SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माग्द पृष्ठ परिभाषा है । क्योंकि उपशम थेणी पर चढ़ने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपनाम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्व का "प्रथमोपशम सम्यक्त्व" यह नाम नहीं है । क्योंकि उस सपणामणि वाले के उपशम सम्यक्त्य की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिये प्रथमोपशम सम्यमत्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिये । (घवल ६/२०६) इसीलिये तो कहा है कि-सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्पग्मिच्यादृष्टि मथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि इन जीवों के उस प्रथमोपशमसम्यक्त्व रूप पर्याय के द्वारा परिणमन होने की शक्ति का प्रभाव है । (धवल ६/२०६-७) प्रायोग्य विष कमों की स्थिति को अन्तःकोडाकोड़ी तथा अनुभाग को द्विस्थानिक करने को "प्रायोग्य लब्धि" कहते हैं। [च० सा० मा०७ पृ०७] बीसिया १८५ माम गोत्र को बीसिया कहते हैं । (क्योंकि इनकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा कोटी सागर होती है ।) वर्णचतुष्क १८ "वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श"; इन चार नाम कर्मों का जोड़ा वर्णचतुष्क कहलाता है । विशुद्धि सभि ५ क्षयोपशम लब्धि के होने पर साता प्रादि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों के बन्ध योग्य जो जीव के परिणामों का होना है। वहीं विशुद्धि लब्धि है। बिसंयोजना चारों अनन्तानुबन्धी कषायों को युगपत् विसंयोजना होती है। विसंयोजना अर्थाद "अप्रत्याख्यानावरणादि १२ कषायरूप और , नोकषायों में से ५ कषायरूप परिणमा देना ।" कहा भी है---अनन्तानुबन्धिचतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं । ज० घ. २/२१८-१९ शेष शेष में निक्षेप २६५, २६७ पद गलितावशेष गुणवणी । सकन चारित्र १५७ सकल सावध के विरतिस्वरूप पांच महावत, पांच समिति मौर तीन गुप्तियों को प्राप्त होने वाले मनुष्य के जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे संयम लब्धि या सकल संयम (सकलधारित्र) कहते हैं । मनन्तानुबन्धी प्रादि १२ कषायों की उदयामाव समरण उपशामना के होने पर यह उत्पन्न होता है। यद्यपि पहा भार .. संज्वलन और नौ नो कषायों का उदय है, परन्तु उनके सर्वघाति स्पर्षकों का . उदय नहीं रहने से उनका भी देशोपशम पाया जाता है।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy