________________
गाथा २०७ ] लब्धिसार
[ १७१ कर्मीका प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन विस्थानिक अनुभागका बन्ध होता है तथा प्रशस्तकर्मोंका अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे चतुःस्थानीय अनुभागका बन्ध होता है । अधःप्रवृत्तकरण काल समाप्त होनेके पश्चात् अनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण होता है और तभी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात व गुणश्रेणिका एकसाथ प्रारम्भ हो जाता है । वहां गुणसंक्रमण नहीं है । स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण है । अनुभागकाण्डकका प्रमाण अप्रशस्तकर्मोके अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभाग प्रमाण है। गणश्रेणिनिक्षेप, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनोंके कालसे विशेष अधिक गलितशेष आयामवाला है । स्थिति भी पल्योपमके संख्यातवेंभाग हीन बंधती है। एक स्थितिकांडककालके भीतर संख्यात हजार अनुभागकांडक होते हैं। अपूर्वकरणके पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। इन करणोंके द्वारा दर्शनमोहनीयकी उपशामना या क्षय होता है । ऐसा नियम है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहनीयकी उपशामनाप्रवृत्ति होती है, अन्यप्रकारसे नहीं । अनादि मिथ्यादृष्टिसे प्रतिबद्ध दर्शनमोहनीयको प्रथमोपशामनाका पूर्वमें कथन हो चुका है, किन्तु वह यहां उपयोगी नहीं है, क्योकि वह उपशमणिके योग्य नहीं है । वदकसम्यग्दृष्टि भी उपशमश्रेणिके योग्य नहीं है।
मिथ्यात्वसे उत्पन्न होने वाला उपशमसम्यक्त्व प्रथमोपशमसम्यक्त्व है यह चतुर्थगुणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक होता है । क्षयोपशमसम्यक्त्व अर्थात् वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाला द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। इन दोनोंमें द्वितीयोपशमसम्यक्त्व वाला उपशमणि चढ़कर चारित्रमोहनीयकी उपशामना करता है। यद्यपि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक किसी भी गुणस्थानमें क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यके हो सकता है, किन्तु विवक्षावश यहांपर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्तिका अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थानकी अपेक्षासे कथन किया है।
१. ज. ध पु. १३ पृ. २०३-४ । २. ज.ध. मूल पृ. १९१५, दोव्हं पि उबसमसेडिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो। ३. ज. प. पु. १३ पृ. २०२, प. पु. १.... ! ४. घ. पु. १ पृ. ११, स्वाभि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२.
गा. २०५ को टीका एवं धवल पु. १ पू. २१४-१५ ।