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गाथ। १०१-१०९ क्षयमासार
[१३ अश्वकर्णकरणके समाप्त होनेपर अर्थात् प्रथमभागका काल समाप्त होनेपर तदनन्तरकालमें अन्यस्थितिबन्ध होता है। जो पारों संज्वलनकषायोंका अन्तर्मुहुर्तकम आठवर्ष है और कर्मों का स्थितिबन्ध पूर्व के स्थितिबन्धसे संस्थातगुणाहीन है अन्य अतुभागकाण्ड क होता है । अन्य स्थितिकाण्डक होता है जो कि मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रौर अन्त राय इन चार शातियाकर्मोका संख्यातसहस्रवर्ष है और नामगोत्र, वेदनीय इन तीन अघातियाकोका असंख्यातबहुमाग है'।
कृष्टिकरणकाल में अश्वकरण भी होता है, क्योंकि अनुभाग की अपेक्षा कृष्टियों की रचना अश्वकर्णकरण भी होता है जिसके द्वारा संज्वलनकषायरूप कर्म कृश किया जाता है, उसकी कृष्टि यह सार्थक संज्ञा है । यह कृष्टिका लक्षण है।
कोहादीणं सगसगपुवापुव्वगदफड्डयेहितो । उक्कड्डिदण दव्वं ताएं किट्टी करेदि कमे ॥१०१॥४६२||
अर्थ-क्रोधादिके अपने-अपने पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोंसे अपकर्षित द्रव्यके द्वारा क्रमसे कृष्टियां करता है ।
विशेषार्थ-कृष्टिकारक प्रथम समय में क्रोधके पूर्व और अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर क्रोध कृष्टियों को करता है । मानके पूर्व अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मानकृष्टियों को करता है । मायाके पूर्व और अपूर्वस्पर्शकोंसे प्रदेशानका अपकर्षणकर मायाकृष्टियों को करता है । लोभके पूर्व-अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकर लोमकृष्टियोंको करता है ।
उक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिदिणिबद्धो फड्ढयगे सेसई गिभागो ॥१०२॥४६३॥
अर्थ-अपकर्षितद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजितकर उसमें से बहुभागद्रव्य स्वादर कृष्टियों में दिया जाता है और एकभाग पूर्व-अपूर्वस्पर्धकों में दिया जाता है।
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७-७६८ सूत्र ५८५-५८८ । २. किसं कम्मं कदं जम्हा, तम्हा किट्टी ।।७३३।। एदं लक्खणं ॥७३४।। (क. पा. सुत्त पृ. ८०८) ३. धवल पु०६ पृष्ठ ३७४.३७५ ।