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क्षपणासार
[गाथा २२१
विशेषार्थ-ज्ञानाबरण व दर्शनावरण इन दोनोंके नाशसे के वलज्ञान और केवलदर्शन होता है । इनमें केवलज्ञान तो इन्द्रिय, मन व प्रकाशादिको सहायतारहित है इसलिए केवल है । परमाणु आदि सूक्ष्म हैं अतीत-अनागतकालसम्बन्धी अन्तरित अर्थात् द्रव्य अनादि-अनन्त है, अतीत में भो था और अनागत में भी रहेगा अतः द्रव्यको जाननेसे अतीत व अनागतका जानना हो जाता है तथा दुरवर्ती क्षेत्रमें स्थित 'दुर' कहलाता है । इन सूक्ष्म, अन्तरित व दूरवर्ती सर्वपदार्थोको केवलज्ञान युगपत् जानता है एवं केवलदर्शन देखता है । जैसे चन्द्र में शोतस्पर्श व श्वेतवर्णता युगपत् है वैसे जिनेन्द्रभगवान में केवलज्ञान व केवलदर्शन युगपत् प्रवर्तता है छमस्थजीवके समान क्रमवर्ती नहीं है । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयसे अप्रतिहत सामर्थ्यवाला अनन्तवीर्य होता है जिसके सद्भाव में समस्तज्ञेयोंको सदाकाल जानते हुए भी खेद उत्पन्न नहीं होता। अनन्तवीर्यके बलाधान विना निरन्तर अवस्थित उपयोगकी वृत्ति नहीं हो सकती। अनन्तवीर्य की सामर्थ्य विना अनवस्थित उपयोगका प्रसंग आ जावेगा'।
रणवणोकसायविग्घचउपकारणं च य खयादणंतसुई । अणुवममव्वावाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥२२१॥६१२॥
अर्थ-नयनोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे अनन्तसुख होता है और वह सुख अनुपम, अव्याबाध, अन्यको अपेक्षासे रहित आत्मासे उत्पन्न है ।
विशेषार्थ-नव नोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे होनेवाला अनन्तसुख अनुपम है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा सुख नहीं पाया जाता है, किसीके द्वारा बाधित नहीं है अतः अव्याबाध है, आत्मासे उत्पन्न होनेसे आत्मस मुत्थ है तथा इन्द्रियविषय, प्रकाशादिको अपेक्षासे रहित है इसलिए निरापेक्ष है । इसप्रकार ज्ञान वैराग्यकी उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ अनाकुललक्षण अनन्तसुख केवलीके पाया जाता है ।
१. "तव वीर्यविघ्नविलऐन समभवदनन्तर्यता । तत्र सकल भुवनाधिधमप्रभृति स्वशक्तिभिरव
स्थितो भवानिति ।।१४२।।" [जयधवल मूल पृष्ठ २२६६] २. "वीतरागहेतुप्रभवं न चेत्सुखं न नाम किंचितदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव नास्ति
तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयियेन केवलम् ॥१४४।। [जयघवल मूल पृष्ठ २२७०]