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निर्व्याघात.
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परिभाषा अभिप्राय-प्रधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे मषःप्रवृत्त करण के काल के संख्यातवें भाग प्रमाण खण्डों में विभाजित हो जाते हैं। जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाण को लिये हुए होते हैं । यहां पर उन परिणामों के जितने भण्ड हुए; निर्वगणाकांडक भी उतने समय प्रमाण होता है । जिसको समाप्ति के बाद दूसरा निर्वगंणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। प्रागे भी इसीप्रकार जानना चाहिये । (ज० ५० १२/२३७ विशे०) स्थितिकाण्डकघात का प्रभाव निर्व्याघात कहलाता है । ( अपकर्षरण में ) ज० घ०८/२४७ उत्कर्षण में-पावली प्रमाण प्रतिस्थापना का प्रतिघात ही यहां व्याघातरूप से विवक्षित है । (ज. व.८ पृ. २५३) जहां प्रतिस्थापना एफ आवसी से कम पाई जाती है वहां साक्षात विषयक उत्कर्षण होता है । (ज.ध. ८/२६२) प्रतः जिस समय मावली प्रमाण प्रतिस्थापना बन जाती है वह प्रव्याघात (निाघात) विषयक उत्कर्षण कहन लाता है। अर्थात् प्रकृतिबन्ध म्युच्छित्ति। कहा भी है-'प्रकृतिबन्ध ब्युच्छित्तिरूप एक बन्धापसरण" । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि के प्रायोग्य लब्धि के समय ३४ प्रकृतिबन्धापसरण होते हैं (पृ. १०) जिनमें ४६ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है।। पृष्ठ १४ यह बन्धव्युच्छेद विशुद्धि को प्राप्त होने वाले भव्य भौर प्रभव्य मिथ्यादृष्टि में साधारण अर्थात् समान है ।(धवल ६ पृष्ठ १३५ से १३९) यहाँ (पवला में) प्रकृति बन्धापसरण की जगह "प्रकृत्ति बन्ध व्युच्छेद" शब्द ही काम लिया है । प्रकृति बन्ध का क्रम से घटना प्रकृतिबन्धापसरण कहलाता है । देखो-अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान की परिभाषा में !
F-
प्रकृतिबन्धापसरण
१.
प्रतिपद्यमान स्थान १५३ प्रतिपात स्थान प्रत्यावली २१६, २०८
प्रयमस्थिति .. .। प्रथमोपशम १, २, ३
मावली के ऊपर की जो दूसरी प्रावली है वह प्रत्यावली कही जाती है।
ज. प. १३/२६८-२६१ देखो-द्वितीयस्थिति की परिभाषा में। अनन्तानुबन्धी ४ और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्पक्त्व इन सात प्रकृतियों के उपशम से प्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह मिथ्या दृष्टि जीवों को ही होता
सम्यक्त्व
१ इसे द्वितीयावली भी कहते हैं ।