभाव हो जानेसे उसमें दुःखको उत्पन्न करनेको शक्ति मानने में विरोध आता है। शङ्का-निर्बीज हुए प्रत्येकशरीरके समान निर्बीज हुए असातावेदनीयका उदय क्यों नहीं होता ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि भिन्नजातीय कर्मों की समान शक्ति होने का कोई नियम नहीं है। शङ्खा-यदि असातावेदनीयकर्म निष्फल ही है तो वहां उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है । दूसरी बात यह है कि सहकारोकारणरूप घातियाकर्मोका अभाव होनेसे ही शेषकर्मों के समान असातावेदनीयकर्म न केवल निर्बीजभावको प्राप्त हुआ है, किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीय का बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभागयुक्त, सातावेदनीयरूप सहकारीकारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। यदि कहा जाय कि बन्धके उदयस्वरूप ३. जयघयल मूल पृष्ठ २७० । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२६ ] [ १८६ रहते हुए सातावेदनीय कर्मको गोपुच्छ स्तुविकसंक्रमणद्वारा असातावेदनीयको प्राप्त होती होगी, सो बात भी नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है क्षपरणासार शङ्का- -यदि यहां स्तुविकसंक्रमणका अभाव मानते हैं तो साला और असातावेदनtest सत्त्वयुच्छित्ति अयोगी गुणस्थानके अन्तिमसमय में होनेका प्रसंग आता है । समाधान- नहीं, क्योंकि सातावेदनीय की बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगोगुणस्थान में सातावेदनीयके उदयका कोई नियम नहीं है । -- शङ्का - इसप्रकार तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछकम पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होता है । समाधान- नहीं, क्योंकि सयोगकेवलि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है' । गाथा २१६ से २२६ सम्बन्धी विशेषकथन : घातियाकमोंके क्षय होआने के अनन्तरसश्य में भ्रष्टबीजके समान चारों अघातिया कर्म शक्तिरहित हो जानेसे युगपत् उत्पन्न होनेवाले अनन्त केवलज्ञान दर्शन व वीर्यसे युक्त, स्वयंभूपनेको आत्मसात् करके जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं उन्हीं भगवान अर्हतपरमेष्ठीको सयोगोजिन भी कहते हैं, क्योंकि उस अवस्था में बन्धका हेतुभूत तथा वचन और कायके परिस्पन्दलक्षणस्वरूप योगविशेषका सदुभाव होता है । केवलज्ञानादिका स्वरूप कहते हैं-- केवलका अर्थ असहाय है, जिसमें इन्द्रिय, प्रकाश और मनकी अपेक्षा नहीं हो वह असहाय है । जो ज्ञान केवल (असहाय ) हो वह केवलज्ञान है । केवलज्ञान अतीन्द्रिय, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्टपदार्थोंको जानता है, करण (इन्द्रिय) क्रम और व्यवधानसे रहित है, ज्ञानावरण कर्मका पूर्णरूप से क्षय हो जानेपर उत्पन्न हुआ है. उस प्रकाशसे बढ़कर अन्य कोई प्रकाश नहीं है और उससे अधिक कोई अतिशय नहीं, ऐसा वह केवलज्ञान है । उस केवलज्ञानका जो आनन्त्यविशेषण दिया गया है वह केवलज्ञान अविनश्वरता को बतलाता है। क्षायिकभाव केवलज्ञानके सादि- अपर्यवसित व्यवस्थानको प्रगट करता है सादि- अपर्यवसित है उसीप्रकार केवलज्ञान भी क्षायिक होनेसे । जैसे घटका प्रध्वंसाभाव सादि- अपर्यवसित है । १. घवल पु० १३ पृष्ट ५३-५४ । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ] क्षपणासार [ गापा २२६ सर्वद्रव्य और उनकी पर्यायोंको विषय करनेवाला केवलज्ञान है, इससे यह बतलाया गया है कि केवलज्ञान परमोत्कृष्ट अनन्तपरिणामवाला है। प्रमेय आनन्त्य (अविनश्वर) हैं अत: उनके जाननेवाली ज्ञानशक्तिके भी आनन्त्यपना सिद्ध हो जाता है। प्रतिषेधका अभाव होनेसे केवल ज्ञान उपचारमात्रसे आनन्त्य नहीं है, किन्तु परमार्थ से आनन्त्य है। समस्त ज्ञेयराशिसे केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं, यह आममसे भलेप्रकार जाना जाता है । कहा भी है कि "जो नाशवान नहीं है वह द्रव्य है अतः इसके आनन्त्य अनुषचरित है" ऐसा निश्चय करना चाहिए। कहा है-- केवलज्ञान क्षायिक है, एक है, अनन्त है, भूत-भविष्यत और वर्तमान, इन तीनों कालों में सर्व अर्थ (जेयों) को युगपत् जानता है, अतिशयातीत है, अन्त्यातीत है। अच्युत है, व्यवधानसे रहित है'। इसीप्रकार के बलदर्शनका व्याख्यान करना चाहिए । दर्शनावरणका अत्यन्तरूपसे पूर्ण क्षय होनेपर प्रगट होनेवाला दर्शनोपयोग अशेष (समस्त) पदार्थोका अवलोकन जिसका स्वभाव है, उसको भी पानन्त्य विशेषण प्राप्त है और वह केवलदर्शन कहा जाता है । प्रतिबन्धकी अनुपलब्धि मात्रसे ही उसके आनन्त्य नहीं मानना चाहिए, किन्तु अविनाशो होनेसे आनन्त्य है । शा--सकल कैवल्य अवस्थामें ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि अशेष पदार्थों को साक्षात् करना दोनोंका स्वभाव होने के कारण दोनोंका विषय एक होनेसे दोनों के विषय में कोई भेद नहीं है इसलिए एकसे हो समस्त पदार्थोंका जानना हो जावेगा दूसरा व्यर्थ है फिर दोनों उपयोगोंका कथन क्यों किया गया ? समाधान- असंकीर्णस्वरूपसे केवलज्ञान और के वलदर्शन इन दोनोंका विषय विभाग अर्थात विषयभेद असकृत देखा जाता है अतः कैवल्यअवस्थामें सकल विमल केवलज्ञानके समान अकलंक केवलदर्शनका भी अस्तित्व है यह सिद्ध हो जाता है, अन्यथा आगमविरोधरूप दोषका परिहार नहीं हो सकेगा। १. क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थ युगपदवभासि । निरतिशयमन्त्यमच्युतमव्यवधानं च केवल ज्ञानम् ।।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२६९) Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाया २२६] [ १९t केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों प्रकाश एफ हैं ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्यपदार्थको विषय करनेवाला साकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग है और अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाला अनाकारोपयोग अर्थात् दर्शनोपयोग है । "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो । तं कथं णवदे ? अणायारत्तगहाणुयवत्तीदो।" अर्थात् अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है। यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरङ्गु पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता । इसप्रकार विषयभेद होनेसे दोनों उपयोगों का कार्य भिन्न-भिन्न है अतः कोई भी उपयोग व्यर्थ नहीं है। यदि दर्शनका सदभाव न माना जावे तो दर्शनावरणकर्म के बिना सात ही कर्म होंगे, क्योंकि आवरण करने योग्य दर्शनका अभाव मानदेपर के सावरकका सदुभाव मानने में विरोध आता है । दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देष किया गया है । यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि मुख्य वस्तुके अभाव में उपचारको उत्पत्ति नहीं बनती । वीर्यान्तरायकर्मका निमल क्षय हो जानेसे अनन्तवीर्य की उत्पत्ति होती है जो परिश्रमसे उत्पन्न होनेवाली थकावटका विरोधी है तथा अप्रतिहतसामर्थ्यवाला है, अन्तरायरहित है वह अनन्तवीर्य कहा जाता है। भगवान् अशेष (समस्त) पदार्थोको विषय करनेवाले ध्र वउपयोगरूप परिणामवाले हैं अर्थात् भगवान् तिरन्तर ध्र वरूपसे समस्त पदार्थोको जानते हैं तथापि उवको खेद नहीं होता यह अनन्तवीर्य का उपग्रह (उपकार) है और यही उसकी उपयोगिता है। उस अनन्तवीर्यके बलाघानबिना सान्ततिक उपयोगकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अन्यथा हम जैसे इनस्थोंके उपयोगके समान उस उपयोग (केवलोके उपयोग) की सामर्थ्य का विरह (अभाव) होने से अनवस्थाका प्रसंग आ जायेगा । कहा भी है-- १. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३५८ । २. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३३७ । ३. जयधवल पु. १ पृष्ट ३५८-५९ । ४. धवल पू० ७ पृष्ठ ६८ । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] क्षपणासार [ गाया २२६ "तव वोविघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता । तत्र सकल भुवनाधिगमप्रभृति स्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति' ।" हे भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्मका विलय हो जाने से अनन्त थीयं हो गया है । अपने वीर्य के द्वारा समस्तभुवन को जानने आदिरूप प्रवृत्तिमें अवस्थित है अर्थात आपका उपयोग किंचित् भी चलायमान नहीं होता। इसके द्वारा के वलीके आत्यन्तिक सुखका व्याख्यान हो जाता है, क्योंकि अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य उप हित सामर्थ्य वाले, वीतमोहस्वरूप, ज्ञान और वैराग्यकी अतिशय पराकाष्ठापर आरूढ़, परमनिर्वाण, लक्षणवाले, सुखकी आत्यन्तिक (अविनाशी) रूपसे उपलब्धि होती है | अतिशय ज्ञान व वैराग्यसे उत्पन्न वीतरागसुखसे अन्य किंचित् सुख नहीं । सरागसुख तो एकान्ततः दुःख ही है । कहै. जी है-- "सरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इदिएहिं लद्धतं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ विरागहेतु प्रभवं न चेत्सुखं न नाम किचित्तदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्त स्फुटमेव वास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयि येन केवलम् ।।" जो सुख पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है वह परद्रव्यों की अपेक्षासे होता है कारण पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि अनेक रोगोंके कारण बाधासहित है, असाता. वेदनीयकर्मोदयके कारण नाशवान तथा अन्तरसहित है, देखे-सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी इच्छादि अनेक दुष्परिणामोंसे नरकति आदि अशुभकर्म बन्धते हैं जिनका उदय होनेपर नरकादि गतियों में जाकर नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं, हानिद्धि होने से एकसा नहीं रहता अतः विषम है इन पांच कारणोंसे यह सांसारिकसुख दु:ख. रूप ही है। "विरागहेतुसे उत्पन्न हुआ सुख यदि सुख नहीं है तो निश्चय से कोई सूख है ही नहीं, ऐसा हमें निश्चय हो गया है, विराग हेतु निमित्त है यह स्पष्ट है । आपसे अर्थात् केवलीसे अन्य में वह हेतु नहीं है, क्योंकि यह हेतु केवल आपमें ही है।" इसलिए - - १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ । २. प्रवचनसार गाथा ७६ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२६ ] क्षपणासार [ १६३ जिस सुख में अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र प्रघान हैं जो अनुपरतवृत्ति अर्थात् विच्छिन्न वहीं होता, निरतिशय अर्थात् उस सुखसे बढ़कर कोई अतिशय नहीं है, प्रात्मासे उत्पन्न होता है, ऐसा अनन्तसुख अतीन्द्रिय और निष्प्रतिद्वन्द्व (विरोधरहित) है। किसी वादीको यह दृढ़निश्चय है कि सयोगकेवलोके असातावेदनीयका उदय होनेसे अनन्तसुख का अभाव और यह बात उल्लघन भी नहीं की जा सकती, क्योंकि सयोगकेवलोके कवलाहारवृत्ति पाई जाती है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि सयोगके वलीके असातावेदनीयके उदय में सहकारीकारणका अभाव होनेसे वह (उदय) अकिचिस्कर (व्यर्थ) है । जैसे सहकारीकारणके अभाव में परघातका उदय अकिंचित्कर है । अतः अनन्तज्ञान-दर्शन-वोर्य चारित्र व सुख परिणामी होने से सयोगकेवलो कवलाहार (भोजन) नहीं करते, जैसे सिद्ध परमेष्ठी अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य चारित्र व सुखपरिणामि होनेसे कवलाहार नहीं करते, क्योंकि सयोगके वली और सिद्धपरमेष्ठी इन दोनों के समस्त अन्तरायकर्म का पूर्णरूपसे क्षय हो जाने के कारण अनन्तवीर्य के द्वारा उपलक्षित अनन्तदान-लाभ-भोग व उपभोगलब्धिमें कोई विशेषता नहीं है । सयोगकेवलोके स्वरूपका निरूपण करनेवाली निम्नलिखित दो गाथाएं हैं "केवलणाणदिवायरकिरणकलापप्पणासियण्णाणो । णवकेवललधुग्गमसुजणिय परमप्पवयएसो ॥ असहायणाणदंसरण सहिओ इदि केवली हु जोएण । जुतो त्ति सजोगो इदि अरणाइ-णिणारिसे उत्तो' ॥" केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिसने नवकेवललब्धियोंके प्रगट होनेसे 'परमात्मा' इस संज्ञाको प्राप्त कर लिया है, यह इन्द्रियादिकी अपेक्षा न रखनेवाले असहायज्ञान व दर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली, तीनों योगोंसे युक्त होने के कारण सयोगी और घातियाकोको जीत लेने अर्थात क्षय कर देनेसे जिन कहे जाते हैं ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा गया है। १. धवल पु० १ पृष्ठ १६१-६२ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७० । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] क्षपणासार [गाया २२६ __भगवत् अहत्परमेष्ठी स्वयं पदार्थज्ञान में स्थित है, तथापि पराथं प्रवृत्ति स्वभावसे' निकटभन्यों के हित के लिए धर्मामृतको वृष्टि करते हुए अबुद्धिपूर्वक सर्वप्राणियों के उद्धारको भावनाके अतिशयसे प्रेरित होकर भव्यजनोंके पुण्यके कारण तथा शेष कर्मफलके सम्बन्ध से बिहार करते हैं। प्रतिसमय कर्मप्रदेशोंकी असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा करते हुए धर्मतीथं प्रवर्तन के लिए यथोचित धर्मक्षेत्रमें अतिशयी विभूतिके साथ प्रशस्तविहायोगति नामकर्म के कारण तथा स्वभावसे बिहार करते हैं। शङ्का- अहंत भगवान्का व्यापार अर्थात् अतिशयबिहार अभिसन्धिपूर्वक (इरादेसे ) होता है, अन्यथा यत्किचनकरित्व (यद्वा-तद्वा कुछ भी किये जानेपर) के दोष (अनुषं जनात्) का प्रसंग आ जावेगा। यदि अभिसंधि पूर्वक माना जाता है तो इच्छा होनेसे असर्वज्ञ हो जावेंगे जो इष्ट नहीं है। समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि कल्पतरुके समान इच्छाके बिना भी केवली के परार्थको सामर्थ्य उत्पन्न होतो है अथवा दोषकके समान । जैसे दीपक कृपालु होकर स्व और परके अन्धकारको दूर नहीं करता, किन्तु स्वभावसे हो स्वपरसम्बन्धी अन्वकारको दूर करता है इसमें कुछ भी बाधा नहीं आती है । कहा भी है "जगते त्वया हितमवादि न च विदिषा जगद्गुरो । कल्पतरुरनभिसन्धिरपि प्रणयिभ्य ईप्सितफलानि यच्छति ।। *कायवाक्य मनसा प्रवृत्तयो नामवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमोक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम् ।। विवक्षासन्नि धानेऽपि वाग्वृत्तिर्जातु नेक्ष्यते । वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ।।" "हे जगद्गुरो ! आपके द्वारा जगतका कल्याण विवादका विषय नहीं है, क्योंकि इच्छा रखने वाले प्राणियोंके लिए कल्पवृक्ष बिना इच्छाके ही वांछितफलों को १. "परार्थप्रतिस्वभाव्यात्' (जय धवल मूल पृष्ठ २२७१) २. "अबुद्धिपूर्वमेव सर्वसत्त्वाभ्युद्धार भावनातिशय प्रेरितः" (ज. प. मूल पृष्ठ २२७१) ३. प्रवचनसारगाथा ४४-४५ । ४. स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ७४ । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ご गाथा २२६ ] [ १९५ देता है । हे मुनीश ! आपकी मन-वचन-कायको प्रवृत्तियां इच्छापूर्वक नहीं होती, हे घोर असमीक्षापूर्वक (बिना विचारे) आपकी प्रवृत्तियां नहीं होतो इसलिए आपकी प्रवृत्ति अचिन्त्य है । कहनेकी इच्छा होनेपर भी वचनप्रवृत्ति कदाचित् नहीं देखी जाती, जैसे मन्दबुद्धि लोग शास्त्रोंके वक्ता होनेकी इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धिके कारण कुछ कह नहीं सकता ।" इसलिए परमोपेक्षासंयम विशुद्धिमें स्थित केवलीके विशेष व्यतिशय व्याहार ( दिव्यध्वनि) आदि व्यापार स्वाभाविक हैं, पुण्यबन्धके कारण नही हैं । आर्षमें कहा भी है क्षपणासार "तित्ययरस विहारो लोयसुहो णेव तस्स पुण्णफलो । वयणं व दाणपूजारंभयरं तण्ण लेवेइ' " भगवानका बिहाररूप अतिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए आकाश में भक्तिसे प्रेरित देवोंके द्वारा रचित स्वर्णमयी कमलोंवर प्रयत्न विशेष के बिना ही अपने माहारम्यातिशय से होता है ऐसा जानना चाहिए क्योंकि उनको कहा भी है- है। "नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारः । पादाम्बुजं पातितमारदप भूमौ प्रजानां विजथं भूत्यै ।। हे जिनेन्द्र ! कामदेवके गर्वको नष्ट करनेवाले आपने सहस्रदल कमलोंके मध्य में चलनेवाले अपने चरणकमलोंके द्वारा आकाशतलको पल्लवोंसे युक्त जैसा करते हुए पृथ्वीपर स्थित प्रजाजनोंकी विभूतिके लिए बिहार किया था । सयोगिजिनके प्रथमसमय से लेकर केवलीस मुदुप्रातके अभिमुख केवली के प्रथमसमयतक अवस्थित एकरूप से गुणश्रेणि निक्षेपका क्रम जानना चाहिए, क्योंकि प्रतिसमय परिणाम अवस्थित हैं और परिणामोंके निमित्तसे होनेवाला कर्मप्रदेशोंका अपकर्षण व गुणश्रेणिनिक्षेपका श्रायाम सहा अर्थात् अवस्थितरूपको छोड़कर विसदृशरूप परिणमन नहीं करता यानि अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी संख्या में या गुणश्रेणियायाममें होनाधिकता नहीं होती, किन्तु क्षीणकषायगुणस्थान में गुणश्रेणिके निमित्तसे जो द्रव्य अपकर्षित किया ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२७१ । २. स्वयंभू स्तोत्र फ्लोक ३० । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार (गाथा २२७-२२६ जाता था उससे असंख्यातगुणा द्रव्य सयोगके वली अपकर्षित करते हैं । गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणा हीन है, क्योंकि छद्मस्थ के परिणामोंसे केवलोके परिणाम विशुद्धतर हैं, ऐसा ११वीं गुणश्रेणिप्ररुपणामें कहा गया है। इसप्रकार आयुकर्मको छोड़कर शेष तीनप्रघातिया कर्मों के प्रदेशों की असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा करने वाले तथा धर्मतीर्थको फैलानेवाले उत्कृष्टरूपसे कुछकम पूर्वकोटि कालतक बिहार करते हैं । तोर्थङ्करके बली के और अन्य केवलियोंके जघन्यकालका उत्कृष्ट कालप्रमाण आगमसे जान लेना चाहिए । तीर्थङ्करके वली समवशरणविभूतिके साथ बिहार करते हैं । पडिसमयं दिव्यतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं । समयपबद्धं बंधादि गलिदवसेप्ताउमेत्तठिदी ॥२२७॥६१८॥ अर्थ-सयोगिजिन प्रतिसमय प्रौदारिकशरोररूप नोकर्मसम्बन्धी आहारवर्गणारूप समय प्रबद्धको बांधते हैं जिसकी स्थिति सयोगिजिनसे पूर्व अवस्थामें व्यतीत हुई आयुके बिना शेष बची आयुप्रमाण जानना । विशेषार्थ-नोकर्मवर्गणा ग्रहण करना ही आहारमार्गणा है और इसका सद्भाव केबलोभनमारक है, भोलि गोड, मानतिक दल, कर्म और नोकर्म के भेदसे छहप्रकारका आहार है । इन छहप्रकारके आहार में से कर्म व नोकमरूप दोप्रकारका आहार पाया जाता है। सातावेदनीयके समय प्रबद्धको ग्रहण करता है वह कर्म आहार है तथा औदारिकशरीररूप समयप्रबद्धको ग्रहण करता है वह नोकर्म आहार है । णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे । णस्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तस्थ ॥२२॥६१६॥ अर्थ-इतनी विशेषता है कि केवलीसमुद्घातको प्राप्त केवलोभगवान्में प्रतरके दो, लोकपूरणके एक इन तीनसमयों में नोकर्मका आहार नहीं है अन्य सर्वकाल में नोकर्मका आहार पाया जाता है। अथानन्तर पश्चिमस्कंधद्वारका कथन करते हैं-- अंतोमुहुत्तमाऊ परिसेसे केवली समुग्धादं । दंड कवाट पदरं लोगस्स य पूरणं कुणदी ।।२२६॥६२०॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा २३०-२३६ ] क्षपणासार [ १९७ हेट्ठा दंड संतो मुहुत्तमावज्जिद हवे करणं । तं च समुग्वादस् य अ हिमुह भावो जिदिस्स ॥ २३० ॥ ६२१ ॥ जिद करणेवि य रात्थि ठिदिरसाण हदी । ठाणे उदयादि दिया गुणसेडी तस्स दव्यं च ॥२३१॥ ६२२ ॥ जोगिस्स सेसकाले गयजोगी तस्स संखभागो य । जावदियं तावदिया आवजिद करगा गुणसेढी ॥२३२॥६२३॥ ठिदिखंडमसंखेज्जे भागे रसखंड मप्यसत्थाणं । इयदि अता भागा दंडादी चउसु समएसु ॥ २३३ ॥ ६२४ ॥ चउलमएसु रसस्स य असम श्रोत्रणा असत्थाणं । ठिदिखंड सि सि म यिगबादो तो मुहुत्तुवरिं ॥ २३४ ॥ ६२५ ।। जगपुरणम्हि एक्का जोगस्स य वग्गणा हिंदी तत्थ | तोमुमेाहा आउका होदि २३५ ।। ६२६ ।। एत्तो पदर कवाडं दंडं पच्चा चउत्थसमयन्हि । पाविसिय देहं तु जिणो जोगरोध करेदीदि ॥ २३६ ॥ कुलयं ॥ ६२७ ॥ अर्थ - अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहनेपर केवली भगवान् समुदुघातक्रिया दंड, कपाट, प्रतर व लोकपूरणरूप से करते हैं। दंड समुद्घात करने के समय में अन्तर्मुहूर्त कालतक अध: ( पहले ) आवजितकरण होता है । जिनेन्द्र भगवानका समुदुधात करने के सम्मुख होना ही आवर्जितकरण कहलाता है। आवजितकरणकरने के पहले जो स्वस्थान है उसमें और आवजितकरण में सयोगकेवलीके स्थिति व अनुभागघात नहीं है तथा उदयादि अवस्थितरूप गुणश्रेणि श्रायाम है एवं उस गुग्गश्रेणिश्रायामका द्रव्य भी अवस्थित है । श्रावजितकरण करने के पहले समय में जो सयोगकेवलीका अवशिष्टकाल और अयोगकेवलोके सर्वकालका संख्यातवभाग इन दोनोंको मिलानेपर जितना प्रमारण आवे उतने प्रमाण आवजितकरणकालका अवस्थितगुणश्रेणिआयाम जानना | दंडादिसमुदुधात के चारसनयों में स्थिति तो असंख्यात बडूभ प्रमाण और अप्रशस्त कर्मो का अनुभागका अनंत Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [ गाया २३६ बहुभागप्रमाण घात होता है । इसप्रकार चारसमयों में अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अपवर्तन तथा स्थितिखंडका एकसमयवाला घात हुआ । एक- एकसमय में जो एक एकस्थितिकाण्डकघात किया सो यह समुदुधात क्रियाका माहात्म्य है । लोकपूरणके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिकाण्डक या अनुभागकाण्डकका आयाम (उत्कीरणकाल ) होता है । लोकपूरण समुदुघात में योगकी समानता हो जानेपर योगकी एकवर्गणा हो जाती है । यह बायुसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त प्रमाणस्थितिको स्थापित करता है। लोकपूरणके अनन्तर प्रथमसमय में लोकपूरणको समेटकर आत्मप्रदेशोंको कपाटरूप करता है। तथा तृतीय समय में कपाटको समेटकर दण्डरूप आत्मप्रदेशों को करता है, इसके अनन्तर चतुर्थ समय में दण्डको समेटकर सर्वमात्मप्रदेश मूलशरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहांसे अन्तर्मुहूर्त जाकर जिन ( अर्हन्तभगवान ) योगका निरोध करते हैं । क्षपणासार विशेषार्थ... केवलज्ञानको उपकरण स्वस्थान योगकेवली होकर उत्कृष्ट से कुछकम पूर्वकोटिप्रमाण विहार करते हैं । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेष रहनेपर अघातिया कर्मोकी स्थितिको समान करने के लिए सर्वप्रथम श्रावजितनामक क्रियान्तरको करता है । शङ्का --आयजितकरण किसे कहते हैं ? समाधान- - केवलीस मुदुघात के अभिमुखभावको आवजितकरण कहते हैं । केवलो आवजितकरणका पालन करते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाले आवर्जितकरण के बिना केबली समुदुघातक्रिया के श्रभिमुखभावकी उत्पत्ति नहीं होती । उससमय नाम गोत्र व वेदनीयकर्मके प्रदेश पिण्डका अपकर्षणकरके उदयस्थिति में स्तोक प्रदेशाग्र देता है। उसके अनन्तर असंख्यातगुणं प्रदेशाग्र को देता है । इसप्रकार शेष सयोगकेवली व अयोगकेवलोकाल से विशेषअधिककालतक असंख्यातगुणो श्रेणिरूपसे देता जाता है जबतक अपना गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त नहीं होता । इससे पूर्व समय में स्वस्थानसयोगकेवली के गुणश्रेणियायाम से वर्तमानगुणश्रेणिश्रायाम संख्यातगुणाहीन है अतः पूर्वके गुणश्रेणिशीर्ष से उपरिम अनन्तर स्थिति में भी असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र देता है उससे ऊपर सर्वत्र विशेष (चय) हीन देता है । इसप्रकार आवर्जितकरणकाल में सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना | यहांसे लेकर सयोगकेवलीके द्विचरम स्थितिकाण्डककी चरमफालिपर्यन्त गुणश्रेणिनिक्षेपायामका अवस्थितआयामरूपसे प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है; यह प्रसिद्ध भी नहीं क्योंकि सूत्रअविरुद्ध परमगुरुसम्पदाके बलसे सुपरिनिश्चित है । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गाया २३६ ] [ १ee शङ्का — स्त्रस्थान के वलीके और क्रियाभिमुखकेवली के अवस्थित एकस्वरूप परिणाम होते हुए भी गुण णिनिक्षेप में विसदृशपना किसकारण से है ? क्षेपणासार समाधान- वीर्य परिणामोंमें भेवका प्रभाव होनेपर भी अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने की अपेक्षा अन्तरंग परिणामों की विशेषतावाले और क्रियाभेदके साधन में प्रवर्तनेवाले के प्रतिबन्धका अभाव है । अर्थात् स्वस्थानके वली से आवर्जितकरण केवलोके गुणश्रेणियायाम व गुण णिप्रदेशनिक्षेप समान होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक आवर्जितकरणसम्बन्धी व्यापारविशेषका पालन करके स्थित केवली अनन्तर समय में केवलीस मुदुघातको करता है । शंका- केवलसमुदुधात किसे कहते हैं ? समाधान -- "उद्गमनमुद्घातः, जीवप्रदेशानां विसर्पमित्यर्थः । समीचीन उद्घातः समुद्घातः, केवलिनां समुद्घातः केवलीसमुद्घातः उद्गमको उद्घात कहते है अर्थात् जीवप्रदेशोंका फैलना उद्यात है, समीचोन उदुधात समुद्यात है । केवलियोंका समुद्घात केवलोसमुदात है । अघातिया कर्मोकी स्थितिका समीकरण करने के लिए केवलोजिनके आत्मप्रदेशों का आगम अविरुद्ध से ऊपर, नीचे व तिर्यक्रूपसे फैलने को 13 चलीसमुद्रात कहते हैं । अन्य समस्त समुद्घातका निषेध करनेके लिये यहांपर केवली विशेषण दिया गया है, क्योंकि यहां अन्य समुदुघातोंका अधिकार नहीं है । दण्ड, कपाट, प्रतर व लोकपूरणके भेदसे वह केवलीस मुद्द्धात चारप्रकारका है। उनमें सर्वप्रथम दंड मुद्धात का स्वरूप कहते हैं, केवलीजिन सर्वप्रथम दंडस मुद्धातको हो करते हैं । शंका- - दण्डसमुदुघातका क्या लक्षण है ? समाधान --- अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रह जानेपर के वलोसमुदुघातको करनेवाले केवलजिन पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग या पल्यंकासन में स्थित १. दमेत्थासंकणिज्जं सस्थाण के वलियो किरिया हिमुहकेबलिणो च अवद्विदेगसरूवपरिणामत्ते संते कुदो एवमेत्यु से गुण से दिक्सेिक्स्स विसरिसभावो जादोत्ति । किं कारणं ? यीययपरिशामभेदाभावे वि अंतोमुहुत्त से साउसध्व पेक्खाणमंत रंगपरिणामवि से साणं किरिया भेद साहणभावेण मारगाणं पडिबंबाभावादी ) ( जयधबल मूल पृष्ठ २२७८ ) २. जयघवल मूल पृष्ठ २२७८ । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] सपणासार [ गाथा २३६ होते हैं । कायोत्सर्गसे दण्डसमुद्घात करनेवाले के विस्तार में मूलशरीरकी परिधिप्रमाणवाले जीवप्रदेश निकलकर दण्डाकार कुछकम १४ राज्न आयामाले हो जाते हैं। 'देसोग' से अभिप्राय लोकके ऊपर और नीचे वातवलयोंसे अविरुद्धक्षेत्रका है क्योंकि स्वभावसे ही उस अवस्थामें केवलीजिनके प्रदेशोंका वातवलय में प्रवेशका अभाव है। इसीप्रकार पल्यंकासनकाले के वलियोंके दण्डस मुद्घातका कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि मूलशरीरको परिधिसे दण्डस मुद्घातको परिधि तिगुणी होती है। इसप्रकारको अवस्था विशेषको गण्डसमुहात दहले इस गीयरमेश दण्डाकार से फैलते हैं अतः यह दण्ड समुद्घात कहलाता है। दण्डसमुद्घातमें औदारिककाययोग होता है, क्योंकि अन्ययोग असम्भव है । उसी समय एल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति सत्कर्मवाले तीन अधातियाकर्मोकी स्थिति के असंख्यातबहभाग घात करने से सख्यातवेंभागप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है। केवलीसमुदुघातके प्रभावसे एकसमयमें ही स्थितिघात हो जाता है । अप्रशस्त प्रकृतियोंका जो अनुभाग क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरमसमय में था चरमसमयमें उसका अनन्त बहुभाग घातहोकर अनन्त वेंभाग प्रमाण अनुभागसत्कर्म शेष रह जाता है, उसका भी अनन्तबहुभाग समुद्घातगत केवलीके प्रथम. समय में होकर अनन्तवेंभागप्रमाण अनुभागसत्कर्म रह जाता है। प्रशस्तप्रकृतियोंका स्थितिघात तो होता है, किन्तु अनुभागधात यहां नहीं होता है । आजितकरणमें जैसी गुणश्रेणिप्ररुपणा की गई थी वैसी ही प्ररुपणा यहां भी करना चाहिए । (इससे यह सिद्ध हो जाता है कि स्वस्थानके वलि व आवजितकरणके वलि के स्थिति व अनुभागघात नहीं होता।) अनन्तरसमयमें अर्थात् केवलीस मुद्घात के द्वितीयसमयमें कपाटस मुदुधात होता है। जैसे किवाड़ (कपाट) बाहल्य (मोटाई) में स्तोक होकर भी विषकम्भ और आयाममें (लम्बाई-चौड़ाई में ) बढ़ता है उसीप्रकार विस्तार में जीवप्रदेश मूलशरीरप्रमाण या मूलशरीरसे तिगुणे होकर कुछ कम चौदहराजू लम्बे और दोनों पार्श्वभागों में सातराजू या हानि वृद्धिरूप सातराजू चौड़े फैल जाते हैं इसलिए इसको कपाट (किवाड़) समुद्घात कहा है । यहां स्फुट कपाट रूप संस्थान उपलब्ध होता है तथा पूर्व या उत्तरमुखके कारण विष्कम्भमें भेद हो जाता है | कपाटस मुद्घात में औदारिकमिश्रकाययोग. होता है । कामण और औदारिक इन दोनोंको मिलो हुई अवस्थाके अबलम्बनसे जीवप्रदेशोंकी परिस्पन्दरूप पर्याय उत्पन्न होती है । शेषकर्मस्थितिका असंख्यातबहुभाग Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 गाथा २३६ ] [ २०१ और अप्रशस्तप्रकृतियों के शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागका घात कपाटसमुद्घात में होता है। यहां गुणश्रेणी रुपणा आवर्जितकरण में कथित गुणश्रेणिप्ररूपणा के समान ही है । क्षपणासार केवली समुद्घातके तृतीयसमय में मंथ ( प्रतर ) समुद्धात होता है, जिसके द्वारा कर्मो का मथन किया जावे वह मन्थ है । अघातिया कर्मोकी स्थिति व अनुभागका हनन होता है और श्रात्मप्रदेशोंकी अवस्थाविशेष ( प्रतररूपसे फैल जाते हैं) को प्रतरसंज्ञावाला मन्थ कहा गया है । इस अवस्थाविशेष में वर्तन करनेवाले केवलीके जीवप्रदेश चारों ओर प्रतराकारसे फैल जाते हैं, वातवलयोंके अतिरिक्त शेष समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में व्याप्त हो जाते हैं, क्योंकि इस अवस्था में वातवलयों में केवलोके जीवप्रदेशों के संचारका प्रभावरूप स्वभाव है, जीवप्रदेशोंकी ऐसी अवस्थाको प्रतरसंज्ञा आगमरुढ़िके बलसे जानना । इस अवस्था में केवली कामंणकाययोगी व अनाहारक हो जाते हैं। मूलशरीर के अवलम्बनसे उत्पन्न जीवावे परिमन कसम है मोंकि शरीर के तत्प्रायोग्य नोकर्म पुद्गलपिण्डके ग्रहणका अभाव है । स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभाग और अप्रशस्तप्रकृतियों के अनुभाग सत्कर्म के अनन्तबहुभागका पूर्वके समान हो घात होता है और उसीप्रकार प्रदेश निर्जरा भी होती है । स्वस्थानके वलीको गुणश्रेणिनिर्जरासे असंख्यातगुणी गुणश्रेणी निर्जरा आवर्जितकरण आदि अवस्थामों में होती है । तदनन्तर चतुर्थ समय में लोकपूरणसमुदुघात होता है । वातवलय से अविरुद्ध लोकाकाशके प्रदेशों में जीवप्रदेश प्रवेशकर जानेपर जीवप्रदेश व लोकाकाशके प्रदेशों में समानता होने से सम्पूर्ण लोकाकाशमें जीवप्रदेश निरन्तर ( अन्तररहित) व्याप्त हो जाते है इसलिए 'लोकपूरण' संज्ञावाला यह चतुर्थ केवलसमुदुधात है । यहांपर भी काण काययोग व अनाहारकअवस्था होती है, क्योंकि शरीरनिर्वृतिके लिए प्रदारिकरूप नोकर्मणाओंका निरोध देखा जाता है । लोकपूरणसमुद्घात में वर्तन करनेवाले केवलोके लोकप्रमाण समस्त जीय प्रदेशों में वृद्धि हानिके बिना योग अविभागप्रतिच्छेद सदृश होकर परिणमन करते हैं इसलिए सर्वजीवप्रदेशों में एक योगवर्गणा हो जाती है अर्थात् सर्वजीय प्रदेशों में समान योग होता है । सर्व जीवप्रदेशों में सदृशयोगशक्तिके अतिरिक्त विसदृशयोग शक्तिकी अनुपलब्धि है । सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जघन्ययोगसे असंख्यातगुणा तत्प्रायोग्य मध्यमयोगस्वरूप वह सदृशयोग परिणाम होता है । लोकपूरण समुद्घात में असंख्यात बहुभाग प्रमाण स्थितिका घात हो जानेपर शेषस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] [ गाथा २३६ जाती है जो शेषमासे संख्यातगुणी है। लोकपूरणसमुद्वात हो जानेपर भी तीनअघातियाकमका स्थितिसत्कर्म आयुकर्मके समान नहीं हुआ, किन्तु संख्यातगुणा है, परन्तु महावाचक आर्यमंशु आचार्यने क्षपणके उपदेश में यह कहा है कि लोकपूरणसमुद्रघातमें नाम-गोत्र व वेदनोयकर्मका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेषआयुके बराबर हो जाता है । इस व्याख्यान से चूर्णिसूत्र ( यतिवृषभाचार्यकृत) विरुद्ध है, क्योंकि चूर्णि सूत्र में मुक्तकण्ठसे कहा गया है कि शेषआयु संख्यातगुणी प्रघातिया कर्मों की स्थिति रह जाती है । इसप्रकार यहां दो उपदेश हैं । प्रवृत्तमान उपदेशकी प्रधानताका अवलम्बन लेकर यहां शेष आयुसे संख्यातगुणी तीन श्रवातिया कर्मोकी स्थिति कहो गई है । क्षपणासार समुदुघातके इन चारसमयों में प्रतिसमय अप्रशस्त कर्मों के अनुभागका अपवर्तनाघात होता है । इनचार समयों में एक-एकसमय में एक-एक स्थितिघात होता है । मावजितकरणके अनन्तर केवलसमुदुघात करके नाम गोत्र व वेदनीयकर्मकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है । शङ्का - लोकपूरणसमुद्घातक्रिया पूर्ण होनेपर केवली समुदुधात क्रियाका उपसंहार ( संकोच ) करके स्वस्थानको किसप्रकार प्राप्त होते हैं ? समाधान - लोकपूरणसमुदुघातके अनन्तर पुनः मन्थक्रिया होती है, क्योंकि मन्थपरिणाम (पर्याय) के बिना संकोच नहीं हो सकता। लोकपूरणसमुद्घात संकुचित होनेपर समयोगपर्यायका नाश होकर आगम के अविरोध से सर्व पूर्वयोग-स्पर्धक उद्घाटित हो जाते हैं । मन्य ( प्रतर ) का संकोच होकर कपाटरूप प्रवृत्ति होती है, क्योंकि कपाटरूप पर्यायके बिना मन्थका संकोच नहीं हो सकता । अनन्तरसमय में दण्डसमुदुघातरूप परिणमन करनेपर कपाटका संकोच होता है तथा तदनन्तरसमय में स्वस्थानके वलीपर्याय के द्वारा दण्डसमुदुघातका संकोच करके होनाधिकता से रहित मूलशरीरप्रमाण जीवप्रदेशोंका अवस्थान हो जाता है । इसप्रकार संकोच करनेवाले के तीनसमयप्रमाण काल है, चौथेसमय में स्वस्थानकेवली हो जाते हैं । किन्होंके व्याख्यानुसार संकोच करनेवालेका चारसमय काल है, क्योंकि जिससमय में दण्डसमुद्घातका संकोच होता है वह समय भी समुदुधात में ही अन्तर्भूत कर लिया है । पूर्ववत् प्रतरसमुद्घात में कामंणकाययोग, कपाटसमुदुघात में औदारिकमिश्रकाययोग और दण्डसमुदुघात में औदारिककाययोग होता है । कहा भी है Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३७-२३९ क्षपणासार [२.३ दण्डं प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थेतु ॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मंथानमथ पुनः षष्ठे। सप्तमके च कपाटं संहरति ततोऽष्ट मे दण्डम् ।। प्रथमसमयमें दण्ड, अनन्तर अगले समय में कपाट, तृतीयसमय में मंधान और चतुर्थसमय में लोकव्यापी, पांचवें समय में संकोचक्रिया, छठे समयमें मथान, सातवें समयमें कपाट तथा उसका संकोच होकर आठवें समय में दण्ड हो जाता है । इसप्रकार समुदुघात प्ररुपरणा समाप्त हुई। लोकपूरणसमुद्घातसे उतरने वाला अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति के संख्यातबहुभागको घानने के लिए स्थितिकार इस कार को और अप्रशस्त प्रकृतियोंके पूर्वधातित अवशेष अनुभागके अनन्त बहुभागको घासने के लिए अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ करता है । यहां स्थितिकाण्डकघात भोर अनुभागकाण्डकघातका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि लोकपूरणसमुद्घातके अनन्तरसमयसे प्रति समय एकसमयवाला स्थितिघात व अनुभागघात नहीं होता । इसप्रकारसे समुद्घातको संकोच करनेके कालमें और स्वस्थानकालमै संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर योग निरोध करता है। वादरमण वचि उस्सास कायजोगं तु सुहुमजचउक्कं । रुभदि कमसो बादरसहुमेण य कायजोगेण ॥२३७॥६२८।। सरिणविसुहुमाणि पुगणे जहण्णमणवयणकायजोगादो। कुणदि असंखगुणणं सुहुमणिपुण्णवरदोवि उस्सासं॥२३८॥६२६॥ एक्कक्कस्त ण्ठिंभणकालो अंतोमुत्तमेत्तो हु । मुहुमं देहणिमाणमाणं हियमाणि करणाणि ॥२३६॥६३०॥ अर्थ-बादर काययोगद्वारा मनोयोग वचनयोग-उच्छ्वास-काययोग, इच चारों को क्रमसे नष्ट करता है तथा सूक्ष्मकाययोगरूप होकर उन चारोंसूक्ष्म योगोंको क्रमसे १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२ से २२०२ । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] क्षपणासाय [गाया २३६ नष्ट करता है। संज्ञोपर्याप्तके जो जघन्य मनोयोग पाया जाता है उससे असंख्यातगुणाहीन सूचनोयोग करता है और द्वन्द्रिय पर्यातकके जो जघन्य वचनयोग पाया जाता उससे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्मवचनयोग करता है तथा सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तके जघन्य काययोगसे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्मकाययोग करता है तथा सूक्ष्मनिगोदिया पर्याप्तके जघन्य उच्छ्वाससे असख्यातगु माहान सूक्ष्म उच्छवास करता है । एक-एकबादर व सूक्ष्म मनोयोगादिके निरोधकरने का काल अन्तम हुर्त प्रमाण जानना तथा सूक्ष्मकाययोगमें स्थित रहते हुए सूक्ष्म उच्छ्वासको नष्ट करनेके अनन्तर सूक्ष्म काययोगको नष्ट करने के लिए प्रवृत्त होता है । विशेषार्थ-पूर्वोक्त विधिसे समुद्धातको संकोच करके स्वस्थान के वलो होकर संख्यातहजार स्थितिकाण्ड क व अनुभागकाण्डक ब्यतीत हो जाने पर योगनिरोधके लिए क्रियान्तर करते हैं। शका-योग किसे कहते हैं ? समाधान-मन-वचन-कायको चेष्टासे निर्वर्तित कर्मोंके ग्रहण करने में कारणभूत शक्तिस्वरूप जोवप्रदेशोंका परिस्पंदन योग कहा जाता है। वह योग सीनप्रकारका है--मनोयोग, वचनयोग व काययोग । उनमें से प्रत्येक योग सूक्ष्म व बादरके भेदसे दोप्रकारका है। योगनिरोधक्रियासे पूर्व सर्वत्र बादरयोग होता है, बादरयोगके पश्चात् सूक्ष्मयोगरूपसे परिणमनकर योगनिरोध करता है, मात्र बादरयोगसे ही प्रवृत्ति करने वाले के योगनिरोध नहीं होता। योगनिरोध करनेवाले केवलो भगवान् सर्वप्रथम हो बादरकाययोगके अवलम्बनके बलसे बादरमनोयोगका निरोध करते हैं। बादरकाययोगसे वर्तन करते हुए बादरमनोयोग की शक्तिको निरोधकर सुक्ष्मभावसे संज्ञोपंचेन्द्रिय पर्याप्तके सर्वजघन्य मनोयोगसे नीचे असंख्यातगुणो हीन शक्ति वाले सूक्ष्म मनोयोगको स्थापित करते हैं। बादरमनोयोगको शक्तिका निरोध करके अन्तमुहूर्तप्रमाणकालके द्वारा बादरकाययोगका अवलम्बन लेकर बादरवचनयोगशक्तिका भी निरोध करते हैं। दोन्द्रिय पतिकी सर्व जघन्य योगशक्तिसे लेकर उपरिम सर्ववचनयोगशक्ति बादर वचनयोगशक्ति है। उस बादरवचनयोग शक्तिको रोककर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकी सर्व जघन्य बचनयोगशक्ति से नीचे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्मवचनयोगरूप कर देते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे बादरकाययोगके द्वारा बादर उच्छ्वास-निश्वासका Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३६ ] क्षपणासार । २.२ निरोध करते हैं । सूक्ष्मनिगोदनिवृत्तिपर्याप्त अर्थात् प्रानपानपर्याप्सिसे पर्याप्तके सर्वजघन्यउच्छ्वास-नि.श्वासशक्तिसे असंख्यातगुणी संजीपंचेन्द्रियको उच्छ्वास-निःश्वासरूप परिस्पन्दशक्तिका बादर उच्छवास-नि:श्वासरूप से ग्रहण करना चाहिए । उस बादर उच्छवासनिःश्वासका निरोधकरके सूक्ष्मनिगोदियाकी सर्वजघन्यउच्छ्वासशक्तिसे नोचे असंख्यातगुणीहीन सूक्ष्म शक्तिरूप कर देता है, उसके पश्चात् अन्तर्मु इतसे बादरकाययोगके द्वारा बादरकाययोगका निरोधकर सूक्ष्मरूप कर देते हैं, सूक्ष्मनिगोदियाके जघन्यकाययोगसे असख्यातगुणो होनशक्तिसे परिणमा देते हैं । इस सम्बन्धमें दो उपयोगोश्लोक हैं "पंचेन्द्रियोऽथ संज्ञो यः पर्याप्तो जघन्य योगो स्यात् । निरुणद्धि मनोयोग ततोऽप्य संख्यातगुणहीनं ॥ द्वोन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छ्वासावबो जयति तद्वत् । गत का योग, जघन्यपर्याप्तकस्याधः ।।" संज्ञोपञ्चेन्द्रियपर्याप्तके जघन्ययोगका निरोध होकर, उससे भी असंख्यातगुणाहीन मनोयोग हो जाता है । द्वीन्द्रियपर्यापिके जघन्यवचनयोगका निरोध होकर उससे भी असख्यात गुणाहीन वचनयोग हो जाता है । साधारण अर्थात् निगोदियाके जो जघन्यउच्छवास है तथा सूक्ष्म वनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जो जघन्य उच्छ्वास है तथा सूक्ष्मवनस्पतिकाय अर्थात् मूक्ष्मनिगोदियाके जो जघन्य काययोग है उन बादर-बादर वचन, उच्छवास व काययोगका निरोध होकर उनसे भी असंख्यातगुणाहोन वचनयोग, उच्छ्वास व काययोग हो जाता है । इसप्रकार यथाक्रम बादरमनोयोग, बादरवचनयोग, बादर उश्वास-निःश्वास व बादरकाययोगशक्तिका निरोध होकर सूक्षापरिस्पन्दशक्ति हो जाती है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्ममनोयोगका निरोध करते हैं अर्थात् विनाश करते हैं। यहांपर सूक्ष्ममनोयोगसे, संज्ञोपंचेंद्रियपर्याप्तके सर्वजघन्य परिणामसे असख्यातगुणहीन अवक्तव्यस्वरूप द्रव्यमनोयोगके निमित्त से जो जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है, उसका ग्रहण होता है। उसके पश्चाद अन्तम हुर्तकालके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्मवचनयोगका निरोध अर्थात् विनाश होता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके सर्वजघन्यवचन योगशक्तिसे नीचे असंख्यातगुणेहोन वचनयोगको सूक्ष्मवचनयोग कहते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्मउच्छ्वासका निरोध (नाश) करता है। यहां भी सूक्ष्मनिगोदियापर्याप्त जीवके सर्व जघन्यउच्छ्वाससे नीचे Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] अपरणासार [ गाथा २४०-४३ असंख्यातगुणीहीन उच्छ्वासशक्तिका ग्रहण होता है । बादर व सूक्ष्ममनोयोगादि प्रत्येकके निशेध करने में अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है। योगनिरोधक केली के द्वारा मन, वचन व उच्छ्वासकी सूक्ष्मशक्तिको भी यथोक्तक्रम से निरोध ( नाश ) करके सूक्ष्मकाययोगका निरोध करनेके लिए इन करणोंको अबुद्धिपूर्वक करते हैं । सुहुमस्त य पढमादो मुहुततोत्ति कुणदि हु अपुष्वे । गडगोट्टा सेस्सि श्रसंखभागमिदो ॥ २४०॥६३९॥ पुण्वादिवग्गणाणं जीवपदेसा विभागपिंडादो | होदि असंखं भागं अपुव्त्र पढमम्हि ताण दुर्गं ॥२४९॥६३२॥ ओदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणियकमे । कुदि अव्वफट्टयं तग्गुणही एकमेव ॥ २४२ ॥ ६३३॥ सेढिपदस्त असंखं भागं पुव्वारा फड्ढयाणं वा । सव्वे होंति पुष्वा हु फड्डया जोगपडिबा ॥ २४३ ॥ कुलयं ॥। ६३४ ॥ अर्थ- सूक्ष्मयोग होनेके प्रथमसमय से अन्तर्मुहूर्तं व्यतीतकर पूर्वस्पर्धकोंके नीचे जगच्छ्रेणीके असंख्यात वैभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक करते हैं । पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी जीवप्रदेश के असंख्यातवें भागप्रमाण जीवप्रदेशों द्वारा प्रथमसमय में अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है जिनमें पूर्वस्पर्धकको आदिवगंणाके असंख्यातवेंभागप्रमाण अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । प्रतिसमय असंख्यात असंख्यातगुणे क्रमसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं, किन्तु नवीन अपूर्वस्पर्धक असंख्यात गुणेहीन क्रमसे रचे जाते हैं। योगसम्बन्धी सर्व अपूर्वस्पर्धक जगच्छ्रेणी के प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा सर्व पूर्वस्पर्धकोंके असंख्यात वैभागप्रमाण होते हैं । विशेषार्थ - सूक्ष्मनिगोदियाजीवके जघन्ययोग से असंख्यातगुणीहीन सूक्ष्मकायपरिस्पन्दन शक्तिरूप परिणमन होनेपर भी पूर्वस्पर्धक ही हैं, उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रथम समय में पूर्वस्पर्धकों के नीचे अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है जिनको सख्या पूर्व १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६३ से २२८४ ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४३ ] क्षपणासार [ २०७ स्पर्धकोंके अथवा जगत्श्रेणोके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सूक्ष्मनिगोदिया जोवके जघन्ययोगस्थानसे असंख्यातगुणेहीन सूक्ष्मकाययोगके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसमें भी आदिवर्मणाके असंख्यातवें भागरूप परिणमाकर अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है। यहां असंख्यात बेंभागसे पल्यका असंख्यातयां भाग ग्रहण करना चाहिए । प्रथमसमयमै असंख्यातāभागप्रमाण जोवप्रदेशोंका अपकर्षणकरके अपकषित जीवप्रदेशों में से बहुत जीवप्रदेश अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें दिये जाते हैं, क्योंकि सवंजघन्यशक्तिरूपसे परिणमन करते हुए जीवप्रदेशों में बहुत्व होने में विरोधका अभाव है। अपूर्वस्पर्धकको हो द्वितीयवर्गणामें विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। इसप्रकार विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जानेका यह क्रम अपूर्वस्पर्धकको चरमवर्गणातक जानना चाहिए । विशेषहीनके लिए प्रतिभागका प्रमाण श्रेणिका असंख्यातवांभाग है। पुनः अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणासे असंख्यातगुणे होन जीवप्रदेश पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें दिये जाते हैं। यहां हानि गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र होते हुए भी अपकर्षण उत्कषणभागहारसे अधिक है। उससे ऊपर आममसे अविरुद्धरूपसे विशेषहोन-विशेषहीन जोवप्रदेशोंका विन्यासक्रम जानना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयमें अपूर्वस्पर्धकको प्ररुपणा कही, तयैव द्वितीयसमय से लेकर अन्तम हर्तकालतक अपूर्वस्पर्धकोंको रचना होतो है। प्रथमसमयमें किये गए अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे उनसे असंख्यातगुणेहोन अपूर्वस्पर्धक द्वितीयसमय में किये जाते हैं, द्वितीयसमय में रचित अपूर्वस्पर्ध कोंसे असंख्यातगुणेहीन उनके नीचे तृतीयसमयमें अन्य अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं। इसप्रकार नीचे-नीचे अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणहीन-असंख्यातगुणे होनरूपसे अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं, किन्तु प्रथमसमयमें जितने जीवप्रदेशोंका अपकर्षण किया था उनसे असंख्यात गुणे जोवप्रदेश द्वितीयसमयमें अपकर्षित किये जाते हैं । इसप्रकार तृतीयादि समयों में भी असंख्यातगुणे जीवप्रदेशों के अपकर्षणका यह क्रम जानना चाहिए। द्वितीयसमयमें अपकर्षित जोवप्रदेशों के द्वारा रचे गए पूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुत जीवप्रदेश दिये जाते हैं तथा उससे आगे द्वितीयसमयमें हो रचे गये अपूर्वस्वधंकोंको चरमवर्गणातक आदिवर्गणा से विशेषहोन-विशेषहोन जोधप्रदेश दिये जाते हैं। उससे ऊपर प्रथमसमयमें रचित अपूर्वस्पर्धकों में से जघन्यस्पर्धकको आदिवर्गणामें असंख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं, इससे कार सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं । इसीप्रकार तृतीयादि समयों में असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे जीवप्रदेशों का अपकर्षण होकर तथा उस Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ૐ २०६ ] [ गाथा २४४-४७ उससमय में रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओं में एवं उससे ऊपर पूर्वसमय में ये गए की जयमादिवर्गमाओं जीवप्रदेश दिये जाते हैं । सर्व अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण जगच्छ्रेणी प्रथमवर्गमूलका असंख्यातवभाग है । पूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, क्योंकि पूर्वस्पर्धकों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियां हैं, उनमें से एक गुणहानि स्थानान्तर में जितने स्पर्धक हैं उनसे भी असख्यातगुणेही पूर्वस्पर्धक हैं । शंका- गाथासूत्र के बिना यह कैसे जाना जाता है ? क्षपणासार समाधान- - सूत्र से अविरुद्ध गुरूपदेशके बलसे उसप्रकारकी सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि व्याख्यान से विशेष अर्थको प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपूर्वस्पर्धक करने का जो काल है उसके चरमसमय में अपूर्वस्पर्धक क्रिया समाप्त हो जाती है । अपूर्वस्पर्धक त्रिया समाप्त हो जानेपर भी सर्व पूर्वस्पर्धक उसीप्रकार स्थित है, क्योंकि अभी तक उनके विनाशका अभाव है। यहां सर्वत्र सयोगकेवलीके चरमसमयतक स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणीनिर्जराकी प्ररूपणा पूर्वोक्त क्रमसे जानना चाहिए, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति में प्रतिबन्धका अभाव है । इसप्रकार अपूर्वस्पर्धक क्रियासम्बन्धी कथन समाप्त हुआ' | एसा करेदि किहिं मुहरतोति ते अपुण्वारणं । हेट्टा फटयाएं सेडिस्स असंखभागमिदं ॥ २४४ ॥ ६३५ ।। पुव्वा दिवग्गणाणं जीवपदेसा विभागपिंडादो । होति खं भागं किट्टीपदमम्हि ताण दुर्गं ॥ २४५॥६३६ ।। ओक्कहृदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणिदकमे । गुणही कमेण य करेदि किहिं तु पडिसमए ॥ २४६ ॥ ६३७|| सेढिपदस्स असंखं भागमपुत्राण फब्रुयाणं व । सव्वा किट्टीश्रो पल्लस्स श्रसंखभागगुणिद्कमा || २४७||६३८ ॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६५ से २२८७ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४७ ] क्षपणासार [२०६ अर्थ-- इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे सूक्ष्मकृष्टि करता है, उन सूक्ष्मष्टियों का प्रमाण जगच्छे रिणके असंख्यातवें भागमात्र है । अपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी सर्व जीवप्रदेश और अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवगंगाके अविभाग प्रतिच्छेद इन दोनोंके असंख्यातवैभागप्रमाण कृष्टि प्रथमसमयमें होती हैं। द्वितीयादि समयोंमें प्रति समय असंख्यातगुणे क्रमसे जोवप्रदेशों का अपकर्षण करता है तथा प्रतिसमय की गई कृष्टियोंके नीचे असंख्यातगुणहीन क्रमसहित नवोन कृष्टियां करता है । सर्वसमयों में की गई कृष्टियों का प्रमाण जगच्छ्रेरिणके असंख्यातवेंभागप्रमाण है अथवा अपूर्वस्पर्ध कोके कारणका सहारमा प्रमाण है ! सर्व कृष्टियां पल्यके असंख्यातवें भागगुणित क्रमसे हैं। विशेषार्थ- अपूर्वस्पर्धक करनेके पश्चात् अन्तम हर्तकालतक कृष्टि करने के लिए प्रतिसमय असंख्यातगुणितक्रमसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं। जघन्यकष्टिमें समान (सदृश) अविभागप्रतिच्छेदवाले असंख्यातजगत्तरप्रमाण जीव प्रदेश हैं। जघन्यकृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको पत्यके असंख्यातवेंभागसे गुणा करनेपर द्वितीय कृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इसप्रकार चरमकृष्टिपर्यन्त पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येककृष्टिगत अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकार जानना । चरमकृष्टिके एकप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर अपूर्वस्पर्धकको आदिवगंणामें एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उससे ऊपर ऊपर स्पर्धकोंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेषअघिक क्रमसे होते हैं, यह कथन एकजीयप्रदेशकी अपेक्षा किया गया है । अथवा जघन्य कृष्टिको पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर द्वितीयकृष्टि होती है । यह गुण कार चरमकृष्टि तक जानना चाहिए। कृष्टिगत जीवप्रदेशोंके सदृश अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षासे एणकारका यह कथन किया गया है। चरमकृष्टि में सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले समस्त जीवप्रदेशों के अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा से सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जीवप्रदेशों में विभागप्रतिच्छेदोंका समूह असंख्यातगुणाहीन है। उपरिम अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकारके अधस्तनवर्ती जीवप्रदेशसम्बन्धी गुणकार असंख्यातगुणा है । यद्यपि चरमकृष्टिके एकवर्गसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों से अपूर्वस्पर्धक्रकी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद एकवर्ग में असंख्यातगुणे हैं, किन्तु जीव प्रदेशोंकी संख्या आदिवर्गणाको अपेक्षा चरमकृष्टिमें असंख्यातगुणी है । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [ गाथा २४८-२५१ जीवप्रदेशोंका गुणकार अविभागप्रतिच्छेदों के गुणकारसे असंख्यातगुणा है जो श्रेणिके असंख्यात वभागप्रमाण है । अर्थात् अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणासम्बन्धी जीवप्रदेशोंका और एकaiके अविभागप्रतिच्छेदों का परस्परगुणा करने से जो प्रमाण बाता है वह चरमकृष्टिसम्बन्धी जोवन देशोंका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदों के परस्पर गुणनफल से असंख्यात गुरगाहोन है, क्योंकि चरमॠष्टिसे असख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश आदिवर्गणा में दिये जाते हैं । श्रणिके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां हैं तथा पूर्वस्पर्धक भी श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, किन्तु पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी एकगुणहानिस्थानान्तर में स्पर्धकुशलाकाके असंख्यात भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं। एक स्पर्धकसम्बन्ध वर्गणाओं के असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां हैं जो अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यात वैभागप्रमाण हैं । इसप्रकार एक अन्तर्मुहूर्त कृष्टिकरणकाल है ' । क्षपणासार पुचफडप विद्दि व संजलणे । एत्थापुव्व विहाणं बादरकिहिविहिंवा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥ २४८ ॥ ६३६ ॥ अर्थ – योगोंके अपूर्वस्पर्धक करने का विधान जैसे पहले संज्वलनकषाय के अपूर्वस्पर्धक करने का विधान कहा है उसोप्रकार जानना तथा योगोंको सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान भी पहले कहे हुए संज्वलनकषायकी बादरकृष्टि करने के विधान सदृश हो जानना । किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफढये सव्वे | णासेदि मुहु तु किट्टीगद वेदगो जोगी ॥ २४६ ॥ ६४० ॥ पढमे असंखभागं टुवरिं गासिदू विदियादी | हेदुरिमसंखगुणं कमेण किहिं वियादि ॥ २५२ ॥ ६४१ ॥ मझिम बहुभागुया किहिं वक्विय विसेसहीएकमा । पडिलमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया होंति || २५१ ।। ६४२ ।। अर्थ –— कृष्टिकरणकालके चरमसमय के अनन्तर काल में सर्व पूर्व- अपूर्वस्पर्धक - रूप प्रदेशोंको नष्ट करता है तथा अन्तर्मुहूर्तकाल में कृष्टिको प्राप्त योगका अनुभव १. जयघवल मूल पृष्ठ २२८७ से २२८६ । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५१ ] [ २११ करता ३ इसप्रकार प्रदेशों में जो कृष्टिरूप योगशक्ति हुई यह अब प्रगटरूप परिणमन करती है । कृष्टिवेदककाल के प्रथम समय में स्तोक अविभागप्रतिच्छेदयुक्त अवस्तन और बहुत अविभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरितनकृष्टियों को मध्यकी क्रुष्टिरूप परिणमाकर नष्ट करता है, उनका प्रमाण सर्वकृष्टियोंके असंख्यातवभागप्रमाण है तथा द्वितीयादि समयोंमें उनसे संख्यातगुणं क्रमसहित ऊपरितन कृष्टियोंको उसीप्रकार नष्ट करता है । सर्व कृष्टियोंको असख्यातका भाग देनेपर उसमें से बहुभागप्रमाण मध्यवर्ती कृष्टियां उदयरूप होती हैं । वे कूष्टियां प्रथमसमय से द्वितीयादि समयों में विशेषहीन क्रमसहित जानना चाहिए । इसप्रकार सयोगीके अविभाग प्रतिच्छेदरूप शक्तिकी अपेक्षा प्रथमसमय से द्वितीयादि चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणेहोन क्रमसहित योग पाया जाता है । क्षपणासाच विशेषार्थ - कृष्टिकरण कालके चरमसमयतक पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों का नाश नहीं होता; अविनष्टरूपसे दिखाई देते हैं, किन्तु प्रतिसमय पूर्व - अपूर्व स्पर्धकों का असंख्यातवां भाग कृष्टिस्वरूप से परिगमन होता है । कृष्टिकरण के चरमसमयसे अनन्तरसमय सर्व पूर्व पूर्वस्पर्वक अपने स्वरूपका परित्याग करके कृष्टिरूपसे परिणमन कर जाते हैं । जघन्यकृष्टिसे उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त सर्वकृष्टियोंके सदृश होकर उसीसमय में परिणमन कर जाते हैं तब अन्तर्मुहूर्त कालतक योगकृष्टि वेदककाल होता है. उस अन्तमुहूर्त काल तक अवस्थित योग नहीं होता । प्रथम समय में कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन होता है । प्रथमसमय में जिनकृष्टियों का वेदन किया था उनमें से ऊपर और नीचेकी असंख्यात वैभागप्रमाण कृष्टियां अपने स्वरूपको छोड़कर मध्यमकुष्टिरूपसे द्वितीयसमय में अनुभव की जाती हैं । प्रथमसमयके योगसे द्वितीयसमय में श्रसंख्यातगुणाहीन योग होता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयोंमें भी जानना चाहिए । प्रथमसमय में बहुतकृष्टियोंको तथा द्वितीयसमय में उससे विशेषहीन कृष्टियोंको वेदते हैं। इसप्रकार चरम - समयपर्यन्त विशेषहीन क्रमसे कृष्टियोंका वेदन करते हैं । अथवा द्वितीय उपदेशानुसार प्रथमसमय में स्तोक कृष्टि योंको वेदते हैं, क्योंकि प्रथम समय में ऊपर नोचेकी असंख्यातवेंभागप्रमाण कुष्टियां नष्ट हो जाती है । यहाँ प्रधानरूपसे इसकी विवक्षा है । द्वितीयसमय में प्रथमसमयकी अपेक्षा असख्यातगुरणी कृष्टियोंका अनुभव करते हैं, प्रथम समय में जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं उनसे प्रसंख्यातगुणी कुष्टियां जो कि ऊपर-नोचेकी कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं वे द्वितीय समय में नष्ट होती हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यात गुणितश्रेणिरूपसे कृष्टिगत योगका Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] क्षपणासार [ गाधा २५२ वेदन करते हैं, क्योंकि प्रतिसमय मध्यमकृष्टि प्राकारसे परिणमन करनेवाली कृष्टियोंको असंख्यातगुणितभावसे प्रवृत्ति होती है। शा--प्रथमादि समयों में यथाक्रम जिन जोवप्रदेशों की कृष्टियां केवलीके द्वारा अनुभव की गई है वे जीवप्रदेश द्वितीयादि समयों में निष्कम्परूपसे प्रयोगभावको प्राप्त हो जाते हैं ऐसा क्यों नहीं स्वीकार करते ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक जोव में सयोग और अयोगपर्यायकी अमरूप (युगपत्) प्रवृतिका विरोध । प्रति समय ऊपर व नीचेको असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टि असंख्यानगुरिंगत श्रेणिरूपसे मध्यमकृष्टिआकाररूप परिणमन करके नाशको प्राप्त होती हैं, यह सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त कृष्टिगतयोगका अनुभव करनेवाले सूक्ष्मकाययोगी के बलोके ध्यानका कथन आगे करते हैं। किट्टिगजोगी झाणं झायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरिमे असंखभागे किट्टीणं णासदि सजोगी ।।२५२॥६४३॥ अर्थ-सूक्ष्म कृष्टिवेदक सयोगोजिन तृतीय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्लध्यानको ध्याता है। सयोगीगुणस्थानके चरमसमयमें कृष्टियों के असख्यातबहभागप्रमाण मध्यकी जो कृष्टि अवशेष रहीं उनको नष्ट करता है, क्योंकि इसके अनन्तर अयोगो होना है। विशेषार्थ- सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त सूक्ष्मतर काययोग जनित क्रिया अर्थात् परिस्पन्द पाया जाता है और अप्रतिपाती अर्थात् अध:प्रतिपातसे रहित है इसलिए उस ध्यानका सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती नाम सार्थक है और इसका फल योगनिरोध अर्थात् सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्दनका भी वहां निरन्वयरूपसे निरोध हो जाता है । यद्यपि सकलपदार्थ विषयक प्रत्यक्ष निरन्तर ज्ञानीके एकाग्नचिन्तानिरोध लक्षण रूप ध्यान असम्भव है इसलिए ध्यान की उत्पत्ति नहीं है तथापि योगका निरोध होनेपर कर्मास्त्रकका निरोधरूप ध्यान फल को देखकर उपचारसे के वलीके ध्यान कहा है । अथवा छद्मस्थों के चिताका कारण योग है इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके योगको भी चिता कहते हैं, . १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६-६० । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५३-२५४ ] क्षपणासार [ २१३ उस चिताका एकाग्रभावसे यहां निरोध होता है इसकारण भी ध्यानसंज्ञा सम्भव है । छद्मस्थों के अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त एकवस्तु में चिंताके निरोध अर्थात् अवस्थानको ध्यान कहते हैं तथा केवलीभगवान के योगनिरोधका नाम ध्यान है। इसप्रकार ध्यान करनेवाले परम ऋषिके परमशुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणि निर्जरा करनेवाले तथा स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात करने वाले पूर्वोक्तप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुण क्रमसहित कृष्टियोंको नष्ट करते हुए योगशक्तिको क्रमशः हीयमान करता है एवं सयोगकेवलीगुणस्थानके चरमसमयमें सर्वकृष्टियोंके असंख्यातबहुभागप्रमाण मध्यवर्ती जितनी कृष्टियां अवशेष बची उनको नष्ट करता है, क्योंकि इसके पश्चात् अयोगी होना है। इससम्बन्धमें उपयोगी श्लोक "तृतीयं काययोगस्य सर्वज्ञस्यादु तस्थितेः । योगक्रियानिरोधार्थ शुक्लध्यानं प्रकोर्तितम् ॥" अद्भुत स्थितिवाले काययोगी सर्वज्ञके योगक्रिया निरोधके लिये तृतीयशुक्लध्यान कहा गया है। "अंतोमुत्तमद्ध चिंतावत्थाणमेयवत्थुम्मि । छदुमत्थाणं झाणं जोगणिरोधो जिणाणतु ॥" अर्थात् अन्तमुहर्तकालतक एकवस्तुमें चिताका अवस्थान छद्मस्थों का ध्यान है और योगनिरोध जिनेन्द्र भगवान्का ध्यान है । केवलीभगवान् कर्मको ग्रहण करनेको सामर्थ्यवाले योगको पूर्णरूपसे निरोध करने के लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्तिनामक तृतीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं। प्रतिसमय योगशक्ति ऋमसे घटतो जाती है और सयोगकेवलो गुणस्थानके चरमसमयमें निर्मूलतः नष्ट हो जाती है। जोगिस्स सेसकालं मोत्तरण अजोगिसव्वकालं य । चरिमं खंडं गेरह दि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥२५३॥६४४॥ तत्थ गुणसेढिकरणं दिज्जादिकमो य सम्मखषणं वा । अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥२५४॥६४५।। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] क्षपणासार [ गाथा २५४ से काले जोगिजिणो ताहे भाउगसमा हि कम्माणि । अर्थ-सयोगकेवलीगुणस्थान के शेषकाल तथा अयोगवलीके सर्वकाल इन दोनों कालोंको छोड़कर शेष सर्वस्थितिको गुणश्रेरिणशीर्षसहित उपरितनस्थितिका घात करने के लिए अधातियाकर्मों के चरमस्थितिकागडकमें ग्रहण करता है । वहां गुणश्रेणिका करना और देयद्रव्यादिका क्रम सम्यत्वप्रकृतिकी क्षपणाविधिके समान है। सयोगकेवली गुणस्थानके चरमसमयमें अन्तिमफालिका पतन होता है तथा वहीं पर सयोगीजिनके (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोको स्थिति आयुकर्मके समान हो जाती है। विशेषार्थ-सयोगोजिनका शेषकाल और अयोगीजिनके सवंकाल, इन कालोंको छोड़कर गुणश्रेणीशीर्षसहित ऊपरितन सर्वस्थितियोंको नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मके चरमस्थितिकाण्डको घात करने के लिए ग्रहण करता है। उससमय प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके उदयस्थिति में स्तोक देता है तथा अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र देता है । स्थितिकाण्डकघातकी जघन्य स्थितिके नीचे अनन्तरस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे ऋमसे प्रदेशा देता है अर्थात १४३ गुणस्थानके अन्ततक असंख्यातगुणे क्रमसे देता है, यही वर्तमान गुणश्रेणिका शीर्ष है । इस गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तर स्थिति में भी जो गुणश्रेणिशीर्षकी जघन्यस्थिति है उसमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिसे लेकर पुरातनगुणश्रेणिशीर्षतक विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र देता है। यहांसे गलितावशेष गुणश्रेणि प्रारम्भ हो जाती है । इस अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विघरमफालितक यहक्रम रहता है, किन्तु चरमफालिके द्रव्य में से उदयस्थितिमें स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुरपा प्रदेशाग्र देता है। इसप्रकार असंख्यातगुरणा क्रम प्रयोग केवलीके चरमसमयपर्यन्त जानना चाहिए । चरमफालिके पतनसमयमें योगनिरोधक्रिया तथा सयोगके बली कालकी परिसमाप्ति हो जाती है, इससे आगे (१४वें गुणस्थानमें) गुणरिण, स्थितिघात और अनुभागधात नहीं है, मात्र असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे अधःस्थितिगलन होता है अर्थात् प्रतिसमय अधस्तन एकस्थितिकालका नाश होनेसे स्थितिका क्षय होता है । यहीपर सातावेदनीयकर्म की बन्धव्युच्छित्ति हो जाती एवं (३६) प्रकृतियों की उदीरणान्युछित्ति भी हो जाती है तथा उसीसमयमें नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मको घातकरनेसे शेष बची स्थिति आयुकर्मके समान हो जाती है अर्थात् अयोगकेवलीकालके बराबर इन अघातिया (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोकी स्थिति शेष Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २५५-५६] [ २१५ रह जाती है । इसप्रकार सयोगकेधलीगुणस्थानका पालन करके उसके कालकी परिसमाप्ति हो जाती है तथा उससे अनन्तरसमयमें अयोगीजिन हो जाता है। तुरियं तु समुच्छिण्णं किरियं झायदि अजोगिजिणो ॥२५५॥६४६॥ 'सीलेसिं संपत्तो विरुद्धणिस्सेसासवो जीवो। बंधरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥२५६॥६४७।। अर्थ--अयोगीजिन समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं तथा शैलेश्यभावको प्राप्त करके निःशेष (सम्पूर्ण) आत्रत्रका निरोधकर बन्धरूपी रजसे मुक्त होकर योगरहित फेवली हो जाते हैं। नियोषार्थ-समुचिरन्न प्रति लच्छेद हुआ है मन-वचन-कायरूप क्रियाका जहां तथा निवृत्ति (प्रतिपात) से रहित अथवा मोक्षसे रहित होनेसे जो अनिवृत्त है ऐसा यह ध्यान सार्थक नामवाला है । यहां भी ध्यानका उपचाररूप कथन पूर्वोक्तप्रकार हो जानना, क्योंकि यथार्थतया तो एकाग्रचितानिरोध ही ध्यानका लक्षण है जो कि केवलीभगवानके सम्भव नहीं है । समस्त आस्रवसे रहित केवलीभगवानके अवशेषकर्मनिर्बरामें कारणभूत स्वात्मामें प्रवृत्तिरूप ध्यान ही पाया जाता है । इसप्रकार सयोगगुणस्थानके अनन्तर पश्चात् अन्तमुहर्तकालतक अयोगकेवली होकर शैलेश्यभगवान अलेण्याभावको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् योगनिरोध हो जावेसे योगजनित लेश्याका भो अभाव हो जाता है। शंका-शैलेश्य किसे कहते हैं ? समाधान--शीलका ईश (स्वामी) भीलेश है, उस शोलेशका भाव शैलेश्य कहलाता है । समस्त गुणशीलके अधिपतित्वको प्राप्त कर लिया है यह इसका अर्थ है । शङ्का यदि ऐसा है तो इस विशेषणका यहां आरम्भ नहीं होना चाहिए । भगवत् अर्हत्परमेष्ठीके सयोगकेवली अवस्था में समस्त गुण-शोलका आधिपत्य अविकल १. धवल पु० १ पृष्ठ १६६, पंचसंग्रह १.३०, जीवकाण्ड गाथा ६५, विशेषकथनके लिए अष्टसहस्री पृष्ठ २३६-३७ एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड भी देखना चाहिए। २. कम्मरय इति पाठान्तर। ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २१६] [गाथा २५७ रूपसे प्रास अर्थात् आत्मसात् हो जाता है, अन्यथा सयोग केवलीके परिपूर्ण गुण-शील होनेसे हमारे समान परमेष्टीपनेकी अनुत्पत्ति हो जावेगी। समाधान- यह सत्य है, सयोगकेवली भी आत्मस्वरूपको प्राप्ति हो जानेसे अशेषगुणनिधान, निष्कलंक, परमोपेक्ष यथाख्यात विहार शुद्धिसंयमकी पाराकाष्ठाको प्राप्त हो जाते हैं । इसप्रकार अविकल स्वरूपसे सकल गुण-शील प्रगट हो जाते हैं, किन्तु सयोगअवस्थामें योग व आस्रवकी अपेक्षा निःशेषकर्मोंकी निर्जरा जिसका फल है ऐसा सकलसंबर उत्पन्न नहीं हुआ । प्रयोगकेवली के नि:शेष आस्रवद्वार निरुद्ध हो जानेसे निष्प्रतिपक्षस्वरूपसे आत्मलाभ प्राप्त हो गया है। अतः मात्र अयोगके वलीके हो शैलेश्यभाव अनुज्ञात होता है, इसमें दोपको कुछ भी अवसर नहीं है | वाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं य चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥२५.७॥६४८॥ अर्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानके द्विचरमसमयमें (अनुदयरूप) ७२ प्रकृतियोंको तथा चरमसमयमें (उदयरूप) १३ प्रकृतियों को शुक्लध्यानरूपी अग्निद्वारा कवलित (प्रासीभूत ) करता है अर्थात नष्ट करता है और अनन्तरवर्तीसमयमें सिद्ध होता है । विशेषार्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानका काल पांच ह्रस्वाक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना है। उसकाल में एक-एकसमय में एक-एक निषेकके गलनरूप जो अधःस्थितिगलन है उसके द्वारा क्षीण हुई अनुदयरूप ७२ प्रकृतियां द्विचरमसमयमें तथा चरमसमयमें उदयरूप १३ प्रकृतियां, शुक्लध्यानरूपी ज्वलन अर्थात् अग्नि के द्वारा कलित (नष्ट) होती हैं । इनमें अनुदयरूप वेदनीय, देवगति, ५ शरीर, ५ बंधन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६ संहनन, ३ आंगोपांग, वर्णादि २०, देवगत्यानुपूर्वी, १. जयधवल मूल पृष्ठ २२९२। २. "अयोगकेवलि गुणावस्थानकाल: शैलेश्यद्धा नाम । स पुनः पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्न परिमाणेत्यागमविदां निश्चयः।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२६३) ३. अत्रायोगीकेवलीद्विचरमसमये अनुदयरूपा वेदनीय-देवगति पुरस्सरा: द्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयति । चरमसमये च सोदय वेदनीय-मनुष्यायु-मनुष्यगतिप्रभृति कास्त्रयोदशाप्रकृती: क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । (जयधवल मूल पृष्ठ २२६३) Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] क्षपणासार [ २१७ अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दु:स्वर, अनादेय, अयशस्कीति, निर्माण, नीचगोत्र थे ७२ प्रकृतियां है तथा उदयरूप वेदनीय, मनुष्यावु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यानुपूर्वी,' अस, बादर, पर्याप्त सुभग, आदेय, यशस्कोर्ति, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र ये १३ प्रकृतियां हैं । इसप्रकार इन ७२ व १३ प्रकृतियों का क्रमशः द्विचरमसमय च चरमसमय में क्षय करने के अनंतर समय में जिसप्रकार कालिमारहित शुद्धसोना निष्पन्न होता है उसीप्रकार सर्व कर्ममलरहित कृतकृत्यताको प्राप्त यह आत्मा सिद्ध हो जाता है । तिवसिहरेण मही वित्थारे अजोषयथिरे । धवलच्छायारे मोहरे ईसिम्भारे ॥२५८॥६४६ ॥ अर्थ - तीन लोक के शिखर में ४५ लाखयोजन विस्तृत एवं योजन ऊंची, स्थिर, श्वेतवर्णवाली, छत्राकार ईषत्प्राग्भारनामक मनोहरपृथ्वी है । शिखर में विशेषार्थ - सिद्ध होनेपर ऊर्ध्वगमनस्वभावसे यह जीव तीन लोकके ईषत्प्राभारनामक अष्टम पृथ्वीपर एकसमयमात्र में पहुँचकर तनुवातवलय के अन्त में विराजमान होता है | वह सिद्धभूमि मनुष्यपृथ्वीके समान ४५ लाख योजन विस्तृत गोल आकारवाली माठयोजनऊंची, स्थिर, श्वेतछत्र के प्राकारको मध्य में मोटी व सिरोंपर पतली तथा मनोहर है । यद्यपि ईषत्प्रागभारनामक पृथ्वी घनोदधि-वातवलयपर्यन्त हैं, किन्तु यहां उस पृथ्वी के मध्य पाई जानेवाली सिद्धशिलाकी अपेक्षा यह प्ररूपण किया गया है । धर्मास्तिकाय के अभाव से उससे आगे गमन नहीं होता है अतः वहीं चरमशरीर से किंचित्ऊन आकाररूप जीवद्रव्य अनन्तज्ञानानन्दमय विराजते हैं । १. १४ वे गुणस्थान में 'मनुष्यगत्यानुपूर्वी' अनुदयप्रकृति है । (धवल पु० ६ पृष्ठ ४१७, घबल पु० १० पृष्ठ ३२६, भगवति आराधना गाथा २११७-१८ ) २, तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परम भास्वरा । प्राग्भारानाम वसुधा लोकमूहित व्यवस्थितः लोकतुल्यविषकम्भासितच्छुत्र निभाशुभा । उर्ध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ॥ १८४-८५ (ज. घ. मूल पृष्ठ २२६६ ) ३. ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः पर। || ( जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ श्लोक १८८) Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [ गाथा २५१ पुव्वराहस्स तिजोगो संतो खीयो य पढमसुक्कं तु । विदियं सुक्कं खीयो इगिजोगो कायदे झाणी ॥ २५६ ॥ ६५० ॥ क्षपणासाय अर्थ – पूर्व अर्थात् ग्यारहअङ्ग व १४ पूर्वके ज्ञाताके तथा तीनोंयोगवालोंके उपशान्तमोह और क्षोणमोह गुणस्थान में प्रथम शुक्लध्यान होता है एवं क्षोणमोहगुणस्थानवतीं और एकयोगवाले द्वितीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं । विशेषार्थ -- -- इस गाथा में प्रथम शुरू स्वामी उपशान्वमोहनामक ११ वें गुणस्थानवाले तथा क्षोणमोहनामक १२ वें गुणस्थानवालोंको बताया है । अर्थात् ११ गुणस्थान से पूर्व के गुणस्थानों में शुक्लध्यान नहीं होता, किन्तु धर्मध्यान होता है ऐसा इस गाथा के पूर्वार्धका अभिप्राय जानना चाहिए। धर्मध्यान सकषायी जोवोंके और शुक्लध्यान कषायरहित जीवोंके होता है । कहा भी है "धम्माणमेयवत्थुम्हि थोय कालाबद्वाइ । फुदो ? सकषाय परिणामस्स भहरंत दिप वस्सेव चिरकालमवद्वाणाभावादो । धम्मज्भाणं सक्साए चेव होदि त्ति कथं णच्वदे ? असं जबसम्मादिद्वि-संजदासं जद परत्त संजय- अपमत्त संजय अपुच्च संजदश्रणियट्टिसंजद- सुहुमसांपराइयलयगोबसाएसु धम्मम्भास्स पत्ती होवि त्ति जिणोवएसादो । सुक्ककाणस्स पुण एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्झाणावद्वाणकालादो संखेज्जगुणकालमबट्टाणं होदि, बीयरायपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेज संचाला - भावादी' ।" अर्थात् धर्मध्यान एकवस्तु में स्लोककालतक रहता है, क्योंकि कषायसहित परिणामका गर्भग्रहके भीतर स्थित दीपकके समान चिरकालतक अवस्थान नहीं बन सकता । असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, श्रप्रमत्तसयत, क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणसंयत अनिवृत्तिकरण संयत सूक्ष्म साम्परायसंयतोके धर्मध्यानको प्रवृत्ति होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवका उपदेश है । इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान सकषाय जीवोंके होता है, किन्तु शुक्लध्यानका एकपदार्थ में स्थित रहनेका काल धर्मध्यानके अवस्थानकाल से संख्यातगुणा है, क्योंकि वीतरागपरिणाम मणिको शिखाके समान बहुतकालके द्वारा भी चलायमान नहीं होते । १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७४-७५ । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५८ ] क्षपणासार [ २१६ यद्यपि धर्मध्यान अवस्था में कर्मबन्ध भी होता है, क्योंकि वह सकषायी जीवों के होता है; तथापि वह संवर निर्जरा व कर्मरूप शत्रुको सेनाके राजा मोहनीयकर्मका विनाश करने वाला है। ___ "किं फल मेदं धम्मज्भाणं ? अक्ख वएसु वि उलामर सुहफलं गुण सेडोए कम्मणिज्जराफलं । खवएस पूण असंखेज्जगुरगसेडीए कम्मपदेसणिज्जराणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च'। मोहणीयविणासो पुण धम्मज्माणफलं, सुहमसापराइयचरमसमए तस्स विणासुवलंभादो । अर्थात्-- शङ्का--धर्मध्यानका क्या फल है ? समाधान-अक्षपक जीवोंको देवपर्यायसंबंधी विपुलसुख मिलना और कर्मोकी गुणश्रणिनिजेरा होना धर्मध्यानका फल है । क्षपक जीवोंके तो असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे कर्मनिर्जरा होना और शुभकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग होना धर्मध्यानका फल है। मोहनीयकर्मका विनाश करना भी धर्मध्यानका फल है । धर्मध्यानपूर्वक ही शुक्लध्यान होता है, क्योंकि धर्मध्यानके द्वारा मोहनीयकर्मका उपशम या क्षय हो जाने पर ही वीतरागता होती है। अब शुक्लध्यानका कथन करते हैं--- शङ्का-शुक्लध्यानके शुक्लपना किस कारणसे प्राप्त है ? समाधान-कषायमलका अभाव होनेसे शुक्लध्यानके शुक्लपना प्राप्त है । वह शुक्लध्यान चारप्रकारका है-पृथक्त्ववितर्कबोचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति । इनमें से प्रथमशुक्लध्यानका लक्षण इसप्रकार है--पृथक्त्वका अर्थ भेद है, वितर्क द्वादशांमश्रुतको कहते हैं और वीचारका अर्थ मन-वचन-काययोग तथा अर्थ (पदार्थ) और व्यंजनको संक्रान्ति है । पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क (श्रुत) का वीचार (संक्रांति) जिसध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितकवीचारनामक ध्यान है। १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ११ । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. सारणासार [ गाथा २५६ यतः उपशान्तमोहजीव अनेक द्रव्योंका तीनों योगके आलम्बनसे ध्यान करते हैं इसलिए उसे पृथक्त्व कहा है। यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगतअर्थ में कुशल साधु ही इसध्यानको ध्याते हैं इसलिए इसध्यानको सवितर्क कहा है । अर्थ-व्यंजन और योमोंका संक्रम वीचार है, ऐसे संक्रमसे जो ध्यानयुक्त होता है वह सवीचार कहा जाता है। चौदह, दस और नौ पूर्व का धारी प्रशस्त तीनसंहननवाला और तीन योगों में किसी एकयोगमें विद्यमान ऐसा उपशान्तकषाय वीतरागजीद बहुत नयरूपी वनमें लीन हुए ऐसे एकद्रव्य या पर्यायको श्रुतरूपी रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इसप्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्त कालतक ध्याता है, इसके पश्चात् अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है अथवा उसी अर्थके गुण या पर्यायपर संक्रमित होता है और पूर्वयोगसे कथंचित् योगान्तरपर संक्रमित होता है । इसप्रकार एक अर्थ अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर और पर्याय, पर्यायान्तरको नोचे-ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगोंको एकपंक्ति में स्थापित करके द्विसंयोग और त्रिसंयोगको अपेक्षा यहां पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानके ४२ भङ्ग उत्पन्न करना चाहिए । जीव, पुद्गल, धर्म द. | गु. . प. | म. | ब. | का. | द्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, म. ब. | का । जय अधमंटच्य. | द. अ. | गु. अ. | प. म. काल ये छह द्रव्य है ; इनके सहभावीगुण और ऋम भावो पर्याय हैं। प्रत्येकद्रव्य की अपेक्षा अन्य द्रव्य द्रन्यान्तर है, प्रत्येकगुणकी अपेक्षा अन्य सभी गुण गुणान्तर हैं और प्रत्येकपर्यायको अपेक्षा अन्यपर्याय पर्यायान्तर है । द्रव्य, द्रव्यान्तर, गुण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर छहोंके योगत्रयसंक्रमणसे १८ भंग होते हैं। भावतत्त्वके गुण-गुणान्तर तथा पर्याय-पर्यायान्तर इन चारोंमें योगत्रय संक्रमणको अपेक्षा १२ भंग और द्रव्य तत्त्वके गुण-गुणान्तर व पर्याय पर्यायान्तर इन चारों में योगत्रय संक्रमणको अपेक्षा १२ भंग होते हैं, ये मिलकर कुलभंग १८+१२+१२=४२ होते हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालतक शुक्ललेश्यावाला उपशान्त कषायजीव छह द्रव्य और नौ पदार्थविषयक पृथक्त्ववितकबीचार ध्यानको अन्तमुंहूतकालतक ध्याता है । अर्थसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नहीं १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७८ गाथा ५८-५६-६० ॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६] क्षपणासार [ २२१ होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। इसध्यानके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमर (देव) सुख प्राप्त होता है; क्योंकि इससे मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि प्रथमशुक्लध्यान शुद्धोपयोग है, तथापि मोहनीयकर्मका उपशम होनेसे मुक्ति नहीं होती । क्षपकश्रेणिवालेके धर्मध्यानरूप शुभोपयोग मोक्षका कारण है, क्योंकि धर्मध्यानसे मोहनीयकर्मका क्षय होता है । उपशमश्रेणिवालेके शुक्लध्यानरूप शुद्धोपयोग मुक्तिका कारण नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्मका क्षय नहीं हुआ। एकत्ववितर्कावीचार नामक द्वितीय शुक्लब्यानका कयन इसप्रकार है-एक का भाव एकत्व है, वितर्क द्वादशांगको कहते हैं और अबोचारका अर्थ असंक्रान्ति जिसध्यान में होती है वह एकत्ववितर्क अबोचारध्यान है । इस विषयमें कहा भो है यतः क्षोणकषायजीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है इसलिए उस ध्यानको एकत्व कहा है। यत: वितकका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु इसध्यानको ध्याते हैं इसलिये इसध्यानको सविसकं कहा गया है । अर्थ व्यंजन और योगोंके संक्रमका नाम बोचार है, उस दोचारके अभावसे यह ध्यान अवीचार है । अर्थात् जिसके शुक्ललेण्या है, जो निसर्गसे बलशालो है, स्वभाव से शूर है, वनवृषभसंहननका घारी किसी एक संस्थानवाला है, चौदहपूर्व-दसपूर्व या नोपूर्वघारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, और जिसने समस्त कषायवर्गका क्षयकर ऐसा क्षोणकषायोजीव नौपदार्थों में से किसी एक पदार्थ का द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करते हैं । इसप्रकार किसी एक योग और एक व्यंजन (शब्द) के आलम्बनसे यहां एकद्रव्य, गुण या पर्याय में मेरुपर्वतके समान निश्चल भावसे अवस्थित चित्तवाले असंख्यातगुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धों के गलाने वाले अनन्तगुणी श्रेणि क्रमसे कर्मों के अनुभागको शोषित करनेवाले और कर्मों को स्थितियों को एक तथा एकशब्दके अवलम्ब नसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे घात करनेवाले उनका अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत होता है। सदनन्तर शेष बचे क्षीणकषायके कालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर उपरिम सर्वस्थितियों की उदयादि गुणोणिरूपसे रचना करके पुनः स्थितिकाण्डकघात बिना अधःस्थितिगलवा द्वारा ही असंख्यातगुणश्रेणिक्रमसे कर्मस्कन्धोंका घाव करता हुआ क्षीणकषायके अन्तिम १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ से ७६ । २. धवल पु०१३ पृष्ठ ७६ गाथा ६१-६२-६३ । