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लब्धिसार
[ गाथा १६
करनेमें समर्थ नहीं है, क्योंकि कारणसामग्नीसे उत्पन्न होनेवाले कार्यको विकलकारणसे उत्पत्तिका विरोध है । देव और नारकियोंमें प्रौदारिकशरीरादि प्रकृतियोंका ध्र वबन्ध होता है अतः उनकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती है । इसीप्रकार वज्रर्षभनाराचसंहननके विषयमें भी जानना चाहिए'।
अब सातवीं नरकपृथ्वीमें बंधापसरणपदोंको कहते हैंते चेवेककारपदा तदिऊण। विदियठाणसंपत्ता ।
चउवीसदिमेण णा सत्तमिपुडविम्हि भोसरणा ॥१६॥ .. अर्थ-गाथा १८ में कहे गये ११ बन्धापसरणोंमें से तीसरा व २४वां बन्धापसरण घटानेपर तथा दूसरा बन्धापसरण मिलानेपर सातवीं नरकपृथ्वीमें १० बन्धापरण होते हैं । - विशेषाथ-सातवें नरकमें मनुष्यायु बन्धयोग्य नहीं है इसलिये तीसरा बंधापसरण कम किया गया है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवें नरकके नारकीजीवके नीचगोत्रकी बन्धव्यच्छित्ति नहीं होती। अतः २४वां बन्धापसरण भी कम किया गया है । मिथ्यादृष्टि सप्तमपृथ्वीस्थ नारकीके तिर्यंचायु बंधयोग्य है, किंतु प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके तिर्यंचायुकी बंधव्युच्छित्ति हो जाती है अतः दूसरा बंधापसरण मिलाया गया है । इसप्रकार सप्तमनरकमें १० बंधापसरण होते हैं, जिनके द्वारा २३ प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति होती है । सप्तमनरकमें बन्धयोग्य ६६ प्रकृतियां है, उसमेंसे २३ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर ७३ प्रकृतियां बन्धयोग्य शेष रह जाती हैं । इन ७३ प्रकृतियों में उद्योतप्रकृतिका बन्ध भजनीय है अर्थात् बन्ध होता भी है और नहीं भी होता है । यदि उद्योतप्रकृति बंधती है तो ७३ प्रकृतियोंका बंध होता है, यदि उद्योतका बन्ध नहीं होता तो ७२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । - शंका-तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंकी सातवें नरकमें बन्ध व्युच्छित्ति क्यों नहीं होती ?
२. ज.ध.पु. १२ पृ. २२३; ध. पु. ८ प. ११०; गो. क. गा. १०७ । ३. गो. क. गा. १०५ से १०७ की टीका व मूल एवं ज.ध. पु. १२ पृ. २२५ । क. पा. सुत्त पृ. ६१६