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________________ क्षपणासार २२४ ] [गाया २५६ तत्त्वानुशासन में धर्मध्यानका जो लक्षण कहा गया है उससे भी सिद्ध है कि गृहस्थके धर्मध्यान नहीं होता, धयोंकि गृहस्थ के चारित्र नहीं होता । तद्यथा-- "सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धयं तदुध्यानमभ्यधुः' ।।" धर्मके ईश्वर गणधरादि देवोंने सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है जो उस रत्नत्रयरूप धर्म से उत्पन्न हो उसे ही आचार्यगण धर्मध्यान कहते हैं । गृहस्थके रत्व त्रयरूप धर्म नहीं होता अतः उसके धर्मध्यान भी नहीं होता। शङ्खा-आचार्योंने चतुर्थगुणस्थानसे धर्मध्यान कहा है तब फिर उपर्युक्त कथनका आचार्यवाक्योंसे विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान-चतुर्थादि गुणस्थानों में धर्मध्यानका निरुपण आगममें पाया जाता है, किन्तु वहां औपचारिक धर्मध्यान होता है, क्योंकि वहां प्रमाद विद्यमान है । तत्वानुशासन व भावसंग्रहमें कहा भी है-- "मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिहद्विधा ।। अप्रमत्तषु तन्मुख्यमितरेप्यौपचारिक' ।।" "मुक्खं धम्मज्माणं उत्त तु पभायविरहिए ठाणे । देसविरए पमत उक्यारेणेव णायव्वं ॥" मुख्य और उपचारके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है, उसमें से प्रमत्तगुणस्थावमें मुख्य और चतुर्थ-पंचम व छठे गुणस्थानमें औपचारिकधर्मध्यान होता है। गृहस्थों के दाम पूजादिको उपचारसे धर्मध्यान कहा गया है, क्योंकि गृहस्थधर्म में दानपूजादिको मुख्यता है । कहा भी है-- "तेषां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्वप्रतिपालनशील क्तरक्षणादिकं गृहस्यधर्मएवोपदिष्टं भवतीति भावार्थः । ये गृहस्थापि सन्तो मनागात्म भावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्यः ॥" १. तत्त्वानुशासन श्लोक ५१ । २. तत्वानुशासन एलोक ४७ ॥ ३. भावसंग्रह माथा ३७१। ४. मोक्षपाहुड़ गाथा २ को टीका ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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