________________
गाथा १८ ] लब्धिसार
[ १५ नहीं बंध नेवाली प्रकृतियोंका स्पष्टीकरणं इसप्रकार है-असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चारोंपायु, नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थानको छोड़कर शेष पांचसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, माहारशरीर अगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहननको छोड़ कर शेष - पांच संहनन,नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीति, नीचगोत्र, और तीर्थकर' । इनमेंसे अपनी-अपनी बन्ध-अयोग्य प्रकतियों को घटाकर शेष प्रकृति योंका बन्धापसरणों द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है।
भवनत्रिक (भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष) देवों व सौधर्म-ऐशानस्वर्गके देवोंमें तिर्यगायु, मनुष्यायु, एकेन्द्रिय, प्रातप, स्थावर, तिथंचगति, ति यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, हुण्डकसंस्थान, असंप्राप्तासुपाटिकासंहनन, नपुसकवेद. वामनसंस्थान, कीलितसंहनन, कब्जकसंस्थान, अर्धनाराचसंहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसंस्थान, नाराचसंहनन, न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराचसंहनन, अस्थिर, अशुभ, अयश कीति, अरति, शोक, असातावेदनीय इन ३१ प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छिति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके होती है। प्रथमादि छहनरक और तृतीयस्वर्ग से बारहवेस्वर्गत कके जीवोंमें उपर्युक्त ३१ प्रकृतियोंमेंसे बन्धके अयोग्य एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंको कम करनेसे शेष २८ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति सम्यक्त्वके अभिमुखजीवके होती हैं । १३३ स्वर्गसे १६वें स्वर्ग तथा नौग्र बेयकतकके देवोंमें उपर्युक्त २८ प्रकृतियोंमें से बन्धके अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन चार प्रकृतियोंको कम करनेसे शेष २४ प्रकृतियोंको बन्धव्यच्छिन्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुग्त्रजीवके होती है।
शंका-जिसप्रकार मनुष्य व तिर्यचोंके औदारिकशरीर और प्रौदारिकगंगोपांग इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उसीप्रकार उसी विशुद्धि में वर्तमान देव और नारकियोंके प्रौदारिकशरीर व अंगोपांगका बन्धव्युच्छेद क्यों नहीं होता ?
__समाधान - सहकारीकारणरूप मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके उदयसे वजित अकेली (केवल) विशुद्धि औदारिकशरीर व औदारिकशरीरअङ्गोपाङ्गका बन्धव्युच्छेद १. ध. पु ६ पृ. १४१-४२ 1 एवं जयधवल पु. १२ पृ. २२५