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] क्षपणासार [गाथा २५६ समय प्राप्त होनेतक जाता है और यहां क्षीणकषाय के चरमसमयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय इन तीनकर्मोंका युगपत् नाश करता है, क्योंकि तीनधातिया कोका निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्कावीचार ध्यानका फल है । शंका-एकत्ववितर्कावीचारध्यान के लिए 'अप्रतिपाति' विशेषण क्यों नहीं दिया। समाधान-नहीं, क्योंकि उपशान्त कषायजीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववीतर्क-अबीचारध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। शंका--यदि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें एकत्ववितकं अवीचार ध्यान होता है तो 'उवसंतो दु पुचत्तं' इत्यादि वचन के साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि उपशान्तकषायगुणस्थानमें केवल पृथक्त्वयोचार ध्यान हो होता है ऐसा कोई नियम नहीं है । शङ्का-पृथक्त्ववीतकवीचार प्रथमशुक्लध्यान व एकत्ववितर्कावीचारनामक शुक्लध्यान इन दोनोंका काल परस्पर समान है या हीनाधिक है ? समाधान---एक त्ववितर्कअबीचार शुक्लध्यानका काल अल्प है और पृथक्त्ववितर्कवीचारनामक शुक्लध्यानका काल अधिक है। शंका-पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथमशुक्लध्यानमें योगका संक्रमण होता है और एकत्ववितर्क-अवीचारमें योगसंक्रान्ति नहीं होती इसमें क्या कारण है ? समाधान--लक्षणभेदसे योगसंक्रमण व असंक्रमका भेद हो जाता है । प्रथमशुक्लध्यान सबी चार होनेसे उसमें अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगको संक्रान्ति होती है । कहा भी है--जिस ध्यान में अर्थ-व्यंजन-योगमें संक्रान्तिरूप वीचार हो वह एकत्ववितर्कअवीचारध्यान है। । १. धवल पु. १३ पृष्ठ ७६-८० । 'तिणं घादिकम्माणं रिशम्मूलविणास फलमेयत्तविदक्कअवीचार झाग" (धवन पु० १३ पृष्ठ ५१) २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८१ ॥ ३. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३४४ व ३६१ । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गापा २५६] [ २२३ शङ्का-गृहस्थके धर्म या शुक्लध्यानमेंसे कौनसा ध्यान होता है ? । समाधान-गृहस्थके धर्म या शुक्लध्यान सम्भव नहीं, क्योंकि वह ग्रहकार्यों में फंसा रहता है । श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है___ "खपुष्पमथवाशृङ्ग खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गहाश्रमे ।। ___ आकाशके पुष्प और गधे के सोंग नहीं होते हैं । कदाचित् किसी देश या काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है, किन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यानकी सिद्धि होनो तो किसी देश व कालमें सम्भव नहीं है' । पुनरपि कहा है "मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते । तप्तलोहगोल कसमानगृहीणां परमात्मध्यानं संगच्छते ।" __ मुनियोंके ही परमात्माका ध्यान अर्थात् धर्मध्यान घटित होता है। तमलोहके गोलेके समान गृहस्थियोंके परमात्माका ध्यान अर्थात् धर्मध्याव वहीं होता । इसोप्रकार भावसंग्रहमें भी कहा है "अट्टरउद्द झाणं भई अयित्ति तम्हि गुरगठाणे । बहु आरंभपरिग्रह जुत्तस्स य एस्थि तं धम्म' ॥" गृहस्थके इस (५३) गुणस्थानमें आर्त-रौद्र और भद्र ये तीनप्रकारके ध्यान होते हैं, इस गुणस्थानवर्ती जोवके बहुत आरम्भ व परिग्रह होता है इसलिए इस गुणस्थानमें धर्मध्यान नहीं होता। और भी कहा है-- "घरवावारा केई करणीया अस्थि ते ण ते सव्वे । झाणट्ठियस्स पुरवा चिट्ठति णिमोलियच्छिस्स ।।" गृहस्थों को घरके कितने ही कार्य करने पड़ते हैं और जब वह गृहस्थ अपने वेत्रोंको बन्दकर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घरके करने योग्य सब व्यापार आ जा हैं। १. ज्ञानार्णव भ० ४ श्लोक १७ । २. मोक्षप्राभृत गाथा २ की टीका। है. भावसंग्रह गाथा ३५७ । ४. भावसंग्रह गाया ३८५ । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २२४ ] [गाया २५६ तत्त्वानुशासन में धर्मध्यानका जो लक्षण कहा गया है उससे भी सिद्ध है कि गृहस्थके धर्मध्यान नहीं होता, धयोंकि गृहस्थ के चारित्र नहीं होता । तद्यथा-- "सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धयं तदुध्यानमभ्यधुः' ।।" धर्मके ईश्वर गणधरादि देवोंने सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है जो उस रत्नत्रयरूप धर्म से उत्पन्न हो उसे ही आचार्यगण धर्मध्यान कहते हैं । गृहस्थके रत्व त्रयरूप धर्म नहीं होता अतः उसके धर्मध्यान भी नहीं होता। शङ्खा-आचार्योंने चतुर्थगुणस्थानसे धर्मध्यान कहा है तब फिर उपर्युक्त कथनका आचार्यवाक्योंसे विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान-चतुर्थादि गुणस्थानों में धर्मध्यानका निरुपण आगममें पाया जाता है, किन्तु वहां औपचारिक धर्मध्यान होता है, क्योंकि वहां प्रमाद विद्यमान है । तत्वानुशासन व भावसंग्रहमें कहा भी है-- "मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिहद्विधा ।। अप्रमत्तषु तन्मुख्यमितरेप्यौपचारिक' ।।" "मुक्खं धम्मज्माणं उत्त तु पभायविरहिए ठाणे । देसविरए पमत उक्यारेणेव णायव्वं ॥" मुख्य और उपचारके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है, उसमें से प्रमत्तगुणस्थावमें मुख्य और चतुर्थ-पंचम व छठे गुणस्थानमें औपचारिकधर्मध्यान होता है। गृहस्थों के दाम पूजादिको उपचारसे धर्मध्यान कहा गया है, क्योंकि गृहस्थधर्म में दानपूजादिको मुख्यता है । कहा भी है-- "तेषां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्वप्रतिपालनशील क्तरक्षणादिकं गृहस्यधर्मएवोपदिष्टं भवतीति भावार्थः । ये गृहस्थापि सन्तो मनागात्म भावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्यः ॥" १. तत्त्वानुशासन श्लोक ५१ । २. तत्वानुशासन एलोक ४७ ॥ ३. भावसंग्रह माथा ३७१। ४. मोक्षपाहुड़ गाथा २ को टीका । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५१ ] [ २२५ गृहस्थोंके दान-पूजा, पूर्व उपवास, सम्यक्त्व प्रतिपालन, शीलव्रतरक्षणादि धर्म कहा है, जो गृहस्थ होते हुए भी किचित् भी आत्मभावनाको प्राप्त करके अपने आपको ध्यानी कहते हैं वे जिनधर्मके विराधक मिथ्यादृष्टि हैं । और भी कहा है- क्षपणासार " जिण साहुगुणु कित्ताण-पसंसणा विणय दाण संपा । - सील-संजमरदा धम्मभाणे भुणेवा' || 1 जिनेन्द्र भगवान् और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करता, विनय करता, दानसम्पन्नता, श्रुत-शील व संयममें रत होना इत्यादि कार्य धर्मध्यान में होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । अतः गृहस्थके औपचारिक धर्मध्यान कहा गया है । यद्यपि गाथा २५ में प्रथम व द्वितीयशुक्लध्यानका ही कथन किया गया है, किन्तु यह कथन तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानको सूचनार्थ है । अतः तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन करते हैं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तृतीयशुक्लध्यान है । क्रियाका अर्थ योग है, जो ध्यान पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता । जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिया कहा जाता है । सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिष्यान कहलाता है। यहां केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है इसलिए यह ध्यान अवितर्क है । अर्थान्तर व्यंजन - योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है । शंका - तृतीयशुवल ध्यानमें अर्थ- व्यञ्जन व योगकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ? समाधान -- इनके अवलम्बन बिना ही युगपत् त्रिकालगोचर अशेषपदार्थों का ज्ञान होता है इसलिए इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिके अभावका ज्ञान होता है । "अविदक्कमबीचारं सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुमम्हि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं || १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७६ गाथा ५५ । २. घवल पु० १३ पृष्ठ ८३ । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] क्षपणासार [पापा २५६ सुहमम्हि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिभिदु जो सुहुमं तं काय जोगं पि' ॥" तृतीय शुक्लध्यान अवितक-अवीचार और सूक्ष्मक्रियासे सम्बन्ध रखनेवाला होता है, क्योंकि काययोग के सूक्ष्म होनेपर सर्वभावगा यह ध्यान कहा गया है । जो केवलोजिन सूक्ष्मकाययोगमें विद्यमान होते हैं, वे तृतीयशुक्लध्यानका ध्यान करते हैं और उस सूक्ष्म काययोगका भो निरोध करने के लिए उसका ध्यान करते हैं। शंका--योगनिरोध किसे कहते हैं ? समान -गोगो ताशको योगनिरोध कहते हैं । अन्तर्मुहूर्त कालतक कृष्टिगत योगदाले अर्थात् सूक्ष्मकाययोगवाले होते हैं तथा उसीकालमें सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको ध्याते हैं । अन्तिमसमयमें कृष्टियोंके असंख्यात. बहुभागका नाश होता है। शंका-केवलीजिनके सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिध्यान नहीं बनता, क्योंकि केवलो. जिन अशेषद्रव्य और उनकी पर्यायोंको विषय करते हैं, अपने सम्पूर्ण कालमें एकरूप रहते हैं और इन्द्रियज्ञानसे रहित हैं अतएव उनका एकवस्तु में मनका निरोध करना उपलब्ध नहीं है तया मनका निरोध किये बिना ध्यान होना सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में "एकवस्तुमै चिन्ताका निरोध करना ध्यान है," यदि ऐसा ग्रहण किया जाता तो उक्त दोष आता, किन्तु यहां ऐसा ग्रहण नहीं है । यहां तो उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है और उसका एकाग्ररूपसे निरोध अर्थात् विनाश जिसध्यान में किया जाता है यह ध्यान है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । अतः यहां पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है । "तोयमिव रणालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहादिकमेण तहा जोगजलं ज्झारण जलणेण ॥" १. भगवती आराधना गाथा १८८६-८७ । २. "को जोगणिरोहो ? जोगविरणासो" (ध० पु. १३ पृष्ठ ८४) ३. धवल पु० १३ पृष्ठ ८६ गाथा ७४ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपणासार गाथा २५६ [ २२७ ___ जिसप्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहपानमें स्थित जलका क्रमशः अभाव होता है उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है। उक्त च "जहसव्वसरोरगदं मंतेण विसं णिरु भए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणज्झरमंत जोएण ॥ तह बादरतणुविसयं जोगविसं झाणमंतबलजुत्तो। अणुभावम्हि रिशरु भदि अवणेदि तदो बि जिणवेज्जो' ।" जिसप्रकार मंत्र द्वारा सर्वशरीरमें व्याप्त विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मंत्रके बलसे उसे पुनः निकालते हैं उसीप्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त सयोगकेवलीजिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योगविषको पहले रोकता है इसके बाद उसे निकाल देता है। चतुर्थशुक्लध्यानका कथन इसप्रकार है जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक्प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है। समुच्छिन्नक्रिय होकर जो अप्रतिपाति है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपातिध्यान है । यह श्रुतज्ञानसे रहित होने के कारण अवितर्क है, जोवप्रदेशोंके परिस्पन्दका अभाव होनेसे अवीचार है या अर्थ-व्यञ्जन-योगको संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। "अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । ज्माणं णिरुद्ध जोगं अपच्छिम उत्तमं सुक्क' ।।" अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितरहित, वीचाररहित है. अनिवृत्ति है, क्रियारहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है । योगका निरोध होने पर शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्मुहूर्त होतो है, तदनन्तरसमयमें शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको पाता है। १. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७५-७६ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ७ गाथा ७७ । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] क्षपणासार [ गाथा २५६ शङ्का यहां ध्यानसंज्ञा किस कारणसे दी गई है । समाधान-एकाग्ररूपसे जीवके चिन्ताका निरोष अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना ही ध्यान है। इसदृष्टि से यहां ध्यानसंज्ञा दी गई है। शङ्का--इस ध्यानका क्या फल है ? समाधान-अघातिचतुष्कका विनाश करना इस ध्यानका फल है तथा योगका निरोध करना तृतीयशुक्लध्यानका फल है । __ शैलेशी अवस्थाका काल क्षीण होनेपर सर्वकर्मोसे मुक्त हुआ यह जीव एकसमयमें सिद्धिको प्राप्त होता है। कहा भी है-- "जोगविणासं किच्चा कम्म चउक्कस्स खवणकरण। जं झायदि अजोगिजिगरे णिकिरियं तं चउत्थं य* ॥" योगका अभाव करके अयोगकेवलोभगवान् चार अघातिया कर्मों को नष्ट करनेके लिए जो ध्यान करते हैं वह चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान है, इसका दूसरा नाम समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति भी है । इसके द्वारा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार अघातियाकर्मों का क्षय होता है। १४वें गुणस्थानवाले अयोगिजिन इसध्यानके स्वामी हैं। शंका-ध्यान मनसहित जीवोंके होता है, केवलीके मन नहीं है अतः वहां ध्यान नहीं है ? समाधान-ध्यानके फलस्वरूप फर्म निर्जराको देखकर केवलीके उपचारसे ध्यान कहा गया है । अथवा यद्यपि यहां मनका व्यापार नहीं है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्यान कहा गया है । पुनरपि कहा है माणं सजोइकेवलि जह सह अजोद पत्थि परमत्थे । उवयारेण पउत्त भूयस्थ णय. विवक्खा य ।। १. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७-८८ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४८७ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया २६० ] क्षपणासार [ २२६ झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होंति मरणसहिए। तं णस्थि केवलि दुगे तम्हा भाणं ण संभवदि' ॥" ध्यान, ध्याता, ध्येय और विकल्प ये सब मनसहित जीवोंके होते हैं, परन्तु वह मन सयोग व प्रयोगकेवलीके नहीं है अतः इनके ध्यान सम्भव नहीं है । जिस प्रकार सयोगके वलीके ध्यान नहीं है उसीप्रकार अयोगकेवलोके ध्यान नहीं है, इनके भूतपूर्वनयको अपेक्षा औपचारिकक्ष्यात माना जाता है । तथापि उक्त-- "यद्यत्र मानसो व्यापारी नाति राधा चुपचारायया ध्यानमित्युपचर्यते । पूर्ववृत्तिमपेक्ष्य धृतघटवत् । यथा घटः पूर्वं घृतेन भृतः पश्चाद रिक्तः कृतः घृतघदं मानीयतामित्युच्यते तथा पूर्व मानसव्यापारत्वात् ॥" यद्यपि यहां मनका व्यापार नहीं है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्यान कहा गया है । जैसे घटमें पहले घो भरा हुआ था पश्चाद वह रिक्त हो गया फिर भो वह घीका घट कहलाता है । पहले मनका व्यापार था, केवली होनेपर मनका व्यापार नहीं रहा तथापि भूतपूर्व नयसे ध्यानका उपचार किया जाता है । और भी कहा है "निरवशेष निरस्तज्ञानाबरणे युगपत् सकलपदार्थावभासि केवलज्ञानातिशये चिन्ता निरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिर्हरणफलापेक्षया घ्यानोपचारवत्' ।" समस्तज्ञानावरणके नाश हो जानेपर युगपत् समस्तपदार्थों के रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानका अतिशय होनेपर चिन्तानिरोधका अभाव होने पर भी फर्मोके भाशरूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है । सो मे तिहुणमहिदो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो । दिसदु वरणाणदसणचरित्तसुद्धि समाहिं च॥२६०॥६५१।। अर्थ-~-तीनलोकसे पूजित, बुद्ध, निरंजन, नित्य ऐसे सिद्धभगवान् मुझे उस्कृष्ट ज्ञान-दर्शन व चारित्रको शुद्धि तथा समाधि देवें । १. भावसंग्रह गा० ६८२-८३ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८७ को टोका पृष्ठ ३८५ । ३. सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र ११ । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] पाणासार [ गाथा २६० विशेषार्थ-पंच लघुअक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने कालप्रमाणवाले अयोगके वली नामक १४वें गुणस्थानको अध:स्थितिगलनके द्वारा व्यतीतकरके समस्तकर्मोके पूर्णरूपसे क्षय होजाने के कारण निरंजन हैं । अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन पराकाष्ठाको प्राप्त हो जाने से बुद्ध हैं, अविकल आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो जाने से नित्य, अविनाशी अर्थात् आत्मस्वरूपसे चलायमान होनेवाले नहीं हैं । समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाने से सिद्ध हैं, तीनलोकके शिखरपर विराजमान हो जानेसे तीनलोकसे पूजित हैं अथवा उनका ध्यान करने से भव्य जीवोंको मोक्षकी सिद्धि हो जाती है इसलिए भी वे सिद्धभगवान पूजित हैं। चरमशरीरसे किंचित् न्यून आकार वाले अमूर्तिक (कम नोकर्मसे रहित होने के कारण) सिद्ध भगवान मुझे क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा समाधि (वीतरागता) देखें । से दीपकका बुझना प्रदीपका निर्धारण है उसीप्रकार आत्माको स्कन्धसन्तान का उच्छेद होनेसे अभावमात्र निर्वाणको कल्पना बौद्ध करता है। अभावलक्षणवाले निर्वाणका विरोध करने के लिए सर्वपुरुषार्थकी सिद्धिसे सिद्ध तथा ज्ञान व दर्शनको पराकाष्ठाको प्राप्त हो गये ऐसा कहा गया है । ज्ञानीजन स्वनाशके लिए पुरुषार्थ नहीं करते, किन्तु अपूर्वलाभके लिए पुरुषार्थ करते हैं । नैयायिक कहता है कि बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार, इन नव आत्मगुणोंके नाशसे निर्माणको कल्पना करते हैं, किन्तु यह कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि गुणों के अभावसे मुणो पात्माका भी अभाव हो जावेगा । अतः उपर्युक्त पुरुषार्थसिद्धि व परमकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान-दर्शन विशेषण दिए गए हैं। इसीप्रकार गधे के सींगके समान मुक्तावस्था में आत्माका अभाव माननेवालोंका तथा वार्य-कारणसम्बन्धसे रहित बहुत सोते हुए पुरुष के समान प्रात्माके अव्यक्त चैतन्य मानने वालोंका विरोध हो जाता है। अत: हमारे सिद्धान्तमें स्वात्मोपलब्धि ही निर्धारण (सिद्धि) है, यह सिद्ध हो जाता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६३-६४| Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अह खवरणाहियार --चूलिया दर्शनमोह और चारित्रमोह कर्मप्रकृतियोंकी क्षपणाविधि पूर्व में कहो मई उसका उपसंहार करते हुए आगे ११ गाथाओंमें चूलिकारूप व्याख्यान किया जाता है-- प्रण मिच्छ मिस्स सम्म अटुणव॒सिस्थिवेदछक्कं च । पुवेद च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥१॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाठकषाय, तपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह तोकषाय, पुरुषवेद और तत्पश्चात् क्रोधादि चार सज्वलवकषायका क्षय करता है । विशेषार्थ-'अण' अर्थात् चार अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन क्रियाके द्वारा सर्वप्रथम नाश करता है । "मिच्छ' दर्शनमोहको क्षपणाके के लिए आरुढ़ हुआ पूर्व में मिथ्यात्वका क्षय करता है । "मिस्स उसके पश्चात् सम्यग्मिध्यात्वका क्षय करता है। 'सम्म' उसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है। 'प्र' अपने योग्यगुणस्थानमें सप्त प्रकृतियोंका क्षय करके पश्चात् क्षपकश्रेणी पर धारूढ़ होता हुआ अनिवृत्तिकरणगुणस्थान में अन्तरकरणसे पूर्व पाठ कषायोंका क्षय १. जयघयल मूल पृष्ठ २२७२ | "चूलिका विशेष व्याख्यानम् अथवा उक्तानुक्तम्याख्यानम्, उक्ता नुक्तसंकीर्णव्याख्यानम् ।" (द. सं० क्षेपक गाथा १-२ की दीका अन्त में) 'सुत्त सूइदत्य पयासणं चूलिया णाप।" (धवल पु० १० पृष्ठ ३६५) "कालविहाणेण सूचिदस्थाणं विवरण चलिया । जाए अत्थ परूबरणाए कदाए पुग्धपरूविदत्यम्मि सिस्साणं णिच्छओ उपज्जदि सा चलिया ति भरिगदं होदि ।" (श्वल पु० ११ पृष्ठ १४०)। "एक्कारस अणिओगद्दारेसु सूद्धदस्थस्स विसेसियूण परूवणा चलिया।" (घ० पु०७ पृष्ठ ५७५) । विशेष व्याख्यान अथवा उक्तामुक्त व्याख्यान चूलिका है । सूत्र सूचित अर्थके प्रकाशित करनेका नाम चलिका है। सूचित अर्थाका विशेष वर्णन करना चूलिका है। जिस अर्थ प्ररूपणाके किये जानेपर पूर्व में परिणत पदार्थके विषय में शिष्यको निश्चय उत्पन्न हो वह चूलिका है। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] क्षपणासारचूलिका गाथा २-३ करता है । इसीप्रकार (अन्तरकरण के पश्चात् ) गाथानुसार क्रमसे नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा), पुरुषवेदका क्षय करता है । अवेदी होकर संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्यलनमायाका क्रमसे क्षय करके सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संज्वलन लोभका क्षय करता है। - इस प्रकार प्रथमगाथामें चार अनन्तानुबन्धीकषाय और दर्शनमोहकी तीनप्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्ति बताकर चारित्र मोहकी नव नोकषाय व चारसंज्वलन कषायोंके क्षयका क्रम बतलाकर अब दूसरी गाथामें क्षय होने वाली सोलह प्रकृतियों के नाम कहते हैं 'अह थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिहा य पयलपयला य । अह णिरय तिरियणामा वीणा संयोहणादीसु ॥२॥ अर्थ-स्त्यानद्ध, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति-तिर्यञ्चगति और सहचरी नामकर्मकी प्रकृतियोंका अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करके नाश करता है। विशेषार्थ-- अन्तरकरण करनेसे पूर्व क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुआ मनुष्य प्रथम आठ मध्यवर्ती कषाय (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) का क्षय करता है उसके पश्चात् दर्शनावरणकमकी तीन प्रकृतियां (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला) तथा नामकर्मको १३ प्रकृतियां-मरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, पातप, उद्योत, स्थायर, सूक्ष्म व साधारण इसप्रकार (३+ १३) इन सोलह प्रकृतियोंमें संक्रमण करके इनका क्षय करता है। अन्तरकरण करने के पश्चात् मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रमण होता है उसीको तीन गाथाओं में कहते हैं-- सबस्स मोहणीयस्स प्राणुपुठवी य संकमो होइ । लोहकसाए णियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥३॥ २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२-७३ । १. अयघवल मूल पृष्ठ २२७३, क. पा० सुत्त गा० १२८ पृष्ठ ७५५ । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४-५ ] क्षपणासारचूलिका [ २३३ संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णव॒सयं चेत्र । सत्तेव गोकसाए गियमा कोह म्हि संछुहदि ॥४॥ कोहस्स छुहइ माणे माणं मायाए शियमसा छुहई। मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो रणस्थि ॥५॥' अर्थ- अन्तरकरण करने के पश्चात् द्वितीयसमयसे सर्व मोहनीयकर्म का आनु. पूर्वीसंक्रमण होता है । लोभकषायका नियमसे असक्रामक होता है ऐसा जानना चाहिए। स्त्रीवेद और नसकवेदके द्रव्यको पुरुष वेदमें संक्रमित करता है। सात (पुरुषवेद व छह नोकवायनोकषायके द्रव्यको नियमसे क्रोध में संक्रमित करता है। क्रोधके द्रव्यको मान में, मानके द्रव्यको मायामें और मायाके द्रव्यको लोभमें संक्रमित करता है । प्रतिलोम संक्रमण नहीं होता। विशेषार्थ- चारित्रमोहनीयकर्म नव नोकषाय और तीन संज्वलनकषायका स्वमुखक्षय नहीं पर मुखक्षय होता है । अर्थात् इनके द्रव्यका परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर इनका क्षय होता है । वह पर प्रकृति रूप संक्रमण आनुपूर्वी रूपसे होता है प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) विधिसे नहीं होता। सबसे अन्त में लोभकषायके पश्चात् कोई कषाय नहीं है जिसमें लोभकषायका द्रव्य संक्रमित हो सके । अतः लोभकषायका संक्रमण नहीं होता, इसका स्वमुखसे क्षय होता है । सर्वप्रथम नपुसकवेदका क्षय होता है। इसके पश्चात् स्त्रीवेदका क्षय होता है । स्त्रोबेदका बन्ध नहीं होता, पुरुषवेदका बन्च होता है । अत: नपुसकवेद व स्त्री. वेदके द्रव्यका सक्रमण पुरुषवेदमें होता है । पुरुषवेद और छह नोकषाय इन सातके पुरातनद्रव्यका क्रोधकषायमें संक्रमण होकर क्षय होता है । क्रोध-मान-माया-लोभ ऐसा क्रम है । संज्वलन क्रोधके द्रव्य का संज्वलनमान कषाय में संक्रमण होकर संज्वलन क्रोधका क्षय होता है । संज्वलनमानके द्रव्यका संज्वलनमायामें संक्रमण होकर क्षय होता है और संज्वलन माया के द्रव्यका संज्वलनलोभमें संक्रमण होकर क्षय होता है। अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) संक्रमण नहीं होता अर्थात् लोभका १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७३ गा० १३६.१३८-१३६ । क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ गा० १३६. १३८.१३६ । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] क्षपणासारचूलिका [ गाथा ६.७ संक्रमण माया, मान, कोधमें अथवा मायाका संक्रमण क्रोध-मान में या मामका संक्रमण क्रोधमें नहीं होता है । बन्धप्रकृतिमें ही संक्रमण होता है 'जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होई संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो ण त्थि ॥६॥ अर्थ-जो जीव जिसप्रकृतिका संक्रमण करता है वह नियमसे बध्यमान प्रकृति में संक्रमण करता है । जिस स्थितिको बांधता है उसके सदृशस्थिति में अथवा उससे होन स्थिति में संक्रमण करता है, किन्तु अधिक स्थिति में संक्रमण नहीं करता। विशेषार्थ- इस गाथा में बध्यमान प्रकृतियों में संक्रमण किये जाने वाली बध्यसान या अबध्यमान प्रकृतियोंका किसप्रकार संक्रमण होता है, यह बतलाया गया है । क्षपकश्रेणी में जो जीव जिस विवक्षित प्रकृति के कर्मप्रदेशोंको उत्कीर्णकर जिस प्रकृति में संक्रमण करता है नियमसे बन्धसदृशमें संक्रान्त करता है । यहां पर 'बन्ध' से साम्प्रतिकबन्धकी अनलियन का ग्रहण होता है, को स्थितिमा प्रति उसकी ही प्रधानता है । अर्थात् इससमय बंधनेवाली प्रकृतिको जो स्थिति है उसमें उसके समान प्रमाणवाली विवक्षित संक्रम्यमान प्रकृति के प्रदेशानको उत्कीर्णकर संक्रान्त करता है । 'बन्धेण होगदरगे' इसका अभिप्राय यह है कि बन्धनेवाली अग्रस्थिति से एकसमयादि कम अघ. स्तन बन्धस्थितियों में भी जो आबाधाकालसे बाहर स्थित है, अधस्तन प्रदेशानको स्व. स्थान या परस्थानमें उत्कोर्णकर संक्रमण करता है, किन्तु वर्तमान में बन्धनेवाली स्थितिसे उपरिम सत्त्वस्थितियों में उत्कर्षण संक्रमण नहीं होता है। यह 'अहिए बा संकमो णत्यि' का अर्थ है । आबाधाकालका परप्रकृतिरूप संक्रमण समस्थिति में प्रवृत्त होता है। क्षपकश्रेणिमें बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोंको यथासम्भव संक्रमण करता हुआ बध्यमान प्रकृतियोंके प्रत्यग्नबन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरितन स्थितियों में से समस्थितिमें संक्रमण करता है। *बंधेरण होइ उदओ अहिय उदएण संकमो महियो । गुणसेढि अणतगुणा बोद्धव्यो होइ अणुभागो ॥७॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७३, क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६५ गा० १४० । २. जयधवल मूल पृष्ठ १९८६-६०। ३. जयधबल मूल पृष्ठ २२७४; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ गा० १४४ । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 5-8 ] क्षपणासारचूलिका 'बंधे होह उदओ अहिओ उदय संकमो अहिओ । गुणसेढि असंखेज्जा य पदेसग्गेण बोद्धा ॥८॥ उदय अांतगुणो संपहि बंधेण होइ अणुभागो । से काले उदयादो संपद्दि धंधो अांतगुणो ॥६॥ [ २३५ अर्थ-य होता है और उदयसे अधिक संक्रमण होता है । इसप्रकार अनुभाग के विषय में अनन्तगुणित गुणश्रेणि जानना चाहिए । बंबसे अधिक उदय होता है और उदयसे अधिक संक्रमण होता है । इसप्रकार प्रदेशके विषय में संतगुणश्रेणो जानना चाहिए। अनुभागविषयक साम्प्रतिबन्ध अनन्तगुणा होता है । विशेषार्थ- - गाथा नं ७ में अनुभागकी अपेक्षा, बन्ध, उदय व संक्रमणका अल्पबहुत्व कहा गया है। अनुभागको अपेक्षा बन्ध अल्प है, क्योंकि यहांवर तत्काल होनेवाले बन्धकी विवक्षा है । बन्धसे उदय अनन्तगुणा है, क्योंकि वह चिरन्तन सत्त्वके अनुभागरूप है । उदयसे संक्रमण अनन्तगुणा है । इसका कारण यह है कि उदयमें तो अनुभागसत्त्व अनन्तगुणाहीन होकर श्राता है, किन्तु परप्रकृतिरूप संक्रमण तो चिरन्तनसत्त्वका तदवस्थारूपसे होता है । यह अल्पबहुत्व घातिया कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है । गाथा नं. ८ मैं प्रदेश विषयक अल्पबहुत्व बतलाया गया है । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके उक्त स्थलपर पुरुषवेद आदि जिस किसी भी कर्मका नव कबन्ध समयप्रबद्ध प्रमाण होता है यह प्रदेशोंको अपेक्षा उदयादिसे अल्प है । बन्बसे प्रदेशोदय असंख्यातगुणा है, क्योंकि प्रायुकमंके अतिरिक्त अन्यकमका उदय गुणश्रेणी गोपुच्छाके माहात्म्यसे समय प्रबद्धसे असंख्यातगुणा हो जाता है । उदयरूप प्रदेशोंसे संक्रमणरूप प्रदेश भी संख्यातगुणे होते हैं | इसका कारण यह है कि जिनकमका गुणसंक्रमण होता है उन कर्मो का गुणसंक्रमण द्रव्य और जिनका अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है उनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होने से उदयकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हो जाता है । १. जयचवल मूल पृष्ठ २२७४ व घ० ० ६ पृष्ठ ३६२ गा. २७. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७७० . १४५ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] क्षपणासारचूलिका [ गाथा १०-११ गाथा हमें जिस अनुभाग- अल्पबहुत्वका कथन पूर्वानुपूर्वी क्रमसे किया है चूर्णि - सूत्रकारने उसको पश्चातानुपूर्वी क्रमसे कहा है । चूर्णिसूत्रों में कथन इसप्रकार हैविवक्षितसमय के अनन्तरकाल में होनेवाला अनुभागबन्ध अल्प है । इस अनुभागबन्धसे उसीसमय होनेवाला उदय अनन्तगुणा है, इसका कारण गाथा नं० ७ में कहा गया है । इसके अनन्तर समयवर्ती अनुभागोदय से विवक्षित समय में अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणो बढ़नेवाली विशुद्धि के माहात्म्यसे विवक्षित समयकी विशुद्धि से अनन्तर समयकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इसलिए पूर्व-पूर्व समयके उदयसे उत्तरोत्तर समयका बन्ध भी अनन्तगुणा हीन होता है अथवा उत्तरोतर समयके उदय से पूर्व- पूर्व समयका बन्ध अनन्तगुणा होता है यह सब विशुद्धिका माहात्म्य है' | मोहनीय कर्मके अतिरिक्त अतिवृत्तिकरग्गुणस्थानके अन्त समय में शेष कर्मो का स्थितिबन्ध--- चरि बादरागे णामा गोदाणि वेदणीयं च । वसंत बंधदि दिवसरतोय जं सेसे ॥१०॥ अर्थ — बादरसाम्परायके चरमसमय में नाम गोत्र वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तः वर्षप्रमाण और शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्त:दिवस प्रमाण होता है । विशेषार्थ - चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायके नाम, गोत्र व वेदनीयकर्मोंका स्थितिबन्ध कुछकम एक वर्ष प्रमाण होता है और तीन घातिया कर्मो का पृथक्त्वमुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध अन्त:वर्ष प्रमाण और तीन घातियाकमका पृथक्त्वमुहूर्तं प्रमाण स्थितिबन्ध होता है, किन्तु मोहनीयकर्मका अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है । १. २. t. ४. 'जं चात्रि संकुहंतो खरेदि किहिं प्रबंध तिस्से । सुमम्हि संपराए प्रबंधगो बंध गियराणं ॥ ११ ॥ । क० पा० सुत पृष्ट ७७० । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७४ ० २०६ व पृष्ठ ९९६ गा० १०, ज. घ. मूल पृष्ठ २२२१ व २२७४ । जयधवल मूल पृष्ठ २२२२ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८८१ ० २१७६ पृ ६६६ गा० ११; ज. ध. मूल पृ० २२३५ व २२७४ ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२॥ क्षपणासारचूलिका अर्थ-जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है. उसका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें भी अबन्धक होता है, किन्तु इतरकृष्टियोंके वेदन व क्षपणाकालमें उनका बन्धक होता है। विशेषार्थ--दो समयकम दो प्रावलिपूर्व नवक बन्धकृष्टियों का संक्रमण करके क्षय करनेवाला उस अवस्थामें उन कृष्टियोंका अबन्धक होता है । सूक्षमसाम्पराय नामक १०वें गुणस्थानमें सूक्ष्मकृष्टियोंका वेदन करते हुए भी उनका अबन्धक होता है. क्योंकि वहांपर सक्तिका अभाव है: शादरसाम्पराग गुणस्थानमें क्षय होनेवाली कृष्टियोंके वेदककालमें कृष्टियोंका बाधक होता है। अर्थात् जिस जिस कृष्टिको क्षय करता नियमसे उसका बन्धक होता है, किन्तु दो समयकम दो आवलिबद्धः कृष्टियोफे क्षपणाकालमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके क्षपणाकालमें उनका बन्ध नहीं करता । इन ग्यारह गाथाओं द्वारा सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त चारित्रमोहकी क्षपणाविधि चलि कारूपसे कही गई । कुछ गाथा पूर्व में कही जा चुकी हैं, किन्तु पुन रुक्त दोष नहीं आता । 'जाव ण छदुमस्थादो तिराहं घादीण वेदगो होइ । अहऽयंतरेण खइया सव्वण्हु सव्वदरिसी य ॥१२।। अर्थ--जबतक क्षीणकषायवीतरागसंयतछमस्थ अवस्थासे नहीं निकलता तबतक बह तीन घातियाकर्मों का वेदक होता है । इसके पश्चात् अनन्सर समयमें तीनघानियाकर्मोका क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है । विशेषार्थ-जबतक छास्थ पर्यायको निष्क्रान्त नहीं करता तबतक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका नियमसे वेदन करता है, अन्यथा छद्मस्थभाव उत्पन्न नहीं होंगे । अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा समस्त घातिया कर्मरूपी गहन वनको दग्ध करके छमस्थ पर्याय से निष्क्रान्त होकर क्षायिकलब्धिको प्राप्त कर [क्षायिकज्ञान दर्शन-सम्यक्त्व चारित्र दान लाभ-भोग उपभोग और वीर्य इन क्षायिक भावोंको प्राप्तकर] सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी होते हुए विहार करते हैं । इन १२ गायाओं के समाप्त होनेपर चारित्रमोहक्षपणा चूलिका सम्पूर्ण होती है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२३५ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७४ । ३. जय धवल मूल पृष्ठ २२७३ । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणसारचूलिका [ गाथा २६१-२६२ नोट -- उपर्युक्त १२ गाथाओं का ग्रन्थान्तर ( जयघवल मूल) से क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन हिन्दी टीकाकारने उद्धृत किया है। इसके अनन्तर आचार्य चेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा क्षपणासारका उपसंहार करते हुए अन्तिम मंगल दो गाथाओं द्वारा किया गया है । २३८ ] उसीको कहते हैं- वीरिंदणं दिवच्छेणप्प सुदेणभयणं दिसिस्सेण । दंसणचरितली सुसूपिदा रोमि चंदे || २६१ ॥ ६५२ ।। अर्थ - इसप्रकार धीरनन्दि और इन्द्रनन्दिनाचार्य के वत्स तथा अभयनन्दिआचार्य शिष्य मुझ अल्पज्ञ नेमिचन्द्रले दर्शन व चारित्रलब्धिको भले प्रकारसे कहा है । अब प्राचार्य गुरुनमस्कार पुरस्सर अन्तिममङ्गल करते हैं-जस्सय पापसात संसारजल हिमुत्तिगणो । वीरिंददिवच्छ ममि तं अभयदिगुरु ॥ २६२ ।। ६५३ ।। अर्थ — वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि आचार्यका वत्स में नेमिचन्द्र आचार्य जिनके चरणप्रसाद से अनन्तसंसारसमुद्रसे पार हुआ उन अभयनन्दिनामक गुरुको नमस्कार करता है । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहोपशामना परिशिष्ट अधिकार । कर्मों का उदय आदि ( उदय-उदोरणा ) परिणमन के बिना उपशान्तरूपसे अवस्थानको उपशाममा कहते हैं । वह उपशामना दो प्रकारको होती है—१. करणोपशामना २. अकरणोपशामना । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोंके द्वारा कर्म प्रदेशोंका उपशान्तभावसे रहना करणोपशामना है अथवा करणोंकी उपशामनाको करणोपशामना कहते हैं। अप्रशस्त निधत्ति, निकाचित आदि 'पाठकरणोंको अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशान्त करना या उत्कर्षण आदि करणोंका अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा उप करणोपशामना है। इससे भिन्न लक्षणावली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त-अप्रशस्त परिणामों के बिना उदय-अप्राप्तकाल वाले कर्मप्रदेशोंके उदयरूप परिणामके बिना अवस्थित रहने को अफरणोपसामना कहते हैं। इसीका दूसरा नाम अनदीरणोपशामना है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका आश्रय लेकर कोके होने वाले विपाक परिणामको उदय कहते हैं। इसप्रकारके उदयसे परिणतकर्मको उदोर्ण कहते हैं। इस उदीर्ण दशासे भिन्न ( उदयावस्थाको नहीं प्राप्त हुए कर्मोको ) दशाको अनदोर्ण कहते हैं। अनुदीर्ण कर्मकी उपशामनाको अनुवीर्णोपशामना कहते हैं, क्योंकि करणपरिणामकी अपेक्षा नहीं होती इसलिए इसको प्रकरणोपशामना भी कहते हैं। इसका विस्तारपूर्वक कथन कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्व में है । करणोपशामनाके दो भेद हैं-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । अप्रशस्त उमशमकरणादि ( अप्रशस्तउपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणादि ) के द्वारा कर्मप्रदेशोंके एकदेश उपशान्त करनेको देणकरणोपशामना कहते हैं, किन्तु कुछ आचार्य कहते हैं कि देशकरणोपशामनाका इसप्रकार लक्षण करनेपर इसका १. अदविहं ताव करणं । जहा-अप्पसत्य उक्सामणकरणं, णिवत्तीकरणं, रिणकाचणाकरणं बंधएकरणं, उदीरणाकरणं, प्रोकड्डणाकरण उक्कड्डयाकरणं संकमणकरणं च । (क. पा. सुत्त पृ. ७१२ सूत्र ३५८, ज. घ. मूल पृ. १५५४) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] क्षपणासार बन्धन, 1 प्रकरणोपशामनामें अन्तर्भाव हो जावेगा इसलिए इसका लक्षण इसप्रकार है- दर्शनमोहनीय कर्म उपशमित हो जानेपर अप्रशस्तोपशम निर्धात्ति, निकाचित, उत्कर्षण, उदीरणा और उदय ये सातकरण उपशान्त हो जाते हैं तथा अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण ये दो करण अनुपशान्त रहते हैं । अतः कुछ करणों के उपशमित होनेसे और अन्य करणों के ग्रनुपशमित रहनेसे इसे देशकरगोपशामना कहते हैं । अथवा उपशम रिण चढ़नेवाले जीवके अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अप्रशस्त उपशमकरण, freत्तिकरण और निकाचितकरण, ये तीनकरण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते हैं । संसार अवस्थामें इन तीनोंकरणों के कारण उदय, संक्रमण, उत्कर्षण, श्रपकर्षण, उपशान्त थे अर्थात् होते नहीं थे, किन्तु इन तीन करणों का नाश होनेपर अपकर्षणादि किया होने लगती है । इनका विनाश होनेपर उपशमका प्रभाव नहीं होता, क्योंकि पूर्व संसारावस्था में अप्रशस्त उपशमकरण आदि तीन कररणोंके द्वारा गृहीत प्रदेशोंका उस स्वरूपसे ( अप्रशस्तोपशम, निवत्ति, निकाचित स्वरूपसे ) जो विनाश होता है वह देशकरणोपशामना है । प्रशस्त उपशम आदि तीन करणोंका विनाश होनेपर अपकर्षणादि क्रिया सम्भव होनेसे प्रतिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्पराय में देशकर गोपशामना होती है । अथवा नपुंसक वेद के प्रदेशाग्रका उपशम करते हुए जबतक उसका सर्वोपशम नहीं हो जाता तबतक उसका नाम देशकरगोपशामना है । अथवा नपुंसकवेद के उपशान्त होनेपर और शेष कर्मो के ग्रनुपशान्त रहनेको अवस्था विशेषको वैशोपकरणशामना कहते हैं, क्योंकि करण परिणामोंके द्वारा ( विवक्षित एक भागरूप ) कर्मप्रदेशोंको उपशान्त अवस्था हुई है । सर्वकरणों की उपशामना सर्वकररगोपशामना है । प्रशस्त उपशम, निवत्ति, निकाचित आदि आठ प्रकारके करणोंका अपनी किपाको छोड़कर प्रशस्त उपशामनाके द्वारा जो सर्वोपशम होता है वह सर्वकरणोपशामना है' । शङ्काः- यदि सर्वकरगोपशामना में अपकर्षरण आदि क्रियाका प्रभाव है तो अप्रशस्तोपशम, निवत्ति, निकाचित करणों में भी अपकर्षणादिका प्रभाव सम्भव है । अपकर्षणादि क्रियाके अभाव में अप्रशस्तोपशमकरणादिको उत्पत्तिका प्रसंग मा जानेसे उनका उपशम कैसे सम्भव है ? १. क. पा. सुत्त पृ० ७०६ । