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________________ १७. ] लब्धिसार [ गाथ। २०६-२०७ माहात्म्यवश नहीं बांधता था, उनका अब कितने ही कालतक बन्ध करता हुआ विश्राम करता है। तत्पश्चात् कोई जीव दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका उपशम प्रारम्भ करता है तथा कोई जीव द्वितोयोपशम सम्यक्त्व सहित उपशमणि चढ़ता है उसके दर्शनमोहका उपशम विधान कहेंगे । अब दो गाथाओंमें दर्शनमोहके उपशमका निर्देश तथा उपशमणिपर चढ़ने की योग्यताके निर्देश पूर्वक वहां (वर्शनमोहोपशममें) गुणसंक्रमणके अभाव का प्रतिपादन करते हैं तत्तो नियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उसमदि । सम्मत्तप्पत्तिं वा अण्णं च गुणसेढिकरणविही ॥२०६॥ दंसणमोहुबसमणं तक्खवणं वा हु होदि चरिं तु । गुणसंकमो विज्जादे विज्झद वाधापवत्तं च ॥२०७।। अर्थ-अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनकरण विधिके द्वारा तीनों दर्शनमोहनीय कर्म प्रकृतियोंको एकसाथ उपशमाता है । गुणश्रेणि, करण व अन्य अर्थात् स्थितिकांडक, अनुभागकाण्डक आदि विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिके सदृश करता है । इस विधिके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम या क्षय होता है, किंतु उपशम होने में गुरणसंक्रमण नहीं होता। विध्यातसंक्रमण अथवा अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है। ____विशेषार्थ-विश्राम करने पश्चात् दर्शनमोहनीयका उपशम अर्थात् द्वितीयोपशम करने बालेके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो पहले प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के विधानमें कहे गये हैं, यहां भी जानना चाहिए, क्योंकि उनसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। उसीप्रकार स्थितिघात, अनुभागघात व गुणश्रेणी होती है । अधःप्रवृत्तकरणकालमें स्थितिघांत, अनुभागघात और गुणसंक्रमण नहीं है, केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ संख्यातहजार स्थितिबंधापसरण होते हैं, अप्रशस्त १. ज.ध. पु. १३ पृ. २०१ ।। २. गवरि एत्थ गुणसंकमो त्यि विज्झदो चेव, अप्पसत्यकम्मारवं अधापवत्तो वा (धवला पु. ६ पृ. २५६)
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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