________________
पृष्ठ पंक्ति
प्रशुद्ध ५६ १४ प्रसंख्यातवें भाग गुणी
असंख्यात भाग गुरिणत अनन्तगरण ८९ १६ स्पर्धको को संख्या
स्पर्थकों के वर्गणामों की संख्या ५९ २२ वर्गमा का
सर्वधर्मणामों का ८९ २२-२३ पूर्वस्पर्धकों के अनन्त- भाग प्रमाण अब कि ८१ २५ जाता है ।
जाता है। ८१ २८ क्योंकि अनुभाग खण्ड के
क्योंकि प्रथम अनुभाव के नोट-पृष्ठ ८१ की टिप्पणी १-सकल अपूर्व स्पर्धक वर्गशाएं = एक गुणहानि की स्पर्धक संस्थापक स्पर्धनगत अनन्त वर्गणा
असंख्यात
जवकि सकलपूर्व स्पर्धक पूर्व स्पर्धक संबंधी नानागुणहा निशलाका एक गुणहानि में स्पर्षक संख्या
या
,-एक म्पर्धक की वर्गणाएँ x अनंत, एक गुणहानि में स्पर्पक संख्या
[ज. प. मूल पृ. २०४३ से ] , या सफल पूर्व स्पर्षक-एफ स्पर्धक गत अनंत दर्म एए। - अनन्त - एकगुणहानि में स्पर्धक संख्या
..........(ii) अब सूत्र (i) से सूत्र (ii) मैं मान स्पष्टतया अनन्त मुरणा होने से यह सिद्ध होता है कि---सकल अपूर्व स्पर्धक वर्मणामों से पूर्व स्पर्धकों की संख्या अनन्त गुणी है । इति सिद्धम् ।
१०
३
अनन्तगुणी उनकी वर्गणाओं से माया के पूर्व स्पर्धक
अनन्तगुणी वर्गणाओं से मायास्पर्धक है एवं जयधवल पु. ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त सूत्र से प्रदेशाग्र संख्यात गुरिणत है।
९६ ९६
११ १२
धवल पुरा ६ पृष्ट ३५६ उपर्युक्त कथन से प्रदेशाग्न सबसे कम हैं । तृतीय संग्रह कृष्टि में विशेष अधिक है कोष की तृतीय संग्रह कृष्टि से ऊपर उसकी ही प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशाग्र संख्यात भुषित है। से क्रोध कषाय को अंतराइ गाम । प्रर्थात् स्वस्थान गुणकार की "कृष्टि-अन्तर", ऐसी संशा है तथा परस्थान गुणकारों की "संग्रह कृष्टि अन्तर", ऐसी संज्ञा है। (जयवल मूल पृ० २०५०)
६ १ प्रकार प्रोध कषाय को १०० २३ अंतराइणाम १०० २७-२६ अर्थात् ........(जयघवल मूल'
पृष्ठ २०५१)