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श्री भागीरथजी वर्णी की प्ररेणा से श्राप स्वाध्याय की ओर प्राकृष्ट हुए । इसके बाद यथा समय श्राध्यात्मिक संत पूज्य श्री क्षु. गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचायें से आपका सम्पर्क हुआ । उन्हीं की प्रेरणा से गुरुजी ने १८ श्रावकाचार ग्रन्थों का अभ्यास किया तथा उनसे [पुज्य वर्णीजी से] द्वितीय प्रतिमा के व्रत अंगीकृत किये । जबसे वकालात का कार्य छोड़ा तबसे आप प्रतिदिन निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहते थे । नित्य ८ से १२ घण्टों तक स्वाध्याय कर लेते थे। ऐसा अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी मैंने गृहस्थों में तो कहीं नहीं देखा । श्रापका स्वाध्याय अत्यन्त स्तुत्य था ।
यद्यपि श्राप अंग्रेजी व उर्दू हो पढ़े थे, परन्तु श्राश्मबल से एवं जिनवाणी माँ की सेवा के प्रसाद से आपने हिन्दी, संस्कृत व प्राकृत में भी प्रवेश पा लिया था। किसी भी गुरु से नियमित रूप से पढ़कर ज्ञान-लाभ लेने का अवसर आपको नहीं प्राप्त हुआ, अर्थात् श्राप स्वोपार्जित ज्ञानी थे । raat saur की अभीक्ष्णता के कारण अल्प समय में ही प्रापने कोई २०० दिगम्बर जैन शास्त्रों का सूक्ष्म स्वाध्याय कर लिया तथा साप कृष्ण समय में एक शीर्षस्थ करणानुयोगज्ञ के रूप में भारत में माने जाने लगे थे | धवला, जयघवला तथा महाघवला का अध्ययन तो श्रापको श्रतिसूक्ष्म एवं बेजोड़ था। इन तीनों ग्रन्थों के श्राप पारङ्गत बोद्धा थे । इन ग्रन्थों के अनेकों स्थल प्रापको कण्ठस्थ थे। श्री बद्रीप्रसादजी सरावगी, पटनासिटी ने ठोक ही कहा है
"वर्तमान में प्रकाशित धवला, जयघवला एवं महाबवला ग्रन्थों में गम्भीर व सूक्ष्म अध्ययन करके हजारों अशुद्धियां स्व. प्र. रतनचन्दजी ने पकड़ी थीं। कहां कितना विषय छूट गया था, कहां पर कितना ज्यादा है सब उनके पास नोट था ।"
सन् १९५४ से अन्त तक आपका "शंका समाधान - स्तम्भ " जैन संदेश एवं जैन गजट में आता रहा था। जिससे हजारों स्वाध्यायी मुमुक्षु लाभान्वित होते थे। अखिल भारतीय दि. जैन शास्त्री परिषद् के भाप ४ वर्षों तक [ १६६५ से ६९ ] मध्यक्ष भी रहे थे ।
आपका सम्पर्क विशिष्ट रूप से प. पू. स्व. शिवसागरजी महाराज के संघ से रहा था । परम पूज्य शिवसागरजी महाराज के दिबंगत होने के पश्चात् भी प. पू. भा. क. श्रुतसागरजी महाराज के संध से आपका सम्पर्क जीवनान्त तक बना रहा था ।
परमपूज्य श्रुतसागरजी महाराज एवं उनके संघ को प्रेरणा से जीवन के अन्तिम दो-तीन वर्षो में प्राप्ने वलत्रय आदि के आधार पर लब्धिसार-क्षपणासार तथा जोवकाण्ड की टीकाएं लिखीं, जो सिद्धान्तग्रन्थों के स्वाध्यायीजनों के लिये प्रतीव लाभास्पद सिद्ध होगो ।
बड़े सौभाग्य की बात है कि भीण्डर में ससंघ परमपूज्य आ. क. श्रुतसागरजी महाराज का पदार्पण हुआ तथा संघ से मेरा नैकटय बढ़ा 1 फलस्वरूप मुझे लब्धिसार-क्षपणासार की वाचना [ प.