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ २५१ समाधान:- यह दोष नहीं आता, क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें प्रवेशके प्रथमसमय में ही अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरण नष्ट हो जाते हैं और वह संतति अविच्छिन्नरूपसे ऊपर चली जानेसे उनकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। अतः सर्वोपशामनामें उन अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्ति करण आदिका उपशम सिद्ध हो जाता है । सर्वोपशामना करणमें अपकर्षणादिका अभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। संसार अवस्थामें अपकर्षणादिका प्रभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। संसार अवस्थामें अपकर्षणादि सम्भव होनेपर भी बन्धके समय अन्तरंग कारणके बशसे कितने ही कर्म परमाणुओंका उदीरणा-उदय प्रादिका न होना अप्रशस्तउपशमकरण आदिका व्यापार है।' श्री यतिवषभाचार्यने कषायपाहद पर रचित चणि सूत्रोंमें देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामनाका कथन इसप्रकार किया है देशकरणोपशामनाके दो नाम हैं--देशकरणोपशामना, अप्रशस्तोपशामना । जयभवलाकारने इसकी व्याख्या इसप्रकार की है-संसार प्रायोग्य अप्रशस्त परिणाम निबन्धन होनेसे इस देशकरणोपशामनाको अप्रशस्तोपशामना कहा गया है । अप्रशस्त परिणामोंका निबंधन प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अतितीव्र संक्लेशके वशसे अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणकी प्रवृत्ति देखी जाती है। क्षपकश्रेणी व उपशमणिमें विशुद्ध परिणामोंके द्वारा इनका विनाश हो जाता है, इसलिए अप्रशस्त भावकी सिद्धि हो जाती है । इसप्रकार जो अप्रशस्तोपशामना है, वही देशकरणोए. शामना कही जाती है। कर्म प्रकृति प्राभूतमें अर्थात् दूसरापूर्व, पंचमवस्तु, उसकी चतुर्थ प्राभूतके कर्मप्रकृति अधिकारमें देशकरणोपशामनाका सविस्तार कथन है। सर्वकरणोपशामनाके भी दो नाम हैं--सर्वकरणोपशामना और प्रशस्तकरणोपशामना । प्रथम सर्वकरणोपशामनाका कथन पूर्वमें किया जा चुका है । प्रशस्तकरणोपशामना संज्ञा सुप्रसिद्ध है, क्योंकि इसमें प्रशस्तकरण परिणाम कारण हैं । कषायोपशामनाकी प्ररुपणाके अवसरमें सर्वकरणोपशामनाकी विवक्षा है । प्रकरणोपशामना व देश क रणोपशामनाका यहां प्रयोजन नहीं है।' १. जयधवल मूल पु० १८७२-७३ । २. जययवल मूल प० १८७४ एवं क. पा. सुत्त पृ० ७०७-७०६ । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] क्षपणासार मोहनीय कर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मोंका उपशम नहीं होता, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोके उपशामनारूप परिणाम सम्भव नहीं है । अकरपोपशामना और देशकरणोपशामना उन कर्मोंमें होती है, किन्तु यहां प्रशस्तकरणोपशामनाका प्रकरण है इसलिए मोहनीयकर्मकी ही प्रशस्त उपशामना के द्वारा उपशम होता है । { अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके प्रथम समय में ज्ञानाबरणादि सर्व कर्मों के अप्रशस्त उपशामना, नित्ति और निकाचित ये तीनोंकरण व्युच्छिन्न हो जाते हैं।' उपशमणिमें दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयका उपशम या क्षय पूर्व में ही हो जाता है। अनन्तानुबन्धी कषायका भी उपशम नहीं होता, क्योंकि पहले अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करके पश्चात् उपशमश्रेणि चढ़ता है। बारह कषाय और नव नोकषायका उपशम होता है। १. अंपियट्टिपढमसमये सब्बकम्मारणं पि प्रप्पसत्थउबसामरणाकरणं, रिणवत्तीकरण, पिकाचणाकरण घ वोच्छिण्णारिण। (ज. प. म. पृ. १८८५, क. पा. सुत्त पृ. ७१२ सूत्र ३५६ ) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्तकषायगणस्थानसे अधःपतनका कथन । "उपशान्तकषायतः अधःपतनकथनाधिकारः" प्रवस्थित परिणामवाला उपशवायो रामो शोह जित कारणोंसे गिरता है। उसमें सर्वप्रथम भवक्षयरूप कारण को कहते हैं उवसंते पडिबडिदे भवक्खये देवपढमसमयहि । उग्घाडिदाणि सववि करणाणि हवंति णियमेण ॥३०८॥ अर्थः-भवक्षय होनेपर उपशान्तकषायसे गिरकर देवोंमें उत्पन्न होनेवाले के प्रथमसमयमें नियमसे समस्तकरण उद्घाटित हो जाते हैं । विशेषार्थ:--अवस्थित परिणामवाले उपशान्तकषायका प्रतिपात दो प्रकार है १. भवक्षय निबन्धन २, उपशमनकाल क्षय निबन्धन । इनमें भवक्षय अर्थात् प्रथमादि किसी भी समय में आयुक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही असंयत हो जानेसे बंध, उदीरणा एवं संक्रमणादि सब करण निज स्वरूपसे प्रवृत्त हो जाते हैं । उपशान्तकषायमें जो करण उपशान्त थे वे सब देव असंयतमें उपशम रहित हो जाते हैं । उपशान्तकषायसे परिणाम हानिके कारण नहीं गिरता, क्योंकि अवस्थित परिणाम होने के कारण परिणाम हानि सम्भव नहीं है ।' आगे भवक्षयसे उपशान्तकषायगुणस्थानसे प्रतिपसित देव असंयतके प्रथमसमयमें सम्भव कार्यविशेषका कथन करते हैं सोदीरणाण दव्वं देदि हु उदयावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिरगे गोपुच्छाए देदि सेढोए ॥३०॥ अर्थः-उदयरूप प्रकृतियोंका द्रव्य उदयावलिमें भी दिया जाता है, इतर १. ज. घः मूल पृ. १८६१; क. पा. सु. पृ. ७१४ सूत्र १२१-२२; घ. पु. ६ पृ. ३१७ । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २५४ ] क्षपणासार [ गाथा ३१० ( अनुदय ) प्रकृतियोंका द्रव्य उदयावलिके बाहर तथा अन्तरायाममें गोपुच्छाकार श्रोणिरूपसे निक्षिप्त होते हैं। विशेषार्थः-देवोंमें उत्पन्न होणेरे प्रथम सत्यमें शोषJT-या को इन चार कषायोंमें से किसी एक कषायके अप्रत्याख्यानाबरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप भेद तथा पुरुषवेद, हास्य, रति इन उदयरूप प्रकृतियों के द्रव्यको और यदि भय व जुगुप्साका उदय हो तो उनके भी द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागके असंख्यातलोकवें भागप्रमाण द्रव्यका उदयावलि में दिया जाता है और शेष असंख्यातलोक बहुभाग द्रव्य उदयावलिसे बाहर प्रथम निकसे लगाकर अवशेष अन्तरायाममें, और उपरितन द्वितीय स्थितिमें चयहीन गोपुच्छाकार श्रेणिरूपसे देता है। उदयरहित नपुंसकवेदादिक मोहको प्रकृति के द्रव्य का अपकर्षण करके उसे उदयावलीमें न देते हुए उदयावलीसे बाह्य अन्तरायाम, उपरितन स्थितिमें विशेषहीन क्रमसे देता है। इसप्रकार अवशिष्ट अन्तर पूरा जाता है अर्थात् जो प्रवशिष्ट अन्तररूप निषेक रहे थे उनमें द्रव्यका निक्षेपण होनेसे उनका सद्भाव हो जाता है । ___ अब उपशान्त-कालक्षयके कारण उपशान्तकषायगुणस्थानसे गिरनेका कथन करते हैं अद्धाखए पडतो अधापवत्तोत्ति पडदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि हु सो संकि लिस्संतो॥३१०॥ अर्थः-उपशान्तकालका क्षय होनेसे गिरनेपर अधःप्रवृत्ततक क्रमसे गिरता है, विशुद्ध परिणाभोंसे पुनः श्रेणिपर चढ़ता है और संक्लेश परिणामोंसे उससे भी नीचे गिरता है। विशेषार्थः- अन्तर्मुहर्तमात्र अर्थात् दो क्षुद्रभवप्रमाण उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गगास्थानका काल है, उसकालमें अवस्थित परिणामवाला रहता है, किन्तु उसकालका अन्त हो जानेपर मूक्ष्मसाम्पराय होकर अनिवृत्तिकरण होता है, पीछे अपूर्वकरण होकर अधःप्रवृत्तकरण अप्रमत्त हो जाता है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण तक क्रमशः पतन होता है । तत्पश्चात् प्रमत्त होकर विशुद्ध परिणामोंसे पुनः श्रेणिपर चढ़ता है, किन्तु सक्लेश परिणामोंके द्वारा अधःप्रवृत्तकरणसे भी गिरता है। उपशान्तकषायसे चढ़ना या गिरना विशुद्ध ब संक्लेश परिणामोंके निमित्तसे नहीं होता, . Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३११-३१२] क्षपणासार [ २५५ क्योंकि उपशान्तकषायमें अवस्थित विशुद्धतारूप परिणाम रहता है । उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर नियमसे उपशमकालका क्षय हो जाता है, अतः उपशान्तकषायसे पतन होता है। विशुद्धतामें होनाधिकताके कारण पतन नहीं होता है, क्योंकि वहां विशुद्धता अवस्थित है, होनाधिक नहीं है । कालक्षयके अतिरिक्त अन्य भी कोई कारण पतनका नहीं है।' उपशान्तकषायसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें पाये जीवका कार्यविशेष ४ गाथाओं में कहते हैं सुहुमप्पविट्ठप्तमयेणछुवसामण तिलोहगुग्णसेढी । सुहुभद्धादो पहिया अवटिदा मोहगुग्णसेढो ॥३११॥ अर्थ:--उपशान्तकषायके पश्चात् सूक्ष्मसाम्पराय में प्रविष्ट हुआ, वहां प्रथम समयमें नष्ट हो गया है उपशमकरण जिनका ऐसी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनलोभको गुणश्रेणि प्रारम्भ होती है । इस गुणश्रेणियायामका प्रमाण, अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायकालसे एक प्रावलि अधिक है यहां मोहको गुणश्रेणिका आयाम अवस्थितरूप है । विशेषाय:-उपशान्तकषाय गुणस्थानसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होने के प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन तीन प्रकारके लोभका द्वितोय स्थितिसे अपकर्षण करके संज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणि की जाती है । कृष्टिगत लोभ वेदककालसे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणि निक्षेप है । दोप्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणलोभका भी उतना ही निक्षेप है, किन्तु उदयावलिसे बाहर निक्षेप होता है। तीनप्रकारके लोभका उतना उतना ही निक्षेप है अर्थात् अवस्थित गुणश्रेणि है। उसी समय अर्थात् प्रथमसमय में ही तोनप्रकारका लोभ एकसमय में हो प्रशस्तोपशामनाको छोड़ अनुप शान्त होजाता है ।' उदयाणं उदयादो सेसाणं उदयबाहिरे देदि । छएहं बाहिरसेसे पुञ्चतिगादहियणिक्खेत्रो ॥३१२॥ १. ज.ध. मूल पृ. १८६१-६२। २. क. पा. सु पृ. ७१५, ज. प. मूल पृ. १८६२; घ. पु. ६ पृ. ३१८ । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपगासार २५६ ] [ गाथा ३१३ अर्थः---उदयगत प्रकृतियोंके द्रध्यका निक्षेप उदय निषेकसे प्रारम्भ होता है, शेष कर्मोका उदयावलिसे बाहर निक्षेप प्रारम्भ होता है । छह कर्मोका गुणश्रेणि निक्षेप अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीनसे विशेष अधिक है। उदयावलिके बाहर इन छह कर्मोका गलिताशेषआयामरूप गुणोणिनिक्षेप प्रवृत्त होता है । विशेषार्थ:- 'उदयरूप संज्वलनलोभकी द्वितीय स्थिति में स्थित द्रव्यको अपकर्षित करके उसमें पल्बके असंख्यातवेंभागका भाग देकर एक भागको उदयरूप प्रथम, समयसे लेकर गुणधेणियायामके अन्तिम निषेकपर्यन्त असख्यातगुणे क्रमसे तब तक निक्षिप्त करता है, जबतक अन्तर पूरा नहीं जाता। बहुभागप्रमाण द्रव्यको गुणश्रेणि आयामके अन्तिम निषेकसे ऊपर पाये जाने वाले अन्तरायामको छोड़कर उसके ऊपर द्वितीय स्थिति में चयहीन ऋमसे निक्षिप्त करता है तथा उदयरहित अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानलोभकी द्वितीय स्थिति में स्थित द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर प्रथम समयसे लेकर गुणयरिग के अन्तपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे और उसके ऊपर अन्तरायामको छोड़ कर द्वितीय स्थिति में चयहीन क्रमसे पूर्ववत् निक्षिप्त करता है । प्राय व मोहके बिना छहकर्मोके द्रव्यको अपकर्षित करके उसमें पल्यके असंख्यातवें भागका भागदेकर उसमें से एक भाग उदयावलि में देता है और बहुभाग गुणश्रेणि अायाममें देता है । सो इनका यह गुणश्रेरिणायाम उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्पराय, अनिबत्तिकरण और अपूर्वकरणके सम्मिलित कालसे कुछ अधिक प्रमाण युक्त गलितावशेषरूप जानना। इसमें असंख्यातगुणा क्रमयुक्त द्रव्य देता है। अपकर्षित द्रव्यमें जो बहुभाग रहा उसको उपरितन स्थिति में चयहीन कमसे देता है।' मोदरसुहुभादीए पंधो अंतोमुहुत्त बत्तीसं । अडदालं च मुहुत्ता तिघादिणामदुगवेयणीयाणं ॥३१३॥ अर्थः- उप शान्तकषायसे अवतरित हुए जोबके सूक्ष्मसाम्परायके आदिमें तीन घातिया कर्मोका अन्तर्मुहुर्त प्रमाण, नामद्विकका बत्तीस मुहूर्तप्रमाण और वेदनीयका अड़तालीस मुहूतंप्रमाण बन्ध होता है । विशेषार्थ:-- उपशान्तकषायसे उतरते हुए सूक्ष्म साम्परायके प्रथम समयमें १. जयधवल मूल पृ० १८६२ । । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१४] क्षपणासार [ २५७ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन धातियाकर्मोका अन्तर्मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मका ३२ मुहूर्त एवं वेदनीयका ४८ मुहूर्त मात्र स्थिति बन्ध जानना, क्योंकि पारोहक-सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें जो स्थितिबन्ध होता है उससे अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें दुगुणा स्थितिबन्ध है। उपशमश्रोणि चढ़नेवालेको प्रारोहक और उतरनेवालेको अवरोहक कहते हैं ।' गुणसेढीसत्थेदररसबंधो उक्समादु विवरीयं । पाप्नो किडीयानभासा विरतमाहियकमा ॥३१४॥ अर्थः-तदनन्तर समय में ( द्वितीयादि समयोंमें ) अवरोहकके गुण रिण अपकृष्ट द्रव्य, प्रशस्त व अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध आरोहकसे विपरीतक्रम लिये होता है । प्रथम समय में जितनी कृष्टियों का उदय होता है, द्वितीयादि समयों में उसके असख्यातवेंभाग विशेष अधिक क्रमसे उदय होता है। विशेषार्थ-अवरोहक ( उतरनेवाला ) सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयों में प्रतिसमय प्रथमसमय सम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन क्रमयुक्त द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रेणि करता है । सातावेदनीयादि प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा हीन क्रम लीये और ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुणा बढ़ता क्रम लोये अनुभागबंध होता है, क्योंकि यहां प्रतिसमय विशुद्ध व संक्लेशको यथाक्रम अनन्तगणो हानि ब वृद्धि होती है । इसलिए उपशमश्रेरिण पर आरोहण करते समयसे उत्तरते समय विपरीतपना कहा है। स्थितिबन्ध तो प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समान ही है। प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में प्रारोहकके स्थितिबन्धसे अवरोहकके यथास्थान दुगुणा स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समय पर्यन्त जानना । चढ़ते हुए जिस स्थानपर जितना स्थितिबन्ध होता था उससे दूना स्थितिबन्ध उसी स्थानपर उतरते हुए होता है। जैसे चढ़ते समय स्थितिबन्धापसरए द्वारा स्थितिबन्ध घटाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें समान बन्ध करता था वैसे ही यहां स्थितिबन्धोत्सरण द्वारा स्थितबन्ध बढ़ाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त में समानबन्ध करता है । अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में उदयरूप जो निषेक कृष्टि पाई जाती है उसको पल्यके असंख्यातवें भागका भाग दिया उसमेंसे बहुभाग १. ज. घ. मूल पृ. १८६३-६४ सूत्र ३६४; प. पु. ६ पृ. ३१८-१६ । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] क्षपणासार [ गाथा ३१४ प्रमाण मध्यकी कृष्टि उदय में आती है तथा अवशिष्ट एकभागको पल्यके असंख्यातवें भागकी सहनानी पांचके अंकका भाग देने पर उसमें से दो भागमात्र तो प्रादि कृष्टिसे लेकर जो अधस्तनकृष्टि हैं वे अनुदयरूप हैं और तीनभाग मात्र अन्तिमकृष्टिसे लेकर जो ऊपरितनकुष्टि हैं वे अनदयरूप कृष्टि कही हैं, वे अपने स्वरूपको छोड़ कर, जो आदिकृष्टिसे लेकर अधस्तनकृष्टि हैं वे तो अनन्तगुणे अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदय में आतो है । तथा अन्तिमकृष्टि से लेकर जो ऊपरितनकृष्टियां हैं वे अनन्तवेंभाग अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदय में आती हैं । अंक संदृष्टि-माना कि उदयरूप निषेकमें १००० कृष्टि हैं उनको ५ का भाग देनेपर बहुभागप्रमाण ८०० मध्यकी कृष्टि तो उदयरूप है । अवशिष्ट एक भाग (२००) प्रमाणमें ५ का भाग देकर उसमेंसे एक भाग (४०) पृथक् रख, अवशिष्टके (१६०) दो भाग करके उसमें से एकभाग प्रमाण (८०) कृष्टि तो जघन्यकृष्टि से लेकर प्रध. स्तनकृष्टियां अनुदय लाए हैं वे कष्टियां अन भागवृद्धिके कारण मध्यमकृष्टिरूप हो परिणमनकर उदय में पाती हैं। तथा एक भागमें (८०) पृथक रखा हुआ (४०) भाग मिलानेपर (८०+४०) १२० कृष्टि हुईं। वे अन्तिमकृष्टिसे लेकर ऊपरितन कृष्टि अनुदयरूप हैं । वे अनुभाग घटनेके कारण मध्यमकृष्टिरूप होकर उदयमें पाती हैं ऐसा जानना चाहिए। प्रथमसमय में अनुदयरूप ऐसी आदि कृष्टिको द्वितीयसमयमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण नवीनकृष्टियां अनुदयरूप की और प्रथमसमयमें अनुदयरूप ही अन्तिमकृष्टिको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण कृष्टियोंको नवोन उदयरूप की। यहां उदयरूप की गई कुष्टियों के प्रमाणमें से अनदयरूप की गईं कृष्टियोंका प्रमाण घटानेपर जितना अवशिष्ट रहे उतने प्रमाणरूप प्रथमसमय सम्बन्धी उदयकृष्टियोंसे अधिक द्वितीयसमय में उदयकृष्टियां होती हैं । अंकसंदृष्टि द्वारा इसप्रकार कथन समझना--- प्रथमसमयमें उदयरूपकृष्टियां ८०० थीं, तब द्वितीयसमय में पहले उदयसे ऊपरितन' १२० कृष्टियां अनुदयरूप थीं, उनको ५से भाजित करनेपर लब्ध २४ प्रमाण ऊपरितन नवीनकृष्टियां उदयरूप हुई और प्रधस्तन कृष्टि (८०) में ५का भाग देनेपर लब्ध १६ प्रमाणकृष्टियां नवीन उदयरूप नहीं होती। अतः नवीन उदयरूप २४ में से Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार माया ३१५] [२५६ अनुदयरूप १६ कम करने पर लब्ध ( २४-१६ ) ८ आया सो इतनी कृष्टियां बढ़ने से द्वितीय समयमें ( ८००+= ) ८०८ कृष्टियां उदय होती हैं । इसीप्रकार अर्थसंदृष्टि द्वारा भो यथार्थ कथना जानना चाहिए। यहां बहुत अनुभागयुक्त उपरितन कृष्टिके उदय होनेसे और अल्प अनुभागयुक्त अधस्तन कृष्टि न उदय नहीं होनेसे प्रथम समयापेक्षा द्वितीय समय में अनुभाग अनन्तगुणा बढ़ता है। ऐसा जानना चाहिए। इसीप्रकार तृतीयादि अन्तिम समय पर्यन्त समयों में विशेष अधिक कृष्टि उदय होती है ।' इसी कारण प्रतिसमय कृष्टियों का अनन्तगुणा अनुभाग उदय होता है । इस प्रकार सूक्ष्म साम्परायका काल व्यतीत होता है। चढ़ते हुए सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम स्थितिबन्धसे दुगुणा स्थितिबन्ध गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें होता है । प्राय का दोहक के गरमणमा निमाविष्य कथन दोगाथाओं में करते हैंवादरपढमे किट्टी मोहस्स य भाणुपुव्विसंकमणं । ट्ठण च उच्छि फड्डयलोहं तु वेदयदि ॥३१५॥ अर्थ:-बादरलोभके प्रथम समय अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायसे गिरकर बादर लोभके उदपके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टियां नष्ट हो जाती हैं और मोहका पानपूर्वीसंक्रम नष्ट हो जाता है, किन्तु उच्छिष्टावलि अर्थात् उदयावलिप्रमाण कृष्टियां नष्ट नहीं होती, स्पर्धकगत लोभका वेदन होता है। विशेषार्थः-अवरोहक अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में पाई जानेवाली सूक्ष्मकृष्टियां उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेक बिना अन्य सभी स्वरूपसे नष्ट हुई। सूक्ष्मकष्टि की अनुभाग शक्तिसे अनन्तगुणी शक्ति युक्त जो स्पर्षक हैं उसरूप होकर एकही समय में परिणमित हई ।' तथा कृष्टिके उच्छिष्टावलिप्रमाण जो निषेक रहे वे प्रतिसमय १. सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में चढते समय विशुद्धि के कारण जैसे विशेष हानिरूपसे कृष्टियोंका वेदन __ करता है वैसे ही उत्तरते समय संक्लेशके कारण असंख्यातभागद्धि से कृष्टियोंका वेदन करता है; यह सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिमसमयतक जानना चाहिए । ( ज. घ. मूस. प. १८६५) २. ज.ध. मूल पृ. १८६४-६५ । ३. किट्टियो सव्वाप्रो एट्ठामो। तासि सब्बासिमेगसमण्णव पदयभावेण परिणामदंसरणादो। ज० धवल १८६५ । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २६०] क्षपणासार [गाथा ३१६ एक-एक निषेकरूपसे उदयमान स्पर्धकों के निषेकोंमें स्तुविक संक्रमण द्वारा तद्रप परि- णमन कर' उदय होंगे । उसी प्रथम समयमें मोहका प्रानुपूर्वी संक्रम भी नष्ट हुआ । इतना विशेष जानना कि यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभका बध्यमान संज्वलनलोभमें हो संक्रमण होना प्रारम्भ हुअा, तथापि इसमें प्रानुपूर्वी संक्रमको विवक्षा नहीं है। तथा सञ्ज्वलन लोभके कोई बध्यमान स्वजातीय प्रकृति नहीं है, अतः व्यक्ति की अपेक्षा अभी भो आनुपूर्वी संक्रम है ।' शक्तिकी अपेक्षा संज्वलनलोभके अनानुपूर्वी से अन्य प्रकृति में संक्रम होनेका परिणाम हुमा है। सूक्ष्म साम्पराय गुरगस्थानमें मोहके बन्धके अभावसे संक्रम सम्भव नहीं है। स्पर्धकरूप उदित बादरलोभ का वेदन करता हुआ यह प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय मुनि संज्वलन लोभके द्रव्यका अपकर्षण करके उदयरूप समयसे लेकर पावली से अधिक बादरलोभ वेदककाल [ अवरोहकके लोभवेदक कालका साधिक दो बटे तीन भाग ] प्रमाण गुणश्रेणो प्राधाममें असंख्यातगुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है। प्रत्याख्यान तथा अप्रत्याख्यान लोभके द्रव्यको उदयावलोसे बाह्य पूर्वोक्त गुणश्रेणि पायाममें असंख्यात. गुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है। तथा अनिवृत्तिकरणकालके दितीयादि समयमें असंख्यातगुणा हीन – (घटता) क्रम लिये द्रव्यका अपकर्षण करके अवस्थित गुणश्रेणी-आयाम में पूर्वोक्त प्रकार निक्षेपण करता है। अन्य कर्मों को गलितावशेषगुणश्रेणी जाननी चाहिए। मोदरपादरपढमे लोहस्संतो मुहुत्तियो बंधो । दुदिणंतो घादितियं चउवस्संतो अघादितियं ॥३१६॥ अर्थः- सूक्ष्मसाम्परायसे उतरने पर बादर लोभके प्रथमसमयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, ज्ञानाबरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन १. क्योंकि स्पधकों के वेदन होनेपर उदयावली में प्रविष्ट कृष्टियोंका भी स्पर्धकभावसे उदय-विपाकको छोड़कर प्रकारान्तरपने का सम्भव नहीं पाया जाता है । जयधवल मूल १८६६ २. गवरि जाप्रो उदयावलियम्भतरामोतानो स्थिवुक्कसंफमेण फड्डासु विपच्चहिति । ज.ध, १८६६ ३. वत्तोए पुरण प्रज्जवि प्राणुपुब्बिसंकमो चेव । ज० धवल १८६६ ४. लोभं परिव्यय प्रन्याषा प्रकृतीनो बन्धो अस्मिन्नवसरे नास्ति । जयधवल १८९७ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३१७ ] [ २६१ घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध दो दिनसे कम, नाम-गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध कुछकम चारवर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थः-अबरोहक बादरसाम्पराय अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें संज्वलन लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमारण' है जो प्रारोहक अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्ध दोगुणा है। तीन घातियाकर्मोंका कुछ कम दो दिन, नाम-मोत्र और वेदनीयकर्मका कुछकम चारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध है । अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त इसीप्रकार समानरूपसे बन्ध हुआ । पश्चात् द्वितीय स्थितिबन्ध संज्वलन लोभका तो पहले से विशेष अधिक, तीन धातियाकर्मोंका पृथक्त्व दिन प्रमाण, तीन अघातिया कर्मोकर संख्यातहजारवर्ष प्रमाण हुआ । इसप्रकार वृद्धिरूप संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर पोमवेद कमाल सम्बकी द्वितीय विभागका संख्यातवांभाग व्यतीत हुआ तब संज्वलनलोभका पृथक्त्व मुहूर्त, तीनघातिया कर्मोका अहोरात्रसे बढ़कर पृथक्त्व हजारवर्ष और तीन अघातियाकर्मोंका संख्यात हजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है तथा सहस्रों स्थितिबन्ध व्यतीत हो जानेपर लोभवेदकका काल समाप्त होता है । आरोहकके लोभवेदककालसे अवरोहकका लोभवेदककाल किंचित् न्यून है। इसीप्रकार मायावेदक कालादिकमें भी किंचित् न्यूनता जानना । जिस कषायके जितने काल में उदयका भोगना होता है उतने प्रमाण उसका वेदककाल होता है ।' प्रागे मायावेदकके क्रियाविशेषका कथन वो गाथाओंमें करते हैं मोदरमायापढमे मायातिरहं च लोहतिरह च । मोदरमायावेदगकालादहियो दु गुणसेढी ।।३१७॥ अर्थ:---{ संज्वलनलोभसे ) मायामें अवतरण करनेके प्रथमसमयमें तोन प्रकारकी ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ) माया व तीनप्रकार के लोभकी अवतरित माया वेदककालसे अधिक आयामवाली गुणध रिण करता है । विशेषार्थः-लोभवेदककालके अनन्तर मायावेदककाल के प्रथमसमग्रमें उतरने वाला अनिवृत्ति करणजीव अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन मायाके द्रव्यको अपनी-अपनी द्वितीयस्थितिमेंसे अपकर्षितकर उदयरूप संज्वलनमायाके द्रव्यको तो १. ज. प. मूल पृ. १८६७-६८ । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] . क्षपणासार [ गाथा ३१८ उदयावलीके प्रथम समयसे लेकर और उदयरहित अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानरूप मायाके द्रव्यको उदयावलीसे बाहर' प्रथम समयसे लेकर आवलि अधिक मायावेदककालप्रमाण अवस्थित पायामवाली गुणश्रेणी करता है। उदयरहित तीनप्रकारके लोभके भी द्वितीय सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहरसाधिक मायावेदक कालप्रमाण अवस्थित पायामवाली गुणश्रेरिण करता है। यहां ज्ञातव्य है कि तीन प्रकारके लोभ व तीनप्रकारको मायाका गुणणि निक्षेप तुल्य और अवस्थित है। गलितावशेष नहीं है । अवशिष्ट छह कर्मोकी पूर्वोक्त अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण कालसे विशेष अधिक पायामवाली गुणवरिण करता है । तथा उसी मायावेदककालके प्रथमसमय में तीन प्रकारकै लोभ व दो प्रकारकी माया सम्बन्धी द्रव्यको संज्वलन मायामें संक्रमित करता है वसे ही तीनप्रकारको माया ब दोप्रकारका लोभ लोभसंज्वलनमें संक्रमण करता हैं। क्योंकि यहां संज्वलनलोभ एवं संज्वलनमायाका ही बन्ध है और बन्धमें ही संक्रमण होता है। आनुपूर्वी संक्रमणके अभावसे इसप्रकारका संक्रमण संभव है ।' मोदरमायापढमे मायालोहे दुमासठिदिबंधो। छगह पुण वस्साणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥३१॥ अर्थ:-उतरने वालेके मायावेदककालके प्रथमसमयमें संज्वलनमाया व लोभ का दोमासप्रमाण तथा शेष छहकर्मोका संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थः-उपशम श्रेणि चढ़नेवाला मायाबेदक कालके चरमसमयमें संज्वलनमाया व लोभका स्थितिवन्ध एक मासप्रमाण होता था अब उतरनेवालेके मायावेदककालके प्रथमसमयमें उससे दो गुणा अर्थात् दो मासप्रमाण होता है, क्योंकि चढ़ने वालोंके परिणामोंसे उतरने वालोंके परिणाम कम विशुद्ध होते हैं। इसीप्रकार गिरनेरूप परिणामोंकी विशेषतासे शेष ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र) छह कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष प्रमाण होता है । उपशमश्रेणी चढ़ने वालोंके प्रत्येक स्थितिबन्ध संख्यातगुणे हीन क्रमसे होता था, किन्तु उतरने १. कारण यह कि उन नहीं वेदो जाती हुई प्रकृतियोंका, उदयावली के भीतर ( प्रदेशनिषेकोका) असम्भवपना है। जयधबल १८६८ २. जयधबल मूल पृ० १८६८ । ३. जयधवल मूल पृ० १८६८-६० । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३१६ ] [२६३ वालोंके ज्ञानावरणादिका प्रत्येक स्थितिबन्ध संख्यातगुणित वृद्धि क्रमसे होता है। चढ़ने वालोंके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेषहीन क्रमसे होता है और गिरनेवालोंके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेष अधिक क्रमसे होता है । इसलिए यहां पर मोहनीयके अतिरिक्त अन्यकर्मोका पुनः पुनः संख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयका पुनः पुनः विशेष अधिक स्थितिबन्ध होता है । इस क्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके बोतनेपा दा समयार्थी भा देदा होता है, इसमय माया और लोभ इन दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तक्रम चारमाह और ज्ञानावरणादि शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि चढ़नेवालोंके स्थितिबन्ध से उतरनेवालोंका स्थितिबन्ध दो गुणा होता है ।' अथानन्तर को गाथानोमें मानवेदक जीवके कार्य विशेषको कहते हैंमोदरगमाणपडमे तेत्तियमाणादियाण पयडीणं । ओदरगमाणवेदगकालादहियं दु गुणलेढी ।।३१६॥ अर्थः-उतरनेवाला मायावेदककालके अनन्तर मानवेदकके प्रथमसमयमें मानवेदककालसे अधिक मानादि प्रकृतियोंकी गुणश्रेणि करता है। विशेषार्थः---उसके अनन्तर मानवेदककालके प्रथमसमयमें संज्वलनमानके द्रव्यको अपकषितकरके उदयाबलिके प्रथमसमयसे लेकर तथा दो प्रकारके मान, तीन प्रकारकी माया व तीनप्रकारके लोभ सम्बन्धी द्रव्यको अपकषित करके उदयाबलिसे बाहर प्रथमसमयसे लेकर श्रावलिअधिक मानवेदककालप्रमाण अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि करता है । अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन लोभ, माया व मान इन नौप्रकारको कषायका गुणश्रेरिण निक्षेप होता है और शेष छह कर्मोका गलितावशेष गुणश्रेणि पायाम पूर्ववत्' है । उसीसमय अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलनलोभ-माया-मानरूर नो कषायोंका द्रव्य यहां बध्यमान संज्वलन मान-मायालोभमें आनुपूर्वी रहित जहां तहां संक्रमण करता है ।' प्रोदरगमाणपढमे चउमासा माणपहदिठिदिबंधो । १. जय धवल मूल पृ० १८६६-१६०० ।। २. जय धवल मूल पृ० १६०० । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झपरगासार २६४ ] [ गाथा ३२०-३२१ छहं पुण वस्साणं संखेजसहस्समेत्ताणि ॥३२०॥ अर्थः-उसी उतरनेवाले मानवेदककालके प्रथमसमय में संज्वलन मान-मायालोभका चारमास और शेष छह कर्मका संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है ( जो चढ़नेको अपेक्षा दोगुरणा है । ) विशेषार्थः-इसप्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं तब मानवेदकके अन्तिम समयमें तीन ( लोभ-माया-मान ) संज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम आठ मास होता है और शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रबर्षप्रमारण होता है । इस प्रकार जानवककाल समाप्त हो जाता है।' आगे बोगाथाओंमें संज्वलनकोषमें होनेवाली क्रिया विशेषका विचार करते हैं मोदरगकोहपढमे छक्कम्मसमाणया हु गुणसेढी। बादरकसायणं पुरण एतो गलिदावलेसं तु ॥३२१।। अर्थः- इसके अनन्तर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण जीवके संज्वलनक्रोधके उदय सम्बन्धी प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलनक्रोध-मान-माया-लाभरूप बारह कषायोंकी ज्ञानावरणादि छह कर्मोंके समान गलितावशेष गुणश्रेणि करता है । विशेषार्थ:----गुणश्रेणी आयामका प्रमाण उतरनेवाले अनिवृत्तिकरणके अपूर्वकरणके कालकी अपेक्षा कुछ अधिक है। यहांसे पहले मोहका गुणश्रेणि आयाम अबस्थित था अब गालताथ शेषरूप प्रारम्भ हुआ है । जिस कषायके उदयसहित उपशमश्रेणि चढ़ा हो तथा उतरते हुए उस कषाय का जिससमय उदय हो उस समयसे लेकर सर्वमोहनीयकी गलितावशेष गुणश्रेणी करता है और अन्तरका पूरना करता है। यहां क्रोधकी विवक्षा है। वह इसप्रकार है-- अन्तरपुरण विधान-बारह प्रकारको कषायोंके द्रव्यको अपकर्षित करके उससमय गुणश्रेणि निक्षेप करता हुआ बोधसंज्वलनके उदयमें स्तोक प्रदेशाग्र देता है। उससे आगे तबतक असंख्यातगुरगा ऋमसे देता है जबतक कि ज्ञानावररणादि कर्मोके पर्व निक्षिप्त गुण गिशीर्षको प्राप्त हो जाय । पुनः तदनन्तर उपरिम अनन्तर समयमें १. ज. प. मूल पृ. १६०० ; ध. पु. ६ पृ. ३२२ एवं क. पा. सुत्त पृ. ७१८ सूत्र ४४१-४२ । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२१ ] क्षपणासार [२६५ एकबार असंख्यातगुणाहीन निक्षिप्त करता है। उसमे आगे अन्तर सम्बन्धी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन क्रमसे द्रव्यका निक्षेप करता है । उससे आगे द्वितीय स्थितिके आदि निषेक में असंख्यातगुणेहीन द्रव्यका निक्षेप करता है। उसके आगे तब तक सर्वत्र विशेषहीन क्रमसे द्रव्य देता है जबतक कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापनाको प्राप्त हो जावे। इसप्रकार शेष कषायोंके अन्तरको पूरा करता है उनके द्रव्यका उदयावलि के बाहर निक्षेप करता है । इतना विशेष है । सात नोकषाय,स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अंतरको भी इसी विधानसे यथा अव- . सर पूर्ण करता है। क्रोध उदयके प्रथमसमयमें बारह कषायों के द्रव्यको तत्काल बध्यमान संज्वलनक्रोधादि चारकषायोंमें आनुपूर्वी क्रमरहित जहां-तहां संक्रमित करता रहता है। ( जयधवल मूल पृ० १६०१-१६०२ ) में विशीहीन कम द्रव्या असरन्यातकानि 1. अन्तरायाम में विशेषहीन क्रम से द्रव्य विराटोन अमश्यत्तगुदाहीन गुवाशी शीष गुगणी आयाम _____/उयस्थिति Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] क्षपणासार [गाथा ३२२-३२३ मोदरगकोहपढमे संजलणाणं तु अहमासठिदी। कण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥३२२॥ अर्थः--उतरनेवालेके क्रोध उदयके प्रथमसमयमें संज्वलन क्रोधादि चार कषायोंका पाठमास और छहकर्मोंका संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थः-उपशमश्रीणि चढ़नेवालेके क्रोध वेदककालके अन्तिम समयमें स्थितिबन्ध होता था उससे दोगुरगा गिरनेवालेके क्रोधवेदकके प्रथमसमयमें होता है। वह स्थितिबन्ध संज्वलन चतुष्कका पाठ मास और शेष कोका संख्यातहजार वर्षप्रमाण है । संख्यातहजार स्थितिबन्ध होजाने अर्थात् अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जानेपर क्रोध वेदक ( अवेदो क्रोधबेदक ) के अन्तिमसमयमें मोहनीय अर्थात् चारकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है, क्योंकि उपशमश्रेणि चढ़नेवालेके क्रोध उपशामकके प्रथमसमयमें अन्तर्मुहूर्तकम ३२ वर्ष होता था उसका दोगुणा अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है। उसी चरमसमयमें शेषकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष प्रमाण होता है वही मोहनीयकर्मके चतुर्विधबंधका अन्तिमसमय है ।' अब अवरोहक नवमगुणस्थानवोंके पुरुषवेवोदय कालमें होनेवाली क्रियाविशेषको ४ गाथानों में बताते हैं-- ओदरगपुरिसपढमे सत्तकसाया पणट्ठउवसमणा । उणवीसकसायाणं छक्कम्माणं समाणगुणसेडी ॥३२३॥ अर्थ:--पुरुषवेदमें उतरनेके प्रथमसमयमें ( स्त्री-नपुसकवेदके अतिरिक्त ) सात नो कषायकी प्रशस्तोपशामना नष्ट हो जाती है । उन्नीस ( १२ कषाय और ७ नोकषाय ) कषायोंको गुणश्रेणि ज्ञानावरणादि छहकर्मोको गुणश्रेणिके समान हो जाती है। विशेषायः-मोहनीयकर्मके चतुर्विधबन्धके अन्तिमसमयमें ही अपगतवेद पर्यायका व्यय हो जानेपर अनन्तरसमय में सवेदभागका वर्तन हो हानेसे पुरुषवेदका उदय व बन्ध होने लगता है अर्थात् मोहनीयका पांचप्रकृति बन्धका प्रथमसमय होता १. ज. प. मूल पृ. १६०२ सूत्र ४४८-४५२ । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गाथा ३२४-३२६ ] क्षपणासार [ २६७ है। पुरुषवेद सहित छह नोकषायकी प्रशस्तोपशामना नष्ट हो जानेसे अनुपशान्तभावमें संक्रमण, उत्कर्षण आदि होने लगते हैं। उससमय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेद इन सात नोकषायोंके कर्माशोंका अपकर्षण करके पुरुषवेदको तो उदयादि गुण णिको करता है और छह नोकषायके कर्माशोंकी उदयावलिके बाहर मुगावे रिण करता है । बारहकषाय और सात नोकषायका गुणश्रोणि निक्षेप आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मोके गणन णिनिक्षेपके तुल्य होता है। शेष-शेषमें निक्षेप होता है अर्थात् गलितावशेष गुणवेरिण होती है | उदयरूप पुरुषवेद और सज्वलनक्रोधके द्रव्य को अपकर्षित करके उदय समयसे लगाकर और अन्य कषाय व नोकषायके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर समयसे लगाकर गुणरिणायाम, अन्तरायाम, द्वितीयस्थितिमें निक्षेप होता है और सात नोकषायका अन्तरायाम पूरण होजाता है ।' पुंसंजलणिदराणं वस्ता बत्तीसयं तु चउसट्टी। संखेजसहस्साणि य तक्काले होदि ठिदिबंधो ॥३२४॥ , अर्थः- उतरनेवालेके पुरुषवेदके प्रथमसमयमें पुरुषवेदका ३२ वर्ष, संज्वलन - चतुष्कका ६४ वर्ष, तीन घातियाकर्मोका संस्था हजारवई, उससे नाम व गोत्रका संख्यातगुणा तथा उससे डेढ़गुणा स्थितिबन्ध वेदनीयकर्मका होता है । पुरिले दु अणुवसंते इत्थी उपसंतगोत्ति भद्धाए । संखाभागासु गदे ससंखवस्सं अघादिठिदिषंधों ॥३२५॥ णवरि य णामयुगाणं वीसियपडिभागदो हवे बंधो। तीसियपडिभागेण य बंधो पुण वेयणीयस्स ॥३२६॥ अर्थः-पुरुषवेदके उदयकालमें स्त्रीवेदका उपशम जबतक नष्ट नहीं होता उतनेकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होकर एकभाग प्रवशिष्ट रहनेपर अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातहजार वर्षमात्र होता है । इतनी विशेषता है कि बीसिय नाम द्विक ( नाम-गोत्र ) का जितना स्थिति ___ बन्ध होता है उसके त्रैराशिक क्रमसे अर्थात् ड्योढ़ा तीसिय-वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध १. जयधवल मूल पृ० १६०२ सूत्र ४५३ । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] क्षपरणा सार [ गाथा ३२७ होता है । विशेषता - ज्ञानावरण, दर्शनावरण श्रौर अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र होता है । मोहनीयका उससे संख्यातगुणाहीन तत्प्रायोग्य संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उपशमश्रेणि चढ़नेवाले के सात नोकषायके उपशम करनेके काल में संख्यातवां भाग व्यतीत हो जानेपर ( जिस स्थानपर ) नाम, गोत्र, वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षप्रमाण होता था, उतरने वाले के पुरुषवेद अनुपशान्त हो जानेपर और जबतक स्त्रीवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभाग बीत जानेपर ( चढ़ने वाले के उस स्थानके नहीं प्राप्त हुए ही इसके ) नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षको उल्लंघकर प्रसंख्यात वर्षका होने लगता है । चढ़नेवालेके स्थितिबन्ध संख्यातवर्षका होता था अतः उतरनेवाले दोगुणा स्थितिबन्ध होना चाहिए ऐसी ग्राशंका नहीं करना चाहिए । गिरनेवाले के संक्लेश विशेष के कारण श्रसंख्यातवर्षका स्थितिबन्ध हो जाता है। बीसिय- नाम, गोत्रका पत्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तोसिय प्रघातिकर्मवेदनीयका कितना स्थितिबन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करनेसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागका डेढ़ गुणा होगा । उससमय स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व इसप्रकार होगा मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है। तीन घातियाकर्मीका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, क्योंकि इनका स्थितिबन्ध उतरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्पराय नामक १० गुणस्थान के प्रथमसमय में प्रारम्भ हो गया था और मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध बादरलोभ अर्थात् हवें गुणस्थान में प्रारम्भ हुआ है । नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यात गुणा है और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अधिकका प्रमाण द्विभाग है' | आगे स्त्रीवेदके उपशमके विनाशकी प्ररूपणा दो गाथाओं में करते हैं— थी भवसमे पढमे वीसकसायाण होदि गुणसेडी । संडुवसमोति मक्के संखाभागेषु सीदेषु ॥ ३२७॥ वादितियाणं शियमा असंखस्तं तु होदि ठिदिबंधो । १. ज. ध. मूल पू. १९०३ - १९०४; क. पा. चू- सूत्र ४६१-४६६ । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२- 1 क्षपणासार [ २६६ तक्काले दुट्टाणं रसबंधो ताण देसवादीणं ॥३२८॥ पर्थः-स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समय में बीस कषायोंकी गुणश्रेणी होती है। यहांसे लेकर नपुसकवेदके उपशान्त रहनेतक कालके संख्यात बहुभाग बीत ३ जानेपर तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे असंख्यातवर्षप्रमाण हो जाता है और उसीसमय उनकी देशघाति प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध द्विस्थानिक हो जाता है । विशेषार्थः—पूर्वोक्त गाथा कथित कालसे आगे सहस्रों स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर स्त्रोबेदको एकसमयमें अनुपशान्त करता है । उसोसमयसे स्त्रीवेदका द्रव्य उत्कर्षण प्रादिके योग्य हो जाता है। प्रथमसमय में ही अनुदयरूप प्रकृति स्त्रीवेदके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिके बाहरसे अन्य १६ प्रकृतियोंके समान गलिहावशेष ... गुणश्रेणि आयाममें, अन्तरायाममें और द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है। मोहनीय कर्मको पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों (१२ कषाय व ७ नो कषाय) के द्रव्य को भी अपकर्षित करके इसीप्रकार निक्षिप्त करता है । इसप्रकार बीस प्रकृतियोंको गलितावशेष गुणश्रेणि होती है। स्त्रीवेद अनुप शान्त होनेपर जबतक नपुसकवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्तीकालके संख्यात बहुभागोंके बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध असंख्यातवर्ष हो जाता है। उससमय में मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प, तीन धातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा, इससे असंख्यातगुणा नाम ब गोत्रका और उससे विशेष अधिक अर्थात् डेढ़गुणा वेदनोयकर्मका स्थितिबन्ध होता है। जिससमय तीन घातियाकर्मोका असंख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है उससमय मति-श्रु त-अवधि-मनःपर्यय इन चार ज्ञानावरणीय, चक्षु-अचक्षुअवधि इन तीनप्रकारके दर्शनावरणीय और पांचों (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) अन्तरायकर्म अनुभागबन्धको अपेक्षा लता, दारुरूर द्विस्थानीय अनुभागबन्धवाले हो जाते हैं।' १. जयधधल मल प. १९०४-५ । प्रारोहक संख्यातवषप्रमाण स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें ही इन कर्मोका एक स्थानिक बन्ध उत्पन्न हो गया; यहाँ भी संख्यातवर्ष स्थितिबन्धक अवसान को प्राप्त होनेपर असंख्यातबर्षीय स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें ही एक स्थानिकबन्ध समाप्त होगया, यहांसे लेकर उन सकल प्रकृतियोंका द्विस्थानीक ही अनुभाग बंधता है। इतना विशेष है । (ज. प. मूल पृ. १९०५) Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] क्षपणासार [ गाथा ३२६-३३० अब म सकदेव के उपशमका विनाश व उससमय होनेवाली क्रिया विशेष गाथाओं में कहते हैं संडवसमे पढमे मोद्दिगिवीसाथ होदि पुणसेडी । अंतरकदोत्ति मज्झे संखाभागासु सीदा ॥ ३२६ ॥ मोहस्स असंखेजा वस्तयमाणा इवेज्ज ठिदिबंधो । ताई तस्स य जादूं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३३० ॥ " अर्थ:- नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जानेपर २१ प्रकृतियोंको गुणश्र ेणी होती है । युहांसे अन्तरकरण करनेके स्थानको प्राप्त होनेतक जो मध्यवर्तीकाल है उसकाल के संख्यात बहुभाग बीत जानेपर मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध प्रसंख्यातप्रमारा होने लगता है । उसीसमय मोहनीयकर्मका अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानीय हो जाता है । : विशेषार्थ:-- पूर्वोक्त गाथा कथितकाल के पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धों के बीत जानेपर नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जाता है । उसोसमय नपुंसक वेद के द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिके बाहर गुराश्रेणि श्रायाममें, अन्तरायाम में और द्वितीयस्थिति में निक्षिप्त करता है । यह गुण रिण निक्ष ेप अन्य बीस प्रकृतियोंके गलितावशेष गुराणि निक्षेपके सदृश होता है । नपुंसकवेद के अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तर करनेके कालको नहीं प्राप्त होता इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभागप्रमारणकाल व्यतीत हो जानेपर मोहनीयकर्मका असंख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है । उपशमश्र णि चढ़नेवाला जिस स्थानपर ( अवस्था में ) अन्तरकरण करके मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, उतरते समय उस स्थानको अन्तर्मुहूर्त द्वारा नहीं प्राप्त करता कि इस अवस्था में वर्तमान इस जीव के प्रतिपातकी प्रधानता से मोहनीय कर्मका असंख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि चढ़नेवाले की अपेक्षा उतरने वाले का काल स्तोक है, कारण कि चढ़नेवाले के सर्वकालों की अपेक्षा उतरनेवाले के सर्वकाल हीन होते हैं जैसे चढ़नेवाले के सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे उतरने वालेका सूक्ष्मसाम्परायकाल अन्तर्मुहूर्त होन होता है । इसप्रकार चढ़ने श्रीर उतरने सम्बन्धी सर्वकालों में परस्पर विशेष अधिकता व होनता लगा लेनी चाहिए | 1 1 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३१) क्षपणासार [ २७१ शङ्काः- अन्तरकरण करके प्रारोहक सम्बन्धी काल अनिमात कर दिया है वह काल उतरते समय लौटकर पुनः प्राप्त नहीं होता, क्योंकि जो काल बीत गया उसके पुनः आगमनमें विरोध है, फिर यह कैसे कहा गया कि नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तरकरण कालको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि इसप्रकारकी सम्भावना युक्तिसे बाह्य है । समाधान:- यह सत्य है कि वह काल पुनः नहीं पाने वाला है, यह इष्ट है, किन्तु अन्तरकरण करके और ऊपर चढ़कर तथा उपशान्तकषाय होकर पुनः नीचे उतरनेवाले जीवके उपशान्तकालसे ऊपर होकर स्थित हुअा यह नपुसकबेदका अनुपशान्तकाल, उपशामकके नपुसकवेदकी उपशामनाके कालसे, थोड़ा मिलानेसे सदृश परिणामवाला हो जाता है, ऐसा समझकर इसकालमें उपशामकके उक्तकालका उपचार करनेसे और यहींपर अन्तरकरणसम्बन्धी स्थानकी बुद्धिसे कल्पना करके यतः यह प्ररूपणा आरम्भ को है इसलिए कुछ विरुद्ध नहीं होती, क्योंकि उपशामकके कालके विपर्याससे गिरनेवालेके कालोंको विलोमकमसे स्थापितकर यह प्ररूपणा प्रारम्भ की है । इसलिए नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक अन्तरकरण अवस्था प्राप्त नहीं होती इस मध्यवर्तीकालके संख्यात खण्ड करके उनमें बहुत.भाग व्यतीत होकर व संख्यातबांभाग शेष रह जानेपर मोहनीयकर्म संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धको उल्लंघकर असंख्यात वर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है यह सुसम्बद्ध है। उसीसमय अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानिक ( लता, दारुरूप ) हो जाता है। मोहनीयकर्मका एक स्थानीय ( लतारूप ) अनुभागबन्ध व उदय संख्यातवर्षीय स्थितिबन्धके समकालीन था । संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धका अवसान (समाप्ति) होनेपर एक स्थानीय अनुभागबन्ध व उदय की भी परिसमाप्ति हो जाती है। अब उतरते समय लोभ संक्रमण, बंधावलि व्यतीत होनेपर उबीरणारिको प्ररुपणा सोन गाथाओंमें करते हैं लोहस्स भसंकमणं छावलितीदेसुदीरणतं च । णियमेण पडताणं मोहस्लणुपुस्विसंकमणं ॥३३१॥ १. जयधवल मूल पृ० १६०५-६ । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] कापणासार [गाथा ३३१ अर्थ:--लोभका असंक्रमण, छह आवलियां बीत जानेपर उदीरणा, मोहनीय का आनुपूर्वी संक्रमण ये नियम थे, किन्तु अधःपतन होनेपर इनसे विपरीत होने लगता है। विशेषार्थः-ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानसे गिरनेवाले सभी जीवोंके छह प्रावलियोंके बीत जानेपर ही उदीरणा हो ऐसा नियम नहीं रहा, किन्तु बन्धावलि व्यतीत होनेपर उदीरणा होने लगती है। उपशमश्रोणि चढ़नेवालोंके यह नियम बतलाया गया था कि नवोन बंधनेवाले कर्मोकी उदीरणा बन्धके छह आवलि पश्चात् ही हो सकती है, उससे पूर्व नहीं, किन्तु श्रेणिसे उतरने वालेके लिए यह नियम नहीं रहा। उनके एक आवलिके पश्चात् ही बंधे हुए कर्मोंकी उदीरणा होने लगती है । कुछ प्राचार्य ऐसा व्याख्यान करते हैं कि ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरते समय भी जबतक मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तबतक छह प्रावलियों के व्यतीत होनेपर ही उदीरणाका नियम रहता है, किन्तु जहांसे मोहनीय कर्मका स्थितिबंध असंख्यातवर्षप्रमाण होने लगता है वहांसे छह श्रावलि पश्चात् उदीरणाका नियम नहीं रहता। परन्तु यह व्याख्यान चूणिसूत्र ४८१ के अनुरूप नहीं है। उपशामकके अंतरक्रिया समाप्तिकालमें जो यह मोहनीयका प्रानुपूर्वी संक्रमण व संज्वलन लोभके असंक्रमणका नियम हो गया था वह नियमभी श्रेगिसे उतरने वाले के अनिवृत्तिकरणकालसे लेकर नष्ट हो गया अब मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वीसंक्रमण तथा लोभ का भी संक्रमण होने लगा। शङ्का-उपशमश्रेगिसे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथमसमयसे ही मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वी संक्रमण क्यों नहीं कहा गया ? समाधान नहीं कहा गया, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकमंके बन्धका अभाव होनेसे मोहनीयकर्मका संक्रमण सम्भव नहीं है। इसीलिए सक्षमसाम्परायमें संज्वलनलोभका संक्रमण भी नहीं होता। जबतक तोन प्रकारको माया (सज्वलनमाया, प्रत्याख्यानमाया, अप्रत्याख्यानमाया) का अपकर्षण नहीं होता तब तक मोहनीयकर्म के अनानुपूर्वीसंक्रमणकी उत्पत्ति नहीं होतो, क्योंकि संज्वलन लोभके प्रतिग्रहका अभाव होनेसे संक्रमणकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है।' १. जयघवल मूल पृ० १६०६-७ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३२-३३३ ] क्षपणासार [ २७३ विवरीयं पडिहरणदि विरयादीणं च देसघादितं। ... तह य असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धारणं ॥३३२॥ . लोयाणमसंखेज्ज समयपबद्धस्स होदि पडिभागो। .. .. तत्तियमेत्तहव्वस्सुदीरणा वदे तत्तोः ॥३३३॥ - 'अर्थ:--- ( उपशमश्रेणिसे उतरनेवालेके ) वीर्यान्तरायादि कर्मोका देशघाति बन्ध होता था वह विपरीत होकर सर्वघाति होने लगा। असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाका अभाव होकर एक समयप्रबद्ध के' असंख्यातलोकवें भाग मात्र द्रव्यको उदीरणा होने लगी। ' विशेषार्थ:-गाथा ३३० में कहे गए क्रम अनुसार संख्यातहजार स्थितिबन्धों के व्यतीत हो जाने पर वीर्यान्तरायकर्म अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्वांती हो जाता है। तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे अभिनिबोधिक ( मति ) ज्ञानावरण और परिभोगअन्तरायकर्म सर्वघाति हो जाते हैं। तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे चक्षुदर्शनावरण कर्म सर्वघाति हो जाता है। उसके पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे श्र तज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे मवधिज्ञानावरणोय, अवधिदर्शनाबरणोय और लाभान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं। तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं । उपशमणि चढ़नेवाले के इन बारहकर्मोका अनुभागबन्ध जिस क्रमसे देशघाती हुअा था, उतरनेवालेके उसी क्रमसे पश्चादनुपूर्वी द्वारा देशघातिकरण नष्ट होनेपर सर्वघाति अनुभागबन्ध हो जाता है । . तत्पश्चात् सहस्रों स्थितिबन्धोंके व्यतीत हो जानेपर असंख्यात समय प्रबद्धों की उदीरणा नष्ट हो जाती है । उपशमणि चढ़नेवालेके हजारों स्थितिबन्ध बीत जानेपर एक समयप्रबद्धके असंख्यातलोकवें भाग उदीरणा असंख्यातगुणी वृद्धिको प्राप्त होकर प्राय और वेदनीयकर्मीको छोड़कर शेष सर्वकर्मोंकी उदीरणा असंख्यात समय प्रबद्ध होने लगे थी, श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्वघाती अनुभागबन्धके पश्चात् पुनः १. एक समयप्रबद्धको असंख्यातलोकसे भाग देनेपर जो लब्ध मावे उतने प्रदेशासकी प्रसंख्यातलोकवें भाग संज्ञा जानना। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४३ क्षपणासार [ गाथा ३३४-३३५ असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा नष्ट होकर समयप्रबद्ध के असंख्यातलोक भागी ( असंख्यात लोकसे समय प्रबद्धको भाणित करने पर एक बार मान उहीरा वन होती है। उसोसमय मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, वेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष अधिक । स्थितिवन्धका जैसा अल्पबहत्त्व गाथा ३३० में कहा था वैसा ही अल्पबहुत्व यहां भी कहा गया है । विशेषता यह है कि पूर्व स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध बढ़ जाता है ।' . कमकरणके नाशका विधान ७ गाथायोमें कहते हैं तक्काले मोहणियं तीसीयं वीसियं च वेयणियं । मोहं वीसिय तीसिय वेयणीय कर्म हवे तत्तो ॥३३४॥ मोहं वीसिय तीसिय तो वीसिय मोहतीसयाण कर्म । वीसिय तीसिय मोहं अप्पाबहुगं तु अविरुद्धं ॥३३५॥ अर्थः-उसी काल ( समय ) में मोहनीय, तीसिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ), वीसिया ( नाम-गोत्र ) और वेदनीय इस क्रमसे उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय, तोसिय और वेदनीय' इस क्रमसे; उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय और तोसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय मोहनीय और तोसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय, तीसिय, मोहनीय इन अल्पबहुत्व क्रमसे स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थ:-जिसकालमें समयप्रबद्धको असंख्यातलोक प्रतिभागी उदीरणा प्रवृत्त होती है, उससमय मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, शेष घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, इससे नाम-गोत्र का स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस अल्पबहत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर और उपशमणिसे उतरनेवाला अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जाता है तब एक साथ मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध असणांतगुणा हो जाता है और इससे तीन घातियाकमोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक और वेदनोयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । अर्थात् एक बार में ही नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध तीन घातिया कर्मोसे नीचे आ १. जयघवल मूल पृ० १६०७-६ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३४-३५] क्षपणासार [ २७५ जाता है और नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है। इससे भी बेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष-अधिक होता है; क्योंकि परिणाम विशेषके कारण इसप्रकारके बन्धकी निर्वाधरूपसे सिद्धि होजाती है । उपशम श्रेरिण चढ़नेवालेके जिस स्थानपर नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ) कोंका स्थितिबन्ध एकसाथ असंख्यातगणा हीन हो जाता है, उस स्थानसे कुछ पूर्व उतरनेवालेके स्थितिबन्धमें उपर्युक्त परिवर्तन हो जाता है अर्थात् नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है। शङ्का-यदि ऐसा है तो नाम-गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक वृद्धिरूप क्यों होता है; असंख्यातगुणो वृद्धिरूप क्यों नहीं हो जाता? धान-श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्व स्थितिबन्धोंमें विशेष अधिकरूपसे वृद्धिको प्रवृत्ति होती है ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा ऐसे नियमका निनिबन्धनपना नहीं है, किन्तु निबन्धनरूपसे यहां चूर्णिसूत्रको प्रवृत्ति हुई है । पुनः इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होकर अन्तर्मुहूर्तकाल नीचे उतरकर वहां अन्यप्रकार के अल्पबहुत्व वाला स्थितिबन्ध होता है। अर्थात् इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है इससे नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यानगुणा होता है। इससे ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हए विशेष अधिक होता है। शङ्काः-पूर्व में ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिबन्धसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता था, पुनः एक साथ वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मों के स्थितिबन्धके सदृश कैसे हो गया ? समाधान:-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरङ्ग परिणाम विशेषके आश्रयसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मोंके स्थितिबन्धके सदृश होनेमें विरोधका अभाव है। रिण चढ़नेवाला जिसस्थानपर ज्ञानावरणादिके स्थिति Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] क्षपणासारा '' [गाथा ३३६ बन्धसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा अधिक करता है, उस स्थानसे कुछ पूर्व गिरनेवाला इसप्रकारका स्थितिबन्ध करता है। पुनः इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण के द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल अतिक्रान्त करके नीचे उतरनेवालेके अन्यप्रकारका स्थितिबन्ध होता है। - इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। एक साथ नाम-गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक हो जाता है, इससे मोहनीयको स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अंतरायकर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हुए विशेष अधिक होता है । ... शंका-'मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धसे नाम-गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध एकसाथ असंख्यातगुरणपनाके परित्यागके साथ विशेष हीन भावसे नीचे हो गया। यहां ऐसा क्यों ? - समाधान-परिणाम विशेषके आश्रयसे विशेषहीन होता है । ऐसा पूर्व में बहुतबार कहा जा चुका है। इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्धोत्सरण-सहस्र बीतनेपर एक साथ नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, इससे चारकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) का स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक होता है, इससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। परिणाम विशेष के कारण मोहनीयके स्थितिबन्धसे चारकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष हीन हो जाता है ।' यहांपर क्रमकरण नष्ट हो जाता है। .. .. 1. “कमकरणविणहादो उवष्टिविदा विसेसहियाभो । सञ्चासिं सगणद्धे हेट्ठा सव्वासु महियकर्म ।।३३६॥ अर्थः-क्रमकरण नेष्ट होने के पश्चात् ('पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके अनुसार कर्मों का परस्पर विशेष अधिक क्रमसेजो स्थितिबन्ध होते हैं उनमें विशेष अधिकका प्रमाण अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थितिके अनुपातसे होता है । उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले के १. जयधबल मूल पृ. १६०८-१६०६ सूत्र ४६४-५१२ । २. एत्तो पहुडि सब्बत्थेव अप्पप्पणो उक्कस्स्स टिदिबध पडिभागेण विसेसाहियत्तमुवगंतव्वं ( ज.ध. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३७-३३८ ] क्षपणासार [ २७७ नीचे उतरकर जब पत्य के प्रसंख्यातवें भाग स्थितिबन्ध नहीं होता अर्थात् जबतक संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तबतक एक स्थिति से दूसरा स्थितिबन्ध विशेष अविक होता है' । विशेषार्थः - पूर्वोक्त स्थितिबन्धोंके द्वारा क्रमकरणका विनाश हो जाने के पश्चात् स्थितिबन्धों में जो नाम गोत्र कर्मकी स्थितिसे ज्ञानावरणादिकी स्थिति विशेष अधिक बंधती है वहां पर विशेष अधिक प्रमाण नाम - गोत्रकी स्थितिका द्वितीयभाग है, क्योंकि नाम गोत्रको उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है और ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा कोड़ीसागर है। ज्ञानावरणादिकी स्थितिसे मोहनीयको स्थिति विशेष अधिक बंधती है वहां विशेष अधिकका प्रमाण ज्ञानावरणादिकी स्थिति का तृतीयभाग है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ोसागर व चालीस कोड़ाकोड़ी सागर में यह अनुपात है । नीचे उतरते-उतरते श्रेणिसे गिरनेवाले के जबतक स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्ष रहता है प्रसंख्यातवर्ष नहीं होता अर्थात् पल्यका असंख्यातवां भाग नहीं होता तब तक पूर्ण स्थितिबन्धसे अगला स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है गुणाकाररूप नहीं होता । जत्तोपाये होदि ह असंखवरसप्पमाण ठिदिबंधो । तत्तोपाये भरणं ठिदिबंध मसंखगुण्यिकमं ॥ ३३७ ॥ एवं पल्लासंां संां भागं च होई बंधेण । तत्तोपाये भगां ठिदिबंधो संखगुणियकमं ॥ ३३८ ॥ अर्थ :- जिस स्थल पर स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षप्रमाण होता है उस स्थलसे लेकर अन्य स्थितिबंध असंख्यातगुरिंगत क्रमसे होते हैं । इसकमसे पल्य के असंख्यातवें भाग व पल्यके संख्यातवें भाग स्थितिबन्ध होता है । उस स्थलके ( पल्य के संख्यातवें भाग ) पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित क्रमसे होते हैं । ९. तदो एव विहट्ठदिबंधपरावन्तारगण जहाकमं कारण हेट्ठा श्रोदरमारणस्स पुगो वि संखेज्जसहस्सतारिट्ठदिबंध भुस्सरणारण एदेव कमेण दिव्वाणि जाव सध्व पच्छिमो पलिदो प्रसंखभागजो ट्ठदि बंधोति । ( ० ० मूल पृ० १६१० १ १-२ ) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २७८] [ गाथा ३३६-३४० विशेषार्थः-जहांसे लेकर नाम-गोत्र श्रादि कर्मोका स्थितिबन्ध प्रथमबार असंख्यातवर्षका होता है वहांसे लेकर जबतक पल्यके असंख्यातभाग स्थितिबन्ध नहीं होता इस अन्तरालमें अन्य-अन्य स्थितिबन्ध पुनः पुनः असंख्यातगुणवद्धिसे बढ़ता है, क्योंकि वहांपर पर्यायान्तर असम्भव है । इस क्रमसे सातों ही कर्मोका स्थितिबन्ध एक साथ पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण होकर पल्पके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है । शंका-श्रेरिण चढ़नेवालेके सातोंकर्मोंका दूरापकृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे हुआ था, किन्तु उतरनेवालके सातोंकर्मोंका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवेंभागसे संख्यातवेंभागप्रमाण होना एक साथ केस सम्भव है। समाधान-ऐसी शका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि श्रेणिसे उतरनेवाले के परिणाम-माहत्म्यसे सातकर्मोका एकसाथ पल्यके असंख्यातवेंभागसे पल्यके संख्यातवेंभाग होने में विरोधका अभाव है। इस स्थलसे लेकर आगे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य-अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुरिणत क्रमसे होते हैं, क्योंकि पल्यके संख्यातवें भाग स्थितिबन्ध होनेके पश्चात् संख्यातगुणवृद्धिके अतिरिक्त पर्यायान्तर असम्भव है ।' मोहस्स य ठिदिबंधो पल्ले जादे तदा दु परिवड्डी। पल्लस्स संखभागं इगिविगलासएिणबंधसमं ॥३३६॥ मोहस्त पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च । दुतिचाप्तत्तमभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥३०॥ अर्थः-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यप्रमाण हो जानेपर स्थितिबन्धमें पल्पके संख्यातवेंभाग वृद्धि होती है । पुनः क्रमसे एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होजाता है । मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध है पल्य अर्थात् पौन पल्य और दोकर्म ( नाम-गोत्र ) का स्थितिबन्ध अर्ध पल्यप्रमाण होता है । एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितिबन्ध होनेपर नाम-गोत्रका दो बटे सात (3) भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण, १. जय धवल मूल पृ० १६१० सूत्र ५१३-५१५ । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३९-४०] क्षपरणासार [२७६ वेदनीय व अन्तरायका तीन बटे सात (3) तथा मोहनीयकर्मका चार बटें सात (3) भाग स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ:---इसप्रकार संख्यातगुणवृद्धिके क्रमसे बढ़ता हुआ सभी कर्मोके पल्यके संख्यातवेंभागप्रमाण संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर वृद्धिंगत अपूर्वस्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेंभागप्रमाण होता है। पल्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण स्थितिबन्धों में संख्यातगुणी वृद्धि होते हुए जिस कालमें मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण पल्यप्रमाण हो जाता है उससमय पल्य के संख्यातवेंभागप्रमाणवाले पूर्व स्थितिबन्धमें पलाके संभावनापरवाए. अपूर्ववृद्धि होती है, अन्यथा पल्यप्रमाण स्थितिबन्धकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। उससमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोके स्थितिबन्ध में अपूर्ववृद्धि होकर कुछअधिक चतुर्थभागकम पल्यप्रमाण अर्थात् कुछकम अथवा देशोन तीन चौथाई पल्यप्रमाण ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धको वृद्धि होती है। पल्योपमके चारभाग करके उनमेंसे एक चतुर्थभागको निकालकर शेष तीन चतुर्थभागको ग्रहण करनेपर ज्ञानावरणादि चारकर्मोके तात्कालिक स्थितिबन्धका प्रमाण होता है। इसका कारण यह है कि चालीस (४०) कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिवाले मोहनोयकर्मका यदि एक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तीस कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिवाले ज्ञानावरणादि कर्मोका कितना स्थितिबन्ध होगा ४० | १|३०| इसप्रकार राशिक करनेपर उसका प्रमाण ह पल्य प्राप्त होता है । इस तोन चतुर्थभागमें से पूर्व स्थितिबन्धके प्रमाण पल्यके संख्यातवेंभागको घटानेपर कुछ कम पत्यका तीन बटा चार (3) शेष रहता है, यही यहांको वृद्धिका प्रमारण है। इसीप्रकार राशिक क्रमसे नाम व गोत्रका तत्कालिक स्थितिबन्ध अर्धपल्यप्रमाण होता है। इसमेंसे पत्यके संख्यातवेंभागप्रमाण पूर्व स्थितिबन्धको घटानेपर कुछकम अर्धपल्यप्रमाग वृद्धि का प्रमारण प्राप्त होता है । जिससमय यह अपूर्ववृद्धि होती है उस समय मोहनीय कर्मका ज-स्थितिबंध पल्पोपमप्रमाण, ज्ञानावरगादि चार कमौका जस्थितिबन्ध चतुर्थभागसे होन पल्योपमप्रमाण, नाम व गोत्रका ज-स्थितिबन्ध अर्धपत्यो. पमप्रमाण होता है 1'. . शङ्का-ज-स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ? - • १. ज. ध. मूल पृ. १९१०-११ सूत्र ५१६-५२२ । .... . . . . . . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] सपणासार गाथा ३४१ समाधान:-पावाधा सहित स्थितिको ज-स्थिति' कहते हैं । इस स्थलसे अर्थात् मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होने के पश्चात् प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर तबतक पल्योपमके संख्यातवेंभागसे वृद्धि होती है जबतक जितना अनिवत्तिकरणकाल शेष है और सर्व अपूर्वकरणकाल है। अर्थात् अनिवृत्तिकरणका संख्यातबहभागप्रमाण काल और अपूर्वकरणका सर्वकाल शेष है। पल्यके स्थितिबन्धके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त, अनिवृत्तिकरणकालमें, मोहनीयकर्म का स्थितिबन्ध एकसागरके चार बटै सात (७) एकेन्द्रियके स्थितिबन्ध सदृश हो जाता है। शेष कर्मोका अपने-अपने प्रतिभागसे एकेन्द्रियके समान बन्ध होता है। अर्थात् ज्ञानावरणादि चारकर्मोंका एकसागरके सात भाग में से तीनभाग प्रमाण (सागर) तथा नाम व गोत्रकर्मका एकसागरके सातभागोंमेंसे दोभाग प्रमाण ( : सागर) स्थितिबंध होता है । इसी क्रमसे स्थितिबंध पुनः बढ़ता हुया यथाक्रम द्वीन्द्रियके समान, श्रीन्द्रियके समान, चतुरिन्द्रियके समान और असंजीपंचेन्द्रियके समान २५, ५०, १००. १००० सागरके , , प्रमाण हो जाता है। यह सब अनिवृत्तिकरणकालके भीतर ही हो जाता है। अव अवरोहक अनिवृत्तिकरणके चरमसमयका स्थितिबन्ध कहते हैं तत्तो अणियटिस्स य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं । लक्ख पुधत्तं बंधो से काले पुवकरणो हु ॥३४१॥ अर्थ:- उसके पश्चात् श्रेणिसे गिरता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणास्थानके अंत को प्राप्त हो जाता है उससमय लक्षपृथक्त्वसागरका स्थितिबन्ध होता है पुनः अनन्तरसमयमें अपूर्वकरण गणस्थानको प्राप्त हो जाता है। १. अर्थात् वृद्धिसहित पूरा स्थितिबन्ध । अथवा सवृद्धि, मूलस्थितिबन्धः-ज-स्थितिबन्ध ( जयघवल मूल पृ. १९१२) २. "सादस्स उक्कसमो विदिबंधो विसेसाहियो ।॥ २२७ ॥ जििहदिबंधो विसेसाहियो ।। २८८ ॥ केत्तियमेत्तेण? सग-माबाधामेत्तए । भसादरस उक्कस्सा दबंधो विसेसाहिमो ।। २३१॥ जटिदिबंधी विसेसाहियो ॥२३२॥ केत्तियमेतोण ? तिपिणवाससहस्स मेत्तए । जढिदिबंधो रणाम प्राबाहाए सहिद" ( ध० पु० ११ पृ० ३३६-३४०-३४१) ३. जयधवल मूल पृ० १९१२ सूत्र ५२३-५२५ । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४२) क्षपणासाय [ २८१ विशेषार्थ:-तत्पश्चात् असंज्ञी के समान बंधसे आगे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होनेपर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयको प्राप्त हुआ वहां मोहनीय, तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीप, अन्तराय ) बोसीय (नामगोत्र) कर्मोका क्रमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमपृथक्त्वलक्ष सागरोंका और 3 भागप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। उसके अनन्तरवर्ती समयमें उतरनेवाले अपूर्वकरणको प्राप्त होता है। अपूर्वकरणमें होनेवाले कार्य विशेषको कहते हैं-- उवसामणा णिवत्ती णिकाचणुग्घाडिदाणि तत्थेव । चदुतीसदुगाणं च य बंधो भद्धापवत्तो य ॥३४२॥ प्रयः-श्रेरिणसे उतरते हुए अपूर्वकरणगुणस्थानको प्राप्त होनेपर अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति एवं निकाचना उद्घाटित-प्रगट हो जाते हैं और वहां पर क्रमश: चार, तीस व दो प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है। वहांसे गिरकर अधःप्रवृत्तकरणको प्राप्त हो जाता है। विशेषार्थ:--अनिवत्तिकरणका काल समाप्त हो जानेपर गिरकर अनन्तर समयमें अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है, उसीसमय अप्रशस्तोपशामनाकरण, निघत्ति. करण व निकाचनाकरण उद्घाटित हो जाते हैं, क्योंकि जो पूर्वमें अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके कारण उपशान्तभावसे परिणत थे अब अपूर्वकरण में प्रवेश होनेपर पुनः उद्भव हो जाता है। उस समय हास्य-रति, भय व जुगुप्साका बन्ध प्रारम्भ होनेसे मोहनीयकी नव प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है, उसीसमय हास्य-रति, अरति-शोकमें से किसी एक युगलका उदय होनेसे तथा भय व जुगुप्साका वैकल्पिक (भजनीय) उदय होनेसे इन छह नोकषायकी प्रागमसे अविरुद्ध पुनः प्रवृत्ति हो जाती है।' श्रेरिगसे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम सप्तमभागके चरमसमयमें पूर्वोक्त परभविक नामकर्म की देवगति, पंचेन्द्रियजाति प्रादि प्रकृतियोंका बन्ध परिणाम विशेषके कारण प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु पाहारकद्विक व तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध भजनीय है । उसके पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके हो जानेपर अपूर्वकरणके सात भागोंमें अन्य पांच भाग व्यतीत १५. पु. ६ पृ. ३३०; क. पा. सु. पृ. ७२५; जयघवल मूल पृ. १६१३ । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -11. - - - . २२] क्षपणासार [गाथा ३४३ हो जानेपर छठे भागके अन्तिमसमयमें निद्रा और प्रचला. इन दो प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो जाता है। निद्रा-प्रचलाका बन्ध प्रारम्भ हो जानेके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तमभागको बिताकर श्रोणिसे उतरनेवाला अपूर्वकरणके चरमसमयको प्राप्त हो जाता है, उससमय पृथक्त्वलक्षकरोड़ सागर अर्थात् अन्तकोडाकोडीसागर स्थितिबन्ध हो जाता है । श्रेणिसे उतरनेवाले सभीके स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात नहीं होते ।' मात्र गलितावशेष आयामवाली गुणश्रेणि होती है, प्रतिसमये असंख्यातगुणाहीन" द्रव्य अपकषित होता है। तदनन्तर समयमें अनन्तगुरगोहीन विशुद्धिके कारण गिरकर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हो प्रथम समयवतीं अधःप्रवृत्त हो जाता है । . . . . . ...... अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें अवस्थित गुणगिका निर्देश करते हैं पढमो अधापवत्तो गुणसे ढिमवहिदं पुराणादो। -. :: ... ... ... . संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु॥३४३॥ - अर्थः--अधःप्रवृत्त करणके प्रथमसमयमें अवस्थित गुणश्रेणिको करता है जिसका आयाम पुरातनं गुणश्रेणियायामसे संख्यातगुणा होते हुए भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । विशेषार्थः-श्रेणिसे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमें जितने प्रदेशाग्रका अपवर्तन हुआ था उससे असंख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्रको 'अपकर्षित करके प्रथमसमयवर्ती अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेरिण करता है। जो प्रथमसमय सूक्ष्मसाम्परायके द्वारा अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक आयाममै पुरातन गुणश्रेरिण निक्षेप द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोंका निक्षेप हुआ था । अब उससे संख्यातगुणे प्रायामके द्वारा गुणोरिण विन्यास करता है, क्योंकि मन्दतर विशुद्धि के कारण सर्वत्र गुणश्रेणिआयाम फैल जाता है अर्थात् बढ़ जाता है । .. ... १. सम्बस्सेव भोदरमारणयस्स गरिय द्विदिघादो अणुभागधादो वा । जय धवल' मूल पृ० १९२६ ... एवं १९१३ । । - . . . . . . . . . . . . . २. ज. प. मूल पृ. १९१३ सूत्र ५२६-५३३ । ३. ज. घ. मूल पृ. १९१४ सूत्र ५३६ । घ. पु. १२ पृ. ७८; त. सू. भ. सू. ४५ । क. पा. सु. प. ७२६; ध. पु. ६५. ३३० ।' Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a ८. गाथा ३४३ ] गलिताबशेष गुरुन लि नं० १ का निषेक गल जानेपर निषेककी गुण ि श्रवस्थित गुण ि ९. निषेकोंकी गलितावशेष गुण ि क्षपणासार..... नं० १ का निषेक गल जानेसे उपरितन स्थिति का नं० ६ का निषेक गुणश्रेणि में आ गया। उपस्तिन स्थिति T झ.." .. ... २५ 15. CA 21 1/2" उपरितन स्थिति [ २८२. X अवस्थित गुणश्रेणि अवस्थित गुणखेति Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] क्षपणासार [ गाथा ३४४ प्रागे प्राचीन गुणश्रोणिके विशेष निर्देश करते हैं मोदरसुहमादीदो अपुवचरिमोति गलिदसेसे व । गुणसेढी णिस्खेबो सहाणे होदि तिट्ठाणं ॥३४४॥ अर्थः-श्रेणिसे उतरते हुए सूक्ष्मसाम्परायकी आदिसे लेकर अपूर्वकरण के अन्त पर्यन्त गलितावशेष गुणश्रेणि निक्षेप होता है, किन्तु स्वस्थानसंयमीके गुणश्रेणिके तीन स्थान होते हैं। विशेषार्थ-उतरने वाले सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयसे लेकर अपर्वकरणके चरमसमयपर्यन्त ज्ञानाबरणादिकर्मोका गुणश्रेणि-आयाम गलितावशेष है, क्योंकि शेष शेषमें निक्षेप होता है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर कितने ही काल पर्यन्त गुणश्रोणिपायाम अवस्थित होता है । पश्चात् अन्य कर्नोका गुणश्रेणि पायामके समान मोहनीयकर्मका गुणश्रेणी मायाम गलितावशेष होता है, क्योंकि तीन स्थानों में वृद्धिको प्राप्त होकर अवस्थित गुणश्रेणि पायाम होता है । ___ यथा--उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयसे लेकर अवस्थित गुणश्रेणि आयाम ही है। तथा स्पर्धकरूप बादरलोभके द्रव्यके अपकर्षणमें एकबार गुणश्रेणि अायाम वृद्धिंगत होकर बादरलोभ वेदककाल पर्यन्त अवस्थित रहता है । मायाके द्रव्य का अपकर्षण में दूसरोबार वृद्धिको प्राप्त होकर मायाके वेदककाल पर्यन्त अवस्थित गुणश्रेणि पायाम रहता है। मानके द्रव्यका अपकर्षण में तीसरीबार बढ़कर मानके वेदककाल पर्यन्त अबस्थित गुणश्रेणि आयाम रहता है। इसप्रकार तीनबार अवस्थित गुणश्रेणि-आयाम होता है । पुनः चौथीबार क्रोधके अपकर्षणमें बढ़कर अपूर्वकरणके अंतपर्यन्त अन्यकर्मों के समान मोहनीयकर्मका भी गलितावशेष गुणधैणि पायाम होता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त पुराने गुण रिण आयामसे संख्यातगुणा ज्ञानावरणादिकर्मीका अवस्थित गुणश्रेणि-आयाम होता है । अधःप्रवृत्तकरणका जितना अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकाल है उतने काल में प्रतिसमय एकान्तरूपसे अनंतगुणीहीन विशुद्धतासे उतरकर पश्चात स्वस्थान अप्रमत्त होता है | उससमय गुणश्रेणि के तीन स्थान होते हैं जिनका कथन आगे करते हैं।' १. ज.ध. मूल. पत्र १६१४ मूत्र ५३७ की टीका । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४५] क्षपणासार [ २८५ अथानन्तर स्वस्थामसंयमीके गुणणि आयाम सम्बन्धी तीन स्थानों का कपन करते हैं सट्ठाणे तावदियं संखगुणणं तु उवरि घडमाणे । विरदाविरदाहिमहे संखेज्जगणं तदो तिविहं ॥३४५॥ अर्थ:-उपशमश्रेरिणसे उतरनेवालेके स्वस्थान संयत होनेपर भी गुणश्रेणि मायाम उतना ही रहता है । पुनः ऊपर चढ़नेपर गुणश्रेणि-मायाम संख्यातगुणाहीन हो जाता है । विरताविरतके अभिमुख होनेपर गुणश्रेरिणायाम संख्यातगुणा हो जाता है। विशेषार्थ:---उपशम रिगसे उतरनेवालेके अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमय में जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण वाला गुणश्रेणि निक्षेप ( आयाम ) था वह अन्तर्मुहूर्तकालतक अवस्थित रहता है, क्योंकि वृद्धि हानिके कारणोंका प्रभाव है, किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा नियमसे हीयमान है कारण कि विशुद्धि में अनन्तगुणी हानिके कारण परिणाम हीयमान होते हैं । अन्तर्मुहूर्तकाल बीत जाने के पश्चात् गुणश्रेणियायाम कथंचित् वृद्धिको प्राप्त होता है, कथंचित् घटता है और कथंचित् अवस्थित रहता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर अन्तमुहर्तकालतक अवस्थित गुणश्रेणियायाम में गुणश्रेणि निक्षेप करके उसके पश्चात् गुणश्रेणिनिक्षेपके आयाममें वृद्धि-हानि और अवस्थान इन तीनमें से कोई एक अवस्था होती है। स्वस्थान अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थानों में झूलनेवालेके अवस्थित पायामवाला गुणश्रोणि निक्षेप होता है । संयमासंयम गुणस्थानको गिरकर प्राप्त होनेवालेके गुणश्रेणिनिक्षेपका पायाम संख्यातगुणवृद्धिके द्वारा बढ़ जाता है । नीचे गिरकर प्रागम-अविरोधसे पुनः उपशम या क्षपकणि चढ़नेवाले के पूर्व गुणश्रेणिशीर्षसे नीचे संख्यातगुणहानिके द्वारा हीन होकर गुणश्रेणि निक्षेपका आयाम होता है। इसीप्रकार सभी गुणश्रेणिनिक्षेपोंके प्रायामके विषय में समझना चाहिए । प्रदेशोंकी अपेक्षा वृद्धि हानि और अवस्थान विषय विभागको जानकर लगा लेना चाहिए। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालको छोड़कर उसके आगे स्वस्थान संयत भाक्से वर्तन नहीं करनेवालेके संक्लिष्ट विशुद्ध परिणामोंके वशसे वृद्धि-हानि और अवस्थान Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६. क्षपणासार सम्भव है, क्योंकि विप्रतिषेधका अभाव है । ' करते हैं [ गाया ३४६-४७ अथानन्तर अबरोहक प्रप्रमत्तके अधःप्रवृत्तकरण में संक्रम विशेषका कथन करणे धावत अधापवत्तो दु संकमो जादो । विकादबंधाणे गट्ठो गुणसंकमो तत्थ ॥ ३४६ ।। अर्थ - गिरते हुए गुणसंक्रमण नष्ट हो जाता है और श्रथःप्रवृत्तसंक्रमण होने लगता है । अबन्ध प्रकृतियोंका विध्यात संक्रमण होता है । 1 विशेषार्थ -- श्रपूर्वकरणसे उतरकर अधःप्रवृत्तकरण में प्रवेश करनेपर प्रथम समय में गुणसंक्रमण व्युच्छित हो जाता है और बंधनेवाली प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता ऐसी नपुंसकवेद आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रमण होता है । अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण होता है । परिणामों में विशुद्धिकी. हानि होनेके कारण अधःप्रवृत्तकरण में गुणसंक्रमण अर्थात् प्रत्येक समय में द्रव्यका गुणाकाररूपसे संक्रमण होना रुक जाता है और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा भाजित द्रव्यका अधःप्रवृत्त संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। संज्वलनकषाय, पुरुषवेद आदि बंधनेवाली प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण होने लगता है । प्रबन्ध प्रकृतियोंके द्रव्यको विध्यांतभागहारका भाग देनेपर जो एकभागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उतने द्रव्यका विध्यात संक्रमण होता है । ' Singe TSR श्रथ दो गाषाओं में द्वितीयोपशमसम्यक्त्व के कालका प्रमाण कहते हैंचडणोदरकालादो पुवादो पुत्रगोति संखगुणं । कालं प्रधावतं पालदि सो उवसमं सम्मं ॥ ३४७ ॥ अर्थ--- द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित जीव चढ़ते हुए अपूर्वकरणके प्रथमसमय से लेकर उतरते हुए अपूर्व करके अन्तिमसमयपर्यन्त जितनाकाल हुआ उससे संख्यात -:गुरगाकाल अधःप्रवृत्तकररणसहित इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । : " १. जयधवल भूल पृ० १६१४ सूत्र ५३८- ५३६ ॥ २. जयधवल मूल पू० १६१४६० पु० ६ पृ० ३३०-३३१० क० पा० सुत्त पु० ७२६ एवं घ० पु० ६ पृ० ४०६ । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४८] क्षपणासार [२७ - विशेषार्थ:-उपशमणि पर आरोहण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर चारित्रमोहकी २१ प्रकृतियों का सर्वोपशम करके उतरते हुए पुनः प्राप्त अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिमसमयतक जो कालका प्रमाण, उसकालसे संख्यात गुरिणत कालतक लौटता हुआ अधःप्रवृत्तबारसके सा. द्वितीय भसार शस्यपदाने पालता है। अर्थात् उपशमनं रिग चढ़ने और उतरने में जितना काल लगता है उससे भी संख्यातगुणाकाल अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानका काल है । इस गाथाके द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालका महत्त्व बताया गया है।' तस्सम्मत्तद्धाएं असंजमं देससंजमं वापि । गच्छेज्जावलिछक्के सेसे सासणगुणं वापि ॥३४८॥ " अर्थ-इस द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें गिरकर असंयमको प्राप्त हो जावे 'अथवा देशसंयमको प्राप्त हो जावे अथवा छह प्रावलियोंके शेष रहनेपर सासादनगुरंगस्थानको भी प्राप्त हो जावे ।। विशेषार्थ-उपशमश्रेणिसे उतरने के पश्चात् अप्रमत्त-प्रमत्त गुणस्थानमें भ्रमण करते हुए यदि अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानाबरण दोनोंप्रकारको कषायोंका उदय हो जावे तो असंयत नामक चतुर्थगुणस्थानमें तथा यदि मात्र प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होजावे तो देशसंयम नामक पंचमगुणस्थानमें अथवा देशसंयमसे असंयम को या असंयमसे देशसंयमको अर्थात दोनों गणस्थानोंको प्राप्त: हो जावे । अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके काल में उत्कृष्ट छह प्रावलियां और जघन्य एकसमय शेष रहने 'पर यदि परिणामोंके कारण अनन्तानुबन्धी कषायको संयोजना होकर. उदय हो जावे तो सासादनगुणस्थान में प्रा जावे। जिसने विसंयोजनाके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्क को निःसत्त्व कर दिया है उसके भी परिणाम विशेषके कारण शेष कषायोंका द्रव्य . उसीसमय अनन्तानुबन्धी कषायरूपसे परिणमनकर अनन्तानुबन्धीकषायका उदय हो जाता है और वह सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । यह श्री यतिवृषभाचार्यका १. ज. घ. मू. पृ. १६१५ सूत्र ५४१ । घ. पु.६ १.३३१: ध. पु ५ पृ. १४ पर प्रप्रमत्तगुणस्थानके मन्तरके कथनसे इस गाथाकी पुष्टि होती है। । .. :: ... . . : १२. जयघवल मूल पृ. १६१६ सूत्र ५४२-४३ । .. . . .. ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४; ज. प. पु. १० पृ. १२४ । । . . . . . . Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] क्षपणासार [गाथा ३४६-५० मत उनके कषायपाहुड़ के चूणिसूत्रमें प्रतिपादित है, किन्तु षट्खण्डागमके कर्ता श्री पुष्पदन्त-भूतबलीका यह मत नहीं है ।' अब द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसे सासावन प्राप्त जीवके मरणका कथन करते हुए उस सासावमगुणस्थायी जीवफा अन्य गतिमय पर यहीं होने के कारणका निर्देश करते हैं जदि मरदि सासणो सो णिस्यतिरिक्त्रं परं ए गच्छेदि । रिणयमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥३४६।। णरतिरियकवणराउगसत्तो सक्कोण मोहमुवमिदु । तम्हा तिसुवि गदीसु ण तस्स उप्पउजणं हादि ॥३५०।। अर्थ:--उपशमरिगसे उतरा हुआ जो सासादन जीव है वह आग्रु नाशसे मरण करे तो नरक, तिर्यंच व मनुष्यगतिको प्राप्त नहीं होता नियमसे देवगतिको ही प्राप्त होता है । इस प्रकार उपशमश्रणोसे उतरनेवाले जीवके सासादनगणस्थानकी प्राप्ति और उसके मरण होने का विशेष कथन कषायप्राभृतग्रन्थके चणिसूत्रोंमें यतिवृषभाचार्यने प्रतिपादित किया है उसीके अनुसार यहां कथन किया गया है। बध्यमान नरकायु, तियंचायु और मनुष्यायुके सत्त्ववाले मनुष्यके मोहनीयकर्म का उपशम होना शक्य नहीं है इसलिए इन तीन गतियों में उसका उत्पाद नहीं होता। विशेषार्थ:-उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर मरता है तो नरकगति, तिर्यंचगति अथवा मनुष्यगतिको नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि ऐसा नियम है कि नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इन तीनों आयुमेंसे किसी भी एक आयुको बांधनेवाला मनुष्य अणुव्रत-महानत ग्रहण तथा कषायोंका उपशम करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसकारण उपशमणिसे उतरकर सासादनगण१. "वसमसेढोदो प्रोदिणाणं सासणगमणाभावादो । तं वि कुदो एव्वदे ? एदम्हादो चेव भूदबली वयरणादो। ( घ० पु० ५ १० ११) २. प्रासाणं पुणगदो दि मरदि, ए सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणसदि । रिणयमा देवगदि गच्छदि । (क. पा. सुत्त पु, ७२७ सूत्र ५४५) ३. "अण्णुव्वदमहध्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्त" ( गो के. गा. ३३४); गो. जी. गा. ६५३; प. पु. ६ पृ. ३२६, प्रा. पं. सं प्र. ६ गा. २०६; देवायु के बन्ध बिना अन्य तीन प्रायके बन्धवाला अणुनत-महानत धारण नहीं कर सकता । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ३६१]. क्षपणासार [ २८९ स्थानको प्राप्त मनुष्य नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्यगतिको प्राप्त नहीं होता, किन्तु नियमसे देवगतिको प्राप्त होता है। पूर्वमें जिसने आयुका बन्ध नहीं किया उसका यहांपर मरण सम्भव नहीं है'। अब उपशमणिसे उतरते हुए जीवके सासादनको प्राप्तिके प्रभावका कथन करते हैं उसमसेढीदो पुण मोदिगणो सासणं ण पाउणदि । भूदवलिणाहणिम्मलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥३५१॥ अर्थः-उपशमणिसे उतरता हुया सासादनगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता ऐसा श्री भूतबलीमुनिनाथ द्वारा विरचित निर्मलसूत्रका प्रगट उपदेश है । विशेषार्थ:-श्री गुणधराचार्यने गाथानों द्वारा कषाय पाहुड़की रचना की है जिसपर यतिवृषभाचार्यने चूणिसूत्रकी रचना की। उस चणिसूत्रके अनुसार उपशम श्रेणिसे उतरता हुआ सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है सौर श्री वीरसेन आचार्यने भी कषायपाहुड़ पर लिखी गई अपनी जयधवला टीकामें पूर्ण समर्थन किया है जैसा कि जयधवल पु० ४ पृ० २४ व पु० १० पृ० १२४ से स्पष्ट है । श्री धरसेनाचार्यको द्वादशांगका एकदेश ज्ञान था । श्री पुष्पदन्त भूतबलो आचार्योंकी द्वादशांगके सूत्र श्रीधरसेनाचार्यसे प्राप्त हुए, जिनको उन्होंने षट्खण्डागमरूपसे लिपिबद्ध किया उसपर भी वीरसेनाचार्यने ही धवला टीका रची। उस षट्खण्डागमका प्रथमखण्ड जोवस्थान है। तत्सम्बन्धी सत् प्ररुपणासूत्रोंको तो श्री पुष्पदन्ताचार्यने लिपिबद्ध किया और शेष सूत्रोंको श्री भूतबली प्राचार्यने लिपिबद्ध किया। जीवस्थान सम्बन्धी अन्तरानगमका ७वां सूत्र इसप्रकार है.-"सासणसम्मादिठिणमंतर केचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेरण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो।" सासादन सम्यग्दृष्टि जीवका अन्तर कितने कालतक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमके १. जयधवल मूल पृ० १६१६-१७ । क. पा० सुत्त पृ० ७२७ सूत्र ५४४-४६ । २. व. पु. ५ पृ० ११ । ३. जइसो कसाय उवसामणादोपरि वदिदो दंसणमोहणीय उपसंतदाए प्रचरिमेसु समएसु मासाएं गच्छइ तदो पासाणगमरणादो से काले पणवीसं पपडीमो पविसंति । ( ज. प. पु. १० पृ. १२३) Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९! यसम्सार [ गाथा ३५२-५३ असंख्यातवेंभागमात्र है। इस सूत्र पर शङ्का व समाधान इसप्रकार है--"सासरणपच्छायदमिच्छाइछि संजमं गेण्हाबिय दंसणतियमुवसामिय पुणो चरित्तमोहमुवसामेदूण हेट्ठा प्रोयरिय प्रासाणं गदस्स अंतोमुहुत्तरं किण्ण परूविदं ? ण, उवसमसेढीदो श्रोदिण्णाणं सासरणगमणाभावादो। तं वि कुदो णबदे ? एदम्हादो चेव भूदबली वपणादो।" राडा-सासादनगुणस्थानसे पीछे लौटे हुए मिथ्यादृष्टिजीवको संयम ग्रहण कराकर और दर्शनमोहनोयकी तीन प्रकृतियोंका उपशामन कराकर पुनः चारित्रमोहका उपशम कराकर नीचे उतारकर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके अंतर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर क्यों नहीं बताया ? समाधान:-- नहीं, क्योंकि उपशमणिसे उतरनेवाले जीवोंके सासादनगुरणस्थानमें गमन करनेका अभाव है। सडा---यह कैसे जाना? समाधान:--भूतबली आचार्यके इसी वचनसे जाना जाता है । इसप्रकार अवरोहकके सासादनाभावका निर्णय किया गया। अथानन्तर उपशमणि चढ़नेवाले १२ प्रकारके जीवोंकी क्रियामें पाये जाने । वाले मेवका कथन १२ गाथाओंमें करते हैं कोधोदयचलियस्सेसाह परूवणा हु पुमाणे। मायालोहे चलिदस्सस्थि विसेसं तु पत्तेयं ।।३५२॥ अर्थ-पूर्व में कही सर्व प्ररुपणा पुरुषवेद और क्रोधोदय सहित उपशमश्रेणी चढ़नेवाले जोवको कही गई है । पुरुषवेद और संज्वलन मान, माया या लोभ सहित उपशमश्रेणि चढ़नेवाले जीवोंमें से प्रत्येक की क्रिया विशेष है। उसीका कथन आगे करते हैं-- दोरहं तिरहं चउराह कोहादीणं तु पढमठिदिमिचं । माणस्स य मायाए बादरलोहस्स पढमठिदी ।।३५३॥ १. प. पु. ५ पृ. १०-११ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार . गाथा ३५४-३६० ] [२९१ जस्सुदयेणारूढो सेटिं तस्सेव ठविदि पढमठिदि । सेसाणावलिमत्त मोत्तण करेदि अंतरं णियमा ।।३५४॥ जस्सुदयेणारूढो सेढि तकालपरिसमत्तीए । पढमहिदि करे दि हु भणंतरुवरुदयमोहस्स ॥३५५॥ माणोदएण चडिदो कोहं उसमदि कोह अद्धाए। मायोदएण चडिदो कोहं माणं सगद्धाए ॥३५६॥ लोहोदएण चडिदो कोहं माणं च मायमुवसमदि । अप्पापरण अद्धाणे ताणं पढमहिदी पत्थि ॥३५७॥ माणोदयचडपडिदो कोहोदयमाणमेत्तमाणुदश्री। माणतियाणं सेसे सेससमं कुणदि गुणसेढी ॥३५८॥ माणादितियाणुदये घडपडिदे सगसगुदयसंपचे। णवछत्तिकसायाणं गलिदवसेसं करे दि गुणसेढी ॥३५६॥ जस्सुदएण य चडिदो तम्हि य उक्कट्टियम्हि पडिऊण । भंतरमाऊर दि हु एवं पुरिसोदए घडिदो ॥३६०॥ पर्यः-पुरुषवेद सहित क्रोधोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके क्रोध-मान-माया-लोभकी पृथक-पृथक् प्रथम स्थिति होती है। मानोदयसे श्रेणि चढ़नेबाले के क्रोधका उदय न होने से क्रोध और मान इन दोनोंको प्रथम स्थितिप्रमारग मानकी प्रथमस्थिति होती है। मायोदयसे श्रेरिण चढ़नेवाले के क्रोध मानका उदय नहीं अतः क्रोध-मान-माया इन तीन प्रथम स्थितिप्रमाण मायाकी प्रथमस्थिति होती है । लोभोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके क्रोध-मान-मायाका उदय नहीं अतः लोभकी प्रथमस्थितिका प्रमाण क्रोध-मान-मायालोभ इन चारकी प्रथमस्थितिके तुल्य है ।।३५३।। जिस कषायके या वेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसकी अन्तमुहर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर और शेष अनुदयरूप वेद व कषायोंको आवलिमात्र स्थितिको छोड़कर 'अन्तर' करता है ॥३५४॥ जिस १. देखो गाथा २४२ ( यही भाव है ); अयधवल पु० १३ पृ० २५३ । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] क्षपणासार [ गाथा ३५४-६० कषायोदयसे श्रेरिण चढ़ता है उसका ( प्रथमस्थिति ) काल समाप्त होनेपर उपरि अनन्तरवर्ती उदय में आनेवाली मोह ( कषाय ) की प्रथमस्थिति करता है ॥३५५।। मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवाला उदयरहित क्रोधको उसके काल में उपशमाता है, और मायासे श्रेणि चढ़नेवाला उदयरहित क्रोध और मानको उनके कालमें उपशमाता है ॥३५६१: ससोदयसे घोणि अमेवाला अनुश्य स्वरूप क्रोध-मान-मायाको अपने-अपने कालमें उपशमाता है, उदयरहित कषायोंको प्रथम स्थिति नहीं होती ॥३५७।। मानोदयसे श्रणि चढ़कर गिरनेवालेके क्रोध व मानके उदयकालप्रमाण मानोदयकाल होता है । त्रिविध मानकी गलितावशेष गुणश्रेणि होती है ॥३५८।। मान या माया अथवा लोभके उदयसे श्रेणि चढ़कर गिरनेवालेके अपनी-अपनी कषायके उदय होनेपर नव, छह, तीन कषायोंकी गलितावशेष गुणश्रेरिण होती है ।।३५६॥ जिस कषायोदयसहित चढ़कर गिरा हुआ जीव उस कषायको अपकर्षित कर अन्तरको पूरता है। यह पुरुषवेदोदयसहित जीवका कथन है ।।३६०॥ . विशेषार्थः-पुरुषवेदोदयसहित क्रोध, मान, माया या लोभके उदयके साथ उपशमश्रेणि चढ़नेवालेके अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर अन्तरकरण करके नपुसकवेद व स्त्रीवेदके उपशमानेके अनन्तर सात नोकषायको उपशामनाके अन्ततक कोई क्रोधसे रिण चढ़नेवाले की प्ररुपणा . और अन्य कषायसे उपशमश्रेरिण चढ़नेवाले की प्ररुपणामें कोई अन्तर नहीं है । क्रोधका वेदन ( अनुभव ) करते हुए उपशमश्रेरिंग चढ़नेवाला तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है, किन्तु मानोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला मानका वेदन करते हुए तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाता है। दोनोंके क्रोधके उपशमानेका काल सदृश है नानापन नहीं है। क्रोधोदयवालेके जहांपर क्रोध का उपशमनकाल है वहींपर मानवालेके क्रोधका उपशामना काल है। क्रोधसे चढ़ने: वालेके जिसप्रकार क्रोधकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्तप्रमाण थी उसप्रकार मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके क्रोधको अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाली प्रथमस्थिति नहीं होती, किन्तु अन्तर करनेपर मानकी प्रथम स्थिति होतो है । क्रोधोदयसे श्रेरिग चढ़नेवालेके जितनी क्रोध और मान दोनोंको प्रथम स्थिति थी उतनी मानोदय श्रोणि चढ़नेवालेकी मानकी प्रथमस्थिति होती है । . शंका-मानोदयसे श्रोणि चढ़नेवालेके मानकीः प्रथमस्थितिमें वृद्धि होकर Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९३ गाथा ३१४-६० ] क्षपणासार htधोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेसे मानकी प्रथमस्थितिमें विभिन्नता क्यों हुई ? समाधान-मानकी इतनी लम्बी प्रथम स्थिति के बिना नव नोकषाय, तीनप्रकारके क्रोध और तीनप्रकारके मानकी उपशामना क्रियामें समानता नहीं हो सकती थी । इसलिए मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवाले के मानकी प्रथमस्थिति, क्रोधोदयसे श्ररिंग चढ़नेवालेके क्रोध और मानकी प्रथमस्थितिके सदृश; जहांकी तहां होती है । मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवाले के इससे ऊपर शेष कषाय अर्थात् माया व लोभकी उपशामना विधि वही है । अब उपशमश्रेणिसे गिरनेवालेके विषय में विचार किया जाता है-मानकषायके उदयसे उपशमश्रं रिण चढ़कर उपशाला नागल ११ गुगास्थान में अन्तमुहूर्तकालतक ठहरकर गिरनेवाले जोवके जब कृष्टिगत व स्पर्धकगत तथा मायाका अपने-अपने स्थानपर वेदन करता है तबतक किंचित् भी नानापना ( विभिन्नता ) नहीं है, क्योंकि वहां पर वही पूर्वोक्त अवस्थित श्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप व दोनों कषायों का अपने-अपने पूर्व वेदककालमें वेदन करता है ।' उसके श्रागे मानका वेदन करनेवाले के विभिन्नता है । क्रोधोदयसे चढ़नेवाले व चढ़कर पुनः उतरनेवाले मानवेदकके अपने वेदककालसे कुछ अधिक अवस्थित गुणश्रेणि श्रथाम में निक्षेपणा होता है । क्रोधका श्रपकर्षण होनेपर बारह कषायोंकी ज्ञानावरणादि ahar गुण के सदृश प्रभार वाले गलितावशेष गुणश्र णि आयाम में विन्यास होता है, किन्तु मानोदयसे चढ़नेवाले व चढ़कर पुनः उतरनेवाले के तीन प्रकारके मानका अपकर्षरण होनेके अनन्तर ही नवकषायों का, ज्ञानावरणादि कर्मोकी गुराश्र शिके सदृश श्रायामवाली गलितावशेष गुणश्रेणिमें निक्षेप होकर अन्तरको पूरा जाता है, इतनी विभिन्नता है । जिस कषायोदयसे श्रोष्यारोह करता है उसी कषायको अपकर्षित करनेपर श्रन्तरको भरना व ज्ञानावरणादिकी गुण णिके तुल्य उदद्यावलिसे बाहर गलितावशेष गुण र निक्षेपका आरम्भ करता है । " १. जयघवल भूल पृ० १६१७-१८ सूत्र ५४८-५५७ । २. ज.ध. मूल पृ. १६१६ सूत्र ५६० की टोका Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३५४-६०: धोदयसे श्रेणि चढ़े हुए उपशामकके पुनः गिरनेपर जितना मानवेदककाल है उतने प्रमाणकालसे मानोदयसे श्रेणि चढ़कर गिरनेपर मानको वेदनकर अनंतर समय में मानका वेदन करता हुआ एकसमयके द्वारा क्रोधको अनुपशांतकर अपकर्षण करता है । क्रोध. से चढ़कर गिरनेवाला क्रोधोदय में तीनप्रकारके कोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधको उदयादिगलितावशेष गुणश्रेणि करता है, किंतु मानसे श्रेणि चढ़कर गिरनेवाला मानवेदन काल में क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोध की उदयावलि बाहर गलितावशेष गुण रि हैं । इन दोनों में यह विभिन्नता है ।' अर्थात् मानके साथ चढ़नेवालेके प्रथमसमय करता प्रवेदी से लेकर जबतक कोधका उपशामनाकाल है तबतक विभिन्नता है तथा मानके साथ श्रेणि चढ़कर उतरनेवालेके मानको वेदन करते हुए तबतक विभिन्नता है जबतक क्रोधका अपकर्षण नहीं करता । क्रोधके अपकर्षण करनेपर क्रोधको उदयादि गुणश्र ेणी नहीं होती । मान ही वेदा जाता है। क्रोधकी उदयादि गुणश्रेणि नहीं है व मानका ही वेदन होता है ये दो नानात्व हैं । क्रोधके अपकर्षणसे लगाकार जबतक अधःप्रवृत्त संयत होता है तबतक ये विभिन्नताएं होती हैं । २९४ ] क्षपरणासार क्रोधकषाय के साथ उपशमश्र रिंग चढ़नेवाले के कोव, मान व मायाकी जितनी प्रथमस्थितियां होती हैं वे तीनों प्रथमस्थितियां यदि सम्मिलित कर दी जायें तो उतनी माया कषायके साथ उपशमश्रेणि चढ़नेवाले के माया कषायकी प्रथमस्थिति होती हैं अन्तरकरण करने के प्रथमसमयमें मायाकी प्रथमस्थितिको करता है इस प्रथमस्थिति के अभ्यन्तर तीनप्रकारके कोषको और तीनप्रकारके मानको और तीनप्रकारको माया को यथाक्रम उपशमाता है । तदनन्तर लोभको उपशमाता है उसमें कोई अन्तर नहीं है । मायाके साथ उपशमश्रेणि चढ़कर उतरनेवाले के लोभके वेदनकालतक कोई विभिन्नता नहीं है । उसके पश्चात् विभिन्नता है । क्रोध के साथ श्रेणि चढ़कर उतरनेवाले मायाकी प्रथम स्थिति मायावेदककालसे श्रावलिप्रमाण अधिक ही होती है, १. ज. घ. मूल, पृ० १६१६ सूत्र ५६१-६२ । २. सूत्र ५६७ । ३. ज. घ. मूल पू. १६२१ सूत्र ५७२ । ४. ज.ध. मूल १६२१ । क. पा. सुत्त पृ. ७२९-३०, ध. पु. ६ पृ. ३३३ ॥ ज. ध. मूल पु. १६२४ । ध. पु. ६ पृ. ३३४; क. पा. सुत्त पू. ७३० । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६१] क्षपणासार [२६५ फिन्तु मायोदयसे श्रेणि चढ़कर उतरनेवालेके तीनप्रकारकी मायाका और तीनप्रकारके लोभका गुणश्रेणि निक्षेप ज्ञानावरणादि कमौके सदृश होकर गुणश्रेणियायाम गलितावशेष होता है, यह यहांपर विभिन्नता है । तथा मायाका वेदन करते हुए ही शेष (मान-क्रोध) कषायोंका अपकर्षण करते हैं, किन्तु उनका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिसे बाहर होता है। लोभके उदयसे श्रेरिण चढ़नेवालेकी विभिन्नता इसप्रकार है--अन्तरकरणके प्रथमसमयमें लोभकी प्रथमस्थितिको करता है । क्रोधसे श्रेरिण चढ़नेवालेके जितनी क्रोधको, मानकी, माया की और लोभकी प्रथमस्थिति होती है लोभोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके उतनी संज्वलनलोभको प्रथमस्थिति होती है। शेष संज्वलन कषायोंकी प्रथमस्थिति नहीं होती, क्योंकि उनका उदय नहीं है । सूक्ष्मसाम्परयिक लोभके प्राप्त होने में और उतरने में कोई विभिन्नता नहीं है, किन्तु गिरकर अनिवृत्तिकरणप्रवेशके प्रयमसमयमें विभिन्नता है। अनिवत्तिकरणमें प्रवेश करते ही लोभका अपकर्षणकर ज्ञानावरणादिकर्मोकी गुणश्रेणिके तुल्य आयामवाला गुणश्रेणि निक्षेप करता है। जिस कषायोदयके साथ श्रेणि चढ़ता है गिरनेपर जब उस कषायका अपकर्षण करता है तो गुणश्रेणिनिक्षेप-आयाम ज्ञानावरणादिकी गुणश्रेणिके तुल्य होकर अन्तर पूरा जाता है। लोभका बेदन करते हुए शेष कषायोंका अपकर्षण करता है । सर्वकषायोंका गुणश्रेणि निक्षेप ज्ञानाबरणादि कर्मोके गुणश्रेणिनिक्षेपके तुल्य है। शेष शेष में निक्षेपण होता है अर्थात् मलितावशेष गुणश्रेणि होती है । क्रोध कषायके उदयके साथ श्रेणि चढ़नेवाले और उतरनेवालेसे शेष कषायोंके साथ श्रोणि चढ़नेवाले व उतरनेवालेके यह विभिन्नता है। थी उदयस्स य एवं अवगदवेदो हु सत्त कम्मंसे । सममुवसामदि संडस्सुदप चडिदस्स वोच्छामि ॥३६१॥ अर्थः-स्त्रीवेदोदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अपगतवेदो होकर सात नोकषायोंको एकसाथ उपशमाता है । नपुंसक वेदोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेका आगे कथन किया जावेगा । विशेषार्थः-स्त्रीवेदोदयसे चारोंकषायों सहित चढ़नेवालेको प्ररूपणा पुरुष Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] सपणासार [ गाथा ३६२-६३ । वेदोदयसे चढ़नेवालेके समान जानना, किन्तु पुरुषवेदोदयवालेके' छह नो कषायके उपशामनाकालसे पुरुषवेदका उपशामनाकाल एकसमयकम दो आवलि अधिक है, क्योंकि एक समयकम दोग्रावलिकालमें पुरुषवेदके नवकबन्धको उपशमाता है। स्त्री वेदोदयसे श्रेणि चढ़नेवाला स्त्रीवेदकी प्रथमस्थितिको गलाकर तदनन्तर समयमें अपगतवेदी हो पुरुषवेदका प्रबन्ध होकर अन्तमुहर्तकालके द्वारा सात नो कषायोंको एक साथ उपशमाता है तथा सातों हो का उपशमनकाल तुल्य है । यह विभिन्नता है । इसीप्रकार स्त्रोवेदके उतरते समय भी कुछ दिले असा है सो शादका कहना चाहिए।" संदुदयंतरकरणो संटद्धाणम्हि अणुवसंत से। इथिस्स य श्रद्धाए संडं इत्थिं च समगमुवसमदि ॥३६२।। ताहे चरिमसवेदो भवगदवेदो हु सत्तकम्मसे। सममुवसामदि सेसा पुरिसोदयचडिभंगा हु ॥३६३॥ अर्थः-नपुसकवेदोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला अन्तरकरणके पश्चात् नपुसकवेदको उपशमाता हुअा भी पुरुषवेदोदयवालेके नपुंसक-उपशान्तकालमें पूर्ण नहीं उपशमाता अतः जो अनुपशांत अंश रह जाता है उसको स्त्रीवेद उपशांतकालमें स्त्रीवेद के साथ उपशमाता हुआ सवेदभागके चरम समयको प्राप्त हो जाता है। अनन्तर अपगतवेदी होकर सातकर्मोको एक साथ उपशमाता है । शेष पुरुषवेदोदय सहित श्रेणि चढ़नेवालेके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-पुरुषवेदोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला पूर्वमें नपुसकवेदको उपशमाकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्त्रीवेदको उपशमाता है। नपुसकवेदोदयसे चढ़नेवाला प्रथमस्थितिको करता है । जितना नपुसकवेद व स्त्रीवेद दोनोंका उपशामनाकाल है उतना प्रथमस्थितिका प्रमाण है। प्रथम स्थितिमें नपुसकवेदको उपशमाना प्रारम्भ करता है । पुरुषवेदवालेके जितना नपुंसकवेदका जितना उपशामनाकाल है उतनाकाल बीत जाता है तोभी नपुंसकवेदकी उपशामना समाप्त नहीं होती। १. पुरुषवेदी सवेदी होता हुअा ही सात कषायोंको उपशमाता है । (ज. प. मूल पृ. १९२४) २. दृश्यताम् ज.ध. मूल पत्र १६३० । ३. जयधवल मूल पृ. १९२४ । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६७ गाथा ३६४-६५] क्षपणासार वहांसे स्त्रीवेदकी भी उपशामना प्रारम्भ कर देता है। दोनोंका उपशम करता हुआ प्रथम स्थितिका चरमसमय अर्थात् स्त्रीवेदका उपशामनाकाल पूर्ण होनेपर नपुसकवेद व स्त्रीवेद दोनोंको एक साथ उपशमा देता है, यह एक विभिन्नता है। इसके पश्चात् अपगतवेदी होकर युगपत सात नोकषायोंको उपशमाता है। सातों नोकषायोंका उपशामनाकाल तुल्य है। यह दूसरी विभिन्नता है इसोसे उतरनेवाले को विभिन्नता जान लेनी चाहिए।' नागे उपशमणीमें अल्पबहत्वके कयनको प्रतिज्ञारूप गाथा कहते हैं कोहस्स य उदए चडपलिदेऽपुव्वदो अपुत्वोत्ति । एदिस्से प्रद्धाणं अप्पाबहुगं तु वोच्छामि ॥३६४॥ अर्थः- पूरुषवेद और क्रोधकषायोदय सहित श्रेरिण चढ़कर गिरनेवाला जीवके पारोहक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अवरोहक अपूर्वकरणके चरमसमयपर्यंत इस मध्यवर्ती कालमें जो काल संयुक्त पद हैं, उनके अल्पबहुत्व स्थानोंका प्रागे कथन करेंगे । विशेषार्थः-यहां श्रेणि चढ़नेवालेको आरोहक और उतरनेवालेको अवरोहक जानना । तथा अल्पबहुत्वमें जहां विशेष अधिक कहा है वहां पूर्वसे कुछ अधिक जानना । अथानन्तर २७ गाथानों द्वारा अल्पबहुत्व स्थानोंका कथन करते हैं अवरादो वरमहियं खंडुक्कीरणस्स अद्धाणं । संखगुणं अवरट्ठिदिखंडस्सुक्कीरणो कालो ॥३६५॥ अर्थः-जघन्य अनुभाग काण्डोत्कोरण कालसे (१) उत्कृष्ट अनुभागकाण्डोस्कीरणकाल विशेष अधिक है (२) इससे जघन्य स्थितिकाण्डोत्कीरण काल संख्यातगुणा है। (३) विशेषार्थ:-सबसे स्तोक जघन्य अनुभाग कांडोत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है सो यही ज्ञानावरणादि कर्मोका तो आरोहक-सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम अनुभाग१. जयघवल मूल पृ० १६२५ । २. जयश्वल मूल पृ० १६२५ । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] क्षपणासार ! गाथा ३६६ कांडकोत्कोरण जानना और मोहनीयकर्मका अन्तर करते हुए अन्तिम अनुभाग काण्डकोत्कोरणकाल जानना (१)। इससे उत्कृष्ट अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है सो यह भी सर्व कर्मोके आरोहक-अपूर्वकरण के प्रथमसमय में सम्भव है (२) । इससे सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम अवस्था में पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि कर्मोका जघन्य स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल और अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम अवस्थामें मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धकाल संख्यातगुणा' है तथा दोनों परस्पर समान हैं (३) । अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमयके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध नहीं होता। पडणजहएणढिदिवंधद्धा तह अंतरस्स करणद्धा। जेठिदिबंध ठिदीउक्कीरद्धा य अहियकमा ॥३६६॥ अर्थः- इससे गिरते हुए का जघन्य स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है (४) । इससे अन्तर करनेका विशेष अधिक है {५)। दासे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल व उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल दो तुल्य होकर विशेष अधिक हैं (६) । विशेषार्थः- उससे अवरोहक के सूक्ष्मसाम्परायमें ज्ञानावरणादि कर्मोका प्रथमस्थितिबन्ध और अवरोहकके अनिवृत्तिकरणमें मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि चढ़नेवाले के स्थितिबन्ध कालसे उतरनेवालेका स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक होता है, इसमें कारण संक्लेश परिणाम हैं । अवरोहकके सभी अवस्थानों में स्थितिघात व अनुभागधात नहीं होता । यदि होता है तो स्थितिबन्धकालके साथ स्थितिकाण्डोत्कीरणकालको भो कहना चाहिए और ऐसा नहीं, क्योंकि ऐसा अनुपदिष्ट है (४)। उससे अन्तरकरणका काल अर्थात् अन्तरकी फालियोंका उत्कीरणकाल तथा वहांपर होने वाला स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल १. इनका पूर्व वाले से अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कोरण कालसे संख्यातगुणत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि सवंजघन्य एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमें भी संख्यात सहस्र प्रमाण अनुभागखण्ड के अस्तित्वके उपदेशके बल से इसकी सिद्धि हो जाती है । (ज. प. मूल पृ. १६२६) २. जयधवल मूल पृ० १९२६ । ३. जयधवल मूल पृ० १९२६, १६१३, १६३७ प्रादि । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६७-६८] क्षपणासार [२६१ तुल्य होकर विशेष अधिक है, क्योंकि उपरिम स्थितिबन्धकालसे नीचेका स्थितिबन्धकाल यथाक्रम विशेष अधिक होता है (५) । इससे प्रारोहकके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिका उत्कृष्ट बंधकाल और उत्कृष्ट काण्डकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है। सुहमंतिमगुणसेढी उवसंतकसायगस्स गुणसेढी । पडिवदसहुमद्धावि य तिगिण वि संखेज्जगुणिदकमा ॥३६७॥ अर्थ- ( इससे ) चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका गुरणश्रेणि निक्षेप संख्यातगुणा है (७) । इससे उपशान्तकषावका गुण-श्रेणिनिक्षेप सख्यातगुणा है (८)। इससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायका काल संख्यातगुणा है (8)। ये तीनों क्रमसे संख्यातगुण हैं। विशेषार्थः--उससे सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिमसमय में पाया जानेवाला गलितावशेष गुणश्रेणी-पायाम संख्यातगुणा है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणश्रेरिणनिक्षेप अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायसे विशेष अधिक या वह गलकर सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रह गया। इसको गुणश्रेणिशीर्ष भी कहा गया है, क्योंकि नीचे गलकर शेष गुणश्रेणिनिक्षेप शीर्ष भावसे देखे जाते हैं (७)। इससे उपशान्तकषायका गुणश्रेणि-आयाम संख्यातगुणा है । यद्यपि यह काल उपशांतकषाय कालके संख्यातवेंभाग है, किन्तु पूर्व गुणश्रेणिशीर्षसे संख्यातगणा है (८)। उससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायकाकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वमें सूक्ष्मसाम्परायका संख्यातवांभाग काल था (६) ।' तग्गुणसेढो अहिया पलमुहमो कि हिउबसमद्धा य । सुहमस्स य पढमठिदी तिरिणवि सरिसा विसेसाहिया ॥३६॥ अर्थः-इससे उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकको गुणश्रेणि विशेष अधिक है (१०)। इससे चढ़नेवालेका सूक्ष्मसाम्परायकाल, कृष्टि उपशमानेका काल और १. ज. प. मूल. पु. १६२६-२७। २. ज. प. प. १९२५ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ३६९-७० सूक्ष्मसाम्परायिककी प्रथम स्थिति ये तीनों परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक ( ११ ) | विशेषार्थ:--- इससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके लोभका गुणश्रेणि आयाम आवलीमात्र विशेष अधिक है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे श्रावलिमात्र ज्यादा लोभका गुण रिगनिक्षेप होता है (१०) । उससे आरोहक सूक्ष्मसाम्परायका काल, सूक्ष्मकृष्टि उपशमावनेका काल और सूक्ष्मसाम्परायका प्रथम स्थितिग्रायाम यथासम्भव अन्तर्मुहूर्तमात्र विशेष अधिक है। ये तीनों परस्पर तुल्य हैं। अधिकताका कारण यह है कि अवरोह से आरोहकका प्रत्येककाल अधिक है ( ११ ) । ' ३०० } किट्टीकरणद्धहिया पडबादरलोह वेद गद्धा हु । संखगुणा तस्लेव य तिलोद्दगुण से डिणिक्खेभो ॥ ३६६ ॥ अर्थ - कृष्टिकरणकाल विशेष अधिक है ( १२ ) । उतरनेवालेका बादरलोभ वेदककाल संख्यातगुणा है (१३) । उसीके तीनों लोभका गुणश्र णिनिक्षेप विशेष अधिक है (१४) । विशेषार्थ :- उससे सूक्ष्मकृष्टिकरनेका काल विशेष अधिक है । यद्यपि यह काल लोभवेदककालका विभाग है तथापि उपरिम तिहाई काल ( सूक्ष्मसाम्पराय काल ) से निचला ( कृष्टिकरणकाल ) विशेष अधिक है ( १२ ) । उससे गिरनेवाले बादर साम्परायके बादरलोभका वेदककाल संख्यातगुणा है, क्योंकि बादरलोभ वेदककाल, लोभवेदककालका द्वि विभाग ( 3 ) है । श्रतः पूर्वके विभागसे दो गुणा है (१३) | उससे गिरनेवाले के लोभवेदककालसे तीन लोभकी गुणश्र णि आयाम प्रावलिमात्र अधिक है, क्योंकि वेदक कालसे आवलिप्रमाण अधिक कालसे गुराश्रेणि निक्षेप होता है ( १४ ) । बादरलोहस् य वेदगकालो य तस्स पडमटिदी | पडलोह वेदगद्धा तस्सेव य लोइपढमठिदी ॥ ३७० ॥ अर्थः- चढ़ने वाले के बादरलोभ वेदककाल विशेष अधिक है (१५) । उसीको १. अ. घ. भूल पृ. १६२८-२६ ॥ २. ज. घ. मूल पृ० १६२८ । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७१ ] भारद्वार प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (१६) । उतरनेवाले के लोभवेदककाल विशेष अधिक है (१७) । उसीके लोभकी प्रथम स्थिति विशेष अधिक है (१८)।' विशेषार्थ- इससे प्रारोहक बादरसाम्परायिकके बादरलोभ वेदककाल विशेष अधिक है । यद्यपि पूर्वका स्थान भी लोभवेदककालका द्वि विभाग ( 2 ) है और वर्तमानकाल भी लोभवेदककालका द्वि विभाग (१) है तथापि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उतरनेवाले की अपेक्षा चढ़नेवालेका काल विशेष अधिक होता है (१५) । उससे आरोहक अनिवृत्तिकरणके बादरलोभका प्रथम स्थिति सम्बन्धी प्रायाम विशेष अधिक है, विशेषाधिकका प्रमाण प्रावलीमात्र है । इसका कारण यह है कि प्रारोहक अनिवृत्तिकरण चारों संज्वलनोंके अपने-अपने वेदककालसे उच्छिष्ट्रावलिमात्र अधिक प्रथमस्थिति विन्यास करता है (१६) । उससे गिरनेवाले के लोभका वेदककाल विशेष अधिक है, क्योंकि इसमें सूक्ष्मसाम्परायकाल भी सम्मिलित है (१७) । उससे उतरने वालेके लोभकी प्रथमस्थितिका आयाम आवलीमात्र अधिक है (१८) ।' तम्मायावेदद्धा पडिवडकण्हपि खित्तगुणसेढी । तम्माणवेदगद्धा तस्त णवण्हं पि गुणसेडी ।।३७१।। अर्थः-उतरनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है (१६)। उतरने वालेके छह कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (२०)। उतरनेवालेका मान वेदककाल विशेष अधिक है (२१)। उन्हीं के नौ कौका गुणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (२२) । विशेषार्य-उससे उतरनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है, क्योंकि १. १८वें नं० का स्थान कषायपाहुड़ सुत्तमें नहीं कहा गया है । लब्बिसारके फर्साने भी गिरनेवालेके माया, मान और कोषको प्रथम स्थतिका कथन नहीं किया है। सम्भव है उतरनेवालेके कषायका अपकर्षण होकर उदय प्रानेसे उस कषाय सम्बन्धी अन्तर नहीं रहता हो इसीलिए चूरिणसूत्रकार ने उतरनेवालेके लोभ, माया, मान व क्रोधको प्रथमस्थितिका कथन नहीं किया है। स्वयं नेमिचन्द्राचार्य ने भी उतरनेवालेके माया, मान व क्रोधको प्रथमस्थितिका कथन नहीं किया। इस गाथाका मिलान मूडबिद्री स्थित ताडपत्रीय प्रतिसे होना अत्यन्त प्रपेक्षित है। २. जयघवल मूल पु. १६२८ । १८वें नं० का स्थान जयधवल में नहीं है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] क्षपणासार [ गाया ३७२-७३ ऊपरितन स्थानसे नीचेका स्थान यथाक्रम विशेष अधिक होता है (१९) । उससे उतरनेवाले मायावेदक के छह ( इलोभ, इमाया ) कषायोंका गुण रिण आयाम मावलि से अधिक है ( २० ) । उससे पड़ने ( गिरने ) बालेके मानवेदककाल विशेष अधिक है (२१) । उससे उसीके नव ( ३ लोभ, ३ माया, ३ मान) कषायोंका गुणश्रेणिप्रायाम श्रावलिसे अधिक है (२२) । ' चडमायावेदद्धा पढमट्ठिदिमायउवसमा य । चलमाणवेदगडापट्टिमाउसमा य ॥ ३७२ ॥ अर्थः-- चढ़नेवाले के मायावेदककाल विशेष अधिक है ( २३ ) | मायाकी प्रथम स्थिति विशेषअधिक है (२४) | मायाका उपशासनकाल विशेषअधिक है (२५) । चढ़नेवालेका मानवेदककाल विशेषअधिक है ( २६ ) | मानकी प्रथम स्थिति विशेषप्रविक है (२७) | मानका उपशामनकाल विशेष अधिक है ( २८ ) | विशेषार्थः -- उससे चढ़नेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है, क्योंकि चढ़नेवालेका काल विशेष अधिक होता है ( २३ ) । उससे उसके प्रथम स्थितिका श्रायाम उच्छिष्टावलिसे अधिक है (२४) । उससे माया के उपशमानेका काल एक समयकम आवलिमात्र अधिक है, क्योंकि नवक समयप्रबद्ध की अपेक्षा है ( २५ ) । उससे चढ़नेवालेके मानवेदककाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक है (२६) । उससे उसकी प्रथम स्थिति का श्रायाम उच्छिष्टावलिमात्र अधिक है (२७) । उससे उसके भान उपशमावनेका काल एकसमयक्रम आबलिमात्र अधिक है, क्योंकि नवकसमयबद्धको अपेक्षा है । ( नवकसमयप्रबद्ध = एक समयकम दो प्रावलि ) ( समयकम दो श्रावलि - उच्छिष्टावलि समयकम प्रावलि ) ||२६|| = कोहोवसामणद्धा वपुरिसित्थीण उवसमाणं च । खुदभवगहणं च य अहियकमा एक्कवीसपदा ||३७३ || अर्थः- क्रोधका उपशासनकाल विशेष अधिक है ( २६ ) । छह नोकषायों १. जयधवल मूल पु. १६२६ । २. ज. ध. मूल पू. १६३० ॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७२-७३] क्षपणासार ( हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ) का उपशामनकाल विशेष अधिक है (३०)। पुरुषवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३१) । स्त्रीवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३२) । नपुसकवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३३)। क्षुद्रभव विशेष अधिक है (३४) । इसप्रकार २१ पद विशेष अधिक क्रमसे हैं । विशेषार्थ-उससे क्रोधके उपशमानेका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक है, क्योंकि ऊपरके कालसे नीचेका काल अधिक होता है (२६) । उससे छह नोकषायके उपशमाने का काल अन्तमुहर्त अधिक है, क्योंकि यह पूर्वसे नीचेका स्थान है (३०)। इससे पुरुषवेदके उपशमानेका काल नवकसमयप्रबद्धकी अपेक्षा एकसमयकम दोप्रावलि अधिक है (३१) इससे स्त्रीवेद उपशमानेका काल विशेष अधिक है (३२) इससे नपुंसकवेद उपशमानेका काल विशेष अधिक है, क्योंकि ये दोनों ही स्थान अबस्तन ( निचरले ) स्थान हैं, इसलिए विशेषाधिक हो गए हैं (३३) । इससे क्षुद्रभवकाकाल विशेष अधिक है (३४) । शङ्काः-शुद्रभवग्रहण क्या है ? समाधान—सबसे छोटे भवग्रहणको क्षुद्रभव कहते हैं और यह एक उच्छ्वास ( संख्यात प्रावलि समूह निष्पन्न ) के साधिक अठारहवेंभागप्रमाण होता हुआ ____ संख्यात प्रावली सहस्रप्रमारण होता है ऐसा जानना चाहिए । तद्यथा-- तिणिसया असोसा छासठिसहस्समेच मरणारिए । अंसोमुत्तकाले ताटिया चेव खुद्दभवा ।' तिण्यिासहस्सा सत्त्यसदाणि तेवतरि च उसासा। एसो हबह मुहुत्तो सव्येसि चेव ममुप्राणं ।। -- एक अन्तर्मुहर्तकालमें ६६३३६ क्षुद्रमरण होते हैं और उतने ही क्षुद्रभव होते हैं। "सभी मनुष्यों के ३७७३ उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त होता है" इस वचनके अनुसार एक मुहूर्त के भीतर ६६३३६ क्षुल्लक ( क्षुद्र ) भव होते हैं ।' एकमुहूर्तके १. प. पु. १४ पृ. ३६२ गाथा २०; गो. जी. गा. १२३; भावपाहुड़गाथा २६ । २. धवल पु. १४ पृ. ३६२ गा. १६ । ३. "इदिवयणादो एगमुहुत्तम्भतरे एत्तियाणि खुद्दाभवम्गहणाणि होति ६६३३६।" (ध. पु. १४ पृ. ३६३ ) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] क्षपणासार [ गाथा ३७४ ३७७३ उच्छ्वास स्थापित करके इन्हें पूर्वगाथा निर्दिष्टप्रमाण एक मुहर्तकी खुद्दाभवग्रहण शलाकाओंसे अपर्तित करनेपर एक उच्छ्वासका साधिक भागप्रमाण क्षुद्रभवग्रहणका काल जानना चाहिए । इसप्रकार प्राप्त इस क्षुद्रभवग्रहण में संख्यातआवलि होती हैं। वह इसप्रकार है-( यदि अन्यमतानुसार ) एक उच्छ्वासकालके भीतर जधन्यसे २१६ श्रावलि मानी जाती है तो क्षुद्रभवग्रहणकाल सासादनके कालसे दुगुनामात्र प्राप्त होता है, जो अनिष्ट है, क्योंकि सासादनगुरगस्थानके कालसे संख्यातगुणे नीचेके कालसे इसका बहुत्व अन्यथा नहीं उत्पन्न होता इस कारण; यहां प्रावलिका गुणकार बहुत है अतः संख्यातहजार कोड़ाकोडीप्रमाण प्रावलियोंसे ( जहां कि एक पावलि भी जघन्ययुक्तासंख्यात समयप्रमाण होती है ) एक उच्छ्वास निष्पन्न होता है एवं उसका कुछकम १८वें भागप्रमाण ( वां भाग) क्षुद्रभवग्रहण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसकारण नपुसकवेदोपशनकालसे क्षुद्रभवग्रहणकाल विशेषाधिक है ऐसा उचित है ।' उपसंतद्धा दुगुणा तत्तो पुरिसस्स कोहपढमठिदी । मोहोवसामणडा तिरिणवि भहियक्कमा होति ॥३७॥ अर्थः-उपशान्तकाल दुगुणा है (३५) । पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (३६) । क्रोधकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (३७) मोहनीयका उपशामन काल विशेष अधिक है (३८) । तीनपद अधिक क्रमसे हैं। विशेषार्थः-उस क्षुद्रभवसे. उपशांतकषायका काल दुगुणा है जो एक सेकिण्ड का बारहवाँ भाग सेकिण्ड] है [३५] । उससे पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिका आयाम विशेष अधिक है, क्योंकि नपुंसकवेदके उपशमानेकाकाल, स्त्रीवेदके उपशमानेकाकाल और छह नोकषायोंके उपशमानेका काल इनतीनों कालोंका समूह पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति है [३६] । उससे संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिका आयाम किंचित् न्यून त्रि. भागमात्रसे अधिक है, क्योंकि क्रोधके उपशामनाकालमें भी पुरुषवेदका प्रवेश देखा जाता है [३७] । उससे सर्वमोहनीयका उपशमांवनेका काल है, वह मान-माया-लोभके १. जयधवल मूल पृ० १६३० । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७५-७६ ] क्षपणासार [३०५ उपशमनकालोंसे अधिक है (३८) । ३६-३७ व ३८वां ये तीन पद अधिकक्रमसे हैं। पडणस्त भसंखाणं समयपबद्धाणुदीरणाकालो। संखगुणो चडणस्स य तकालो होदि अहिया य ॥३७५।। अर्थः--उससे गिरनेवालेके असंख्यात समयप्रबद्धको उदीरणा होनेका काल संख्यातगुणा है (३६) । उससे चढ़नेवालेके असंख्यात समयप्रबद्धको उदीरणा होनेका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र अधिक है (४०) । विशेषार्थः–उपशमशेरिणसे गिरनेवालेके जबतक असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती है तबतकका वह काल मोहनीयके उपशामनकालसे संख्यातगुणा है, क्योंकि नीचे उतरनेवाले के सूक्ष्मसाम्प रायसे लेकर अन्तरकरणके स्थानसे नीचे वीर्यान्तराय आदि बारह कर्मोका सर्वघाति अनुभागबन्ध करके पुनः उसके नीचे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होजाने तक इतना काल असंख्यात समयप्रबद्ध उदीरणाका है। (३६)। उपशमश्रेणि चढ़नेवालों के जबतक असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है तबतक का वह काल पूर्वकालसे अधिक है, क्योंकि चढ़नेवाला जहांपर असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा प्रारम्भ करता है उस स्थानको अन्तर्मुहुर्त द्वारा पाकर उतरते हुएके असंख्यात लोक प्रतिभागवाली उदीरणा प्रारम्भ होजाती है इसकारण इसका पूर्वस्थानसे विशेषाधिकत्व विरुद्ध नहीं है।' पडणाणियट्टियद्धा संखगुणा चडणगा विसेसहिया। पडमाणा पुवद्धा संखगुमा चडणगा अहिया ॥३७६।। प्रथं -उससे गिरनेवालेके अनिवृत्तिकरणकाकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वोक्त सर्वपद अनिवृत्तिकरणके संख्यातवेंभाग हैं (४१)। उससे चढ़नेवालेके अनिवृत्तिकरणका काल अन्तर्मुहूर्तमात्रसे अधिक है (४२) 1 उससे गिरनेवालेके अपूर्व १. ज. ध. मूल पृ. १६३१ । २. ज. प. मूल प० १९३१ । क्योंकि मन्तरकरणादि उपरिम अशेष भध्वानको देखते हुए संख्यात___गुणे नीचे के अध्वानका प्रधानभावसे यहां विवक्षितपना है। ३. ज.ध. मूल पृ. १६३१ । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ३७७-७८ करणका काल संख्यातगुणा है (४३) । उससे चढ़नेवालेके अपूर्वकरणकाकाल ( अन्तमुहूर्त ) अधिक है।' पडिबडवरगुणसेढी चढमाणापुवपढमगुणसेढी । अहियकमा उपसामगकोहस्स य वेदगद्धा ह ॥३७७॥ अर्थः-गिरनेवालेका उत्कृष्ट गुणणि निक्षेप विशेष अधिक है (४५) । चढ़नेवालेका अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणश्रेरिण निक्षेप विशेष अधिक है (४६) । उपशामकके क्रोधवेदककाल संख्यातगुणा है (४७) । विशेषार्थः--उससे गिरनेवाले के सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमें प्रारम्भ किया गया उत्कृष्ट गुणश्रेणि आयाम विशेष अधिक है, क्योंकि यह अवरोहक सूक्ष्म साम्परायअनिवृत्तिकरण-अपूर्वकरण व उपशमनाकालके संख्यातवेंभाग इन कालोंका समूहप्रमाण है (४५) । उससे चढ़नेवालेके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें प्रारम्भ हुआ उत्कृष्ट गुण. श्रेरिग आयाम अन्तर्मुहूर्तसे अधिक है। यह भी अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्म साम्प. रायके कालसे अन्तमुहर्तप्रमाण अधिक है, किन्तु उतरनेवाले के कालसे चढ़नेवाले के कालका विशेषाधिकपना है ऐसा समझकर पूर्वसे यह अधिक कहा है ।।४६।। उससे चढ़नेवालेके क्रोधवेदककाल संख्यातगुणा है, क्योंकि श्रेणिपर प्रारोहण करनेके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्तकाल तक अप्रमत्तभावसे वर्तमान जीवके क्रोधवेदककालके साथ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके प्रति प्रतिबद्धकाल यहांपर विवक्षित है। अर्थात् अप्रमत्तगुणस्थानके साथ यहां अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करणा सम्बन्धी क्रोधवेदककाल लिया गया है इसलिए वह पूर्वके कालसे संख्यातगुणा हो जाता है । संजदभधापवत्तगगुणसेढी दसोंषसंतद्धा ।। चारितंतरिगठिदी दसणमोहंतरठिदीओं ॥३७८॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तसंयतका गुणश्रेणिनिक्षेप संख्यातगुणा है (४८) । दर्शनमोहनीयका उपशान्तकाल संख्यातगुणा है (४६) । चारित्रको आन्तरिक स्थितियां संख्यात १. ज. घ. मूल. पृ. १९३१-३२। २. ज. घ. मूल प. १९३२ । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७६ ] क्षपणासार [ ३०७ गुणी हैं (५०) । दर्शनमोहनीयको अन्तरस्थितियां संख्यातगुणी हैं (५१) । विशेषार्थः-अवरोहक अधःप्रवृत्तसंयमीके प्रथम समयमें जिस गुणश्रेणि आयामका प्रारम्भ होता है वह पूर्वोक्त गुणश्रेरिणनिक्षेप अायामसे संख्यातगुणा है, क्योंकि स्वसंस्थानसंयम परिणामकी प्रधानता है। उससे दर्शनमोहनीयका उपशान्तकाल अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकाकाल संख्यात गणा है क्योंकि श्रोणि चढ़ने और उतरनेके कालसे, श्रेणोसे पूर्व व पश्चात् संख्यातगुणे कालमें भी द्वितीयोपशम सम्यक्त्वं पाया जाता है। अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्व श्रेणि चढ़ने से पूर्व उत्पन्न हो जाता है। इस कालका प्रमाण नजीके चढ़ने उतरनेके कालसे संख्यातगुणा है और श्रेणी उतरने के पश्चात् भी श्रेणीके कालसे संख्यातगुणे कालतक द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है । इसप्रकार द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल, श्रेणी चढ़ने व उतरने के कालसे संख्यातगणा है। उससे चारित्रमोहकी जिन स्थिति निषेकोंको उत्कीर्ण करके अन्तर किया जाता है वह अन्तरायाम संख्यातगुणा है। उससे दर्शनमोहका अन्तर करते हुए जिन स्थिति निषेकोंका आयाम अर्थात् अन्तरायाम संख्यातगुणा है ।' नोट- यहाँपर अन्तरायामका काल द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालसे अधिक कहा, किन्तु उस अन्तरायामके कालमें दर्शनमोहकी किसी एक प्रकृतिकी अपकर्षणके द्वारा उदीरणा कर अन्तरायामका काल समाप्त कर दिया जाता है । - अपराजेठाबाहा चडपडमोहस्स भवरठिदिषधो। चडपडतिवादि अवरलिदिबंधतो मुहुत्तो य ॥३७६।। अर्थ:--जधन्य प्राबाधा संख्यातगुणो है (५२) । उत्कृष्ट प्राबाधा संख्यातगणी है (५३) । चढ़नेवालेके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है. (५४) । उतरनेवालेके मोहनीयका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है (५५)। चढ़नेवाले के तीन घातियाकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५६)। उतरनेवालेके तीन घातियाकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५७) । अंतर्मुहूर्त संख्यातगुरणा है । विशेषार्ग-उससे चढ़नेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें पाये जानेवाले ज्ञानावरणादि कर्मोंके और अनिवृत्तिकरण उपशामकके चरमसमयमें पाये जाने १. जयववस मल ५० १६३२-३३ । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ३०. ] { गाथा ३८० वाले मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धकी जघन्य प्राबाधा संख्यात गुणी है ' (५२) । उससे उतरनेवाले के अपूर्वकरणके अन्तिमसमय में पायी जानेवाली सर्वकर्मोंकी अन्तःकोटाकोटीसागरप्रमाण स्थितिबन्धको तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट पाबाधा संख्यातगुणी है (५३) । उससे चढ़नेवालेके अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें पाये जानेवाले मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है (५४) । उससे उतरनेवाले के अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें पाया जानेवाला मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण संख्यातगुणा है। यहां संख्यातका प्रमाण दो जानना यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है (५५) । उससे चढ़नेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके अन्तसमय में पाया जानेवाला ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५६) । उससे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमें पाया जानेकाला झानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है जो दुगुणा जानना (५७)। उससे उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त संख्यातगुणा है जो एक समयकम दो घड़ी प्रमाण है (५८) यहां अन्तदीपक न्यायसे पूर्व में जो सर्वकाल कहे के सभी अन्तर्मुहुर्तमात्र ही जानना, क्योंकि अंतर्मुहूर्तके बहुत भेद हैं । चडमाणस्स य णामागोदजहएणट्ठिदीण पंधो य । तेरसपदासु कमसो संखेण य होति गुणिदकमा ॥३८॥ अर्थः-चढ़नेवालेके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुरणा है (५६) । ये १३ पद क्रमशः संख्यातगुणें हैं । विशेषार्थ:--'उससे चढ़नेवालेके नाम व गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है जो सोलह मुहूर्त प्रमाण है (५६) । यह जघन्यबन्ध अपनी व्युच्छित्ति के चरमसमयमें जानना। ४६वें पदसे आगे ५६वें पद तक तेरह पदोंमें संख्यातगुणित क्रम है।' १. और यह (माबाधा ) अन्तरायामसे ऊपर संख्यात गुणे अध्वानको व्यतीत करके स्थित है, इस प्रकार यह बात इसी सूत्रसे जानी जाती है । ( ज. घ. मूल. पृ. १६३३) २. जयधवल मूल पृ. १६३३-३४ । ३. ज. प. मूल पृ. १६३४ । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०६ गाथा ३८१-८३) क्षपणासार चडतदियभवरबंधं पडणामागोदभवरठिदिबंधो। पडतदियस्स य प्रवरं तिगिण पदा होंति भहियकमा ॥३८१॥ अर्थः-चढ़नेवाले के तीसरे ( वेदनीय ) कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (६०)। गिरनेवालेके नाम-गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (६१)। गिरनेवालेके (वेदनीय) तीसरे कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (६२) । ये तीनों पद अधिकक्रम वाले हैं। . विशेषार्थ:- उससे चढ़नेवालेके वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि यह २४ मुहर्तमात्र है (६०)। उससे गिरनेवालेके नाम-गोत्रका जधन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि ३२ मुहर्तमात्र है (६१)। उनसे गिरने बालेके वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि यह ४८ मुहर्तमात्र है (६२) । इन तीनों पदोंमें से प्रत्येक पद पूर्व पदसे विशेष अधिक है।' षडमायमाणकोहो मासादीदुगुण अवरठिदिबंधों । पडणे ताणं दुगुणं सोलसवस्ताणि चडणपुरिसस्स ॥३८२॥ पडणस्स तस्स दुगुणं संजलणाणं तु तत्थ दुट्ठाणे । बत्तीसं चउसट्ठी वस्सपमाणेण ठिदिबंधो ॥३८३॥ अर्थः-चढ़नेवालेके माया, मान व क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध एक मासको प्रादिकरके दुगुणा-दुगुणा है (६३.६४-६५) । गिरते हुए के उनका जघन्य स्थितिबन्ध द्विगुणा है (६६-६७-६८) । चढ़नेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध सोलहवर्ष है (६६) । गिरनेवालेके पुरुषवेदका जघन्यस्थितिबन्ध द्विगुणा है (७०) । पुरुषवेदके दोनों स्थानोंपर संज्वलनकषायोंका स्थितिवन्ध ३२ व ६४ वर्षप्रमाण है (७१-७२) । विशेषार्थ-चढ़नेवालेके मायाका जघन्य स्थितिबंध १ मासप्रमाण है जो पूर्वमें कहे गए वेदनीयके जघन्य स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है। गिरनेवाले के मायाका जघन्य स्थितिबन्ध और चढ़नेवालेके मानका जघन्य स्थितिबन्ध द्विगुणा अर्थात् दो मास है । गिरनेवालेके मानका जघन्य स्थितिबन्ध और चढ़नेवालेके क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध १, जयधवल मूल पृ० १९३४ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] क्षपणासार [ गाथा ५४ दुगुणा अर्थात् चार मासप्रमाण है । गिरनेवाले के क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध दुणा अर्थात् आठमास है। चढ़नेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध १६ वर्ष है। उसो स्थानपर अर्थात् उसीसमय चारों संज्वलन कषायोंका स्थिति बन्ध ३२ वर्ष है । गिरनेबालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध चढ़नेवालेसे दूणा अर्थात् ३२ वर्ष है । उसी स्थान पर चारों संज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध ६४ वर्ष है । चडपडणमोहपदमं चरिमं चरिमं तु तहा तिघादियादीम् । संखेजवस्स बंधो संखेज्जगुणकमो छरहं ॥३८४|| अर्थ-चढ़नेवालेके मोहनीयकर्मका संख्यात वर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध और गिरनेवालेके संख्यातवर्षवाला अंतिम स्थितिबन्ध तथा चढ़ने वाले के तीन घातियाकर्मोका संख्यातवर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध व उतरनेवालेके संख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध एवं चढ़नेवाले के तीन अघातिया कोका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला प्रथमस्थितिबन्ध और उतरनेवालेके तीन अघातिया कर्मोका अन्तिम स्थितिबन्ध ( ७३ से ८) ये छहों स्थान संख्यातगुणे कमवाले है ! विशेषार्थ-उससे चढ़नेवालेके अन्तरकरण करनेकी समाप्ति होनेके अनन्तर समय में पाया जानेवाला मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है जो कि संख्यातहजार वर्षमात्र है | उससे उतरनेवालेके उस समयकी समान अवस्थामें पाया जानेवाला मोहनीयक्रमका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम- । बन्द संख्यातगुणा है। इसका प्रमाण भी संख्यातहजार वर्षमात्र है। जिसप्रकार पहले चढ़नेवाले से उतरनेवाले के दूणा स्थितिबन्ध कहा था वैसा अब नहीं जानना, किन्तु यथासम्भव संख्यातगुणा जानना । उससे चढ़नेवालेके तोन घातियाकर्मोंका संख्यातवर्ष की स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुरगा है।' उससे उतरनेवाले के तीनधातिया कोका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे चढ़नेबालेके सात नोकषायोंके उपशमकालमें उपशामक कालका संख्यातवां भाग बीत जानेपर तीन अघातियाकर्मोंका संख्यातवर्षकी स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा १. क्योंकि मोहनीयके समान इनका प्रत्यधिक स्थितिबन्धापसरण भसम्भव है। (ज.घ, मूल प. १९३५) जयषवल पृ. १९३५ । गाथा २४८, २५६ व २६१ देखना चाहिए । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३८५] क्षपणासार [ ३११ है। उससे उतरनेवालेके वहां संख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७३-७८) चडपडण मोहचरिमं पढमं तु तहा तिघादियादीणं । अखेजस्तषोऽसंखजगुणकमो छण् ॥ ३८५ ॥ अर्थः-चढ़नेवालेके मोहनीयकर्मका असंख्यातवर्षवाला अन्तिम स्थितिबन्ध और गिरनेवाले के असंख्यातवर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध (७९-८०) तथा चढ़नेवालेके तीन घातियाकर्मोंका असंख्यातवर्षवाला अंतिम स्थितिबन्ध और उतरनेवालेका असंख्यात बर्षवाला प्रथमस्थितिबन्ध (८१-८२) एवं चढ़नेवालेके तीन अघातियाकर्मोंका असंख्यात वर्षवाला अन्तिम स्थितिबन्ध तथा उतरनेवालेके असंख्यात वर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध (८३.८४) ये छहों स्थान असंख्यातगुणे क्रमवाले हैं । विशेषार्थ:-- उससे चढ़नेवालेके मोहनीयकर्मका असंख्यात वर्षमात्र अंतिमस्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है जो कि असंख्यात हजारवर्षप्रमाण है और यह अन्तरकरणकालका समकालभावी स्थितिबन्ध है। उससे उतरनेवालेके मोहनीयकर्मका असंख्यातवर्षमात्र प्रथम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, गिरनेवालेके यहांपर असंख्यातगुणो प्रवृत्ति देखी जाती है । उससे चढ़नेवालेके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकोका असंख्यात बर्षवाला अन्तिम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। यह स्त्रीवेदके उपशमकालके संख्यातवेंभाग व्यतीत होजाने पर होता है । उससे उतरने वालेके तीनधातिया कर्मोंका असंख्यात वर्षवाला प्रथमस्थितिबन्ध असंख्यातगुरणा है । उससे चढ़नेवालेके तीन अघातिया (नाम-गोत्र-वेदनीय) कर्मोका असंख्यातवर्ष स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, यह सात नो कषायोंके उपशामनकाल में संख्यातवेंभागके व्यतीत होनेपर होता है । उससे उतरनेवाले के तीन अघातिया कर्मोका असंख्यातवर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध असंख्यातगुरणा है । यहाँ उतरनेवालेके जो स्थितिबन्ध कहा है वह चढ़नेवाले के उस स्थितिबन्ध होने के काल स्थानको स्तोक अन्तरसे न प्राप्त होकर संभवता है। चढ़नेवाले के जो प्रथम स्थितिबन्ध होता है उतरनेवाले के उसके निकटवर्ती अवस्थाको पानेपर अन्तिम स्थितिबन्ध होता है।' १. जयधवल मूल पृ० १६३५-३६ । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] क्षपणासार | गाथा ३८६-८८ । चडणे णामदुगाणं पढमो पलिदोवमस्स संखेजो। भागो ठिदिस्स बंधो हेछिल्लादों असंखगुणो ॥३८६॥ अर्थः-उससे चढ़नेवालेके नाम-गोत्रकर्मका पल्यके संख्यातभागमात्र हुआ प्रथम स्थितिबन्ध नीचेके ऋघातित्रय के स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा है (८५) ।' विशेषार्थः-यहां "नाम गोत्रका पल्पक संख्यातवेंभाग मात्र हुमा प्रथम स्थितिबन्ध" ऐसा कहनेपर जहां पल्योपम स्थितिबन्धसे संख्यात बहुभाग घटाकर पाय के संख्यातवेंभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध उत्पन्न हुआ वह ग्रहणकरना चाहिए। तीसियाउगह पढमो पलिदोवम संखभागठि दिबंधो। मोहस्सवि दोगिण पदा विसेस अहियक्कमा होति ॥३८७॥ अर्थः-चढ़नेवालके तीसिया चतुष्कका न्योपान के संख्यातवेंभाग वाला प्रथमस्थितिबन्ध (८६) तथा मोहनीयकर्मका पल्योषमके संख्यातवेंभागवाला प्रथम स्थितिबंध (८७) ये दोनों स्थान विशेष अधिक क्रमवाले हैं । विशेषार्थ-तीसिया चतुष्क अर्थात् तीस कोड़ाकोड़ीसागरकी स्थितिबन्धवाले चार कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तरायका पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध नाम गोत्रके पूर्वोक्त बन्धसे विशेष अधिक है विशेषका प्रमाण अपनी स्थितिबन्धके अर्द्ध भाग प्रमाण है (८६) । इससे मोहनीयकर्मका पल्योपमके संख्यातः भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, विशेषका प्रमाण अपने बन्धके विभाग प्रमाण है (८७)। क्योंकि ये दोनों पद विशेष अधिक क्रमवाले हैं तथा नामगोत्र वीसिया हैं और ज्ञानावरगादि तोसिया हैं । अतः वीसिया से तीसिया विशेष अधिक है गणाकाररूप नहीं है । चारित्रमोहनीय चालीसिया है जो ज्ञानावरणादि तीसियासे विशेष अधिक है, क्योंकि तीससे चालीस विशेष अधिक है गुणकाररूप नहीं हैं ।' ठिदिखंडयं तु चरिमं बंधोंसरणट्ठिदी य पल्लद्धं । पल्लं चडपडबादरपढमो चरिमो य ठिदिबंधो ॥३८८॥ १. जयधवल मूल पृ. १६३६ ! २. जयषवल मूल पृ० १९३६ । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 1 गाया ३८६ ] [ ३१३ अर्थ:-- चरम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है ( ) | स्थितिबन्ध घटाकर पत्यप्रमाण स्थितिबन्ध करनेके लिए जो स्थितिबन्धापसरणरूप पल्यका संख्यातवां भाग है वह संख्यातगुणा है ( ८ ) । पल्य संख्यातगुरणा है ( ६० ) । चढ़नेवाले के बादरलोभ के स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ( ६१ ) । उतरनेवालेके बादरलोभ ( अनिवृत्तिकरण ) के अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (६२) | क्षपणासार विशेषार्थ :- उससे चरम स्थितिखण्ड प्रर्थात् जितनी स्थितियोंकोघात के लिए ग्रहण की गई हैं वे स्थितियां संख्यातगुणी हैं। ज्ञानावरणीय आदि कमका प्रतिम स्थितिखण्ड सूक्ष्मसाम्पराय के अन्त में होता है । मोहनीय कर्मका अन्तिम स्थितिखण्ड अन्तरकरणके समकालमें होता है । अर्थात् श्रन्तरकरण के समकालीन है । यद्यपि यह स्थितिखण्ड भी पल्य के असंख्यातवें भागमात्र है तथापि पूर्वसे संख्यातगुणा है । उससे यह स्थिति जिसको बाके द्वारा बहकर पल्यप्रमाण स्थितिबंध किया गया संख्यातगुणी है । यद्यपि कम की गई स्थितिका प्रमाण भी पल्यके संख्यातवें भाग मात्र है, किन्तु पूर्व से संख्यातगुणा है । उससे पल्य संख्यातगुणा है, क्योंकि घटाई गई स्थितिका प्रमाण पत्य के संख्यातवें भाग मात्र था । उससे अनिवृत्तिकरण के उपशामकके प्रथम समय में स्थितिबंध पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण होता है । उससे उतरनेवाले श्रनिवृत्तिकरणके चरमसमय में होनेवाला स्थितिबंध संख्यातगुणा है ( ८८-१२) चडपड पुव्वपदमो चरिमो ठिदिबंधन य पडणस्से । तच्चरिमं ठिदिसंतं संखेज्जगुणककमा अट्ठ ॥ ३८६ ॥ - अर्थ — चढ़नेवालेके अपूर्वकरणका प्रथम स्थितिबंध संख्यातगुणा है ( २३ ) । गिरनेवालेके अपूर्वकरणका अंतिम स्थितिबंध संख्यातगुणा है ( ६४ ) | गिरनेवाले के अपूर्वकरणका अन्तिम स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ( ६५ ) | गाथा ३८८ व ३८६ में कहे गए आठस्थान संख्यातगुणेक्रमवाले हैं । - विशेषार्थः – उससे चढ़नेवाले के प्रपूर्वकरण के प्रथम समय में स्थितिबंध संख्यात्तगुणा है और वह अन्तः कोड़ा कोड़ीसागरमात्र है । उससे गिरनेवाले के अपूर्व करके अन्तिमसमय में स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, वह दूणा अथवा यथासम्भव संख्यातगुणा १. जयत्रवल मूल पू० १६३६-३७ । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] क्षपणासार [ गाथा ३६०-६१ जानना । उससे गिरनेवालेके अपूर्वकरण के चरमसमय में स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । यद्यपि स्थितिसत्त्वका गण अन्तःकोड़ाकोड़ी हैं तथापि स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के सर्वदा स्थितिबंध से स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । तप्पड मट्ठिदिसतं पडिवड अगिय ट्ठच रिम ठिदिसत्तं । अहियकमा चडबादपढमट्ठिदिसत्तयं तु संखगुणं ॥ ३६० ॥ अर्थ -- उसी गिरनेवाले प्रपूर्वकरणका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है ( ९६ ) । उससे गिरनेवाले अनिवृत्तिकरणका अंतिम स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है ( ६७ ) उससे चढ़नेवाले बादरलोभ प्रर्थात् श्रनिवृत्तिकरणका प्रथम स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ( ८ ) । विशेषार्थ -- उससे गिरनेवाले के प्रपूर्वकरणके प्रथम समय में जो स्थितिसत्त्व है वह एक समयकम अपूर्वकरणके कालप्रमाण अधिक है, क्योंकि उतरने में प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्वसे अंतिम समयवर्ती स्थितिसत्त्वकी हीनता उतने समयमात्र ही होती है ।' उससे गिरनेवाले अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में स्थितिसत्त्व एकसमय अधिक है । उससे चढ़नेवाले निवृत्तिकरण के प्रथमसमय में स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है, क्योंकि प्रथम समय में अनिवृत्तिकरण के परिणामोंसे स्थितिसत्त्वका खण्ड नहीं होता है । स्थिति - काण्डककी अंतिम फालिके पतन होनेपर स्थितिघात होता है । * ( ६६-६८ ) चडमाण पुव्वस्त य चरिमद्विदिसत्तयं विसेस हियं । तस्सेव य पढमठिदीसत्तं संखेज्जसंगुणियं ॥ ३६१ ॥ अर्थ -- चढ़नेवाले अपूर्वकरणके अंतिम स्थितिसत्त्व विशेषअधिक है ( EC ) 1 उसीका प्रथम स्थितिसत्त्व संख्यातगुरणा है ( १०० ) । विशेषार्थ - - उससे चढ़नेवाले अपूर्वकरण के अंतिम समय में स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है, क्योंकि अंतिमकाण्डकको अंतिमफालिका प्रमाण पत्य के संख्यातवें भाग मात्र पाया जाता है, सो इतना अधिक जानना, इससे उसीका प्रथम स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा १. क्योंकि नीचे उतरते हुए के स्थितिकाण्डकघात तो है नहीं (ज. घ. मूल पृ. १६३७, १६१३ तथा १६२६ आदि । २. ज. ध. मूल पृ. १६३७ ॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६०-६१] क्षपणासार [ ३१५ है, कारण कि चढ़नेवाले अपूर्वकरणके प्रथमसमय में स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । वह अंतःकोटाकोटीप्रमाण है। अपूर्वकरणके कालमें संख्यातहजार स्थितिकाण्डक होता है उससे उसके प्रथमसमय में जो स्थिति पाई जाती है उसका संख्यात बहुभागमात्र स्थिति घात होता है तथा उसके प्रतिमसमयमें एकभागमात्र स्थितिसत्त्व रहता है और उस प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्वसे पहलो (पूर्व में) स्थितिकाण्डकका घात है नहीं, उससे उसका चरमसमयवर्ती स्थितिसत्त्वसे प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा जानना {६९-१००) । इसप्रकार अल्पबहुत्वका कथन पूर्ण हुा । चारित्रमोहके उपशमाबने का विधान समाप्त हुा ।' १. विशेष टिप्पण-लब्धिसार गाथा ३६५ से ३९१ तक १०० पदों के अल्प बहत्वका कथन किया गया है, किन्तु कषायपाहुड़ सुत्त प०७३२ से ७३७ तक तथा चूर्णिसूत्र ६०६ से ७०५ तक १०० सूत्रों द्वारा ६६ पदोंके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है, क्योंकि लब्धिसार गाथा ३७० में "उतरने वाले लोभ की प्रथम स्थितिबाला" जो १८वां पद है उसका कथन णिसूत्र में नहीं है। धवल पु. ६ पु. ६३५ से ६४५ तक ६७ पदों के अल्पबहुस्वका कथन है, इसमें तीन पद कम है । लब्धिसार गाथा ३७० में जो उक्त १८वां पद है वह प. पु. ६ में नहीं है तथा गाथा ३७१ में "गिरनेवालेका मानवेदककाल" वाला २१वां व नोकषायोंका गुणश्रोणि पायामरूप २२वां पद, ये दोनों पद भी ध. पु. ६ में नहीं हैं। अन्य जो विशेषताएं हैं वे मिलान करके जानना चाहिए । लब्धिसार गाथा ३७० में १वें नं0 का स्थान जयधवलमें नहीं है। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र क्षपणासार पृष्ठ पंक्ति १ ११ प्रशुद्ध समरणाए अमख्यात वां भाग मात्र चतुर्थानिक देशामर्सक दुम्बर हो जाती है। पां पर . संक्रामण कमों का प्रनुभागकाण्डक घात जवाए सत्पातवा भाग मात्र पत:स्थानिक दशामर्शक स्वर ही जारी है। दिनका उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है। यहाँ पर रांत्रमा कमों का स्थितिघात होने पर स्थिति स्थान कौन सा रह जाता है अर्थात् स्थितिकाण्डक होने पर कितनी स्थिति शेष रह जाती है ? भनुभाग में प्रदर्तमान को का अनुभागकाण्डकघात पल्य के संस्थातवें भाग अनन्तर समय प्रोब्बट्टा १७वें निषेक वक पत्य के प्रसंस्पातवें भाग अन्तरसमय मोबट्टणा १वें निषेक तक १४ २२ ६६७ अपकषित प्रदेशाग्र का दूसरे संक्रमण तथा उदीरणा के लिये जाते हैं। कुछ का अपकर्षण (५) उत्कर्षण सम्बन्धी पणियट्टिस्स ठिदिखंजय १८ १७७ अपकषित प्रदेशाग्न दूसरे . संक्रमण के लिये जाते हैं, अपकर्षण (५) उत्कर्ष सम्बन्धी परिणयट्टम्स हिदिखंडपं जबत्तक हो जाता उससे असंख्यात गुणा कहते हैं और वहीं कहेंगे संपात गुणा है । पुन: ३ २१ २१ हुमा है प्रतः संख्यात गुणा कहना है या बहाँ कहना चाहिये असंख्यात गुपा है । पुनः ३५ १३ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३७ ११ अशुद्ध संक्रमण होता है । इसप्रकार संक्रमण होता है। ऐसे ही द्वितीयकाण्डम का संक्रमण होता है । ऐसे क्रम से पृथक्त्व स्थितिकाण्डक के द्वारा ८ कषाय के द्रव्य का पर प्रकृतिरूप संक्रमण होता है । इसप्रकार प्रथम काण्डकपाल होता है। ऐसे चख ३८ ७८ ४२ २२ प्रथमकाण्डकघात होकर चक्डू किन्तु स्थितिबन्ध पल्योपम के प्रसंख्यात माग प्रमाण ही होता है । इसप्रकार अनुभाग स्तोक होने से यो कसायारणं उपरितनवर्ती अपकषित द्रव्य को निषिद्ध है। परप्रकृति समस्थितिसंक्रम प्रथमस्थिति में अपकर्षण पौर ४३ १७ ४५ २४ ४६ २४ २५ प्रसंख्यातवें भाग को इति पाठो । "माउत्तकरण" इति पाठो सप उपयुक्तो प्रतिभाति । (६) नपुंसकवेदता त्रम हो जाता है। इति पाठो प्रतिभाति । भेवरूप लिये स्थिति होता है। अनुभाग स्तोक व अधिक होने से गोकसायाणं उपरितन उत्कर्षित द्रव्य को निषिद्ध है । परप्रकृतिसंक्रम प्रथम स्थिति में अपकर्षण संक्रमण द्वारा देता है। उदय को प्राप्त संज्वलनों की प्रथम स्थिति में अपकर्षण और संख्यातवें भाग को इति पाठः। "माउत्तकरण" इति पाठः, सच उपयुक्तः प्रतिभाति । नपुसकवेदका क्षय हो जाता है। इति पाठः प्रतिभाति । भेदरूप लिये मन्य स्थिति होता है ।१ इसी क्रम से प्रर्थात् प्रतिसमय मनन्त गुरिणत हीन क्रम से अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाष का बन्ध भी होता है। वहीं बहों विवक्षित समय से करनी प्राढते ५१ २३ ५२ ५६ २२ २ ५६ ७ ५६ . ५६ ११ ५८ ११ वही वही विवक्षित समय में करना माडत्ते Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध उपपादानुच्छेद अनुपपादानुद एण्ण इस नषकसमयप्रवर का अपगतवेदी का असंख्यातवर्ष परितासंख्यातस्पर्धककी मादि वर्गणा में नीचे के जधन्यपरीतानन्त तु होदि भपुष्वदिवागणाउ मपूर्वस्पर्धक वर्गणा पूर्व स्पर्षक वर्गणाओं के २२ करके जो प्रमाण अपूर्व खण्डों के क्रोधादि चार काण्डकप्रमाण में एक ८० १२ बोध हो जावे जयपवला टीकाकार ८१ १७ दूसरी कषाय का ८२ ४ से ७ इससे अपूर्वस्पर्घकों का ५८ २ पादानुकलेट अनुत्पादानुच्छेद एदेरण उस नवकसमयप्रवर का अपगतवेदी की प्रसंख्यात हजार वर्ष परीतासंख्यातवें स्पर्धक को प्रादि वर्गणा में तदनन्तर नीचे के जघन्यपरीतानन्ततु देदि अपुष्वादिमवमासाउ अपूर्वस्पर्धक की सकलवर्गणाएं पूर्व स्पर्धक की मादि वर्गणा के करके रूपाधिक करके जो प्रमाण अपूर्वस्पर्धक के सकल खण्डों के कोषादि चारों काण्डकप्रमाण में क्रमशः एक बोष हो जावे, एतदर्घ जयघवला टीकाकार दूसरी कषाय की इससे पूर्वस्पर्धकों की अपेक्षा एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर का प्रबहारकाल प्रसंख्यातगुणा है । क्योंकि एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्षकों को स्थापित करके पुन: उनमें से भपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण एक बार अपहृत करना (घटाना) चाहिये । और एक अवहारपालाका स्थापित करनी चाहिये । इसप्रकार पुनः पुनः अपहृत करने पर [घटाते जाने पर अपकर्षणउत्कर्षणमागहार से असंख्यातगुणा, पल्योपम का प्रसंस्थातवां भाग प्राप्त होता है। इस कारण यह अवहारकाल पूर्वोक्त से भसंख्यातगुणा है। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है । [ज०५० २०३२] ममुदेदि हीरो अणूभाग अथवा रसस्सबंधी या"रसबंधोय" भणुभाग ७९४ अनुभागसम्बन्धी भागहार प्रसंख्यावगुस्सा है। ८२ २० मई १३ १६ २३ २४ ५ मुवदेहि होगो अनुभाग मनुभाग ७४९ अनुभागसम्बन्ध Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध ५६ १४ प्रसंख्यातवें भाग गुणी असंख्यात भाग गुरिणत अनन्तगरण ८९ १६ स्पर्धको को संख्या स्पर्थकों के वर्गणामों की संख्या ५९ २२ वर्गमा का सर्वधर्मणामों का ८९ २२-२३ पूर्वस्पर्धकों के अनन्त- भाग प्रमाण अब कि ८१ २५ जाता है । जाता है। ८१ २८ क्योंकि अनुभाग खण्ड के क्योंकि प्रथम अनुभाव के नोट-पृष्ठ ८१ की टिप्पणी १-सकल अपूर्व स्पर्धक वर्गशाएं = एक गुणहानि की स्पर्धक संस्थापक स्पर्धनगत अनन्त वर्गणा असंख्यात जवकि सकलपूर्व स्पर्धक पूर्व स्पर्धक संबंधी नानागुणहा निशलाका एक गुणहानि में स्पर्षक संख्या या ,-एक म्पर्धक की वर्गणाएँ x अनंत, एक गुणहानि में स्पर्पक संख्या [ज. प. मूल पृ. २०४३ से ] , या सफल पूर्व स्पर्षक-एफ स्पर्धक गत अनंत दर्म एए। - अनन्त - एकगुणहानि में स्पर्धक संख्या ..........(ii) अब सूत्र (i) से सूत्र (ii) मैं मान स्पष्टतया अनन्त मुरणा होने से यह सिद्ध होता है कि---सकल अपूर्व स्पर्धक वर्मणामों से पूर्व स्पर्धकों की संख्या अनन्त गुणी है । इति सिद्धम् । १० ३ अनन्तगुणी उनकी वर्गणाओं से माया के पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणी वर्गणाओं से मायास्पर्धक है एवं जयधवल पु. ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त सूत्र से प्रदेशाग्र संख्यात गुरिणत है। ९६ ९६ ११ १२ धवल पुरा ६ पृष्ट ३५६ उपर्युक्त कथन से प्रदेशाग्न सबसे कम हैं । तृतीय संग्रह कृष्टि में विशेष अधिक है कोष की तृतीय संग्रह कृष्टि से ऊपर उसकी ही प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र संख्यात भुषित है। से क्रोध कषाय को अंतराइ गाम । प्रर्थात् स्वस्थान गुणकार की "कृष्टि-अन्तर", ऐसी संशा है तथा परस्थान गुणकारों की "संग्रह कृष्टि अन्तर", ऐसी संज्ञा है। (जयवल मूल पृ० २०५०) ६ १ प्रकार प्रोध कषाय को १०० २३ अंतराइणाम १०० २७-२६ अर्थात् ........(जयघवल मूल' पृष्ठ २०५१) Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १०४ संदृष्टि के १० बार दुगुणा करने पर दुगुरसा-दुगुणा करने पर तीसरी लाइन १०५ १७ निक्षिप्तमान १०५ २०-२३ इस विधान से...........अन्य कोई देता हुमा इसप्रकार इस विधान से अनन्तरोपनिया की अपेक्षा ऊपर सर्वत्र एक-एक वर्गणा विशेष प्रमाण हीन करते हए तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि समस्त संग्रह कृष्टियों की अन्तर कृष्टियों को उल्लंघन करके सर्वोत्कृष्ट घरम कोष कृष्टि (यानी ऋोष की तृतीय संग्रह वृष्टि की प्रन्त कृष्टि) को प्राप्त हो जाय । क्योंकि इस प्रध्वान में अनन्तर उत्तर की प्रमन्तर पूर्व से अनन्तभाग हानि को छोड़कर प्रकारान्तरता संभव नहीं है। इति पाठः । १०५ २५ इति पाठो पर्याय असम्भव है। अनन्तवें भाग प्रमाण है और विशेष से हीन समस्त द्रव्य है । १३ कृष्टियों के नीचे जाननी । दृश्यमान में १०७ १८ अनन्त - भाग प्रमाण है यहां हीन सकल द्रव्य का प्रमाण विशेष है । १२ कृष्टियों में से प्रत्येक की जघन्य कृष्टि के नीचे जाननी। इसप्रकार देय (दीयमान) द्रव्य में तेबीस स्थानों में उष्ट्रकूट रचना होती है । दृश्यमान में प्रथम संग्रहकृष्टि की जघन्यकृष्टि से अनन्तर दितीयकृष्टि में अनन्तभाग से हीन जाते हैं; अपूर्व तृतीय संग्रह कृष्टि में भी १० १४ प्रथमसंग्रह कृष्टि में प्रनन्त भाग से हीन जाते हैं। अपूर्व तृतीयसंग्रहकृष्टि के नीचे अन्तर कृष्टियों में भी परम कृष्टि से बारह सुज्जुत्तो अनुभवता वेदना जानना कि से संबंनिषेक सब संज्वलन के ११० १११ ११२ २० परम कृष्टियों से बारह संजुत्तो भोगता वेदन करना जानना । तथा अवशेष सर्व निषेक महा संज्वलन के ११४ १४ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध ११४ २३-२४ लब्ध में से एक माम ११५ ६ था उसको ११६ ६-७ उपरितन कृष्टि प्रमाण का ११६ १६ द्वितीयादि अधस्तन ११६ २० प्रमाण पश्चात् अघस्तन व उपरितन मनभय प्रादि बर्तमान में उत्तर. नीचे की केवल . संप्रति उदय कृष्टि में १२० २ अनुभाग वाली है । इसप्रकार ~ ~ लब्ध एक भाग है उसको उपरितन; कुष्टि प्रमाण का द्वितीयादि निचली प्रमाण है । पश्चात् निचली अनुभय कृष्टि नादि बर्तमान उत्तर. नीचे की कृष्टि केवल साम्प्रतिक उदय की उत्कृष्ट कृष्टि में अनुभाग वाली है। उससे दूसरे समय में बन्ध की जधन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन मनुभाग युक्त है। उससे उसी समय में जघन्य उदय कृष्टि अनन्तगुरणे हीन अनुभागयुक्त । इसप्रकार द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टि वेदक के घात तथ्य से व्ययद्रव्य पौर एक भाग का नदुसुहाणेसु रची जाती हैं, क्योंकि बध्यमान द्रव्य एक समयबद्ध प्रमाण है । संक्रम्यमारण प्रदेशाग्र से असंख्यात गुणी अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं। क्योंकि [अर्थात अपकषित समस्त द्रव्य] १२० ५ १२४ १६ १२५७ १२६ २२ १२७ १० द्वितीयसंग्रवकृष्टिवेदक के घातक द्रव्य से व्यय और एक भाग के चदुसट्ठाणेतु रची जाती हैं, क्योंकि अर्थात् अपापित समस्त द्रव्य जो १२९ १२९ १२९ १३० १३० १३० रची माती हैं उससे "इदरारणाम कृष्टिबेदककाल की प्रथमसमय में निर्वय॑मान चरमकृष्टि में निर्वतित जघन्य कृष्टि के प्रथम समय में २० उसके आने ७ पूर्व कृष्टि में से १५ अर्थात प्रथम १९-२१ प्रघम समय में विनष्ट कृष्टियों से रहित शेष बची हुई कुष्टियों के रची जाती हैं। 'इदराणं कृष्टिवेदककाल में प्रथम समय में उस प्रदेशाग्र के द्वारा निर्वत्यमान चरमकृष्टि के जघन्य अर्थात् प्रथम कृष्टि में उसके मागे पूर्व संग्रहकृष्टि में से अर्थात् पल्योपम के प्रथम द्वितीय समय में असंख्यात गुणीहीन कृष्टियों का नाश करता है। क्योंकि पाते गये अनुभाग के बाद शेष रहे १३० १३१ १३१ १६२ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १३४ २० १३७ १४० १४० १४० १४१ १० असंख्यातवें भाग का घात करसा अनुभाग को नष्ट करने में कारणभूत यहां की है इसलिए द्वितीय समय में . विशुद्धियों की उसी प्रकार से प्रवृत्ति होने का नियम प्रसंख्यातगुणीहीन कृष्टियों का देखा जाता है । इसीप्रकार नाश करता है । इसीप्रकार प्राप्त होते हैं, जो कि प्रथम संग्रह प्राप्त होते हैं । प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककाल विभाग कृष्टि वेदककाल के त्रिभाग से से कुछ अधिक है। कुछ अधिक है। उस संग्रहकृष्टि को उस संग्रहकृष्टि की चरमसमयवर्ती चरम समय में करता है, करता है । किन्तु अतिस्थापना प्रतिस्थापना सहिया अहिया प्रवयव कृष्टियों के द्रव्य का अवयव कृष्टियों का प्रऔर दव्य का द्वितीय कृष्टि में कृष्टियों का द्वितीय कृ ष्ट में संख्यातगुणा कृष्टियों का संख्यातगुणा चौदह गुणा हो गया । १ चौदह गुणा हो गया । १ इन अन्तरकृष्टियों के प्रदे धान का भी प्रल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए। प्रथमस्थिति शेष रह प्रथम शुद्ध स्थिति में समयाधिक मावली काल शेष रह अन्तर कृष्टियों के नीचे कृष्टि अन्तरों में बेद करके वेदन करके अपेक्षा असंख्यात अपेक्षा संख्यातविशेष कृष्टियों का अन्तर कृष्टियों का एक भाग प्रमाण द्रव्य दिया जाता है। एक भाग प्रमाण द्रव्य चढ़े गये अध्वान प्रमाण विशेषों से होन करके दिया जाता है। एक खण्ड द्रव्य जघन्य बादर एक खण्ड द्रव्य विशेषाधिक करके (चयाधिक करके) जघन्य दादर जाता तथा जाता है तथा दिया जाता है । इससे प्रागे दिया जाता है। पूर्वनिर्वतित कृष्टि को प्रतिपद्यमान प्रदेशाग्र का मसंख्यातवां भाग हीन दिया जाता है । इससे आगे अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक अर्थ-लोभ की तृतीय संग्नहकुष्टि से जो द्वन्य सूक्ष्म कृष्टि रूप परिणत हुप्रा वह स्त्रोक है। उससे लोभ को द्वितीय संग्रह कृष्टि से जो द्रव्य लोभ की तृतीय संग्रह कृष्टिरूप परिणत हुमा वह संख्यातगुणा है । १४९ १५४ १५ १५५ १५ १५ २२ १५७ १ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) पृष्ठ पंक्ति १५७ ११ १५७ ११ १५७ १५८ १५ १५८ २८ प्रतिग्राह्य के अल्पबहुत्व के अनुसार अर्थात् प्रतिग्राह्य का अल्पवहुत्व करने वाले के क्रोध की होता है, अतः यहाँ पर १६० १६ १६२ १. १६५ ही होता है तथा बादरकृष्टिवेदन ने छायाम भी इतना है। अधिक, क्योंकि प्रवरहिया प्रसंख्यातगुरोहीन गुणसे हि होदि विसेसाहिर अछ वस्सट्ठि तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा उदीपमान संख्यातवेंभाग को उदीम्मान स्थितिकाण्डकों को शुद्ध उससे लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कुष्टिरूप परिणत हुप्रा वह संख्यात गुगा है। विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्पराविककृष्टिकारक प्रतिग्रह के माहात्म्य के अनुसार ही अर्थात् प्रतिगृह्ममाए की प्रवृत्ति करने वाले के जो प्रदेशाग्र क्रोध की होता है, किन्तु लोभ की प्रथम संग्रह कृष्टि के इच्य का लोभ की द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टि में संक्रमण होता है प्रतः यहां पर ही होता था, वह भी रुक गया तथा बादरकृष्टिवेदन के मायाम भी सामान्म से इसना है। पिक है, क्योंकि प्रवरिया विशेष (चय) हीन गुरासेढिसीसए होदि, विसेसाहियं अवस्स हिदि तरप्रायोग्य संख्यात उदीयमान प्रसंख्मातवें भाग को उदीर्ण स्थितिकाण्डकों के यथाक्रम बीत जाने पर चरम स्थिति काण्डक को ऊपर पहले (पुरातन) ओ दिया जाता है, यहां प्रथम निषेक में दिया गया द्रव्य अनन्तर स्थिति में [तृतीय पर्व की प्रथम स्थिति में] देता है। दीयमान १६६ १७० १७० १४ १८ १७२ १७२ २३ २४ ऊपर जो दिया जाता है, यह द्रव्य अनन्तर स्थिति में देता है। र देयमान १७७ ११.१२ क्षीणकषायगुणस्थान के ऊपर और १७८१ पहिदे १७९ १७ तत्स्मृतम् १५० १० जिस काल में प्रश्वकएंकरण पदिदै तत्संस्मृतम् जिस काल में चार कषायों का प्रश्वकर्णकरण Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १८० २६ प्रशुद्ध अश्च कर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल 2 सेक संडेवक कर्मप्रकृतियां सत्त्व से कर्म प्रकृतियां उदय और सत्व से निगल निर्मल अन्तरित अन्तरित कहलाता है। विम्यं च उकारण विग्धचउकाण स्तविक स्तिक १६९ २३ केवलज्ञान प्रविनश्वरता को केवलज्ञान की प्रविनश्वरता को प्रमेय प्रानन्त्य प्रमेय में प्रानन्त्य अतः उनके प्रत: उनको प्रानन्त्यपना प्रानन्त्य केवलज्ञान उपचारमात्र से केवलज्ञान में उपचारमात्र से पावरक प्रानारक १६१ २१ अनवस्था भनषस्थान १६३ ५ अभाव और . धभाव है और १९३ १९ केवलज्ञानरूपी जिसका केवलज्ञानरूपी । २२-२३ और घातिया कर्मों को जीत लेने कहा जाता है अर्थात् क्षय कर देने से जिन कहे जाते हैं सकता सकते पादि व्यापार स्वाभाविक व्यापार मादि स्वाभाविक १६५ पादाम्बुजै पादाम्बुज: बंधादि बंधदि पाविसिय पविसिम १९७ २१ प्रवशिष्टकाल; और प्रयोग अवधिपष्ट काल; अयोगी का सर्वकाल और प्रयोग सर्वकालका संख्यातवांभाग इंन दोनोंको काल का संख्यातवां भाग इनको १९८७ प्रात्मप्रदेशों को कपाटरूप प्रात्मप्रदेशों को प्रतररूप करता है। द्वितीयसमय में प्रतर समेट कर भात्मप्रदेशों को कपाटरूप १९८ २२-२३ गुणरिणशीर्ष से उपरिम गुणश्रेणिशीर्ष से वर्तमान गुणोगिशीर्ष नीचे है। किन्तु पूर्व की अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का विन्यास करता है। यह गुणश्रेणी के ११ स्थानों की प्ररूपणा दाले सूत्र से सिद्ध है 1 गुणवे रिण शीर्ष से उपरिम Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध २६८ २७ परमगुरुसम्पदा परमगुरुसम्प्रदाय १९९ ३ वीयंपरिणामों में वीतराग परिणामों में १६५ ३ होने पर भी अन्तर्मुहूर्त होने पर भी प्रायु के अन्त मुहूर्त २०० ११ संख्यातवें असंख्यात २०० २७ होता है । कार्मण होता है । क्योंकि कार्मण २०१ १० जाते हैं । मूल जाते हैं । क्योंकि वहां मूल २०१ असम्भव है क्योंकि असम्भव है और क्योंकि २०२ ३ क्षपस के उपदेश में यह २०३६ लोकव्यापी, पांचवें समय में संकोच. लोकव्यापी, फिर क्रमशः पांचवें समय में लोकपूरण क्रिया की संकोचक्रिया २०३ ७ उसका संकोच होकर पाठवें समय में आठवें समय में दण्ड का संकोच हो जाता है। दण्ड हो जाता है। काल में पौर बाद २०३ सण्णिविसुहमारिण सपिणविसुहुमरिग २०६ १३ व्यतीत कर तक २०७ ३ असंख्यातवें भागरूप परिणमाकर भसंस्थातवें भाग प्रमाण अविभागी प्रतिच्छेद अपूर्व स्पर्षकों की चरम वर्गणा में होते हैं । अर्थात् पूर्व स्पर्षकों में से जीय प्रदेशों का अपकर्षण कर उनको पूर्व स्पर्धकों की प्रादि वर्गणा के प्रविभागी प्रतिच्छेदों के प्रसंख्यातवें भाग रूप परिणमाकर २०८ १६ एता ख्यातगुणे क्रम से प्रलिसमय असंख्यातगुणे क्रम से २११ १२ परिणमन परिणत २११ २३-२८ अथवा द्वितीय उपदेशानुसार....... अथवा प्रथम समय में स्तोक कृष्टियों का वेदन करता है; क्योंकि प्रधस्तन और उपरिम प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण ही कृष्टियां प्रथम समय में विनाश को प्राप्त द्वितीय समय में नष्ट होती हैं। होती हुई प्रधान रूप से विवक्षित हैं । दूसरे समय में असंख्यातगुणी कृषिटयों का वेदन करता है। क्योंकि प्रथम समय में विनाश को प्राप्त होने वाली कृष्टियों से दूसरे समय में, अधस्तन और उपरिम, प्रसंस्पातवें भाग से सम्बन्ध रखने वाली, प्रसंख्यातगुणी कृष्टियां, विनाश को प्राप्त होती है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। २१४ १४-१५ गुणश्रेणिशीर्ष की जघन्य स्थिति स्थितिकाण्डक की जघन्यस्थिति Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ पुवेदं पृष्ठ पंक्ति २१४ १६ प्रदेशाग्र देता है । यहां से प्रदेशाग्र देता है। पुरातन गुरपरिणशोर्ष से अनन्तर उपरिम स्थिति में असंख्यातगुणा हीन देता है। उसके ऊपर सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाम देता है। यहां से परिपूर्ण सपरिपूर्ण निर्जरा जिसका निजरा ही जिसका २२०८ एकद्रव्य या पर्याय को एक द्रव्य या गुण-पर्याय को २२१ २१ एक तथा एक शब्द के एक योग तथा एक शन्द के २२२ २० वीचार हो बह एकत्वविर्तक वीचार हो वह पृथक्त्ववितकवीचार नामक शुक्लध्यान है। जिस ध्यान में प्रथ; व्यंजन व योग की संक्रान्ति न हो, वह एकत्ववितर्फ २२३ ९ परमात्मव्यानं संगच्छते परमात्मध्यानं न संगच्छते । जिरण-साहुगुणुस्कित्ताए जिरण-साहुगुण विकत्तण २२९ ८ सपर्ट घतघट २२९ १२ बाह घी फा घट कहलाता है। "घी का घड़ा मायो"; ऐसा कहा जाता है। वैसे ही पुवेद २३२ १० खीरणा भीया २३२ ११-१२ अर्थ-स्थानगृद्धि.................... प्रर्थ-मध्यम ८ कषायों के क्षय करने के अनन्तर ............