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________________ क्षपणासार ४८ ] [ गाथा ४७-४६ 'संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णउंसयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोह म्हि संछुह दि ॥१७॥४३८॥ कोहं च छुह दि माणे माणं मायाए णियमसा छुह दि। मायं च छुहदि लोहे पडिलोमो संकमो गास्थि ॥४८॥४३६॥ अर्थ:-स्त्रीवेद और नपुसकवेदसम्बन्धी द्रव्य तो पुरुषवेदमें ही संक्रमण करता है अन्यत्र नहीं । पुरुषवेद और हास्यादि छह ये सात नोकषायोंका द्रव्य संज्वलनशोधमें संक्रमण करता है। क्रोधकषायका द्रव्य मान में ही संक्रमण करता है, मानकषायका द्रव्य मायामें, मायाका द्रव्य लोभमें संक्रमण करता है । इसप्रकार संक्रमणके द्वारा अन्य - रूप परिणमनकर स्वयं नाशको प्राप्त होता है, यही आनुपूर्वीसंक्रमण जानना । प्रतिलोभ अर्थात् अन्यथा प्रकार संक्रमण अब नहीं होता है । "ठिदिवंधसहस्सगदे संडो संकामिदो हवे पुरिसे । पडिलमयमाणं संकामगधस्मितमोत्ति ॥४६॥४४०॥ अर्थः-हजारों स्थिति बंधापसरण व्यतीत हो जानेपर नपुसकवेदका संक्रमण पुरुषवेदमें हो जाता है । चरमसमयतक प्रतिसमय असंख्यातमुणे द्रव्यका संक्रमण होता है और चरमसमयमें सर्वसंक्रमण द्वारा नपुंसकवेदका सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेदमें संक्रान्त हो जाता है । __ विशेषार्थ:--अन्तरकरणके अनन्तरसमयसे लगाकर संख्यातहजार स्थितिबंध व्यतीत हो जानेपर नपुसकबेद पुरुषवेदमें संक्रमित होता है। नपुसकवेदकी क्षपणाके प्रथमसमयसे समय-समय प्रति असंख्यातगुणे क्रमसे संक्रमकालके अन्तसमयमें नपुसकवेदके द्रव्यका पुरुषवेदमें संक्रमण होता है सो समय-समय में जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह फालि है और अन्तमुहूर्तमात्र फालियोंका समूहरूप काण्डक है। इसप्रकार गुणसंक्रमणरूप अनुक्रमसे संख्यातहजारकाण्डक व्यतीत होनेपर अन्तसमय में जो अन्तिम १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गाथा १३८ के समान है। जयधवल मूल पृष्ठ १९८८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ट ७६५ गाथा १३६ के समान । जयधवल मूल पृष्ठ १९५६ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १६६७ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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