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गाथा २५१ ]
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गृहस्थोंके दान-पूजा, पूर्व उपवास, सम्यक्त्व प्रतिपालन, शीलव्रतरक्षणादि धर्म कहा है, जो गृहस्थ होते हुए भी किचित् भी आत्मभावनाको प्राप्त करके अपने आपको ध्यानी कहते हैं वे जिनधर्मके विराधक मिथ्यादृष्टि हैं । और भी कहा है-
क्षपणासार
" जिण साहुगुणु कित्ताण-पसंसणा विणय दाण संपा । - सील-संजमरदा धम्मभाणे भुणेवा' ||
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जिनेन्द्र भगवान् और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करता, विनय करता, दानसम्पन्नता, श्रुत-शील व संयममें रत होना इत्यादि कार्य धर्मध्यान में होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । अतः गृहस्थके औपचारिक धर्मध्यान कहा गया है ।
यद्यपि गाथा २५ में प्रथम व द्वितीयशुक्लध्यानका ही कथन किया गया है, किन्तु यह कथन तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानको सूचनार्थ है । अतः तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन करते हैं
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तृतीयशुक्लध्यान है । क्रियाका अर्थ योग है, जो ध्यान पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता । जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिया कहा जाता है । सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिष्यान कहलाता है। यहां केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है इसलिए यह ध्यान अवितर्क है । अर्थान्तर व्यंजन - योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है ।
शंका - तृतीयशुवल ध्यानमें अर्थ- व्यञ्जन व योगकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ?
समाधान -- इनके अवलम्बन बिना ही युगपत् त्रिकालगोचर अशेषपदार्थों का ज्ञान होता है इसलिए इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिके अभावका ज्ञान होता है ।
"अविदक्कमबीचारं सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुमम्हि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं ||
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ७६ गाथा ५५ ।
२. घवल पु० १३ पृष्ठ ८३ ।