करके नाश करता है स्त्यानदिकम, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला; इन तीन दर्शनावरण की प्रकृतियों को, तथा नरकगति और तियंत्रगति सम्बन्धी नामकर्म की १३ प्रकृतियों को संक्रम मादि करते समय (अर्थाद सर्वसंक्रम मावि में पानी संक्रम काण्डकघात प्रादि करके) क्षीण करता है २३३ २५ गा० १३६, १३०-१३९ मा० ३-४-५ · २३४ २३ अहिय अहियो २३४ २४ बोषब्दो बोधब्बा २३४ २४ अणुभागे २३५ ३ मणुभागो प्रणुभागे २३५ ८ अनुभागविषयक अनुभाग को अपेक्षा साम्प्रतिक बन्ध से साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा होता है । इसके अनन्तरकाल में होने वाले उदय से २३६ २ पश्चातानुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी २३६ १३ सेसे सेस २३६ १८-१९ और तीन घातिया कमों का पृथक्त्व अणुभागो Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) पृष्ठ पंक्ति ८ ९ १० २३७ २३७ २३७ २३८ २३८ २३८ शुद्ध मुहृतं प्रमाण स्थितिबन्ध अन्तःवर्षप्रमाण बाधक बन्धक करता नियम से करता है। नियम से सपणाकाल में सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपणाकाल में प्रौर सूक्ष्मसाम्परायिक उपयुक्त १२ गाथानों का (जयघवल मूल) से (जयपवल मूल) के चूलिका का कथन चूलिका में स्थित उपयुक्त १२ माथानों का कपन १ २ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्व ग्रन्थ में जहां भाया वह पृष्ठ ११५ प्रवस्तन कृष्टि अधःप्रवृत्त संक्रम भागहार अनुपादानुच्छेद २३१-६० अनुभाग काण्डक काल मनुसमयाय वर्तन अन्तर कृष्टि ५६ १९७, १३४ £€ लक्षणावली क्षपणासार परिभाषा प्रथम, द्वितीय आदि कृष्टियों को घस्तन कृष्टि कहते हैं । पत्य के श्रद्धच्छेद के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण प्रत्रः प्रवृत्त संक्रम भागहार होता है । किम्भव हो, सीको विवक्षित प्रकृति, उसके परमाणुत्रों को अधःप्रवृत्त संक्रम भागहार का भाग देने पर एक भाग मात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप हो जाते हैं, यह भवःप्रवृत्तसंक्रम कहलाता है । देखो - उत्पादानुच्छेद की परिभाषा में । एक अनुभाग काण्ड का घातप्रन्तर्मुहूर्त काल में पूरा होता है; इस काल का नाम अनुभागकाण्डकोत्कीरण काल या अनुभाग काण्डककाल है । जहां प्रति समय श्रनन्त गुणे कम से धनुभाग घटाया जाय वहां अनुसमयापवर्तन कहलाता है। पूर्व समय में जो अनुभाग था उसको अनन्त का भाग देने पर बहूभाग का नाश करके एक भाग मात्र, अनुभाग प्रबशेष रखता है। ऐसे समय-समय अनुभाग का घटाना हुआ; ग्रतः इसका नाम श्रतुसमापवर्तन है। कहा भी है -- उत्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह प्रनुसमयपवना है। (धवला १२ / ३२) अर्थात् प्रतिसमय कुल ग्रनुभाग के अनन्त बहुभाग का अभाव करना अनुसमापवर्तना है | शंका – प्रतुसमापवर्तन को अनुभाग काण्डकघात क्यों नहीं कहते ? - समाधान –— नहीं कहते; क्योंकि प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर प्रन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है; परन्तु उल्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुममयापवर्तना हैं, दूसरे अनुसमयापवर्तना में नियम से अनन्तबहुभाग नष्ट होता है, परन्तु अनुभाग काण्डकघात में यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकार की हानि द्वारा काण्डकघात की उपलब्धि होती है । घवल १२ पृष्ठ ३२ एक-एक संग्रह कृष्टि में अनन्तर कृष्टि अनन्त होती हैं। क्योंकि मनकृष्टि के Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ शब्द पृष्ठ परिभाषा समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है। तथा संग्रह कृष्टि की ये अवान्तर कृष्टियां हो "भन्तर कृष्टि" कहलाती हैं । (अवयवकृष्टि -अन्तरकृष्टि क० पा० ८०६) मन्तरित प्रतीत, अनागत काल सम्बन्धी अन्तरित कहलाता है। जैसे राम, रावण प्रादि । प्राप्त मीमांसा. वृ० ५ तथा न्याय दी० पृ० ४१ । परन्तु पंचाव्यायी में ऐसे कहा है-मन्तरिता यथा द्वीपसरिनाथनमाधिपाः ॥२/४८४ अर्थात् द्वीप, समुद्र, पर्वत प्रादिक पदार्थ अन्तरित हैं; क्योंकि इनके बीच में बहुत सी चीजें या गई हैं। इसलिये ये दिख नहीं सकते। मिदिवस दिवस से कुछ कम को अन्तर्दिवस (अन्तःदिवस) कहते हैं । अन्तःकोटा मन्तः अर्थात अन्दर । अत: ला विरत मा दो कुल का हो नहीं अन्त: कोटि सागर संज्ञा होती है । इसी तरह कोड़ा कोड़ी से नीचे तथा कोड़ी से ऊपर को अन्तः कोटा कोटी कहते हैं । कहा भी है-"अन्तः कोड़ा कोड़ी सागर" ऐसा कहने पर एफ कोड़ा कोड़ी सागरोपमको संख्यात कोटियों से खण्डित करने पर जो एक खण्ड होता है वह मन्तः कोड़ा कोड़ी सागर का प्रथं ग्रहण करना चाहिये । (घवल ६/ १७४ चरम पेरा) अपवर्तनोदनिकरण ६४ प्रबकर्णकरण, प्रादौलकरण, अपवर्तनोद्वर्तनकरण; ये तीनों एकार्थक नाम हैं । उनमें से अश्वकर्णकरण ऐसा कहने पर उसका अर्थ होता है अपच का कर्ण प्रश्व ." कर्ण । प्रश्वकर्ण के समान जो करण यह प्रश्वकर्णकरण है। जिस प्रकार अश्व % मूल कथन दिया जाता है ताकि अन्तर सुस्पष्ट हो जायगा(i) अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः अर्था: (i) मन्तरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपाः मा० मी वृ. ५ लाटीसंहिता सर्ग ४ श्लोक पूर्वाधं पृ. ४१ (i) अन्तरिता: कालनिप्रकृष्टा रामादयः (ii)अंतरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपाः ___न्यायदीपिका पृ० ४१ पंचाध्यायी २/४६४ राजमल्ल त अनागतकाल सम्बन्धी अंतरित कहिये। पं० टोडरमलजी नोट-यहां उक्त सन्यों में काल से अंतरित नोट-ऊपर दोनों ग्रन्थों में क्षेत्र से अंतरित (व्यवहित)अथवा विप्रकृष्ट (दूर) पहित ( यानी विप्रकृष्ट ) को पदार्थ को "अन्तरित" कहा है। "अन्तरित" कहा है । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ शब पृष्ठ परिभाषा मागे से लेकर मूल तक क्रम से घटता हुआ दिखाई देता है उसी प्रकार यह करण भी क्रोध संज्वलन से लेकर सोभ संज्वलन तक कम से अनन्त गुणे हीन अनुभाग के प्राकाररूप चे व्यवस्था का कारण होकर अश्वकर्णकरण इस नाम से लक्षित होता है । अब प्रादोलकरण का अर्थ-पादोल नाम हिंडोला का है। प्रादोल के समान जो करण वह प्रादोल करण है । जिसप्रकार हिंडोले के खम्भे पोर रस्सी भन्तरान्त में त्रिकोण होकर कर्ण रेखा के प्राकार रूप से दिखाई देते हैं, घंसे ही यहां भी क्रोधादिक कषायों का अनुभाग का सन्निवेश क्रम से हीयमान दिखाई देता है । इसलिये अश्वकएंकरण को आदोलकरण संज्ञा हो गई है । इसीप्रकार अपबतना-द्वर्तनाकरण यह पर्यायवाचक, शब्द भी अनुगत अर्थ वाला है, ऐसा जातव्य है। मत: क्रोधादि संज्वलन कपायों के अनुभाग का विन्यास हानि-वृद्धि रूप से अवस्थित देख कर उसकी पूर्वाचार्यों ने "अपवर्तना-उद्वर्तना करण"; यह संज्ञा प्रवर्तित की है । जय धवला मूल पृष्ठ २०२२ एवं धवल पु० ६/३६४; कषाय पाहुइ सुत्त पृ० ७८७ अभिप्राय यह है कि प्रकृत में अश्वकर्णकरण की अपवर्तनोद्वर्तनकरण प्रौर आदोलकरण मे दो संशाएं होने का कारण यह है कि संज्वलन फ्रोध से संज्वलन लोभ तक के अनुभाग को देखने पर वह उत्तरोत्तर प्रनेत्तगुणा हीन दिखलाई देता है और संज्वलन लोभ से लेकर संज्वलन क्रोध तक के अनुः भाग को देखने पर वह उत्तरोतर अनंतगुणा अधिक दिखलाई देता है । जैसे घोड़े के कान मूल से लेकर दोनों और क्रम से घटते जाते हैं वैसे ही क्रोध संज्वलन से लेकर अनुभाग स्पयंक रचना क्रम से अननस गुणी हीन होती चली जाती है इस कारण तो अश्वकर्णकरण संज्ञा है । प्रादोल (हिंडोला) के खम्भे और रस्सी अन्तराल में कर्ण रेखा के प्राकाररूप से दिखाई देते हैं उसी प्रकार यहाँ भी क्रोधादि कषायों के अनुभाग की रचना क्रम से दोनों मोर घटती हुई दिखाई देती है अतः ग्रादोलकरण नाम है। इसी तरह इसी अपवर्तन-उद्वर्तन करण संका भी सार्थक है; क्योंकि क्रोधादि संज्वलनों के अनुभाग की रचना हानिवृद्धि रूप से प्रयस्थित है। ज० ल• १/१९५ जिन स्पर्धकों को पहले कभी प्राप्त नहीं किया, किन्तु जो क्षपक श्रेणी में ही मश्वकर्णकरण के काल में प्राप्त होते हैं और जो संसार अवस्था में प्राप्त होने वाले पूर्व स्पर्धकों से अनन्तगुणित हानि के द्वारा क्रमश: हीयमान स्वभाव वाले हैं, उन्हें अपूर्व स्पर्धक कहते हैं। अपूर्व स्पर्धक ४,२ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषा का १० मु. पृष्ठ ७८६; जम ध० प्र० ११०६; कहा भी है -वधर्भान तो पूर्व स्पर्धक तथा हीयमान अपूर्व स्पर्षक हैं । इसप्रकार दो प्रकार के स्पर्धक जानना चाहिये । पचं सं• अमित० १/४६ प्रश्वकर्णवरण के प्रथम समय से लगाकर उसके प्रन्तिम समय पर्यन्त बराबर मह अपूर्वस्पर्धक बनाने का कार्य चलता रहता है ।१ अर्थात् अश्वकर्ण करण का अन्तमुंहत प्रमाण काल हो इसकी विधि का काल है (इसके ऊपर कृष्टिकरण का कान प्रारम्भ होता है।) ऐसा जानना चाहिये। एक-एक संग्रह कृष्टि की अनन्त अवयव कृष्टियां होती हैं । एक-एक संग्रह कृष्टि में जो अनन्त कृष्टियां होती हैं। वे ही अवयव कृष्टियां हैं । क. पा० सु० ८०६ देखो-अपवर्तनोद्वर्तनकरण को परिभाषा में। . अवयव कृष्टि अश्वकर्णकरण ६४, ८७, , प्रादोलकरण प्रायद्रव्य भावजितकरण १९८ जिस प्रकार लोक व्यवहार में जमा-खचं कहा जाता है। उसी प्रकार यहां भी प्रायव्य और ब्ययद्रव्यम्प कथन करते हैं। अन्य संग्रह कृष्टिमों का जो द्रव्य संक्रमण करके विवक्षित संग्रहकृष्टि में पाया; (प्राप्त हुमा) उसे आप द्रव्य भौर विवक्षित संग्रहकृष्टि का द्रव्य संक्रमण करके भन्य संग्रह कृष्टियों में गया उसे व्यय द्रव्य कहते हैं। केबलि समुद्रात के अभिमुख होने को प्राजित करण कहते हैं। प्रर्यात केवलिसमुद्घात करने के लिये जो प्रावश्यक तैयारी की जाती है उसे शास्त्रकारों ने "भावजितकरण" संज्ञा दी है। इसके किये बिना केवलि समुद्घात का होना सम्भव नहीं है, पत: पहले अन्तर्मुहूर्त तक केवली प्रायजितकरण करते हैं । क. पा० सु. पृ०६.० सत्व के घटते २ जो प्रावली मात्र स्थिति प्रदशिष्ट रह जाती है उसका नाम उमिष्टावलि १ वैसे तो वृष्टिकरण काल में भी प्रश्वकर्णकरण पाया जाता है । क्योंकि वहां भी प्रश्वकर्ण के प्राकार संज्वलनों का अनुभागसत्त्व मा अनुभागकाण्डक होता है । क्ष० सा० ४९१ परन्तु "अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरण का काल" यहाँ प्रकृत है। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ उत्कृष्ट कृष्टि उपरितन कृष्टि उष्ट्रकूट श्रेणी काण्डक कृष्टि अन्तर केवलि समुद्घात ११९ ११५ १०९ १००-१०१ कोटाकोटीसागर ४८ १६६ १६ ( १७ ) परिभाषा "उच्छिष्टावली" है। यानी स्थितिसत्त्व में श्रावली मांत्र के श्रवशिष्ट रहने पर वह उच्छिष्टावली कहलाती है । सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिम कृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है । चरम द्विचरम आदि कृष्टियों को उपरितन कृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार ऊँट की पीठ पिछले भाग में पहले ऊँची होती है पुनः मध्य में नीची होती है, फिर श्रागे नोची-ऊँची होती उसी प्रकार यहां भी प्रदेशों का निषेक श्रादि में बहुत होकर फिर थोड़ा रह जाता है । पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और हीन होता हुआ जाता है । इस कारण से यहां पर होने वाली प्रदेश श्रेणी की रचना को उष्ट्रकूट श्रेणी कहा है । क० पा० सू० पृ० ८०३ जय धवल २०५९-६४ श्रन्तर्मुहुर्त मात्र फालियों का समूह रूप " काण्डक" है । एक-एक कृष्टि सम्बन्धी प्रवान्तर कृष्टियों के अन्तर की संज्ञा "कृष्टि प्रन्तर" है । क० पा० सु० ७६१ केवली भगवान् प्रघातिया कर्मों की होनाधिक स्थिति के समीकरण के लिये जो समुद्घात ( अपने आत्म प्रदेशों को ऊपर, नीचे और तिर्यक रूप से फैलाना ) करते हैं, उसे केवल - समुद्घात कहते हैं । इस समुद्घात को दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप चार अवस्थाएं होती हैं। दण्ड समृद्घात में आत्म प्रदेश दण्ड के प्राकार रूप फैलते हैं । कपाट समुदघात में कपाट ( किवाड़ ) के समान आत्मप्रदेशका विस्तार बाहुल्य की अपेक्षा तो प्ररूप परिमाणमय ही रहता है, पर विष्कम्भ और श्रायाम की अपेक्षा बहुत परिमाणमय होता है। तृतीय समुद्घात में अघातिया कर्मों की स्थिति और अनुभाग का मन्थन किया जाता है, अतः तीसरा "मभ्यसमुद्घात" कहलाता है । इसे ( तृतीय समुद्घातको ) प्रतर समुद्घात और रुजक समुद्घात भी कहते हैं । समस्त लोक में आत्म प्रदेशों का फैलाव, चौथे समय में हो जाने से, चौथे समय में लोकपूरण समुद्घात कहलाता है। विशेष के लिए जयधवला का पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार तथा प्रस्तुत ग्रन्थ पृष्ठ १६६ से २०३ देखना चाहिए । दस कोटाकोड़ी पल्य ( श्रद्धापल्य ) का एक सागर ( श्रद्धासागर ) होता है । तथा एकसागर को "करोड़ X करोड़ " से गुणा करने पर जो भावे वह कोटाकोटी Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कोषकाण्डक क्षायिक चारित्र गुजरा गुणसंक्रम चूलिका पृष्ठ ७९ ६९ ११ २३१ ( १८ ) परिभाषा सागर कहलाता है । अर्थात् करोड़ X करोड़ x सागर = कोड़ा कोड़ीसागर | [ कर्मो की स्थिति श्रद्धापल्य, श्रद्धासागर से वर्णित है ] श्राध की प्रपूर्वस्पर्धक संख्या को मान कपाय को प्रपूर्व स्वर्धक संख्या में से घटाने पर जो शेष रहे उसका क्रोध को अपूर्वस्पर्धक संख्या में भाग देने पर "क्रोध के काण्डक" का प्रमाण प्राप्त होता है । तथा उस काण्डकप्रमाण में क्रमश: एकएक अधिक करने से मान, माया एवं लोभ इन तीन काण्डकों का प्रमाण प्राप्त होता है। यानी क्रोध के काण्डक ( कोष काण्डक ) से एक अधिक कर नाम मान काण्डक है । इससे एक अधिक का नाम माया काण्डक है। तथा इससे भो एक अधिक का नाम लोभकाण्डक है । सकल चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने वाले चारित्र को क्षायिक चारिश्र कहते हैं । त वृत्ति २-४ ल. सा. ६०६ घवल पु. १४ / १६ [ वारित 'मोहक्लएर समुष्णं खइयं चारित ]; त. वा. २/४/७ स सि. २/४ प्रादि । विशुद्ध मुराणी के द्वारा कमंत्रदेशों की निर्जरा होना गुरपथे पि निर्जरा है । "गुरग रेगी की पारभाषा के लिए देखो - उदयादि अवस्थित गुरुश्रेणी प्रायाम की परिभाषा में । इतना विशेष जानना कि गुरुश्रेणि निर्जरा कर्म की होती है; नोक्रम की नहीं । ६० ९ / ३५२ "समयं पडि श्रसंखेज्जगुणाए सढ़ीए जो पदेवसंकमो सो गुलसंकमो त्ति भादे ।” अर्थात् प्रत्येक समय श्रसंख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा जो प्रदेश संक्रम ( अन्य प्रकृति रूप परिणमन ) होता है वह गुरणसंक्रम कहलाता है। जयधवल पु० ९ पृ० १७२ गो० क० जी० प्र० ४१३ आदि कहा भी है- श्रप्रमत्त गुणस्थान से प्राये के गुणस्थानों में बन्ध से रहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम श्रौर सर्व संक्रम होता है । घवल १६/४०९ प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कहा है कि प्रतिसमय प्रसंख्यातगुणे क्रम से युक्त, प्रबन्ध प्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य, बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों में संक्रान्त होता है, यह गुणसंक्रम है। ल. सा. ४०० गो० क० ४१६ अर्थात् विशुद्धि के वश प्रतिसमय संख्यातगुणित वृद्धि के क्रम से धवध्यमान पशुभ प्रकृतियों के द्रव्य को जो शुभ प्रकृतियों में दिया जाता है इसका नाम गुण संक्रम है । सूत्र सूचित श्रर्थ के प्रकाशित करने का नाम चूलिका है । घवल १० /३९५ जिस अर्थ-प्ररूपणा के किये जानेपर पूर्व में वरित पदार्थ के विषय में शिष्य को निश्चय ६ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द छमस्थ २३७ जघन्य कृष्टि ११९ दूरवर्ती १६-१८९ परिभाषा उत्पन्न हो; वह चूलिका है । ववन ११:१४० पूर्व निरूपित अनुयोग द्वारों में एक, दो प्रश्रवा सभी मनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों को विशेष प्ररूपणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम चूलिका है। धवल पु०७ पृ० ५७५ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का नाम "छम" है । इस छष्य में जो स्थित रहते हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं । धवल १०।२९६; धवल ।।१९०; धवल ११८५ सबसे स्तोक अनुभाग बाली प्रथम कृष्टि ही जघन्य कृषिट कहलाती है । दूरवर्ती क्षेत्र में स्थित “दूर" कहलाती है। क्ष. सार ६११ एवं न्यायदीपिका पृ. ४१ कहा भी है-"स्वभाव विकी परमाणु प्रादि, काल विप्रकर्षी राम, रावण प्रादि प्रौर देश विप्रकर्षी हिमवान् प्रादि सूक्ष्म, अन्तरित एवं दूरार्थे माने गये हैं।" प्रा. मी. ५ ( कारिकाकार स्वामी समन्तभद्र ) पृ० ३५; ३४ अनु० मूलचन्दजी न्यायतीथं अत: हिमवान् पर्वत आदि "दूर" कहलाते हैं । (द्र अर्थात दूरवती) परन्तु पंचाध्यायो उ० श्लोक ४८४ में लिखा है कि राम, रावण, चक्रवर्ती (बलभद्र, अर्द्धचत्री, चश्री ) जो हो गये हैं और जो होने वाले हैं वे दूराथं । दूरवती) कहलाते हैं ( यथा-दूरार्धा भाविनोतीता रामरावर चक्रिरण:) मही बात लाटी. संहिता ४-८ पर लिखी है। फर्क इतना है कि पंचाध्यायी व लाटीसंहिता में काल की अपेक्षा दूर से "दूर" लिया है। परन्तु ऊपर प्रस्तुत ग्रन्थ में एवं प्राप्तमीमांसा में देश ( क्षेत्र ) की अपेक्षा दूर को "दूर" कहा है। पन्य कोई बात नहीं है। अर्थात् विवक्षित कर्मद्रव्य का परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर क्षय होना । निकटतम प्रन्य कषाय की प्रथम संग्रह कृष्टि में विवक्षित कषाय के द्रव्यका संक्र. मए करना परस्यान संक्रमण कहलाता है। ज. घ. २१८३-८४ जो द्रव्य जिस कषाय में संक्रमण करता है वह उसी कपायरूप परिणमन कर जाता है। जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत कम से की जाती है उसे पर चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे—मैं मोक्ष सुख की इच्छा से धर्ध. मान स्वामीको तथा शेष तीर्थकरों को भी नमस्कार करता हूं। यह प्ररूपणा । १. अर्थात् पहले बद्धं मान स्वामी को नमस्कार करता हूं। और विलोमक्रम से वर्षमान के बाद पाश्वनाथ को, पाश्र्वनाथ के बाद नेमिनाथ को; इत्यादि क्रम से शेष जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता हूं। (घ. ११७४; मूलाचार १०५) यह पश्चादानुपूर्वी है। २३३ परमुख क्षम परस्थान संक्रमण १२०-१३६ पश्चादानुपूर्वी २३६ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ परिभाषा पूर्वानुपूर्वी प्रदेश घवल १।७४ कहा भी है-विलोमेण परूबरणा पच्छाणुपुटवी पाम । घवल ९६१३५ अर्थात् विलोम क्रम में प्ररूपणा करना पश्चादानुपूर्वी है । (प. ९।१३५ प्रयम पेरा ) जयघवल पुस्तक १ पृ. २५ प्रकरण २२ ( प्रथम गेरा) में भी कहा है कि- उस पदार्थ की विलोम क्रमसे अर्थात् अन्त से लेकर प्रादि तक गणना करना पश्चादानुपूर्वी है। उद्दिष्ट क्रम से अधिकार की प्ररूपरणा का नाम पूर्वानुपूर्वी है । (धवल ९।१३५ प्रथम पेरा । ) जो पदार्थ जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है । जयघबल १।२५। जो वस्तु का विवेचन मूल से परिपाटी द्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्व कहते हैं । दानदार रण म प्रकार है'ऋषभनाथ की वन्दना करता हूं, अजितनाथ की वन्दना करता हूँ' इत्यादि क्रम से ऋषभनाथ को प्रादि लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त क्रम वार वन्दना करना, सो धंदना सम्बन्धी पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है । धवल १७४ । (i) जितने क्षेत्र में एक परमाणु रहता है उसका नाम प्रदेश है । 2 स. सि. ५-८; द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र १४०; प्र. सा. ( जय.) २,४५, नियमसार पृ. ३५. अन्य विवक्षा में स्कन्ध के प्राधे के प्राधे भाग को या देश के माघे भाग को प्रदेश कहते हैं । * त० सा० ३१५७; बसुनन्दिनाक १७ गो० जी०, श्री. प्र. ६०४; पं० का० ७५; मूला० ५--३४ ( वट्टकेराचार्य }; भाव सं० ३०४; गो० जी० ६.४ आदि । (it) परन्तु यहां कर्म शास्त्र में, प्रकृत में प्रदेश शब्द से, परमाणुरूप द्रव्य जानना चाहिए। लब्धिसार-क्षपणासार में जहां प्रदेश शब्द पाया है, वहां प्राम: "फर्मपरमाणु" अर्थ में ही पाया है। प्रदेश = कर्मपरमाणु । ( देखो क्षपणासार गा. ४४१ पृ० ४६ आदि पर प्रागत प्रदेश शब्द ] (i) कार्य के विनाश का नाम प्रध्वंसाभाव है । धवल १।२६ (i) दही में जो दूध का अभाव है वह प्रध्वंसाभाव स्वरूप है। जै० ल० ३७६५ (ii) प्रध्वंस अर्थात् कार्य का विघटन नामक धर्म । * नोट-पे दोनों (1) व (i) परिभाषाए परिज्ञान मात्र के लिए दी गई है। प्रध्वंसाभाव Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द फालि बम्बावली मान काण्डक माया काण्डक लोभ काण्डक व्ययद्रव्य संऋमावली संग्रहकृष्टि संग्रहकुष्टि अंतर सूक्ष्म पुष् ४८ ८० ८१ ८२ १२१ ९४ १०० १०१ १८६.१५१ सूक्ष्मसाम्पराय- १५० कृष्टिकर परिभाषा (iv) आगामी पर्याय में वर्तमान पर्याय के प्रभाव को प्रध्वंसाभाव कहते हैं । जं० सि० प्र० १८३ (1) समय - समय में जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह कालि है । ( संक्रम प्रकररण में } (i) स्थिति काण्डक के प्रकरण में जितना द्रव्य काण्डक में से प्रति समय श्रवशिष्ट नीचे की स्थिति में दिया जाता है वह फालि है । ( २१ ) (iii) ऐसे ही उपशमन काल में पहले समय जितना द्रव्य उपशमाया वह उपशम की प्रथम फालि, द्वितीय समय में उपशमाया वह उसकी द्वितीय फालि इत्यादि । भावतः समुदायरूप एक क्रिया में पृथक्-पृथक् खण्ड करके विशेष करना "फालि" कहलाता है । इसे लावली भी कहते हैं । प्रकृति का बन्ध होने के बाद प्रावली मात्र कालतक वह उदय, उदीरणादिरूप होने योग्य नहीं होता, यही मानलीकाल बन्धाबली है । इसे श्रावाधावली भी कहते हैं । देखो क्रोधकाण्डक की परिभाषा में | " י, " " देखो प्रायद्रव्य की परिभाषा में । जिस श्रावली में संक्रमण पाया जाय वह संमावली है । श्रीवादि संज्वलन कषायों की जो बारह, नो, छः और तीन कृष्टियों होती हैं क० पालु० पृ० ८०६ वे ही संग्रह कृष्टियां । पुन: इस एक-एक संग्रह कृष्टि की श्रवयव या अन्तर कृष्टियां श्रनन्त होती हैं । (क० पा० सुत पृ० ८०६) क्योंकि अनन्त कृष्टियों के समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है | (i) परस्थान गुणकार का नाम संग्रहकृष्टि प्रन्डर है । ( जयमल मू० २०५० ) (ii) संग्रहृष्टियों के और संग्रहकृष्टियों के अधस्तन उपरिम अन्तर ११ होते हैं, उनकी संज्ञा " संग्रहकृष्टिमन्तर"; ऐसी है । क. पा सु. पृ. ७९९ सू. ६११ परमाणु श्रादिक सूक्ष्म है। धर्मद्रव्य, कालाणु, पुद्गलपरमाणु प्रादि सूक्ष्म हैं 1 पंचाध्यायी २०४८३, लाटी संहिता ४७ आदि । संज्वलन लोभकषाय के अनुभाग को बादर साम्परायिक कृष्टियों से भी अनन्तगुणित हानिरूप से परिमित करके प्रत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूप से Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) शब्द पृष्ठ स्थितिकाण्डककाल स्थितिबंधापसरणकाल ५३ परिभाषा अवस्थित करने को सूक्ष्मसान्परायिक कृष्टिकरण कहते हैं । जघधवल मूल ५० २१९४-९५ तथा का पा० मुत्त पृ०८६२ एक स्थिति काण्डकात में लगने वाला काल स्थितिकाण्डककाल कहलाता है। यह अन्तर्मु हुतंप्रमाण होता है । यह स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल भी कहलाता है। एक स्थितिबन्धापसरण काल में लगने वाले फाल को स्थितिबन्धापसरण काल कहते हैं । यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। इसे स्थितिबन्धकाल भी कहते हैं। एक स्थिति काण्डकाका काल (यानी स्थितिकाण्डककाल) और स्थितिबंधापसरण का काल परस्पर तुल्य होते हैं । ( ल. सा. गाथा ७६ पृ. ६४, ६५, ७६ क्ष० . पृ. ३४ आदि) स्वस्वरूपसे उदित होते हुए क्षय होना। . विवक्षित कषाय की संग्रह कृष्टि का द्रब्य जब अन्य संग्रह कृष्टि में संत्रमण करता है तो उस विवक्षित कपाय की ही सेप अघस्तनकृष्टियों में संक्रमण करता है यह स्वस्थान संक्रमण है। स्वस्थान में अर्थात् अपनी ही अभ्य संग्रहकृष्टियोंमें । संक्रमण करना, अर्थात् तद्रप परिणाम करना; ऐसा अर्थ है। स्वमुखक्षय स्वस्थान संक्रमण १२०-१३९ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२३ २३१ २३२ २२७ २२५ १९३ २३५ २१३ ४ १६४ ४ ४ १९३ २३३ २२३ २३६ १९४ २२७ २३७ २२५ २२५ २३४ २३६ गाथांश अट्टरउदं भारणं श्रमिच्छ मिस्स अध थी गिद्ध क्षपणासार "टीकायामुद्धृतगाथासूचिः' अविदक्क मवीचारं भरिएयट्टी भविदवकमवीचारं सुहूम असहायर दंसरण उदयो च श्रणंतगुणो अंतीमुत्तमद कारण वा पुचद्धार काय वाक्यमनसां किं ट्ठिदियारि कम्माणि के अंसे स्वीयदे पु केवलवाणदिवायर कोहस्स छह मारणे घरवावारा केई चरिमे बादररागे जगते श्वया हितमजसव्वसरीरगद जावर दुमत्यादो जिस साहुगुणुवितरण - जोगविरणासं किच्चा जो जहि तो जं चावि संछुतो 11 अन्य प्रन्थ में जहां थाई है भावसंग्रह गा० ३५७ ज० ० मूल पृ० २२७२ गा० १ ज० ० मूल पृ० २२७३ गा० २ तथा क०पा०सु० पृ० ७५६ गा० १२८ धवल १३ पृ० ८७ गा० ७७ भ० प्रा० गा० १८८६ ज० ० मूल पृ० २२७७ गा० २ तथा घवल पु० १ पृ० १६१-६२ ज० ६० मृ० पृ० ज० ६० मू० पृ० क० पा०सु० पृ० ज० ६० मू० पृ० स्तोत्र ७४ २२७४ गा० ६ २२६१ गा० १५७ ६१४ गा० ६२ २२७१ मा० १४८ तथा स्वयंभू क० पा०सु० पृ० ६१५ गा० ६४ क० पा०सु० पू० ६१५ गा० ६३ ज० ६० मूल पृ० २२७० गा० १ तथा घवल १/ १६१-६२ ज० ध० मु० पृ० २२७३ गा० ५ तथा क० पा०सु० पृ० ७६४-६५ भावसंग्रह गा० ३८५ ज० ६० मु० पू० २२७४ गा० १० तथा क० पा० सु० पृ० ८७४ गा० २०६ ज० ६० पृ० २२७१ गा० १४७ धवल १२ पृ० ८७० ७५ ज० ६० सू० पृ० २२७४ गा० १२ धवल १३ पृ० ७६ स्वा० कार्ति० अनु० गा० ४८७ ज० ६० मूल पृ० २२७३ गा० ६ तथा क० पा० सु० पृ० ७६५ गा० १४० ज० ० मूल पृ० २२७४ गा० ११; क० पा०सु० पृ० ८६१ गा० २१७ तथा क० पा० सु० पृ० ६२५ गा० ११ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२६ २२८ १७५ ૨ २२७ १६५ २१३ २२६ १ २०३ २०५ १६५ २०५ २३५. २३४ २२४ २२४ १ १६२ १९४ २२४ tex २३२ १ २२६ ४ २३३ २०३ गायांश झार तह भायारो भारणं सजोइकेवलि सिखोरामोहो तव वीर्यविघ्नविलयेन तह बादरत बिसयं तिथयरस विहारो ततीयं काययोगस्य तोयमिव गालियाए तो सुप्रदेवय मिरामो दण्डं प्रथमे समये दीन्द्रियसाधारणयोनभस्तलं पल्लवयन् पंचेन्द्रियोऽथ संज्ञी य: बंधे होइ उदभो बंधे होइ उदयो मुक्खं धम्मभारणं मुख्योपचारभेदेन मुयिपरमत्यविपर विरागहेतु प्रभवं न विवक्षास शिवानेऽपि दृष्टिज्ञानवृत्तानि सपर बाहासहियं सबस मोहणीयस्त सुसुदेवयाए भत्ती सुदोसुमहकायजोगे कामरपट्ट्वगस्स संहृदि पुरिसवेदे संहरति पंचमेश्वन्तराणि ( २४ ) अन्य ग्रन्थ में जहां लाई हैभावसंग्रह गा० ६८३ भावसंग्रह गा० ६८२ गो० जी० ६२ ज० ध० मूल पृ० २२६९ गा० १४२ धवल १३ पृ० ८७ गा० ७६ ©»s { {Ho जय ध० मूल पृ० २२६० श्लोक १५६ धवल १२ / ८६ गा० ७४ ज० ६० मूल पृ० १६३६ जय ध० मूल पृ० २२८२ गा० १५२ जय ध० मूल पृ० २२८४ श्लोक १५५ जय भ० मूल पृ० २२७२ तथा स्वयंभू स्तोत्र पद्म प्रभस्तवन गा० ४ ज० घ० मूल पृ० २२८४ श्लोक १५४ ज० घ० मूल पृ० २२७४ ०८ तथा घवल पु० ६ पृ० ३३२ गा० २७ एवं क० पा०सु० पृ. ७७० ज० भ० मूल पृ० २२७४ गा० ७ तथा क० पा० सु० पृ० ७६२ गा० १४४ भावसंग्रह गा० ३७१ तत्त्वानुशासन श्लोक ४७ जय ध० मूल पृ० १६३६ जय ध० मूल० पृ० ९२७० गा० १४४ जय घ० मूल पृ० २२७१ गा० १४९ तत्त्वानुशासन श्लोक ० ५१ प्रवचनसार गा० ७६ तथा जयधवल मूल पृ० २२७० गा० १४३ जय ध० मूल पृ० २२७३ मा० ३ तथा क० पा० सु० पृ० ७६४-६५ गा० १३६ ज० ध० मूल पृ० १६३६ भ० आ० गा० १८८७ क०पा० सुत० पृ० ६१४ गाथा ६१ जयघघल मूल पृष्ठ २२७३ गाथा ४ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७६४-६५ जयधवल मूल पृ० २२५२ गा० १५३ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रस्थिति प्रतिस्थापना प्रतिस्थापनावली श्रवस्तनकुष्टि झधः करण अधःप्रवृत्तसंक्रम मघःप्रवृत्तसंक्रम भागहार श्रनिवृत्तिकरण अनुत्पादानुच्छेद अनुभाग काण्डक काल अनुभाग काण्डकघात अन्तदीपक अन्तरकरण अन्तरकृष्टि अन्तरायाम अन्तरित अन्तःकोड़ा कोड़ी प्रन्स : दिवस अन्त:वर्ष अपकर्षण अपकर्षण उत्कर्षरण भागहार अपवर्तन अपवर्तनोद्वर्तनकररण पूर्वकर पूर्वस्पर्धक पूर्वस्पर्धककरण अभिसन्धि अत्रयवकृष्टि श्रवस्थित गुरश्र णी क्षपण्मासार विशेष शब्द-सूची १२ ११, १६४ १६७ ११५ २ ४६ १५८ २. २४ ६०, २३१ ५६ ४, १० ६७ ४३ EE १६५ १८६, १८६ २१ २३६ २३६ १० ६ ६४, ६६, ८७ २ ६०, ६३, ८८ २ १६४ ६४ १७८ अश्वकरकरण असंक्रामक प्रागाल प्रादोलकरण श्रानुपूर्वी संक्रमण आबाघा आयद्रव्य आयुक्तकरण श्रावजित करण भावजितकरण केवली ईषत् प्राग्भार पृथिवी उच्छिष्टावली उत्कीर्ण उत्कृष्ट कृष्टि उत्पादानुच्छेद उपरितन कृष्टि उपरितन स्थिति कुणी एकत्ववितकं अवचार कपाटसमुद्घात काण्डक कृष्टि कृष्टि अनुभवन कृष्टि अन्तर कृष्टिकरण केवली समुद्घात १८०,१७९,६४,८७,८८ कोड़ाकोड़ी कमकरण २३३ ६० ६४,८७,८८ ૪૨ ४६ १२१,१२२,१२४ ४७ १६७,१६८ २०० २१७ ३८ २३४ ११६ २३,६१ ११५. १० १०६, ११० २२२ १६७, १६६ ४८ ९३ २, ११२ १००,१०१ २ १६६ १६ ३६ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ३६. २३६ क्रोधकाण्डक ७६ | पूर्वस्पर्धक गलिताय शेषगुणश्रणो १०,२० । पूर्वानुपूर्वी गुएराशि प्राम पृथक्त्व गुणश्रेरिण निर्जरा पृथक्त्व वितकं सविचार गुरागी शीर्ष २२२ प्रतर समुद्घात १६७, १६९ गुणसंक्रमण प्रतिग्रह गोपुच्छा १५७ प्रतिग्रहस्थान घातद्रव्य १५६ १२५ प्रतिग्रह्यमाण चालीसीय १५७ २७,२६ प्रत्यागाल चलिका ६० प्रत्यावलो उद्मस्थ प्रथम वर्गमूल जघन्य कृष्टि १७७ प्रदेश जघन्य वर्गणा ४६ प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर डेढ़गृणहानि ८६ १७३ प्रध्वंसाभाव तीसीय १८६ २७, २६ फालि दण्डसमुद्घात १६७, १९६ बादर उच्छ्वास निःश्वास दीयमान १४, १७६, १३० बादर काययोग दूरवर्ती २०३ १८६, १८६ बादर मनोयोग दूरापकृष्टि २०३ २६, ३०, ३१ बादर वचनयोग दृश्यमान ११४,१३०,१५७.१६% २०३ बीसीय १६६,१७६ २७, २८, २४ देशघातिकरण ४२,२ भजिलव्य देशामर्शक महावाचक पार्यमा द्रव्य वेद मानकाण्डक ध्यान २१३ मायाकाण्डक नवकसमय प्रबद्ध यति वृषभाचार्य २०२ निक्षेप योगनिरोध १६८ नि:सिंचमानप्रदेशाग्र लोकपूरणसमुद्घात १६७, १६६ परमुखउदय लोभकाण्डक ८२ परमुख क्षय वर्षपथक्स्व परस्थान विशेषहीन परस्थानगुणकार १०१ विसंयोजना परस्थान संक्रमण १२० व्यय द्रव्य १२२,१२३,१२४,१२१ पर्व व्यपरतक्रियानिवर्ती २२७ पल्योपम २०,१७७ शेष शेष २६ पश्चादानुपूर्वी २३६ | शैलेश्य भाव २०२ १३० m mro २१५ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ संक्रमण संक्रान्त संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टि अन्तर सत्वापसरण सिद्धान्तचक्रवर्ती २१.२३ ४ | सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि स्तिवुक संक्रमण ६७,६४ स्थितिकाण्डरघात १००,१०१ स्थितिबन्धापसरण स्थितिबन्धापसरणकाल २३८ स्थितिसत्कर्म १८६, १८६ २०३ स्वजातीय १७० स्वमुखक्षय २२५ स्वस्थान केवली २०३ स्वस्थानगुणकार २०३ स्वस्थान संक्रमण १५ १६६, २०० सूक्ष्म सूक्ष्म उच्छवास नि:श्वास सूक्ष्मकृष्टि सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती सूक्ष्ममनोयोग सूक्षमवचनयोग १०१ १३६ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "क्षपणासारस्य गाथानुक्रमणिका" गा.सं. गाथा पृ सं. २१० २०० १८३ ४९५/१०४ प्रकसायकसायाणं ४११/२० अरिणयद्विस्स य पदमे ६३६/२४५ प्रयुवादिवग्गणार ६०८/२१७ अवगववेदो संतो ४०९/१८ असुहागणं पयडीयं "प्रा" ४०६/१५ पाउगवज्जारणं ठिदि ३६६/५ प्रादिमकरणद्धाए ४६३/६२ प्रादोलस्स य चरिमे ४८२/९१ भादोलस्स य पढमे ४८४/६३ प्रादोलस्सम पदमे ५२५/१३४ मायादो वयमहियं ६१६/२२० प्रावरणदुगारण खये गा. सं. गाया ५९४/२०५ एत्तो सुहुमतो त्ति य ६३९:२४८ एत्यापुम्वविहारणं ५६३/२०२ एदेगप्पावहुग४२०/२९ एवं पल्लं जादा "प्रो" ५८४१९३ प्रोक्कदिइगिभागं ६३३/२४२ प्रोकडदि पडिसमयं ६३७/२४६ प्रोकड्डदि पडिसमयं ४७०/७६ मोक्कड्डिदं तु देदि ४०३/१२ भोकडदि जे अंसे ४९३/१.२ प्रोक्कट्टिद दव्वस्स प ४०१/१० प्रोन्वट्टणा जहण्णा २०६ २०८ १२४ १५५ ४४२/५२ इदि संडे संकामिय १६४ ४६०/६६ अंतरकदपदमादो ५.९/११८ अंतरपहमडिदित्तिय ५८६/१५५ अंतरपडमाडिदित्तिय ५८७/१६६ अंतरपदमठिदि त्तिय ५९०/१९९ अंतरपदमहिदि त्तिय ४०७/१६ अंतोकोडाकोही ६२०/२२६ अंतोमुहुत्तमाऊ १६६ १७३ ५६७/२०६ उक्क्रिपणे प्रसाणे ४३५/४४ उाकोरिदं तु दन्वं ४१४/२३ उदधिसहस्स पुधत्तं ४२१/३० उदधि सहस्स पुधत्तं ५२७/१३६ उदयगदसंगहस्स य ५१७१२५ उरि उदयारण। २६ २१२ २१० ४१७/२६ एइंदियट्टिीदीदो ६३०/२३९ एक्कस्स पिउँभरण ४०८/१७ एक्केवढिदिखंडय ४०४/१३ एक्कं च ठिदिरिसेसं ६३५/२४४ एत्तो करेदि किट्टि ६२७,२३६ एत्ता पदर बाट ६४३/२५२ किट्टिमजोगी कारणं ५.६/११५ किट्टीकरणद्धाए ६४०१२४९ किट्टीकरणे चरिमे ४६४/१०३ फिट्टीयो इगिफड्ढय २८ ५१४/१२३ किट्टीवेदगपरमे २०३ ५७५१४ किट्टीदेवगपढमे ४७४/८३ कोहृदुसे एबहिद १५ ५५६/१६५ कोहपडम व मारणो २०८ ५६७/१७६ कोहस्स पहमकिट्टी १६७ । ५४७/२५६ कोहस्स पठमकिट्टी ११४ १५७ १५१ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) पृ. सं. | | गा. सं. गाथा ६०३/२१२ चरिम वडे पडिदे ६०९/२१८ बरिमे पडम विग्धं १८४ १३२ १७९ ४१०/86 छक्कम्मे संछुद्ध १५७ १९७ गा. सं. गाथा ५३०/१३६ कोहस्स पढमकिट्टी ५१६/१२५ कोहस्स पढमसंगह ५४२/१५१ बोहस्स पठमसंगह ५३७/१४६ कोहस्स अ जे पढमे ६०४/२१३ कोहस्स य पढमठिदी ५७७/१८६ कोहस्स य पढमादो ४९७/१०६ कोहस्स य मालास्स य ५४४/१५३ कोहस्स विदियकिट्टी ५४५/१५४ कोहस्स विदियसंगह ५३८/१४७ कोहादि किट्टियादि ५३६/१४५ कोहादि किट्टिवेदग ४९२/१०१ कोहादीणं सगसग ४७१/८० कोहादीरणमपुवं ४३९/४८ कोहं च छुहदिमारणे ५८८/१९७ कंडयगुणचरिमठिदी १३७ १३९ १३८ ६२६/२३५ जगपूरसाम्हि एक्का ५४०/१५७ जस्स फसायस्स जं ६५३/२६२ जस्स प पायपसाए ४७३/८२ जे हीणा प्रवहारे ६२३/२३२ जोगिम्स सेसकाले ६४४/२५३ जोगिस्स सेसकालं ६१४/२२३ जं शोकसायविग्घ६१५/२२४ जंणोकसाविग्य १३२ २१३ १५७ ६१०/२१९ खोणे घादिचउक्के ११७ " " ४ ५८ ४६७/७६ गपणादेमपदेसे ४५४/६३ गुणसढि प्रणतगुणे ४४२/५१ मुरणसे हि असंखेज्जा ५८३/१९२ गुणसेदि अंसट्टिदि ३६३/२ गुगसेटी गुरपतकम ३६७/६ गुस्सेढी मुरणसंकम ३६८/७ गुणसेदीदीहत्त ५८५/१९४ गुणिय चउरा दिख x mP ४५१/६० ठिदिखंडपुषत्तगदे ६२४/२३३ ठिदिखंडमसंखेग्जे ४३३/४२ ठिखिंडसहस्समदे ४३१/४० ठिदिबंधपुधत्तपदे ४३०/३९ ठिदिबंधपत्तगदे ४५०१५९ छिदिबंधपुछत्तगदे ४१५/२४ दिबंधसहस्सगदे ४१६/२५ ठिदिबंधसहस्सगदे ४२६/३८ ठिदिबंघसहस्सगदे ४४०/४६ ठिदिषसहस्सगदे ४८९/९८ ठिदिसत्तमघादीणं ४५८/६७ ठिदिसतं घादीणं "ख" ६१६/२२५ एट्ठा य रायदोसा ६१२/२२१ गवणोकसायविग्ध ४७०/८७ गवफड्ढमारण करणे ६१९/२२८ रावरि समुग्पादगदे ५९८/२०७ बामदुगे वेयरणीये ५२४/१३३ रग।सेदि परहारिणय १२४ ५२६/१३५ घादयदव्वादो पुरण ५०८/११७ चादितिया संखं ५४०/१४९ धादितियाणं बंधो ५५२/१६१ धादितियाणं बंधी ५५३/१६२ घादितियाणं सत्तं ६०१/२१० घादीणं मुहत्तं १४२ १८६ ५४ ६२५/२३४ चउसमएस रसास य ६२५ १२३ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. सं. गाथा पृ. सं. | गा. सं. गाथा पृ. सं. " " १४७ ५२ ११२ ४१८/२७ सक्काले ठिदिसतं ४२६/३५ तक्काले वेम रिपयं ५७६/१८८ तत्तो सुहुमं गच्छवि ६४५/२५४ तत्य गुणसेडिकरणं ५६१/१७० तदियगमायाचरिमे ५५८/१६७ तदिपस्स माणचरिमे ४३७/४६ तस्साणुपुग्विस कम ५८१/१६० ताणं पुए ठिदिसतं ४७६/८५ ताहे अपुब्बफड्ढय ४४७/५२ साहे असंखगुरिणयं ५१२१२१ ताहे कोहुच्छिलैं ४७५/८४ ताहे दब्यवहारो ४४६/५५ ताहे मोहो थोबो ४४५/५४ ताहे संखसहस्स ४६३/७२ ताहे संजलगाणं ४६६/७५ ताहे संजलणाणं ५३९/१४८ ताहे संजलगाणं ५५१/१६० ताहे संजलगाणं ३६२/१ तिकरण मुभयोसरण ५६९/२०८ तिण्हं घादीणं ठिदि६४९/२५८ तिहुवरणसिहरेण मही ४२८/३७ तीदे बंपसहस्से ४२३/३२ तेत्तियमेरो बंधे ४२४/३३ तेत्तिय मेत्ते बंधे ४२५/३४ तेत्तियमेत्ते बंधे 15 N wr wity yur ६E । ५०६/११८ पडिपदमणंतगुणिदा ४००/९ पढिसमयमसंखमुणं ५०२/१११ पडिसमयमसंवगुणं २१३ ५२३/१३२ पछिसमयमसंखेजदि ४५२६१ पडिसमयं प्रसुहार्ण ५२१/१३. पडिसमयं प्रगिदिशा ३९९८ पडिसमयं मोक्काहुदि ६१८/२२७ पडिसमयं दिश्वतम ८२ ५५९/१६ पढमगमाया चरिमे ५६१/२०० परमगुणसे डिसीसं ५१५/१२४ पढमस्स प संगहस्सय ४८१/९० पढमाणुभागखंडे ४७९/८८ पढमादिसु दिज्जकर्म ४८०/८९ पदमादिसु दिस्सकर्म ५७३/१०२ पदमादिसु दिस्सकम ४९६/१०५ पडमादिसंगहाभो ५४३/१५२ पढमादिसंगहाणं १४२ ६४१/२५० पढमे प्रसंखभागं ४१०/१९ पढमे छठे चरिमे १७४ ५४६/१५५ पदमो विदिये तदिये २१७ ३९५/४ पल्लस्स संनभाग ४०५/१४ पल्लस्स संखभागं ४१३/२२ पल्लस्स संखभागं ४१९/२८ पल्लस्स संखभार्ग ४३२/४१ पुणरवि मदिपरिभोगं ४५६/६९ पुरिसस्स य पढमहिदि ६०६/२१५ पुरिसोदयेण चरिद ६५०/२५९ पुचण्हस सिजोगो १८३ ४६८/७७ पुष्वाण फडुयाणं ५०४/११३ पुवादिम्मि अपुष्या १५५ ६३२/२४१ पुवादिषगरगाणं ५१०/११६ पुवापुन्यप्फड़य १२७ । ५१६/१२८ पुग्विल्लबंधजेट्स १३६ २२ ABAD WAN ४४४/५३ मीग्रद्धासंखेज्जा ६०७/२१६ श्रीपढद्विदिमेत्ता १८२ २१८ ५७२/१८१ वगपदभे सेसे ५७०/१७९ दब्बं पढमे समये ५३३/१४२ दिज्जदि प्रणत भागे २०६ ११८ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. सं. गाया पृ. सं. ११३ २१६ ९२ प्र. सं. | गा. सं. गाया ५१३/१२२ लोहादो कोहादो १७७ २४ ५०५/११४ बारेककारमणंत २०३ ५६०/१६६ विदियगमापाचरिमें ४९१/१०० विदितिभामरे किट्टी२५७/१६६ बिदियस्स माएपरिमे ५.१८/१२७ विदियादिसु चउठाणा ५७१/१८० विदियादिसु समयेसु १६ ४७७/८६ विदियादिसु समयेसु दि ६५२/२६१ वीरिंदणंदिवच्छे ५५०/१५९ वेदज्जादिििठदीए १४५ ११७ १२६ ४६ 014 ६०२/२११ बहुठिदिखछे तीदे ४१२/२१ बादरपढमे पढमं ६२८/२३७ बादरमरण बचि उस्सा ६४८/२५७ बाहत्तरि पयडीयो ५३१/१४० बंचणदब्बादो पुए। ५२९/१३८ बंधद्दन्वाणतिम ४४१/५. बघेण होदि उवो ४५३/६२ बंधेरण होदि उदो ४२७/३६ बंधे मोहादि कमे ४५५/६४ बंधोदएहि णियमा "म" ६४२/२४८ मज्झिमबहुभागुदया ५४९/१५८ माणतियकोहदिये ६०५/२१४ माणतियागुदयमहो ४६६/६५ माणादीपहियकमा ५७६/१८५ मायातियादो लोह५६२/१७१ मासपुषसं वासा ४२२/३१ मोहमपल्लासंख २३८ २१० १९७ २०३ ८८ १८७ ४६५/७४ रसखंडफड्यायो ४८७/९६ रसठिदिखडावं ४६४/७३ रससंतं प्रागहिदं ४७२/८१ सगसगफएहि ६२२/२३१ सहाणे मावग्जिद १७६ ६२९/२३७ सपिणविसुड्डमणि पुण्णे ४३६/४५ सत्तकरणारिण अंतर. ४४९/५८ ससरह पद्धद्विाद १४८ ४४८/५७ सप्ताहं पढमहिदि ६१३/२२२ सत्तण्ह पयडीएं ४५७/६६ सत्तण्हं संकामग ३९४/३ सत्त्थारणमसत्यारणं ४६१/७० समकणदोणि प्रावलि ४६९/७५ समसंह सविसेसं ६१७/२२६ समयढिदिगो बंधो ६४७/२५६ सीसेसि संपत्तो ५९२/२०१ सुहमदादो पहिया ६३१/२४० सुहमस्स य पढ़मादो ५६६/१७८ सुहुभामो किट्टीमो १०५ ५६४/२०३ सुहुमाणं किट्टीणं ५९५/२०४ सुहुमे संखसहस्से १५१ ४६२/७१ से काले प्रोवट्टणु१४९ ५११/१२० से काले किट्टियो१५६ | ५५४/१६३ से काले कोहस्स य १७० ५८.१८९ लोहस्स तिचादीणं ५७८/१८७ लोहस्स विदिकिट्रि ४९६/१०८ लोहादौ कोहो त्ति य ५००/१०६ लोहस्स अवरकिट्टिग ५०१/११. लोहस्स प्रवरकिट्टिग ५६६/१७५ लोहस्स तदियसंगह ५६८/१७७ लोहस्स पढमकिट्टी ५६३/१७२ लोहस्स पढमचरिमे ५७४/१८३ लोहस्स य तदियादो १५. ११२ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र सं. गा सं. गाथा 402/11 संकामेदुक्म दि 532/141 संस्खातीदगुरणारिणम 5351144 संगहनंतरजाणं 497/106 संगहो एक्केषके 438/47 संछुहादि परिसवेदे 434/43 संजलगाणं एक्कं 127 126 143 150 162 61 174 गा. सं. गाया 541/150 से काले कोहस्स य 646/255 से काले जोगिजियो 5551164 से काले माणस्स म 565/174 से काले लोहस्सय 5.82/191 से काले सुहुम गुम्णं 60.206 से काले सो खीण६३४/२४३ सेटिपदस्स असंख 638/247 सेद्धिपदस्स असंखं 564/173 से साणं पयडीरगं 507/116 सेसाणू वस्सारणं 651/260 सो मे तिहुवरणमहियो 456/65 सकमणं तदवत्यं 522/131 संकदि संगहाणु 534143 संकमदो किट्रीणं 125 208 141 48/67 हयकपणकरणचरिमे 110 528/137 हेहाकिट्टि पहुदिसु 226 503/112 हेढा असंखभागे 621/230 हेट्ठा दंउस्संतो 120 520/129 हेट्ठिमणुभयवरादो 128 / 485/94 होदि असंखेज्जगुणं 197